अद्यतन कहानी संग्रह ‘मैं, फूलमती और हिजड़े’, अद्यतन उपन्यास ‘बिन ड्योढ़ी का घर’।
गांव में मुर्गा लड़ाई हो रही थी; मगर यहां न तो कोई हाट भरा था और न ही मड़ई।खास बात यह कि लड़ने वाले मुर्गे और इन्हें लड़ाने वाले दोनों एक ही घर से थे, सगे भाई।एक जैसी कदकाठी।फर्क बस आंखों में उतर आए नशे का था।जिसका मुर्गा जीत रहा था, उसकी आंखों में सल्फी का नशा कुछ गहरा हो उठा था।उसकी मिचमिचाती आंखों में जीत की लहक नाच रही थी।यह हिड़मा है, इसका मुर्गा आज तक कभी हारा ही नहीं, सो इसकी आंखों में वही विश्वास लहक मार रहा था; मगर जीत का यह भाव वैसा नहीं, जैसा हाट या मड़ई में होता था।इसमें ममत्व की एक लकीर भी थी।इसीलिए आज इसकी वह लहकार सुनाई नहीं दे रही, जो इसकी खास पहचान थी और दूसरे की कोशिश थी कि कैसे भी करके आज की बाजी उसकी हो जाए, सो वह अपने मुर्गे को बार-बार टिहकार रहा था।उसे उकसा रहा था कि वह उछल कर और गहरा वार करे।यह भीसमा है, हिड़मा का छोटा भाई।हर मुर्गा लड़ाई में उसके साथ रहा; मगर आज..!
मुर्गे दोनों ही गुप्प कोर्र (जंगली मुर्गे), सुंदर, कद्दावर, फुर्तीले और जांबाज।मुर्गों में ये अलग से पहचाने जा सकते थे।एक का नाम कारू और दूसरे का भुर्रा।कारू! नाम के अनुरूप चमकदार काले पंख, लंबी टांगें और ऊंची लाल कलगी वाला देखने में जितना खूबसूरत, दांव मारने में भी उतना ही चतुर।आज की यह बाजी भी इसी के नाम होगी, मगर आज यह आक्रामक नहीं था।भुर्रा! गहरे तांबई रंग का मुर्गा, कदकाठी में कारू से उन्नीस।इस खेल में कुछ नौसिखिया भी।कारू का शिष्य था; मगर आज उसका मुकाबला उसी से था।उसके साथ एक ही झाबे में रहता था।साथ-साथ चारा चुगता; मगर आज वह हैरान था।तभी तो बहुत देर तक वार ही नहीं कर पाया।उसने कभी सोचा भी नहीं था कि उसे यूं कारू से…? मगर क्या करे वह? जब इनसान ही ऐसा करने लगे, तो उसका बस कहां।
उधर कारू भी कम हैरान नहीं था।सुबह सबेरे जब उसे तैयार किया गया, उसके पंजों में ब्लेड बांधा गया, तो उसे लगा कि आज जरूर कोई हाट या मड़ई होगी, मगर जब उसके सामने भुर्रा आया, तो उसे कुछ समझ ही नहीं आया, इसीलिए वह देर तक यूं ही खड़ा रहा, वरना मड़ई में पहला वार तो उसी का होता था, मगर आज? सो वे दोनों देर तक चकित से खड़े रहे, फिर जब भीसमा ने भुर्रा को टिहकारा, तो वह वार करने लगा, मगर कारू वार बचा रहा था।भुर्रा भी इतना हल्का वार करता कि कारू को ज्यादा चोट न आए।हिड़मा भी सहज था, उसने कारू को एक भी टिहकार नहीं दी, मगर भीसमा भुर्रा को बार-बार टिहकार लगा रहा था।यह टिहकार उसे गहरे वार के लिए उकसा रही थी।
दोपहर चढ़ आई थी।अब तक कोई फैसला नहीं हुआ था और भीसमा के लिए आज फैसला बहुत जरूरी था।उसके लिए यह मुर्गे की लड़ाई मात्र नहीं थी। ‘आज तो मुझे अपनी राह बनानी ही है’, सोचा और उसने कुछ देर के लिए लड़ाई रोक दी और भुर्रा को अपने हथेली में जकड़ लिया।फिर उसकी चोंच को हांडी में डुबो दिया।ढलती दोपहर की तीखी दारू और घावों पर होती तेज चनचनाहट और ऊपर से भीसमा की लगातार टिहकार।फिर तो भुर्रा को कुछ भी याद न रहा कि उसके सामने कौन है।भुर्रा अपना आपा खो बैठा।
अब वह उछल-उछल कर वार करने लगा, और कारू? वह तो अभी भी बस दांव ही बचा रहा था।भुर्रा हर बार और जोर से उछलता, और उछलकर अपने पंजों से वार करता।वह वार पर वार किए जा रहा था और हर वार के साथ कारू के पंखों पर लाल निशान उभर रहे थे।हिड़मा हैरान था, मगर भीसमा खुशी से उफन रहा था।उसकी टिहकार और तेज होती जा रही थी।
‘ये भीसमा! देख तो कारू को।’ हिड़मा की बात पूरी हो पाती इससे पहले भुर्रा उछला और कारू की गरदन पर चढ़ गया।फिर खून की एक तेज धार छूटी।कारू फड़फड़ाया और शांत हो गया।
हिड़मा की रुलाई छूट पड़ी; मगर न तो भुर्रा का वार रुका और न ही भीसमा की टिहकार।अब वह और जोर-जोर से टिहकार रहा था और उसकी इसी टिहकार के चलते भुर्रा एक बार और उछला, अबकी उसकी उछाल कुछ और ऊंची थी और देखते ही देखते वह हिड़मा की गर्दन से चिपट गया, मगर भीसमा की टिहकार अभी भी जारी थी।वह लगातार टिहकार रहा था और हिड़मा! अकचकाया-सा उसे देखता रह गया! वह समझ ही नहीं पाया कि… तभी भीसमा ने भुर्रा को धर दबोचा।उसके हाथ भुर्रा की पीठ पर थे और उसका दबाव बढ़ता चला गया।फिर खून का एक और फव्वारा छूटा, जिसने भुर्रा और भीसमा दोनों को रंग दिया।
हिड़मा भी कारू की तरह कुछ देर तड़फकर शांत हो गया, मगर उसकी आंखें खुली रह गई थीं।हिड़मा, भीसमा के उस रूप को देख कर चकित रह गया था और उसका यही आश्चर्य उसकी आंखों में टंक गया था।शायद उसे यकीन नहीं हुआ था कि भीसमा ऐसा भी…! मगर भीसमा अब पहले वाला भीसमा नहीं था।पिछले कुछ दिनों से वह बदल गया था।वह बात-बात पर हिड़मा से उलझता और सल्फी के पेड़ों में अपना हिस्सा मांगता।उसे शादी करनी थी जोगिया से।जोगिया के बाबो ने दुल्हन मोल में सल्फी के पांच पेड़ मांगे थे।हिड़मा भी चाहता था कि उसकी शादी जोगिया से ही हो, मगर दुल्हन का यह मोल कैसे देता वह? उसके यायो बाबो की ये ही तो निशानी बची थी उसके पास।कैसे दे दे उन्हें? वह भीसमा को समझाया करता; मगर वह लड़ता उससे।फिर लड़ झगड़ कर जाने कहां चला जाता।महीनों-महीनों गायब रहता और अचानक लौट आता।पिछली बार जब वह लौटा तो उसके हाथ में भुर्रा था।पूछने पर उसने बताया कि कोर्र हाट (मुर्गा बाजार) से खरीदा है।
‘मय भी मुरगा लड़ाएगा’ -कहते हुए भीसमा ने भाई को देखा।
‘अरे भीसमा! मुरगा लड़ाना था तो कारू तो था न।तू ही लड़ा लेता।एके घर म दू दू ठो मुरगा लड़ेगा रे?’
