पूर्वोत्तर की विशिष्ट हिन्दी लिखिका। गौहाटी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की सह आचार्य। असमीया और हिंदी– दोनों भाषाओं में लेखन कार्य। असमिया के साथ हिंदी में ‘मृगतृष्णा’ (हिंदी कहानी संकलन), ‘लोहित किनारे’ (असम की महिला कथाकारों की श्रेष्ठ कहानियों का हिंदी अनुवाद) पुस्तकें प्रकाशित।
लिनथोइङम्बी छत के ऊपर से उड़ते हुए हवाई जहाज को देखती रही। आज सुबह से कम से कम पचास हवाई जहाज यहीं से गुजरे हैं। पचास आए हैं तो पचास गए भी हैं। मणिपुर को लेकर इतनी खलबली पहले कभी नहीं मची। वह जब भी हवाई जहाज की आवाज सुनती, निकल आती और उसके ओझल होते ही नीचे उतर आती। पांच-दस मिनटों के बाद दूसरे जहाज की आवाज आती और वह फिर छत पर चढ़ जाती। सुबह से लेकर आज यही उसकी दिनचर्या रही। सीढ़ियों से उतरती हुई वह बोली- ‘यह ठीक नहीं हो रहा है।’
‘क्या ठीक नहीं होने की बात कर रही है?’ पति गोर्क्रोव ने नीचे उतरती हुई लिनथोइ की तरफ देखकर बरामदे से पूछा।
‘जो भी हो रहा है, ठीक नहीं हो रहा है। इतने लोग मारे गए हैं! कुछ हो नहीं सकता क्या?’
‘हम-तुम क्या कर सकते हैं? यह तो सामूहिक मसला है।’
‘अब तो सरकार को ही कुछ करना होगा।’
‘हां। इसीलिए तो सेना आ रही है।’
‘हमारे नेता क्या कर रहे हैं?’
‘क्या करेंगे? जिन लोगों ने मैतै, कुकी, नागा सबकी लड़कियों से शादी कर रखी हैं, वे किसकी ओर से बोलेंगे? मैतै की तरफ से बोलेंगे तो कुकी बीबी नाराज होगी और कुकी की तरफ से बोलेंगे तो मैतै बीबी की नाराजगी का क्या होगा? सबके साथ समभाव रख रहे हैं।’
‘लोग बेमौत मारे जा रहे हैं?’
‘उनका क्या आता-जाता है?’
‘मूल बात तो कुर्सी की है। कुर्सी के लिए सब उठक-बैठक लगा रहे हैं।’
‘खाना खा ले लिनथोइ। सुबह से कुछ नहीं खाया।’ गोर्क्रोव ने पत्नी से कहा।
‘खाना कैसे खाया जाएगा? तू खा ले।’
बात करते हुए दोनों पति-पत्नी अंदर के कमरे तक पहुंच गए। गोर्क्रोव ने चार्जर से मोबाइल निकाला और ‘मैं अभी आया’ कहता हुआ वहां से निकलने लगा। ‘देर मत करना, जल्दी आना’ कहकर लिनथोइ बिस्तर पर लेट गई। उसने आंखें मूंद लीं। मानो आंख मूंद लेने से बाहर हो रही घटना रुक जाएगी। हवाई जहाज की आवाज उसे तंग कर रही है। उसने तकिए को दोनों हाथों से मोड़कर कानों को बंद करने की कोशिश की। नहीं…आवाज आ रही है। जोरों से आवाज आ रही है।
पिछले कुछ दिनों से मणिपुर के कुकी और मैतै लोगों में संघर्ष चल रहा है। मणिपुर कई संप्रदायों का आवासस्थल है, जिनमें मैतै और कुकी प्रमुख हैं। जनसंख्या के साथ राजनीतिक आधिपत्य का सवाल जुड़ा हुआ होता है। मणिपुर के स्थानीय मैतै जो संख्या में बहुत अधिक हैं, वे इंफाल की छोटी–सी समतल जमीन पर बसे हैं और उसकी चारों ओर के विस्तृत पहाड़ी क्षेत्र कुकी लोगों का है।
म्यांमार, बांग्लादेश और भारत की अंतरराष्ट्रीय सीमा के आसपास अन्य कुछ जनजातियों के साथ कुकी लोगों की टुकड़ियां फैली हुई हैं। मणिपुर में कुकी को जनजाति की मर्यादा दिए जाने से उन्हें समभूमि के साथ-साथ पहाड़ों पर बसने का अधिकार मिला। वे लोग अंग्रेजों के जमाने से ही म्यांमार के वर्तमान के चीन प्रदेश से प्रव्रजन करते रहे हैं। निरंतर हो रहे आग्रासन से उनकी संख्या बढ़ती गई। बताया जा रहा है कि अस्वाभाविक रूप से हो रही संख्या की वृद्धि के चलते मैतै लोगों ने जनजाति की मर्यादा की मांग की। इसमें कुकी लोगों ने भारी आपत्ति जताई। इसी के फलस्वरूप मणिपुर में दोनों संप्रदायों के बीच आग सुलग रही है।
पास से आई गोलीबारी की आवाज से लिनथोइ की नींद टूटी। वह झटपट उठी। आवाज बढ़ने लगी तो वह बाहर की ओर लपकी। गोर्क्रोव आंगन में टहल रहा था। दहलीज पर दोनों एक दूसरे से टकराए।
‘कहां भागी जा रही है? मरना है क्या? अंदर चल।’ पत्नी का हाथ पकड़कर गोर्क्रोव ने उसे रोक लिया।
‘बाहर क्या हो रहा है?’ हाथ को पति से छुड़ाने की कोशिश करती हुई लिनथोइ ने बाहर की ओर देखा- ‘गोली चली है क्या?’
‘हां।’
‘इतनी जोरों की आवाज हुई! लगातार गोली चली! कोई नया हथियार होगा। यह जरूर कुकी की हरकत…’
बात को आधे में ही उसने छोड़ दिया। गोर्क्रोव की पकड़ लिनथोइ पर ढीली पड़ गई। ‘मैतै तो जैसे दूध के धुले हैं’ कहकर वह अंदर की ओर चला। लिनथोइ गोर्क्रोव के पीछे-पीछे घर के अंदर आई।
‘मेरा मतलब वह नहीं था।’
‘क्या था?’
‘यही कि जब भी यह सब चलता है आम लोग मारे जाते हैं।’
गोर्क्रोव चुप रहा। लिनथोइ गोर्क्रोव के स्वभाव से भलीभांति परिचित है। कुकी को लेकर एकाएक उसके मुंह से निकली इस बात ने निश्चित रूप से उसे बुरी तरह चुभा होगा। उसने परिवेश को सामान्य बनाने के लिए गरमागरम चाय गोर्क्रोव के सामने परोस दी। चाय की चुस्की लेते हुए वह बोला- ‘घर में नाश्ता है न!’
‘हां है। दिया है न।’
‘नहीं, मेरे कुछ दोस्त आ रहे हैं।’
‘इतनी गोलीबारी के बीच?’
‘हां।’
‘कितने आएंगे?
‘पंद्रह-बीस।’
‘इतने? इतने दोस्त कहां से हुए तेरे?’
‘मुहल्ले से।’
‘मुहल्ले में तो तेरा एक भी दोस्त नहीं है!’
‘आपदा के समय अपने लोग तो मिलेंगे ही न!’
‘मुहल्ले के सारे लोग अब तेरे दोस्त बन गए! यहां बैठक होने वाली है! और तूने मुझसे बताया क्यों नहीं?’
