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युवा कथाकार। ‘अंखुआ’ (गीत संग्रह), ‘बोल कबूतर’ (बाल काव्य) प्रकाशित। संप्रति– अध्यापन।
कमर पर लात मार दो चलेगा, सिर पर पांव धर दो माफ! मुला उसकी साइकिल पर पराई अंगुली भी फिर जाए, यह उसे बर्दाश्त नहीं। यह महज लोहे की साइकिल नहीं, वरन उसकी अस्मत है, उसकी मूंछ है। भगवान ने पत्नी को छीन लिया, बेटों ने घर-द्वार और बुढ़ापे ने शरीर से बल। लेकिन यह साइकिल अब भी उसके साथ है। साइकिल का मोह वह न त्याग सका। टूटे-फूटे बर्तन के साथ यह साइकिल ही उसकी गृहस्थी का मुखिया है। हां, मुखिया ही। भले बेटों ने उसे परिवार का मुखिया न रहने दिया हो, पर उसकी गृहस्थी में साइकिल का ही पूरा रब्बो रुआब है।
फूस की झोपड़ी के सामने नीम तले चारपाई पर लेटा तन्नू बहुत सशंकित था। सुबह से ही आशंका में उसका मन घिरा था। कलुआ साइकिल लेकर क्यों नहीं आया? सोच- सोचकर उसका मन बेचैन था।
उम्र के साथ उसकी भांति साइकिल का भी यौवन ढल गया, परंतु अब भी वही दम, वही रफ्तार। पैडल पर पांव धरते ही कलेरास घोड़े की तरह हवा से बातें करने लगती। कितनी रातें, कितने दिवस, कितनी धरती इसपर बैठकर उसने नाप डाली! विचार-स्नान ने उसके माथे एवं आंखों से पानी टपका दिए।
उसका पूरा नाम तानसेन था, मगर सभी तन्नू ही बुलाते थे। उसकी आवाज बला की सुरीली थी, कदाचित इसीलिए माता-पिता ने तानसेन रखा होगा। हालांकि पेट से निकलते ही किसी के सुर, ताल का पता नहीं चलता..फिर भी..जो भी हो, तानसेन नाम पिता ने ही रखा था।
अपने मां-बाप की पांच संतानों में वह माझिल था। बचपन से ही उसको गायकी और साइकिल की सवारी बहुत पसंद थी। चमचमाती साइकिल पर किसी को पैडल भांजता देखता तो उसके हृदय पर सांप लोट जाता। मन करता कि एकबारगी ही साइकिल के बदन को होठों से चूमकर मन की सारी प्यास बुझा ले। मगर निष्ठुर संसार… एक बार झूठे भी न कहता कि ले तन्नू, तू भी चला ले। बस टिल-लिल टिल-लिल घंटी बजाते गुजर जाता। साइकिल के लिए उसका मन अनेकों दफे मचलता, किंतु बाप की फटेहाल अर्थव्यवस्था अरमानों पर ताला जड़ देती।
साइकिल चलाने का स्थायी सुख प्रथमतः उसे पंद्रह वर्ष की अवस्था में अपने विवाह पश्चात मिला। उन दिनों दो रात यानी तीन दिवसीय बारात हुआ करती थी। सुबह कलेवा करने छटे–छटाए मुरहंटों के साथ वह आंगन में बैठा था। पहले ही सारी योजना तैयार कर ली थी उसने। सास और सलहज के बारंबार अनुरोध पर भी उसने पूड़ी तो दूर कांसे की थाली को भी हाथ न लगाया। बिना लाग लपेट सीधे शब्दों में उसने अपनी बात सुना दी। बिना साइकिल लिए वह एक कौर न उठाएगा।
घड़ी भर अमेरिका और रूस की तरह दोनों ओर शीत युद्ध चलता रहा। हिंदुस्तान-से मध्यमार्गी कुछेक ससुराली नातेदार सुलह को भी आए, परंतु बीच का कोई मार्ग न प्रशस्त हुआ। अंत में ससुर के उन्नत भाल को नतमस्तक होना पड़ा। मान मर्यादा एवं समय की नजाकत को समझते हुए उन्होंने मांगन स्वीकार कर ली। विनीत स्वर में बोले, ‘अभी खाओ, कल विदाई के समय तक साइकिल मिल जाएगी।’
फिर क्या था? अंतिम शब्द सुनकर वह सातवें आसमान पर पहुंच गया। ससुराल में बिना आवाज एवं कम खाने की परंपरा के उलट उसने एक ही हूंस में पूरी थाली खाली कर दी।
