सिडनी, ऑस्ट्रेलिया में प्रवासी कथाकार और कवयित्री। कहानी और कविताओं की आठ पुस्तकें। ‘अनन्या’ पत्रिका की संपादक। अद्यतन पुस्तक ‘प्रवासी कथाकार शृंखला’।
अपने घर की बालकनी में बेचैनी से टहलती हुई अपर्णा जाने कितने साल पीछे चली गई थी। यादों के दरीचे खुल गए थे और न जाने कितनी बातें उसके मनोमस्तिष्क को मथ रही थीं। पिछले बीस साल से मेलबर्न में अकेले रह रही थी। किसी से अधिक संपर्क में नहीं थी। जाने कैसे अंतर्मुखी होती जा रही थी।
उम्र ही क्या थी उसकी? सिर्फ बयालीस साल। इतनी आयु में तो ऑस्ट्रेलिया में लड़कियां शादी करती हैं। पर उसने तो शादी ब्याह की बातों पर बंधन लगा दिया था। अपने काम से काम और मतलब से मतलब। घर से ऑफिस तक का बंधा-बंधाया रूटीन। उसके गंभीर चेहरे पर मुस्कराहट या तो आती नहीं थी या अनुशासन के कड़े बंधन में स्वयं को बांधकर बैठी थी। शायद उसे लगता था कि वह मुस्करा देगी तो लोग उसका फायदा उठा लेंगे। इतनी कम उम्र में इतनी सीनियर पोस्ट पर जो चली गई थी। बड़े बैंक की ब्रांच मैनेजर थी। काफी ज़िम्मेदारी का काम था। सब उसकी इज्जत करते थे। उसके ऑफिस के कोई मित्र और सहेली नहीं थे, पर बिल्डिंग की एक दो महिलाएं अनचाहे ही सहेलियां बन गई थीं। नीना और अजय अपनी छह माह की बच्ची के साथ करीब दस साल पहले ही उसके पड़ोस में आए थे। नए-नए थे, बहुत सी बातें पता नहीं थीं। तो कभी उससे पूछ लेते, और वह उन्हें खुशी-खुशी समझा देती। एक दिन संडे को घर की घंटी बजी, उसने दरवाजा खोला, देखा, हाथ में प्लेट लिए नीना बाहर खड़ी थी।
‘आज घर में पूजा थी, उसी का प्रसाद है’ – कहते हुए प्लेट अपर्णा को पकड़ा दी। जाने क्यों अपर्णा को अच्छा लगा और उसे अंदर आने का न्योता दे दिया। छोटी सी रिया को गोद में थामे नीना तुरंत अंदर आ गई, जैसे इसी बात का इंतज़ार कर रही थी। घर की हर चीज़ को देखती रही। फिर धीरे से बोली, ‘दीदी, आपका घर इतना साफ कैसे रहता है?’
अपर्णा ने मन में सोचा – गंदा करने के लिए है ही कौन? पर मुस्करा कर बोली, ‘आओ बैठो, चाय पियोगी?’
‘हां, एक कप चाय मिल जाएगी तो सारे दिन पूजा के पकवान बनाने की थकान मिट जाएगी।’ उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई।
‘टी बैग वाली लोगी या मसाले की?’ उसने पूछा।
‘दीदी, मसाले वाली होगी तो मजा आ जाएगा, पर कोई तकलीफ तो नहीं होगी न आपको?’
