मुख्यतः कहानीकार। दो कहानी संग्रह इश्क के रंग हजारऔर सांझ ढले गगन तले

 

सुरमई कार के शीशे पर सर टिकाए, ढलती शाम की प्राकृतिक छटाओं को मंत्रमुग्ध हो देख रही थी। सिडनी शहर बहुत पीछे छूट चुका था, पर ढलता हुआ सूरज उसके साथ-साथ चल रहा था। धरती के इस हिस्से में सूरज पूरी तरह अस्त होने के पहले, पश्चिम दिशा से नारंगी और लाल रंगों को यूं उछालता कि शफ्फाक नीले कैनवास पर देर तक रंगों का अद्भुत संयोजन चलता रहता।

सुरमई को सिडनी का सूर्यास्त बेहद पसंद था। जब से आई है हर शाम, देर तक बेटे के बॉलकनी से आसमान पर रंगों के इस अपूर्व खेल को वह अपलक निहारती रहती। रंगों का वह बनता-बिगड़ता संयोजन, उसके मन में लाल-नारंगी फूलों की विविध रंगोली रचता और शिथिल होने को उत्सुक जीवन में उत्साह की चाभी भरता। वह तब तक निहारती रहती जब तक कि आकाश सभी रंगों को समेट घुप्प अंधेरे की दुशाला में लिपट न जाता। यदि सिडनी का डूबता सूरज उसका मनपसंद था तो वहां की बारिश से उसे सख्त नफरत जो आए दिन बड़ी बेशर्मी से छमछम-झमझम करती आ धमकती और शाम की मनमोहनी आकाशीय क्रिया के रंगमंच से पर्दा उठने ही नहीं देती।

‘मम्मी, देखना कुछ ही देर में हम मूलरबेन कोल माइंस एरिया के नजदीक पहुंच जाएंगे। रात वहीं के गेस्ट हाउस में बिता कर सुबह नैशनल पार्क के लिए निकलेंगे।’

बेटे ने कार चलाते हुए कहा तो उसकी तंद्रा टूटी।

‘तुम्हारी मम्मी को पेंटर बनना चाहिए था, रंग देखते ही पूरी तरह तल्लीन हो जाती है मानो मैं हूँ ही नहीं।’

निरुपम ने हँसते हुए कहा तो सुरमई का मन बोले गए पंक्ति के अंतिम शब्दों पर अटक गए।

‘क्या सचमुच निरुपम को मेरे साथ की जरूरत है? मुझे क्या पसंद है इनको मालूम भी है? कौन कहता है कि स्त्री मन की थाह पाना मुश्किल है, यहां तो पुरुष भी जटिल ही हैं।’

सुरमई ने मन ही मन सोचा, एक टेढ़ी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर तिर गई। शाम पूरी तरह से ढली नहीं थी, आकाश में कालिमा का साम्राज्य होना शेष था कि रास्ते पर उड़ती काली धूल से वह चौंक गई। इतने साफ-सुथरे विकसित जगह पर पहली बार वह धूल देख रही थी और वह भी काले रंग की। याद आया रोहन ने बताया था कि वे लोग कोयला क्षेत्र में आज रात रुकने वाले हैं।

‘काला रंग’ उसे बेहद नापसंद है, उतना ही जितना उसे अपना नाम। दोनों ही उसे पर्यायवाची लगते, जाने उसके पिता को ये नाम क्यूं कर पसंद आया था जो बिटिया का नाम सुरमे के रंग पर धर दिया। शायद कुछ ज्यादा ही जो दामाद भी कोयला क्षेत्र में काम करने वाला खोज लिया।

‘ओह, रिटायरमेंट के बाद पहली बार फिर से कोयला खदान के पास आया हूँ। सोचा भी नहीं था कि कोल इंडिया में काम करने के बाद कभी ऑस्ट्रेलिया के प्रसिद्ध कोल इंडस्ट्रीज भी आने का मौका मिलेगा।’

अनुपम की चहक उसकी प्रसन्नता प्रकट कर रही थी। रोहन ने कार गेस्ट हाउस की पार्किंग में पार्क कर दिया। जरूरत भर समान ही उतारा गया, क्योंकि कल फिर निकल ही जाना था।