‘मय हाट में लड़ाएगा।तू मड़ई में लड़ाना।’
‘अइसा त कब्बी नइ हुआ रे।एके गांव से भी दू दू मुरगा, कब्बी नई लड़ा।फेर ये त एके घर से?’ हिड़मा उसे समझाना चाहता था कि बिरादरी में इसका गलत संदेश जाएगा, मगर भीसमा कुछ समझने को तैयार नहीं था।तैयार भी कैसे होता, वह तो कुछ और ही सोच रहा था।बुझे मन से हिड़मा ने उसकी बात मान ली।दोनों मुरगे साथ-साथ रहने लगे और धीरे-धीरे सब सहज लगने लगा था।
अब कारू बड़े हाट और मड़ई जीतता और भुर्रा छोटे हाट।कभी–कभी वे भुर्रा और कारू की भी लड़ाई करवाते; मगर वह लड़ाई वैसी नहीं होती, जैसी मड़ई या हाट में होती थी।बल्कि इस लड़ाई में कारू की भूमिका सिखाने वाली होती, वह भुर्रा को अपने पैंतरे सिखाया करता, इसीलिए उनके पंजों में ब्लेड नहीं बांधा जाता, तभी तो जब भीसमा ने मुर्गा लड़ाने की बात चलाई, तो वह हमेशा की तरह कारू को गोद में उठाकर चल पड़ा;
मगर भीसमा ने उसे टोका- ‘भाऊ अइसे नइ।कारू को तैयार कर।जइसे मड़ई के लिए करता है।’
‘मड़ई के जइसे काहे?’ उसने आश्चर्य से देखा उसे।साथ ही उसकी नजर भुर्रा पर गई, तो उसके पंजों में ब्लेड बंधा था।उसने भीसमा से पूछा- ‘ये बलेड काय कू।’
‘देखेगा के भुर्रा मड़ई के लाइक हुआ के नइ।वो आगे के महीना म तीन चार ठो मड़ई हय न।’ कहते हुए भीसमा आंखें चुरा रहा था।
‘लड़ई तो अइसे भी हो सकता।फेर कारू को या के भुर्रा को बलेड लाग गया तो?’
‘नइ भाऊ।कुछु नइ होएगा।मय रोकेगा न भुर्रा को।’
हिड़मा ने भीसमा को गौर से देखा।उसकी आखों में कुछ अलग सा तैरता दिखा भी, मगर…? वह बेमन से झोपड़ी के भीतर गया, उसने कारू के पंजों में ब्लेड तो बांध दिया, मगर ‘देख जियादा गहरा नइ मारना हां! छोटा भाऊ है तेरा।समझा?’ वह कारू को समझा रहा था और कारू समझ भी रहा था, इतने दिनों का साथ जो था।दोनों ही समझते थे एक दूसरे को।सो हिड़मा शुरू से सहज था।उसने इस लड़ाई को लड़ाई की तरह लिया ही नहीं, तभी तो जब भीसमा ने भुर्रा को दबोचा और भुर्रा उसकी गर्दन से और-और सटता गया, तो उसे आश्चर्य हुआ।उसने उसी क्षण भीसमा की आंखों में देखा था और…! भीसमा! कुछ पल के लिए डरा था, मगर फिर आंखों में जोगिया उभरी और..
‘अरे! साला ये का किया? तूने भाऊ को …?’ कहकर उसने शराब की हांडी उठाकर भुर्रा पर दे मारी।हांडी फूटकर उसके शरीर में जा धंसी और भुर्रा वहीं ढह गया।अभी वह तड़फ ही रहा था कि भीसमा ने उसे गर्दन से पकड़ कर उठाया और उसकी गर्दन मरोड़ दी- ‘साला, तूने मेरा भाऊ को..।’ फिर गोहर पार कर रोने लगा।
रोना सुन लोग जुटे।सब चकित से भीसमा को देखते रहे।कुछ समझ ही नहीं पाए वे कि हुआ या? फिर भीसमा उन्हें एक गढ़ी हुई कहानी सुनाने लगा कि उसने तो भाई को भुर्रा से बचाने की बहुत कोशिश की, मगर भुर्रा ने उसे..।ऐसा कभी नहीं हुआ था कि एक मुर्गा आदमी को…? और जैसे ही लोगों को भान हुआ कि हिड़मा मर चुका है, ‘अब तो पोलिस आएगा’ सोच कर सब लोग खिसक गए।अब भीसमा वहां अकेला था।उसने भुर्रा को उठाकर हिड़मा की गर्दन के पास रखा और गौर से देखा।गांव वालों ने तो मान लिया कि यह दुर्योग होगा; मगर हिड़मे? उसे चकमा देना आसान नहीं, सो चौकस था।वह नहीं चाहता था कि सुई की नोक भर भी शक बचे। ‘क्या करूं? यहीं बैठा रहूं? नहीं! यहां बैठे रहना ठीक नहीं।हिड़मे का कोई भरोसा नहीं।आते ही वार कर दिया तो? या पुलिस को…।’ पुलिस की याद आते ही झुरझुरी सी आई और वह उठ कर जंगल की ओर चल पड़ा।
ढलती शाम हिड़मे हाट से लौटी तो देखा झोपड़ी में कोई नहीं था।उसने आवाज दी हिड़मा को, फिर भीसमा को, मगर कोई सुगबुग नहीं।बाहर आई, उसने देखा गांव में सन्नाटा था।सारा गांव खाली।वह सोच नहीं पा रही थी कि सब लोग कहां गए होंगे? ‘क्या कोई इतना बड़ा शिकार मिल गया कि सारे लोग चले गए, मगर बूढ़े? वे तो शिकार पर नहीं जाते! तो क्या आज इस गांव में भी पुलिस आई थी? अब तो आए दिन हर गांव को यही मार झेलनी पड़ती है।एक ओर वे हैं, जो हमारे जंगल वापस चाहते हैं और दूसरी ओर ये पुलिस।हम तो चकी का दाना बन गए हैं।’ सोचती हुई हिड़मे झोपड़ी के पिछोत की ओर गई।उसने देखा पेड़ के झुरमुट में हिड़मा पड़ा था।उसे लगा कि सल्फी पीकर झाड़ी में लुढ़का पड़ा है। ‘कैसे बिहोस पड़ा है।कोई जानवर आ जाए तो?’ सोचती हिड़में गुस्से से आगे बढ़ी।हिड़मा की आंखें खुली थीं।सो उसे लगा वह उसे शरारत से देख रहा है, मगर पास पहुंचते ही, उसकी आंखें हिड़मा की खुली आंखों से टकराई और..! फिर उसने देखा, कारू और भुर्रा के बीच में पड़े हिड़मा को! उसकी गर्दन से बहते लहू को! लहू बह-बह कर जम गया था! हिड़मा की आंखें आश्चर्य से खुली हुई थीं! मानो उसे अपने मरने पर घोर आश्चर्य हुआ हो! हिड़मे कठुवाई सी खड़ी रही।न तो उसके मुंह से आवाज निकली और न ही आंखों से आंसू।वह बारी-बारी से कारू, भुर्रा और हिड़मा को देखे जा रही थी, तभी एक गिद्ध मड़राता हुआ आया और हिड़मा की आंखों पर झपट पड़ा और ‘नाय’ हिड़मे का स्वर उभरा और गांव में धंसता चला गया।अब वह हिड़मा पर औंधी पड़ी थी और गोहार पार कर रो रही थी।
