पारमिता शतपथी (जन्म :1965) ओड़िआ एवं अंग्रेज़ी की सशक्त कथाकार तथा कवयित्री। अब तक 18 पुस्तकें प्रकाशित। साहित्य अकादमी पुरस्कार के साथ अनेक पुरस्कारों से सम्मानित। |
रेखा सेठी सुपरिचित लेखिका, संपादक और अनुवादक। अद्यतन प्रकाशित पुस्तकों में – ‘स्त्री–कविता : पक्ष और परिप्रेक्ष्य’ तथा ‘स्त्री–कविता : पहचान और द्वंद्व’। दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में प्रोफेसर। |
मां बेटी की कथा
मां
देह पर तुम्हारी
इतने दाग कैसे?
क्या कहूं बिटिया
प्रत्येक दाग का इतिहास है
बीता जो देह और मन पर मेरे
छोड़ आई उसे
अंधेरी सुरंग में
यह जो देख रही हो
दाग सबसे गहरा
मेरी बाईं भौं के ऊपर
उस समय का है
जब मैं तेरे ही जैसी थी
सहमी रहती थी
सब दिन
संध्या समय
जलाती थी दिया
कम से कम
बचा रहे चेहरा
दाग से
कहूं कि न कहूं
प्यार करना तीक्ष्ण है इतना
हृदय चीर डालता
दाग ही रह जाता
कभी-कभी इतनी जल्दी
कि सांस लेने को
दम भर भी नहीं मिलता।
साड़ी
खुद को लपेटा मैंने
साढ़े पांच मीटर की मर्यादा में
और चूर हूँ खुद ही
अपनी महिमा के मद में
याद नहीं मुझे
कब मांगा था इस मर्यादा को हाथ फैला
या फिर, थमा दी गई जबरदस्ती
किसी की लाल आंखों का उपहार
यह कोई निर्देश था
या स्वप्न था प्रवण तारुण्य का
था पहला स्पंदित उपहार
मेरी अन्यान्य बहनें
अपने आवरण का महात्मय
बखान करतीं
मनपसंद-सुविधाजनक
सरल-स्वच्छंद
ऐसे कितने ही शब्दों के समीकरण
लेकिन मैं चुप थी
कैसे समझाती उन्हें
मेरा यह परिधान है आध्यात्मिक
रात को घर लौटी
साड़ी को खंड-खंड कर दिया
प्रत्येक खंड को मंत्रोचार के साथ
हवा में छोड़ दिया
एक खंड
कपड़ा बीनती औरत के
फटे घाघरे पर
पैबंद के लिए
एक खंड
गांव के किनारे घनी अमराई में
फेंक दी गई बलात्कृत निर्वस्त्र देह को
ढंकने के लिए
एक टुकड़ा
बड़े अस्पताल के बर्न्स वार्ड में
दहेज न लाने वाली
दस नंबर की खटिया पर पड़ी
नई दुल्हन को चादर ओढ़ाने
के लिए
बाकी की
पंच सितारा होटल में
पांच ग्राहकों को
मदिरा परोसती युवती का
वक्षवस्त्र सिलने के लिए
सुबह को देखा मैंने
वापस आ गए सभी खंड
पूरे जुड़कर
मुझे आकंठ डुबाने की चेष्टा में
मेरे पेट छाती और पीठ के हिस्से
निर्वस्त्र उधड़े हुए दिख रहे अभी भी
ढंक नहीं सकी जिन्हें
साढ़े पांच मीटर की लंबी साड़ी।
हमारा संबंध
पानी के बुलबुले को भी
संभाल कर रखा जा सकता है
नदी के बहते पानी में लकीर खींच सकते हैं
उत्ताल पवन को मैं
अपने हाथ की मुट्ठी में बंद कर सकती हूँ
लेकिन हमारे संबंध का क्या
जो मेरे वृत्त के बाहर ही रहा
युगों से जमे रेत के स्तूप पर
एक लहर-सा भी नहीं बचा
दूर पहाड़ के जैसा रहस्यमय तुम्हारा कांधा
ऊंचे खिले अशोक के फूल जैसा
अचानक खिला मंद हास्य तुम्हारा
मेरी देह में खिल आए मोगरे की सुगंध
दो कदम फैली सख्त जमीन की जिद्द
और मिट्टी के घड़े भर शहद को
बांट देने का निश्छल मन
कैसे सूख गया
ऐसा चमत्कारी जुड़ाव
जो जोड़े रहा पृथ्वी के सारे जोड़ों को
मिट्टी और पानी
फूल संग तितली
मन संग आत्मा को
ऐसे कभी ध्यान से देखें तो
थोड़ा-सा जुड़ाव लगा रहता
उस गंजे ग्राहक संग
लगी-बंधी वेश्या के बीच भी
पर हमें तो बूंद भर भी मिला नहीं
भावना का यह लगाव
बरसों से जो खोल दी हैं
डगमगाती नावें
पके हुए सपनों के
अलग-अलग समंदर में।
गांठ बांधना
योजनगंधा सत्यवती यदि जीवित रहती
शायद नहीं घटता
कौरवों और पांडवों के बीच महाभारत
अखंड भारतवर्ष की मां थी ही नहीं
अगर होती तो
क्या हो जाते दो हिस्से
हिंदुस्तान-पाकिस्तान
मां है पृथ्वी
जो बांहों में घेरे रहती है
जोड़ने वाले सूत्रों को
अगर ऐसा नहीं होता
तो कबके खत्म हो जाते
अमेरिका या रूस
इराक या इरान
जापान या चीन
सीरिया या सरबिया
इज़रायल या फिलीस्तीन
ज़िद्दी और कठोर
अबूझ मकड़ी के जाल जैसा
जिसकी परतदार शिराओं से
चुन रही है मां
छोटे-छोटे समता के दाने
जिन्हें पोषित किया
मां ने अपने श्रम और क्षीर से
प्रशांत महासागर के मध्य
छोटे से द्वीप में
अंटार्कटिका के बीच
पेंगुइन के साथ
हिमालय की बर्फीली गुफा में
बूढ़े साहारगच्छ के खोखल में
बारह सौ वर्ग फीट के फ्लैट में
निद्राहीन मां
रात भर गुनगुनाती लोरियां
सुलाने को धधकती धमनियों में
व्यस्क लोभ, प्रौढ़ हिंसा और ईर्ष्या का मद
मोटे लेंस का चश्मा लगाए
अंधेरे में ढूंढ़ती है
नेह का वह प्यारा धागा
जिससे बांध सकें उन्हें
लेकिन धागा बार-बार उलझ जाता।
रेखा सेठी, प्राध्यापक, इंद्रप्रस्थ कॉलेज फॉर वुमेन, दिल्ली विश्वविद्यालय, मो.9810985759
अच्छी कविता का अनुवाद भी अच्छे से किया गया, रेखा जी को इसके लिए बधाई, मूल कविता और अनुवाद में पूरी समता है, मैं कह सकता हूं की कविता को समझने में कहीं भी कोई असुविधा नहीं होती है यही अनुवाद का सबसे बड़ा गुण होता है रेखा जी को पुनः बधाई