‘मैं चाहता तो इस एरिया से निकल किसी होटल में भी रुकने का इंतजाम कर सकता था पर जाने क्यों बुकिंग के वक्त इस गेस्ट हाउस को अवेलेबल देखा तो मेरा मन खिंचा चला गया कि चलो बचपन की कुछ यादें ताजा की जाएं। भारत की न सही ऑस्ट्रेलिया की ही।’

रोहन सामान उठाने के क्रम में बताता जा रहा था। इंसान अपने भीतर बसे बचपन से गाहे-बेगाहे मिलना जरूर चाहता है। कमरे में पहुंचते ही सुरमई निढाल हो बिस्तर पर पसर गई, मानो गहरी थकावट हो गई हो। रोहन और उसके पापा ने झट आस-पास घूमने का प्रोग्राम बना लिया।

दोनों के दरवाजे से निकलते ही थोड़ी-सी काली धूल बाहर से उड़ती हुई अंदर आकर उसके मानस पर पसर गई। कुछ देर के बाद केतली से गरम कॉफी बना कर वह खिड़की के पास धरी कुर्सी पर बैठ गई और परदे को सरका दिया। बाहर तेज रोशनी में सब कुछ जगमग था, दूर मूलरबेन की कोई ओपन कट खदान दिख रही थी। रात के वक्त भी रोशनी में नहा काला हीरा अपने प्रकाश से आलोकित था। ओवर बर्डन के टीले वह स्पष्ट पहचान रही थी। पहचानती कैसे नहीं, लगभग पूरी जिंदगी ही तो कोयला खदानों में कटी है। पुराना नाता है इस काले धूल से, इस पत्थर से और इस माहौल से। बहुत पहले की एक पंक्ति याद हो आई उसे-

‘कोयले-सी रात कर लो,

हीरे-सी सुबह चमकेगी’

यही रही सुरमई की जिंदगी, ताउम्र कोयले से अटी रही, पर अब हीरे-सी चमकदार जाने कब होगी। कारी अंधियारी-सी धूल उसके अंतर्मन पर कालिख-सी जम गई है। इस कोयले ने उसका बहुत कुछ हरण किया है। बेहिसाब इंतजार के अनगिनत दहशत-भरे पल आंखों के समक्ष फ्लैशबैक में गुजर गए। सुरमई झट से पर्दा फिर से सरका, बिस्तर पर आंखें मूंद लेट गई। उसे नफरत जो थी अपने विगत से, पर काल भूत बनकर सवार हो चुका था।

यादों की खिड़की का खड़कना

सुरमई शहर में पली-बढ़ी थी। उसने जब पहली बार खदान को देखा था, कई दिनों तक सदमे से उबर नहीं पाई थी। कहां उसकी अधिकांश सहेलियां विवाह के पश्चात महानगरों में रहने लगीं, कुछ विदेश भी चली गईं। वह शादी के पश्चात झारखंड के अंदरूनी भाग में रहने लगी, जहां कोयले के खदान में उसका पति निरुपम एक खनन अभियंता था। सुरमई के पिता एक व्यवसायी थे। निरुपम उनके एक मित्र के रिश्तेदार का बेटा था। वह पढ़ने में शुरू से कुशाग्र था। वे उससे पहले भी कई बार मिल चुके थे और उसकी शालीनता के बेहद कायल भी थे। जब देश के एक अच्छे इंस्टिट्यूट से उसने माइनिंग इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की तो उन्होंने उसकी नौकरी लगने के पहले ही अपनी बेटी सुरमई के रिश्ते की बात चला दी। कोल इंडिया में उसकी नौकरी बाद में लगी, उससे पहले सुरमई और निरुपम एक-दूसरे से परिचित हो चुके थे। यूं कहें फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही सुरमई मोहित हो चुकी थी उसकी बुद्धिमत्ता और स्वभाव पर, जहां सब कुछ सौ प्रतिशत शुद्ध था, न टांका न बट्टा। जब नौकरी लगी तो शुरुआती सैलरी मन लुभावन थी, सो मन में और ‘किंतु परंतु’ का भाव जाग्रत ही नहीं हुआ। व्यवसायी पिता को यूं भी नौकरियों और कंपनियों का ज्ञान कम और हानि-लाभ का ज्ञान अधिक था, इधर सुरमई का कोर्स पूरा हुआ उधर निरुपम की नौकरी के छह महीने होते न होते दोनों विवाह बंधन में बंध गए।

