युवा कहानीकार। संप्रति बीटेक के छात्र।

मैं अकसर अपने बिस्तर पर लेटे हुए छत से लगे चलते पंखे को देखकर सोचता हूँ, क्या ऊर्जा का होना ही जीवित रहने का प्रमाण है? अगर हां, तो मुझे सूखे-शांत, पत्तों, पेड़ों और यहां तक कि स्थिर खिड़कियों में एक असीमित अमृत जीवन क्यों दिखाई पड़ता है!

इसी प्रश्न को टटोलते हुए एक दिन मैं चलते पंखे को देख रहा था, तभी मेरी नजर अचानक अपनी एक खुली खिड़की पर गई! खिड़की में लगे लोहे के डिजाइन वाले रॉड मे एक तोते का पंख फडफड़ा रहा था!

मौसम उमस वाली गर्मी का था। खिड़की के पास ही मेज पर पानी की बोतल रखी हुई थी। और शायद भयंकर गर्मी मे तोते को उसमें अपना जीवन दिखाई पड़ा हो। तभी बिना खिड़की के रॉड देखे, बिना चोट की परवाह किए पानी की आस में अंदर घुसने का उसने प्रयास किया और फंस गया।

मैं बिना देर लगाए अपने प्रश्न को बिस्तर पर छोड़कर उठा और तोते की मदद करने का प्रयास किया।

तोते का पंख लोहे के रॉड के बीच फंसा हुआ था और वह बेचैनी से फड़फड़ा रहा था।

जैसे ही मैंने उसे निकालने की कोशिश की वह और अधिक फड़फड़ाने लगा। उसको अब प्यास और चोट से ज्यादा मुझसे डर लगने लगा। वास्तव में इंसान ऐसा ही होता है। तालाब, नदी, झरने, जंगल सबकुछ अपने कब्जे मे करके पूरी प्रकृति पर अपना एकसिद्ध अधिकार जमाकर बैठा है, जिससे हर जीव को भय लगा रहता है।

मेरे लिए तोते को खिड़की से निकालने से ज्यादा चुनौती उसे शांत करने की थी। मैं उसके अंदर का डर खत्म करना चाहता था, जिससे वह शांत हो सके, उसके फंसे पंख और शरीर आसानी से खिड़की से निकल सकें।

फिर मैंने सोचा उसको विश्वास दिलाने और शांत करने के लिए पहले उसे पानी पिलाना होगा ताकि उसकी प्यास बुझे और वह शांत हो सके।

पहले पानी को उसके शरीर पर छींटा ताकि उसका शरीर ठंडा हो सके। बाहर धूप तेज थी। उसके बाद मैंने मुंह के पास पानी गिराना शुरू किया। उसने अपनी चोंच को पानी की धार की ओर झुकाया। शांत होकर पानी पीना शुरू किया। उसी दौरान मैंने धीरे-धीरे उसके पंख को खिड़की से निकाल लिया।

मैंने उसे बाहर की तरफ निकाला, क्योंकि अंदर पंखा चल रहा था। दुर्घटना हो सकती थी, अगर वह गलती से घर के भीतर बेतहाशा उड़ता। मैं उसे पकड़ कर रखना नहीं चाहता था, उसकी आजाद दुनिया खिड़की के बाहर थी।

पानी पिलाने के बाद मैंने उसको बाहर उड़ा दिया यह सोचकर कि अब वह कभी नहीं आएगा। पर तोता थोड़ी देर बाहर उड़ने के बाद फिर आकर खिड़की पर बैठ गया। मेरे मन के अंदर कुछ हुआ, एक स्नेह भरी अनुभूति जन्मी।

उसके मन का डर जा चुका था। एक विश्वास उसने मेरे प्रति अपने अंदर पैदा कर लिया था।

विश्वास इस सृष्टि में प्रेम का गर्भ है। प्रेम की मां विश्वास है- जिससे जीवन प्रफुल्लित होता है।

तोता चुपचाप खिड़की पर अपने दोनों पैर टिकाए हुए मेरे कमरे को इधर-उधर, ऊपर-नीचे निहार रहा था।

दीवारों, पंखा, खिड़की, छिपकलियों और दो चूहों के बाद तोता मेरे कमरे का नया मेहमान था, जिसने मेरी अंतरात्मा में कुछ देर के लिए प्रेम, शांति और एक दोस्तीभरे एहसास का फूल खिला दिया।

कुछ देर बाद मुझे और मेरे पूरे कमरे को निहारकर तोता खिड़की से उड़ गया। उसके उड़ते ही मेरे मन में ऐसा हुआ जैसे मेरे अंदर कुछ खालीसा छोड़कर वह चला गया सदा के लिए।

कुछ लोगों को हमारे जीवन में ऐसे ही आकर चले जाना चाहिए। हमारे भीतर कुछ खाली करके, ताकि व्यर्थ की रिश्तेबाजी में समय खराब न हो और भीतर का प्रेम दुबारा कभी मिलने की उम्मीद में बचा रहे।

मैं फिर से बिस्तर पर लेट गया और पंखे को देखते हुए अपने पहले प्रश्न को इस घटना से जोड़कर अपने को मन ही मन टटोलने लगा। सोचने लगा कि इस घटना के सभी पात्रों में सबसे ज्यादा जीवित क्या है- पंखा? तोता? पानी? प्यास?

