विद्यासागर विश्वविद्यालय में शोधार्थी और संस्कृतिकर्मी।
मनोरंजन बाजार के बढ़ते प्रभाव ने आज लोगों में किताबें पढ़ने की रुचि कम कर दी है।इसका असर विधाओं के अस्तित्व पर पड़ा है।पाठकों की रुचि का लेखकों पर असर पड़ता है।
साहित्य की कई विधाएं हैं- कहानी, उपन्यास, कविता, आलोचना, निबंध, ललित निबंध, नाटक, रेखाचित्र, आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण, रिपोतार्ज, यात्रा-वृत्तांत, डायरी आदि।आज कहानी, उपन्यास और कविता ही सर्वाधिक पढ़े जा रहे हैं।इस समय उपन्यास इतना लोकप्रिय है कि ज्यादा लोग उसे ही पढ़ना पसंद कर रहे हैं।ऐसे व्यक्ति ज्यादा हैं, जो उपन्यासों में केवल ‘लुगदी उपन्यास’ पढ़ रहे हैं।अन्य विधाओं के लेखकों और पाठकों में बेतहाशा कमी आई है।इस कमी के पीछे कहीं न कहीं सोशल मीडिया एक प्रमुख कारण के रूप में दिखाई पड़ता है।
आज ज्यादा लोगों के पास साहित्य पढ़ने का अवकाश नहीं है।आलोचना और कविता जैसी विधाओं से सिर्फ साहित्य के शिक्षकों, आलोचकों और शोधार्थियों का नाता है।सवाल है कि जब सामान्य लोगों में बौद्धिकता और वैचारिकी की कमी होती जाएगी तो वे साहित्य की गंभीर विधाओं की कृतियां पढ़ने में रुचि कैसे लेंगे?
आज लोग लोकप्रियता के पीछे भाग रहे हैं।यह जरूरी नहीं है कि हर लोकप्रिय चीज सही हो।प्रकाशन जगत भी लोकप्रिय साहित्य के मोह में फंसा हुआ है।पहले अखबार के संपादकीय में या रविवारीय में साहित्य की रचनाएं तरीके से छपती थीं, यह कभी का बंद हो गया।हर जगह मुनाफा ही महत्वपूर्ण हो गया है।इसका सामान्य वर्ग से लेकर प्रबुद्ध वर्ग तक प्रभाव है।अतः सवाल है, क्या लोकप्रियता की अवधारणा ही साहित्य की विविधता पर खतरे की मुख्य वजह है?
हम विवेकशून्य होंगे तो सबसे पहले हमारा नाता साहित्य से टूटेगा।यह विवेकशून्यता उत्तर-आधुनिक समय की सबसे बड़ी घटना है।आज हमारे ऊपर इंटरनेट और सोशल मीडिया इतना हावी है कि हम इससे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं।यह तेज चलने का दौर है।सभी जल्दी में हैं।लोगों में धैर्य की कमी आई है, जबकि साहित्य का पढ़ा जाना समय मांगता है।लोगों के पास आज साहित्य के लिए समय नहीं है।साहित्य पढ़ना अब केवल साहित्य के अध्येताओं, शिक्षकों और विद्वानों तक सीमित होता जा रहा है, जो चिंताजनक है।यह एक बड़ी सामाजिक क्षति है।यह जानना भी दिलचस्प है कि आखिर जनसामान्य साहित्य से क्यों कटा?
साहित्य के संपूर्ण अस्तित्व के संदर्भ में ‘साहित्य की विविधता पर खतरे’ विषय पर यह परिचर्चा आयोजित की गई है।जवरीमल्ल पारख, प्रियदर्शन, भगवानदास मोरवाल, विजय शर्मा, संजय कुंदन, हितेंद्र पटेल और मृत्युंजय श्रीवास्तव जैसे विद्वानों ने इस परिचर्चा में हिस्सा लिया है।हम इनके आभारी हैं।
सवाल
(१) १९वीं और २०वीं सदी कई आधुनिक विधाओं के उदय का साक्षी रही है।क्या कारण है कि पिछले कुछ दशकों से कई साहित्यिक विधाएं हाशिए पर जा रही हैं? उनके न ज्यादा पाठक हैं, न लेखक, न प्रकाशक?
(२) बेस्ट सेलर क्या चीज है? किस तरह की बेस्ट सेलर पुस्तकें ज्यादा हैं और क्यों? इस प्रवृत्ति का साहित्यिक विधाओं की विविधता पर क्या असर पड़ रहा है?
(३) क्या उपन्यास को आज की केंद्रीय विधा कहा जा सकता है? इसका क्या महत्व है?
(४) अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन जगत में उपन्यास की धूम है, इस विधा पर व्यावसायिकता का क्या असर है?
(५) साहित्यिक विविधता पर खतरे को क्या भाषाई और जैव विविधता पर खतरे की तरह देखा जाना चाहिए?
जवरीमल्ल पारख वरिष्ठ आलोचक।साहित्य, संस्कृति, मीडिया और सिनेमा पर नियमित लेखन।अद्यतन पुस्तक :‘साझा संस्कृति, सांप्रदायिक आतंकवाद और हिंदी सिनेमा’। |
साहित्य की विविधता पर खतरे बढ़ गए हैं
(१) १९वीं और २०वीं सदी में गद्य की कई विधाओं का उदय हुआ।कथा साहित्य के अंतर्गत कहानी और उपन्यास।आधुनिक काल में लिखी जाने वाली कहानी पुराने किस्सों, गल्प, आख्यान से कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से काफी अलग कही जा सकती हैं।उपन्यास विधा का उदय १८वीं सदी में हो गया था।लेकिन १९वीं सदी में ही उसने अपना रचनात्मक स्वरूप ग्रहण किया था।कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से नए प्रयोग हुए।उसे अधिकाधिक पढ़ा जाने लगा।उपन्यास को पूंजीवाद से जोड़कर देखा जाने लगा।उपन्यास की बढ़ती लोकप्रियता ने महाकाव्य के प्रति आकर्षण को कम कर दिया।
इसी दौर में, जिसे रामचंद्र शुक्ल ने गद्य काल कहा था, कई गैर-कथात्मक गद्य विधाओं का उदय हुआ।आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण, रेखाचित्र, यात्रा वृत्तांत, डायरी लेखन और इन सबसे महत्वपूर्ण निबंध विधा इसी दौर की उपज हैं।दरअसल मुद्रण उद्योग के विस्तार के साथ पत्र-पत्रिकाओं और किताबों के प्रकाशन उद्योग का भी विस्तार हुआ।इन्होंने गद्य लेखन को काफी प्रोत्साहित किया।केवल काल्पनिक कथाओं (कहानी, उपन्यास और नाटक) के माध्यम से ही नहीं, जीवन की सच्ची घटनाओं, प्रसंगों, अनुभवों को भी तरह-तरह से अभिव्यक्त करने की इच्छा और जरूरत महसूस की जाने लगी।इसी का नतीजा था, आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण, रेखाचित्र, यात्रा वृत्तांत, डायरी लेखन, पत्र लेखन विधाओं का उदय।लेखक इन विधाओं के माध्यम से अपने बारे में ही नहीं, अपनों के बारे में, अपने आसपास के बारे में और उनके बारे में भी, जिनसे वे अब तक अनजान थे, इस तरह के लेखन द्वारा दूसरों के साथ अपने अनुभव (और विचार भी) साझा कर रहे थे।
इन सबसे थोड़ी अलग तरह की विधा है निबंध।निबंधों में अनुभवों और विचारों दोनों की अभिव्यक्ति होती है।अन्य विधाओं की तरह निबंध में भी शैलीगत वैशिष्ट्य और भाषिक सौंदर्य का खास महत्व होता है।वैचारिक, भावनात्मक, लालित्यपूर्ण, व्यंग्य प्रधान, आलोचनात्मक, विवेचनात्मक, कई कई तरह के निबंध लिखे जाते रहे हैं।इस तरह, हम देखते हैं कि गद्य की इन विधाओं ने भाषा की संप्रेषण शक्ति और रचनात्मक सौंदर्य को बढ़ाने में अहम भूमिका अदा की है।
लेकिन पिछले कुछ दशकों से, जबसे श्रव्य और दृश्य माध्यमों का विस्तार हुआ है इसने कुछ हद तक लेखन प्रवृत्ति को भी प्रभावित किया है।अब चिट्ठी-पत्री लिखा जाना खत्म हो गया है।विस्तार से निबंध लिखने के बजाय फेसबुक आदि पर छोटी टिप्पणियां लिखना पर्याप्त समझा जाने लगा है।यह तो नहीं कहा जा सकता है कि इन विधाओं का पूरी तरह लोप हो गया है, लेकिन यह सही है कि इनके पढ़ने-लिखने की प्रवृत्ति कम हुई है।हालांकि जहां तक कथा साहित्य का सवाल है, उनको अब भी काफी पढ़ा जाता है।इसी तरह, आत्मकथा, जीवनी और संस्मरण भी काफी लिखे जाते हैं और पढ़े भी जाते हैं।निश्चय ही इन सबका स्वरूप काफी कुछ बदला है।
(२) बेस्ट सेलर का अर्थ है वह प्रकाशित पुस्तक जो एक निश्चित समयावधि में सर्वाधिक पढ़ी गई है।आमतौर पर इनमें लोकप्रिय उपन्यास ही परिगणित होते हैं।लेकिन कई बार इतिहास, राजनीति, आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण से संबंधित किताबों की गणना बेस्ट सेलर में होती हैं।बेस्ट सेलर होने की मुख्य वजह पुस्तक की रोचकता और पठनीयता होती है, लेकिन सबसे जरूरी होता है उसका प्रासंगिक होना।
कोई पुस्तक छपकर बाजार में आ जाने से बेस्ट सेलर नहीं हो जाती, चाहे वह कितनी ही जरूरी, प्रासंगिक और मूल्यवान क्यों न हो।पाठकों तक पहुंच बनाने के लिए यह जरूरी है कि किताब का प्रचार भी हो, उसकी क्रयक्षमता से हो और आसानी से उपलब्ध हो सके।अगर किसी किताब का प्रचार उसकी औसत गुणवत्ता के बावजूद संभावित पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल होती है तो उसके ज्यादा बिकने और ज्यादा पढ़े जाने की संभावना बन जाती है।इसमें सकारात्मक समीक्षाएं भी अपनी भूमिका निभाती हैं, भले ही वे समीक्षाएं प्रायोजित ही क्यों न हों।बेस्ट सेलर के प्रति आकर्षण के कारण प्रकाशक प्रासंगिक और विवादास्पद विषयों पर लिखने का दवाब डालते हैं।नतीजतन स्थायी और अधिक जरूरी विषयों पर लिखा जाना उपेक्षित होने लगता है।लेखक भी उन विषयों और विधाओं पर लिखने से कतराने लगते हैं।
(३) यह सही है कि उपन्यास अधिक लिखे जा रहे हैं, क्योंकि प्रकाशक आसानी से छापने के लिए तैयार हो जाते हैं।इसकी वजह है, उपन्यासों का अधिक पढ़ा जाना।उपन्यास १९वीं सदी से ही लोकप्रिय विधा है।