‘इसमें तकलीफ कैसी?’ कहते हुए अपर्णा इलायची कूटने लगी।
चाय लेकर आई तो देखा नीना रिया को सोफे के एक तरफ सुला चुकी थी और सोफे पर पैर मोड़कर बैठ गई थी, जैसे जाने कितनी थकी हुई हो।
‘दीदी, आप कितनी अच्छी हो।’ कहते हुए चुस्की लेकर चाय पीने लगी। ‘परदेस में मां-बहन तो हैं नहीं। कितना काम करना पड़ता है यहां बच्ची के साथ। आपको देखती हूँ न तो अपनी बड़ी बहन याद आ जाती हैं।’ वह कह रही थी।
उसे दिलासा देते हुए अपर्णा ने कहा- ‘कोई बात नहीं, जब जी चाहे आ जाओ।’
उसने बच्ची की तरफ नज़र डाली, गोल मटोल, गेहुंए रंग की छोटी सी डॉल जैसी बच्ची, कितनी निश्चिंतता से सो रही थी।
उस दिन कुछ देर साथ बैठ कर नीना चली गई। जितनी देर बैठी, अपने परिवार को याद करती रही। वहां होती तो कितना सुख होता, कोई काम न करना पड़ता, रिया के साथ कितनी मदद मिल जाती आदि आदि। तब से नीना कभी कभार आ जाती।
सच है, परदेस में भारत बहुत याद आता है। यहां तो लगातार काम का बोझ लगा रहता है, नौकर-चाकर तो होते नहीं। कितनी मदद मिल जाती है वहां। नौकर या मेड कितना ख़याल रखते हैं।
घर के दूसरी तरफ वीणा रहती थी। वीणा महाराष्ट्र की थी। दिन में चाइल्ड केयर में काम करती और शाम को संगीत सिखाती थी। लगभग रोज शाम संगीत सीखने कुछ लोग उसके घर आते थे। उसका पति बस चलाता था। बच्चे अब बड़े हो गए थे, एक यूनिवर्सिटी में था और दूसरा हाई स्कूल में। कभी आते जाते वीणा से हलो हो जाती।
इतने सालों में सब कुछ बदल गया था। अनेक खूबसूरत घर टूट गए थे और उनकी जगह बहुमंजिला फ्लैट बन गए थे। उसके घर के पास चारों तरफ जाने कितने खिड़कियां और दरवाजे बन गए थे। काम से जैसे ही घर पहुंचती, दरवाज़ों, खिड़कियों को बेधती लड़ाई-झगड़े या संगीत की आवाज़ सुनाई देती। पूरे हफ्ते काम, शनिवार को घर की सफाई और फल सब्जी ग्रोसरी और रविवार को आराम या कोई मूवी देख लेना, यही रूटीन था उसका।
और अब यह खबर? यह संदेश जिसकी उसे सालों से प्रतीक्षा थी, दस साल पहले आता, तो पांव जमीन पर न पड़ते। पर अब इस तरह अचानक।
उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे? चहलकदमी बंद कर एक कप कॉफी ले, अपने सोफे पर आ बैठी। विगत जैसे उसे कैलेंडर के पन्नों में बीस साल पीछे ले गया जब वह सी ए कर रही थी। तभी, हां तभी तो वह मिली थी आदित्य से। लाइब्रेरी में एक ही किताब ढूंढ़ते हुए वे टकरा गए थे।
किताब की एक ही कॉपी थी तो आदि ने उससे कहा, ‘ठीक है पहले तुम पढ़ लो, बाद में मैं, पर जिस दिन लाइब्रेरी में वापस दो, प्लीज, मुझे फोन कर देना। ताकि कोई और न ले जाए। ये मेरा नंबर है।’ कहते हुए उसने स्टिकी नोट उसकी तरफ बढ़ा दिया।
पढ़ कर किताब जमा करने के पहले उसने आदित्य को फोन किया। जब अपर्णा पहुंची तो वह बाहर ही खड़ा था। किताब लेने देने की प्रक्रिया हुई, जब लाइब्रेरी से निकले तो आदि ने उससे पूछा, ‘अगर तुम्हारे पास समय है तो चल कर चाय या कॉफी पियें? थोड़ा किताब पर डिस्कशन भी हो जाएगा।’
