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युवा आलोचक। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत। दलित साहित्य, नवजागरण और बांग्ला साहित्य में विशेष रुचि है। |
भारतेंदु हरिश्चंद्र को पैंतीस साल की आयु मिली थी। उस अल्पायु में उन्होंने हिंदी-क्षेत्र की जनता के उत्थान के लिए जो कार्य किया, वह अविस्मरणीय है। हिंदी साहित्य में उनका प्रादुर्भाव किसी युगांतकारी घटना से कम नहीं है। साहित्य जगत में प्रवेश करते ही उन्होंने सबसे पहले हिंदी साहित्य को दरबारी संस्कृति से बाहर निकाला और उसे सामान्य जन के साथ जोड़ दिया।
भारतेंदु की गिनती हिंदी के उन प्रमुख साहित्यकारों में की जाती है, जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत पूंजी लगाकर हिंदी भाषा, साहित्य और समाज की सेवा की। वह सही अर्थों में हिंदी भाषी-प्रदेश में नवजागरण के अग्रदूत हैं। उन्होंने अपनी प्रतिभा के दम पर हिंदी साहित्य में नई गद्य विधाओं की शुरुआत की, खड़ी बोली हिंदी को गद्य की भाषा बनाया, पत्र-पत्रिकाओं का सफलतापूर्वक संपादन किया और हिंदी साहित्यकारों की एक ऐसी मंडली तैयार की, जिनसे लोग आज भी प्रेरणा लेते हैं।
स्वतंत्रता के बाद हिंदी प्रदेशों में शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई है। यहां प्राथमिक एवं उच्च शिक्षा के विकास के लिए बड़े-बड़े स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय की स्थापना हुई है। प्रायः हर छोटे-बड़े शहर में मेडिकल और इंजीनियरिंग की शिक्षा के लिए नए-नए संस्थान स्थापित किए गए हैं। हिंदी-प्रदेश में शिक्षा का स्तर पहले से बेहतर है। लेकिन आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले हिंदी-प्रदेश की स्थिति ऐसी नहीं थी। शिक्षा के मामले में इसे सबसे पिछड़ा प्रांत माना जाता था। इसका सबसे बड़ा कारण यहां के लोगों की रूढ़िवादी मानसिकता है, जिसने यहां के लोगों को बहुत दिनों तक शिक्षा से दूर रखा।
दूसरी तरफ जाति-प्रथा ने इस कार्य में आग में घी डालने का काम किया। इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षा-व्यवस्था पर कुछ जाति विशेष के लोगों का अधिकार हो गया और समाज का बहुत बड़ा वर्ग शिक्षा के अधिकार से सदा के लिए वंचित हो गया।
भारतेंदु के जमाने में हिंदी-प्रदेश में तीन तरह की शिक्षा-व्यवस्था प्रचलन में थी। पहली, परंपरावादी शिक्षा थी। इसके अंतर्गत वेद, पुराण, उपनिषद ज्योतिषशास्त्र के साथ-साथ संस्कृत भाषा और साहित्य की शिक्षा दी जाती थी। इसे बढ़ावा देने के लिए गुरुकुल परंपरा के अनुरूप कई विद्यालय एवं संस्थाएं थीं।
दूसरी, इस्लाम धर्म एवं संस्कृति पर आधारित शिक्षा थी। इसके अंतर्गत अरबी, फ़ारसी, उर्दू और कुरआन की शिक्षा दी जाती थी। ऐसी शिक्षा के प्रति मुस्लिम समाज की रुचि सबसे ज्यादा थी। हालांकि फारसी उस समय प्रशासन की भाषा थी और हिंदू भी इसे सीखते थे और व्यवाहारिक जीवन के काम में भी लाते थे।