शादी के शुरुआती दिनों में सब मनोरम ही था। निरुपम जूनियर था और आठ घंटे की शिफ्ट ड्यूटी में काम करता, बाकी वक्त नवदंपत्ति साथ -साथ, भारतेंदु हरिश्चंद्र की लिखी पंक्तियों को चरितार्थ करते-

‘टूट टाट घर टपकत खटिया टूट,

पी के बांह उसीसवां तो है सुखन की लूट’

तब निरुपम जूनियर था, कार्य भार अधिक न था। तय वक्त में शिफ्ट खत्म हो जाती, फिर वह आजाद रहता अपनी ड्यूटी से। नई-नई शादी का चश्मा पहने सुरमई को भी तब न कोल फील्ड्स बुरे दिखते और न भविष्य की कोई चिंता सताती।

निरुपम के समकालीन अफसरों की पत्नियां सुरमई की सहेलियां बन चुकी थीं। वह उन्हें कहती भी, ‘मेरी स्कूल फ्रेंड रोजलिना शादी करके मुंबई चली गई है। एक कमरे के घर में रहती है तिस पर उसका किराया बहुत ज्यादा है। जब मैंने उसे अपने बंगले की तस्वीर भेजी तो वह आश्चर्यचकित हो गई कि नौकरी के शुरुआती दिनों में ही ये ठाट।’

कभी वह अपनी बड़ी बहन का जिक्र करती जो गुड़गांव में रहती थी।

‘उफ्फ क्या फालतू जगह है गुड़गांव, कंक्रीट का जंगल। हम कितने ब्लेस्ड हैं जो इन जंगलों के बीच हरियाली में बसे हुए हैं, वहां लोग तरसते हैं शुद्ध हवा के लिए।’

‘कितनी शांति है यहां। अभी मायके गई थी पटना, उफ्फ कितना शोर शराबा कि इंसान को नींद न आए।’

मन चंगा तो कठौती में गंगा! सुरमई सचमुच खुश थी और इसी खुशी के दामन को थाम वह अपनी गृहस्थी की नींव डाल रही थी। निरुपम, जिसके संग उसने सात फेरे लिए थे, वही तो था उस अनजान वीरान संपूर्ण कोयला क्षेत्र में जिसका संग उसे सबसे प्यारा था। वह वहां जिस किसी व्यक्ति या वस्तु से जुड़ रही थी माध्यम निरुपम ही था। चाहे उसके कलीग की पत्नियां हों या सीनियर की पत्नियां, बंगला हो या फिर जीप।

मौसम बदल रहा था 

जब मन खुश रहता है, सब कुछ हरा-हरा दिखता है। सुरमई वाकई खुश थी। उसे भान नहीं हो रहा था वहां की कमियों का। उसे मॉल, बड़े-बड़े मार्केट या रेस्टोरेंट न होने का जरा भी मलाल न होता। कोयला खदानों से सटी छोटी-सी कालोनी सर्वसुविधा संपन्न थी। क्लब हाउस था जहां साप्ताहिक गेट-टुगेदर होता, कालोनी के सभी अफसर अपने परिवार के साथ आते।

वाकई वे सोने के दिन थे और चांदी की रातें, जब न कोयला क्षेत्र में चलती भारी मशीनों का शोर डराता था, न काले धूल दिखते थे और न नौकरी न करने का कोई मलाल सुरमई को था। पर सब दिन होत न एक समाना।

उसकी एक सहेली नव्या ने वहां एक स्कूल ज्वाइन कर लिया। कोल फील्ड के स्कूलों में योग्य शिक्षकों की कमी हमेशा  रहती थी। नव्या निरुपम के साथ काम करने वाले इलेक्ट्रिकल इंजीनियर की पत्नी थी जिसने एमए, बीएड की पढ़ाई की हुई थी। नव्या का व्यस्त हो जाना सुरमई को अवश्य खला था।

‘क्या नव्या, इतने कम पैसों के लिए तुम अपना सारा दिन क्यों खर्च कर रही हो?’