‘मेयो हिड़मा! ये क्या होया रे?’ कहती वह विलाप कर रही थी, मगर कौन था वहां, जो उसकी सुनता और उसे बताता कि क्या हुआ? आज तो हिड़मा भी शांत था।वही हिड़मा जो उसका रोना सह नहीं पाता था, मगर आज वह रो रही थी और हिड़मा खामोश था।वह देर तक रोती रही।फिर उसने हिड़मा की खुली आंखों को बंद कर दिया।अब हिड़मा के चेहरे पर शांति उतर आई थी।गर्दन पर खून की रेखा न होती, तो लगता कि वह नशे में मत्त सो रहा है।हिड़मे गर्दन की उस रेखा को देख रही थी, जो खून जमने से काली हो चुकी थी।उसे एक मोटी लकीर-सा गहरा घाव नजर आया, जैसे किसी ने गले की नस को ताक कर ब्लेड धंसाया हो।ब्लेड का ध्यान आते ही उसने कारू और भुर्रा को देखा।उनके पैरों में ब्लेड बंधा था।वैसे ही जैसे मुर्गा लड़ाई के समय बांधा जाता था।तो क्या आज…? मगर ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि गांव में…? क्या आज यहां बिलकुल वैसी ही लड़ाई हुई है, जैसी दो गांवों के बीच होती है।तो क्या भीसमा ने…?’ सोचते हुए उसकी आंखों में कुछ दृश्य उभरे।
कुछ दिनों से उसे भीसमा की आंखों में एक अलग तरह की ललक दिखने लगी थी।वह हिड़मा के साथ जब भी जंगल जाती, भीसमा को आस–पास ही पाती।जबकि उसे मालूम था, जब वे जोड़े से जंगल जाते हैं, तब वहां सिर्फ शिकार नहीं होता, जंगल उनकी केलि के अंग हो जाते हैं, घने जंगलों के बीच उन्मुक्त केलि ही तो उनके प्रेम की विशेषता थी, इसीलिए बाकी लोग उस ओर नहीं जाते, मगर भीसमा छिप कर उनके आसपास ही बना रहता।
उसने हिड़मा को बताया भी, मगर वह टाल जाता ‘पिल्ला है रे।कबी अकेल्ला रहा नइ।’ वह उसे समझाता, मगर हिड़मे? उसे उसकी आंखों में बचपना नहीं, कुछ और ही दिखता था।तो क्या भीसमा ने ही…।’ वह सोच ही रही थी कि हूँ-हूँ की गुंजार से घाटी भर उठी।वह चौंक उठी, पुलिस की गाड़ी! ‘पुलुस आएगा, तो पूरा गांव को परेसान करेगा।’ सोचकर उसकी आंखों में बीते दृश्य उभरे और वह सजग हो उठी।
उसने पेड़ की पतली टहनियां तोड़कर झाड़ू बनाई और जल्दी-जल्दी पत्ते बटोरे।सायरन की आवाज और करीब आ चुकी थी, मगर वह जानती थी कि पुलिस अभी दूर है।यह तो इस घाटी का करिश्मा है कि यहां आवाज बहुत पहले पहुंच जाती है।पत्ते इकट्ठे हो चुके, तो उसने हिड़मा को उठाना चाहा, मगर उठा न सकी।फिर उसने उसे पैरों से पकड़ कर खींचा, बड़ी मुश्किल से उसे उस पेड़ के पीछे ले जा पाई, जहां एक गड्ढा था।गड्ढा बहुत बड़ा नहीं था।सो उसके हाथ-पैर मोड़कर मुश्किल से उसे लिटाया और ऊपर से सारे पत्ते डाल दिए।ऐसा करते समय कई बार मन किया कि पुलिस को सब बता दे और भीसमा को…, मगर? सजा भी तो इतनी आसान नहीं।गांव से कोई गवाह तो मिलेगा नहीं, लोगों को पुलिस और कोर्ट-कचहरी से डर लगता है, फिर अगर मामला पुलिस में गया, तो पूरा गांव पुलिस की लपेटे में आ जाएगा और वही कहानी यहां भी शुरू हो जाएगी।’ सोचते हुए उसकी आंखों में आस-पास के गांवों में घटी कई घटनाएं घूम गईं और मुड़पार की घटना याद आते ही वह सिहर उठी। ‘नहीं, मैं पुलिस को कुछ नहीं बताएगी।’ सोचती वह अपने को तैयार कर रही थी।उसका कलेजा तो जार-जार रो रहा था, फिर भी अपने मन पर काबू पाने की कोशिश कर रही थी।उधर हूँ हूँ हूँ हूँ की ध्वनि लगातार नजदीक आती जा रही थी।यह संकट का समय था और संकट से जूझना सीख रही थी वह।सो उसने अपनी बदहवास सांसों पर काबू किया।
ऐ! ये क्या है? पुलिस अफसर का इशारा तो नुंचे पंखों की ओर था; मगर उसकी नजरें उसकी देह को छेद रही थीं।
‘कुछु नइ साब’- कहकर उसकी आंखों ने उस इशारे का पीछा किया और उसका जी धक से हो गया।कारू और भुर्रा के पंख तो समेटना भूल ही गई थी और हवा ने पंखों को दूर-दूर तक बिखेर दिया था।
‘कुछ नइ।तो ये सब क्या है?’- उसने मुर्गे के बिखरे पंखों की ओर फिर इशारा किया।
‘ये? सायद मुरगा लोग लड़ गया होगा।जानवर हय साब लड़ता रहता है।’ कहते हुए बहुत तकलीफ हुई उसे और उसकी आंखों में भीसमा उभर आया, मगर उसने उसे पीछे ठेल दिया।
‘हमने तो कुछ और ही सुना है?’ कहते हुए पुरुष और पुलिसिया आंखें उसे भीतर तक खंगालने लगीं।हिड़मे को लगा जैसे उसका लुगरा, पोलका सब उतार दिया उसने।फिर भी वह चुप रही।कुछ भी बोलकर कोई मौका नहीं देना चाहती थी।
‘जनाब पूरा गांव खाली है’ एक जवान ने सूचना दी।
‘ये गांव वाले कहां गए?’ सवाल के साथ अफसर ने सीधे उसकी आंखों में देखा।
‘नइ मालूम साब।मय तो हाट गया था।अभीच लौटा हूँ।सायद सिकार को गया होगा।’
