प्रमुख हिंदी लेखिका।तिरुअनंतपुरम के गवर्न्मेंट वीमेन्स कॉलेज में प्रोफेसर।

‘सरहद क्षितिज।जहां दो लोक मिलते हैं, गलबहियां करते हैं।बॉर्डर इश्क है।इश्क जेल नहीं बनाता, हर रोक लांघने के लिए सितारे बिछाता हैं।बॉर्डर मिलान की रेखा है।इधर और उधर के जोड़ को अगल-बगल लाकर खुशनुमा बनाने को।दोनों मुल्क के लिए होता है।दोनों की मुलाकात के लिए होता है।संगम।’

सरहद की नई व्याख्या देनेवाली ये पंक्तियां गीतांजली श्री की रचना ‘रेत समाधि’ की है।बॉर्डर विभाजन की नहीं, बल्कि मिलान की रेखा है।यह एक अच्छी अवधारणा है।बॉर्डर लांघने की चीज है, उसे लांघने में मजा आता है।विभाजन की विभीषिका से त्रस्त भारतीयों को आईना दिखानेवाली है सरहद की यह नई व्याख्या।

मानव मन कीचिंताएं निगूढ़ और निरंतर हैं।वास्तव में ये चिंताएं ही उसे आगे बढ़ाती हैं।बहुत से लोग ऐसे हैं जो वर्तमान में जीकर भी अतीत का आनंद लेना पसंद करते हैं। ‘रेत समाधि’ एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो अपने भूतकाल में सफर करती है।वह अपने भरे-पूरे परिवार के साथ दिल्ली में रहती है।सभी उन्हें मां बुलाते हैं।उसका नाम चंद्रप्रभा देवी है, जिसका खुलासा उपन्यास के मध्य में जाकर होता है।अपने पति की मृत्यु के बाद चंद्रप्रभा देवी गहरे अवसाद में चली जाती हैं।वे हमेशा घाट पर पड़ी रहती हैं।बेटे, बेटी और बहुओं के दबाव के बावजूद वे अपनी पुरानी जिंदगी की ओर वापस नहीं आतीं, मानो उनकी यह जिंदगी पति की मृत्यु के साथ खतम हो गई हो।

अचानक एक दिन मां घाट छोड़कर उठती हैं और धीरे-धीरे उनके स्वभाव में काफी परिवर्तन दिखाई देते हैं, जैसे कि एक नई मां का जन्म हुआ हो।पड़ोस में रहनेवाली ट्रांसजेंडर रोजी की दोस्ती से मां काफी बदल जाती हैं।मां का यह नया जोश और उत्साह बेटी को अच्छा जरूर लगता है, पर रोजी के साथ मां की दोस्ती उसे बिलकुल नहीं भाती, चाहे वह अपने आपको मां से भी ज्यादा मॉडर्न क्यों न समझती हो।मां की दिनचर्या और खान-पान में आए बदलाव उसे काफी भ्रमित कर देते हैं।

यहां से उपन्यास एक नया मो़ड़ लेता है।मां अपनी बेटी को लेकर पाकिस्तान चली जाती हैं।वे परिवार के अन्य सदस्यों को बताकर निकली थीं, हालांकि किसी को मालूम नहीं था कि जीवन की संध्या वेला में मां पकिस्तान क्यों जाना चाहती हैं।यह राज उनके लाहौर पहुंचने के बाद ही खुलता है। ‘रेत समाधि’ की एक विशेषता यह है कि हर मोड़ पर कुतूहल है और आकांक्षा से भरी हुई घटनाएं हैं।

लाहौर की सड़कों से होकर मां ऐसे चलती हैं, जैसे उन्हें यह जगह भली-भांति परिचित हो।तब जाकर बेटी को पता चलता है कि मां का जन्म इसी लाहौर में हुआ था।इस शहर के एक हिंदू परिवार में उनका जन्म हुआ था और नाम था चंदा।भारत-पाक बंटवारे के बाद अन्य हिंदू लोगों की तरह चंदा भी सीमा पार करके भारत आने के लिए मजबूर हुई थी।वह यहां आने के बाद चंद्राप्रभा देवी नाम स्वीकार करके एक नया जीवन शुरू करने के लिए मजबूर हो गई होगी, ऐसा लगता है।