व्यवसायी पुत्री सुरमई को सबसे पहले यही महसूस हुआ था!

‘देख सुरम्य, बात पैसों की सिर्फ नहीं है, बात अपने को व्यस्त रखने की भी है। इस निर्जन में इससे बढ़िया मैं कुछ और कर नहीं सकती थी।’

नव्या की बात सुरमई के गले नहीं उतरी। हां, उंगली पर गिने जाने वाले दोस्तों की लिस्ट से एक की कमी हो गई।

इसी तरह शोभित की पत्नी ने, जिसे एक छोटा-सा बच्चा था ऑनलाइन काम ढूंढ़कर खुद को व्यस्त कर लिया। अब सुरमई अपने फैशन डिजाइनिंग की डिग्री को हाथ में लेकर सोचने लगी थी कि वह क्या कर सकती है इस जगह।

जीवन चलने का है नाम

…रोहन के आने की आहट के साथ निरुपम भी कार्य क्षेत्र में व्यस्त होता गया और सुरमई घर, बच्चों और उनकी दैनंदिनी जरूरतों को पूरा करने में व्यस्त हो गई। जल्द ही उसको निरुपम की अतिव्यस्तता खलने लगी। भूमिगत खदानों के मुहानी डराने लगे। सैकड़ों फीट अंधेरी गहरी कोयले की सुरंग में हर दिन उतरता निरुपम की सुरक्षा को लेकर वह चिंतित रहने लगी। एक रात पसजती हथेलियों के स्पर्श से उसकी नींद खुली।

‘क्या हुआ सुरम्य, तुम बैठी क्यूं हो? अरे तुम तो रो भी रही हो?’ थके-हारे निरुपम ने आंख मलते पूछा।

‘आज कितना बड़ा हादसा हुआ माइंस में, कोयले की बड़ी-सी चाल धंस गई। कितने लोग दब गए, संयोग से तुम नहीं थे अंदर…!’

सुरमई के अंदर बैठा डर आज फन काढ़े उठ खड़ा था।

‘क्या किया जाए सुरम्य, यही मेरा काम है। अब बोलो, खतरा किस काम में नहीं होता? ऐसे मत डरो, मैं हर वक्त सुरक्षा नियमों का पूरा पालन करता हूँ। हेलमेट और लोहे की नोक वाले जूते पहन कर ही खदान में उतरता हूँ। बेल्ट पर भारी बैटरी बांध, हेलमेट में कैपलैंप जला कर ही चलता हूँ। मैं अपना ध्यान रखूंगा…!’

निरुपम समझाता रहा और सुरमई थर-थर कांपती रही।

यही डर धीरे-धीरे उसके जीवन के सुखों को चाटने लगा दीमक बन। कोयला खदानों में दुर्घटनाएं बेहद आम हैं। हर एक दुर्घटना सुरमई को अवसाद की तरफ धकेलती जाती थी। वैसे निरुपम इंसान के तौर पर बहुत अच्छा रहा, उसे जी जान से चाहता भी है, पर इसे बताने के लिए जताने के लिए उसके पास अब वक्त किधर था। कार्य के प्रति उसकी प्रतिबद्धता और दबाव उसे हर वक्त व्यस्त रखती। देर से घर लौटना तो रोज की बात थी। साथ ही सुरमई का आशंका से भयभीत रहना भी। इन्ही कारणों से निरुपम ने अपना तबादला एक खुली खदान में करवा लिया। भले यह धरती के एक बड़े भूभाग को अत्यधिक पर्यावरणीय क्षति पहुंचाती है, परंतु कोयला उत्पादन और सुरक्षा के दृष्टिकोण से बेहतर होती है।