‘और तेरा मरद?’ पूछती नजरें लगातार उसका चेहरा पढ़ने की कोशिश कर रही थीं।
‘नइ मालूम।वो भी गया होगा साब।आप तो जानता कि सिकार को पूरा गांव एक साथ जाता।सिकार तो पूरा गांव का होता न साब।’
‘ये सच बोल रही है।यहां कुछ भी वैसा नहीं।लगता है हमें झूठी खबर दी गई थी।’ पूछताछ कर रहे अधिकारी ने जवान से कहा।
‘जी जनाब! मुझे भी ऐसा ही लगता है’ जवान ने अफसर का समर्थन किया।
‘फालतू आए इतनी दूर।अब रात में लौटना भी खतरे से खाली नहीं है।इन दिनों इधर वारदातें भी तो…।खासकर घाट पर।’ सोचते हुए उसके माथे पर लकीरें उभर आईं।
उसे चिंतित देख हिड़मे को अच्छा लगा। ‘सचमुच कुछ तो बदल रहा है।अब हमीं नहीं, ये भी डरने लगे हैं।’ सोचकर उसके मन में सुकून की एक लहर उठी थी कि…
‘ऐ सुन।सल्फी (नशीला पेय) लाना जरा और हां, एकदम कड़क वाली, बिलकुल तेरी तरह।’ कहते हुए उस जवान के मुंह और आंख लरियाने लगे।
‘साब सल्फी त नइ हय! इत्ता समय तक सल्फी तो जहर हो जाता है न।’
‘अच्छा तो लांडा (बस्तर की शराब) ले आ।’ -यह वही जवान था जिसे हिड़मे की बोली समझ में आ रही थी।इसीलिए वह अब उसकी भाषा में बोल रहा था, ताकि साहब को भनक न लगे।
‘नइ हय साब।केतना दिन से लांडा चुरोने का सम्मेच नई मिला।’ उसे टालने की कोशिश की।
‘साली हमसे चालकी चलती है।घर के भीतर चल बताता हूँ।’ वह हिड़मे की ओर बढ़ा ही था कि जीप स्टार्ट होने की आवाज आई और वह लपककर जीप की ओर बढ़ा, मगर जाते-जाते हिड़मे को ऐसे देखा मानो कह रहा हो कि मुझसे बचकर कहां जाएगी।फिर सायरन बजती गाड़ी लौट चली थी।
उनके जाते ही वह दौड़कर उस गड्ढे के पास गई और कटे पेड़ सी ढह गई।अब तक अपने को बांधे रखने वाली हिड़मे अब हिलक-हिलक कर रो रही थी।वह रोती रही।आकाश में पूर्णमासी का चांद उतरा, पर वह अंधेरों में ही घिरी रही।उस चांदनी रात में उसके भीतर अमावस से भी ज्यादा घना अंधेरा घिर आया था। रोते-रोते उसने पत्ते हटाए।हिड़मा चुरू-मुरू लेटा था।उसने उसे बाहर निकालकर सीधे लिटाया।अब चांदनी के कुछ चकत्ते उसके चेहरे पर पड़ रहे थे।लगा जैसे वह शांति से सो रहा हो। ‘मेरा हिड़मा तो शांत ही था हमेशा से, फिर भी ये सब? यों?’ पूछना चाह रही थी, मगर किससे पूछती? कौन बताता उसे, गांव तो अभी भी खाली था।ऐसे में बस वह थी और उसकी पीड़ा।रात और भी गहरा गई।अब तक कोई नहीं लौटा था।हिड़मे का शक अब विश्वास में बदल चला था। ‘शिकार पर गए लोग जंगल में रात नहीं रहते।वे जंगल में रात तभी बिताते हैं, जब गांव में कोई खतरा हो।’ सोचती हिड़मे लगातार जंगल का पथ निहार रही थी।कोई तो लौटे, जिससे वह…।
उतरती रात में एक साया नजर आया; मगर अचानक उसने राह बदल ली और पेड़ों के झुरमुट में गायब हो गया।फिर कुछ देर बाद कुछ और लोग नजर आए, उसने उन्हें आवाज दी, मगर वे दौड़कर अपने-अपने झोपड़ों में जा छुपे।ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि वो आवाज दे और कोई सुने न! फिर और भी लोग लौटे, मगर हिड़मे ने किसी को नहीं पुकारा, किसी से कुछ भी नहीं पूछा।वैसे भी पूछने को बचा भी क्या था? अब तो उसे विश्वास हो चला था कि यह दुर्योग नहीं भीसमा की चाल थी।फिर उसे ओदिया दिखा, भीसमा का खास संगी।वह भी औरों की तरह कतरा कर निकल रहा था कि हिड़मे ने दौड़कर उसकी राह रोक ली।भीसमा कहां है रे? देख न ये सब किया हुआ?’ कहते हुए उसकी आंखें भर आईं।
मय कुछु नई जानता।वह नजरें चुराने लगा।उसके चेहरे पर आश्चर्य की जगह भय सा उभर आया था।अब तो कुछ पूछने की जरूरत ही नहीं थी।ओदिया चला गया था; मगर हिड़मे खड़ी थी, उसी जगह।उसका मन किया कि दौड़कर थाने चली जाए; मगर आंखों में गोदमी उभर आया।अपनी सल्फी के लिए मशहूर गोदमी गांव, अब नित नई वारदातों के लिए जाना जाता है।छावनी ही बन गया है गोदमी। ‘नहीं।मैं अपने गांव को ऐसी आग में नहीं डाल सकती।तो क्या भीसमा को यूं ही छोड़..?’ सोचती वह देर तक उलझी रही।फिर धीरे-धीरे थिर हो गई।
गांव के किसी घर से कोर्र ने बांग दी ‘कुकडू कूँ ऽऽऽ।’ भिनसार भी हो गया।भीसमा तो अब लौटेगा नहीं।पुलिस के डर से गांव वाले भी साथ नहीं देंगे।फिर भी हिड़मा को माटी तो देना पड़ेगा।’ सोचकर वह झोपड़ी में गई और रापा और कुदारी ले आई।उसका मन बार-बार कच्चा हो रहा था, मगर वह गड्ढा खोद रही थी।किसी तरह गड्ढा खोदा, आसनी बिछाई।सागौन के पत्तों की आसनी।सागौन के पत्तों की आसनी पर लाश को लिटाकर, ऊपर से सागौन के पत्तों से तोपना था।पत्तों का ओढ़न और पत्तों का ही बिछावन।उसके ऊपर मिट्टी की परत और सबसे ऊपर बारीक भुरभुरी मिट्टी की एक परत और, ताकि उस पर सागौन का जंगल उकेर सके।
