युवा कवि। छोटे बच्चों के बीच शिक्षा और पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में कार्यरत।
जब पौ फटी
जब पौ फटी
पहली किरण ने भेदा अंधेरे का कवच
तब बूढ़े पहाड़ की कंकरीली ढलान पर
वह तेंदु की
कुरमराती टहनियों के
गट्ठर बांध रही थी।
काफ़्का बालकनी में खड़ा ठिठुर रहा है
मुझे प्यास लगी है
पापा मुझे प्यास लगी है
चुपचाप सो जाओ
सुबह उठकर पी लेना
नहीं मुझे अभी पीना है
कहा ना चुपचाप सो जाओ
(बिस्तर में पैर पटक-पटक कर)
पानी चाहिए, अभी चाहिए
(दांत पीसते हुए)
रुको अभी पिलाता हूँ तुमको पानी
(बांह पकड़कर घसीटते हुए)
जब पूरी रात
बालकनी में खड़े रहोगे
तब होश ठिकाने आ जाएंगे
(धड़ाम से दरवाजा बंद)
पापा दरवाजा खोलो
भट भट भट भट भट
प्लीज पापा दरवाजा खोलो ना
(जोर जोर से रोने बिलखने की आवाज)
कान पकड़कर कहता हूँ
दुबारा कभी पानी नहीं मांगूंगा
बस आज दरवाजा खोल दो
प्लीज पापा प्लीज
यहां बहुत अंधेरा है
मुझे डर लग रहा है
(कोई जवाब नहीं)
कपकंपी, दांतों की कटकट…
पूरे शरीर को अपनी बाहों में समेटे
उकड़ूं बैठे हुए
जैसे घोंघा डर के मारे
खोल में घुस गया हो
सिसकियाँ चल रही हैं
हिचकियां हवा में घुल रही हैं
आंसू बर्फ में ठहर रहे हैं
और काफ्का बालकनी में खड़ा है
काफ्का खड़ा है
न्याय की आस में
कचहरी के कठघरे में
काफ्का खड़ा है
थानेदार की लाल-लाल आंखों के आगे
दरवाजे पर कांपता हुआ काफ्का खड़ा है
संसद की खंभों को निहारता हुआ
अपने गिने जाने की प्रतीक्षा में
काफ्का खड़ा है
राशन की दुकान के सामने
पेट मरोड़ता हुआ काफ्का खड़ा है
काफ्का रो रहा है
काफ्का सिसक रहा है
काफ्का बालकनी में खड़ा ठिठुर रहा है
पिता के दरवाजा खोलने की प्रतीक्षा में!
संपर्क : 712-के, ग्राम–हनुमानगढ़, ज़िला–सीधी, मध्यप्रदेश, 486771, मो.9425179005