सिडनी, ऑस्ट्रेलिया में प्रवासी कथाकार और कवयित्री। कहानी और कविताओं की दस पुस्तकें। सद्य प्रकाशित पुस्तक इण्डिया नेट बुक्स की कथामाला श्रंखला के अंतर्गत ‘मेरी कहानियां.’

रमा के लिए यह बहुत शॉकिंग था। घर का माहौल इस तरह बदल रहा था कि वे कुछ भी समझ न पा रही थीं। पिछले कुछ दिनों से वे देख रही थीं कि घर में सबका एटीट्यूड बदलता जा रहा है। उन्हें यकीन नहीं होता था कि जो बहू उनका इतना ख्याल रखती थी, अचानक धीरे-धीरे क्यों उनसे कटने लगी थी। शुरू में तो ऐसा लगा कि शायद बेटे के दुबई में काम करने के कारण शिखा स्ट्रेस में आ गई होगी। बेचारी सारा घर अकेली संभालती है। दोनों बच्चे अर्जुन और सार्थक भी बड़े हो रहे हैं, उनकी पढ़ाई-लिखाई, ट्यूशन का ध्यान रखना, सब्जी भाजी, आटा, दाल, मसाले, कम हैं क्या? फिर घर की सफाई, बच्चों का यूनिफॉर्म, उनके स्पोर्ट्स, सब कुछ उसी के सर पर है। और इसके ऊपर काम। उसका डिज़ाइनर बुटीक है। उन्हें पता है आजकल बिजनेस चलाना आसान नहीं है। कोविड के बाद सब कुछ महंगा हो गया है। बिजनेस का बहुत टेंशन होता है।

रमा को याद है जब वे शिखा की उम्र की थीं, तो इतना तनाव नहीं था, शायद इतना झमेला था ही नहीं। बच्चों को सादे तरीके से पाला। खेलते-खाते कब बड़े हो गए, पता ही नहीं चला। कंपटीशन क्या होता है इसका भी कोई ज्ञान नहीं था। और बेटी, बेटा दोनों अच्छे ही निकले।

अब दोनों ऑस्ट्रेलिया में रहते हैं। बेटी प्रीति बड़ी है। पचीस साल पहले शादी के बाद यहां आ गई थी। वह इंजीनियर है और उसका पति अजय भी एक अच्छे फर्म में है। बेटी का सिर्फ एक बेटा है, जो अब आर्किटेक्ट का कोर्स कर रहा है। बहन के प्रेरित करने पर बेटा रोहित भी इंजीनियरिंग करके यहां आ गया। उसके लिए जाने कितने रिश्ते आए, पर बहुत देखभाल के बाद शिखा को ही उन्होंने पसंद किया। जब छुट्टियों में रोहित घर आया तो रोहित को शिखा से मिला दिया। पढ़ी-लिखी, अच्छे नाक-नक्श वाली, मॉडर्न पर शिष्ट शिखा उसे भी पसंद आई। उसे देख कर बातचीत करके अच्छा लगा।

आनन-फानन सगाई हो गई और छह महीने बाद शादी की तारीख तय हो गई। रमा और अशोक की मुराद पूरी हुई। अपने बच्चों की घर गृहस्थी बसते देखना हर भारतीय माता-पिता का ख्वाब होता है। और अब यह भी पूरा हो रहा था।  दिसंबर में शादी की तारीख़ तय हुई। जयपुर की गुलाबी सर्दियों में शादी की रस्में पूरी हुईं। रमा ने बहू को देने के लिए सालों पहले से खूबसूरत जेवर बनवा के रखने शुरू कर दिए थे। बनारसी साड़ियां और पश्मीना शॉल बड़े प्यार से सहेज कर रखी थीं। एक तरह से जितना दहेज बेटी को दिया उससे ज्यादा ही बहू के लिए भी जुटा लिया था। रिश्तेदारों को भी जी भर के कपड़े और मिठाई दिए। सबका आशीष और लाड़-प्यार लेकर शिखा इस घर की बहू बनी।