‘सब कुछ अचानक से हो गया। मैतै और कुकी के बीच जो भी चल रहा है, उसे जल्दी खत्म करना है। इसी को लेकर बैठक है।’
गोर्क्रोव की बातों से उसे तसल्ली मिली। बोली- ‘बिस्किट है। और कहो तो सूजी भी बना लूं।’
‘ठीक है। सूजी घी से बनाना। काजू और किशमिश भी डालना।’
शाम को उनलोगों के आंगन में मुहल्ले के लोग भर गए। सब पुरुष। बूढ़ों ने अपनी–अपनी कुर्सियों पर अपना कब्जा जमा लिया था। कुछ लोग दरी पर बैठ गए। नौजवान खड़े होकर बैठक की शुरू होने की प्रतीक्षा करने लगे। गोर्क्रोव अंदर से कुछ जलती हुई अगरबत्ती के टुकड़ों के साथ बाहर आया। उसके हाथ से एक युवा ने अगरबत्तियों के टुकड़े ले लिए। गोर्क्रोव को जगह देने लिए एक पुरुष खिसक गया और वह दरी पर बैठ गया।
‘यह अस्मिता की लड़ाई है। जैसे भी हो हमें आगे बढ़ते जाना है।’ मुखिया थंगलुंग हाओकिप की इस उक्ति के साथ बैठक शुरू हो गई।
‘मैतै का शोषण हम सहन नहीं करेंगे।’ दूसरे ने कहा।
‘पहले बता कि आज की ताजा खबर क्या है? बाहर गोली चली थी!’ गोर्क्रोव ने जिज्ञासा जाहिर की।
‘हां। पर घबराने की कोई बात नहीं है।’ किसी ने कहा।
इसी बीच गोर्क्रोव का बेटा आंगन आ पहुंचा। एकाएक सब चुप हो गए। उसके आने से इस गंभीर चर्चा में बाधा पहुंची थी। विरक्त भाव से एक बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा- ‘तू यहां क्या कर रहा है? अंदर चल।’
उसे वहां रहना अच्छा लग रहा था। वह वहां से नहीं गया। बेटे को वहां खड़ा देख गोर्क्रोव ने कहा-‘अंदर जा बोइपु। तू अभी छोटा है। हमारी बातें नहीं समझेगा।’
गोर्क्रोव के आठ साल का बेटा है बोइपु। यह नाम गोर्क्रोव का दिया हुआ है। आबुङो नाम उसे लिनथोइ ने दिया है। वह समझ नहीं पा रहा था कि उसे वहां से क्यों जाने के लिए कहा गया है। पहले भी उनके यहां अड़ोस-पड़ोस के लोग आते हैं, बातें करते हैं। उन बातों में वह शरीक होता है। अधिकतर बातें उसके सर के ऊपर से उड़ जाती हैं। फिर भी वह वहां रहता है। कोई उसे वहां से भगाता नहीं है। बाबा के कहने बाद वह अंदर चला गया।
लिनथोइ रसोईघर में बिस्किट और सूजी परोस रही थी। ‘बाहर क्या बात हो रही है?’ पॉकेट से बिस्किट निकालकर प्लेटों पर रखती हुई लिनथोइ ने पूछा।
‘नहीं जानता।’
‘कुछ तो सुना होगा?’
‘हां।’
‘क्या सुना?’
‘कुछ समझ नहीं पाया।’
‘तू बता दे, मैं समझा दूंगी।’
‘लड़ाई, मैतै, शोषण। ये ही मुझे याद है।’
‘तू जा न बाहर। जो भी बातें होती हैं, आकर मुझसे बताना।’
‘बाबा ने मुझे वहां से भगा दिया।’
‘क्यों?’
‘कहा कि मैं अभी छोटा हूँ।’
यह बात लिनथोइ को भी समझ नहीं आई। बाहर बैठक चल रही थी। हाओकिप मुखिया बोल रहा था- ‘हम सैकड़ों साल पहले से यहां रह रहे हैं। यह जमीन हमारी है। हम वर्षों से यहां के जंगलों की सुरक्षा करते आ रहे हैं। यहां के जल, थल, पशु, पक्षी पर हमारा एकाधिकार है और रहेगा। संपत्ति, शिक्षा, नौकरी पर मैतै लोगों ने अपना अधिकार जमा लिया है। अब वे हमारा हक छीनना चाहते हैं। यह नहीं होगा।’
‘अब हम क्या करेंगे?’ अन्य एक पुरुष ने पूछा।
‘सबको सर पर कफन बांधकर आगे बढ़ते जाना है। अपनी लड़ाई खुद को ही लड़नी पड़ती है।’
बैठक से सब लोग उठने लगे। गोर्क्रोव ने कहा- ‘चाय बन गई है। लिनथोइ लाती ही होगी।’
‘हमें नहीं पीनी। तुम भी उससे थोड़ी सावधानी बरतना।’ हाओकिप मुखिया के कथन से बैठक समाप्त हुई।
मुखिया सहित मुहल्ले के सब बड़े–बुजुर्ग बैठक में आए थे। चाय बन जाने के बाद लिनथोइ ने अलमारी से नई फनेक निकाल ली। मां ने पिछले लाइ हराओबा में घर जाते समय उसे यह फनेक देते हुए कहा था– ‘यह गुलाबी फनेक तुझ पर बहुत फबेगी। मौका मिलने से कभी कभार पहन लेना।’ उसने मां को याद करते हुए फनेक पहन ली और आईने के सामने खड़ी हो गई।
फिर बिखरे बालों में कंघी की और रसोईघर की ओर चली। चाय के साथ बिस्किट और सूजी लेकर लिनथोइ दहलीज तक आ चुकी थी। उसने हाओकिप मुखिया की बात सुन ली। उसके अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ। जो आदमी हमेशा बेटी बेटी कहकर सुबह शाम चाय पीता है, आशीर्वाद देता है, वह आज क्या कह रहा है? गोर्क्रोव को उससे किस तरह की सावधानी बरतने की बात कर रहा है? वह वहां खड़ी की खड़ी रह गई। गोर्क्रोव लोगों को विदा कर अंदर की तरफ आया तो दहलीज में ही लिनथोइ के साथ उसका सामना हुआ। वह लिनथोइ से नजरें नहीं मिला पाया। वह अंदर चला गया। लिनथोइ भी उसके पीछे-पीछे अंदर चली। गोर्क्रोव मसहरी लगाने लगा। बिस्तर की खुटियों में मसहरी टांगकर उसे तोचक के नीचे खोंस रहा था। लिनथोइ बोली- ‘तू भी चाय नहीं पिएगा क्या?’
‘नहीं।’
‘चाय-बिस्किट का क्या करूँ?’
गोर्क्रोव ने कुछ नहीं कहा। वह मसहरी को ठीक तरह से टांगने में अपना पूरा ध्यान लगा रहा था। लिनथोइ रसोईघर संभालने चली और कुछ देर बाद वह भी सोने के लिए आई। गोर्क्रोव बिस्तर पर चुपचाप लेटा था। लिनथोइ के मन में भावों का समंदर उमड़ रहा था। पति को सोते देखकर उसने उससे बात करना ठीक नहीं समझा। वह करवट बदलती रही।
‘नींद नहीं आ रही?’ गोर्क्रोव ने निश्चल भाव से पूछा।
‘तू नहीं सोया?’ लिनथोइ ने पलटकर पूछा।
‘बोइपु ने कुछ खाया?’
‘खाने के लिए कहा था।’
‘और तूने?’