उपन्यास की लोकप्रियता का कारण है उसकी विस्तृत कथात्मकता।उसमें जीवन का विस्तृत विवरण मिलता है।जीवनी और आत्मकथा की लोकप्रियता का भी यही कारण है।कथा फिल्मों की लोकप्रियता का भी यही कारण है।उपन्यास में कथाकार कई तरह के प्रयोग कर सकता है।कथ्य की दृष्टि से भी और शिल्प की दृष्टि से भी।उपन्यास लोकप्रिय विषयों और विधाओं पर भी लिखे जाते हैं, लिखे जा सकते हैं।सामाजिक, आपराधिक, रहस्य रोमांच, जासूसी, पौराणिक आदि पर भी उपन्यास लिखे जाते हैं और पढ़े भी जाते हैं, भले ही इन्हें रचनात्मक साहित्य में परिगणित न किया जाता हो।यह बात कथा फिल्मों पर भी लागू होती है।
अधिकतर पाठकों को उपन्यास पढ़ना कहानी पढ़ने की अपेक्षा ज्यादा रोचक लगता है।उसमें घटनाओं पर ही ध्यान देना पर्याप्त समझा जाता है।उपन्यास की पठनीयता, बदलते समय और समाज के अनुसार नए विषयों पर लिखने की संभावनाएं और प्रयोगशीलता की भी अपरिमित संभावनाएं इस विधा को लगातार लोकप्रिय और आकर्षक बनाए हुए हैं।
(४) उपन्यास के पाठक ज्यादा होते हैं इसलिए इसकी मांग भी ज्यादा होती है।यही इसकी व्यावसायिकता का कारण है।उपन्यास के व्यक्तिगत खरीददार बहुत अधिक होते हैं और इसे शिक्षा संस्थानों और सरकारी खरीद पर निर्भर नहीं रहना पड़ता।उपन्यास यदि अपनी भाषा में लोकप्रिय हो जाता है तो उसके दूसरी भाषाओं मे अनुवाद की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।लोकप्रिय उपन्यास पर फिल्म बनने की संभावना होती है।इससे उसका बाज़ार और विस्तृत हो जाता है।उपन्यास से जुड़े हुए कई तरह के स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी हैं ।सलमान रश्दी, अरुंधती राय, गीतांजलि श्री की अंतरराष्ट्रीय ख्याति का कारण उनको मिले अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी हैं।यह और बात है कि न तो पुरस्कार और न ही व्यापक लोकप्रियता रचना की श्रेष्ठता का प्रमाण है।
एक लंबा समय गुजरने के बाद ही यह कहा जा सकता है कि अमुक उपन्यास सचमुच श्रेष्ठ और कालजयी है।उपन्यास का एक पक्ष और है कि विश्वविद्यालयों में शोध के लिए शोधार्थियों की पहली पसंद उपन्यास है।उपन्यास पर शोध करना और करवाना शोधार्थी और शोध निर्देशक को सरल लगता है।उसकी विस्तृत कथा शोध को भले ही स्तरीय न बनाए, लेकिन लिखने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हो जाती हैं।
(५) साहित्यिक विविधता के खोते जाने को जैव विविधता के संकुचित होते जाने से नहीं जोड़ा जा सकता।जैव विविधता का संकुचन संपूर्ण मानवजाति के लिए खतरनाक हो सकता है, क्योंकि इससे पारिस्थितिकी संतुलन पर असर पड़ता है।जबकि साहित्यिक विधाओं की विविधता में बदलाव एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।कई शताब्दियों तक अस्तित्वमान रहने वाली विधा-महाकाव्य और खंड काव्य – अब खत्म हो गई है।इसी तरह काव्य में कई नई विधाओं का उदय हुआ है।इसी तरह गद्य की कई विधाएं लेखकों के बीच लोकप्रिय नहीं रह गई हैं।दरअसल असली खतरा भाषाई विविधता के संकुचन का है।इसकी वजह साहित्यिक विधाएं नहीं, वरन संप्रेषण की नई प्रौद्योगिकी है, जिसकी वजह से भाषा की भूमिका संकुचित होती जा रही है।
उत्कृष्ट, मौलिक और रचनात्मक लेखन के लिए गहन और व्यापक अध्ययन, विस्तृत जीवनानुभव, लिखते रहने का अभ्यास, वैचारिक सजगता, कल्पनाशीलता की सामर्थ्य, अधिक धैर्य से लिखने और लिखे हुए पर बार बार विचार करने और जरूरत के अनुसार बदलाव करने की जरूरत होती है।आजकल के भागदौड़ वाले जीवन में, जो निरंतर यंत्रों पर निर्भर होता जा रहा है, मौलिक और कल्पनाशील लेखन की संभावना भी कम होती जा रही है।संप्रेषण के सोशल मीडिया ने त्वरित और दायित्वहीन लेखन को बढ़ावा दिया है।चुनौती यही है कि इस चक्र से कैसे निकलें?
सी-१२४, प्रथम तल, साउथ सिटी-२, गुड़गाँव-१२२०१८ मो.९८१०६०६७५१
भगवानदास मोरवाल प्रसिद्ध कथाकार।अद्यतन उपन्यास ‘शकुंतिका’। |
घासलेटी लेखन का आधुनिक रूप है बेस्ट सेलर
(१) यह सही है कि बीसवीं सदी के लगभग अंतिम दशक तक उपन्यास, कहानी, व्यंग्य, निबंध, कविता, एकांकी, नाटक, प्रहसन, आलोचना, रिपोर्ताज, डायरी लेखन, जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण, रेखाचित्र, साक्षात्कार, पुस्तक समीक्षा सहित कई विधाएं हिंदी साहित्य में प्रचलन में थीं।लेकिन देखते-देखते पिछले कुछ दशकों में कई विधाएं जैसे न केवल हाशिए पर चली गई हैं, अपितु वे लगभग विलुप्त-सी हो चुकी हैं।
अब तो हालत यह है कि साहित्य के विद्यार्थियों को एकांकी और नाटक में अंतर नहीं पता है।बल्कि एक विधा जो रेडियो के दर्शकों की सबसे प्रिय विधा हुआ करती थी, उसके बारे में ये जानते तक नहीं है, और वह विधा है-प्रहसन।एक समय रेडियो के ‘हवा महल’ कार्यक्रम की पहचान ही यह प्रहसन, हास्य नाटिका हुआ करती थी।एकांकियों का प्रसारण एक समय सबसे अधिक रेडियो पर ही हुआ करता था।एक तरह से कहा जाए तो बहुत-सी साहित्यिक विधाओं को जिंदा रखने और उन्हें लोकप्रिय बनाने में हमारे आकाशवाणी की बहुत बड़ी भूमिका रही है।एकांकी और प्रहसन तो एक तरह से लिखे ही रेडियो के लिए जाते थे।
इसी तरह निबंध और ललित निबंध के मर्मज्ञ कुबेर नाथ राय को हम लगभग विस्मृत कर चुके हैं।हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र के निबंधों को भी हम भूल चुके हैं।द्विवेदी जी के चर्चित निबंध ‘अशोक के फूल’ की सही व्याख्या करने में कितने अध्यापक और उनके छात्र समर्थ हैं, यह शोध का विषय है।मेरा मानना है कि निबंध साहित्य की एकमात्र ऐसी विधा है जो हमारे भाषायी संस्कार और मेधा की असली कसौटी मानी जाती रही है।भारतीय रस-साधना, सांस्कृतिक गौरव, परंपरा और मेधा की पहचान का यदि कोई असल पैमाना हो सकता है, तो वह निबंध ही है।
निबंध ही क्यों रिपोर्ताज, डायरी लेखन, जीवनी, संस्मरण, रेखाचित्र और पत्र-लेखन जैसी विधाएं भी लगभग हाशिए पर चली गई हैं।प्रौद्योगिकी ने जहां हमारी अभिव्यक्ति के अनेक दरवाजे खोले हैं, वहीं कुछ पारंपरिक और पुराने दरवाजों को बंद भी किया है।जहां तक इन विधाओं के कम पाठकों का प्रश्न है, यह एक हद तक सही हो सकता है, लेकिन जब पाठकों तक ये विधाएं जाएंगी ही नहीं, उन्हें दोष देना सही नहीं है।इतना ही नहीं, बल्कि अब तो धीरे-धीरे आलोचना जैसी विधा, जो पाठक को किसी रचना को समझने में सहायक होती थी, वह भी दांव पर लगी हुई है।आलोचना की जगह अब समीक्षा ने ले ली है।बल्कि अब समाचार-पत्रों में शुक्रवार को रिलीज होनेवाली फिल्मों की समीक्षाएं भी दिखाई नहीं देती हैं।रही बात प्रकाशकों की, उन्हें इसके लिए दोष देना उचित नहीं है।जब अच्छी आलोचना, निबंध, एकांकी, नाटक, रिपोर्ताज, डायरी उनके पास आएगी ही नहीं, तो वे क्या प्रकाशित करेंगे? यह प्रश्न तब उठना चाहिए, जब प्रकाशक ने इन्हें प्रकाशित करने से मना किया हो।
(२) बेस्ट सेलर वास्तव में अंग्रेजी भाषा से आयातित है।इसकी अवधारणा लोकप्रिय साहित्य पर तो लागू हो सकती है, लेकिन मुख्यधारा के गंभीर साहित्य पर यह लागू नहीं होती, क्योंकि इसका एक तरह से सायलेंट पाठक होता है, जो उसे रुक-रुक कर पढ़ता है।कोरोना से पहले कुछ प्रकाशन समूहों, विशेषकर एकाध समाचार-पत्र समूहों ने बेस्ट सेलर की आड़ में लोकप्रिय साहित्य को जिस तरह प्रमोट करना शुरू किया था, वह पूरी तरह अवैज्ञानिक और तथ्यों से परे था।सबसे हास्यास्पद और मजेदार यह था कि इसके तहत ऑनलाइन और कुछ ऐसे माध्यमों से पुस्तकों की बिक्री के आंकड़े एकत्रित किए जाते थे, जिनका गंभीर साहित्य से दूर-दूर तक वास्ता नहीं था।इसके लिए विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग के छात्रों द्वारा खरीदी गई पुस्तकों को शामिल नहीं किया जाता था।इसका नतीजा यह हुआ कि जासूसी और दूसरी तरह के लोकप्रिय साहित्य की पुस्तकें बेस्ट सेलर की सूची में आने लगीं।दरअसल, इसके पीछे मुख्यधारा के गंभीर साहित्य को हाशिए पर धकेलने का षड्यंत्र था।हालांकि इस प्रवृत्ति का हमारी गंभीर साहित्य की अन्य विधाओं पर कोई असर नहीं पड़ा।
कोरोना के बाद जैसे ही बेस्ट सेलर का वितंडा गायब हुआ, वहीं यह तमाशा भी बंद हो गया।आज इन तथाकथित बेस्ट सेलर के लेखकों को कोई जानता भी नहीं है।एक मजेदार बात यह है कि इनका पाठक वही है जो एक समय राजन-साजन सीरिज और गुटका साहित्य का हुआ करता था।इसका संबंध वास्तव में गुणवत्ता और साहित्यिक कसौटी या मानदंड से नहीं, केवल और केवल एक ऐसे पाठकवर्ग से है, जिनके द्वारा साहित्य के नाम पर ऐसी पुस्तकें पुस्तकालयों के बजाय यूज़ एंड थ्रो के सिद्धांत का पालन करते हुए फेंक दी जाती हैं।प्रकाशन के खुले विकल्पों के चलते इस प्रवृत्ति में कुछ वृद्धि अवश्य हुई है, लेकिन वह स्थायी नहीं है।