शादी के बाद रोहित को वापस ऑस्ट्रेलिया जाना पड़ा तब शिखा तीन महीने उन्हीं के साथ रही। वह उनका बहुत ख्याल रखती। घर में तीन ही लोग, और एक  ऐसा रिश्ता जिसमें सब एक दूसरे का ख्याल रखते थे। रमा शिखा का ख्याल रखने की कोशिश करतीं और शिखा भी आगे से आगे बढ़कर घर का काम संभालने की कोशिश करती। दुर्भाग्यवश उसकी मां की दो तीन वर्ष पहले ही कैंसर से मृत्यु हुई थी, तो शिखा ने रमा में अपनी मां को ही देखा। अपना सारा प्यार उस पर और अशोक पर न्योछावर करने की कोशिश करती। तीन महीने में वीज़ा का इंतजाम हुआ और वह रोहित के पास सिडनी चली गई।

‘मम्मी, पापा, आप प्रॉमिस करिए कि आप भी जल्दी सिडनी आ रहे हैं।’ जाते-जाते उनसे वादा ले गई।

‘हां, हां, जरूर आएंगे। पहले तुम जाकर हमारे आने की तैयारी तो करो।’ हँसते हुए अशोक ने कहा।

और वही हुआ। घर देखने और खरीदने की प्रक्रिया में जैसे वे भी बराबर साथ रहे। रोहित वेबसाइट पर घर का लिंक भेज देता और वे बड़े चाव से उसे देखते। शिखा और रोहित ने आखिर एक साल में अपना घर खरीद लिया।

‘पापा, मम्मी अब तो आपको मुहूरत पर आना ही होगा, अपना वीज़ा अप्लाई कर दीजिए।’ रोहित और शिखा दोनों उत्साहित थे।

वीज़ा आदि की प्रक्रिया पूरी हुई और 3-4 महीने बाद अशोक और रमा ऑस्ट्रेलिया में थे।

‘क्या सोच रही हो? यह लो, गरमा गरम चाय हाजिर है।’ अशोक कह रहे थे।

‘क्या सोचना, अब जो है सो है।’ रमा की आवाज में निराशा स्पष्ट थी।

‘इतनी छोटी लाइफ में इतना कुछ क्या सोचना? टेक वन डे एट ए टाइम।’

रमा ने जबरदस्ती मुस्कराने की कोशिश की। अक्सर यही होता है, जब बच्चे छोटे होते हैं तो मांबाप की जरूरत ज्यादा होती है। बच्चों के बड़े होते ही उनकी उपस्थिति अखरने लगती है। पर शिखा? वह तो ऐसी नहीं थी। न ही रोहित।  फिर ऐसा क्या हो गया कि दोनों को ही उनका रहना यहां भारी लगने लगा। 

बेटी समझदार है। रोहित के घर से उसका घर बहुत दूर नहीं है। कभी-कभी वे उसके घर भी चली जाती हैं। पर शायद ही कभी उसने शिखा की कोई बुराई की हो। उन्हें गर्व होता है अपने बच्चों के संस्कारों पर। अपने काम से काम रखते हैं।

एक दो बार रमा ने अपने मन की पीड़ा प्रीति को बताने की कोशिश भी की तो उसने कहा-‘मां, आजकल बहुत परेशानियां हैं। बच्चों की पढ़ाई भी एक चैलेंज है। शिखा के ऊपर अकेले सब कुछ पड़ जाता है। आप परेशान न हों, अपने आपमें व्यस्त रहें’, कहकर उसने तसल्ली दी।

पर रमा इस उलझन का कोई सिरा नहीं पकड़ पा रही थीं।

‘अगर खुश नहीं हो, तो वापस चलते हैं। वैसे भी हम लोग 17 साल से तो यहां रह ही रहे हैं। बच्चे अब बड़े हो गए हैं, और अब हम आजाद हैं।’ कहकर अशोक हँसने लगे।

पर रमा कुछ कहतीं इसके पहले ही गंभीर स्वर में अशोक बोले-

‘तुम सच मानो या न मानो, पर मैं तो भारत को बहुत मिस करता हूँ। कितनी अच्छी जिंदगी है वहां। नौकर-चाकर, शॉफर-ड्राइवर, आया-नर्स। एक बार आवाज दो कि चाय हाजिर। मन पसंद बनवाओ और खाओ।’ कहते हुए अशोक ने ठहाका लगाया।

और फिर गंभीर स्वर में बोले- ‘मेरे मित्र भी एक-एक करके ऊपर जाने लगे हैं। देखो पिछले साल दिनेश चला गया, हार्ट अटैक हुआ था।  अब प्रमोद का भी कैंसर का इलाज चल रहा है।  बचपन के यार दोस्त हैं, उनके साथ समय बिताने का मन है।’