सियान लोगों से सुनती आई थी कि ऐसा करने से अगले जन्म में भरा पूरा जीवन मिलता है।बिलकुल सागौन के जंगल जैसा सुंदर और मूल्यवान।आसनी तैयार थी।उसने हिड़मा को उठाना चाहा; मगर उसे उठा न सकी।उसने बार-बार कोशिश की।हार कर उसने उसे दोनों पैरों से पकड़कर खींचा।इस तरह खींचते हुए उसकी आंखें भर आईं।आज उसे आसनी पर लिटाने के लिए दो लोग भी नहीं हैं। ‘सोचकर उसकी रुलाई फूट पड़ी।लोग अपनी झोपड़ी के भीतर, टाटी की झरी से सब देख रहे थे।उनकी आंखें भी नम थीं; मगर एक डर था, जो उन्हें रोके हुए था।यह डर उनके लिए सबसे बड़ा था।बाघ-भालू से भी बड़ा, मगर मणि मा अपने को रोक नहीं पाईं।वे झोपड़ी से बाहर निकल कर हिड़मे की ओर बढ़ चलीं।वहां पहुंचते ही उन्होंने उसे अपनी बाहों में समेट लिया।फिर तो रुलाई बांध तोड़ कर बह निकली।अब वह मणि मा के सीने से लग कर फफक रही थी।उसकी रुलाई का वेग इतना तेज था कि उसका सारा शरीर हिचकोले खा रहा था।
‘चुप जा पेकी (लड़की), चुप जा।अइसा नइ रोते रे।’ मणि मा जितना ढाढ़स बंधातीं, उसकी रुलाई उतनी ही तेज हो जाती।
‘चल पेकी चुप जा! ये काम बी तो करना हय न।लोकर (जल्दी) कर नइ त पुलुस कू मालुम चल जाएगा।’ कहती मणि मा की आंखों में भय उतर आया।
‘नई अम्मा पुलुस नइ आएगा।’ कहती हिड़मे ने हिचकियों के बीच उन्हें सब बता दिया।
मणि मा हिड़मे के साहस पर चकित रह गईं।उसने गांव को बड़ी मुसीबत से बचा लिया था।उनकी आंखों में हिड़मे के लिए प्रेम, दया, श्रद्धा और आंसू सब गड्ड-मड्ड हो उठे।फिर अपने आंसू पोंछते हुए उन्होंने हिड़मा को सिर की ओर से उठाया और हिड़मे ने पैरों से, मगर हिड़मा अभी भी पूरा उठ नहीं पाया था।उसकी पीठ अभी भी जमीन पर घिसट रही थी कि अचानक दो हाथों ने उसे ऊपर उठा लिया।यह मोदिया थी, हिड़मे की गोतियारी।हिड़मे ने उसकी ओर देखा तो आंखों में आंसू फिर लहरा मार उठा।उसका मन फिर कच्चा होने लगा, मगर वह संभली और तीनों ने मिलकर हिड़मा को उठाकर आसनी पर लिटा दिया।हिड़मे ने ऊपर से सागौन के पत्तों को पूरा।फिर सबने मिट्टी से उसे ढंक दिया।मणि मा रापा से मिट्टी समतल करने लगीं।तब तक मोदिया भुरभुरी मिट्टी ले आई।हिड़मे ने उस मिट्टी की हल्की परत बिछाई और सागौन गुप्प (जंगल) उकेरने लगी- फूलों और पत्तियों से भरे-भरे सागौन के पेड़।उसकी आंखों में आंसू थे, मगर उंगलियां अपना काम कर रही थीं।कब्र पर एक भरा पूरा जंगल उभर आया।फिर आई आखिरी जोहार की पारी।अजब-सा मंजर था।मृतक कर्म जैसा कठोर कर्म और उसमें रत नाजुक तन और मन वाली औरतें।यह पुरुषों का काम था।सागौन गुप्प (जंगल) भी घर का पुरुष ही उकेरता था, मगर आज?
‘अब आखिरी जोहार कर पेकी’ –कहती मणि मा उसके और करीब आ गईं और सागौन उकेरते उसके हाथ थम गए। ‘आखिरी जोहार? कैसे करूं मैं? कैसे कहूं कि अब तुम्हारा मुझसे, हमारे घर से सब नाता छूट गया।अब तुम्हारी दुनिया दूसरी है? तुमको मेरा आखिरी जोहार।’ सोचा और उठकर झोपड़ी की ओर दौड़ पड़ी।मणि मा उसे देखती रही।फिर उठकर उसकी जगह पर जा बैठी। ‘जोहार! जोहार! अखिरी जोहार।अब तुमारा ये दुनिया से…।’ –कहते उनका गला रुंध गया, मगर वे रस्म निभा रही थीं।
महीनों बीत गए, मगर भीसमा नहीं लौटा।हिड़मे भी अपनी दिनचर्या में लौट चली थी।वह सल्फी उतारती, हाट भी जाती, मगर हिड़मा हर जगह उसके साथ हो लेता और वह बीते दिनों में खो जाती।उसकी आंखों में अकसर वह मड़ई उभर आती, जहां वे पहली बार मिले थे।हिड़मा अपना मुर्गा लड़ा रहा था।मुर्गे को लहकारता, टिहकारता हिड़मा उसकी आंखों में उतरता चला गया था। ‘जीतने के बाद, जब वो मड़ई घूम रहा था, तब वह कैसे मैं उसके साथ चल पड़ी थी’ सोचती हिड़मे बीते दिनों की सीढ़ियां उतरने लगी…
‘नीमा पेदेड़ केला?’ पूछा था उसने।
‘हिड़मा।’ कहकर उसने उस चंचल युवती को देखा।
‘अरे! मेरा नाम बी हिड़मे है।अम मितान हुए न’ कहती हिड़मे इतनी सहज थी, जैसे बरसों का परिचय हो।मगर ‘हव’ कहकर भी हिड़मा सहज नहीं था।
‘तुम्हारा मुर्गा बड़ा सुंदर।अच्चा लड़ता और तुम अच्चा लड़ाता।’ हिड़मे ने उसे देखा, भरपूर नजरों से।मानो कह रही हो तुम भी तो कम नहीं हो।हिड़मा देख रहा था उसे।उसके चेहरे पर आए भावों को पढ़ रहा था कि…
‘चल न रइचुली झूलते हैं।’ उसने कहा।
वह अकचका गया।अभी तो ठीक से जान पहचान भी नहीं हुई और ये! ‘नइ रे पइसा नइ हय।’
‘कइसे! मुर्गा लड़ाया न।इतना कमाया फेर।’ उसने साधिकार कहा।
‘तो का सब पइसा खरचा कर दूं।’ अब वह भी खुल चला था।
‘काय घर म गोसाइन हय का?’ कहते क्षण भर को उसका चेहरा बुझा।
हिड़मा के मन में आया कह दे हाँ, मगर उसकी ओर देखते ही जाने क्या हुआ और ‘नाय रे! कोई नाय हय।’ सुनकर हिड़मे का मुरझाया चेहरा सरई के पेड़-सा हरिया गया।
‘तब चल न’ कहती उसे हाथ पकड़ खींच ले गई और रइचुली के साथ ऊपर नीचे आते-जाते, दोनों बहुत करीब आ गए।वे ‘इतवारी’ में भी मिलने लगे थे।फिर तो हिड़मे उससे प्यार भरी शिकायतें भी करने लगी थी।वह अकसर कहती- ‘तूने मुझे कोकमा (कंघी) नइ दिया।’