तीसरे दिन, विदाई की बेला में काली-काली, लाल सीट वाली हैंडिल में झालर लहराती साइकिल को देख, वह दुल्हन संग डोली पर जाने को तैयार ही न हुआ। लोगों ने रीति-नीति और दूल्हे की मर्यादा का हवाला देकर समझाया तब उसकी औंधी खोपड़ी में कुछ घुसा और वह नव ब्याहता पत्नी के साथ घर आया।
घर पहुंचकर औरतों के टिटिम्मों ने उसका पारा चढ़ा दिया। वह उतावला था कि कितना शीघ्र अपनी काली कलूटी साइकिल पर सवार होकर गांव का राउंड लगाए, मगर औरतें परछन एवं लपकौर में उसे उलझाएं थीं।
एक बार वह सब रस्मों के व्यूह से बाहर निकला तो पूरे दिन किसी को उसकी भनक न मिली। दूर ले जाकर अपनी साइकिल का श्याम गात चूमता रहा। कभी हैंडिल कभी पैडल, कभी सीट कभी कैरियर चूम-चूमकर अधरों को किंचित घायल कर लिया। उस समय नई नवेली दुल्हन से अधिक प्रेम तो उसे उसी कलूटी से था। साइकिल के आगे-पीछे लाल-लाल बत्ती देखकर वह बावरा हुआ जाता था। सांझ-ढलते-ढलते उसने दो-तीन जगह हाथ-पैरों को छिल लिया था, क्योंकि उसने अब तक मांग-याचकर साइकिल की सवारी में आधी-अधूरी निपुणता ही हासिल की थी।
रात को दुल्हन ने छिले हुए देह पर जब हल्दी, तेल के साथ अपने कोमल हाथों से स्पर्श किया तब जाके वह साइकिल को भूल पाया। पत्नी भी रूपवती थी, गोरा-गोरा गोल चेहरा, बड़ी-बड़ी हिरनी सी आंखें। वह दुहरी खुशी से अधमरा हो गया।
साइकिल मिलने के बाद उसमें कई तब्दीलियां आ गई थीं। अल्हड़, मस्तमौला तन्नू अब तनिक जिम्मेदार हो गया। फल आए वृक्ष की तरह वह कुछ नम्र हो गया था। अब वह गांव-गिरांव के साइकिल मालिकों की जमात में शामिल था, जहां कभी उसकी खूब खिल्ली उड़ाई जाती थी।
सारे गांव में उसके साइकिल प्रेम की चर्चा छिड़ी थी। लड़कियों को देखकर जब वह अकारण घंटी बजाता हुआ साइकिल गुजारता तो साइकिल स्वामित्व सुख से वंचित समवयस्कों का दिल बैठ जाता। अपने दोनों पैरों के सहारे साइकिल खड़ी कर कैरियर पर बैठकर जब वह स्वरलहरी छेड़ता तो बड़े-बड़े गवैये पानी भरने लगते।
वह केवल चलाना ही नहीं जानता था, साइकिल के स्वास्थ्य एवं आराम का भी बराबर ध्यान रखता। रोककर बीच-बीच में सुस्ताना, अंगरखे से उसकी श्यामल काया को पोछना उसका नित्य का नियम था। दो महीने में पहियों के धूरों को ग्रीस पिलवाना, सरकार के पोलियो उन्मूलन अभियान में ड्रॉप पिलवाने की तरह वह नहीं भूलता।
साइकिल होते ही उसके यार-दोस्तों की संख्या बढ़ गई। कभी घास न डालने वाले अधिकांश मुंह अनायास ही हाल-चाल पूछने लगे। सबकी लालची निगाहें एक बार उसकी साइकिल चलाकर धन्य होना चाहती थीं। हालांकि साइकिल की ओर किसी और के देखते ही उसका कलेजा बाहर आ जाता था। न चलाऊं होने पर वह साइकिल के साथ स्वयं भी जाता, किंतु उसकी नरम गद्दी पर किसी गैर का बैठना उसे न सुहाता। वह घोड़े की तरह साइकिल खींचता और सवारी की तरह याचक बैठकर ऐश करता। तथापि इससे उसे बड़ा सुकून मिलता।
इसी साइकिल के दम पर उसने सरपंच की चूलें हिला डाली थी।
प्राचीन समय से ही अपने देश में घुड़दौड़, हाथी दौड़, सांड़ युद्ध आदि प्रतियोगिताएं होती रहती थीं। यद्यपि इनमें ज्यादातर रजवाड़े एवं अमीर घराने ही प्रतिभागिता कर पाते थे। आजादी के बाद इनमें गरीबों को भी अवसर मिलना शुरू हो गया।
