काज़ी नज़रुल विश्वविद्यालय में शोध छात्र।

 

यह एक अनोखी बात है कि हाल में चार वरिष्ठ साहित्यकारों पर चार पत्रिकाओं ने विशेषांक निकाले।जब किसी रचनाकार के जीवन और कृतित्व से संबंधित ज्ञात-अज्ञात तथ्यों के आधार पर विभिन्न लेखकों द्वारा मूल्यांकन किसी पत्रिका में प्रकाशित किया जाता है, तो  इसे साहित्यिक संसार की एक स्वस्थ घटना कह सकते हैं।साहित्यकार पर केंद्रित विशेषांक ही है जिसकी सहायता से कोई पाठक उसकी रचनाधर्मिता से न केवल अवगत होता है, बल्कि उससे कुछ प्रेरणा भी ग्रहण करता है।

इधर थोड़े ही समय के बीच ‘सोच विचार’ ने काशीनाथ सिंह पर, पूर्वग्रह’ ने राधावल्लभ त्रिपाठी पर,  ‘सहयोग’ ने संजीव पर और ‘कविता विहानने राजेश जोशी पर विशेषांक निकाला है। ‘संबोधन’ नाम से कमर मेवाड़ी ने कई दशकों तक लघु पत्रिका का प्रकाशन किया है।उनपर एक संकलन आया है जिसका शीर्षक ‘कमर मेवाड़ी रचना संचयन’ है।ये विशेषांक और संकलन इसके सबूत हैं कि हिंदी समाज कृतघ्न नहीं है और लेखक कृती साहित्यकारों पर खुलकर चर्चा करते हैं।

काशी के ‘काशी’, यानी काशीनाथ सिंह के पचासीवें वर्ष में प्रवेश करने के अवसर पर उनके व्यक्तित्व और रचना कर्म की छवि प्रस्तुत करने का एक सफल प्रयास ‘सोच विचार’ पत्रिका के माध्यम से हुआ है।लंबे अरसे के बाद इस तरह के मूल्यांकनों का एक गहरा अर्थ है।

काशीनाथ सिंह का जन्म भले जीयनपुर गांव में हुआ हो, लेकिन उनका जीवन काशीमय रहा है।वे काशी में जीते हैं और काशी उनमें जीता है। ‘सोच विचार’ के जितेंद्र नाथ मिश्र, नरेंद्र नाथ मिश्र तथा अन्य संपादक सदस्यों ने काशीनाथ सिंह की रचनात्मक आभा को इस विशेषांक में सामने लाने का कार्य किया।इसके अतिथि संपादक आशीष त्रिपाठी हैं।इसमें काशीनाथ सिंह के आत्मकथ्य, कथा-यात्रा, संस्मरण के साथ उनका जीवन और उनसे साक्षात्कार है।

आशीष त्रिपाठी काशीनाथ सिंह को प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ते हुए लिखते हैं, ‘विषयवस्तु की सामाजिकता और समाज के प्रति गहरी आत्मीयता भरी जवाबदेही की दृष्टि से वे प्रेमचंद की परंपरा के कथाकार हैं।सजग और सचेत।’ नरेंद्रनाथ मिश्र ने उनको संत कबीर का पदानुयायी बतलाया है, ‘काशीनाथ सिंह काशी के हैं।संत कबीर के पदानुयायी -अक्खड़, फक्कड़, मुंहफट और हर तरह का जोखिम उठाकर सच का बेलाग एवं बेबाक चित्रण करने वाले, कबीर की ही तरह आँखिन की देखी लिखने और रचने वाले, वे अपनी तरह के बेजोड़ रचनाकार हैं।’

विशेषांक की शुरुआत में ही काशीनाथ सिंह अपने आत्मकथ्य ‘रहना नहीं देस बिराना है’ में अपने जीवन के संघर्ष और सफलताओं का हृदयस्पर्शी रोमांचक वर्णन करते हैं।सयुंक्त परिवार का टूटना, अपनी जन्मभूमि जीयनपुर को छोड़कर बड़े भाई साहब नामवर सिंह के साथ बनारस आना, ‘सत्तूक’ और ‘गुंडजल’ के सहारे पढ़ाई जारी रखना, पूरे परिवार का खर्च उठाना, नौकरी के लिए भटकना, करुणापति त्रिपाठी के सहयोग से यूनिवर्सिटी में नौकरी मिलना आदि ऐसे अनेक प्रसंग हैं जो उनके आत्मकथ्य में आए हैं। ‘कहानी की वर्णमाला और मैं’ में काशीनाथ सिंह से कहानीकार काशीनाथ सिंह बनने की रोचक कथा का वर्णन है।