अपर्णा को यह आइडिया अच्छा लगा। वहीं पता लगा कि आदि आई ए एस की तैयारी कर रहा था। आदि जितना देखने में अच्छा था, उससे ज्यादा बातें करने में। जाने कैसे दुनिया भर का ज्ञान था उसको। अपर्णा भी क्या कम थी? पढ़ने का शौक तो बचपन से था, सुंदर भी थी। घर की लाडली थी पर अनुशासनप्रिय पिता से डरती थी। मां अक्सर उसकी नजर उतार देती। छोटा भाई बिट्स पिलानी से इंजीनियरिंग कर रहा था। दादा-दादी के साथ पुश्तैनी बड़े घर में पूरा परिवार रहता था।
आदि से बातचीत शुरू हुई और शीघ्र ही मुलाकातों में बदल गई। कब वे एक दूसरे को दिल दे बैठे, पता ही नहीं चला।
अक्सर आदि उससे कहता, ‘अपर्णा, जबसे तुम मेरी जिंदगी में आई हो न, अच्छा ही अच्छा हो रहा है।’
वह हँस देती, और कहती, ‘आदि, तुम्हारे साथ मुझे भी बहुत अच्छा लगता है।’
‘वादा करो, मुझसे दूर नहीं जाओगी’ -एक दिन वह बोला।
‘तो शादी कर लो न मुझसे’ – वो शर्मीली हँसी हँस दी।
‘अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊं बस। एक दिन तुम्हें डोली में बैठा कर ले जाऊंगा।’ उत्साह से उसने कहा।
दिन बड़े अच्छे बीत रहे थे। मिलना-जुलना तो होता था पर दोनों अपने कैरियर पर फोकस कर रहे थे।
और फिर वह दिन आया जब आदि आई ए एस में सेलेक्ट हो गया। उसकी खुशी का कोई ठिकाना न था। अपर्णा भी खुश थी। उसने आदि से फोन पर पार्टी मांगी और जल्दी ही उसका इनवाइट आ गया। ताज पैलेस के रेस्त्रां में मिलना तय हुआ। उस दिन मोरपंखी रंग का सूट, उसके ऊपर कढ़ाईदार शॉल पहन कितनी जंच रही थी अपर्णा। गले और कान में भी हल्के से जेवर पहन लिए। आदि भी आज सूट पहन कर आया था। ‘बड़ा हैंडसम लग रहा है’ अपर्णा ने सोचा।
आगे बढ़कर आदि उसे मेज तक ले गया। खाने-पीने के बीच ही आदि ने बताया कि उसके परिवार में सब बहुत खुश हैं- माँ, पिता और बड़े भाई सबके बधाई संदेश आए हैं।
चलने के पहले बड़े स्टाइल से घुटने पर बैठते हुए उसने गुलाब के एक फूल के साथ प्रपोज़ किया- ‘मुझसे शादी करोगी अपर्णा?’
अपर्णा को याद है कि उसकी खुशी का कोई ठिकाना न था।
आगे बढ़के बड़ी अदा से उसके हाथ से गुलाब लेते हुए कहा- ‘ज़रूर, मैं तुम्हारे साथ बहुत खुश रहूंगी आदि। पर पापा से आकर परमिशन लेनी पड़ेगी।’ कहते हुए अपर्णा मुस्करा दी।
तय हुआ अगले शनिवार आदि उसके माता पिता से बात करेगा।
उसने मां को बता दिया था, ‘मां, अगले शनिवार को मेरा एक मित्र मिलने आना चाहता है। ठीक है न। पापा से पूछ लोगी न। आप दोनों का मिलना ज़रूरी है।’
मां ने हँस कर कहा- ‘ये कोई ख़ास मित्र लगता है तुम्हारा।’
शरमा कर वह मां से लिपट गई थी, ‘मां बहुत अच्छा है आदि। आई ए एस में सेलेक्ट हो गया है। उसका एक बड़ा भाई और माता-पिता सब बिहार में रहते हैं। आपको जरूर पसंद आएगा। प्लीज, पापा को मना लोगी न।’ एक ही सांस में कह गई थी सब।
उसे यकीन था सब ठीक होगा। दो दिन बाद शनिवार को नियत समय पर आदि घर आया। पापा ने दरवाजा खोला और आदि को अंदर बुलाया। हल्का सा नर्वस तो था आदि, पर नमस्ते कहते हुए अंदर आ गया।
चाय पर बैठे तो मां ने चाय के साथ समोसे, कटलेट्स और घर का नाश्ता रखा।
पापा आदि की हर बात को जैसे ध्यान से देख रहे थे। कैरियर के बारे में पूछने के बाद पापा पूछ रहे थे- ‘तो तुम लोग भी ब्राह्मण हो न हमारी तरह।’
आदि उनके इस अचानक पूछे गए प्रश्न से घबरा गया- ‘जी… जी नहीं।’
‘तो… तुम्हारा पूरा नाम तो पूछा ही नहीं।’
‘आदित्य कुमार’
‘पर जाति क्या है?’