उसके गांव में प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा को साइकिल रेस आयोजित किया जाता था। कई दिनों से प्रचार–प्रसार होता। अगल–बगल के दर्जनों गांवों के लोग इसमें भाग लेते। रेस को देखने दारोगा, एम एल ए सहित अन्य अनेक ऊंचे ओहदेदार आते थे। सरपंच जी गर्व से सबको जलपान कराते और इन्हीं आगंतुकों में से किसी को मुख्य अतिथि बनाकर उनसे फीता कटवाते। रेस के बाद रात को रासरंग का प्रोगाम भी होता सभी अतिथियों के लिए।
सरपंच का लड़का भी भाग लेता था साइकिल रेस में। पिछले कई वर्षों से उनका ही लड़का रेस जीतता था। पीठ पीछे इस पर अंगुलियां भी उठती थीं, किंतु तनिक देर तनके अपने-आप ही अंगुली झुक भी जाती।
तन्नू भी रेस में भाग लेने को बहुत दिनों से उत्कंठित था। ज्यादातर समय उसके पास साइकिल ही न थी। जब साइकिल अटी तो पिता नौसिखिया बताकर मना कर देते। पिता जी जानते थे कि सरपंच के दीदा का पानी मरा है। वह कितना धोखेबाज एवं मक्कार है। वे नहीं चाहते थे कि तन्नू बैठे बिठाए एक नई आफत मोल ले। सरपंच के अत्याचार पहले से ही उन गरीबों पर कम न थे।
सरपंच की शहर में मंत्री से लेकर संत्री तक, मजिस्ट्रेट से ले कप्तान तक, सबके साथ उठक-बैठक थी। हालांकि वहां तो वह चाकरी ही करता, तथापि गांव की सीमा में घुसते ही वही एम एल ए हो जाता, सरपंच ही दारोगा हो जाता। नाजायज तरीके से तमाम सरकारी जमीनों पर पट्टा, सरकारी योजनाओं को बंधु-बांधवों में रेवड़ियों की तरह बांटना आदि अनेक कारनामे उसके मशहूर थे।
हर वर्ष की तरह इस बार भी कार्तिक पूर्णिमा को साइकिल रेस का आयोजन किया गया। तन्नू ने अब तक साइकिल चलाने की सभी कुशलता प्राप्त कर ली थी। पिता ने बहुत समझाया, किंतु वह न माना और ताल-ठोंककर कूद पड़ा रेस के मैदान में।
उसके साइकिल कौशल की भनक सरपंच को भी थी। आध इंच चौड़े रास्ते पर भी वह साइकिल ऐसे निकालता गोया साइकिल नहीं हेलीकॉप्टर हो। तन्नू का नाम प्रतिभागियों की सूची में देखते ही वे बिगड़ गए। उनको बेटे के एकछत्र साम्राज्य पर संकट के बादल मंडराते दिखे। अपने पर आपा न रहा उनका, बरसने लगे, आजादी का मतलब यह नहीं है कि अब ऐरे-गैरे भी हमारे साथ रेस करेंगे।
वह कहां सह पाता, उसका भी जवान खून था। खौलता लहू स्वतः बोल पड़ा, ऐरा-गैरा होगा तू। हिम्मत है तो मैदान मार के दिखा।
सरपंच का इतना अधिक अपमान पूरे जीवन भर में न हुआ था। बड़े-बड़े मिनिस्टर तक उससे सलीके से बात करते थे। तन्नू ने आज पूरे गांव के बीच उसे ललकारा था।
अच्छा नहीं किया तूने। उनकी खून हो चुकी आंखें बोल उठीं।
पिता ने खूब डांटा-डपटा। सरपंच की भी उन्होंने काफी चिरौरी की। मुला उसका निर्णय हिमालय की तरह अडिग था। आज वह उनका एकाधिकार समाप्त करके ही रहेगा। पहली मर्तबा उसे अपना कौशल दिखाने का अवसर मिल रहा था। मां-बाप उसे निठल्ला ही समझते थे। आज वह सबकी सोच बदल देगा।
सरपंच को अपने पैंतरों पर पूरा भरोसा था। ऊंची-ऊंची पहाड़ियों के बीच मैदान सजा था। हरी झंडी लहराते ही साइकिलें एक साथ ट्रैक पर दौड़ पड़ीं। सरपंच का पूरा अमला तैयार था।