मन तो कभी-कभी रमा का भी होता है। शायद इसी आशा में जयपुर का बंगला बेचा नहीं है अभी तक। हर डेढ़ दो साल में जाकर दो तीन महीने रह भी आते थे। बाकी केयरटेकर था ही।

इस बार सोच समझ कर बोलीं, ‘शायद यही बेहतर है। चलिए वहीं चलते हैं।’

इस बार बेटा आया तो अशोक ने कहा-  ‘रोहित, सोच रहे हैं कि कुछ महीने भारत रह आएं। तुम्हारे चाचा भी बुला रहे हैं, बुआ बीमार रहती हैं। सब कह रहे हैं कि बहुत दिन से नहीं आए। कुछ दिनों वहां रहेंगे तो मां का मन बदल जाएगा, अच्छा रहेगा। तुम भी बच्चों और शिखा के साथ कहीं घूमने जा सकोगे।’

‘ठीक है पापा, मैं टिकट बुक करवा देता हूँ’, रोहित ने धीरे से कहा।

रमा को आश्चर्य हुआ कि इस बार रोहित ने कोई प्रतिरोध ही नहीं किया, यह भी नहीं कहा कि अभी तो मैं आया हूँ। मेरे साथ कुछ दिन रहो। आप लोग क्यों जा रहे हो? कब वापस आओगे?

मन को ठेस लगी। रमा सोचने लगीं, शायद अब बच्चों को स्वतंत्रता ज्यादा पसंद है।

देख रही थीं कि कुछ महीनों से दोनों पोते भी उनको अवॉयड कर रहे हैं। बड़ा पोता अर्जुन ‘हलो दादा, दादी’ या ‘गुडमॉर्निंग दादा, दादी’ कह के निकल जाता है। 11वीं कक्षा में था, परीक्षाएं थीं। शायद इसलिए व्यस्त होगा।

अब इस जमाने के बच्चे हैं। दादा, दादी से क्या बात करेंगे? बहुत सारी चीजें हैं उनको व्यस्त रखने के लिए। आधे से ज्यादा टाइम कंप्यूटर पर लगे रहते हैं, कभी वीडियो गेम खेलने लगते और कभी अंग्रेजी म्यूजिक लगा के गाना शुरू कर देते हैं। वैसे भी इस उम्र में दोस्त ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं। स्कूल की एक्टिविटीज़ भी इतनी होती हैं कि घर वालों के लिए समय ही नहीं रहता। पढ़ाई और ट्यूशन का प्रेशर भी बहुत रहता है। आज की पीढ़ी सचमुच अलग है।

भारत जाने की तैयारी शुरू हो गई। शिखा पैकिंग में उनकी मदद करती, बेटा उनको बाजार ले जाता।

रमा सोचती रहीं कि शायद कभी पूछेगा कि मां जा रही हो, कब आओगी? पर किसी ने न कुछ कहा, न कुछ पूछा। जाने क्यों उनको ऐसा लगा कि उनके जाने की खबर से उन्हें किसी परेशानी से मुक्ति मिल गई हो। वह खुश नहीं तो कम से कम रिलीव्ड दिखाई दे रहे थे।

पर रमा तो सदा काम में मदद करना चाहती थीं, शुरू में तो जब बच्चे छोटे थे, गृहस्थी का आधा बोझ वही उठाती रहीं। अब बच्चे बड़े हो गए थे। शिखा उन्हें कुछ काम ही नहीं करने देती थी। प्रीति भी उनकी पसंद के कोई न कोई व्यंजन बना कर लाती रहती थी। रमा सोच रही थीं कि सच में बूढ़े लोग इतना बड़ा बोझ बन जाते हैं? या उन्हें अपने साथ रखना बुरा लगने लगता है।

‘इतना मत सोचो, क्या फायदा? खुद को हर वक्त जलाती रहती हो’ अशोक कह रहे थे-

‘जयपुर जाकर आजादी से रहेंगे। बहुत साल कर ली बेटे-बहू, नाती-पोतों की गुलामी।’