‘न रे मय तेरे लाइक कहां? मय कहां से दे पाएगा तेरा मोल?’ कहता हिड़मा उदास हो जाता।
‘सुन! तू मेरा मोल नइ देना।मय भाग जाएगी तेरा साथ।’ वह उसकी उदासी पोछती।
वे हर हाट और मेले में मिलते।साथ-साथ मेला घूमते और लौटते समय घने जंगल की राह होकर लौटते।ऐसे ही एक दिन लौटते समय हिड़मे ने उससे कहा काल मेरा गोदनई है रे।’
‘या?’ वह चौंका, फिर उदास हो गया। ‘गोदनई का मतलब, अब ये जादा दिन कुंवारी नइ रहेगी।’
‘तू आना देखने’ – कहती हिड़मे की आंखों में बहुत कुछ उतर आया।
हिड़मा की आंखें चमक उठी थीं। ‘गोदनई में बुला रही है।यानी अब ये मेरी ही होगी।’ वह जानता था गोदनई स्त्रियों का गोपन अनुष्ठान है।इसी से तो सबको लड़की के जवान होने की खबर मिलती है।इसमें सारे जिस्म पर गोदना के फूल उकेरे जाते हैं।शरीर के गोपन अंगों पर भी गोदने उकेरा जाता है, तभी तो इसमें पुरुषों का प्रवेश वर्जित है।लड़की जिससे प्रणय निवेदन करती है, उसे अपनी गोदनई में बुलाती है।हिड़मा बहुत खुश था। ‘ये मेरे को गोदनई में बुला रही है।मय पका जाएगा।’ वह गया था वहां।बड़े भिनसारे।कोर्र बांग से बहुत पहले और महुआ के पेड़ पर चढ़ गया था।उसे सब छुपकर देखना था।बहुत बेचैन था, बार-बार राह को देखता।देर हुई तो उसे लगा शायद हिड़मे ने उससे ठट्ठा किया है।वह निराश हो लौटने की सोच रहा था कि सूरज की पहली किरण के साथ हिड़मे उसके सामने थी।उसके सारे शरीर पर बस एक लूगड़ा था, जो कमर से नीचे ही लिपटा था।हिड़मा एकटक देखता रहा।दिन चढ़ रहा था।हिड़मे की ग्रेनाइट सी देह पर हल्दी और सूरज की किरणें एक अनोखा रंग भर रही थीं।वह रंग हिड़मा की आंखों में उतरने लगा और उसकी नजरें उसके दो जामुनी रसीले फलों पर जा ठहरीं।उसने पहली बार महसूसा कि हिड़मे सुंदर है, बहुत ही सुंदर।
गोदनई का अनुष्ठान शुरू हुआ।हिड़मा ने देखा सागौन के हरे–हरे पत्तों के बिछावन पर लेटी हिड़मे को।औरतों ने चारों ओर से घेर रखा था।पांच औरतों के हाथों में भेलवा, सुई और दर्द कम करने की औषधि थी।बाकी औरतें उनके पीछे खड़ी थीं।एक औरत ने हिड़मे के माथे पर भेलवा के रस से एक बिंदु उकेरा और सुई की नोक चमड़ी के भीतर घुसाते ही ‘सी ई इ इ।अं बहुत दरद होता।’ वह दर्द से चिहुंकी और उसकी नजरें ऊपर उठ गईं।उसके दर्द में मिश्री घुल उठी।
सुई बार-बार चुभती रही।माथे पर एक नीला सूरज उभर आया, मगर दर्द? यह गोदनई का पहला चरण था।फिर नाक पर एक बिंदु और ठोढ़ी पर तीन बिंदियां उकेरी गईं।अब एक साथ कई औरतें उसकी गोदनई कर रही थीं।फिर गोदनई नीचे उतरने लगी।उसे याद आया हिड़मा ने उससे कहा था- ‘तू अपनी जांघ सरई रुख गुदवाना।लाल-लाल फूल वाला रुख।मय चाहता तू हमेशा भरी-भरी रहे, मोटियारी रहे, एकदम सरई के जइसे।’ सोचकर मुस्करा उठी और ‘सुन जांघ म सरइ रुख गोदना।’
‘आहाऽ! सरइ रूख! केतना दरद होयगा जानता भी है।’ भाभी ने डराया।
‘होने दे दरद।मय सरईच गोदवाएगी।’
‘किया बात है! अभी दरद से उछल रही थी अउ अब एतना दरद सहने को तियार है।किसके लिए?’ भाभी ने छेड़ा तो ‘चल हट’ कहकर ऊपर देखा।हिड़मा से नजरें मिलीं और..! पहली बार लाज ने उसे घेरा था।भाभी ने जांघ पर सरई रुख उकेरा और सुई चुभोई, तो हाय यायो मैं मर…!’ उसे लगा जैसे बिच्छु ने डंक मार दिया हो।एक झनझनाहट उठी और ऊपर तक पैबस्त होती चली गई। ‘इतना दरद मेरे को नइ गोदवाना ये।’ सोचते हुए नजरें ऊपर उठीं और उसका दर्द बिला गया।लगा जैसे हिड़मा ने अपनी आंखों से बिच्छु वाला मंत्र पढ़ दिया हो।फिर तो सुइयां चुभती रहीं, मगर दर्द! हर चुभन के साथ वह देखती उसे और उसकी आंखों की लहर उसका सारा दर्द चूस लेती।
बहुत दिन के बाद वह हाट आई।हिड़मा ने देखा, पहले से बिलकुल अलग लग रही थी वह।उसकी ठोढ़ी और नाक पर गुदा गोदना उसे और खूबसूरत बना रहा था।उसे देखते ही हिड़मा उसकी ओर लपका; मगर फिर ठिठक गया और वह? वह तो आगे बढ़ी ही नहीं।लजाई सी खड़ी रही।उसे शर्म आ रही थी और वह उसके इस नए रूप पर चकित था।तो क्या गुदनई ने इसे छुअन का रहस्य बता दिया है।हाँ।तभी तो…।सोचता देर तक खड़ा रहा।फिर जब वह और पास गया, तो उसे लगा कि उसके चेहरे पर हया के साथ-साथ एक गहरी उदासी भी है।
‘क्या हुआ रे।’ उसने मनुहार से पूछा।
‘कुछु हो।तेरे कू या?’ हिड़मे ने उसे गुस्से और प्यार से झिड़का।
‘ऐसा कैसे बोली? मेरे कू या?’ हिड़मा ने भी अधिकार जताया।
‘फेर का एतना दिन में एको बार नई आया देखने?’ उसके स्वर में मान था।
‘नइ आया रे! क्या करता आके? तेरा मोल देने का हिमत नइ।’ वह उदास हो गया।
‘येऽ! अइसे अपना मन मत मार।मय किसी के साथ नइ जाएगी।तेरेच साथ आएगी, समझा तू।मेरा बात सुन! अगला महीना जो मड़ई होएगा, उसमें तू आना फिर अम दुनो भाग जाएगा।’
‘कहां रे? कहां जाएगा भाग के?’