तभी मेरी नजर खिड़की पर फंसे तोते के पंख के एक छोटे से टुकड़े पर पड़ी और मुझे लगा कि यहां सबसे अधिक जीवित खिड़की ही है। मैं कहना चाहता हूँ कि केवल खुली हुई खिड़कियां ही जीवित होती हैं। अगर मेरी खिड़की बंद होती तो तोते को मेज पर पड़े पानी में अपना जीवन दिखाई नहीं दिया होता, मेरे अंदर प्रेम और उसके अंदर विश्वास पैदा नहीं हो पाता।

इसलिए जीवित होने का प्रमाण सिर्फ ऊर्जा नहीं हो सकती, बल्कि आंतरिक रूप से मरे हुए को जिंदा कर पाने की क्षमता रखने वाला ही जीवित है। हम सब अंदर से मरे हुए अपने कमरे में बंद हैं। बंद खिड़कियों को जीवित होना ही होगा!

उस दिन के बाद मैंने एक खाली बोतल को काटकर और उसमें पानी भरकर अपनी खिड़की पर बाहर की तरफ लटका दिया। मेरे लिए यह करना एक सुकून और उम्मीद भरा एहसास था, ताकि कोई तो मिलने आएगा मुझसे दुबारा।

पांच दिन बीत गए। मेरा जीवन वैसे ही गुमनाम अपने कमरे में कुछ न कुछ करते हुए बीत रहा था। मैं कुछ भी कर रहा होता तो एक बार मेरी नजर खिड़की पर जरूर जाती, इस आस में कि शायद वह तोता लौट कर आए या कोई दूसरा अपनी प्यास बुझाने के बहाने मेरे अकेलेपन को थोड़ा दूर कर जाए।

पहले जब भी मैं बाहर जाता तो अपनी खिड़की बंद करके ही जाता था, पर उस दिन के बाद दिन-रात मेरी खिड़की खुली रहती थी।

दस दिन बीत गए। मैं रोज पानी बदलता और खिड़की की सांसें गिनता रहता था।

एक दिन मैं अपने लैपटॉप के ऊपर जमी हुई हल्की सी धूल की परत उंगलियों से पोछते हुए सोच रहा था कि यह धूल भी खिड़कियों के जिंदा होने का प्रमाण है, क्योंकि उनसे होकर ही वह कमरे के अंदर चुपचाप आकर बैठ जाती है। तभी खिड़की पर चहल-पहल हुई। मैंने देखा, एक गौरैया पानी की खोज मे खिड़की पर लटकी बोतल पर आकर बैठी थी। मैंने उसे पानी पीते हुए देखकर अपने अंदर खुशी महसूस की और उस तोते को याद करते हुए अंतर्मुखी होकर सो गया।

कुछ दिनों बाद मैं एक समय बिस्तर पर सोया था कि अचानक गर्मी से मेरी नींद खुली। मैंने देखा खिड़की पर कोई मुझे ध्यान से निहार रहा है, जैसे कोई पहले प्रेमी को चुपचाप एकटक देखता रहता है। वह तोता लौटा था और मुझे देख रहा था। मैं उठा नहीं, लेटे-लेटे ही उसकी आंखों के एकाग्र भाव में डूब रहा था।

कुछ देर हम एक-दूसरे की आंखों में उमगे अपने प्रेम को साझा कर रहे थे। उसने दो बार अपने स्वर में कुछ कहा और उड़ गया। ‘मैं फिर आऊंगा’, उसने शायद कहा हो, ऐसा महसूस हुआ।

उस दिन के बाद वही तोता रोज खिड़की पर आकर बैठता, मुझे और मेरे बेतरतीब कमरे को कुछ देर निहारता और उड़ जाता। ऐसा करीब तीन महीने चला। मुझे कोई चाहने और मेरी आंखों को पढ़ने वाला मिल चुका था। उसके सामने मैं एक ऐसी भाषा सीख रहा था, जो  किसी स्कूल या कालेज में सिखाई नहीं जाती। मैं खुद को उसके बहुत करीब पाता था, ताकि देख सकूं खुद को, उसकी आंखों में।