तीसरी, यूरोपीय साहित्य एवं विज्ञान पर आधारित पाश्चात्य शिक्षा थी, जो यहां के लोगों के लिए बिलकुल नई और आधुनिक थी। इस नई शिक्षा की शुरुआत कलकत्ता से हुई थी। यहां डेविड हेयर, हिंदू कॉलेज (वर्तमान में प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय) हिंदू स्कूल, बेथुन कॉलेज, स्कॉटिश चर्च कॉलेज, फोर्ट विलियम कॉलेज जैसे बड़े-बड़े शिक्षण संस्थान स्थापित किए गए थे। इसके अलावा अंग्रेजी शिक्षा को राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ावा देने के लिए 1857 में तीनों प्रेसीडेंसियों (बंगाल प्रेसीडेंसी, बांबे प्रेसीडेंसी और मद्रास प्रेसीडेंसी) में एक-एक विश्वविद्यालयों – (कलकत्ता विश्वविद्यालय, बांबे विश्वविद्यालय और मद्रास विश्वविद्यालय) की भी स्थापना हुई थी।
असल में ब्रिटिश साम्राज्य पूरे देश में अंग्रेजी शिक्षा लागू करना चाहती थी। इसलिए उन्होंने जगह-जगह शिक्षण-संस्थान खोलना शुरू किया था। आगे चलकर लार्ड रिपन ने अंग्रेजी शिक्षा नीति को व्यवस्थित ढंग से पूरे देश में लागू करने के लिए 1882 में एक कमीशन का गठन किया। प्रसिद्ध इतिहासकार विलियम हंटर इसके अध्यक्ष बनाए गए। हंटर की अध्यक्षता में आयोग का गठन होने के कारण इसका नाम हंटर कमीशन पड़ा। हंटर आयोग ने विभिन्न प्रांतों में जाकर तत्कालीन शिक्षा-व्यवस्था की जांच की। फिर उसपर विचार-विमर्श करने के लिए देश के बड़े-बड़े शिक्षाविदों और विद्वानों को आमंत्रित किया। उनमें सर सैय्यद अहमद खां, राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिंद’ और भारतेंदु हरिश्चंद्र मुख्य रूप से शामिल थे।
भारतेंदु शारीरिक अस्वस्थता के कारण उपर्युक्त बैठक में उपस्थित नहीं हुए, लेकिन आयोग द्वारा दिए गए सत्तर प्रश्नों का उत्तर सरकार के पास लिखकर भेजा था। उनका वक्तव्य मूल रूप से अंग्रेजी में है, जिसे बाद में ‘एजुकेशन कमीशन एविडेंस ऑफ बाबू हरिश्चंद्र’ के नाम से प्रकाशित किया गया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र तत्कालीन शिक्षा-व्यवस्था के तीनों रूपों से परिचित थे। यहां एक बात ध्यान देनेवाली है, आयोग के गठन होने के बहुत पहले से भारतेंदु ने हिंदी-प्रदेश की शिक्षा-व्यवस्था पर सोचना शुरू कर दिया था। आयोग के गठन होने से उन्हें सरकार तक अपने शिक्षा संबंधी सुझाव पहुंचाने का एक जरिया मिल जाता है। उन्होंने अपने लेखों एवं भाषणों में कई बार स्पष्ट किया है कि वर्तमान समय में जिस तरह की शिक्षा लोगों को दी जा रही है, वह पर्याप्त नहीं है। उसमें मूलभूत परिवर्तन करने की आवश्यकता है। साथ ही उसे ऐसा बनाए जाने की जरूरत है, जिससे उसका लाभ साधारण से साधारण व्यक्ति आसानी से उठा सके।