प्रारंभ से ही वह आगे था। नया खून, नया जुनून। ससुराल की साइकिल पर वह इतराता हुआ चला जा रहा था। आकाश को तो आज झुकना ही पड़ेगा।
सारे रेसर स्टार्टिंग प्वाइंट से काफी दूर निकल गए थे। तन्नू गुनगुनाता हुआ आगे बढ़ रहा था। अचानक कराहने की ध्वनि ने उसका चक्का जाम कर दिया। एक लथपथ महिला उसकी साइकिल से टकराते-टकराते बची। फौरन साइकिल को साइड लगा, महिला को संभाला। वह बेहोश हो गई थी। हिलाया-डुलाया, पर चैतन्य न हुई। उसने इधर-उधर देखा फिर महिला को वहीं छोड़कर सरपट झरने की ओर पहाड़ी के नीचे दौड़ गया।
शीघ्र ही वह दौड़ता-हांफता टीक के पत्ते का दोना बनाए, उसमें पानी लेकर ट्रैक पर आया तो महिला वहां न थी। विस्मय.. निराशा.. क्रोध.. दोना-पानी फेंक दिया।
बाकी प्रतिद्वंदी काफी आगे निकल चुके थे। हृदय पर हताशा के बादल छा गए। किंतु अगले ही पल मन की क्षणिक दुर्बलता को त्यागकर उसने पैडल पर फिर जोर भरा तो हवा से बात करने लगी साइकिल।
सरपंच का लड़का सबसे आगे निकल रहा था। वे मूंछों पर मूंछें ऐंठते जा रहे थे। दौड़ तीन सौ मीटर ही बची होगी, तन्नू ने प्रार्थना की, ‘जय बजरंग बली।’
अचानक उसके शरीर में हजार हाथियों का बल प्रविष्ट हुआ। आत्मबल संसार में सबसे बड़ा बल है, जो ईश्वर सुमिरन से सहज ही मिल जाता है। उसने सबको पछाड़कर अंतिम रेखा छू ली। साइकिल खड़ी करने की भी ताब न बची थी उसमें। पहली बार स्वयं विजयी होकर उसने साइकिल को पराजित छोड़ दिया।
जयकारे गूंज उठे। सरपंच का मुंह धुआं हो गया। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था, औरत तो कह रही थी कि उसने तन्नू को करीब आध घड़ी फंसाए रखा था। फिर उनकी चाल खाली कैसे गई?
तन्नू के पिता की मूंछें तन गईं। निकम्मे पूत ने इतिहास बदल दिया था। पसीने से तरबतर तन्नू एक विजेता की नाईं भीड़ के किनारे चुपचाप खड़ी पत्नी को देख मुस्करा रहा था।
लगभग सत्तावन साल की हो चुकी इस बूढ़ी साइकिल ने उसे कभी निराश न किया था। इसके बल पर उसने जो ठाना, वह पूरा किया। चारपाई पर लेटे हुए तन्नू का मुख दैदीप्यमान हो गया। पेड़ की डाल पर एक कौआ बैठ गया था, उसने ताली बजाकर भगाया।
समय बदल गया। साइकिलों की जगह मोटर साइकिलें और मोटर साइकिलों का स्थान बड़ी तेजी से कारों ने ले लिया। उसके जमाने में जितनी साइकिलें पूरे गांव में न थीं, दरवाजे पर अब उससे अधिक कारें खड़ी रहती हैं। साइकिलें तो अब इक्का-दुक्का घरों में सिर्फ गेहूँ पिसाने और सरसों पेराने के लिए बची हैं।
अपनी साइकिल के साथ उसने जीवन के अनेक उतार-चढ़ाव देखे थे।
कलुआ के पिता के जन्म के समय पत्नी की तबीयत ज्यादा खराब हो गई थी। गांव की जचकी-निपुण औरतों ने हाथ खड़े कर दिए। डॉक्टर ही इसे बचा सकते हैं, जल्दी अस्पताल पहुंचाना जरूरी है।
गांव से अस्पताल पांच मील था। अब की भांति कोई साधन न थे। बैलगाड़ी थी, लेकिन उसमें अधिक समय लगता। उसने पत्नी से पूछा कि वह साइकिल पर बैठ सकती है। दर्द से बिलबिला रही पत्नी ने हामी भरी। उसने कैरियर के दोनों ओर लंबाई में, कसाइयों की तरह बड़ा सा दो डंडा बांधा और नरम बिछावन लगाकर पत्नी को उसी पर बिठा लिया। बैठाने के बाद कैरियर के तीन ओर डंडे का सहारा लगा दिया ताकि वह गिरे न। जरूरी सामान का झोला हैंडिल पर टांगा। दूसरी औरतों को बैलगाड़ी से आने को कह, उसने साइकिल का धुरा दबा दिया।