‘सोच विचार’ में मनोज रूपड़ा, देवेंद्र, शिवेंद्र और सिद्धार्थ सिंह द्वारा काशीनाथ सिंह से जुड़े संस्मरण हैं।मनोज रूपड़ा ने अपने संस्मरण में मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मलेन द्वारा चित्रकूट में आयोजित कहानी-कार्यशाला में एक प्रशिक्षार्थी की हैसियत से जुड़ने और काशीनाथ सिंह से प्रशिक्षण लेने का रोचक उल्लेख किया है।देवेंद्र जी ने कुछ प्रसंगों में बताया है, ‘सफर में सामान सब मुकम्मल थे, सिर्फ टिकट को छोड़कर’, ‘कोल्हापुरी चप्पल था और सड़कें जलमग्न थीं’।शिवेंद्र ने उनको महबूबा से अधिक प्रिय मानते हुए बताया है कि उनकी एक झलक पाने के लिए किस तरह कड़ी मशक़्क़त करनी पड़ती थी।उन्होंने कक्षाओं के वातावरण से संबंधित संस्मरण रखे हैं।

‘बीच बहस में काशीनाथ सिंह’ इस परिसंवाद में वीरेंद्र कुमार गौतम कुछ प्रश्न सामने रखते हैं, जिनका चौथी राम यादव, वीरेंद्र यादव, अखिलेश और आशीष त्रिपाठी ने अपने-अपने दृष्टिकोण से सार्थक उत्तर दिया है।

अगला चरण सृजन विमर्श है।इसमें बलराज पांडेय, अवधेश प्रधान, अरुण होता, राम सुधार सिंह, शांति नायर से लेकर राकेश बिहारी, श्राद्धानंद, नीरज खरे, पल्लव, शशिभूषण मिश्र, मानवेंद्र प्रताप सिंह जैसे विद्वान और अनुभवी लोगों ने उनके कृतित्व और लेखन शैली का विवेचनात्मक विश्लेषण किया है।

इस विशेषांक में प्रभाकर सिंह का कहना है, ’90 के बाद बदलती शासन व्यवस्था, सांप्रदायिकता के नए संकट, नव उपनिवेशवाद की भयावहता और वैश्वीकरण की चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए काशीनाथ काशी के अस्सी मोहल्ले की जिंदादिली, बेफिक्री, मस्ती और अपनत्व व्यक्त करने के लिए सबसे बड़ा टूल भाषा में ही पैदा करते हैं।’

नीरज खरे का कहानियों के बारे कथन है, ‘उनकी कहानियाँ जीवन स्थितियों को अत्यंत सहज, किन्तु थोड़े नाटकीय रूपांतरण से रोचक बना देती हैं।सीधे कथन या इतिवृत्तात्मक विवरणों से दूर, वे जीवन की भाषा को कथा विन्यास से पुनर्सृजित करते हैं -कुछ इस तरह कि कहानी पाठक से संवाद करते हुए, उसके रुचिबोध का विस्तार करती हैं।’

पत्रिका में काशीनाथ सिंह के साथ वासुदेव उबेराय की हुई बातचीत है।काशीनाथ सिंह पुस्तकों एवं पत्रिकाओं के संदर्भ में कहते हैं कि मीडिया से लोगों का भरोसा घटा है, जबकि पुस्तकों और पत्रिकाओं पर विश्वसनीयता बनी हुई है।उनसे पूछा गया कि आप भोजपुरी बोलते हैं, बतियाते हैं तो भोजपुरी में कुछ लिखा क्यों नहीं? कहते हैं, ‘मैं बोल बतिया तो लेता हूँ पर भोजपुरी में सहजता से लिख नहीं पाता।’

पत्रिका में प्रस्तुत ‘विपक्ष का कवि : धूमिल’ नामक आलोचनात्मक लेख में धूमिल के पड़ोसी की हिंसा और कटुता धूमिल की कविताओं में कैसे प्रस्फुटित होकर व्यापक रूप ग्रहण करती है, इसका सूक्ष्म विवेचन काशीनाथ सिंह करते हैं।

काशीनाथ सिंह पर केंद्रित यह विशेषांक उनके साहित्य पर शोध करने वाले शोधार्थियों के लिए ही नहीं, बल्कि सामान्य पाठक वर्ग के लिए भी महत्वपूर्ण है।

जिज्ञासा: लेखन की ओर आपने अपना कदम कैसे बढ़ाया?

काशीनाथ सिंह: देखिए, लिखने की ओर मेरी दृष्टि तब गई जब मैं रिसर्च कर रहा था।घर का माहौल साहित्य से भरा-पूरा था।भाई साहब (नामवर सिंह) के लिए साहित्य ओढ़ना-बिछौना था।मुझे भी लगने लगा कि जब अंततः पढ़ने-पढ़ाने का ही काम करना है, तो लिखना चाहिए! ऐसे भी जो कवि-लेखक मिलते थे, मैंने देख लिया था कि किसी में सुरखाब का पर नहीं लगा है।और एक दिन मैं कुछ कहानियाँ लिखने का निर्णय कर बैठा।

जिज्ञासा: आपको किस प्रकार के व्यक्तियों ने अपनी ओर ज़्यादा आकर्षित किया है और क्यों?