‘उदर गुप्प (जंगल) में।उदर कोई नइ खोजेगा।फिर जब सब ठीक हो जाएगा अम लौट आएगा।’ कहती हिड़मे की आंखें उससे मिलीं और उन आंखों में न जाने ऐसा क्या था कि उसने हां में गर्दन हिला दी।
मड़ई में वे मिले।खूब घूमे।रइचुली झूले और शाम को बीहड़ ओर बढ़ चले।उधर कोई नहीं जाता था।लोग कहते कि उधर डूब (बाघ) रहता है, मगर प्रेम भला कब डरा है।सो वे भीतर धँसते चले गए।वह महुओं का मौसम था।सारा जंगल महुए की मादकता से भरा था और जिस जगह को उन्होंने चुना था, वह पांच पेड़ों का झुरमुट था।नीचे धरती पर महुए ही महुए बिखरे थे।एक तो महुए की मादक सेज।उसपर हिड़मे का संग।सो मादकता एक सैलाब सा उठा और वे उसमें डूबने उतराने लगे।न जाने कब तक।न तो मादक लहरों का कोई ओर छोर था और न ही उनके प्रेम का।
दिनों बाद लौटे थे वे।पता चलने पर हिड़मे के यायो- बाबो आए थे उसे लेने; मगर उसने कह दिया कि उसने हिड़मा को वर लिया है।बहुत समझाया था बाबो ने, पर वह अडिग रही।फिर तो उनकी जोड़ी एक मिसाल बन गई थी।वे लड़ते भी बहुत थे।हिड़मा के सल्फी पीने पर तो तूफान उठा देती वह; मगर हर लड़ाई के बाद उनका प्यार और गहरा जाता।
हिड़मे बीते दिनों में तैर रही थी कि उसके पेट में एक उभार सा आया और उसने उसे वर्तमान में ला खड़ा किया।उसे दुख हुआ ‘मैं बता भी नहीं पाई कि उसका पिल्ला…।मेरे को कहां मालूम था कि ऐसा कुछ हो जाएगा।मैं उसे बताना नहीं, महसूस कराना चाहती थी, तभी तो इंतजार था उस पल का, जब मेरे भीतर हलचल हो और मैं हिड़मा का हाथ उस पर धर दूं।बिना कुछ कहे।पर क्या मालूम था कि?’
हिड़मे की आंखें बरस उठीं।पेट में एक बार फिर उभार आया।सुबह से उसने कुछ खाया नहीं था।पेज की हंडी वैसी की वैसी पड़ी थी।मन तो अभी भी नहीं था; मगर उसने दोने में पेज डाला और पीने लगी।वह बेमन से पेज पी रही थी।
महीनों हो चले, मगर भीसमा वापस नहीं आया।हिड़मे भी अपनी दिनचर्या में लौट आई, मगर एक चीज थी, जो लौट नहीं पाई, वह थी उसकी मुस्कान।सबने मान लिया था कि अब भीसमा कभी नहीं लौटेगा; मगर वह जानती थी कि जरूर आएगा और उसे उसका इंतजार था।एक दिन वह सल्फी उतार कर लौट रही थी, तब उसने देखा सामने भीसमा खड़ा था।उसे देखते ही, उसके मन में आया कि वह टांगी उठाए और सारा हिसाब बराबर कर ले मगर…। ‘हिसाब तो मैं बराबर जरूर करूंगी।फिर ऐसे नहीं’, सोचा और-
‘भीसमा तू कहां गया था रे?’ कहते हुए उसका मन भीतर से अंधना (अदहन) जैसा खौल रहा था मगर स्वर भात की तरह मुलायम था।
भीसमा उसे गौर से देख रहा था।जब लगा वह बिलकुल सामान्य है तो ‘इसको कुछ भी पता नहीं चला’, सोच कर वह मन ही मन खुश हुआ; मगर ऊपर से उदासी ओढ़ कर बोला- ‘मय तो अइसा सोच बी नइ सकता था; फेर वो साला भुर्रा और रोने लगा।रोते-हुए वह हिचकियां ले रहा था।
‘चुप जा रे भीसमा।इसमें तेरा क्या गलती हय।मैं जानती तू बचाया होएगा भाऊ को’ कहती हिड़मे की नजरें उसके चेहरे पर थीं।वहां दुख की परछाई तक नहीं थी और आंखें? बिलकुल सूखी।बार-बार मलने के कारण आंखें लाल जरूर हो गई थीं।वह समझ रही थी यह सब उसके नाटक का हिस्सा है।
‘हां मय बचाया था, फेर साले ने भाऊ को…।तो मैंने भी साले को मुरकेट दिया।’
‘नाटक तो ऐसा कर रहा है, जैसे मैं कुछ जानती नहीं’ उसने सोचा, मगर कुछ कहा नहीं।
भीसमा यही तो वह चाहता था कि हिड़मे भाई की मौत को एक दुर्योग मान ले।उसने उसकी आंखों में देखा, तो वह सामान्य लगी।फिर तो भीसमा उसका और ख्याल रखने लगा था।हर काम में उसके साथ रहता, उसने फिर कभी अपनी शादी या जोगिया की बात तक नहीं की।वह हिड़मे को विश्वास दिलाना चाहता था कि उसने उसके लिए जोगिया को भी भुला दिया है।हिड़मे सब जानती थी।सो जताती रही कि उसके साथ वह बहुत खुश है।और भीसमा? ‘अब तो ये मेरे को छोड़ के किसी और का हाथ नइ धरेगी।मैं जल्दी पंचायत बुलाऊंगा।फिर तो ये झोपड़ी, सल्फी का रूख और हिड़मे सब मेरा हो जाएगा।फिर मैं जोगिया को भी ले आऊंगा।तब कौन छेंकेगा मेरे को।मैं मालिक होऊंगा घर का, सल्फी का अउ हिड़मे का भी।साली अभी भी कितनी मस्त लगती है?’ सोचते हुए उसकी आंखों में हिड़मे की देह नाच उठी। ‘पहले इस हिड़मे को पटाना है।जोगिया तो मेरीच है।मेरे से कितना प्यार करती है वो।’ सोचते हुए उसकी आंखों में जोगिया का चेहरा उभर आया। ‘सब सह लेगी मेरे खातिर।ये हिड़मे? तब इस साली की अकड़ निकालूंगा मैं।बस एक बार, एक बार मेरे नीचे आ जाए फिर…।’ यही सब सोचते हुए सपने बुन रहा था वह।
हिड़मे सब समझ रही थी।उसे मालूम था कि वह जोगिया से मिलकर, उसके बाबो को उसका मोल देने की हामी भर आया है।अब उसे भी फांस रहा है, पर वह शांत थी।फिर तो वह उसके लिए और उतावला हो चला था।यह उतावलापन पहले तो उसकी आंखों में ही झलकता था।फिर तो उसके व्यवहार में भी उतर आया- ‘हिड़मे अब नइ रहा जाता रे।आखिर तो तू मेरे साथ बैठेगा न, फेर अइसा काय को करती रे’ -कहकर उससे लिपट जाता।
उस क्षण हिड़मे का मन करता उसे इंद्रावती में धकेल दे या उसके सिर पर कुछ दे मारे; मगर वह अपने को जब्त करती। ‘पहिली पंचाइत कर।फेर हाथ पकड़।’ कहती और मीठी सी हँसी हँस कर दूर छिटक जाती।
पंचायत होने वाली थी।भीसमा बहुत खुश था।अब तो हिड़मे उसकी…।वह सपने में डूबा हुआ था कि – ‘ये भीसमा उठ न रे।चल जंगल चल।हिड़मे ने जगाया।
भीसमा भराभर नींद में था।उसने जैसे तैसे आंखें खोलीं और आंखें मिलते ही, उसकी नींद छू हो गई।उसे लगा मानो लांडा, सल्फी और महुआ की मटकी एक साथ ही लुढ़क पड़ी हो, मदमाती हिड़मे उसके सामने थी। ‘जंगल काय को? यही आ न।’ उसने उसे अपनी ओर खींचा।
‘नइ! इहाँ नइ।चल न ऽ जंगल।कहती हिड़मे की आंखों में मादकता का सेलाब लहरा रहा था।फिर तो इस कदर बेकाबू हुआ कि जंगल पहुंचते ही हिड़मे को जकड़ने लगा। ‘न रे! अइसे नइ।एतना जलदी क्या है।आज तो पूरा दिन अम इदरीच रहेगा न।’ कहकर वह दूर हट गई।
‘भाऊ को भी जंगल पसंद था न।पहिली बार तुम लोग इधरीच..?’