रमा को जाने क्यों महसूस हुआ कि उनकी आवाज में भी उतना ही संतोष था, जितना रोहित की आवाज में था। सच है, पिता और बेटा कोई भी एक उम्र में आकर दूसरे पर बोझ नहीं बनना चाहता। आखिर आजादी सबका जन्मसिद्ध अधिकार है।

अगले संडे को फ्लाइट था। जाने क्यों मन हल्का सा सशंकित था।  इस बार जाने की तैयारी ऐसे करनी थी, जिसमें वापस आने की अनिश्चितता थी। लगता था, शायद इस बार वे लोग जल्दी वापस न लौटने के लिए जा रहे हैं। 

पूरा परिवार शनिवार की रात को एक साथ डिनर के लिए गया। रोहित, शिखा, प्रीति और अजय, तीनों बच्चे, परिवार के सभी सदस्य साथ थे।

‘नाना जी, मेरे बर्थडे तक आ जाएंगे न?’ प्रीति का बेटा अभि पूछ रहा था।

‘दादी जल्दी वापस आना’, कहते हुए जब रोहित के छोटे बेटे सार्थक ने उसके गले में बांहें डालीं तो एक पल को रमा के मन का सारा क्षोभ लुप्त हो गया।

अगले दिन सुबह दस बजे का फ्लाइट था।  छह बजे घर से निकलना था। एक घंटा तो एयरपोर्ट तक पहुंचने में लगता था। रोहित ने उनके सूटकेस कार में रखे, जब वे कार में बैठे तो दोनों बच्चे सो रहे थे। शिखा उनको बाय कहते हुए थोड़ी असहज लग रही थी, जैसे नजरें चुरा रही हो। शायद उसे आभास था कि सास-ससुर को उसकी इच्छा से ही भेजा जा रहा था। रमा कितनी भी दुखी क्यों न हों, पर उनका हाथ आशीष देने के लिए ही ऊपर उठा। जो भी हो उनकी बहू है।  इतने साल उनकी सेवा करती रही है। एयरपोर्ट के रास्ते में ही प्रीति का भी फोन आ गया था।

रमा खुश हो गईं, बच्चे प्यार करते हैं, अभी वे अवांछित नहीं हैं, इससे बड़ी तसल्ली और क्या होती?

अगले दिन जयपुर पहुंचकर अपने आपको एक पुरानी, पर अपेक्षाकृत नई जिंदगी के लिए व्यवस्थित किया। पहली बार महसूस किया कि बच्चों से बेफिक्र होकर रिश्तेदारों और पड़ोसियों के साथ जिंदगी बिताने का लुत्फ कुछ और ही होता है। लगभग हर दूसरे तीसरे दिन बच्चों का फोन आ जाता।

रमा सबको बड़े गर्व से अपने नाती-पोतों के बारे में बतातीं। पर बहू और बेटे को लेकर मन में कहीं दबा हुआ आक्रोश अब भी था।

कुछ महीने बाद उन्हें पता चला, रोहित ने भी अपनी दुबई की नौकरी छोड़ दी है और अब सिडनी में ही किसी कंपनी के साथ कॉन्ट्रैक्ट कर रहा है।

‘चलो अच्छा हुआ, पूरा परिवार अब इकट्ठा रह रहा है।’ अशोक कह रहे थे।

जाने क्यों रमा को अब भी लग रहा था कि शिखा कुछ परेशान है। उनसे बात तो ठीक से करती, हाल चाल भी पूछती, पर उनकी अनुभवी आंखें उसके चेहरे की मुस्कराहट के पीछे छिपी उदासी पढ़ सकती थीं। उसे उदास देखकर कहीं मन में खुशी भी होती कि चलो शायद मेरी अनुपस्थिति का कुछ एहसास हो रहा है। पर फिर दूसरी तरफ उसकी चिंता भी करने लगती कि जाने क्या बात है। माँ का मन है आखिर।

