युवा कवयित्री। पुस्तकें- ‘कुछ लापता ख़्वाबों की वापसी’, ‘समय की धुन पर’, ‘मुझे पतंग हो जाना है’ (काव्य संग्रह)। ‘एक स्कर्ट की चाह’ (कहानी संग्रह)। संप्रति-पी.जी.टी. हिंदी केंद्रीय विद्यालय, आद्रा।
समय की चाल
आकाश की पीठ पर
चांद की दरांती थी
रात की जीभ पर पड़े छालों पर
आ गिरी थी नश्वर पीड़ा
अंधेरे के साथ बैठने के लिए
माचिस की जलती हुई तीली ने
लालटेन से पेशकश की
लालटेन का भरोसा तेल पर था
और तेल का तीली पर
सभी सितारे जो तैर रहे थे
उनपर नैतिकता की कमी का
आरोप लगा :
पर लोग नहीं जानते
जो बह सकता है
वह समय की चाल के
सूत्र को भी पकड़ सकता है।
ब्लूप्रिंट
कठिन है अन्याय के सिलेबस का
ब्लूप्रिंट बनाना
और खुरदरी मान्यताओं के हाथों में
भविष्य की पेंसिल दे देना
कठिन है अपने ही भ्रम से
अचंभित होकर रह जाना
अपने ही प्रेम का
विसर्जन करने के लिए
चिकनी सीढ़ियों पर
बिना फिसले खड़े रहना
कठिन है नियति के थपेड़ों का
मुस्करा कर जवाब देना
धधकते रहना
और माचिस का हाथ से छूट जाना
कठिन है अपने ही घुटनों को छील लेना
और रक्त की एक भी बूंद को
धरती पर न गिरने देना
कठिन है
बहुत कठिन है निर्मम दौर में
संवेदनशील बने रहना।
कुछ तितलियां
दरख्त की छाया में
बैठी धरती
अपने बचे हुए दांतों के
बीच की खाली जगह में
सूखी पतझड़ी घास रखती है
शहर के हुड़दंग से दूर
पहाड़ियां झुंड में खड़ी
बतकही में व्यस्त हैं
एक हज़ार अनुवादक
उनकी भाषा के अनुवाद की
मशक़्क़त कर रहे हैं
एक बंदर दरख्त के कोने पर बैठा
खुद को खरोंच रहा है
आकाश और धरती की त्वचा के बीच
कुछ तितलियां ताली बजा रही हैं।
गोलियों की भारी बारिश
गोलियों की
भारी बारिश के बीच
वह चंद्रमा का
एक स़फेद पंख लेकर भाग आया
मैं उसकी बगल वाली सीट पर हूँ
जब चांद उगता है
वह बेघर आदमी
चांद के सिरहाने पर
रख देता है पंख
मैं पानी की ओर लौटते हुए
भोर की आवृत्तियां पकड़ रही हूँ।
अंधेरे की झुनझुनी
मुझे उस धागे को
पकड़ना था
जो धरती की
उदास सांसों से लिपटा था
और जिसपर
उस पूर्णिमा का प्रतिबिंब था
जो अंधेरे की झुनझुनी को
नदी किनारे बैठे
एक उदास कवि की
नोटबुक में छोड़ आई थी।
चश्मा झनझनाता रहा
वह हवा में उड़ी
समंदर में डूबी
पतझड़ की मरियल धूप ने उसे
टंगड़ी मारी
सूर्य तिरछी दृष्टि से देखता रहा
चश्मा झनझनाता रहा
चिपचिपे से एक शहर में
बिल्ली बिना प्रस्ताव दिए
उसका रास्ता काट गई
कभी-कभी शांत सरसराहट में
पाखियों के पंखों की धूल भी
समय के चेहरे पर जम जाती है।
आत्मा के दुख
आत्मा के दुख
साफ करने के लिए
नीले चकमक पत्थर पर बैठा
एक पक्षी घूरता रहा जल का प्रवाह
फिर उड़ गया
यह एक विहंगम दृश्य था
लहरों का आलोड़न
क्षण भर के उसके मौन में
प्रकाश-सा चमक उठा।
उसकी ऊब में
उसकी पिछली रातों के सपनों की
फेहरिस्त लंबी है
इतनी लंबी
जितनी उदासीन दिनों की लंबाई
वह अन्याय के प्रतिरोध में
उबाऊ हो चली थी
उसकी ऊब में फुसफुसाते थे झींगुर
न्याय और सत्य की उपस्थिति
मंथर थी
वह उगते सूरज के साथ
उन्हीं का आचमन कर रही थी
आसमान के नीले कांच से देख रही थी
उसी का सौंदर्य
बारिश के बाद की नमी में
वह हल्की धूप सी
खिल रही थी
वह बिखरी नहीं थी
वह धीमे से गिरा रही थी
अन्याय की अवैध दीवार
जानती थी
ध्वस्त नहीं होगी दीवार
पर खुद को सीली रखकर
उसे तोड़ने का उपक्रम कर रही थी।
एक सुनहरा छल्ला
खाली मकान की उदासी पर
फूंक मार रहा है एक दरख्त
बंद दरवाजे की मुट्ठी में बंद है
घर होने की इच्छा
खिड़कियों में छिपी हैं दंतकथाएं
हवा के रेशे
मकान के माथे पर जड़ रहे हैं
पत्तों के चुंबन
कानों में बज रहा है
एक महीन स्वर
मैं अपनी कानी ऊंगली में लपेट रही हूँ
समय का एक सुनहरा छल्ला।
सीधी रीढ़
वे हाशिये पर
फेंके जाने के विरुद्ध
अपनी रीढ़ को झुका लेते हैं
कितना पीड़ादायी है
उनके घुटनों का ढह जाना
और लटक जाना
किसी पैंडुलम की तरह
परिदृश्य में रहने से
भविष्य के सुनहरे पंख निकल आते हैं
अतीत के तलवों पर लगी मिट्टी झड़ जाती है
दिन दूधिया हो जाते हैं
और कुछ शामें
सड़कों पर उभरते शोर में रपट जाती हैं
किंतु रीढ़ सीधी नहीं हो पाती
हांफते हुए जीवन पर
न बाजों की तरह झपटते
धर्म के पहरेदारों पर
न आस्था के पैंतरों पर
उसके प्राण अटक जाते हैं बस
ईमानदार स्वीकृतियों पर।
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