कहा जा सकता है कि भारतेंदु तत्कालीन शिक्षा-व्यवस्था से संतुष्ट नहीं थे। वह उसमें बदलाव चाहते थे। वे यह बदलाव अंग्रेजी शिक्षा के जरिए पूरा करना चाहते थे। उनका झुकाव अंग्रेजी शिक्षा की ओर था। अंग्रेजी शिक्षा का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा था, ‘अंग्रेजी सरकार के शुभ शासन और उसकी प्रौढ़ शिक्षा-पद्धति से भारत के बच्चे सभ्यता, स्वतंत्रता और स्वावलंबन के साए में ढल जाएंगे।’ भारतेंदु अंग्रेजी शिक्षा के महत्व को समझ रहे थे। इसलिए उन्होंने खुले मन से अंग्रेजी शिक्षा का स्वागत किया था। भारतेंदु ने हिंदुस्तानियों को अंग्रेजी शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया था, पर उनका ध्यान शिल्प और कौशल विद्या पर सबसे ज्यादा था। कागज बनाना, रेल बनाना, फोटो खींचना आदि विद्या को वह अंग्रेजों से सीखने के लिए कहते हैं। वह हिंदी-प्रदेश में एक शिल्प विद्या का टेकनिकल कॉलेज भी खोलना चाहते थे, जहां हिंदी भाषियों को ज्ञान-विज्ञान के विषय अंग्रेजी में नहीं हिंदी माध्यम से पढ़ाए जाएं।
भारतेंदु एक साथ कई मोर्चों पर काम कर रहे थे। शिक्षा-संबंधी सुधार कार्य उनके महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है। वह हिंदी-प्रदेश के लोगों को आधुनिक एवं वैज्ञानिक शिक्षा के साथ जोड़ना चाहते थे। हिंदी भाषा और साहित्य की समृद्धि पर विचार करते हुए उन्होंने कहा था, ‘अपने देशवासियों के शैक्षिक स्तर को ऊंचा उठाना, इस प्रांत की भाषा में सुधार करना तथा इस भाषा में साहित्य वृद्धि करना सदैव मेरा ध्येय रहा है। अपने देशवासियों की शैक्षिक उन्नति से मुझे सदैव हर्ष प्राप्त होता है।’ भारतेंदु के इस वक्तव्य से पता चलता है कि वह हिंदी-प्रदेश के लोगों के लिए चिंतित थे और उनके शैक्षणिक स्तर में सुधार लाने के लिए गंभीरता से विचार कर रहे थे।
भारतेंदु ने अपनी शिक्षा-नीति में सबसे पहले हिंदी-प्रदेश की भाषाई समस्या पर विचार किया हैं। उन्होंने अंग्रेजी सरकार को ध्यान दिलाया है कि यहां शिक्षा और अदालत (कानून और प्रशासन) की दो अलग-अलग भाषाएं हैं। एक तरफ फारसी लिपि और उर्दू है, जो अदालत और दफ्तर की भाषा है और दूसरी तरफ हिंदी है, जो यहां की बहुसंख्यक जनता की भाषा है। ऐसे में जब कोई छात्र हिंदी माध्यम से पढ़कर नौकरी के लिए आता है तब उसे भाषागत समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
इस विषय पर सरकार का ध्यान आकृष्ट करते हुए उन्होंने लिखा, ‘इस प्रांत की प्राथमिक पाठशालाओं में हिंदी भाषा की लिपि का प्रयोग प्रायः किया जाता है, परंतु अदालतों और दफ्तरों में फारसी भाषा की लिपि का प्रयोग होता है। अतः एक ग्रामीण लड़का जो प्राथमिक शिक्षा अपने गांव में प्राप्त करता है, उसका कोई मूल्य नहीं है, कोई फल नहीं है…। अपने पूर्वजों की भांति वह भी बिलकुल अज्ञान में रहता है, तथा वह उस घसीट लिपि (उर्दू) को पढ़ने में बिलकुल असमर्थ है जिसे अदालत का अमला प्रयोग में लाता है।’
भारतेंदु ऐसी भाषा के पक्ष में नहीं हैं, जो साधारण जनता की समझ से परे है। भारतेंदु आगे लिखते हैं, ‘सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली और लिपि का प्रयोग किया जाता है। यही ऐसा देश है जहां अदालती भाषा न तो शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की।’ भारतेंदु शिक्षा और अदालत की भाषा में सामंजस्य बैठाने की कोशिश कर रहे थे। यह सामंजस्य वे भाषागत एकरूपता के जरिए पूरा करना चाहते थे। उनकी दृष्टि में हिंदी प्रदेश की भाषा हिंदी है। इसलिए इसे ही शिक्षा और अदालत की भाषा बनाया जा सकता है।