एक सवाल यह भी है कि आखिर बेस्ट सेलर की अवधारणा क्या है।क्या ‘मैला आँचल’, ‘तमस’, ‘गोदान’ जैसी कृतियां, जिनके अनेक संस्करण आ गए हैं, बेस्ट सेलर नहीं हैं? मेरी दृष्टि में इस प्रवृत्ति का साहित्यिक विधाओं की विविधता पर कोई प्रतिकूल असर पड़ा है, मैं नहीं समझता।क्योंकि ऐसा लेखन बरसों से लिखा जा रहा है।एक तरह से यह घासलेटी लेखन का आधुनिक रूप है।
(३) मैं यह तो नहीं कह सकता कि आज की केंद्रीय विधा कौन-सी है, लेकिन इतना ज़रूर कहूंगा कि जितनी संख्या में आज उपन्यास लिखे जा रहे हैं और प्रकाशित हो रहे हैं, उसे देखते हुए ऐसा माना जा सकता है।फिल्म के बाद उपन्यास एकमात्र ऐसी विधा है जो अभिव्यक्ति का सबसे अधिक सशक्त और लोकप्रिय विधा है।हालांकि हिंदी उपन्यास की उम्र बहुत अधिक नहीं है।इसका तो उदय ही भारतीय सामंतवाद के प्रतिरोध स्वरूप हुआ था।देखने की बात यह है कि इनमें से किस तरह के और कितने उपन्यास भविष्य में पाठकों की चेतना में बचे रहेंगे।
दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह उपन्यास लेखन में वृद्धि हुई है, उससे लगता है कि अभिव्यक्ति की यह एक सशक्त विधा बन चुकी है।यह गौरव एक समय कविता के पास था।बीसवीं सदी का अंतिम दशक तो याद ही बड़े आकार के उपन्यासों के लिए किया जाता है।
हालाँकि इसकी शुरुआत १९९३ में प्रकाशित सुरेंद्र वर्मा के ‘मुझे चांद चाहिए’ और १९९४ में प्रकाशित बदीउज़्ज़माँ के ‘सभा पर्व’ से हो चुकी थी।किंतु ‘सात आसमान’, ‘आवां’, ‘इन्हीं हथियारों से’, ‘कालकथा’, ‘चाक’, ‘काला पहाड़’, ‘आख़िरी कलाम’, ‘बाबल तेरा देस में’ जैसे उपन्यासों ने इस विधा को और समृद्ध किया।समृद्ध ही नहीं किया अपितु वे पढ़े भी बहुत गए और गंभीर पाठकों के बीच आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं।
इधर एक बार ऐसे उपन्यासों का फिर से दौर आ रहा है।पिछले कुछ सालों में बड़े आकार के उपन्यास फिर से लिखे जाने लगे हैं।उपन्यास ने सबसे महत्वपूर्ण काम यह किया है कि यह हाशिए के समाजों की आवाज बनकर उभरा है।पिछले दो दशकों की बात करें तो यह श्रेय इस विधा को ही जाता है कि उसने दलित, आदिवासी, उपेक्षितों, वंचितों को वाणी प्रदान की है।आज सबसे अधिक वही उपन्यास पढ़े जाते हैं जिनके केंद्र में ये समाज होते हैं और जिनका ताना-बाना एंथ्रोपोलोजिकल और समाजशास्त्रीय पक्षों को समेटे हुए होता है।एक तरह से उपन्यास अपने-अपने समाज का प्रतिनिधित्व भी करता है और यही इसका सबसे बड़ा महत्व है।
(४) जहां तक अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन जगत में उपन्यास के धूम की बात है, यह सही है।इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जगत में पाठकों के बीच सबसे अधिक मांग उपन्यास की ही है।सबसे ज्यादा पुरस्कार भी इसी विधा की कृतियों को मिला है।यहां हमें इस तथ्य को स्वीकारना पड़ेगा कि इस विधा ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साहित्य का एक बड़ा बाजार तैयार किया है।जब किसी कृति पर कोई राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर का सम्मान या पुरस्कार मिलता है तो उसकी व्यावसायिक महत्ता और मांग बढ़ जाती है।मेरा मानना है कि इस विधा पर किसी तरह की व्यावसायिकता का नहीं, बल्कि इसने व्यावसायिकता पर असर डाला है।इसका परिणाम हिंदी में यह हुआ कि ऐसे अनेक प्रकाशकों का धंधा चल पड़ा, जो उपन्यास के नाम पर कुछ भी छाप रहे हैं।
हिंदी में इधर एक नया वितंडा शुरू हुआ है और वह है नई वाली हिंदी।दरअसल इसका शोर वही अधिक मचा रहे हैं जिनके पास न कोई भाषाई संस्कार है, न वे इसकी परंपरा से परिचित हैं।भाषा, भाषा होती है।नया-पुराना जैसा कुछ नहीं होता।पात्रों, चरित्रों और स्थिति-परिस्थितियों के अनुसार उपयोग में लाई जानेवाली भाषा में वह खुद को ढाल लेती है।उसे अपने नए या पुरानेपन से कोई मतलब नहीं होता।हाँ, एक बात मैं अवश्य कहना चाहूंगा कि हिंदी का प्रकाशन जगत कुछ बाजारू शक्तियों के दबाव में जरूर आ गया है।वरना वह जिस तरह के साहित्य को अभी तक प्रकाशित करने से परहेज करता था, उसे ही वह अब छापने को विवश-सा है।वैसे यह बात हमें नहीं भूलनी चाहिए कि प्रकाशक एक व्यवसायी है।गड़बड़ वहां होती है जब हम उसे हिंदी सेवी मानने का भ्रम पाल लेते हैं।वह क्या प्रकाशित करता है क्या नहीं, यह उसका विशेषाधिकार है।लेखक को क्या लिखना है, यह उसे तय करना है।
(५) किसी भी खतरे के पीछे कुछ कारण होते हैं।साहित्यिक विविधता पर खतरे की बात करें तो मेरी नजर में यह किसी विधा पर लागू नहीं होता।वह इसलिए कि सभ्यताओं के बदलने और विकास को हमारी अभिव्यक्तियों के माध्यम भी मानव जीवन के बदलते स्वरूप को ग्रहण करते जाते हैं।बिना उपन्यास, कहानी, व्यंग्य, निबंध, कविता, एकांकी, नाटक, प्रहसन, आलोचना, रिपोर्ताज, डायरी लेखन, जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण, रेखाचित्र, साक्षात्कार, पुस्तक समीक्षा विधाओं के साहित्य की परिभाषा मुकम्मल नहीं होती है।
जैविक विविधता के नष्ट या विलुप्त होने के प्राकृतिक कारण होते हैं।जबकि साहित्यिक विधाएं किसी-न-किसी रूप में हमेशा जीवित रहेंगी।मैंने पूर्व में जिन विधाओं के हाशिए पर जाने की बात कही है, उसका कारण कहीं-न-कहीं हमारी बदलती हुई शिक्षा पद्धति है।अपने पाठ्यक्रमों में इनके प्रति बरती जानेवाली उदासीनता है।सही बात तो यह है कि इन विधाओं के रचयिता नहीं रहे।नए लेखकों की अधिक रुचि इनमें नहीं है।इसके कई कारण हैं जैसे भाषा का वह भाव-बोध जोे पहले था, अब नहीं रहा।
दूसरा सबसे बड़ा कारण यह है कि जो लेखकीय पहचान, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा उपन्यास-कहानी से तुरंत मिल जाती है वह निबंध, एकांकी, नाटक, प्रहसन, आलोचना, रिपोर्ताज, डायरी लेखन, जीवनी और रेखाचित्र से नहीं मिल पाती।भाषाई शऊर का यदि असली पैमाना है तो वे यही विधाएं हैं।आज हर अध्यापक और उनके छात्र, लेखक के रूप में केवल कथाकार या कवि ही बनना चाहते हैं।उनकी यह आकांक्षा प्रकाशकीय विकल्पों, थोड़े-से जनसंपर्क और थोड़े-से प्रकाशन संबंधी जुगाड़ से पूरी हो भी जाती है।इन विधाओं के नए-पुराने लेखकों में वे बाजी मार जाते हैं जो या तो दिल्ली जैसे महानगर में रहते हैं, या इलाहाबाद, बनारस, पटना, कलकत्ता जैसे बड़े शहरों में रहते हैं।
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि ये वही शहर हैं जिन्होंने कथा, कहानी, उपन्यास के साथ-साथ हिंदी साहित्य को बड़े आलोचक, निबंधकार, नाटककार भी दिए हैं।इसलिए ख़तरा तो है, लेकिन यह वैसा नहीं है कि हमारी कुछ विधाएं बिलकुल नष्ट हो जाएंगी।
WZ –७४५G दादा देव रोड, नज़दीक बाटा चौक, पालम, नई दिल्ली-११००४५ मो.९९७१८१७१७३
संजय कुंदन प्रमुख कहानीकार।अद्यतन कहानी संग्रह ‘श्यामलाल का अकेलापन’, उपन्यास ‘तीन ताल’।संप्रति ‘नवभारत टाइम्स’, नई दिल्ली में सहायक संपादक। |
उपन्यास को आज की केंद्रीय विधा कहा जा सकता है
(१) बाज़ार के बढ़ते प्रभाव और सूचना क्रांति के प्रसार ने प्रकाशन जगत और पाठकीयता पर गहरा असर डाला है।इससे सबसे ज़्यादा मुद्रित साहित्य प्रभावित हुआ है।सबसे पहले तो अख़बारों और पत्रिकाओं पर गहरा दबाव पड़ा।हिंदी में देखें तो एक के बाद एक पत्रिकाएं बंद हुईं।सभी अख़बार समूहों ने अपनी पत्रिकाएं बंद कर दीं।याद कीजिए, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादंबिनी और इस तरह की अन्य पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं को जगह मिलती थी।जैसे इनमें निबंध, ललित निबंध, आलोचना, जीवनी, आत्मकथा, रिपोर्ताज, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत, डायरी, भेंटवार्ता, रेखाचित्र आदि खूब छपते थे।अखबारों के रविवारीय परिशिष्ट में भी इन विधाओं को जगह मिलती थी।कई बाल पत्रिकाएं छपती थीं, जिनमें एकांकी जैसी विधा को नियमित रूप से जगह मिलती थी।पर अब ये पत्रिकाएं नहीं रहीं तो ये विधाएं कमज़ोर पड़ गई हैं।
अब इन विधाओं के संकलन आने बंद हो गए हैं।प्रकाशक भी इनमें कम रुचि लेने लगे हैं।जहां तक लघु पत्रिकाओं का प्रश्न है तो अब लघु पत्रिकाएं भी बेहद कम रह गई हैं।जो हैं भी उनके संपादक मुख्यतः कवि और कथाकार हैं, जिनकी अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं।फिर उनपर भी बाज़ार का दबाव है।तो वे ज़्यादातर कविता-कहानी या उपन्यास अंश तक ही सीमित रहते हैं।जो वेब पत्रिकाएं शुरू हुई हैं, वे भी कथा-कहानी से आगे नहीं बढ़ पातीं।सोशल मीडिया ने त्वरित टिप्पणी करने का जो चलन विकसित किया है, उसके चलते भी ठहरकर विस्तार से चिंतन-मनन करके लिखने की प्रवृत्ति को धक्का पहुंचा है।इस वजह से भी विभिन्न विधाओं को नुकसान हुआ है।