आखिरकार चंदा को अस्सी साल की उम्र में पाकिस्तान क्यों याद आई? उपन्यासकार चंदा के अतीतकालीन जीवन के परदे धीरे-धीरे उठाती रही है।लाहौर में चंदा ने अनवर नामक एक मुसलमान लड़के से प्रणय विवाह किया था।विवाह दोनों परिवारों की रजामंदी से ही हुआ था।बंटवारे के समय के दंगों के बीच चंदा अपने परिवार वालों और अपने पति अनवर से बिछुड़ जाती है।कई अनाथ लड़कियों के साथ वह सीमा पार करके भारत आती  है।भारत में चंद्रप्रभा देवी के रूप में उसका दूसरा जन्म होता है।अपने भरे-पूरे परिवार के साथ रहते वक्त भी शायद चंदा को अपने बिछुड़े प्यार की याद सताती रही हो।

जिंदगी के अंतिम दिनों में मां अपने प्रेमी अनवर को एक बार देखना चाहती हैं और अपनी जन्मभूमि पाकिस्तान में आकर मरना चाहती है।वह भी मुंह के बल गिरकर नहीं, पीठ के बल गिरकर …आसमान को देखते हुए।उपन्यास में पुलिसवालों से वह इसका जिक्र करती है।

‘मुंह के बल गिराना चाहते हो? आगे नहीं गिरूंगी।मैं पीछे गिरूंगी, ऊपर आसमान को देखती, मिट्टी पर लेटी।आगे से आए या पीछे से या कहीं से आए गोली।’ (पृष्ठ 346)।

बिना वीज़ा के दोनों मां-बेटी एक जगह सुरक्षा कर्मचारियों के हाथ लग जाती हैं।पुलिसवाले उनको सही सलामत भारत वापस भेजने को तैयार हैं, पर चंदा ऐसे जाने को राजी नहीं होती।उनका कहना है सालों बाद वे अपनी जन्मभूमि वापस आई हैं,  अब क्यों उसे वापस  भेजेंगे।

हरेक के मन में उसका अतीत छिपा होता है।उससे बाहर आते ही सबकुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है।मां के साथ कुछ ऐसा ही हुआ था।बंटवारे के बाद उन्हें देश छोड़कर भारत आना पड़ा।यहां उन्होंने शादी की और बच्चों और पोते-पोतियों से भरा-पूरा जीवन व्यतीत किया।समय बीतता गया।अब वे जिंदगी के अंतिम चरण में प्रवेश कर चुकी हैं।इस समय अतीत की यादें उनके मन में ताजा होकर उभर आती हैं।परिवार में खलबली मचना स्वाभाविक है।अपने प्रेमी के साथ सह-जीवन बितानेवाली, आधुनिक विचारोंवाली बेटी को भी मां का इस तरह भटकना बिलकुल नहीं सुहाता।इतना ही नहीं, मां का आगमन भारत-पाकिस्तान का मसला भी बन जाता है।तभी पुलिसवाले जल्द-से जल्द मां-बेटी को वापस भिजवाकर मामला रफा-दफा कर देना चाहते हैं।पर मां पुलिस अफसर अली अनवर से मुलाक़ात करने की जिद्द पकड़ लेती है।वह पुलिस अफसर को अपनी कहानी सुनाती है।

80 साल की एक औरत की मनगढ़ंत कहानी समझकर पुलिस अफसर पुलिस कर्मचारियों से मां-बेटी के लिए हवाई टिकट का इंतज़ाम करने का आदेश देकर चले जाते हैं।आखिर मां अपने मन में छिपाए वह राज खोल ही लेती है।वह पुलिस अफसर अली अनवर से कहती है कि उसे जिस अनवर की तलाश है वह उसके पिता हैं।सच हमेशा कड़वा होता है।शायद इसीलिए अनवर से मिलने की अनुमति मां को नहीं मिलती।पर उसका  इरादा पक्का था और प्यार सच्चा था।उस रात किसी की सहायता से चंदा की मुलाकात अनवर से होती है, जो लकवाग्रस्त होकर बिस्तर पर पड़ा था।बेसुध पड़े अनवर का हाथ अपने हाथ में लेकर चंदा बातें करती है।किसी की आहट सुनकर जब अली अनवर अपने वालिद के कमरे में आए तो इतना ही सुना, ‘तुम नहीं आए’, मां ने कहा, ‘तुम्हें माफ किया।मैं नहीं आई, तुम मुझे माफ कर दो।’ (पृष्ठ 355)।