आध घंटे में अस्पताल पहुंचा तो साइकिल पर पत्नी को देखकर डॉक्टर ने उसे बहुत डांटा, ‘मारना था क्या? बकरी नहीं, स्त्री है यह। इतना तो समझना था।’
सिर नवाकर उसने हाथ जोड़ लिया। थोड़ी देर में नर्स ने बताया, ‘बधाई हो, बेटा हुआ है।’
मुन्ना सकुशल पैदा हो गया, उसके करीब आध घंटे बाद बाकी औरतें पहुंचीं।
वह साइकिल किसी को देता न था। पत्नी के मर जाने के बाद जब बेटों ने घर से बाहर कर दिया तो गृहस्थी चलाने के लिए कई बुजुर्गों ने साइकिल बेच देने की सलाह दी। मुला वह टस से मस न हुआ। अपने जीते जी तो वह उसे नहीं बेचेगा।
कइयों बार बहुओं ने बाण छोड़े, सासू नहीं रही तो साइकिल ही क्या करोगे? अब बूढ़ी हड्डियों में इसे खींचने की ताकत भी न है। बेच दो कहीं कबाड़ में। वह तड़प कर रह गया हर बार।
निरंतर उसकी निगाहें इधर–उधर भटक रही थीं। पता नहीं क्यों कलुआ को साइकिल देने से मना न कर पाया? शायद यह पौत्र प्रेम था या स्वार्थ? अधिक स्वार्थ ही है, क्योंकि पूरे परिवार में एक वही उसकी खिल्ली न उड़ाता, काम सुन लेता है। कभी तमाखू ले आता रुपये–आठ आने की लालच में तो कभी पांव दबा देता। प्रेम भी अन्य की तुलना में अधिक है उसका। कई दफे अपनी मां से जिद करके वह कुछ खाने–पीने की चीजें भी दे जाता।
कलुआ को साइकिल देने भर का नहीं था। अभी बारह-तेरह बरस का ही तो है। कहीं कुछ…नहीं, नहीं..। बहू ठीक ही कहती है कि वह सठिया गया है..और नहीं तो क्या? कहीं सही दिमाग भी ऐसी-वैसी बातों की कल्पना करता है!
कोई कोलाहल उसके घर की ओर बढ़ता आ रहा था। वह उठकर बैठ गया। बुढ़ापे में नजर कमजोर हो जाती है। वृद्धावस्था में तो कान भी दुर्बल हो जाते हैं, लेकिन उसके कान दुरुस्त हैं। शोर समीप आने पर कलुआ की अम्मा के बोल सुनाई दिए, मैं इससे कहती थी कि उस सनकी बूढ़े का चक्कर छोड़ दे, लेकिन मेरी कभी न सुनी। ठीक है..अब मरे उसी बुढ़ऊ के साथ।
ऐसी हालत में बच्चे को डांटते नहीं। साथ चल रही कई स्त्रियों ने समझाया।
‘डांटू न तो आरती उतारूं? पैर तोड़ लिया, लंगड़ा हो गया।.. अब जाकर दो लंगड़ों की जोड़ी लगी।’ बहू डांट तो रही थी कलुआ को, किंतु लक्ष्य वही था।
अंतिम शब्द सुनते ही उसे करंट मार गया। झट से उठा और लंगड़ाते हुए पांव से भीड़ के पास पहुंचकर पूछा, ‘क्या हुआ कलुआ को?’
‘वही, जो तुम चाहते थे।’ बहू ने घुड़क लिया।
कलुआ रो रहा था। साइकिल, मोटरसाइकिल से भिड़ गई थी। उसका पैर टूट गया था। बाबा को देखकर वह और जोर से रोने लगा।
साइकिल न बेच पाने के कारण कलुआ के पिता पहले ही खुन्नस खाए थे। टूटी साइकिल लाकर उसके सामने पटक दिया, ‘लो संभालो, अपनी जागीर!’
उसने पलक उठाई। साइकिल की हड्डियां टूटकर बटुर गई थीं। कलुआ पर नजर गई, उसका टूटा पैर तने सा मोटा होता जा रहा था।
वह समझ न पा रहा था, क्या करे? ..रोए? ..तो किसलिए? ..साइकिल? ..पोते? ..अथवा अपनी किस्मत के लिए?
भावनाओं पर विवेक ने विजय पाई। क्षण भर में उसने निर्णय लिया और लाठी ठोकता हुआ कबाड़ी के घर की ओर चल दिया।
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