भारतेंदु ने अपने वक्तव्य में यह भी कहा है कि देवनागरी लिपि में हिंदी को अदालत की भाषा बनाया जाए। उनके अनुसार यहां हिंदी जानने वालों की संख्या बहुत अधिक है जबकि फारसी लिपि व उर्दू थोड़े से पढ़े-लिखे लोगों की भाषा है। भारतेंदु लिखते हैं, ‘यदि हिंदी को मान्यता मिल जाए तो फिर अदालतों के लगुए-बंधुए लोग जिन्होंने प्रचलित लिखावट को स्थायी आय का साधन बना लिया है, अपनी जेबें न भर पावेंगे। ऐसे बड़े और कठिन फारसी शब्दों का प्रयोग किया जाता है जो जमींदारों, किसानों तथा व्यापारियों ने कभी सुने ही नहीं। उद्देश्य यह है कि इनका अर्थ समझाने वाले उर्दू ज्ञाता लोग खूब खाते-कमाते रहे हैं। यदि हिंदी अदालती भाषा हो जाए तो सम्मन पढ़वाने के लिए दो-चार आने कौन देगा, और साधारण सी अर्जी लिखवाने के लिए कोई रुपया-आठ आने क्यों देगा।’ भारतेंदु ने स्पष्ट किया है कि फारसी लिपि को आय का एक जरिया बना लिया गया है। यहां समन पढ़ने और अर्जी लिखवाने तक के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। भारतेंदु इस तरह की भाषागत विषमता के खिलाफ हैं, जहां भाषा- अज्ञान के कारण लोगों को गुमराह और लूटने का काम किया जाता है। उनकी दृष्टि में उर्दू के साथ-साथ हिंदी को अदालत आदि की भाषा का दर्जा न देना एक तरह से अन्याय है। गौर करने की बात है कि वे उर्दू को अदालत से हटाने की मांग किसी जगह नहीं कहते।
स्वाधीनता के बाद हिंदी-प्रदेश की अदालती भाषा में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं हुआ है। यहां हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया, लेकिन उसके साथ अंग्रेजी को भी रखा गया है। परिणाम यह हुआ कि हिंदी प्रदेश के न्यायालय, उच्च न्यायालय एवं बड़े-बड़े शिक्षण संस्थानों में आज भी सारा कामकाज अंग्रेजी में होता है और हिंदी नाम मात्र की राजभाषा है।
भारतेंदु के समय कई तरह के देशी प्रणाली के स्कूल थे। इन स्कूलों को किसी तरह का सरकारी संरक्षण प्राप्त नहीं था। इनमें जिस तरह की शिक्षा दी जाती थी, उसपर भारतेंदु ने विस्तार से लिखा है। उनके अनुसार देशी प्रणाली के चटसालों में ‘पहाड़े, जबानी हिसाब, गणित के चार नियम तथा नागरी, कैथी या महाजनी-लिपि की शिक्षा देते हैं।’ इन स्कूलों में अध्यापक बहुत सीमित योग्यता के कायस्थ होते थे। इनका ज्ञान मात्र बच्चों को देने भर तक सीमित होता था। इनकी भर्ती के बारे में भी कोई विशेष नियम नहीं था। यह पेशा पैतृक संपत्ति की तरह पिता से होते हुए पुत्र को मिल जाता था। इसी तरह संस्कृत पाठशालाएं थीं, जहां संस्कृत के द्वारा विभिन्न विषयों (व्याकरण, तर्कशास्त्र, साहित्य, ज्योतिष, खगोलशास्त्र आदि) की शिक्षा मिलती थी। कुछ धार्मिक स्कूल थे, जहां वेदों के विभिन्न भाष्यों (मीमांसा, वेदांत) की शिक्षा मिलती थी। व्यवहार गणित के स्कूल थे, इनका संचालन मुनीम लोग करते थे।