महीने भर की जरूरत की लिस्ट बनानी सुरमई को भलीभांति आती थी, ऐसी कि नमक तक बीच माह नहीं घटे, जो वे लोग 80-90 किलोमीटर दूर सबसे नजदीकी शहर रांची से लेकर आते थे। शहर जाना उन दिनों किसी उत्सव से कम न होता। सोच-सोच कर खरीदारी की लिस्ट बनाई जाती, होटल में खाना, मल्टीप्लेक्स में मूवी देखना या नए फैशन के कपड़े खरीदना। बाकी वक्त यदि कुछ घटता तो शॉपिंग सेंटर्स की दुकान से काम चलता, जहां जरूरत के सामान मिल जाते। वहां लगने वाले साप्ताहिक हाट-बाजार बड़े रौनक वाले होते थे, जहां आसपास के गांव वाले टोकरियों में देहाती सब्जियां और जरूरत के रंगबिरंगे सामान बेचते जिसके ग्राहक ज्यादातर मजदूर होते थे।

उस छोटीसी जगह में रहने का सबसे बड़ा सुख था लोगों का आपस में सद्भाव। सभी काफी मिलजुल कर रहते और एकदूसरे की मदद को तत्पर रहते। ज्यादातर पतियों का वक्त कार्यक्षेत्र में ही बीतता था सो कॉलोनी की महिलाएं आपस में जुड़ी रहती थीं। किटी पार्टी, लेडीज क्लब इत्यादि बहुत बहाने थे मिलकर रहने और खुश रहने के लिए। सुरमई बहुत महात्वाकांक्षी नहीं थी। फैशन डिजाइनर की डिग्री भी एक तरह से टाइम पास चीज ही थी। खुद के लिए खुद सोचना जैसे उसे आता नहीं था, अपनी खुशियों या दुखों की जिम्मेदारी भी उसने दूसरों पर, खास कर निरुपम पर डाल रखी थी।

कॉलोनी की सहेलियों ने उस वीराने में खुद को व्यस्त रखने की राहें खोज निकाली थीं। उस दिन वह बहुत अन्यमनस्क हो गई, जब मुंबई से रोजलीना का फोन आया।

‘यार, इतने दिनों की मशक्कत और कोशिशों के बाद एक बड़े फैशन हाउस से मुझे इंटरव्यू का बुलावा आया है। पटना के उस छोटे प्राइवेट कालेज से पढ़कर मैंने तो उम्मीद ही नहीं की थी।’

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर अपनी दीदी और जीजा जी की तस्वीरों को देखकर उसे बहुत जलन महसूस हुई थी जो उन्होंने गुड़गांव के किसी मॉल में ली थी। वह उसी वक्त निरुपम से जिद्द करने लगी थी।

सुरमई वैसे बहुत खुश रहती, पर निरुपम के साथ को हमेशा तरसती रहती।

‘निरुपम, चाय पी लो, ठंडी हो रही है। जाने कब से जागे हुए हो, तब से फोन पर ही लगे हुए हो, रात सोए भी या नहीं? फिर तुम्हें ड्यूटी जाने की हड़बड़ी हो जाएगी और नाश्ता भी ठीक से नहीं करोगे।’

सुरमई की हर सुबह कुछ ऐसे ही शुरू होती थी।

‘अरे यार, कल रात मेजर ब्रेकडाउन हुआ है खदान में, मुख्य पंप और मोटर दोनों खराब हो गए हैं। उधर शावेल के दांते भी टूट गए हैं। रात पाली के मजदूर अभी तक घर नहीं जा पाए हैं। मोटर नहीं चलने से पानी पंपिंग पर असर पड़ने लगेगा और कोयले का निकलना रुक जाएगा…’

ये थी निरुपम की हर सुबह। हर दिन एक नया झमेला खड़ा रहता।

बरसात के दिन तो बहुत दिक्कत वाले होते थे कोयला खदानों के लिए, क्योंकि तब निचला इलाका होने के कारण और काफी गहराई की वजह से थोड़ी ही बारिश में खदानों में पानी भरने लगता और इसका सीधा असर कोयला उत्पादन पर पड़ता। उस वक्त तो अधिकारी और मजदूर दिन-रात काम करते, ताकि उत्पादन होता रहे।

एक बार स्कूल में पढ़ने वाला रोहन पूछ बैठा था, ‘पापा, आप कोयला क्यों निकालते हैं? ये तो गैर अक्षय-ऊर्जा का स्रोत है। करोड़ों वर्ष लगते हैं बनने में और आपलोग दिन-रात इसे खोद-खोद निकालते रहते हैं। कहीं खत्म तो नहीं हो जाएगा?’