ऐसे ही चलता रहा। इसी बीच मुझे अपने किराये के उस कमरे को छोड़कर दूसरी जगह शिफ्ट होने का प्रबंध करना पड़ा। मैं उस कमरे में एक साल से ज्यादा समय तक रह चुका था। मैं उस कमरे के साथ-साथ अपने सबसे करीबी दोस्तों- छिपकलियों, चूहों और नए दोस्त तोते को भी छोड़कर जाने वाला था। इसका दुख सिर्फ मैं ही महसूस कर पा रहा था।

मुझे कमरा छोड़ने में चारपांच दिन की देर थी, उसके पहले ही मैं सब सामान पैक करके रख चुका था। उस दिन तोता चुपचाप बैठकर मुझे देख रहा था सामान पैक करते हुए।

मेरे अंदर हिम्मत नहीं हुई मैं उसे देखूं, क्योंकि कुछ दिन बाद मैं हमेशा के लिए उसे छोड़ने वाला था। अंदर बिछुड़ने का दर्द महसूस होने लगा था। मैं जब तक सामान पैक करता रहा, वह वहीं खिड़की पर बैठकर देखता रहा, फिर उड़ गया।

तोता उस दिन के बाद खिड़की पर नहीं आया। मैं बहुत परेशान होने लगा। मुझे लगा वह मेरे कमरा छोड़ने के पहले ही यहां से चला गया। मैं जब गांव से बाहर पहली बार शहर आया था, तब भी इतना दुखी नहीं हुआ, जितना उस कमरे को छोड़कर जाने पर हो रहा था।

मेरे अंदर बेचैनी बढ़ रही थी। तोता चार दिन तक नहीं आया।

अंतिम दिन मैं अपना सारा सामान पैक करके ऑटो वाले का इंतजार करते हुए तोते के बारे में सोचे जा रहा था। पता नहीं क्यों, जब भी मुझे अंदर बहुत ज्यादा दुख महसूस होता है, आंसू नहीं निकल पाते। मैं अंदर ही अंदर उसकी आंखें, सुनहरे बाल और हरे पंखों को अपनी आंखें बंद करके समेट रहा था। मैं अपना सिर झुकाए यही सब सोच रहा था, तभी मुझे आवाजें सुनाई दीं। मैं सिर नीचे किए झुका हुआ था और मेरी आंखें भी बंद थीं।

मुझे लगा चिड़ियों की आवाज है जो आसपास के पेड़ों से आ रही है।

पर उसी आवाज में मुझे एक परिचित आवाज महसूस हुई। मैं चौंककर अपना सिर उठाकर खिड़की की ओर देखा।

मैं साल भर बाद रो रहा था। आंसू मेरे कपड़ों पर टपक रहे थे। खिड़की पर एक नहीं, चार तोते थे। दो छोटे-छोटे और दो बड़े-बड़े। मुझे पहचानने में देरी नहीं हुई कि एक उसमें तोता था एक तोती थी और दो उनके प्यारे-प्यारे बच्चे थे जो आपस में चिपके हुए थे। मैंने पहली बार खुद को इतना कृतज्ञ महसूस किया कि कैसे पूरा परिवार मुझे विदा करने इतने प्यार भरे एहसास के साथ आया है।

मेरे अंदर असीम शांति और प्रेम का भाव भर गया था। मैं उन्हें देखते-देखते भूल गया था कि मुझे अब वहां से हमेशा के लिए विदा होकर जाना है।

उसी समय मेरे फोन की घंटी बजी, ऑटो वाला आ चुका था। मैंने सोचा, उस पल को अपने फोन के कैमरे में हमेशा के लिए कैद करके साथ ले जाऊं। पर मैंने ऐसा नहीं करने का निर्णय लिया। इसलिए नहीं कि समय नहीं था। बल्कि मैंने सोचा कि कुछ चीजों को कैमरे में कैद करके मारना नहीं चाहिए। उसको अपने अंतर्मन में ही सहेजकर रखना चाहिए।

मैं जैसे ही उठा तोते का पूरा परिवार अपनी भाषा में जोर-जोर से चहचहा कर मुझको अंतिम विदा कर रहा था। मैं कुछ देर वहीं खड़ा होकर देखता रहा उन्हें। फिर वे सब उड़ गए। मैंने खिड़की बंद कर दी और दरवाजा लगाकर सारा सामान लिए ऑटो में बैठ गया। सोचने लगा कि पता नहीं कौन अब उस कमरे में रहेगा, कौन खिड़की खोलेगा और चिड़ियों के लिए पानी रखेगा।

खिड़कियों को हमेशा जीवित रखना चाहिए, उन्हें खोलकर।

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