‘वो सब मत याद कर।मय आज सब भुलाके तेरीच होना मांगता।’
‘अब तो ये पूरा का पूरा मेरा बस में है’ सोचकर वह उबले हुए महुए की तरह फूल गया।
‘इसको मालूम नहीं के तेज आगी म रस छन्न से सूखा जाता है।फेर वो महुआ कोई काम का नहीं रहता?’ सोचकर हिड़मे के ओठों पर मुस्कान उभरी।देर तक वह उसे लुभाती, छकाती रही।फिर उसने अपने कांधे से बांस की पोंगली उतारी।उसमें शराब थी।उसने दोने में शराब ढाली और भीसमा के ओठों से लगा दिया।एक, दो, फिर न जाने कितने दोने पी गया वह।जब वह नशे से लस्त हो गया, तब वह उसके करीब, बहुत करीब हो गई।इतने करीब कि उसके ओंठ भीसमा के ओठों को छूने लगे।भीसमा कुछ देर तो भौचक खड़ा रहा, रस की हांडी अचानक उसके ओठों से आ लगी थी, फिर उसने उस हांडी में अपने ओंठ डुबोए ही थे कि – ‘हाय यायो।मैं मर गया रे’ हिड़मे की चीख जंगल में गूंज उठी और वह हड़बड़ा कर पीछे हट गया।
‘अच्छा तो ये हो रहा है?’ जोगिया उसके सामने खड़ी थी।वह हैरान! जोगिया यहां! ‘साला, तू मेरे को धोखा देता?’ उसने अपने हाथ में पकड़ा हंसुआ उसकी ओर फेंकना चाहा।फिर ‘छी रे।तेरे को तो मारना बी बेकार है’ कहा और पच्च से थूका और लौट गई।
उधर हिड़मे लगातार कराहे जा रही थी।भीसमा के मन में आया कि हिड़मे का गला दबा दे, मगर मजबूरी थी।सो पूछा- ‘तू एतना जोर से चिल्लाई यों?’
‘वो दरद हुआ न।बड़ा जोर का दरद था।अभी भी होता।देख न पेट में कुछ अड़ गिया है’ कहा।फिर भीसमा को देखा, उसकी आंखों के सुर्ख डोरे राख हो चले थे।वह अब जोगिया के बारे में सोच रहा था।हिड़मे के ओठों पर तिर्यक मुस्कान उभर आई।अब भीसमा उसके साथ तो था, मगर उसके पास नहीं।उसके मन में जोगिया हलचल मचा रही थी। ‘मुड़िया औरत सब सह लेती है फेर धोखा? अब वो मेरे को कभी माफ नहीं करेगी।’ उसकी आंखों में उदासी उतर आई थी।
वे लौट आए।अगले दिन पंचायत थी।रात गहरा चली थी, मगर नींद? भीसमा की आंखों में जोगिया की आंखें ठहरी हुई थीं।कितनी घृणा थी उनमें। ‘अब मय उसको कभी नइ पा सकेगा।’ सोचते हुए उसने करवट बदली, तो हिड़मे की देह सामने थी।ग्रेनाइट सी देह। ‘मैं जोगिया के खातिर सब किया, फेर…।’ सोचकर मन में हूक उठी।
हिड़मे की आंखों में भी नींद कहां थी।वह आंखों की झिरी से देख रही उसे।उसकी तड़प देख उसे सुकून मिल रहा था।बहुत इंतजार के बाद सुबह हुई।लोग जुरने लगे।फिर पंचायत शुरू हुई।वैसे यह पंचायत बहुत अहम नहीं थी।कोई फैसला तो लेना नहीं था।उनके फैसले पर मुहर ही लगानी थी।हिड़मे ने देखा भीसमा उदास था।उसकी चालाक आंखों में राख की परतें नजर आ रही थीं।
पंच ने भीसमा से पूछा- ‘भीसमा कोर्राम! तुम हिड़मे का संग धरोगे?’ उसने हाथ जोड़कर जोहार किया।
‘तो आज से झोपड़ी, सल्फी और हिड़मे, सब तुम्हारा होएगा।’ उसने पंचों को फिर जोहार किया।
‘हिड़मे, तू भीसमा संग बैठना मांगती?’
उसने कोई जवाब नहीं दिया।वह चुप रही।पंच ने फिर पूछा, मगर वह खामोश ही रही।भीसमा ने उसकी ओर देखा और उसके चेहरे पर ठहरी चुप्पी देख अकुला गया।
‘हिड़मे बोल न।वइसे तो पंचायत सब जानती है।फेर तेरा हां कहना जरूरी है न।’ भीसमा उसके पास जा पहुंचा, मगर वह चुप रही।
‘बोल न हिड़मे, चुप काहे है?’ ये फइसला तो हम दोनों का है न? तू राजी है न?’ कहकर भीसमा ने उसे झकझोरा।
पंचायत चकित थी और भीसमा? ‘देख हिड़मे अइसा ठट्ठा मत कर।जल्दी से हां कह।’ वह रुंआसा-सा हो आया।भरी पंचायत में ऐसी बेइज्जती! वह लोगों से नजरें नहीं मिला पा रहा था।
हिड़मे की स्वीकृति जरूरी थी।सो पंचायत ने फिर पूछा।अबकी हिड़मे ने अपना बायां हाथ लहराया और भीसमा की ओर ऐसे देखा कि वह तिलमिला उठा।उसका मन किया कि उसे…।तभी उसकी नजरें उठीं, सामने जोगिया थी।उसने उसे देख कर फिर पच्च से थूका और पलट गई।भीसमा की आंखों में वो मुर्गा लड़ाई कौंध उठी।वह छटपटा उठा।उसे लगा हिड़मे ने एक भोथरे ब्लेड से उसका गला रेत दिया है।पंचायत ने हिड़मे का फैसला मान लिया था।हिड़मे ने सबको जोहार किया और चल पड़ी उस ओर जहां हिड़मा सो रहा था। ‘मेरा जोड़ी! मेरा मैना!’ कहकर उसकी कब्र से लिपट गई और गोहार पारकर रोने लगी।देर तक रो लेने के बाद कुछ थिर हुई, तो उसे याद आया कि हिड़मा को विदाई भी तो देनी है।जब तक मैं सागोन के जंगल नहीं बनाएगी ये तो यहींच भटकेगा।सोचा और उसकी उंगलियां सागोन के दरख्त उकेरने लगीं।
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