उनके इस अकस्मात प्रश्न से सब चौंक गए।
‘पापा तो इतने दकियानूसी नहीं थे?’ अपर्णा चौंक गई।
उत्तर के लिए सब आदि की तरफ देखने लगे। आदि का चेहरा जैसे लाल हो उठा। धीरे से बोला- ‘अंकल, वीआर शेड्यूल कास्ट।’
पापा के चेहरे का रंग उड़ गया, उठ के खड़े हो गए, ‘अरे! हम उच्च वर्गीय ब्राह्मण सोच भी नहीं सकते अपनी लड़की शेड्यूल कास्ट लड़के से ब्याहें। सुंदर है, पढ़ी-लिखी है। समझ नहीं आता, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरी बेटी को फंसाने की’ कहते-कहते उनकी आवाज ऊंची हो गई।
आदि इस अपमान के लिए तैयार नहीं था। उठा और कहने लगा- ‘गलती हो गई अंकल। आप जैसे पढ़े-लिखे असभ्य लोगों के घर अपर्णा कहां से पैदा हो गई, समझ नहीं आता। मेरे पिता भी कलक्टर हैं, मां उद्योगपति घर से है। आप जैसे लोग ही देश की उन्नति नहीं होने दे रहे।’
कहते-कहते वह घर से चला गया। अपर्णा क्या करती? अपने पिता से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा तो उसे कदापि नहीं थी। अचानक उसकी आंखों से आंसू बह निकले।
पापा कह रहे थे, ‘एक राजकुमार से होगी मेरी अर्पी की शादी। उच्च ब्राह्मण कुल के। जाने कहाँ से चले आते हैं लोग, कम से कम सोचा तो होता। और अर्पी, कान खोल कर सुन ले, आगे से इस तरह के लोगों को घर में बुलाने की कोई जरूरत नहीं है।’
रोते-रोते अपर्णा अपने कमरे में निढाल-सी बिस्तर में ढह गई। ये आदि का नहीं उसका अपमान किया था पापा ने।
आदि को बहुत बार फोन किया, हर बार फोन बंद मिला। उसके दोस्त से पता लगा आदि ट्रेनिंग पर चला गया है। फिर नौकरी पर चला जाएगा।
उसका दिमाग सुन्न होता जा रहा था। आदि को कैसा लगा होगा, वह तो इस अपमान के लिए बिलकुल तैयार न था। मां को उससे सहानुभूति थी, पर पापा जिद में थे और दादा-दादी तो अपने उच्च वर्गीय संस्कारों में ही उलझे रहते।
अब अपर्णा का मन घर में न लगता। उसके लिए जोरशोर से रिश्ते तलाशे जा रहे थे।
उसकी सहेली राखी ऑस्ट्रेलिया में परमानेंट रेसीडेंसी के लिए आवेदन कर रही थी। अपर्णा ने भी एप्लीकेशन फॉर्म भर दिया। सात-आठ महीने में उसकी औपचारिकताएं पूरी हो गईं। ऑस्ट्रेलिया का टिकट भी चुपचाप खरीद लिया। मित्र के यहां कुछ दिन रहने का बहाना बना कर उसने सूटकेस पैक किया।
‘मन बदल जाएगा बच्ची का’ -मां ने पापा को मनाया।
पापा ने उसे ड्राइवर के साथ राखी के घर छुड़वा दिया। दो दिन बाद दोनों लड़कियों ने ऑस्ट्रेलिया की फ्लाइट ले ली। हालांकि अपर्णा ने आने के पहले मां-पापा को चिट्ठी लिख दी थी। ये भी कि उससे रिश्ता तोड़ना है, तो तोड़ लें पर आदि के साथ उन्होंने अच्छा नहीं किया। उसे पता था कि उसके आने के बाद मां रो-रो के बुरा हाल कर लेगी, दादा-दादी की नाक कट जाएगी और पापा उच्च ब्राह्मण परिवार के होने के दंभ में उसे गालियां देंगे। अब जो भी होना है वो हो।
ऑस्ट्रेलिया में टीचर्स की ज़रूरत थी और राखी को टीचिंग में जाना था। अपर्णा को बैंक में टैलर की नौकरी मिल गई। दोनों अपनी इस नई जिंदगी से खुश थे। उन्हीं दिनों राखी की मुलाकात विकास से हुई। विकास इंजीनियर था। दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे। और एक साल बाद दोनों ने शादी कर ली। राखी और विकास बाद में सिडनी चले गए और अपर्णा मेलबर्न में अपनी नौकरी को समर्पित हो गई। कुछ साल में ही यह दो बैडरूम वाला यूनिट भी खरीद लिया।
ऐसा नहीं कि इन बीस सालों में उसे लड़के नहीं मिले, पर मन में बसे हुए आदि को कैसे निकालती? और उसे ऑस्ट्रेलिया में कहां से लाती?
