वरिष्ठ कथाकार और लेखक। उपन्यास, कहानी संग्रह, बाल साहित्य, यात्रा संस्मरण, संस्मरण आदि की  80 पुस्तकें। 

 

पंद्रह दिनों तक शीतलहर थी। आसमान में दिन भर धुंध छाई रही। सूरज किसी कंदरा में छुपा इतने दिनों से सुख की नींद ले रहा था। उनका जीवन कमरे से आंगन और वॉशरूम तक सीमित होकर रह गया था। सुमन ने जब से बिस्तर पकड़ा, उन्होंने उसके लिए एक नर्स की व्यवस्था कर ली थी। मेड साफ-सफाई का काम करती और सुबह नाश्ते के साथ ही दोपहर का भोजन भी पका जाती। शाम वह हर दिन दलिया या खिचड़ी डाल लिया करते। तीन साल पहले तक उन दोनों का जीवन बहुत सुचारु था। नौकरी से मिलने वाली पेंशन से गुजारा हो जाता। सुमन को गठिया की शिकायत पिछले दस वर्षों से थी, लेकिन इतनी नहीं कि वह चल नहीं सकती थी। दोनों अस्सी पार हो चुके थे फिर भी सुबह दो किलोमीटर घूम आते और शाम को हर दिन बाजार या सब्जीमंडी जाने के बहाने एक किलोमीटर जाते-आते। बेशक कुछ न लेना होता तब भी। दिनभर घर में घुसे रहने की बोरियत आध घंटा घूमने से दूर जाती। पड़ोसी रामलाल, जो उनकी ही तरह अस्सी पार का चुके थे, जब-तब छेड़ते, ‘निगम साहब, आप दोनों नियम के साथ हर दिन शाम बाहर निकलते हैं जैसे कोई नव-विवाहित जोड़ा निकले।’

‘तो आप मुझे बूढ़ा कब से समझने लगे रामलाल!’

रामलाल हो..हो करके हँसते, ‘अपने दांत गिन लो…।’

‘पूरे बत्तीस हैं और सुमन के भी।’

‘नकली दांतों को असली बता रहे।’ रामलाल फिर हो..हो करके हँसते। रामलाल की बत्तीसी दस साल पहले ही निकल गई थी। नकली दांत लगवा रखे थे, जिन्हें वह केवल भोजन के समय ही लगाते थे। शेष समय उन्हें एक डिब्बे में संभाल रखते। हँसते तब लाल-बदरंग मसूढ़े दिखाई देते।

‘रामलाल जी जब-तब एक बात ही क्यों बोलते रहते हैं?’ सुमन ने एक दिन बाजार जाते हुए पूछा।

‘बीबी के मरने के बाद अकेलापन महसूस करते होंगे।’

‘अकेले भी घूमने जा सकते हैं। कम से कम पार्क तक तो जा ही सकते हैं। दिनभर घर के बाहर बैठे लोगों को घूरते रहते हैं।’

‘बेटे काम पर निकल जाते हैं और बहुएं अपने काम में व्यस्त… बच्चे स्कूल और लौटकर होकवर्क या खेल में व्यस्त। रामलाल के लिए किसी के पास वक्त नहीं है। वह इस लायक नहीं कि घर के काम में हाथ बंटा सकें।’ कुछ रुककर एक जगह भीड़ से हटकर वह खड़े हो गए और बोले, ‘सुमन, रामलाल फिर भी भाग्यशाली हैं कि उनके बेटे-बहू उनका खयाल रखते हैं। साथ रह रहे हैं। हमारी तरह नहीं…।’ दीर्घ निश्वास छोड़ी उन्होंने और चलने के लिए कदम बढ़ाए।

सुमन ने भी दीर्घ निश्वास छोड़ा। कुछ देर चुप चलने के बाद सुमन बोली, ‘अपना-अपना भाग्य। मैं तो ईश्वर का लाख शुक्र अदा करती हूँ कि हम दोनों इस उम्र में भी स्वस्थ हैं। इतनी सैर कर लेते हैं। अपने काम स्वयं कर लेते हैं।’ उसने फिर लंबी सांस खींची और बोली, ‘जरूर हमने कुछ बुरे कर्म किए होंगे।’