बरसों से स्ट्रोक के कारण ठंडा, अकेला पड़ा रहनेवाला अपने वालिद का हाथ उस समय अलविदा की मुद्रा में उठते हुए अली अनवर ने देखा था।उन होठों से एक हल्की आवाज़ आई थी- ‘माफी’।दो बिछुड़े प्रमियों के मिलन का अपूर्व और हृदयविदारक नजारा।पर होनी को कोई टाल नहीं सकता था।जिस मकसद के लिए मां आई थी वह पूरा हो गया था, पर उसे उसकी कीमत चुकानी ही थी।

अंधेरे की ओट में पुलिस अफसर के घर में घुसी औरत पर सुरक्षा कर्मचारी गोली चलाते हैं और उसी रेत पर चंदा गिर जाती है, मुंह के बल नहीं, पीठ के बल, आसमान को देखती हुई वह अपनी अंतिम सांस लेती है।वह संतुष्ट थी, संतृप्त थी।सरहदों को पार कर अपनी जन्मभूमि में पहुंच पाने की खुशी में वह अपनी आंखें मूंद लेती है।चंदा और अनवर की प्रेम कहानी इस प्रकार पाकिस्तान की रेत में समा जाती है।

उपन्यास में कहानी कहने का एक नया ढंग है।इसकी कहानी, इसका कालक्रम और संवेदनशीलता सभी अनोखे तरीके से चलती हैं।वर्तमान अतीत को गले लगाता है।यह एक साधारण संयुक्त परिवार के दैनिक जीवन से शुरू होकर भीषण नरसंहार की परिक्रमा करके सुंदर और अमर हृदयविदारक प्रणय कहानी में तब्दील हो जानेवाली एक श्रेष्ठ रचना है।उपन्यास में चंद्रप्रभा देवी उर्फ चंदा एक जादू है।साथ-साथ ट्रांसजेंडर रोजी, मां की बेटी, बेटा, मां की सहायता करनेवाला नवास भाई, पुलिस अफसर अली अनवर आदि हमारे दिल को छू लेनेवाले पात्र हैं।उपन्यास के अंत में अली अनवर की मानसिक पीड़ा को भी खूबसूरती से चित्रित करने में लेखिका सफल हुई है।वह चंदा की मृत्यु के बाद काफी पछताता है।

उपन्यास का कथानक बहुत सरल है, लेकिन कथा-कथन का असाधारण प्रवाह पाठकों को चुनौती देनेवाला है।कौए और तितलियों द्वारा कहानी कहने की रीति उपन्यास को नूतन बनाती है।अनवर से मिलने में मां की सहायता करनेवाले का खुलासा आखिर एक कौवे के द्वारा ही होता है।कहानी कहने की इस शैली में कथालोक के साथ-साथ काव्य का भी विशाल संसार है।कहीं-कहीं सस्पेंस और आकस्मिकताएं हैं।वे भी काबिले तारीफ हैं।बहुत सावधानी से धीरे-धीरे पढ़ने से इन  कहानियों के स्वाद का आनंद हम ले सकते हैं।पूर्ण आनंद तभी संभव है जब हर शब्द और हर वाक्य पर ध्यान दें।उपन्यासकार के शब्दों में ‘हर कतरा हर तिनका हर रेशा पुर-एहसास है।’

हदों से भरा पड़ा है नारी जीवन।उन हदों को पार करना आसान ही नहीं, कभी-कभी नामुमकिन भी होता है।उपन्यास में चंद्रप्रभा देवी सभी हदों को पार करके अपना मुकाम हासिल करती हैं।औरत की इस इच्छाशक्ति को दिखाना इस उपन्यास का लक्ष्य है।उपन्यास में सरहद एक खास आशय के साथ आया है, ‘जानते हो सरहद क्या होती है? बॉर्डर।क्या होता है बॉर्डर? वजूद का घेरा होता है, किसी शख्सियत की टेक होता है।कितनी ही बड़ी, कितनी ही छोटी।रूमाल की किनारी, मेजपोश का बॉर्डर, मेरी दोहर को समेटती कढ़ाई।आसमान की सरहद।इस बगिया की क्यारी।खेतों की मेड़।इस छत की मुंडेर।तस्वीर का फ्रेम।सरहद तो हर चीज़ की है।’ (पृष्ठ 331)।इस तरह उपन्यासकार सरहद के अनहद अर्थ और आशय हमारे सामने रखती है।सरहद निकालने के लिए नहीं, दोनों तरफ को और उजालने के लिए होती है।सरहद विभाजन की रेखा नहीं, बल्कि मिलान की रेखा है।यह कितनी बढ़िया संकल्पना है! सरहद की यह नई संकल्पना ही इस उपन्यास को सबसे महत्वपूर्ण बनाती है।