सच है… ‘मन नाहीं दस बीस।’
आने के दो साल बाद ही राखी के माध्यम से भाई ने उसका नंबर ढूंढ़ लिया था, ‘दीदी, बहुत याद आती है तुम्हारी। मां भी तुमको मिस करती है।’
मां कह रही थी, ‘अर्पी कब आओगी?’ अपर्णा को पता था वह उस घर में कभी नहीं जाएगी, जहां उसके सपनों के महल ढहढहा के गिर पड़े थे। जहां उसके आदि को बेइज्जत होकर जाना पड़ा था।
इस बीच भाई मेलबर्न आ चुका था। उसकी शादी में भी वह नहीं गई तो वही पत्नी को लेकर आ गया था।
उसी ने फोन पर बताया था, जब दादा और दादी का स्वर्गवास हुआ।
मां कुछ टूटी उदास रहती थी।
और अपर्णा… उसके आंसू रिसते-रिसते जाने कब उसके सीने से गांठ के रूप में उभर आए थे। पैंतीस साल की उम्र में ही उसे अचानक महसूस हुआ उसके सीने पर उभरा लंप बड़ा हो गया है। चिंता हुई डॉक्टर को दिखाया तो तुरंत मैमोग्राम और अल्ट्रासाउंड करवाने की राय दी।
और फिर आनन-फानन में सारे टेस्ट और बायोप्सी भी हो गई।
पता लगा ब्रेस्ट में कैंसर फैल चुका है। मन इसके लिए तैयार न था, सोच भी नहीं सकती थी। पर डॉक्टर कह रहा था- ‘शीघ्रातिशीघ्र सर्जरी करवानी पड़ेगी, राइट ब्रैस्ट रिमूव करनी पड़ेगी।’
सो जल्दी ऑपरेशन की डेट फिक्स हुई।
वैसे भी अपर्णा को इन वक्षों से लगाव भी कैसा? जिसे खुद से अधिक लगाव न रहा हो वो क्या सोचे? जो सुख उसने आदि के नाम कर रखा था वह तो मिला नहीं। और फिर स्त्री होने न होने का सबूत सिर्फ वक्ष ही तो नहीं होते। फिर भी मन जाने क्यों घबराने लगा। कैंसर का नाम ही कुछ ऐसा है। सिडनी में राखी को फोन किया, तो तुरंत विकास के साथ पहुंच गई। उसके आने भर से बहुत हिम्मत मिली। दोनों रात देर तक बतियाती रहीं। आदि को याद कर अपर्णा एक बार फिर भावुक हो गई। सच तो ये है कि अपनी किस्मत बनाने में यकीन करने वाली अपर्णा मानने लगी थी कि भाग्य के आगे किसी की नहीं चलती।
अगले दिन सुबह जल्दी उठ कर तैयार होना था। जाने क्यों नहाने के बाद शीशे पर नजर पड़ गई। अब तक तो कैंसर के हिसाब से वक्षों की जांच की थी पर आज एक बार भरपूर नजर से खुद को देखा उसने। उसे लगा वह मां जैसी ही सुंदर है। वही नाक-नक्श, रंग, लंबी गर्दन, बड़ी आंखें, फूल की कली से ओंठ और सधी हुई देह यष्टि। अपने वक्षों पर निगाह पड़ी, राइट ब्रैस्ट को हाथ में थाम थोड़ी देर देखती रही। कहीं कैंसर के कोई लक्षण नहीं। शायद झूठ बोल रहा है डॉक्टर। पर रिपोर्ट्स का क्या करती? वो तो सच थीं न। कई दिनों बाद उसने बाथरूम के फुल मिरर में खुद को देखा था। उसकी पूरी देह किसी फिल्म एक्ट्रेस सी सुंदर थी। और उम्र ही क्या थी उसकी? इससे ज्यादा कुछ सोचती कि बाथरूम के दरवाजे पर राखी ने दस्तक दी –
‘कितनी देर लगाएगी, लेट नहीं हो सकते माय डियर।’
उसने अपनी राइट ब्रेस्ट को आखिरी बार निहारा, सहलाया और जैसे प्यार से गुड बाय कह दिया। राखी और विकास के साथ कार में अस्पताल जाते समय रस्ते में कोई कुछ न बोला। सब तनाव में थे।
ऑपरेशन थिएटर में जाने के पहले विकास ने उसके माथे को चूमा- ‘सब ठीक होगा अर्पी, तुम जैसी बहादुर लड़की का कैंसर तो क्या उसका बाप भी कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। यू आर अ विनर।’