‘सभी यही कहकर मन को तसल्ली दे लेते हैं। एक क्षण रुककर बगल में चल रही सुमन से वह बोले, ‘छोड़ो इस बात को। जिसपर अपना जोर नहीं उस बारे में क्या सोचना।’

यह बात उस दिन से आठ वर्ष पहले की थी। तब वह बहत्तर और सुमन सत्तर की थी। बड़ा बेटा केंद्र सरकार की नौकरी में बी.ए. करने के बाद आ गया था और उन दिनों चेन्नई में पदस्थ था। छोटा शहर में था। उसने एम.बी.ए. किया। शादी के कुछ वर्षों बाद तक कनॉट प्लेस के एक निजी संस्थान में नौकरी की, लेकिन नौकरी उसे रास नहीं आ रही थी। एक दिन उसने नौकरी छोड़ दी और उनसे पांच लाख रुपयों की मांग की। बैंक से रिटायर हुए उन्हें दस वर्ष हो चुके थे। कभी पैसे जोड़ नहीं पाए थे। जोड़ते, तब दोनों बेटों को पढ़ा नहीं सकते थे। दिल्ली के पटपड़गंज जैसी जगह पर अपना मकान नहीं बना सकते थे। मकान बनवाने के लिए उन्होंने बैंक से लोन लिया था और जब अवकाश ग्रहण किया, उनके फंड और ग्रैचुएटी का ब़ड़ा भाग लोन अदायगी में जा चुका था। छोटे बेट रमन का विवाह अवकाश ग्रहण के बाद किया था। उन्होंने न बड़े बेट में दहेज लिया और न ही रमन के विवाह में। लेकिन लड़की वाले खर्च करवाने में पीछे नहीं रहे थे। छोटी पुत्रवधू के लिए कुछ कर्ज लेकर सोने-चांदी के आभूषण बनवाने पड़े थे। उन्होंने वह कर्ज किसी प्रकार पेंशन से बचत करके और सुमन के जोड़े पैसों से अदा कर दिया था। रमन व्यवसाय करना चाहता था। उसका कहना था कि नौकरी न उसके मनोनुकूल है और उस नौकरी के बाल पर वह कभी ढंग की जिंदगी नहीं जी सकेगा। उसे कश्मीरी गेट में एक छोटी-सी दुकान पगड़ी में मिल रही थी। उसके साले की वहां ऑटो पार्ट्स की दुकान थी। दुकानदार कर्जदार था और पांच लाख रुपयों में दुकान छोड़ने को तैयार था। सलाह रमन के साले की थी।

उनके बैंक में केवल एक लाख रुपए थे। उन्होंने वह रमन को दे दिए। रमन को यह विश्वास नहीं था कि उनके पास पैसे नहीं थे। उसने मकान का ऊपर का हिस्सा बेचने के लिए उनपर दबाव बनाया, जिसके लिए उन्होंने मना कर दिया। इस पर रमन की पत्नी शर्मिला सुमन से लड़ीआप लोग अपने बेटे की प्रगति नहीं देख सकते। मकान बांधकर ऊपर ले जाएंगे। बिजनेस चल गया तो दस मकान रमन खड़ा कर देंगे।

सुमन ने कोई उत्तर नहीं दिया। रमन ने पांडव नगर में दो कमरों का फ्लैट किराए पर लिया और वहां शिफ्ट हो गया। दुकान वह नहीं खरीद पाया, लेकिन उसने एक लाख रुपए नहीं लौटाए। उस दिन वह रमन को शिफ्ट करते हुए टुकुर-टुकुर देखते रहे थे, लेकिन उसे जाने से रोका नहीं था। कुछ दिनों की बेकारी के बाद रमन ने गुड़गांव में दूसरी कंपनी ज्वाइन कर ली और वहां शिफ्ट हो गया। आठ साल हो गए न वह उनसे मिलने आया और न उनसे संपर्क किया। रमन की सहायता न करने से बड़ा बेटा भी उनसे नाराज था। दो साल से उनसे मिलने नहीं आया था।

‘मेरी कोई गलती नहीं रमन के पापा। हमने उन्हें पाल-पोषकर इस लायक बनाया…।’ सुमन जब भी उन्हें यह कहती, वह उसे रोक देते, ‘सुमन, हमने अपना कर्तव्य निभाया। हर मां-पिता का कर्तव्य होता है कि वह बच्चों का खयाल रखे। हम कोई पहले मां-पिता नहीं जिनके बच्चे उन्हें छोड़ चुके हैं। दुनिया में लाखों लोग हैं। ईश्वर का धन्यवाद करो कि हम स्वस्थ हैं।’