उपरोक्त सभी स्कूलों में केवल हिंदू ही पढ़ने आते थे। इसी तरह ‘मकतब’ में फारसी साहित्य की शिक्षा मिलती थी। मौलवी अध्यापक नियुक्त किए जाते थे। इन स्कूलों में हिन्दू और मुसलमान दोनों पढ़ने आते थे। ‘अरबी स्कूल’ में अरबी साहित्य, व्याकरण, तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र के विषय पढ़ाए जाते थे। इन स्कूलों का उद्देश्य इस्लाम को समृद्ध करना था। ‘कुरआन स्कूल’ भी थे, जहां धार्मिक शिक्षा दी जाती थी।
भारतेंदु की दृष्टि में उपरोक्त स्कूल अब महत्व के नहीं रह गए थे। उनके अनुसार इन स्कूलों पर सरकारी खर्च करना एक तरह से फिजूलखर्ची है। इनमें से किसी स्कूल में अच्छे अनुशासन की पढ़ाई नहीं होती और न यहां कोई निश्चित पाठ्यक्रम है। यहां की पढ़ाई का स्तर बहुत नीचा है। शिक्षकों कि नियुक्ति से लेकर बच्चों की पढ़ाई तक में कोई नियम नहीं अपनाया जाता है। पुरानी परिपाटी पर आधारित इन स्कूलों को राष्ट्र की शिक्षा का अंग नहीं बनाया जा सकता है। भारतेंदु शिक्षा का आधुनिक एवं नवीन रूप लागू करना चाहते थे। वह सदियों से चली आ रही एक ही तरह की शिक्षा पद्धति में संशोधन करना चाहते थे।
देशी प्रणाली के स्कूलों में कुछ ऐसे विषय जरूर पढ़ाए जाते हैं, जिन्हें भारतेंदु ने अंग्रेजी शिक्षा से बेहतर बताया है और समर्थन किया है, ‘पहाड़े सिखाने का वह ढंग जो चटसाल स्कूलों में प्रचलित है, अपनाया जाए। वह निस्संदेह इस विषय के यूरोपीय ढंग से अधिक उत्तम है। मौखिक गणित पर अधिक ध्यान दिया जाए, इससे बुद्धि में तीव्रता आती है। गणित में ये विषय सिखाए जाएं- जोड़, घटाना, गुणा, भाग, साधारण व मिश्रित भिन्न, अनुपात व समानुपात, साधारण ब्याज, दस्तूरी, लाभ, हानि, साझा, प्रतिशत और बहीखाता। लेखन- सुलेख, इमला, और सरल निबंध। पठन- रामायण के खंड, भारत में प्रचलित कृषि के ढंग पर निबंध, नैतिकता पर पाठ, राजस्व और भूमिकर संबंधी नियम, पटवारी के कागजात के विवरण पर निबंध तथा जिले का नक्शा’ जैसे विषय छात्रों को पढ़ाया जाना चाहिए।
इसके अलावा क्षेत्रमिति, भूमि सर्वेक्षण, रेखागणित, भारत का इतिहास, भूगोल जैसे विषय भी बच्चों को सिखाने चाहिए। भारतेंदु ने उपरोक्त जिन विषयों को सीखने के लिए सुझाव दिया है, उनमें कई विषय आज भी स्कूलों में पढ़ाए जाते हैं।
भारतेंदु ने घरेलू शिक्षा का भी उल्लेख किया है। वे इसे बहुत उपयोगी नहीं मानते। उस समय सेठ, महाजन, राजा, जमींदार अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते थे, बल्कि घर पर ही उनके पढ़ने का इंतजाम कर देते थे। भारतेंदु इस तरह की शिक्षा को बहुत तुच्छ मानते थे। उनके अनुसार ऐसी शिक्षा ‘कुछ संकुचित ढंग की होती है, वह यूरोपीय सिद्धांतों से भिन्न होती है।’ ऐसी शिक्षा से छात्र अपना भविष्य नहीं बना सकते और न ही किसी दूसरे छात्रों के साथ प्रतिस्पर्धा ही कर सकते हैं। इस तरह की शिक्षा एक या दो भाषाओं के साहित्य तक सीमित रह जाती है, वह लिखते हैं, ‘घर पर पढ़ा हुआ लड़का उन लड़कों का मुकाबला नहीं कर सकता, जिन्होंने सार्वजनिक स्कूल में शिक्षा पाई है। कलकत्ता विश्वविद्यालय की परीक्षाओं से मेरे कथन की सत्यता सिद्ध हो जाएगी।’ भारतेंदु की दृष्टि में सरकारी प्रबंधनों से चलाए जा रहे स्कूलों एवं विश्वविद्यालयों की स्थिति अच्छी है। यहां पढ़कर छात्र किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में बैठ सकता है।
भारतेंदु ने सरकार के सामने प्रस्ताव रखा था कि प्राथमिक स्तर पर सभी लोगों के लिए शिक्षा अनिवार्य कर देनी चाहिए। उन्होंने अपने आस–पास और दूर–दराज के गांवों–कस्बों को बहुत करीब से देखा था और महसूस किया है कि यहां के लोगों में शिक्षा की भारी कमी है और यह एक विकराल समस्या का रूप धारण करती जा रही है। उस समय निरक्षरता हिंदी–प्रदेश की एक बहुत बड़ी समस्या थी और यह समस्या आजादी के कई वर्षों बाद तक बनी रही। बाद में भारत सरकार ने बड़े पैमाने पर साक्षरता अभियान चलाकर इसे कम करने की कोशिश की।
भारतेंदु ने इंग्लैंड और यूरोपीय देशों का हवाला देकर सरकार को समझाया कि उन देशों की भांति भारत में भी सभी लोगों के लिए प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य कर देनी चाहिए। उनके अनुसार लोगों में धीरे-धीरे शिक्षा के प्रति जागरूकता फैल रही है। अंग्रेजी सरकार को वह लिखते हैं, ‘शिक्षा की चाह सामान्यतः सब लोगों में है, वह किसी वर्ग विशेष तक सीमित नहीं है।’ आगे लिखते हैं, ‘जनता के किसी भी वर्ग के लिए प्रारंभिक शिक्षा का दरवाजा बंद नहीं है। जनता के प्रभावशाली वर्ग, विशेषरूप से हिंदू, जो नगरों और बड़े कस्बों में बसे हुए हैं- वे भी जो प्रांतों में रहते हैं- मन से चाहते हैं कि सब लोग, चाहे वे उच्च कोटि के हों या निम्न कोटि के, प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करें।’ स्पष्ट है, भारतेंदु समाज के सभी वर्गों के लोगों को प्राथमिक शिक्षा के साथ जोड़ना चाहते थे।
भारतेंदु ने सरकार के सामने शिक्षा को निःशुल्क बनाने की भी मांग उठाई थी। वह हिंदी-प्रदेश के ज्यादा से ज्यादा लोगों को शिक्षित करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सरकार के सामने निःशुल्क शिक्षा की मांग रखी थी। वर्तमान समय में शिक्षा का रूप बहुत बदल गया है। एक तरह से उसका बाजारीकरण हो चुका है। माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए बहुत पैसा खर्च कर रहे हैं। दूसरी तरफ स्कूलों एवं विश्वविद्यालयों में भी लगातार फीस वृद्धि हो रही है, जिसके कारण किसान, मजदूर और दलित के बच्चे पढ़ने से वंचित रह जाते हैं।