आलोचना जैसी विधा इसलिए कमज़ोर पड़ी है।अब किसी कृति या लेखक के बारे में पचास-सौ शब्दों में लिख देने को ही आलोचना समझा जा रहा है।यह वाकई एक विडंबना है कि यथार्थ जितना जटिल और विरूपित हुआ है, अभिव्यक्ति के रूप उतने ही ज्यादा सीमित और सपाट होते गए हैं।पहले कवि-कथाकार ही अन्य विभिन्न विधाओं में लिखते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं रह गया है।
वैसे हाल के वर्षों में अनेक विधाओं की वापसी भी हुई है।जैसे कुछ अच्छे यात्रा वृत्तांत आए हैं, संस्मरण और जीवनियां भी लिखी जा रही हैं।वैचारिक लेखन ख़ासकर इतिहास लिखा जा रहा है।स्त्री और दलित विमर्श केंद्रित लेखन भी हो रहा है।उनका एक पाठकवर्ग तैयार हुआ है और प्रकाशक इनमें रुचि ले रहे हैं।लेकिन यह ट्रेंड कितना आगे बढ़ेगा और कितना मज़बूत होगा, अभी कहा नहीं जा सकता।
(२) बेस्ट सेलर भी बाज़ार की ही अवधारणा है।जैसे अन्य उत्पादों को बेचने का एक ज़रिया है सेल, उसी तरह प्रकाशन जगत में बेस्ट सेलर का तरीका अपनाया जाता है।किसी किताब को बेस्ट सेलर बताकर पाठकों पर एक तरह का मनोवैज्ञानिक दबाव पैदा किया जाता है।अब तो ऑनलाइन विक्रेता हर सप्ताह या दिन के हिसाब से बेस्ट सेलर की सूची जारी करते रहते हैं।पाठक किसी किताब के विषय से ज्यादा किताब की बिक्री से प्रभावित होकर उसे खरीदते हैं।लेखक भी गर्व से बताने लगे हैं कि उनकी किताब इस हफ़्ते भी बेस्टसेलर की दौड़ में है।लेकिन आमतौर पर प्रकाशक संख्या नहीं बताते।हिंदी में तो चंद सौ किताबें बिकने पर ही उसे बेस्ट सेलर घोषित कर दिया जाता है।इस तरह की चर्चा भी सुनने को मिलती है कि कुछ लेखक अपनी ही किताब की कई प्रतियां खरीद कर अपनी किताब को बेस्ट सेलर बनवा देते हैं।
(३) विश्व स्तर पर देखें तो उपन्यास ही सबसे ज्यादा पढ़ा जाता है।इसलिए कि आज के दौर के जटिल यथार्थ को विस्तार के साथ अभिव्यक्त करने की इसमें सबसे ज़्यादा गुंजाइश है और यह हर वर्ग के पाठक को सबसे ज्यादा संतुष्टि देता है।इस दृष्टि से इसे आज की केंद्रीय विधा कहा जा सकता है।इसके ढांचे में समाज के हर वर्ग की आशाएं-आकांक्षाएं और असंख्य प्रसंगों को समेट लिया जाता है।
(४) उपन्यास पर व्यावसायिकता का सबसे ज्यादा असर है।प्रकाशकों ने इसमें अपने लिए सबसे ज्यादा संभावनाएं देखी हैं और इसलिए इसे बढ़ावा देने के लिए तरह-तरह की कवायद की जा रही है।कई प्रकाशक तो बिकाऊ विषय पर लिखने के लिए लेखकों को अग्रिम भुगतान करते हैं।उपन्यास केंद्रित कई पुरस्कार शुरू किए गए हैं।इसके लेखकों को तरह-तरह से उछाला जाता है।लिटरेचर फेस्टिवल में विवाद खड़े किए जाते हैं।ग्लैमर की दुनिया से जुड़े लोगों द्वारा उपन्यासों का प्रमोशन करवाया जाता है।
(५) साहित्यिक विविधता पर खतरे को भाषाई और जैव विविधता पर खतरे की तरह ही देखा जाना चाहिए।असल में भाषाई और जैव विविधता के खत्म होने के पीछे है -केंद्रीयता का हावी होना और परिधि की उपेक्षा।सभ्यता पर एक केंद्रीय मूल्य के हावी होने से एक ही भाषा या कुछ भाषाओं का वर्चस्व कायम हुआ है।इससे परिधि की भाषाएं धीरे-धीरे नष्ट होती गईं।इसी तरह विकास के एक केंद्रीय ढांचे ने जीवों को भी खत्म किया।दरअसल सभ्यता पर पूंजी का मूल्य हावी है।सब कुछ उसी से तय हो रहा है।जो पूंजी के अनुकूल नहीं है, वह विलुप्त हो रहा है।साहित्य लेखन में भी कुछ ही विधाएं पूंजी की सत्ता को अपने अनुकूल लगती हैं, इसलिए बाकी विधाएं कमज़ोर पड़ रही हैं।
ए-७०१, जनसत्ता अपार्टमेंट, सेक्टर-९, वसुंधरा, गाजियाबाद-२०१०१२(उप्र)मो.९९१०२५७९१५
हितेंद्र पटेल सुपरिचित लेखक और इतिहासकार।रवींद्र भारती विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्रोफेसर।अद्यतन पुस्तक ;‘आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ’। |
उपन्यास आधुनिक युग और उत्तर–आधुनिक युग दोनों में साहित्य की केंद्रीय विधा है
(१) अब एक नया समय आ गया है।साहित्य हमारे जीवन में पिछले सवा सौ सालों में कुछ अधिक समय से और अधिक महत्वपूर्ण रहा है।इसके पूर्व कुछ लोग ही इससे जुड़े थे।धीरे धीरे एक साहित्यिक संसार बन गया।वह समय के साथ थोड़ा सिकुड़ा, लेकिन फिर भी बना रहा है।इसके साथ बाजार का संबंध भी बदलता रहा है।प्रकाशक पहले भी महत्वपूर्ण थे, लेकिन खरीद कर पढ़ने वाले पाठकों की संख्या अधिक थी इसलिए किताबें ज्यादा प्रभाव रखती थीं।
अब समाज में कई और माध्यम आ जुड़े हैं और इस पीढ़ी के लिए साहित्य एक माध्यम के रूप में उतना आकर्षक नहीं रहा।स्वाभाविक है कि टी वी और अब सोशल मीडिया के समय में साहित्य की किताबों और पत्रिकाओं का स्थान कम हुआ है।कुछ विधाएं जिसमें अधिक समय और मनोयोग की जरूरत होती है अब के समय के लोगों को कम पसंद आती है।अब देख ही रहे होंगे कि पांच दिनों के टेस्ट मैच देखने में दिलचस्पी कम हुई है।अब तीन घंटे वाली क्रिकेट चाहिए।अब उपन्यास और मोटी मोटी किताबें कम ही लोग पढ़ना चाहते हैं।
देखिए, जब दृश्य माध्यम का ज़ोर बढ़ा तो लोग अक्षर की दुनिया से थोड़ा हटे थे।यह सुविधाजनक लगा था।फिर आया सोशल मीडिया जो दरअसल हमारे संसार को व्यक्ति केंद्रित कर रहा है।व्यक्ति अब संसार का हिस्सा नहीं बनता, अब अपना संसार अपने लिए बना रहा है।अब वह मोहम्मद रफी का गाना सुनकर संतुष्ट नहीं, खुद ही गाने की कोशिश कर रहा है।अब वह खुद ही हीरो हीरोइन जैसा दिखने की कोशिश में सेल्फी पर सेल्फी लिए जा रहा है और एडिट करके वर्चुअल जगत में ठेल रहा है।इनकी संख्या बढ़ रही है।धैर्य कम हुआ है।आत्मकेंद्रिकता बढ़ी है इसलिए ऐसे माध्यम और ऐसी विधाएं, जिसमें धैर्य की अधिक जरूरत होती है, उसके प्रति रवैया बदल गया है।
आप गौर करेंगे कि अब पुस्तकालयों में बहुत कम लोग जाते हैं।कोर्स के बाहर की किताबें कम लोग पढ़ते हैं।लोग मनोरंजन के लिए पढ़ते हुए कम होते जा रहे हैं।इस कारण ही वह हो रहा है जो आपने कहा।
इस संदर्भ में एक बात जोड़ना चाहूंगा।साहित्य मध्यवर्ग पोषित है।जब इस वर्ग को आम जनों से जुड़ने के लिए साहित्य और पत्र पत्रिकाओं की जरूरत थी इसपर मध्य वर्ग का ध्यान ज्यादा रहा।साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया से पूंजीपतियों का भी संपर्क बना।लोक मत को नियंत्रित और निर्देशित करने के लिए इसका उपयोग किया जाता रहा।
जब पूंजीपतियों को लगा कि अब इसमें उतना मुनाफा नहीं और लोक मत को दूसरे माध्यमों से अधिक प्रभावित किया जा सकता है तो उन्होंने अपना ध्यान दूसरी ओर दिया।साहित्य और पत्रकारिता के बाजार जैसे जैसे बदले वैसे वैसे उसके चरित्र में परिवर्तन होते गए।
इस समीकरण के बाहर जो साहित्य सृजन में जुड़े लोग थे वे अपने तरीके से काम करते रहे।वह साहित्य संसार लगातार बाजारवादी ताकतों का विरोध करता रहा।ऐसे साहित्य को लोकप्रियता के चश्मे से देखना ठीक नहीं होगा।
(२) बाजार के दबाव में बेस्ट सेलर को प्रायोजित ढंग से प्रकाशक अपनी अधिक बिक्री के लिए रखने लगे हैं।किताबें जब से प्रोडक्ट के रूप में बिकने लगीं सबसे अधिक महत्वपूर्ण हुआ बिकना।साहित्यिक पुस्तकें उच्च साहित्यिक मूल्यों को संरक्षित करती हैं और इसके पाठक सामान्य पुस्तकों के पाठकों से भिन्न और कम होते हैं ।जब प्रकाशक साहित्यिक पुस्तकों को भी बेचने की चेष्टा में इसे आकर्षक बनाने के लिए टैग लगाता है तो लोगों का ध्यान अधिक जाता है।इसलिए यह टैग आया।सत्तर के दशक में यह स्पष्ट हो गया कि किताबें पहले की तरह नहीं बिक रहीं।इस संकट का मुकाबला करने के लिए अस्सी के दशक की शुरुआत में पश्चिम के प्रकाशकों ने पेपर बैक निकाले जो खूब बिके।उसके बाद बाजार के हिसाब से अधिक प्रचार द्वारा पुस्तकों को बेचा गया।
हिंदी में भी यह प्रवृत्ति इसी रूप में आई।
अब इस बाजार की प्रचारात्मक प्रवृत्ति ने पुस्तक प्रकाशन और वितरण प्रक्रिया को पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में ले लिया है।यह बहुत स्वाभाविक ही है।
कितनी किताबें बिकने पर यह टैग लगेगा यह कोई पूछता नहीं।मैंने सुना है कि २५० प्रतियां अगर किसी किताब की बिक जाए तो प्रकाशक का खर्च निकल आता है।उसके बाद जो बिक जाए। (यह सुनी हुई बात है। ) अब किसी ने अगर ६०० से १००० पुस्तकों का एक संस्करण निकाल दिया तो शायद एक डेढ़ बरस लग जाएंगे उसे खपाने में।लेकिन अगर प्रकाशक को लगे कि २०० से ४०० कॉपी निकाल कर उसे बेचकर द्वितीय संस्करण बना कर हिट किताब ( बेस्ट सेलर) घोषित कर दिया जाए तो बिक्री और बढ़ जाएगी तो वह ऐसा कर देगा।फिर वह बेचेगा हजार कॉपी ही पर तीन संस्करणों में! सब खुश!