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ऐसे ही दो साल बीत गए। इस बीच बड़े पोते अर्जुन की एच.एस-सी, की परीक्षाएं थीं। तो रोहित और शिखा उसी के साथ व्यस्त थे। रमा और दिनेश भी अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गए। पास का क्लब ज्वाइन कर लिया था, तो बहुत से नए लोगों से भी मिले। अधिकतर के बच्चे विदेश में ही सेटल हो गए थे। उनसे दोस्ती अच्छी रही। रोज सुबह वॉक पर कोई न कोई मिल जाता। उन्हीं के ग्रुप के साथ जाकर चार धाम के दर्शन किए। वैष्णो देवी भी टूर पर हो आए। सप्ताह में एक बार स्वीमिंग भी कर लेते।  रमा ने भी किट्टी ज्वाइन कर ली। हर माह किसी न किसी के घर जाना हो जाता। सुख-दुख में भी लोग हाजिर हो जाते। सभी महिलाएं अपने बेटे-बहू, बेटी-दामाद की बातें करतीं। वे भी कभी कभार कुछ कह देतीं। पर बहू की बात होते ही उनका मन परेशान हो जाता। जितनी अपनी उलझन सुलझातीं उतना ही और उलझ जातीं। आखिर शिखा ने उनके साथ ऐसा उपेक्षापूर्ण व्यवहार क्यों किया? पूरी जिंदगी जिस बहू पर वह नाज करती रहीं, उसे वे समझ कर भी न समझ पाईं।

आज सुबह प्रीति का फोन आया।

‘पापा, परसों के फ्लाइट से हम भारत आ रहे हैं।’

….‘नहीं नहीं। आपको एयरपोर्ट आने की जरूरत नहीं है। हम खुद जयपुर पहुंच जाएंगे।’ प्रीति चहक रही थी।

‘मां से कहें बिलकुल रिलैक्स्ड रहें। खाने-वाने की बिलकुल चिंता न करें।’

फोन स्पीकर पर था। उसके आने की खबर ने रमा में नया उत्साह भर दिया।

नौकर को आदेश दिया गया कि घर का कोई भी कोना गंदा न रहे। प्रीति की पसंद का खाना बनेगा तो अशोक जी को सामान की पूरी लिस्ट पकड़ा दी गई कि बाजार से क्याक्या लाना है। अलमारी खोल कर नई चादर निकाली और रजाई को धूप लगाने आंगन में रख दिया। गेस्ट रूम में लिक्विड सोप, बॉडी वाश, टॉयलेट पेपर आदि लगा दिया गया। बेटी इतने दिन बाद आ रही है, कुछ कमी क्यों रहे?

दो दिन बाद रमा तड़के उठ गईं।  बेटी का मोह ही कुछ ऐसा होता है। अपने दिल की बातें उससे खुल कर कर सकती हैं। प्रीति का फोन आया था कि सुबह दस बजे तक पहुंच जाएगी। जयपुर की सर्दी में गरम-गरम मेथी आलू के पराठे नाश्ते में बनाने का प्लान था। ताजे धनिए की हरी-हरी चटनी और दही का रायता बनवा कर तैयार कर लिया था। बाजार से मिठाई और जयपुर के प्रसिद्ध मिर्ची के पकोड़े भी मंगवा लिए थे।  डायनिंग टेबल पर नए मैट्स लगे थे और चटनी अचार से सजी ट्रे बीच में रखी सबका मन ललचा रही थी।

जैसे ही नौ बजे, रमा की आंखें जैसे खिड़की से चिपक गईं, कान दरवाजे की घंटी पर जा टिके। सुबह साढ़े नौ बजे टैक्सी रुकी तो प्रीति और अजय उतरे। दरवाजा तो खुला ही था। दौड़ कर बाहर गईं और बेटी को गले से लगा लिया। बेटी-दामाद अंदर आए। तो सबके फ्रेश होने के बाद चाय के लिए भी डायनिंग टेबल पर ले गईं। प्रीति ने भी अपना हैंडबैग खोला और पापा और मां की पसंद के टिम टैम बिस्किट, सैस्मी सीड के बने स्नैप्स (तिल की चिक्की) और चीज़ आदि सब कुछ मां को पकड़ा दिया।

‘कितना ख़याल रखती है हमारी पसंद का’, अशोक ने हँस के कहा। उसने शिखा के दिए बादाम, काजू और अखरोट के साथ स्वैटर और मोज़े भी निकाल कर दिए, साथ में छोटा सा नोट भी था- ‘जयपुर में बहुत सर्दी होती है। अपना ख्याल रखना मां।’

रमा ने पढ़ा, बिलकुल खुश नहीं हुईं। अचानक उनके मन में आया, अब इन सब झूठे दिलासों का क्या फायदा? कैसे भूल सकती थीं कि किस प्रकार उनकी उपेक्षा की जा रही थी। कैसे उनसे पीछा छुड़ाने की कोशिश चल रही थी।