लेकिन कहां स्वस्थ रह सकी सुमन। छब्बीस जनवरी का दिन था। ऐसा ही ठंडभरा दिन। सुबह का समय। वह पूजा करके हर दिन सूरज को जल अर्पण करने छत पर जाती थी। शीतलहर और कोहरे के कारण सूरज के दर्शन एक सप्ताह से नहीं हुए थे, लेकिन वह पूरब की ओर हाथ उठाकर जल अर्पण करके मन को संतोष दे लेती। उस दिन लौटी तब कांप रही थी।

‘मैंने कितनी बार कहा कि ऐसे मौसम में ऊपर नहीं जाया करो। हवा लग गई न।’ ब्लोअर ऑन करते हुए वह बोले। लेकिन सुमन ने कोई उत्तर नहीं दिया।  बेहोश होकर वह बिस्तर पर ढह गई। उसके दांत भिंच गए थे। चेहरा ऐंठ रहा था। उन्होंने उसे झकझोरा लेकिन सुमन को होश नहीं आया। उन्होंने उसपर रजाई डाली और ऊपर रहने वाले किराएदार को आवाज दी। वह अपनी दुकान जाने के लिए तैयार हो रहा था। उसकी गाड़ी में वह सुमन को मैक्स ले गए। उसे दाहिनी ओर लकवा मार गया था। सुमन दस दिनों तक अस्पताल में रही। लाभ इतना ही हुआ कि वह भोजन लेने लगी, लेकिन चलना संभव नहीं रहा।

उन्होंने बड़े बेटे को सूचना दी। रमन की ससुराल में संदेश छोड़ा, लेकिन न ही बड़ा बेटा आया और न ही रमन। सुमन की कुछ जेवर बची हुई थी। उसे बेचकर उन्होंने मैक्स के बिल का भुगतान किया था। उन्होंने खाली पड़े दो कमरे भी किराए पर उठा दिए थे। किराएदारों से मिलने वाले किराए और पेंशन से सुमन का इलाज, नर्स और आया के खर्चे और शेष जरूरतों को वह पूरा कर लेते थे। बैंक की ओर से स्वास्थ्य सेवा का लाभ भी ले रहे थे।

सुमन सही प्रकार बोल नहीं पाती थी, लेकिन टूटे वाक्यों में वह रमन और बड़े बेट को लेकर अपनी चिंता अवश्य प्रकट करती। बड़े बेटे के दो बेटे थे। दो साल पहले दो दिनों के लिए आए थे। सुमन उन्हें दोबारा देखना चाहती थी।

‘मैंने प्रणव को फोन पर बताया था। उसने आने के लिए कहा था, लेकिन आना तो दूर उसने फोन करके तुम्हारे हाल तक नहीं जाने।’

‘फंस गया होगा काम में। सरकारी काम ठहरा। बनिया की दुकान तो है नहीं कि जब चाहा खोला और जब जी नहीं चाहा, बंद रखा।’ लड़खड़ाती जुबान से सुमन बोली, ‘एक बार और फोन करके कह दो कि मैं उन सबसे मिलना चाहती हूँ। रमन तो निर्मोही है। उसे अब दोबार खबर नहीं देना।’

वह चुप रहे थे। लेकिन उनकी आत्मा ने स्वीकार नहीं किया कि वह दोबारा बेटों को सूचना देते। उन्होंने नहीं दिया। तीन साल बीत गए। तीन सालों से उनका सारा रूटीन गड़बड़ हो गया था। सुमन के साथ बिना घूमने जाना भी लगभग बंद हो चुका था। पंद्रह दिनों से शीतलहर ने हालात ऐसे कर दिए कि वह इस कमरे से सुमन के कमरे या वॉश रूम से किचन तक ही सीमित होकर रह गए थे।

उस समय वह अपने लिए चाय बना रहे थे, जब डोर बेल बजी। चाय चढ़ी छोड़कर उन्होंने दरवाजा खोला। दरवाजा गैलरी में खुलता था। खुलते ही लगा कि हवा का रेला अंदर घुस आया था। उन्होंने ओवरकोट पहना हुआ था। आने वाला दरवाजे पर खड़ा था।