इस हिट टैग का बाजार में महत्व है इसलिए बेस्ट सेलर टैग का महत्व है।
पश्चिम में इस मामले में थोड़ी ईमानदारी रहती है।वे एक निश्चित संख्या के बिकने के बाद ही इसकी घोषणा करते हैं और इसको सीरियसली लिया जाता है।अब तो सुनते हैं वहां भी संदिग्ध तरीके से किताबों को बाजार में विक्रय हेतु लाया जा रहा है।
भारत में तो कोई भी प्रकाशक इस टैग को अपने तरीके से इस्तेमाल कर ले जाता है।इसका अब कोई विशेष महत्व नहीं है।
कौन सी किताब अधिक बिक रही है? लोग नई चीजें पढ़ना चाहते हैं जो शक्तिशाली वर्ग की सोच के साथ चलने में सहायक हो सके।पहले किताबें लोग वही खरीदते थे जिन्हें वे पढ़ेंगे।अब अधिकतर किताबें बस खरीद ली जाती हैं, पढ़ी नहीं जातीं।दो सौ से लेकर पांच सौ में हिंदी और अब तो अंग्रेजी की किताबें भी चमकदार गेट अप में मिल जाती हैं।लोग खरीद कर ले जाते हैं, बस।उलट पलट लिया तो किताब और लेखक की किस्मत।जावेद अख्तर ने बताया है कि अब इंटीरियर डिजाइनर ही किताबें खरीद कर अमीरों के घरों में सजा देते हैं।ये किताबें पर्दे और सोफ़ा से मैच करते हैं और घर सुंदर लगता है !
पढ़ी जाने वाली किताबों पर अगर सर्वे करेंगे तो पाएंगे कि पाठक बहुत कम हो गए हैं।
लेकिन हिंदी में युवाओं का एक बड़ा तबका आया है जो अब पढ़ने में रुचि रख रहा है।इस वर्ग पर साहित्य के जगत को पुनर्निर्मित करने का दायित्व होगा।कुछ अच्छे संकेत मिल रहे हैं।ऐसे पाठक पुस्तक मेले में आ रहे हैं और सोशल मीडिया में भी साहित्य चर्चा कर रहे हैं।यह शुभ संकेत है।इससे कितना अंतर पड़ेगा यह देखना अभी बाकी है।
(३) उपन्यास आधुनिक युग की अपनी विधा है, इस युग का महाकाव्य है क्योंकि इसमें युगीन यथार्थ समग्रता में उभर कर आता है।एक अर्थ में यह केंद्रीय विधा है कि इसके द्वारा सबसे अधिक संवाद और संप्रेषण होता है।प्रेमचंद ने एक दिलचस्प बात कही थी कि उपन्यास अमीरों के लिए उपयुक्त है और कहानी सामान्य पाठकों के लिए, क्योंकि सामान्य लोगों के पास इतना खाली वक्त कहां कि मोटे मोटे उपन्यास पढ़ सके!
अब उपन्यास में कुछ भी कहा जाना संभव है और इस विधा को अपने तरीके से इस्तेमाल भी किया जा सकता है।आज के युग में बहुस्तरीय यथार्थ चित्रण की जरूरत है, इसलिए लेखक और पाठक के लिए यह केंद्रीय विधा है।इससे कविता का महत्त्व कम नहीं होता।कविता प्राचीन युग से चली आ रही है और जब तक साहित्य रहेगा यह बनी रहेगी।लेकिन मेरे हिसाब से आधुनिक युग में उपन्यास केंद्रीय विधा है।आगे भी इसका महत्त्व कम होता नहीं दिख रहा।हां, इसके आकार में थोड़ा परिवर्तन हो रहा है।अब ग्रंथाकार उपन्यास कम लिखे जा रहे हैं।
(४) यह स्वाभाविक है।दुनिया के किसी भी समाज में उसके यथार्थ चित्रण के लिए यही विधा लेखकों के लिए उपयुक्त रही है।संवेदनात्मक धरातल पर कविताओं में समाज का मन अधिक अभिव्यक्ति पाता हो, लेकिन समाज की दशा दिशा के चित्रण में उपन्यास में अधिक स्कोप है।एक और बात है।इतिहास सीधे उपन्यास विधा से जुड़ जाता है।अतीत की स्मृति अन्य विधाओं में भी विन्यस्त होती हैं, लेकिन जिस समग्रता में उपन्यासों में यह संभव है वह अन्य विधाओं में नहीं हो पाता।एक उदाहरण देता हूं।रांगेय राघव ने दो पुस्तकें लिखी हैं : मुर्दों का टीला और महायात्रा ( चार खंडों में)।इन पुस्तकों में जितने विस्तार से वे भारत के इतिहास और मानव समाज की अतीत की यात्राओं में जाया गया है क्या वह अन्य किसी विधा में संभव हो पाता? उपन्यास इस युग के मानव मन को अतीत के साथ सीधे सीधे जोड़ते हुए कथा कह सकने में सबसे अधिक संभव है।दुनिया के हर देश में उपन्यास आज भी खूब पढ़ा जा रहा है।इसकी ही धूम है, जैसा आपने कहा।और यह अच्छा है।
व्यवसायिकता आकाश से नहीं टपकती।समाज में ही इसका महत्त्व बनता है।लेकिन साहित्य में व्यवसायिकता का अधिक दबाव नहीं होना चाहिए।
(५) मुख्य बात है, विभिन्न विधाओं में क्या कहा जा रहा है और उसमें कलात्मकता का स्तर क्या है।विधाएं समय पर निर्भर होती हैं।संभव है किसी युग में कोई एक विधा ज्यादा महत्व पाए।नाटक एक समय ज्यादा महत्वपूर्ण रहा है और जो स्थान आज उपन्यास को प्राप्त है वह उसे प्राप्त था।एक समय कविता को अधिक महत्व मिला।परफॉर्मेंस की जरूरत एक समय अधिक हो, कल्पना और यथार्थ चित्रण का महत्व दूसरे समय में अधिक महत्वपूर्ण हो सकता है।आज जो समय है उसमें इमेज का महत्व अल्फाबेट से अधिक हुआ है।स्वाभाविक है सामान्य जन के लिए आज टी वी का महत्व अखबार से अधिक है।अब एक दूसरा समय आया है जब सोशल मीडिया ने इमेज, संप्रेषण और निजता के बीच एक बेहतर न सही, ज्यादा मनोग्राही संतुलन बना लिया है और लोग टी वी से अधिक इसकी ओर मुड़ गए हैं।
यह संतोष की बात है कि साहित्य की एक विधा उपन्यास ने अपने को अभी भी महत्वपूर्ण बनाए रखने में सफलता पाई है।उत्पादन के खर्च के दबाव का मुकाबला भी यह करने में सफल रही है।अब डिजिटल और ऑडियो में भी उपन्यास पढ़े जा रहे हैं।
सभी विधाएं अपने अपने तरीके से बनी हैं।सभी विधाएं फलें फूलें यह काम्य है।लेकिन इसके लिए समय की मांग को भी जरूर ध्यान में रखा जाना चाहिए।
प्रथम तल, आयशिकी अपार्टमेंट, बोरोपोल के निकट, बैरकपुर, ३६/७१ ओल्ड कोलकाता रोड, कोलकाता-७००१२३ मो.९८३६४५००३३
विजय शर्मा प्रमुख समीक्षक और अनुवादक।आलोचना पुस्तक :‘क्षितिज के उस पार से’। |
बेस्टसेलर कालजयी रचना हो, कोई जरूरी नहीं
(१) इसमें शक नहीं कि १९वीं तथा २०वी शताब्दी में कई नई विधाओं का विकास हुआ है।कहानी, उपन्यास, कविता के अलावा निबंध, आलोचना, समीक्षा, आत्मकथा, जीवनी, यात्रा वृत्तांत, डायरी, संस्मरण, ़फंतासी, विज्ञानकथा आदि कई विधाएँ उभरी हैं।इन्हें कथेतर के खाते में डाल दिया गया है जबकि इनमें से प्रत्येक अपने आपमें एक स्वतंत्र और पूर्ण विधा है।मगर ये कभी केंद्रीय विधाएँ नहीं रही हैं।केंद्र में तो कहानी-कविता ही रही है।इसमें शक नहीं है कि आलोचना, समीक्षा, यात्रा वृत्तांत, जीवनी, संस्मरण बराबर लिखे और पढ़े जाते रहे हैं।हिंदी में सिनेमा लेखन को हाल में गंभीरता से लिया जाने लगा है और सिनेमा से जुड़ी इधर कुछ किताबें प्रकाशित हुई हैं।अनुवाद की कई महत्वपूर्ण किताबें आई हैं।अच्छी बात यह हुई है कि अब कथेतर साहित्य का नोटिस लिया जाने लगा है, इन पर बात होने लगी है।
अभी हाल में असगर वजाहत (‘चलते तो अच्छा था’, ‘पाकिस्तान का मतलब क्या’, ‘रास्ते की तलाश में’ तथा ‘दो कदम पीछे भी’), अनिल यादव (‘ये भी कोई देश है महाराज’, ‘कीड़ाजड़ी’), पुरुषोत्तम अग्रवाल (‘हिंदी सराय: अस्त्राखान वाया येरेवान’), अमृत लाल वेगड़ (तीरे तीरे नर्मदा), मंगलेश डबराल (एक बार आयोवा) कुछ यात्रा वृत्तांत से मेरा गुजरना हुआ और इसमें शक नहीं कि इन किताबों को खूब पढ़ा गया।इसी तरह जीवनी की बात लें, तो ज्योतिष जोशी ने ‘अनासक्त आस्तिक’ (जैनेंद्र कुमार की जीवनी), सत्यदेव त्रिपाठी ने ‘अवसाद का आनंद’ (जयशंकर प्रसाद की जीवनी), विष्णु नागर ‘असहमति में उठा एक हाथ’ (रघुवीर सहाय की जीवनी) हाल में प्रकाशित हुई हैं और हाथों-हाथ ली गई हैं।विजय शर्मा की ‘वॉल्ट डिज्नी: एनीमेशन का बादशाह’ इसी विधा की एक कड़ी है।