लिनथोइ की आंखें भींग आईं।
‘कुछ खा लेती।’ गोर्क्रोव ने उसकी कमर पर हाथ रखकर प्यार से कहा।
लिनथोइ उसका साथ न देते हुए पूछती है- ‘हाओकिप मुखिया क्या कह रहा था मेरे बारे में?’
‘कुछ नहीं।’
‘मुझसे तुझे खतरा है?’
गोर्क्रोव उठ बैठा- ‘क्या बोलती है?’
‘जो सुना। ’
‘कहने से कुछ नहीं होता। मुझ पर भरोसा रख।’
‘एक तेरे भरोसे ही तो मैं हूँ।… तूने हाओकिप से कुछ कहा क्यों नहीं?’
‘वह मुखिया है।’
‘और मैं? मैं कुछ नहीं लगती तेरी?’
‘तू मेरी जिंदगी है । सबकुछ…’ कहकर गोर्क्रोव ने लिनथोइ को सीने में समा लिया।
‘दरवाजा खुला है। आबुङो जग जाएगा।’
गोर्क्रोव ने पत्नी को अपने बंधन से मुक्त कर उसे धीरे से सुला दिया।
‘तू मेरे साथ है न!’ उसने पति पर रहे अपने विश्वास पर मुहर लगाना चाहा।
गोर्क्रोव ने फिर से उसे बाहों में भर लिया। फिर धीरे से उसकी पीठ सहलाकर कहा– ‘मुझ पर विश्वास रख। विश्वास की नींव पर ही संसार चलता है। दुनिया के लिए मैं कुकी हूँ और तू मैतै। हमारे लिए तो हम पति–पत्नी हैं। हमारा एक सुखी परिवार है। एक बच्चा है।’
‘आबुङो क्या है? कुकी या मैतै?’ लिनथोइ ने गोर्क्रोव का मन टटोलने के लिए यह सवाल किया।
‘जो भी हो क्या फर्क पड़ता है?’
‘फिर भी…’
‘वह कुकी है।’
‘कैसे?’
‘मैं कुकी हूँ।’
‘नहीं। वह मैतै है।’
‘कैसे?’
‘मैं मैतै हूँ।’
‘पर कुकी समाज बाप पर चलता है।’
‘तू सच्ची में ऐसा सोचता है?’ धीमी रोशनी में अचरज भरी निगाहों से लिनथोइ ने गोर्क्रोव का चेहरा पढ़ने की कोशिश की।
‘तू सच्ची में ये सब पूछ रही है?’ भावहीन मुद्रा में गोर्क्रोव ने कहा।
‘मैंने तो यों ही पूछ लिया।’
‘मैं तो यों ही बोल गया।’
इन बातों से गोर्क्रोव ऊब चुका था। रात के इस एकांत में प्रसंग बदलने के लिए उसने अपने होठों से लिनथोइ के होठ चाटने लगा। गोर्क्रोव का आलिंगन लिनथोइ को फंडा सा लगने लगा। उसने अपने को उससे मुक्त कर लिया। गोर्क्रोव उसे दिलासा दे रहा था, पर उस दिलासे में लिनथोइ को विश्वास का अभाव महसूस हो रहा था। इससे पहले जब भी परेशानी आती थी, लिनथोइ गोर्क्रोव के सीने से लिपट जाती थी। गोर्क्रोव उसे संभालता था। तब पति के हर एक शब्द से वह आश्वस्त होती थी। यह अविश्वास की भावना उसके मन में पहली बार पनपी थी।
लिनथोइ कॉलेज के दिनों तक चली गई। पंद्रह साल पहले की बात है। वह इंफाल के कॉलेज में पढ़ती है। गोर्क्रोव थ्लंगवाल भी उसी कॉलेज में पढ़ता है। दोनों में प्यार हो गया। पर लिनथोइ के परिवार ने इस रिश्ते को मंजूर नहीं किया। उसके बाबा गंभीर चुङ्खम का खानदान बहुत बड़ा है। मणिपुर में सब इज्जत की नजर से उन्हें देखते हैं। गंभीर चुङ्खम ने अपने पारिवारिक प्रतिष्ठा के अनुकूल खुद को गढ़ा है। मणिपुर सरकार में बड़े अधिकारी के रूप में वे कार्यरत थे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था- ‘असंभव।’
अगले दिन गोर्क्रोव ने लिनथोइ से पूछा था-‘तूने बाबा से बात कर ली?’
‘हां।’ कॉलेज के केंटीन में गोर्क्रोव के सामने बैठकर लिनथोइ ने कहा था।
‘बाबा क्या बोला?’
‘यही कि तू हमारी जात-बिरादरी का नहीं है। कुकी है, ट्राइबल है, क्रिस्टन है।’
‘तूने क्या कहा?’
‘क्या कहती? बात तो सच है।’
‘तुझे पहले पता नहीं था ये सब?’
‘था।’
‘तो?’
‘समझ नहीं आ रहा क्या करूं।’
‘मैं बोलूं?’
‘हां, बोल।’
‘हमें भागना होगा।’
‘अरे, तुझे क्या लगता है कि भागूंगी तो मेरे घरवाले मान जाएंगे? कभी नहीं। मैं अपना घर-बार, माँ-बाबा, परिवार छोड़कर नहीं रह पाऊंगी।’
मणिपुर में प्रेमियों का भागना आम बात है। वहां सिर्फ प्रेमी जोड़े ही नहीं, अरैंज मेरीज के जोड़े भी भागते हैं। शादी तय होने के बाद उनके भागने का मतलब यह संदेश देना होता है कि वे अब अपनी दुनिया बसाने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं। वे भागते हैं तो घरवाले उनकी शादी करा देते हैं और दोनों परिवारों में उनको स्वीकार किया जाता है। पर अगर लड़का या लड़की को लेकर किसी एक परिवार या दोनों परिवारों में भारी आपत्ति होती है, तो यह शादी नहीं कराई जाती। लिनथोइ को पता था कि उसका बाबा कभी भी इस रिश्ते को मंजूर नहीं करेगा।
‘और मुझे छोड़कर रह पाएगी?’ गोर्क्रोव ने भावुक होकर पूछा था।
‘वही तो।’
‘देख लिनथोइ। जीवन में साथी का होना बहुत जरूरी है। हमें हक है कि अपने मनचाहे साथी के साथ जीवन जिए। तू मेरे साथ जैसे चाहे वैसे रह सकती है। मैं कभी तुझे किसी चीज के लिए मना नहीं करूंगा।’
‘सच्ची?’