भारतेंदु ने वर्षों पहले इस समस्या पर विचार करना शुरू किया था और अपने प्रस्ताव में निःशुल्क शिक्षा के लिए जोर दिया था। वह चाहते थे कि सरकार शिक्षा को पूरी तरह से निःशुल्क बनाए, जिससे सरकारी संस्थानों में पढ़ रहे छात्रों को किसी तरह का शुल्क न देना पड़े। असल में भारतेंदु शिक्षा का जनवादी रूप विकसित करना चाहते थे। वह अच्छी तरह समझते थे कि यदि शिक्षा पर शुल्क रखा गया तो बहुत कम लोग इससे जुड़ पाएंगे। साधारण जनता आर्थिक बदहाली से पहले ही परेशान है, ऊपर से शिक्षा पर शुल्क रखा गया तो वह इसका भार नहीं उठा पाएगी। इससे शिक्षा कार्य प्रभावित होगा।
शिक्षा के अभाव में लोग अपने अधिकारों को नहीं समझ पाते हैं। भारतेंदु के अनुसार अंग्रेजी सरकार यहां के लोगों से खूब सारा कर वसूलती है। हिंदी-प्रदेश के लोगों पर अपनी खिन्नता प्रकट करते हुए भारतेंदु लिखते हैं, ‘यद्यपि इस देश के लोग प्राथमिक शिक्षा के लिए स्थानीय टैक्स (कर) देते हैं, परंतु उन्हें इस बात की कोई खास परवाह नहीं है कि उनके गांव में कोई स्कूल खोला जा रहा है या बंद किया जा रहा है। वे शिक्षा कर का भुगतान यह समझकर करते हैं कि यह सरकारी कर है। उनमें यह विचार पैदा नहीं होता कि इसके साथ उनका हित भी संबद्ध है।’ वर्तमान समय में भी जनता की कुछ ऐसी ही मानसिकता है।
हिंदी-प्रदेश शुरू से सामंतवाद का गढ़ रहा है। जहां सामंतवाद मजबूत होगा, वहां जाति-व्यवस्था भी मजबूत होगी। भारतेंदु दलितों की दयनीय स्थिति से अच्छी तरह परिचित थे। दलितों के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुए उन्होंने कहा था, ‘जाति में कोई चाहे ऊंचा हो चाहे नीचा हो सबका आदर कीजिए जो जिस योग्य हो उसे वैसा मानिए छोटी जाति के लोगों का तिरस्कार करके उनका जी मत तोड़िए, सब लोग आपस में मिलिए।’
भारतेंदु दलितों को समाज का एक अभिन्न अंग समझते थे। वह सभी जाति के लोगों को आपस में मिलजुलकर रहने की सलाह देते हैं। उन्होंने अपनी शिक्षा-नीति में दलितों के ऊपर ध्यान देते हुए यह स्पष्ट किया है कि दलितों में शिक्षा की अपार कमी है और उन्हें इससे वंचित रखा गया है। उनकी दृष्टि में एक तरफ दलित आर्थिक रूप से कमजोर है और दूसरी तरफ जाति के नाम पर प्रताड़ित है। इन चीजों के कारण यह समाज शिक्षा से बहुत दूर हो गया है। दलितों की स्थिति पर अंग्रेजी सरकार का ध्यान आकृष्ट करते हुए वह लिखते हैं, ‘डोम और मेहतर जैसे निम्न श्रेणी के लोग शिक्षा से लाभान्वित अवश्य नहीं हो पाते, क्योंकि वे दरिद्र हैं।’
आगे लिखते हैं, ‘हां, क्षत्री और ब्राह्मण जातियों के जमींदारों में कुछ ऐसे लोग हैं, जिनके विषय में यह कहा जा सकता है कि वे अपनी निम्न श्रेणी की रिआया के लड़कों को शिक्षा से वंचित रखना चाहते हैं, ताकि वे उनके अज्ञान से लाभ उठा सकें।’ भारतेंदु की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है। उन्होंने साहस के साथ सवर्ण जातियों का नाम लेकर बताया है कि दलितों को शिक्षा से वंचित रखने के पीछे इन ऊंची जाति के लोगों की बहुत बड़ी भूमिका है।