किराएदार ऊपर रहते हैं। उन्हें लगा कि शायद युवक ने गलती से उनकी घंटी बजा दी थी।

‘आप किशोर कुमार निगम हैं न!’ आगंतुक बोला।

‘जी। कहें।’

‘मैं आपके छोटे बेटा रमन का मित्र हूँ। रमन को आज रात हार्ट अटैक पड़ा है। वह मेदांता में भर्ती है।’

‘ओह!’ उन्हें लगा कि उनका दिमाग घूमने लगा है- ‘आप अदर आ जाएं।’

‘नहीं अंकल। मुझे शर्मिला जी का रात ही फोन आया था। मैं अस्पताल जा रहा हूँ। मैं नोएडा रहता हूँ। शर्मिला जी ने आपको बताने के लिए कहा था।’ रमन के पास उनके अलावा  कोई नहीं। एक क्षण रुककर वह बोला, ‘सॉरी अंकल, मैं निकलता हूँ। आप परेशान न हों। मैं पहुंचकर आपको फोन करूंगा। आप अपना मोबाइल नंबर मुझे बता दें।’

‘मेदांता गुड़गांव में न! एमर्जेन्सी में होगा।’

‘जी अंकल।’

युवक अपना मोबाइल निकालकर उनका नंबर लिखने के लिए उनके चेहरे की ओर देख रहा था। उन्होंने नंबर बताया और कहना चाहा कि यदि वह कुछ देर प्रतीक्षा करे तब वह उसके साथ चलना चाहेंगे, लेकिन तभी उन्हें खयाल आया कि सुमन की नर्स अभी तक आई नहीं। उसके आने के बाद ही कोई निर्णय सही होगा।

उनका मोबाइल नंबर लेकर युवक चला गया। वह दरवाजा बंद ही कर रहे थे कि नर्स आती दिखी। मेड भी उसके पीछे आ रही थी।

नर्स को एक ओर ले जाकर उन्होंने कहा, ‘भगवती, मेरे छोटे बेटे रमन को हार्ट अटैक पड़ा है। मैं अभी गुड़गांव जा रहा हूँ। आज तुम्हें डबुल ड्यूटी करनी पड़ सकती है। मैं अभी निकल जाना चाहता हूँ। सुमन को कुछ नहीं बताना। मैं फोन पर तुम्हें अपने लौटने के बारे में बताऊंगा।’

कुछ देर सोचने के बाद नर्स बोली, ‘अंकल, आप इत्मीनान के साथ जाएं। मैं रात में आंटी के पास आ जाऊंगी। जितने देर के लिए घर जाऊंगी, अपनी बिटिया को आंटी के पास बुला लूंगी। बल्कि रात हम दोनों ही रह लेंगे।’

‘भगवती, मुझे तुम सबका ही सहारा है।’ उनकी आंखें भर आईं।

‘अंकल, दुखी न हों। सब ठीक होगा। दो-चार दिन मैं आंटी को संभाल लूंगी।’ एक क्षण रुककर वह आगे बोली, ‘लेकिन आंटी, आपके बारे में पूछेंगी तब क्या कहूंगी?’

‘मेरा छोटा भाई फरीदाबाद में रहता है। मैं उसे कहूंगा कि वह बीमार है, उसे देखने जा रहा हूँ। तुम भी यही बताना।’

‘जी अंकल।’

उन्होंने सुमन को फरीदाबाद जाने की कहानी गढ़कर बताई, ‘चिंता न करना सुमन, भगवती तुम्हारे पास रहेगी, जब तक मैं लौट नहीं आता।

‘कोई नहीं। आप जाओ और हां, पहुंचकर देवरजी के हाल भगवती को बताना। वह मुझे बता देगी। मन को तसल्ली होगी।’

उन्होंने एक थैले में गर्म कपड़े रखे और शीतलहर की परवाह न करते हुए सड़क पर आ गए और मेट्रो स्टेशन जाने के लिए सड़क पर तेजी से दौड़ रहे ऑटो वालों को हाथ देकर रोकने का प्रयास करने लगे। स्टेशन जाते हुए उनके दिमाग में रील तेजी से दौड़ने लागी थी कि यदि जरूरत हुई तो रमन के इलाज के लिए वह मकान बेच देंगे!

 

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