आत्मकथा भी हिंदी में आई हैं, जिनमें ‘गालिब छुटी शराब’ (रवींद्र कालिया), ‘मुड़ मुड़ कर देखता हूँ’ (राजेंद्र यादव), ‘वह जो यथार्थ था’ (अखिलेश), ‘आज के अतीत’ (भीष्म साहनी), ‘पाव भर जीरे में ब्रह्मभोज’ (अशोक बाजपेयी), ‘मैंने माडु नहीं देखा’ (स्वदेश दीपक)कुछ नाम याद आ रहे हैं।कन्हैया लाल नंदन ने तीन भाग (‘गुजरा कहाँ कहाँ से’, ‘कहना जरूरी था’ तथा ‘मैं था और मेरा आकाश’) में अपनी आत्मकथा लिखी है। ‘सागर के इस पार से उस पार तक’ कहानीकार कृष्ण बिहारी तथा ‘जमाने में हम’ निर्मला जैन की आत्मकथा है।
इस दौरान हिंदी में सिने-लेखन में कई महत्वपूर्ण किताबें आई हैं, जिनमें सिने-इतिहास और समीक्षा दोनों प्रमुख हैं।
हिंदी आलोचना के क्षेत्र में निर्मला जैन, रोहिणी अग्रवाल, गरिमा श्रीवास्तव, रश्मि रावत, सुनीता कुछ उल्लेखनीय नाम हैं।अभी वागर्थ ने ही एक परिचर्चा प्रकाशित की है, ‘वह भारत जो हमारा सपना है’, जिसमें आलोचक आलोक श्रीवास्तव, ‘आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ’ हितेंद्र पटेल, अच्युतानंद मिश्र की आलोचनात्मक पुस्तक ‘कोलाहल में कविता की आवाज’, शुभनीत कौशिक की पुस्तक ‘इतिहास, भाषा और राष्ट्र’ आदि पर विस्तार से विचार रखे गए हैं।
इस बीच हमारे यहां अस्मिता-विमर्श, स्त्री और दलित-विमर्श, मीडिया विमर्श, सिने विमर्श आदि तमाम विमर्श आए हैं।इतिहास, राजनीति और समाजशास्त्रीय संदर्भों से जुड़ कर रचानएं हो रही हैं, यह सब शुभ है।हां, इन पर और अधिक बातचीत होनी चाहिए।
(२) हिंदी में जब बेस्ट सेलर कहते हैं और जब इंग्लिश के बेस्ट सेलर की बात होती है तो जमीन-आसमान का फर्क है।भारत में हर संस्करण कुछ सौ प्रतियों का होता है।वैसे इस विषय की मुझे गहन जानकारी नहीं है अत: अधिक कुछ नहीं बता सकूंगी।मुझे लगता है बेस्ट सेलर कालजयी रचना हो ऐसा जरूरी नहीं है।
(३) मुझे लगता है, कहानी सदा से केंद्रीय विधा रही है।कहानी का बड़े परिप्रेक्ष्य में विस्तार उपन्यास का रूप धारण करता है।आज खूब उपन्यास लिखे जा रहे हैं, पर हम सबको उपन्यास की कसौटी पर खरा नहीं पाते हैं, कई बार अलंबी कहानी को भी उपन्यास के नाम से किताब के रूप में प्रकाशित कर दिया जाता है।ऐसी मिथ्या धारणा भी है कि जब तक कोई उपन्यास न लिख ले वह साहित्यकार नहीं माना जाता है।उपन्यास का महत्व है, क्योंकि वह बृहतर दुनिया को साधता है।मगर यह सोचना कि जो उपन्यासकार नहीं वह रचनाकार नहीं है, यह मेरी दृष्टि से उचित नहीं है।एलिस मुनरो ने सदा कहानियाँ ही लिखीं और नोबेल के मंच तक पहुँची।एनी अर्नो भी संस्मरण ही लिखती हैं, उनकी कोई रचना १०० पन्नों तक शायद ही पहुँचती है, मगर उन्हें भी नोबेल मिला।
(४) अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन जगत में उपन्यास के अलावा भी बहुत कुछ प्रकाशित होता है।यह आप पर निर्भर करता है कि आप क्या पढ़ना चाहते हैं।
(५) मुझे नहीं लगता है कि साहित्यिक विविधता पर कोई खतरा है।लेखक स्वतंत्र है, वह जो चाहे सो लिखे, जिस विधा को चाहे साधे।हर रचनाकार अपनी विधा चुनता है या यूँ कहें विधा अपना रचनाकार चुनती है।अत: भाषाई और जैव विविधता पर खतरे की कोई बात नहीं है।सब विधाओं का स्वागत होना चाहिए।विधा चाहे कोई अपनाई जाए उसे चिंतनपरक-विवेकपरक होना चाहिए, उसमें मानवीय संवेदना होनी चाहिए।उसे ईमानदारी से, जिम्मेदारी के तहत लिखा जाना चाहिए।साहित्य में मानवीय संवेदना सर्वोपरि होनी चाहिए।ऐसा मुझे लगता है।
९-१०, ३२६ सीताराम डेरा, एग्रिको, जमशेदपुर ८३१००९ मो.८७८९००१९१९
प्रियदर्शन वरिष्ठ लेखक और पत्रकार।प्रमुख कृतियां : ‘जिंदगी लाइव’, ‘बारिश, ‘धुआं और दोस्त’, ‘समाज, संस्कृति और संकट’। |
हम बहुत सारे इकहरेपन से घिरे हैं
(१) दरअसल बीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक ज्ञान और संप्रेषण की लिखित परंपरा को कोई चुनौती नहीं थी।जो भी आ रहा था शब्दों की मा़र्फत आ रहा था।उसके पहले की वाचिक परंपरा से उसका मुकाबला लगभग खत्म हो चुका था।नृत्य, संगीत और रंगमंच जैसे प्रस्तुतिपरक माध्यमों के विस्तार की अपनी सीमा थी।इसलिए शब्द ही ज्ञान और संवेदना के इकलौते वाहक थे।किताबों और पत्र-पत्रिकाओं में इसी वजह से नए माध्यमों की, नई विधाओं की तलाश हो रही थी।कविता नई तरह से लिखी जा रही थी, कहानी में यथार्थवादी शिल्प को पहचाना और गढ़ा जा रहा था, नाटक, ललित निबंध, यात्रा वृत्तांत, सब कुछ पर काम हो रहा था।हिंदी के संदर्भ में तो कहा जा सकता है कि एक पूरी भाषा का निर्माण चल रहा था।जो भी हो रहा था, वह साहित्य के माध्यम से हो रहा था।
लेकिन इस स्थिति को नए माध्यमों ने तोड़ा।सिनेमा आया तो अपने साथ अनुभव और अभिव्यक्ति के नए आयाम लेकर आया।शब्द जिन दृश्यों को रचने की कोशिश करते थे, उन्हें सिनेमा सीधे लोगों तक पहुंचा रहा था।बीसवीं सदी के आखिरी २ दशकों में भारतीय घरों में टीवी के विस्तार ने साहित्य और पत्र-पत्रिकाओं के एकाधिकार को कुछ और तोड़ दिया।अब पिछले दो दशकों में इंटरनेट और सोशल मीडिया ने शब्द, दृश्य और माध्यमों का ऐसा घालमेल किया है कि अनुभव और अभिव्यक्ति- दोनों में बदलाव आ रहा है।हालांकि साहित्यिक विधाओं के हाशिए पर जाने की शुरुआत इसके पहले की है।गंभीर साहित्य के पाठक पहले भी कम रहे।उन्हें बाजार तक ठीक से पहुंचाने वाले प्रकाशक भी कम रहे।मगर इसके बावजूद किताबें बहुत बड़ी संख्या में छप रही हैं- नए-नए प्रकाशक सामने आ रहे हैं।जाहिर है, हिंदी समाज की विराट संख्या के बीच यह एहसास सबको है कि हिंदी किताबों के प्रसार की संभावना अब भी बची हुई है।इसके अलावा मुझे लगता है कि सोशल मीडिया के दबाव से नई विधाएं भी पैदा हुई हैं।पत्र लेखन अगर खत्म हुआ है तो अनुभव-लेखन बढ़ा है।सोशल मीडिया पर की जाने वाली दैनिक टीप भी उसी तरह पुस्तकों की शक्ल ले रही है जैसे कभी डायरियां लेती थीं।
(२) यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि अचानक हिंदी का बौद्धिक साहित्यिक समाज बेस्ट सेलर की अवधारणा से इतना आक्रांत क्यों हो गया है।शायद इसकी एक वजह हमारे समय में बाज़ार की बढ़ती अपरिहार्यता है।जैसे हमारे सामने बस एक यही कसौटी बची हुई है कि कौन-सी किताब कितनी बिक रही है।पुराने हिंदी लेखकों में यह अभिमान था कि वह बहुत बिकने वाले लुगदी साहित्य को महत्व न दें – प्रकाशकों में भी यह समझ थी कि कौन-सा साहित्य श्रेष्ठ है और कौन सा बाजार की मांग पूरी करने वाला लेखन है।लेकिन हाल के दिनों में कई प्रकाशक बिलकुल लुगदी साहित्य छाप रहे हैं और उन्हें अपने शास्त्रीय लेखकों के मुकाबले खड़ा कर रहे हैं।अफसोस की बात यह है कि बेस्ट सेलर की अवधारणा से संचालित होते हुए भी वह ४० करोड़ के हिंदी भाषी समाज में एक लाख किताबें भी नहीं बेच पा रहे हैं।जिस समाज में दैनिक अखबार रोज करोड़ों में बिक जाते हैं, वहां हिंदी के बेस्ट सेलर पांच हज़ार और दस हज़ार पर ठहर जा रहे हैं।बेशक इसकी वजह साहित्य से ज्यादा समाज में है।बुकर पाने के बाद भी गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ की एक लाख प्रतियां नहीं बिक सकीं।
लेकिन एक और बात समझने की है।शास्त्रीय और लुगदी साहित्य के बीच भी बहुत सारा ऐसा साहित्य होता है जो लोकप्रिय भी होता है और स्तरीय भी।बल्कि कई लोग इस साहित्य की उंगली पकड़कर शास्त्रीय साहित्य तक पहुंचते हैं। ‘गुनाहों का देवता’ महान उपन्यास नहीं है, लेकिन वह ऐसा स्तरीय उपन्यास है जिसमें लोकप्रियता के गुण पर्याप्त हैं- यही वजह है कि वह बिका भी खूब है।तो जो बिक रहा है उसको हमेशा हेय दृष्टि से देखना उचित नहीं है।