गोर्क्रोव ने लिनथोइ के सर पर हाथ रखकर कहा- ‘हां, मैं सच बोल रहा हूँ। मुझे तेरी कसम।’ लिनथोइ ने अपने सर से उसका हाथ उतारकर उसे चूम लिया था। वह फिर से बोलने लगा था- ‘तू जैसे मायके में है, मेरे साथ भी वैसे ही रहेगी। तू मैतै बनकर रहना, हिंदू बनकर रहना। अपना पूजा-पाठ करना, अपना खाना खाना। मेरे और तेरे बीच हमारे धर्म, जाति और रीति-रिवाज को कभी आने नहीं दूंगा। अगर तुझे मंजूर है तो हम भागते हैं। नहीं तो हमें सब कुछ सपने की तरह भूल जाना होगा। फैसला तुझे करना है। तू जो भी कहेगी मैं मान लूंगा।’
‘मुझे तेरा साथ चाहिए।’ लिनथोइ ने कहा था। उसी रात वह गोर्क्रोव के साथ भागी थी। लिनथोइ के बाबा ने अनाड़ी बेटी को कुकी के चंगुल से बचाने के लिए पुलिस भेजी थी। उन दोनों ने पहाड़ी के पॉपी खेत में पूरे एक महीने काटे थे। छुपने के लिए ये पॉपी खेत सबसे सुरक्षित जगह है। वहां पुलिस की पहुंच नहीं होती। जरूरत पड़ने से वहां से म्यांमार भी भागा जा सकता है। कुछ ही महीने बाद लिनथोइ की गोद भर गई। इकलौती बेटी के जीवन की इस बड़ी खुशी ने बाबा का दिल पिघला दिया। गंभीर चुङ्खम ने गोर्क्रोव को सगे-संबंधियों के साथ भोज खाने के लिए बुलाया। दामाद ने भी ससुराल के सारे लोगों का चरण स्पर्श करते हुए आशीर्वाद लिया। तब से लिनथोइ का मायका आना-शुरू हो गया था। कुछ दिनों बाद गोर्क्रोव और लिनथोइ के परिवार को रोशन करते हुए एक बेटे ने जन्म लिया। गोविंद जी के मंदिर की घंटी के साथ ही मणिपुर में सुबह मानी जाती है। घंटी बजते ही लिनथोइ बिस्तर से उठी। उसने घर आंगन में झाड़ू बुहारी की, रात की सूजी पिछवाड़े में फेंक दी। एक कप चाय के साथ वह गोर्क्रोव के पास गई-
‘उठ जा। चाय पी ले।’
‘उठ गई?’ ऊंघते हुए गोर्क्रोव ने पूछा।
‘मैं मां के घर जा रही हूँ।’
चौंककर वह बिस्तर पर बैठ गया था- ‘क्या?’
‘घबरा मत। शाम तक आ जाऊंगी।’
‘ओह! मैं तो… पर ऐसे माहौल में जाना ठीक होगा?’
‘मुझे जाना है।’
‘कभी भी कर्फ़्यू लग सकता है।’
‘लगने दे।’
‘बोइपु को छोड़ जाना। ’
‘मेरे आने तक आबुङो तेरे हवाले रहेगा।’ कहकर लिनथोइ कमरे से निकल गई।
दोपहर को लिनथोइ मायका पहुंची। उसको लेकर वे लोग बड़े परेशान थे। उसे देखते ही उसके भाई ने कहा–
‘बड़ा अच्छा हुआ दीदी कि तू आ गई। आबुङो कहां है?’
‘छोड़कर आई हूँ।’
‘ले आती तो अच्छा होता। फिर वापस वहां जाने की जरूरत ही नहीं होती।’
‘नहीं इबोहल। मैं ऐसे कैसे आ सकती हूँ? मुझे पता है कि मैं यहां सौ गुना आराम से रह सकती हूँ। पर नहीं, अगर मैं वहां गई तो मुझे वहां रहना है। मन बेचैन हो रहा था। तुमलोगों को देखने के लिए तरस रही थी तो चली आई।’
‘तू आराम कर। हम बैठक में जा रहे हैं।’
‘कौन-सी बैठक?’
‘कुकी के साथ भिड़ने की।’
‘कहां हो रही है?’
‘मुखिया चाचा के घर।’
‘मैं भी चलूं?’
‘चल न!’
लिनथोइ बाबा और भाई के साथ पड़ोसी के घर चली। पड़ोसी रोहलुना चिङ्ग्सुबम गांव का मुखिया है। अपने बैठकखाने में वह कुछ लोगों से घिरा हुआ था। वहां कुछ अनौपचारिक चर्चा चल रही थी। लिनथोइ को देखते ही वह सकुचाने लगा तो इबोहल ने कहा- ‘यह अभी भी मैतै है। इसीलिए तो हमारी खबर करने आई है। घबराने की कोई बात नहीं है।’
गंभीर चुङ्खम के कुर्सी पर बैठ जाते ही चिंतित मुद्रा में मुखिया चिङ्ग्सुबम ने बैठक शुरू की-‘विकट स्थिति है। एक सुपरिकल्पित योजना के तहत यह सब किया गया है। कुकी के जातीयताबोध की चेतना बहुत प्रबल है। वे अत्यधिक संवेदनशील हैं। भारत, बांग्लादेश और म्यांमार की सीमा को वे नहीं मानते। वे इस सीमा को पीड़न का प्रतीक मानते हैं। अंतरराष्ट्रीय सीमा को मिटाकर अपने देश और जाति का पुनर्गठन उनका सपना है। वे जब तब इस सीमा का उल्लंघन कर सामाजिक रूप से जुड़े रहते हैं। उनको सुनियोजित तरीके से काबू करना होगा।’
‘हां, उन्हें काबू में रखना ही होगा। हम यहां उनको पनाह दे रहे हैं। अब वे हमारी जमीन पर कुकी लैंड की मांग कर रहे हैं। मेरी ही बिल्ली और मुझी से म्याऊं?’ बैठक में शामिल एक वयस्क व्यक्ति ने कहा।
‘फिलहाल हम क्या करें? जो कुछ हो रहा है, हमसे देखा नहीं जाता।’ एक नवयुक बोला।
‘सरकार पर भरोसा रखना है। हर दिन इतनी सेना आ रही है। वे यों ही नहीं लाई गई होगी। एक-दो दिन देख लेते हैं। हम फिर जल्द ही मिलते हैं।’
दोपहर को लिनथोइ ने मां-बाबा के साथ खाना खाया। बाबा ने पूछा- ‘अब क्या क्या सोचा है?’
‘मुझे लौटना है। आबुङो को छोड़ आई हूँ। ऐसे भी इस माहौल में जल्दी घर पहुंचना ठीक होगा।’
‘कैसे जाएगी?’ मां ने पूछा।
लिनथोइ जब भी मायके आती है, मां कहा करती है– ‘रहना है कि जाना है? अगर रहना है तो रह जा। अगर जाना है तो कैसे जाएगी? गोर्क्रोव लेने आएगा तो कोई बात नहीं और अगर नहीं आ रहा है तो शाम होने से पहले चली जा।’ आज मां ने गोर्क्रोव का नाम नहीं लिया।
‘जैसे आई थी वैसे ही जाना होगा।’ लिनथोइ बोली।
‘वह तुझे लेने नहीं आ रहा? ऐसे कैसे आने दिया तुझे?’ बाबा ने आक्षेप किया।
‘मैतै के मुहल्ले में वह कैसे आता?’ पति की रक्षा करती हुई वह बोली।
‘जैसे तू कुकी मुहल्ले में रह रही है’ दीदी के सवाल का जवाब बाबा की ओर से इबोहल ने दिया। लिनथोइ कुछ बोल न पाई। वह जाने लगी तो भावुक होकर बाबा बोला- ‘जाना चाहती है तो जा। यह हमेशा याद रखना कि यह घर तेरा था और है। जब भी तुझे लगे कि तुझे इस घर में आना है, बेझिझक चली आना। घर का दरवाजा तेरे लिए हमेशा के लिए खुला रहेगा।’
‘बाबा, मेरी डोली तो यहां से नहीं उठी, पर यह चाहती हूँ कि मेरी अरथी पति के घर से उठें।’ आंसू छिपाने की कोशिश करती हुई लिनथोइ ने कहा।
इबोहल उसे छोड़ने गया। पतली गली छोड़कर वे मूल सड़क पर चढ़े तो लिनथोइ बोली- ‘नहीं भाई। तू इससे आगे मत चल। नहीं तो लौटना मुश्किल हो सकता है। मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण तुझे तकलीफ पहुंचे। यहां तक मैं अपनी मर्जी से चली हूँ। आगे भी मुझे अपना रास्ता खुद तय करना है। तू घर जा।’
दीदी को विदा करते समय इबोहल ने एक भारी थैली उसके हाथों में थमाते हुए कहा- ‘दीदी, मुझे तुझ पर पूरा भरोसा है। तू अपनी लड़ाई खुद लड़ सकती है, जीत सकती है। यहां कुछ आरामबाइ* हैं, रख ले। पता नहीं ये कब काम आ जाए। आरामबाइ सदियों से हमारी रक्षा करते आए हैं। अगर तुझे किसी कारण भागना पड़े तो इन्हें पीछे की तरफ फेंकते हुए भागना। कोई तेरा पीछा नहीं कर सकेगा। कोई करेगा तो इनके वार से मारा जाएगा। ऐसे भी सबको पता है कि मैतै का पीछा करने का मतलब है बेमौत मारा जाना।’
लिनथोइ के घर पहुंचने तक मणिपुर में कर्फ्यू की घोषणा हो चुकी थी। मोबाइल में दोनों संप्रदायों के साथ घटी करुण गाथाएं शेयर होने लगीं। वाइरल हुई आगजनी, अत्याचार, बलात्कार आदि के समाचार और विडियो से मणिपुर जलने लगा तो एकाएक इंटरनेट और टीवी के कनेक्शन बंद कर दिए गए। स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, ऑफिस बंद घोषित कर दिए गए। दूसरे राज्यों के लोगों को अपनी-अपनी सरकारें निकाल ले जा रही थीं।
फोन और टीवी के बिना लिनथोइ भी बाहरी दुनिया से अलग हो गई। गोर्क्रोव सुबह निकल जाता था और शाम को आता था। लिनथोइ अधीर होकर शाम तक उसका इंतजार करती, उससे कुछ खबर सुनने की अपेक्षा रखती। पर नहीं, गोर्क्रोव ने मानो अपने मुंह पर ताला लगा लिया था। लिनथोइ अक्सर पूछती है-
‘कहां रहा दिन भर?’