राखी उसका हाथ थाम कर बैठी रही। अपर्णा को इस विकट स्थिति में न मां याद आई, न भाई और न पापा। याद आया तो आदि। लगा आदि ने उसका हाथ थाम लिया है और कह रहा है-
‘अर्पी, स्टे स्ट्रांग। मैं हूँ न। तन से भले दूर हूँ, पर मन से पास हूँ।’
ऑपरेशन ठीक हो गया। जब होश आया तो वह अस्पताल के बिस्तर में थी। आंखें खुलीं तो नर्स की आवाज़ सुनाई दी- ‘पेशेंट को होश आ गया है।’
लगा कोई उसके माथे पर हाथ फेर रहा है। स्पर्श चिर-परिचित लगा। नजर पड़ी तो माँ थीं, आंखों में आंसू लिए कह रहीं थी- ‘मैं आ गई हूँ अर्पी, तुम्हें बिलकुल ठीक करके ही वापस जाऊंगी। कितना कष्ट सहा अकेले, मेरी फूल-सी बच्ची ने।’ मां उसके हाथों को चूम रही थीं।
राखी ने उसकी तरफ देखा, बोली- ‘माफ़ करना अर्पी, तुमसे पूछे बगैर मां को बुला लिया।’
सच में उस दिन अपर्णा को राखी पर बिलकुल गुस्सा नहीं आया। जाने क्यों मां की गोद में सिमट कर सो जाने का मन किया। उनसे लिपट कर रोने का मन किया। जैसे एक छोटी बच्ची जब चलते-चलते थक जाती है न, तो मां की गोद में जा बैठती है और सारी थकान भूल जाती है।
अस्पताल से तीसरे दिन छुट्टी मिल गई, और अर्पणा घर आ गई। राखी एक हफ्ते बाद वापस चली गई।
उसके जाने के बाद मां ने ही छह महीने उसका खयाल रखा। खाने में आंवले का मुरब्बा, जूस, कच्ची हल्दी के साथ दूध। मंत्रों का निरंतर जाप। यही मां का रूटीन था। कभी-कभी अपर्णा स्वयं को गिल्टी समझने लगती कि जिस उम्र में मां को आराम मिलना चाहिए था उस उम्र में उन्हें उसकी सेवा करनी पड़ रही है। रेडियोथेरेपी और कीमोथेरेपी के सेशन चलते रहे। इस बीच भाई-भाभी भी उसे देखने आए पर पापा?
वे शायद उसे माफ़ न कर सके थे या फिर अपराध भाव उन पर इतना हावी हो चुका था कि बात करने की हिम्मत भी न जुटा पाते थे। मां से ही उनके बारे में पता चलता। उसके पीछे शायद वे मां से ही उसका हाल पूछ लेते थे।
मां का वीज़ा छह महीने का था। तब तक अपर्णा संभल गई थी, काम पर भी जाने लगी थी। इस बीच विकास और राखी के भी कई बार चक्कर लगे। अपर्णा और मां को लेकर कभी कहीं पार्क में या समुद्र तट पर घुमा लाते। हँसी मजाक कर माहौल हल्का बनाए रखते। छह महीने बाद मां चली गईं, पर अपने प्रेम का अथाह खजाना उसके पास छोड़ गईं। उनसे गाहे-बगाहे अब बातचीत होने लगी थी। भाई के बच्चे हुए तो अपर्णा ने उनके लिए छोटे-छोटे कपड़े खरीद कर भेजे। उसका कैरियर भी अच्छा चल रहा था। लगातार प्रमोशन मिल रहे थे और अब पिछले पांच साल से वह ब्रांच मैनेजर है।
अपनी जिंदगी से समझौता कर लिया है उसने, आदि को भूल गई हो, ऐसा बिलकुल नहीं था। उसका पहला और आख़िरी प्यार था आदि। उसके मिलने की आशा भी अब नहीं रही थी।
लेकिन आज जबसे उसका मैसेज आया है, वह समझ नहीं पा रही है।
आदि ने लिखा है कि ‘वह परसों मेलबर्न पहुंच रहा है, अपर्णा से मिलेगा’
