वरिष्ठ आलोचक एवं कहानीकार।अद्यतन आलोचना पुस्तक ‘कथालोचना के प्रतिमान’।
बभ्रुवाहन
हाथ में हथियार हों
और सिर पर दु:शासन का वरदहस्त
अठारह अक्षौहिणी सेनाओं का बल
माथे पर चढ़ने लगता है आप ही आप
टप-टप चूने लगता है अहंकार का महुआ
पूरा संसार शतरंज की बिसात बन जाता है
न भी कहे कोई झूठ-मूठ
झूठी-सच्ची बात कोई
‘अश्वत्थामा मर गया, नर नहीं, हाथी’
कान सुनते हैं उतना
कि फड़फड़ा उठें बांहें
और हथियारों की लपलपाती बिजलियां
लहू की सनसनाती नदियों में किलोल करने लगें
चक्रव्यूह रचे नहीं जाते अकस्मात
एकाएक आ धमकी
आपात स्थिति से निपटने के लिए
गांठें हैं वे अपने ही उलझे अहं की
शिराओं में दौड़ते बेसब्र लहू के साथ
कूदती-फलांगती जटिल हो रहती हैं हर रोज
कि सुलझाना असंभव हो जाए
और मुल्तवी करना जानलेवा
हथियारबंद हमशक्ल योद्धाओं की तलाश में तब
निकल पड़ती हैं मुखौटाधारी सभ्यताएं
खंडित अस्मिताएं
एक दूजे में देख अक्स अपना
बना लेती हैं वृत्त मकड़जाल-सरीखा
घेरती हैं कोई एकाकी मनस्वी
लीक से छिटका दीया
या शांत तपस्वी ध्रुव तारे-सा
सौदेबाजी में अ-माहिर बिलकुल
वधिक न बनें योद्धा
तो महारथी नहीं कहलाते
अपनी ही कायरताओं से भीत वे
भेड़ियों का हुजूम हो जाते हैं
करते हैं शेर का शिकार मिल कर
दूर-दूर से
एक-दूजे में गोलबंद होकर
खुद को महफूज़ रखते हुए
अपने ही रक्तिम जलाशय के बीच
आखिरी सांस लेते शेर की गर्वीली मुस्कान
जब लपकती है शमशीर की तरह
दुबक जाते हैं मांद में
मुखौटों के नीचे
भय से सिकुड़ते सीनों में हवा भरने धौंकनी से
आरतियों और लल्लो-चप्पो की धौंकनियां न हों तो
संसार मुर्दों का टीला हो जाए
बभ्रुवाहन की तरह जीवित मृत मैं
हाथ में थाम कर कटा सिर अपना
बैठी हूँ पहाड़ के शिखर पर
देख रही हूँ तमाशा रुआंसे अट्टहास के साथ
अभिमन्युओं को घेरते चक्रव्यूहों की भीड़ में
मेरे कत्ल का चश्मदीद गवाह एक भी नहीं।
जब कहती हूँ
जब कहती हूँ
तुम पूरक हो मेरी अपूर्णताओं के
मैं फैल कर अछोर आसमान की तरह
पूर रही होती हूँ तुम्हारे अभाव
और पढ़ लेती हूँ
अकिंचनता की निस्सीम परिधि में घूमते
विराट का दार्शनिक सार
समर्पित हो जब कहती हूँ
तुममें पाया है मैंने अंतिम शरण्य स्थल
तुम्हारी प्रकंपित कातरताओं
भीत विलासिताओं
और खोखली क्षुद्रताओं के
नुकीले शर से बिंधे मृतप्राय स्वत्व को
अपनी उत्तप्त सांसों से फूंक कर
जीवन-दान दे रही होती हूँ
पोर-पोर सर्वस्व देकर जब कहती हूँ
तुम हो उर्वर उद्धारक मेरी वंध्या जमीन के
तुम मुकुट में सजाने लगते हो
लंबे सलोने ताड़ के गाछ
मैं लेती हूँ तुमसे बूंद भर
और गूंथ कर तमाम सपने-अरमान
अनदेखे लोकों के अनंत सफर
हौसलों के भीषण तूफान
लौटा देती हूँ तुम्हें
अपना धड़कता संसार विशाल
मेरे सहयात्री!
हर घाट से लेकिन तुम
क्यों चले आते हो प्यासे भला?
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