‘रिलीफ केंप में।’ हमेशा उसका यही उत्तर होता था। फिर भी कुछ नई खबर पाने की ललक से लिनथोइ ने यह पूछना नहीं छोड़ा था।
‘वहां की हालात कैसी है?’
‘बहुत बुरी। लोग भूखे मर रहे हैं। पॉपी के सारे खेत खदेड़ दिए गए। पता नहीं, लोग क्या करेंगे?’
‘मेरे मां-बाबा की कुछ खबर मिली?’
गोर्क्रोव चुप रहता है।
‘कहीं से खबर ला न !’
हफ्ते भर बाद टीवी का कनेक्शन दिया गया, पर इंटरनेट तब भी नहीं आया। लिनथोइ की जान में मानो जान आई। पता नहीं कुछ दिन हुए लिनथोइ का फोन खो गया था। कहां गया, वह समझ नहीं पा रही थी। शाम को उसने गोर्क्रोव के फोन से भाई को फोन लगाया-
‘हेल्लो, कैसा है इबोहल? मां-बाबा कैसे हैं? सब सही सलामत तो है?’
‘हम ठीक हैं। तू कैसी है दीदी?’
‘मैं ठीक हूँ। मुझे तुमलोगों की चिंता खाए जा रही है। इन दिनों क्या हो रहा है?’
‘होना क्या है! दिन भर सेना भर–भरकर हवाई जहाज आते रहे। उम्मीद थी कि हम न सही सेना उन्हें काबू करेगी। पर नहीं। सब मिलीभगत है। सेना के सामने उनलोगों ने हमारे लोगों पर गोलियां चलाईं। सेना देखती रही। कहा– यहाँ से कोई गोली मत चलाओ। समाचार में आया है कि हमारे दो लोग जख्मी हो गए। क्या केवल दो ही लोग जख्मी हुए होंगे? खबर मिली है कि दो सौ से तीन सौ लोग मारे गए, अलग से हजार लोग जख्मी हुए। बात दबाई गई है। हमारे गांव के गांव जलाए जा रहे हैं।’
‘सरकार क्या कर रही है?’
‘कहा है कि कुकी और मैतै दोनों के साथ न्याय करेंगे।’
‘कैसे?’
‘पता नहीं। कई सारे नेताओं ने दल और सरकार से इस्तीफा दी है।’
इसी बीच गोर्क्रोव कमरे के अंदर दाखिल हुआ। उसने पत्नी को परेशान देखकर कहा- ‘मोबाइल दे। मुझे किसी से जरूरी बात करनी है।’
उधर से फोन रख दिया गया। भाई के साथ पूरी बात न कर पाने से लिनथोइ तड़प उठी। उसने भड़ककर कहा- ‘तुझे फोन करना है या मैतै से बात करना तुझे अच्छा नहीं लगता?’
‘लिनथोइ, तेरा मायका मेरा ससुराल है। तेरे उनसे बात करने में मुझे भला क्यों एतराज होने लगा?’
‘तुझे कैसा लगता है मैं अच्छी तरह समझती हूँ। दुनिया भर के लोगों की खबर ले रहा है। पिछले एक हफ्ते से रात-दिन तू सबकी खबर रख रहा है, पर मेरे मां-बाबा की नहीं।’ कहते हुए उसका गला रुंध आया।
उसके हाथ से मोबाइल लेकर ‘तेरा कुछ नहीं हो सकता’ कहता हुआ गोर्क्रोव घर से निकल गया। उसके जाने के बाद लिनथोइ हिलककर रोने लगी। बेटा मां के पास आया और पूछने लगा- ‘क्या हुआ मां?’
‘तू यह बता कि तू कुकी है या मैतै?’
‘क्या?’ बेटे को कुछ समझ में नहीं आ रहा था।
‘यह बता कि तू कुकी का बेटा है या मैतै का?’
‘मैं क्या जानूं?’