तो बीस साल पुरानी सभी यादें मन में चलचित्र की तरह घूमती जा रही है। सोच रही है, कैसे मिलेगी उससे? अपने आदि को कैसे बताएगी कि वह पहले जैसी नहीं रही? अब मिलकर क्या करेगा वह? अब वह अधूरी-सी है। उसके शरीर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा कट चुका है। कैसे कहेगी उससे कि उसकी एक ब्रेस्ट नहीं है? उसकी जगह प्रोस्थेसिक इम्प्लांट है।
फिर खयाल आता है कि अरे अब तक तो आदि की शादी हो गई होगी। कितनी पागल है वह। क्या पता अपने पत्नी बच्चों के साथ घूमने आ रहा हो? या हो सकता है किसी ऑफिशियल काम से आ रहा हो। किसी तरह खुद को संभालने की कोशिश कर रही थी, पर जाने क्यों आदि की यादों में और उलझती जा रही थी।
विश्वास नहीं होता कि परसों आदि मेलबर्न पहुंच जाएगा। पर अच्छा तो यह है कि उसे कुछ पता न चले। पहले की तरह हँसती-मुस्कराती उससे मिले। और फिर पापा की बात की माफी भी मांग ले। उठ कर जल्दी से ब्यूटी पार्लर में अपॉइंटमेंट बुक किया। कई साल बाद थोड़ा अच्छा लगने का मन किया। अगले दिन आदि का मैसेज था, ‘अपर्णा, एयरपोर्ट आओगी क्या लेने?’
मना कैसे करती? बहुत कन्फ्यूज़्ड थी। उसने जवाब दिया- ‘यस, आई विल बी दियर।’
अगले दिन सुबह एयर इंडिया के फ्लाइट से आदि आ रहा था।
सुबह जल्दी उठी, घर ठीक-ठाक किया। फिर लगा धत! पागल है पूरी। वह घर में थोड़ी रहेगा। और शायद अब उसके मन में पिछली बातें ही न हों।
क्या पहने? आदि को कौन सा रंग पसंद था…? जल्दी से ड्रेस निकाली, पसंद आई तो फिर वही, पीकॉक रंग की। जल्दी-जल्दी हल्का सा मेकअप लगाया और एयरपोर्ट की ओर चल दी।
पार्किंग में गाड़ी लगा एयरपोर्ट में जाकर इंतजार करने लगी।
सिडनी में कल रात हल्की बारिश हुई थी। सब कुछ धुला-धुला और साफ था। सूरज की नर्म किरणें एयरपोर्ट के बाहर जैसे आदि के स्वागत में सोना बिखेर रही थीं।
थोड़ी देर बाद जब दिल्ली से आने वाले यात्रियों का आना शुरू हुआ तो जाने क्यों अपर्णा का दिल धड़कने लगा। भले ही इतने साल बीत गए हों, पर वह आदि को किसी भी रूप में पहचान लेगी। दो साल इतने करीब से देखा है उसे।
तभी उसे लगा दूर से कोई हाथ हिला रहा है। फ्रेंचकट दाढ़ी में एक हैंडसम-सा आदमी। अरे ये ये तो मेरा आदि है। कितना मैच्योर्ड, कितना हैंडसम। फिर उसके साथ चलती महिला को देखकर ठिठक गई। लगा शायद वह उसकी पत्नी हो। पर जल्द ही ये गलतफहमी भी दूर हो गई, जब वह महिला अपने परिचितों से जा मिली।
आदि की आवाज़ से चौंकी- ‘गले नहीं मिलोगी अर्पी। इतने साल बाद मिली हो, कहां खोई हुई हो?’ उसके कंधे पर हाथ रख आदि कह रहा था। उसने कुछ दूरी पर रहकर उसे गले लगाया एक मित्र की तरह।
हवा में हल्की सी ठंडक थी। आदि एक पल रुका और कोट पहनने लगा। ट्रॉली अपर्णा ने थाम ली। कोट पहन कर जाने क्यों वह अचानक झुका और घुटने के बल बैठकर अपने कोट से एक डिब्बी निकाली और नाटकीय अंदाज में उसका हाथ थाम वह उत्साह में जोर से बोला-
‘विल यू मैरी मी अर्पी?’
आस-पास के लोग ठहर गए, सब उन्हें देखने लगे। पास खड़ी लड़कियां और औरतें ताली बजाने लगीं और सब लोग उसमें शामिल हो गए। चारों तरफ से आवाजें आने लगीं-
‘से यस.. से यस..’