सरहद क्षितिज के सामान है जहां पृथ्वी आकाश से मिलती है।सरहद एक दूसरे से मिलने के लिए बनी है, दुश्मनों की तरह मुंह मोड़ने के लिए नहीं।सरहद वाला यह एपिसोड उपन्यास में थोड़ा लंबा है।मां कहती है ‘गधो, सरहद कुछ नहीं रोकती।दो अंगों के बीच का पुल होती है।रात और दिन के बीच।जिंदगी-मौत के।पाने-खोने के।वे जुड़े हैं।उन्हें अलग नहीं कर सकते।सरहद क्षितिज।जहां दो लोक मिलते हैं, गलबहियां करते हैं।’(पृष्ठ 331)।तभी सरहद को पार कर मां लाहौर आई, अपने बिछुड़े प्रेमी से मिलने।

उपन्यास में हद-सरहद वाला भाग एक नए अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है।वाघा बॉर्डर पर भीष्म साहनी, बलवंतसिंह, जोगीन्दर पॉल, मंटो, राही मासूम राजा, शानी, इंतज़ार हुसैन, खुशवंत सिंह, रामानंद सागर, मंजूर एहतेशाम, राजिन्दर सिंह बेदी आदि लेखकों को दिखाया गया है, जिन्हें भी इंतजार रहा है सरहदों को पारकर प्यार और शांति का संदेश दोनों देशों में फैलाने का।मोहन राकेश का गनी अपने मलबे पर बैठा हुआ इंतजार कर रहा है।

जिंदगीनामा से लेकर गुजरात हिंदुस्तान से गुजरात पाकिस्तान तक रेखा खींचनेवाली कृष्णा सोबती भी वाघा बॉर्डर में इसी आशा में बैठी है। भारत-पाकिस्तान बंटवारे ने सरहद के आशय को बहुत संकीर्ण कर दिया है, जिसके कारण एक अविभक्त देश, दो दुश्मन बनकर आपस में लड़ रहे हैं।यह त्रासदी ही ‘रेत समाधि’ का मूल परिचय है।सिर्फ भारत में ही नहीं, दुनिया में जहां कहीं भौगोलिक विभाजन हुआ हो, मानव मन घायल हुआ ही है।सीमा की नाकाबंदी में बिछुड़ गए चंदा और अनवर की करुण कहानी द्वारा लेखिका यही दिखाना चाहती  है।

बंटवारा, सरहद, प्रणय, जुदाई आदि के साथ-साथ उपन्यास में कई उपकथाएं भी हैं।ट्रांसजेंडर रोजी का जीवन, चंद्रप्रभा देवी की बेटी और केके की प्रणय कहानी, मां पर नवास भाई की मेहरबानी, अनवर अली का पछतावा आदि मुख्य कथा को आगे ले जाने में सहायक हैं।उपन्यास में पक्षियों और जानवरों को भी पात्र बनाया गया है।कौओं को विशेष स्थान दिया गया है।कहीं-कहीं कहानी को आगे ले जाने का जिम्मा कौए पर दिया गया है।

मानवीय संबंधों की अंतरंगता और अलगाव को उजागर करनेवाली रचना है ‘रेत समाधि’।सरहदों के विनाशकारी दुष्परिणाम के खिलाफ प्रतिरोध है यह उपन्यास।मानव जीवन के बारे में हमारी समझ का विस्तार है यह उपन्यास।साथ-साथ यह हमें पुनर्विचार करने पर मजबूर कर देता है कि हमारे कुछ राजनीतिक निर्णय सही थे या गलत?

 

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