‘कोई तेरा नाम पूछे तो आबुङो बताना। कुकी लोग अच्छे नहीं होते।’
गोर्क्रोव और लिनथोइ अपने बेटे को प्यार से किसी भी नाम से पुकारते थे। अब कुकी और मैतै के इस संघर्ष के बाद गोर्क्रोव ने उसे बोइपु कहकर पुकारना शुरू किया था और लिनथोइ को उसे आबुङो कहकर पुकारना सुखद लग रहा था।
मायके की किसी खबर की अपेक्षा से लिनथोइ ने टीवी का रिमोट दबाया। स्थानीय न्यूज पोर्टल पर खबर आ रही थी- ‘जल रहा है मणिपुर। कुकी और मैतै के संघर्ष के कई दिन हो गए हैं। कुकी क्षेत्र के मैतै लोग बेघर हो रहे हैं। इसी तरह मैतै क्षेत्र के कुकी लोग भी बेघर होने लगे हैं। बाहर से आ रहे ट्रक से राशन लूटा जा रहा है। पॉपी खेत और ड्रग्स के मोबाइल लैब्रटॉरी के उजड़ने से ड्रग्स माफिया को भारी नुकसान का सामना करना पड़ रहा है। इसी आक्रोश में सरकार को गिराने के लिए वे स्थिति को अस्थिर कर रहे हैं। एक सूत्र से मिली खबर के मुताबिक इस संघर्ष को चलाए रखने के लिए सीमापार से अरबों रुपये आ रहे हैं। आइए आपको विस्थापित मैतै लोगों के पास ले चलते हैं। उनकी कहानी उनकी जुबानी सुनिए।’
बूम के सामने कई लोग इकट्ठे हो गए।
‘हमें मत मारो। शांति से रहने दो। हमें जीने दो। हम भी मनुष्य हैं।’ एक बुढ़िया हाथ जोड़कर रो रही थी।
‘अगर सरकार हमारी रक्षा नहीं कर सकती, हम अपनी रक्षा खुद करेंगे। हमें हथियार दो। अपनी लड़ाई हम खुद लड़ेंगे।’ बीस-बाईस साल का एक युवक उबल रहा था।
यह खबर खत्म हुई तो लिनथोइ ने चैनल बदला। दूसरे चैनल में मणिपुर के इस तनावपूर्ण माहौल को लेकर कई विशिष्ट लोगों की परिचर्चा दिखाई जा रही है। एक बोल रहा था- ‘गत 30 अप्रैल को मणिपुर उच्च न्यायालय ने स्थानीय मैतै संप्रदाय को जनजाति की मर्यादा देने के लिए विचार करने को कहा था। मणिपुर के इक्यावन प्रतिशत लोग मैतै हैं, जो सामाजिक-आर्थिक रूप से आगे हैं। पर अब भी उन्हें उन तमाम सुविधाओं से वंचित किया जा रहा था, जो जनजाति होने के नाते कुकी को मिल रही थी। उच्च न्यायालय के इस परामर्श से कुकी लोगों की नाराजगी बढ़ी। इसी बीच ड्रग्स के अड्डों पर सरकार ने हथियार चलाए। ऐसे ही कुछ कारणों से कुकी और मैतै में दूरियां बढ़ती गईं। मैतै राजनीतिक रूप से ताकतवर हैं। अब इन लोगों ने जनजाति की मर्यादा की मांग की है। इससे कुकी लोग शंकित हो गए कि जो सुख-सुविधाएं कुकी लोगों को वर्षों से मिल रही हैं, वे अब उनसे वंचित हो जाएंगे।…’ इसी बीच बिजली चली गई तो टीवी बंद हो गया। शाम हो गई थी। लिनथोइ दीया जलाने चली। उसने सनामही के सामने सिर नवाते हुए प्रार्थना की- ‘हे सनामही, हम सबकी रक्षा करना।’
जब से गोर्क्रोव ने लिनथोइ के साथ बात करना कम कर दिया, तब से लिनथोइ अलग कमरे में सोने लगी थी। उसके मन में अस्थिरता थी, अधीरता थी। उस मानसिक हालत में वह गोर्क्रोव के साथ एकात्म नहीं हो पाती थी। बेटा कभी मां और कभी बाप के साथ सोता था। बिजली आई तो लिनथोइ फिर से समाचार देखने लग गई। घर और बाहर की मौजूदा हालात में उनका बेटा यतीम–सा हो गया था। उसकी खोज–खबर लेने वाला कोई नहीं था। वह ऊब चुका था।
उसने मां से कहा- ‘मां, स्कूल कब खुल रहा है?’
‘पता नहीं।’
‘स्कूल खुला ही था कि बंद हो गया। नया ड्रेस, नए जूते, नई किताबें, नए बेग सब ऐसे ही पड़े हैं। मुझे स्कूल जाने का बड़ा मन कर रहा है। वहां मैदान में खेलना इतना अच्छा लगता है!’
‘हां।’
‘चल न मां लूडो खेलते हैं।’
‘अभी खेलने का समय नहीं है।’
‘ठीक है। मुझसे बात तो कर।’
‘अच्छा, तू लूडो खेल। मैं समाचार देख रही हूँ।’
‘मैं अकेले कितना खेलूं? बाबा और तुम मुझे पसंद ही नहीं करते। बात भी नहीं करते, खेलते भी नहीं।’
आबुङो के कारण लिनथोइ पूरा समाचार सुन नहीं पा रही थी। तुनककर वह बोली- ‘अकेले खेल नहीं सकता, पढ़ तो सकता है। जा, नींद नहीं आ रही है तो पढ़ अभी।’
मां से मिली झिड़की से वह तुरंत किताब ले आया- ‘यहीं पढ़ूंगा। अंदर मुझे डर लगता है।’ लिनथोइ मना नहीं कर पाई। मां को बेटे की पढ़ाई से कुछ भी मतलब नहीं था और बेटे को मां के समाचार से। आबुङो समाजशास्त्र की किताब निकालकर जोर-जोर से पढ़ने लगा- ‘भारत एक गणतांत्रिक देश है। यहां सब लोगों का समान अधिकार है। यहां अनेक जाति-जनजाति के लोग सदियों से रह रहे हैं। उनमें भाईचारे की प्रबल भावना है। वे मिलजुलकर रहते हैं, एक दूसरे की मदद करते हैं।…’
उसने अचानक से किताब बंद कर दी और मां से कहा- ‘मैं नहीं पढ़ूंगा।’
‘क्यों?’
‘किताब में झूठी बात लिखी है।’
‘क्या?’
‘लोग मारकाट करते हैं। लिखा है कि मिलजुलकर रहते हैं।’
दिनभर की मेहनत के बाद गोर्क्रोव पूरी तरह थक चुका था। वह सोने गया था। मां को टीवी में व्यस्त देखकर बेटा बाबा के साथ सोने गया। उसने बाबा से पूछा- ‘बाबा, ये सब क्या हो रहा है?’
‘कुकी और मैतै में गलतफहमी हुई है।’
‘कुकी लोग अच्छे नहीं होते?’
‘किसने कहा?’
‘मां ने।’
‘कुकी लोग अच्छे हैं। मैतै अच्छे नहीं होते। बदमाश होते हैं।’
‘क्या किया मैतै लोगों ने?’
‘क्या नहीं किया? अब वे हमारी जमीन पर कब्जा करना चाहते हैं। हम पर अपनी बात थोपना चाहते हैं। तुझे पता है चुड़ाचांद कौन था?’
‘नहीं।’
‘चुड़ाचांद मैतै राजा था। हमारी जगह का नाम उनलोगों ने अपने राजा के नाम पर रख दिया। यह बस्ती कुकियों की है। कितने मैतै हैं यहां? मुट्ठी भर। तो हमारे किसी कुकी आदमी के नाम से बस्ती का नाम होना था न?’
‘हां…’
‘अब से कोई तेरा नाम पूछे तो बोइपु बताना।’
बेटा उलझन में पड़ गया। अब तक उसने घर में ऐसी स्थिति नहीं देखी थी। मां और बाप एक ही बात कहते थे, वही सच होता था। उसके मन में जिज्ञासा हुई कि कौन अच्छा है और कौन बुरा? पेशाब करने के बहाने से वह मां के पास गया। मां बिस्तर लगा चुकी थी। वह मां के पास सो गया। मां ने पूछा-
‘यहां सोएगा?’
‘हां।’
‘अच्छा बच्चा मेरा। आ जा। बता बाबा से क्या बात हुई? कुछ बताया?’
‘यही कि मैतै लोग गलत हैं। उनलोगों ने कुकी बस्ती का नाम चुड़ाचांदपुर रखा।’
‘अच्छा उसने यह नहीं बताया कि चुड़ाचांद कौन था?’
‘वह मणिपुर का राजा था।’
‘और क्या बताया?’
‘कुछ नहीं।’
‘राजा चुड़ाचांद ने कुकी लोगों को यहां बसाया था। कुकी लोगों ने अपनी मर्जी से राजा के सम्मान में इस बस्ती का नाम चुड़ाचांदपुर रखा। हम लोगों ने कुकी लोगों को यहां पनाह दी। हमने उन पर दया दिखलाई और अब वे हमारे सर पर ही सवार हो गए।’
बेटा फिर से बाबा के पास जाकर लेट गया। उसने पूछा-
‘कुकी को मैतै ने पनाह दी। तो वे क्यों मैतै के सर पर सवार हो रहे हैं?’