भारतेंदु स्त्री-शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने 1874 में स्त्रियों की शिक्षा के लिए ‘बालाबोधिनी’ पत्रिका का प्रकाशन किया था। यह हिंदी प्रदेश की पहली पत्रिका थी, जिसे उन्होंने स्त्रियों को ध्यान में रखकर निकाली थी। इस पत्रिका के जरिए उन्होंने स्त्रियों में शिक्षा का प्रचार किया। भारतेंदु की दृष्टि में स्त्रियों को शिक्षा से दूर रखने के पीछे दो कारण थे। पहला, स्त्रियों के प्रति समाज की संकीर्ण मानसिकता और दूसरा, लोगों में ईसाई धर्म का खौफ। भारतेंदु ने इन दोनों कारणों को अंग्रेजी सरकार के संज्ञान में लाया है। उनकी दृष्टि में शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है, जिससे स्त्रियां अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो सकती हैं और अपनी दशा सुधार सकती हैं। इसलिए उन्हें शिक्षित करना बहुत जरूरी है।
रूढ़िवादी हिंदी समाज में स्त्रियों को घर की चहारदीवारी से बाहर निकालकर शिक्षा के द्वार तक पहुंचाना, आसान काम नहीं था। ऐसे में भारतेंदु लोगों की सोच बदलने और उन्हें जागरूक करने के लिए अंग्रेजी सरकार से आगे आने के लिए कहते हैं, ‘यह सच है कि इस देश के लोग अपनी कन्याओं को सार्वजनिक स्कूलों में पढ़ाना नहीं चाहते, परंतु सरकार का यह कर्त्तव्य है कि वह इस प्रकार की अज्ञानता उनके मस्तिष्क से दूर करे।’ सरकार की जिम्मेदारी है कि वह साधारण जनता को लड़कियों की शिक्षा के संबंध में जागरूक और प्रोत्साहित करे।
भारतेंदु बंगाल में कई तरह के सामाजिक परिवर्तन देख चुके थे। हिंदी प्रदेश में उन्हें कुछ इसी तरह के परिवर्तन की उम्मीद अंग्रेजी सरकार से थी।
भारतेंदु के अनुसार लड़कियों को स्कूल नहीं भेजने के पीछे एक कारण यह भी था कि उस समय ईसाई मिशनरियां अपने धर्म का प्रचार करती थीं और लोगों को तरह-तरह का प्रलोभन दिखाकर धर्म परिवर्तन करा लेती थीं। भारतेंदु तभी कहते हैं, ‘ईसाई धर्म प्रचारक महिलाओं ने कुछ रुचि दिखलाई है, परंतु जनाने में इनके जाने को बहुत ही कम उपयोगी माना जाता है। उनकी स्वाभाविक वृत्ति धार्मिक सिद्धांतों और मुक्त विचारों का प्रचार करने की ओर होती है, न कि भारतीय स्त्रियों के मस्तिष्क में शिक्षा के प्रति चाह उत्पन्न करने की ओर। इसलिए परिणाम प्रतिकूल होता है और यह भावना पैदा हो जाती है कि इन ईसाई महिलाओं का एकमात्र ध्येय धर्म परिवर्तन कराना है। अतः भारतीय नारियां इन्हें अपने धर्म का शत्रु समझकर इनके संपर्क से बिलकुल अलग रहना पसंद करती हैं।’
भारतेन्दु हरिश्चंद्र मध्यकाल और आधुनिक काल के बीच की कड़ी है। उनके पीछे दरबारी संस्कृति की एक विराट काली छाया है और सामने आधुनिकता की दहलीज पर खड़ा हिंदी प्रदेश है। हिंदी प्रदेश की उन्नति और प्रगति के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन खपा दिया। उनके लिए साहित्य और समाज दो अलग-अलग चीजें नहीं हैं। साहित्य के माध्यम से उन्होंने विशाल हिंदी समाज की सेवा की, लोगों में जातीय चेतना का विकास किया और उन्हें नए-नए ज्ञान-विज्ञान के विषयों से अवगत कराया। उनके शिक्षा-संबंधी सुधार कार्य हिंदी नवजागरण की एक महत्वपूर्ण कड़ी है।
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज–211002 मो. 9432345604