अगर हम बेस्ट सेलर की अवधारणा से आक्रांत न हों तब हमें बाज़ार और उसकी जरूरतों के मुताबिक लिखे जाने वाले साहित्य के प्रति ज्यादा तटस्थ होकर सोचने का अवसर मिल सकता है।बल्कि मुझे लगता है कि इन दिनों साहित्यिक विधाओं की विविधता बढ़ी है।पहले हिंदी में कविता, कहानी, नाटक और आलोचना के अलावा कुछ नहीं मिलता था- कुछ यात्रा वृत्तांत और कुछ ललित निबंध गाहे-बगाहे दिख जाते थे।लेकिन अब हिंदी में वैचारिक लेखन काफी बढ़ा है।अचानक इसके लिए कथेतर गद्य जैसा एक नाम भी चल पड़ा है।इस गद्य में बड़े पैमाने पर यात्रा वृत्तांत हैं, स्त्री विषयक वैचारिक लेखन है, इतिहास, राजनीति और समाज से जुड़े दूसरे प्रश्नों पर किताबें हैं, दलितों की आत्मकथाएं हैं और काफी कुछ है जो पहले से अलग है।यह अलग बात है कि इस लेखन की गुणवत्ता को हम किस तरह परखें।यह सच है कि इसमें बहुत सारा लेखन बिलकुल सपाट है, उसमें जीवन के गहरे अनुभवों की अनुगूंज नहीं मिलती।लेकिन यह शायद लेखन से ज़्यादा हमारे समय और समाज का संकट है।हम एक ऐसे भागते-दौड़ते और हांफते समय में रह रहे हैं जिसमें कोई भी अनुभव भाप बनकर उड़ जा रहा है, उसे जज़्ब करने का, व्यक्त करने का समय ही नहीं बचा है।लेखन को इस अधैर्य से बचाने की ज़रूरत है।
(३) यह एक जाना-पहचाना तथ्य है कि उपन्यास ज़्यादा बिकते हैं।लेकिन इस एक वजह से उपन्यास को केंद्रीय विधा मान लेना उचित नहीं है।यह सच है कि आधुनिक साहित्य की पूरी परंपरा में उपन्यास और कविता में लगभग प्रतिद्वंद्विता सी चलती रही है।टॉलस्टॉय जितने महत्वपूर्ण रहे हैं, टी एस इलियट उससे कम महत्वपूर्ण नहीं रहे।चार्ल्स डिकेंस, हावर्ड फास्ट और मैक्सिम गोर्की का जो प्रभाव रहा, उससे कम प्रभाव बर्तोल्त ब्रेख़्त, पाब्लो नेरुदा या नाजिम हिकमत का नहीं रहा।हिंदी में भी प्रेमचंद और रेणु से कम पाठक निराला और नागार्जुन को नहीं मिले।यह बहस भी चलती रही कि अज्ञेय कवि बड़े हैं या उपन्यासकार।दरअसल आधुनिक समय की विडंबनाओं को अगर एक तरफ़ उपन्यास ने पकड़ा है तो दूसरी तरफ कविता ने भी।बल्कि अरसे तक हिंदी में कविता ही केंद्रीय विधा रही।यह शिकायत जानी पहचानी है कि हिंदी में उपन्यास की आलोचना के औजार ही विकसित नहीं हुए, उसे भी कविता की आलोचना वाली कसौटी पर ही कसा जाता रहा।आज भी प्रकाशन-संख्या के लिहाज से कविता संग्रहों और उपन्यासों में टक्कर है।पिछले दो-एक वर्षों में जितने महत्वपूर्ण कविता संग्रह आए हैं, उतने ही महत्वपूर्ण उपन्यास भी।
मगर शायद अंतिम बात की तरह यह मानना होगा कि हमारे समय का जो जटिल और बहुपरतीय यथार्थ है, वह कहानियों और उपन्यासों में ज़्यादा व्यक्त हुआ है।वैसे भी माना जाता है कि आधुनिक समय गद्य का है कविता का नहीं।
(४) बिक्री के लिहाज से उपन्यासों की धूम हमेशा रही।मार्केज़, पामुक, मिलन कुंदेरा या मुराकामी हमेशा से खूब बिकते रहे हैं।इनके मुकाबले कविता प्रतिष्ठा भले हासिल करती रही हो, उसे पाठक कम मिले हैं।फिर अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन जगत में अच्छे व्यावसायिक उपन्यासों की धूम हमेशा रही।आर्थर कानन डायल और अगाथा क्रिस्टी अपनी शोहरत में किसी भी शास्त्रीय लेखक को पीछे छोड़ते हैं।वहां बाकायदा ऐसे लेखकों की परंपरा है जो बहुत भारी भरकम या शास्त्रीय होने की परवाह किए बिना दिलचस्प और पठनीय लेखन करते रहे हैं।
(५) असल में आपकी बात को मैं उलट कर कहना चाहूंगा।खतरा जैव विविधता पर है, सांस्कृतिक विविधता पर है और इसलिए भाषाई विविधता पर है।दुनिया भर के भाषा विशेषज्ञ पा रहे हैं कि तमाम भाषाएं अपना संरचनागत वैशिष्ट्य खोकर एक जैसी हुई जा रही हैं।बाजार विविधता की बात करता है मगर उसे एकरूपता रास आती है।हम बहुत सारे इकहरेपन से घिरे हैं।इससे निस्संदेह हमारा साहित्य भी प्रभावित हो रहा है।लेकिन मैं इसे ख़तरे से ज़्यादा साहित्य के लिए चुनौती मानता हूं।जब तमाम तरह की विविधताएं असुरक्षित हैं तब साहित्य की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि वह अपने समय की सारी आवाजों को, सारी फुसफुसाहटों को, समाज के सारे रंगों को, तमाम तरह की बोलियों को, प्रेम और क्रोध की सारी रंगतों को बचाए।
ई–४, जनसत्ता सोसाइटी, सेक्टर ९, वसुंधरा, गाजियाबाद–२०१०१२ मो.९८११९०१३९८
मृत्युंजय श्रीवास्तव प्रबुद्ध लेखक, रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी। |
हिंदी में ‘बेस्टसेलर’ का कोई मानदंड नहीं है
विविधता समृद्धि है, यह सोच अब संकट में है।यह संकट भाषा के स्तर पर है और जीवन के स्तर पर भी।कई छोटी भाषाएं एक-एक करके मर रही हैं और जीवों की संख्या भी कम हो रही है।साहित्यिक अभिव्यक्ति की कई विधाएं और शैलियां खो रही हैं।कोशिश जारी है कि सोच की विविधता भी न बचे।धर्म की विविधता न बचे।संस्कृतियों की विविधता न बचे।सभ्यताओं की विविधता न बचे।विविधता को मारने के लिए युद्ध चल रहे हैं।इस युद्ध से दुनिया बौद्धिक दरिद्रता और दुर्दिन दोनों की ओर तेजी से बढ़ रही है।
हिंदी साहित्य बौद्धिक दरिद्रता और दुर्दिन दोनों का मारा है।यह बात केवल विधाओं के वध तक सीमित नहीं है।कई विधाएं जीवित हैं, मगर नए शिखर की ओर की उनकी यात्रा स्थगित है।पिछले दिनों जीवनियां लिखी-छपी हैं, मगर कोई ऐसी जीवनी नहीं आई, जो ‘निराला की साहित्य-साधना’ या ‘आवारा मसीहा’ के सामने बड़ी लाइन खींच सके।एक समय संस्मरण खूब लिखे गए थे।अरसा पहले काशीनाथ सिंह ने इसे जो नई ऊंचाई दी, वह अनछुई है।गजलें लिखी जा रही हैं, मगर दुष्यंत कुमार या अदम गोंडवी के आसपास भी नहीं फटकतीं।कविताएं – मात्रा के हिसाब से गंगा में बाढ़ जैसी हैं।साहित्य अब साधना नहीं, शार्टकट है।
हिंदी साहित्य की कई विधाएं अब नहीं हैं।डायरी एक ऐसी ही विधा है।यह विधा राधाचरण गोस्वामी से मलयज तक जीवित रही है।एक जमाने में जेल ने भी डायरी लिखने का अवसर दिया था।अभी-अभी कस्तूर बा की जेल-डायरी प्रकाश में आई है।अब सोशल मीडिया ही तुरंता डायरी है।लेखक की डायरी से लेखक की लेखन-प्रक्रिया की परतें खुलती थीं।तुरंता डायरी यह जानने का अवसर नहीं देती, यहां गोपनीयता नहीं होती।डायरी की विशिष्टता उसकी व्यक्तिगतता में निहित है।सोशल मीडिया ने डायरी लिखने की इच्छा और जरूरत की हत्या की है।
यात्रा वृत्तांत भी अब कौन लिखता है! भारतेंदु के समय का तत्कालीन हिंदी में छपा एक यात्रा-वृत्तांत अभी-अभी आलोक में आया है, जिसे लंदन यात्रा के दौरान श्रीमती हरदेवी ने १८८७ में लिखा था। (गरिमा श्रीवास्तव की भूमिका के साथ यह पुस्तक इसी वर्ष छपी है)।यात्रा वृत्तांत भी २१वीं सदी तक आते-आते विलुप्त होने की दिशा में है।टूरिज्म उद्योग का विस्तार हुआ है, यात्राएं बढ़ी हैं।अब अधिकांश यात्राएं ‘फन टूर’ या ‘बिजनेस टूर’ हैं, इसलिए वृत्तांत बताने का कोई मामला ही नहीं होता।पहले की यात्राएं जानने और जनाने के लिए होती थीं।अब निजी अनुभव को सामाजिक अनुभव में बदलने की इच्छा का अभाव और फटाफट यात्रा-वृत्तांत लिखने में शिथिलता के कारण हैं।