गिफ्ट एक तरफ रख दिए। दोनों पोतों ने भी लिखा था ‘वी मिस यू दादी।’ मन थोड़ा द्रवित हुआ। पर फिर बेटे बहू का ख्याल आते ही ‘हुंह’  उनके मुंह से निकला, ‘हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और…’

प्रीति ने आगे बढ़कर उन्हें रोक लिया, बोली, ‘मां, पापा आपको सब लोग बहुत मिस करते हैं।  रोहित, शिखा, अर्जुन और सार्थक सब।’ हर त्योहर पर आपकी पसंद का खाना बनता है।  शिखा आपके सिखाए तरीके से पूजा करती है।

‘इस नाटक की कोई जरूरत नहीं प्रीति। हम दुधमुंहे बच्चे नहीं हैं। जब तक उस घर में हमारी जरूरत थी, तब तक हमारे लिए जगह थी, हमारी इज्जत थी। सच तो ये है कि अब हमारी जरूरत खत्म हो गई थी।’

अशोक की आवाज में गुस्सा स्पष्ट था।

‘तो अशोक भी…?’ रमा सोचती रही थीं कि उन पर इन बातों का कोई असर नहीं पड़ता था।  पर आज पता लगा कि वे भी इस उपेक्षा से आहत थे।

‘मां, पापा आप बैठिए। मैं आपको कुछ बताना चाहती हूँ, जिसे सुनकर आप समझ जाएंगे कि रोहित और शिखा ने ऐसा क्यों किया।’

प्रीति उनका हाथ पकड़कर खींचते हुए उनके कमरे में ले गई।

सोफे पर बैठकर उसने बताना शुरू किया, ‘पापा, मम्मी, शिखा ने आपका कभी अपमान नहीं किया। एक ऐसा कड़वा सच जो वह अकेले झेलती रही और आपसे छिपाए रखा। आप सुनते, तो जाने क्या हो जाता।’

कहते-कहते उसने अपना मोबाइल निकाला।

‘मां ये देखो तुम्हारे दोनों पोते। हां पापा, छोटे सार्थक ने हाइट खींच ली है। हां हां ये बड़ा ही है अर्जुन, उसने अपने बाल बढ़ा लिए हैं। और कान भी छिदवा लिए हैं। नहीं, नहीं, इसने कोई फेंसी ड्रेस नहीं पहनी है।

‘सच तो यह है कि उसे कुछ साल पहले एहसास हो गया है कि वह गलत शरीर में है। उसका शरीर लड़के का जरूर है, पर उसकी आत्मा लड़की की है। यह समझो कि एक लड़की, लड़के के शरीर में पैदा हो गई हो।

‘उसे लगता है कि वह लड़का नहीं, लड़की है, सच तो ये है कि वह एक ट्रांसजेंडर है। शिखा भाभी ने उसे बहुत समझाया, पर कुछ हो न सका। रोहित को भी दुबई की नौकरी छोड़ कर सिडनी बुलाना पड़ा।

‘पहले तो लगा आजकल शायद यह फैशन है, मार्डी ग्रा परेड का असर हुआ होगा। अर्जुन को बहुत समझाया, कुछ न हुआ। फिर डॉक्टर और साइकोलोजिस्ट को भी दिखा लिया। पर सबने कहा कि यही सच है। इस सचाई को स्वीकारना ही बेहतर है। जब रोहित और शिखा ही इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं तो आप लोग इसे कैसे स्वीकारते। इसलिए उन्होंने आपको यहां आने से नहीं रोका।’

रमा बेटी की बात सुन रही थीं और उनकी आंखों के सामने पायल पहन, मां की साड़ी लपेटे, लिपस्टिक लगाए मुस्कराता छोटा अर्जुन नाच रहा था,  छम… छम… छम…। अचानक उनका सारा गुस्सा आंसुओं में बहने लगा। पता नहीं, यह उनके परिवार में पैदा हुए अर्जुन के ट्रांसजेंडर होने का दुख था या शिखा के दुख को न समझ पाने का।

संपर्क : 1, लेघ प्लेस, वेस्ट पेनांट हिल्स, एनएसडब्ल्यू 2125  ऑस्ट्रेलिया/ ईमेल – rekha_rajvanshi@yahoo.com.au