गोर्क्रोव समझ गया कि सवाल लिनथोइ का है। उसने जवाब दिया- ‘कुकी लोगों ने मैतै की मदद ही की है। उनलोगों ने नागा के अत्याचार से बचने के लिए कुकी लोगों को नागा के आसपास बसाया था। कुकी नहीं होते तो आज मैतै भी नहीं होते।’
बेटा मां के पास चला आया और बोला- ‘मैतै को तो कुकी ने मदद ही की है।’
‘मदद हमने उनकी की है। पहले तो हमने उन्हें रहने के लिए जगह दी। बाद में जब नागा उन्हें खत्म कर रहे थे, हम लोगों ने उन्हें बचाया।’
‘मुझे और चिट्ठी मत बना मां। मैं बाबा से कहने और नहीं जाऊंगा। मुझे नींद आ रही है।’
मां ने उसे छाती से लगा लिया। बेटे ने पाया कि मां की आंखों से आंसू बह रहे हैं। उसने आंसू पोंछ दिए और कहा- ‘तू चिंता मत कर मां। मैं बाबा को आज रात समझाऊंगा कि कुकी गलत कर रहे हैं…’ वह उठने लगा तो लिनथोइ ने उसके हाथ थाम लिए और कहा- ‘तेरे बिना मुझे चैन नहीं आता। यहीं सो जा।’
लिनथोइ प्यार से उसका शरीर सहलाने लगी। तंदुरुस्त बेटा दुबला हो गया है। पिछले कई दिनों से लिनथोइ का ध्यान मणिपुर में हो रहे संघर्ष पर टिका था। पहले घर के काम में जो शांति उसे मिलती थी, वह अब नहीं रही। मजबूरन उसे घर संभालना पड़ रहा था। वह समय पर खाना तो पकाती थी, पर ग्रोक्रोव के घर में न होने से खाना खाया नहीं जाता था। कभी अगर वह होता भी था तो परोसना भूल जाती थी। खाने को लेकर न ग्रोक्रोव की रुचि थी, न लिनथोइ की। इसी बीच बेटा उपेक्षित रहने लगा। कभी लिनथोइ उसे खाना परोसती थी, तो कभी खुद परोसकर खाने के लिए कहती थी। उसने खाया कि नहीं, खाया तो क्या खाया, कब खाया और कितना खाया खबर नहीं रखती थी। मां और बाप के तनाव का असर बेटे पर हो रहा था। दो महाशक्तियों के टकराहट का दुखद परिणाम हमेशा आम आदमी को ही भुगतना पड़ता है। उसे ग्लानि हुई। वह रात भर सो नहीं पायी।
सुबह उठकर ही लिनथोइ ने टीवी का स्विच ऑन किया। ऐसे वह देश–विदेश की खबर को लेकर सचेत नहीं रहती। पति और बेटे को लेकर ही उसका जीवन–चक्र घूमता था। कभी कभार वह सिनेमा या गाना देख लेती थी। गोर्क्रोव नियमित रूप से समाचार देखता था। इस समय गोर्क्रोव को टीवी देखने का समय नहीं मिल रहा था और लिनथोइ टीवी के समाचार में अपने को व्यस्त रख रही थी। मणिपुर की स्थिति को लेकर बाहर रह रहे मणिपुरी लोग उद्विग्न हो रहे थे।
अपने लोगों के लिए कुछ करने के लिए गुवाहाटी में चार मैतै संगठनों ने एक साथ प्रेस मीट दिया था। न्यूज रिडर पढ़ रहा था- ‘गुवाहाटी में मणिपुरी संगठनों ने राज्य में जारी अशांति के शांतिपूर्ण समाधान का आह्वान किया। इन संगठनों ने राज्य के विभिन्न हिस्सों में बसे सभी मैतै समुदाय की ओर से मणिपुर में बसे मैतै समुदाय की दुर्दशा पर दुख और अप्रसन्नता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि समय आ गया है कि हम एक मैतै समुदाय के रूप में वर्तमान और भविष्य की पीढ़ी को आसन्न खतरे से बचाने लिए योजना बनाएं। हम विनम्रतापूर्वक देश के बाकी हिस्सों के लोगों को सूचित करना चाहते हैं कि मैतै भारतीय संविधान के ढांचे का पालन करते हुए लोकतांत्रिक तरीके से अपने जनजातीय अधिकारों की मांग करता है। हमारी समस्याओं को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उजागर किए जाएं ताकि दुनिया को हमारे दावों और चिंताओं का पता चल सके। वर्तमान मणिपुर में चल रहे संघर्ष बहुत जटिल है और कुछ लोग इसे हिंदू बनाम ईसाई और मैतै बनाम आदिवासी के रूप में चित्रित करने की कोशिश कर रहे हैं, जो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और घाटी के सदियों पुराने संबंधों को अपूरणीय क्षति पहुंचा रहा है। हम विनम्रतापूर्वक मौजूदा अवांछित जातीय संघर्ष के लिए एक रणनीतिक और त्वरित स्थायी समाधान का अनुरोध करते हैं।’
कुछ दिन और बीत चुके थे। संघर्ष बढ़ता ही रहा। गोर्क्रोव के आंगन में फिर से कुकी लोग जम गए। हाओकिप मुखिया बोल रहा था- ‘बुरी खबर है। हमने नागाओं से बैठक की। उनको हमारे साथ देने का आग्रह किया। पर नहीं। वे बोले कि यह ईसाई और हिंदू की लड़ाई नहीं है। यह कुकी और मैतै की लड़ाई है। हम मैतै लोगों के खिलाफ नहीं जा सकते। यह उम्मीद बुझ गई तो हमें दुगनी ताकत से लड़ना होगा।’
‘अब क्या योजना है?’ बैठक में से किसी ने पूछा।
‘योजना की क्या कहें? योजना बनाने से पहले योजना बनाने की योजना पर विचार करना जरूरी हो गया है।’
‘क्या मतलब?’ एक युवक ने जिज्ञासा जाहिर की।
‘हम जो भी योजना बनाते हैं, उन तक पहुंच जाती है। हममें से कोई है जो यहां की खबर वहां पहुंचा रहा है। हमें गैरों पर भरोसा नहीं करना चाहिए।’
बैठक में सबकी जुबान बंद हो चुकी थी। सबकी नजरें गोर्क्रोव पर टिकी थीं।
‘लिनथोइ को कुकी बनाना होगा। कुकी रीति-रिवाजों का पालन करते हुए उसे यहां रहना होगा।’ मुखिया ने घोषणा की।
गोर्क्रोव किसी अवांछित घटना की संभावना से अंदर से हिल गया। बोला- ‘मेरा यकीन मानिए, लिनथोइ ने ऐसा कुछ नहीं किया। पिछले कुछ दिनों से वह कहीं नहीं गई है। उसके पास फोन भी नहीं है। उससे हमें कुछ भी खतरा नहीं होगा।’
‘हमारे लड़के कौन कहां जाते हैं, क्या ले जाते हैं, ये खबरें हमारे यहां से तो जाती होंगी न गोर्क्रोव?’