निरुपम उस वक्त हड़बड़ी में ही था, खदान में कोई जरूरी काम अटका पड़ा था सो सुरमई ने ही उसे समझाने का प्रयास किया।

‘तुम्हारी टीचर ने बिलकुल सही पढ़ाया है, पर ये सब फिलहाल भविष्य की बातें हैं। अभी दो दिन कोयला उत्पादन सही से न हो तो देश में बिजली संकट हो जाता है।’

‘मम्मी यदि कोयला एक दिन खत्म हो जाएगा तो फिर पापा किधर नौकरी करेंगे?’ रोहन के सवालों का अंत न था।

‘परेशान न हो, धरती में कोयले का भंडार अकूत है फिर भी इसे समझदारी से खर्चने की जरूरत है।’ सुरमई ने रोहन को आश्वस्त किया था।

कुछ और वर्ष रोहन को वहीं कोलफील्ड्स के स्कूल में पढ़ाने के बाद सुरमई पास के एक बड़े शहर में शिफ्ट हो गई थी उसकी अच्छी पढ़ाई के लिए। कई वर्ष सुरमई और निरुपम यूं अलग-अलग रहे थे। यही दुख रहा है सुरमई को उसने जीवन के बेहतरीन पल इंतजार में या पति से दूर रहकर बिताए। बिलकुल फौजियों वाली जिंदगी रही है। कार्यक्षेत्र में खतरा होने से लेकर पत्नियों के सदाबहार इंतजार तक।

समय के साथ सुरमई सभी पारिवारिक जिम्मेदारियां अकेले उठाने में सक्षम होती गई। बेटे को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवाई। एक दिन वह सागर हो गया और मम्मी-पापा-देश सब गागर। रोहन की जिम्मेदारियों से मुक्त होने के बाद सुरमई निरुपम के साथ रहने लगी। परंतु तब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका था।

हमेशा मेहमानों की तरह आने वाले पति के साथ रहने की आदत बदल चुकी थी। अब निरुपम अवकाशप्राप्ति के समीप था और बीती जिंदगी में छूट गए सुखों को जीना चाहता था। जिस बरसात को देख पहले वह दहशत में आ जाता था कि जाने खदान में क्या होगा। अब वह उस बरसात में सुरमई के संग भींगना चाहता था!

‘सुरमई, लगता है बारिश होगी। चलो लांग ड्राइव पर चलते हैं।’ घुमड़ते काले बादलों को देखकर वह कहता।

‘मुझे तो बरसात अपनी बालकनी में ही बैठ कर देखना पसंद है।’ सुरमई हाथ में कोई किताब और कॉफी का मग ले कर बैठ जाती और निरुपम अकेला कार निकालकर चला जाता। अवकाश प्राप्ति के बाद निरुपम हमेशा सैर-सपाटा और घूमने को लालायित रहता, पर सुरमई अपने ठंडे व्यवहार से उनपर पानी फेर देती। निरुपम के पास समय ही समय था। अब वह हर पल सुरमई के साथ बिताना चाहता था, वह कुछ बताता रह जाता तब तक सुरमई सो चुकी होती या उठकर चली जाती।

‘सुरम्य, चलो शॉपिंग के लिए चलते हैं। मुझे याद है, तुम कोलफील्ड्स में बहुत तरसा करती थी।’ वह मनुहार करता।

‘अब बुढ़ापे में क्या खरीदना है! जब इच्छा थी, जरूरत थी, तुम नहीं थे – जगह भी वैसी नहीं थी। अब मुझे कुछ नहीं चाहिए, तुम अकेले चले जाओ। वैसे भी तुम इतना टोका-टोकी करते हो कि मुझे तुम्हारे संग शॉपिंग सजा हो जाती है।’

सुरमई बेरुखी से कहती। निरुपम ताकता रह जाता, कहां खो गई उसकी वो हिरनी-सी आंखों वाली डरी-सहमी सुरम्य? जो उसके इंतजार में आए दिन भूखी बैठी रहती थी।