‘ही इज़ अ हैंडसम मैन। ही लव्स यू। मैरी हिम।’
और इससे पहले कि अपर्णा कुछ समझ पाती, संभल पाती, कुछ कहती, उसके मुंह से निकल गया, ‘यस आदि…’
आदि ने कब दो कैरेट सॉलिटेयर हीरे की अंगूठी उसकी उंगली में पहना दी, उसे पता ही नहीं चला।
लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अपर्णा का हाथ थामे ट्राली धकेलते आदि कह रहा था, ‘थैंक यू अर्पी, मेरी जिंदगी का सबसे खूबसूरत दिन है आज।’
जाने क्यों अपर्णा फिर चिंता में डूब गई-
‘पर आदि, एक बार बात तो कर लेते। अचानक कर दिया ये सब। मैं कुछ बताना चाहती थी तुम्हें।’
आदि ने उसके होंठों पर उंगली रख दी, ‘कुछ न कहो, कुछ भी न कहो।’
अपर्णा ने लगभग चिल्ला कर कहा- ‘मेरी बात सुनो आदि!’
‘हां जानता हूँ, यही कहना था कि तुम्हें ब्रेस्ट कैंसर था, तुम्हारी एक ब्रेस्ट नहीं है, तुम अधूरी हो यही सब बुलशिट न। यही बताना चाहती हो न मुझे? ये सब मुझे तुम्हारे पापा ने पहले ही बता दिया है। और सच तो ये है कि उन्होंने ही मेरा फोन नंबर ढूंढ़कर मुझे फोन किया और तुम्हारे बारे में बताया। और इस बात से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि मैंने तुम्हें तुम्हारी पूरी समग्रता के साथ स्वीकारा था।
‘मुझे भी तो कुछ हो सकता था। तो क्या मुझे छोड़ देती। शरीर का कोई एक अंग मात्र नहीं हो तुम। तुमने भी तो शादी नहीं की अब तक? तुम भी तो नहीं भूलीं न मुझे? मुझे पता था एक दिन हम दोनों अवश्य मिलेंगे।
‘अर्पी वी आर मेड फॉर ईच अदर।’
’पापा ने? उन्होंने तुम्हें फोन किया?’ अपर्णा को जैसे विश्वास ही नहीं हुआ।
जाने कैसे बिना पलकें झपकाए उसकी बात सुनती रही। जाने कब पापा के लिए उसका सारा आक्रोश आंसुओं में बह निकला। आदि के कोट के अंदर सिर छिपाए वो आंसू बहाने लगी।
आदि उसकी पीठ सहला रहा था।
‘तुम औरतें भी अजीब हो। लगता है रोना तुम्हें बहुत पसंद है। खुशी के मौके पर भी रोती हो और दुख के मौके तो ढूंढ ही लेती हो। चलो गाड़ी का बूट तो खोलो।’
आंसू पोंछ अपर्णा ने पर्स से कार की चाबी निकाली। आदि बूट में सूटकेस रख उसके बगल में आ बैठा।
‘घर ले चलोगी न अपने।’ उसने आंखों में अपर्णा के प्रश्न को जैसे पढ़ लिया।
कार चलाते हुए अपर्णा को विश्वास नहीं हो रहा था कि कैसे इतनी सारी खुशियां उसकी झोली में गिर गईं। आदि तो मिला ही पापा का लाड़ भी वापस मिल गया। आसमान अब साफ हो गया था और सूर्यदेव जैसे मुस्करा कर आशीष दे रहे थे।
अपर्णा को लगा कि वह अधूरी नहीं है।
संपर्क :ईमेल – rekha_rajvanshi@yahoo.com.au
A heart touching, well crafted beautiful story .
कहानी पूरे प्रवाह के साथ बहती जाती है और पाठक भी बिना रूके अंत तक उसे पढ़ते चला जाता है। चित्रात्मक कहानी
आज भी हमारे समाज में जाति, धर्म की जड़े बहुत गहरी है…यही जड़े युवा वर्ग की खुशियों को लील रहा है…इस ज्वलंत मुद्दे पर सशक्त कहानी लिखने के लिए लेखिका रेखा राजवंशी को हार्दिक बधाई…
हार्दिक धन्यवाद आपका सुधा जी