‘मुझे थोड़ा समय दीजिए। मैं उसे कहीं भेजने का बंदोबस्त करता हूँ।’ हाथ जोड़कर गोर्क्रोव बोला।
‘एक मैतै के लिए तू अपनी बिरादरी भूल रहा है। हमें खदेड़ने में तो उनलोगों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। हम तो मौका दे रहे हैं। या तो लिनथोइ कुकी बने नहीं तो…’
गोर्क्रोव ने बीच में ही बात काट दी- ‘मुझे सबकुछ मंजूर है। वह कुकी बन जाएगी।’
गोर्क्रोव अंदर चला। लिनथोइ खिड़की के पास खड़ी होकर बाहर हो रही बातें सुनने की कोशिश कर रही थी। गोर्क्रोव बोला- ‘तूने तो सुन ही लिया है। तैयार हो जा।’
‘यह तू क्या कह रहा है?’ लिनथोइ आंखें फाड़कर गोर्क्रोव को देखती रही।
‘सबने चाहा है। यही समाज का फैसला है। कोई चारा नहीं है अब।’ गोर्क्रोव ने दृढ़ता से कहा।
कुकियों का सामाजिक बंधन बहुत मजबूत होता है। वे सामूहिक निर्णय को बड़ी इज्जत के साथ स्वीकार करते हैं। मुखिया की बात शास्त्र की वाणी की तरह होती है। कोई भी उसे नकार नहीं सकता। उसके सामने किसी की भी नहीं चलती।
‘मुझको लेकर फैसला किया जा रहा है और मुझसे एक बार भी पूछा नहीं गया? मैं क्या चाहती हूँ तूने भी नहीं पूछा?’
‘तेरी तरफ से मैं बोला हूँ।’
‘क्या बोला तू मेरी तरफ से? यही कि मैं तेरी बीबी हूँ, तू जो चाहे मेरे साथ कर सकता है। तू पति है मेरा, मालिक नहीं। यह मेरी जिंदगी है, मेरा भी एक मन है, अपनी इच्छा है मेरी…’
‘अब तक तो हम ऐसे ही चलते रहे। अब माहौल ऐसा बना है कि इस तरह अलग-थलग नहीं रह सकते। सामाजिक रूप से भी हमें एक होना होगा।’
‘तो तू मैतै बन जा।’
‘तेरा दिमाग खराब हो गया है? क्या बक रही तू तुझे पता भी है? यह कैसे हो सकता है?’
‘जैसे तू मेरे लिए कर रहा है …’
‘मैं मैतै बनकर क्या करूंगा? कहां रहूंगा?’
‘मेरे घर में।’
‘तुझे पता नहीं लिनथोइ, तेरा मुहल्ला जलकर राख हो गया है। लोग बेघर हो चुके हैं। और तेरे मां-बाबा…।’
‘क्या? क्या किया तुमलोगों ने उनके साथ?’ उसने गोर्क्रोव की कमीज के कलर को पकड़कर उसे अच्छी तरह से झकझोरा। वह रो नहीं रही थी, चिल्ला रही थी। उसकी आंखें लाल हो गई थीं, जिनसे पानी की धारा लगातार बहने लगी थी।
‘शांत हो जा लिनथोइ। समझने की कोशिश कर। मान जा। ये सब हो जाने के बाद हम आराम से रह सकेंगे। हमारे भविष्य के बारे में सोच।’
‘मेरा आज नरक बन रहा है और तू कल का सपना दिखा रहा है मुझे। याद है, भागने के समय तूने मुझसे क्या कहा था? मेरे मां, बाबा, भाई…’ वह बिलखने लगी। बाहर लोग लिनथोइ को विधिवत कुकी बनाने की तैयारी कर रहे थे। अंदर गोर्क्रोव लिनथोइ को मना रहा था।
आंगन से लोग अंदर की घटना का जायजा ले रहे थे। अपने कुकी साथी को मैतै कुछ कर न दे, इस आशंका से वे कमरे में दाखिल होने ही वाले थे कि गोर्क्रोव बाहर निकल आया। मुखिया ने कहा-
‘क्या वह मानी नहीं?’
‘हम ऐसा नहीं होने देंगे। कोई मैतै अब से यहां नहीं रह सकेगा।’ दूसरे ने कहा।
‘हम उसे ऐसे नहीं रहने देंगे।’ तीसरे ने कहा।
गोर्क्रोव लोगों को संभालने की कोशिश कर रहा था। पर कोई कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था। यह मामला वैयक्तिक या पारिवारिक न रहकर सामाजिक बन चुका था; लिनथोइ कोई व्यक्ति न थी, न वह गोर्क्रोव की पत्नी थी, वह कूकियों के बीच की एक मैतै थी। अब इस विषय पर समाज का अधिकार था। भीड़ अंदर की तरफ बढ़ी। लिनथोइ ने इबोहल के दिए हुए आरामबाइ की थैली पिछवाड़े में गा़ड़ रखी थी। बिजली की गति से वह पीछे के दरवाजे से बाहर निकली और एक ही खींच से केले के सूखे पत्तों में लेपेटकर रखे आरामबाइ की थैली निकाल ली और थैली को गले में लटका लिया। वह तेजी से दौड़ती हुई रास्ते पर पहुंच गई।
‘अरे उसे मत छोड़। भागी जा रही है।’ किसी से चिल्लकर कहा।
‘ग्रोक्रोव, कैसा मर्द है तू? एक औरत को संभाल नहीं पाया?’ भीड़ में से किसी की आवाज आई।
लोग कुछ इसी तरह से चिल्लाने लगे थे। कुछ युवक उसके पीछे-पीछे भागने लगे तो किसी ने कहा- ‘उसका पीछा मत कर। आरामबाइ फेंक रही है। मारा जाएगा।’
‘बहुत चालाक हैं ये मैतै लोग। पता ही नहीं चला कि कब आरामबाइ का इंतजाम कर लिया।’ किसी ने कहा।
‘भागकर कहां जाएगी? सामने से पकड़ी जाएगी।’ भीड़ में से किसी ने कहा।
‘गोर्क्रोव, अच्छा हुआ कि तू बच गया।’ मुखिया बोला।
गोर्क्रोव बोइपु को संभाल रहा था। वह ‘मां मुझे छोड़कर मत जा, मत जा’ कहकर रो रहा था। लिनथोइ को कुछ सुनाई नहीं दिया। वह आरामबाइ फेंकती हुई जली बस्तियों, उजड़े घरों, लूटे खलिहानों, जलती गाड़ियों, टूटी सड़कों, सुरक्षा में तैनात पुलिस और सेना की टुकड़ियों को पीछे छोड़कर भागती रही।
आरामबाइ- ‘आरामबाइ’ तीर की तरह एक हथियार है, जिसे मैतै लोग युद्ध के समय व्यवहार करते हैं। इसके आगे का हिस्सा लोहे का बना हुआ होता है।
संपर्क : हिंदी विभाग, गुवाहाटी यूनिवर्सिटी, जलुकबाड़ी, गुवाहाटी, जिला–कामरूप, पिन-781014 मो.9435116133
कहानी ने तन मन को झुलसा दिया। राजनीतिक कारणों ने समाज को ही नहीं बांटा है, विचारों को भी जहरीला बना दिया है। सारे रिश्ते-नातों की बलि चढ़ रही है और सभी अपनी जीत के सपने देख रहे हैं।कहानी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसे सिनेमाई अंदाज में है, इसीलिए असरदार हो गई है। समुदायों के मनोविज्ञान को जिस यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया है, इसके लिए कथा लेखिका को बहुत बधाई.. ।
मणिपुर में चल रहे संघर्ष की आत्मा में उतरती एक मार्मिक कहानी।दो समुदायों के बीच संघर्ष में विभाजित परिवार की यह कहानी से इस संघर्ष की वास्तविकता बताने के लिये लेखिका रीतामणि बधाई की पात्र हैं ।