रेडियो नाटक और एकांकी भी दम तोड़ चुकी हैं।२१वीं सदी में रेडियो को पुनर्जीवन मिला है, विस्तार हुआ है।इसे देखते हुए रेडियो नाटक और एकांकी लेखन में उछाल आ जाना चाहिए था, मगर स्थिति उलटी है।एक जमाने में ‘हवा महल’ के दीवाने हिंदी में ही नहीं, हिंदीतर लोगों में भी थे।स्पष्ट है कि माध्यम का विस्तार होने से विधा का फलक नहीं बढ़ता।हिंदी में पूर्ण नाटक लिखने का क्रम लगभग स्थगित है।हिंदी नाटक का लेखन और मंचन दोनों ठंडा है।नुक्कड़ नाटकों का दौर दफन हो गया है।ऐसा इसलिए कि हिंदी समाज में सुधार और परिवर्तन की कोई लहर नहीं है।भारत गीतों में रमने-झूमने वाला देश है, मगर गीत-नवगीत माटी से नाता तोड़ कर हाशिए में भी नहीं बचे हैं।सॉनेट को त्रिलोचन के बाद कोई प्रतिभा नहीं मिली।प्रतिभाओं का अभाव भी विधाओं के अवसान का एक कारण है।
रिपोर्ताज ऐसी ही एक विधा है।२०वीं सदी के चौथे दशक में पैदा हुई यह विधा अपना उत्कर्ष नहीं देख सकी।इस विधा में शिवदान सिंह चौहान से लेकर अज्ञेय तक ने अपना योगदान दिया है।रेणु के रिपोर्ताज आज भी नहीं भुलाए जा सके हैं।पचास साल पहले धर्मवीर भारती ने पाकिस्तान-बांग्ला देश युद्ध पर रिपोर्ताज लिखा था, वह पुस्तक रूप में भी आया।संभवत: वह सार्थक रिपोर्ताज की आखिरी पुस्तक हो।रेखाचित्र की पैदाइश भी २०वीं सदी की है, मगर यह विधा भी जल्दी ही समय के सागर में समा गई।महादेवी वर्मा और शिवपूजन सहाय के रेखाचित्र हिंदी की धरोहर हैं।
इसी सदी में ललित निबंध ने भी अपनी पहचान बनाई।विवेकी राय और कुबेरनाथ राय के बाद ललित निबंध की पहचान बनाए रखने वाला कहां है कोई! अभी स्मृति से मुक्ति का दौर है।हिंदी साहित्य से बाल साहित्य वाला हिस्सा ठन-ठन गोपाल है।बाल पत्रिका की यात्रा लहरियासराय से छपती ‘बालक’ से लेकर जयपुर से छपती ‘बालहंस’ तक थी।हिंदी के पास बाल-बच्चों के लिए लिखने वाला कौन है? हिंदी सिनेमा का व्यवसाय दिन दूने – रात चौगुने बढ़ा है।कॉलेजों में सिनेमा की पढ़ाई शुरू हो गई है।मगर सिनेमा-विवेचन कितना हो रहा है?
हिंदी साहित्य की कोई विधा जब मरती है या हिंदी लेखन के किसी क्षेत्र में सूखा पड़ता है , हिंदी भी उसी अनुपात में मरती है।२१वीं सदी में हिंदी तिल-तिल कर मर रही है।संभव है कि आने वाले समय में हिंदी समाज के एक हिस्से में यह भाषा सिर्फ बोलने और सुनने तक सिमट कर रह जाए।जिस समाज की पुरानी रचनात्मक धाराएं सूखने लगती हैं, उस समाज की भाषा में रचनात्मकता का नया झरना नहीं फूटता है।
व्यंग्य अपनी धार खो चुका है।व्यंग्य का भोथरा होते जाना केवल भाषा की जीवंतता खोना नहीं है, समाज का मुर्दा हो जाना भी है।हरिशंकर परसाई की जन्म शतवार्षिकी के साल में व्यंग्य विधा को इस हाल में पाना, किसी हादसे से कम नहीं है।
कहानी और उपन्यास की फसल लहलहा रही है।एक अनुमान है कि हर महीने डेढ़-दो सौ कहानियां छपती हैं विभिन्न पत्रिकाओं में।अनुमान यह भी है कि कहानियां पढ़ी जाती हैं।किसी को सही-सही यह नहीं पता कि कहानियां खूब पढ़ी जाती हैं या कम।मगर यह सच है कि कई पीढ़ियों के कहानीकार कहानी लिख रहे हैं इस समय।जितने लेखक कहानी लिख रहे हैं, उतने लेखक उपन्यास नहीं लिख रहे हैं।फिर भी लिखने और छपने की मात्रा के हिसाब से उपन्यास केंद्रीय विधा है।बिकने और पढ़ने के मामले में क्या स्थिति है, इसका कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।एक धारणा है कि दूसरी विधाओं की तुलना में उपन्यास अधिक बिकते हैं।लेकिन यह भी सच है कि किसी भी हिंदीभाषी राज्य में किसी भी उपन्यास की पांच सौ प्रतियां नहीं बिकती हैं।केंद्रीय विधा होने का मानदंड क्या है?
गीतांजलि श्री और विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों के माध्यम से हिंदी उपन्यास की अंतरराष्ट्रीय पहचान शुरू हुई है।लेकिन हिंदी के कालजयी उपन्यासों की सूची छोटी ही है।इसकी एक वजह यह है कि हिंदी में ‘प्रोजेक्ट उपन्यास’ लिखने का चलन काफी समय से चला हुआ है। ‘प्रोजेक्ट उपन्यास’ तात्कालिक स्तर पर चर्चा में आ जाते हैं, किंतु कालजयी कृति की सूची में आने से पहले ही खो भी जाते हैं। ‘प्रोजेक्ट उपन्यास’ राजनीतिक औजार होते हैं।ऐसे उपन्यास पाठकों को पढ़ने से रोकते हैं।इन वजहों से इधर हिंदी का पाठक-संसार भी सिकुड़ा है।
राजनीतिक औजार बनाने वाले उपन्यासों के साथ-साथ बाजारवादी उपन्यास भी हैं, जो सनसनी पैदा करते हैं।सनसनी पैदा करने के लिए तथ्यों को तोड़मरोड़ कर, कल्पना का बल लेकर तात्कालिक शोहरत के लिए उपन्यास लिखे जाते हैं।ये बाजार के दोहन का शिकार होते हैं, व्यक्तित्व का भी शिकार होता है।यह व्यक्तित्व गांधी हो सकते हैं और अंबेडकर भी।यह उपन्यास के साथ-साथ ‘नॉन-फिक्शन’ में भी किया जा रहा है।एक दूसरी प्रवृत्ति भी दिख रही है।वह है – राजनीतिक औजार बने उपन्यासों में कल्पना का सहारा लेकर कृत्रिम घटनाओं को इतिहास का तथ्य बनाकर उपन्यास लिखने की कोशिश।यह इतिहास और उपन्यास दोनों को क्षति पहुंचाती है।
हिंदी उपन्यास का यह राजनीतिक और बाजारू इस्तेमाल खुद उसकी जीवन-लीला छोटी कर देता है।हिंदी उपन्यास ऐसे दुश्चक्र में फंसा हुआ है।
भरोसे की बात यह है कि हिंदी में ऐसे कई उपन्यास लेखक हैं जिन्होंने हिंदी उपन्यास को ‘स्वतंत्र’ बनाए रखा है।ताजा उपन्यासों को देखते हुए उदाहरण स्वरूप दो नए उपन्यासकारों के नाम लिए जा सकते हैं- ‘दातापीर’ के लेखक हृषिकेश सुलभ और ‘आउशवित्ज़ एक प्रेम कथा’ की लेखिका गरिमा श्रीवास्तव।वरिष्ठ लेखिका अनामिका इस श्रेणी में पहले से ही हैं।इनका ताजा उपन्यास है- ‘तृन धरि ओट’।इनके उपन्यास नए पाठक बनाने का काम करते हैं।बिकते हैं, मगर इतने नहीं बिकते कि पढ़े लिखे हिंदीभाषियों की संख्या के अनुपात में स्वस्थ प्रतिशत निकाला जा सके।ऐसी स्थिति मे बेस्ट सेलर की अवधारणा पिचका हुआ कटोरा है।
प्रकाशक कहता है कि किताबें बिकती नहीं हैं।लेखक कहता है कि पाठक नहीं हैं।दोनों की बातों की संगति यह कहती है कि हिंदी में बेस्ट सेलर जैसी कोई स्थिति नहीं है।प्रकाशक के लिए बेस्ट सेलिंग किताब वह होती होगी जिसकी सौ प्रतियां लेखक खरीद ले या लेखक के प्रभाव से सौ प्रतियां बिक जाएं।यह स्थिति लेखक और प्रकाशक दोनों के हाथों में अपने-अपने हिस्से का लड्डू देती है।संभव है इससे प्रकाशक की लागत का बड़ा अंश निकल आता हो और वह उस पुस्तक को बेस्ट सेलर घोषित करता हो।इस घोषणा मात्र से लेखक का गौरवबोध बढ़ जाता है।वह आभासी दुनिया के आकाश में अपने लेखक-मन को गुब्बारे की तरह लहराता हुआ पाता है।कुल मिला कर, ‘बेस्ट सेलर’ पारदर्शी मामला नहीं है।बेस्ट सेलर का कोई फार्मूला या मानदंड सार्वजनिक नहीं किया गया है।लेखक लिखता है- प्रकाशक छापता है, मगर अधिकांश किताबें लेखक-गोत्र के लोगों के बीच घूमती या सीमित रहती हैं।
हिंदी साहित्य में न आंतरिक विस्तार हो रहा है, न बाह्य स्तर पर फैलाव हो रहा है।रचनात्मकता का गहरा संकट है।रचनात्मकता का संकट तब गहराता है, जब आलोचनात्मक बुद्धि पर पत्थर पड़ जाता है।इस संकट की वजह से हिंदी का दम निकल रहा है।हिंदी अब हवा-हवाई है।नतीजा यह है कि जो हिंदी-हिंदी गा रहे हैं, उन्हें कोई गवैया नहीं मानता।उन्हें बेसुरा समझा जाता है।
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संपर्क प्रस्तुतिकर्ता :हाउस नं. ४१/१/२, बी.एल नं. ०६, पोस्ट – कांकीनाड़ा, जिला – उत्तर २४ परगना, पश्चिम बंगाल–७४३१२६ मो.८४५०००५१४३