निरुपम देख रहा था कि उसे उसके बिना जीने की आदत हो गई है। कोयले की कोठरी से बिना कालिख भला कौन निकलता है? उसके दांपत्य जीवन में भी आखिर कोयले ने आग लगा ही दी। उसे यह एहसास होने लगा था कि काम के प्रति उसके जुनून और धुन ने उसकी सुरम्य को इन वर्षों में उससे दूर कर दिया है।

ऑस्ट्रेलिया में रहते बेटे को भी पापा-मम्मी के बीच की खाई का अनुभव हो रहा था। इसीलिए उसने उन दोनों को अपने पास बुला लिया था।

‘रोहन, तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारी मम्मी मूलरबेन में आते ही उदास हो गई? कोल फील्ड्स में उसने अपने जीवन के सुनहरे दिन गवाएं हैं, सिडनी आने के बाद वह खुश दिखने लगी थी। यहां ठहरने का आइडिया सही नहीं। मुझे डर है कहीं उसका डिप्रेशन ट्रिगर न हो जाए।’

गेस्ट हाउस से निकलते ही निरुपम ने बेटे को कहा। कुछ देर पूर्व ही कोलफील्ड देखकर उल्लसित हो रहे मन पर निढाल होकर लेटी सुरमई की छवि ने उसे औचक ही बहुत कुछ समझा दिया था।

‘क्या किया जाए, निकल चलें यहां से? पापा। मुझे तो मम्मी की खोई हँसी लौटानी है। बस, काले धूल के बवंडर उसे फिर उदास न कर दें। एक बात बताऊं, मुझे अपने बचपन के वे दिन बहुत पसंद थे। आज भी याद आता है वह कोयलरी लाइफ! पापा, कहां दिखता है वह अपनापन और जुड़ाव लोगो में जो मैंने बचपन में महसूस किया था उन छोटी-छोटी जगहों पर।’

‘हां यार, मुझे भी अपना काम बेहद पसंद था। मैंने पूरे दिल से वहां काम किया था, बेहद चैलेंजिंग जॉब था। पर ये सच है कि तुम्हारी मम्मी बेहद उपेक्षित रहीं, जिसकी प्रतिध्वनि आज  हम सुन रहे हैं, भुगत रहे हैं। सुरम्य को मेरे काम और जगह की वजह से मुझसे भी मानो विरक्ति हो गई है।’

निरुपम की रुआंसी बातों को सुन रोहन ने उसके कंधे पर हाथ रखते कहा, ‘डोंट वरी पापा, हम दोनों मिलकर मम्मी की यादों की गैलरी से कोयला डिलीट कर देंगे। अभी इंडिया लौटने में वक्त है आपको। एक दिन मम्मी के बिना यहां आकर आपकी मेमोरी रिफ्रेश कर दूंगा। फिलहाल तो गलती सुधारनी है।’

रोहन को भी अपनी गलती अब समझ आ रही थी कि मां को यहां लाना गलत फैसला था। मोबाइल पर ठहरने की दूसरी जगह तलाशते वह पापा संग लौटने लगा। दरवाजा अभी भी भिड़ा हुआ था। लेटी हुई सुरमई का चेहरा निस्तेज दिख रहा था। उनकी आहट पर चौंकते हुए उसने उदास भाव से पूछा, ‘बड़ी जल्दी मेरी सौतन से मिल कर आ गए?’

‘मिलने का मन ही नहीं हुआ, गया ही नहीं, उफ! नाउ आई हेट कोलफील्ड्स। रोहन, जल्दी निकलो इस जगह से।’

सुरमई आश्चर्यमिश्रित निगाहों से उसे ताकने लगी, उसे वाकई बहुत दुख हुआ था, जब कुछ देर पूर्व निरुपम को खदान देखने के नाम पर खुश होते देखा था।

थोड़ी ही देर में वे लोग मूलरबेन कोलफील्ड्स से निकल जा रहे थे किसी दूसरे होटल में। सुरमई खिड़की से देख रही थी काला हीरा अपनी कालिमा समेटे पीछे छूटा जा रहा था। सामने कार की रोशनी में सुंदर साफ सड़क अपनी चिकनाहट से मन मोह रही थी।

संपर्क सूत्र : 204बीडब्ल्यू, कोयलाविहार अपार्टमेंट, गांधीनगर गेट के पास, कांके रोड, रांची, झारखंड– 834008 मो. 9575464852