काशीनाथ सिंह: मुझे वे लोग बराबर खींचते रहे हैं जो कुछ कर गुजरना चाहते हैं, अच्छा या बुरा कुछ भी! गलत सही कुछ भी! मैं आदमी को नापसंद कर सकता हूँ, उससे घृणा नहीं कर सकता! वह गलत हो सकता है, बुरा हो सकता है -घिनौना नहीं हो सकता!

जिज्ञासा: आपकी कुछ कहानियों की आलोचना भी देखने को मिलती है।इसपर आप क्या कहेंगे?

काशीनाथ सिंह: मैं अपनी ‘कहानी’ या ‘रचना’ को डिफेंड नहीं कर सकता।अच्छी से अच्छी कहानी को आप बिना तर्क के कह दीजिए कि घटिया है, कूड़ा है।मैं अपनी ओर से नहीं कह सकता कि आप गलत कह रहे हैं।

जिज्ञासा: आज के वक़्त में साहित्य कितना जरूरी है?

काशीनाथ सिंह: सच्चाई सिर्फ यही नहीं है कि साहित्य की जितनी अधिक जरूरत इस वक्त है, उतनी कभी नहीं रही, बल्कि यह भी है कि उसकी संभावनाओं के दरवाज़े आज जितने चौड़े हैं, उतने कभी नहीं रहे।बड़ी सीमित-मात्रा में दो चार कहानियों की कमाई पर हम लेखक बन बैठे हैं, यह मुफ़्त का मिला हुआ सम्मान है।

जिज्ञासा: राजनीति से आपका क्या सरोकार रहा है?

काशीनाथ सिंह: मैं साफ़ कर दूँ कि मैंने राजनीति का साथ अपने साहित्य के लिए पकड़ा था।यह जानते हुए कि मैं उसके साथ काम करते हुए बहुत कुछ जान सकूँगा, सीख सकूँगा, क्रांतिकारी चरित्रों के जीवन से परिचित हो सकूँगा! मैं जिनके साथ था, उन्हें मेरे क्या, किसी के भी साहित्य से कोई सरोकार न था।

समकालीन कविता को ऊंचाइयों पर ले जाने वाले राजेश जोशी की प्रसिद्धि कवि के रूप में है।लेकिन गद्य पर उनकी उतनी ही पकड़ है जितनी पद्य पर।वे कहते हैं, ‘गद्य को साधना भी थोड़ा मुश्किल काम है।’ राजेश जोशी लगभग पांच दशकों से गरीबों,  दलितों और शोषितों के पक्ष में कट्टर पंथ और  शासन तंत्र के विरोध में आवाज़ उठाते आ रहे हैं।

2021 में उन्होंने अपने जीवन का 75 वर्ष पूर्ण किया।इस अवसर पर उनके रचना संसार पर एक मुकम्मल अंक निकालने का उल्लेखनीय कार्य ‘कविता विहानके प्रधान संपादक नलिन रंजन सिंह एवं संपादक ज्ञान प्रकाश चौबे ने किया है।संपादकीय में ज्ञान प्रकाश चौबे राजेश जोशी के संदर्भ में लिखते हैं, ‘निःसंदेह राजेश जोशी हमारे लिए एक ऐसे कवि और साथी के तौर पर हैं जो हमारे आगे-आगे अंधेरे को छांटने की मशाल लिए चलते हैं।’ इसके बाद उनकी लंबी कविता ‘बचपन की कहानी के तीन खो गए पात्रों की तलाश में भटकते हुए’ है। ‘राजेश जोशी पर कविताएं’ अंक का एक रोचक हिस्सा है।

मदन कश्यप का राजेश जोशी के बारे में कथन है, ‘मनोभावों की यात्रा के बावजूद, राजेश जोशी की कविता मुक्तिबोध की तरह जटिल नहीं होती, तो इसका कारण है, भाषा की असाधारण कलात्मक पारदर्शिता।वास्तव में जटिल मनोभाव की सरल अभिव्यक्ति आसान नहीं होती, लेकिन वे ऐसा कर पाते हैं।वैसे उनकी कविताएं इतनी सरल भी नहीं हैं, जितनी सतह पर दिखती हैं।उनमें संवेदना की बहुस्तरीयता है, जो उस अन्वेषण और उत्खनन से ही पैदा हुई है, जितनी चर्चा ऊपर की गई है।इस बहुस्तरीयता को पहचान कर ही उनकी कविता से गहरी मुलाकात की जा सकती है।’

मनोज कुलकर्णी के संस्मरण ‘किस्सों के शहर में एक गप्पी रहता है’ का ‘गप्पी’ कोई और नहीं बल्कि राजेश जोशी हैं।हर कवि के पीछे एक ‘गप्पी’ छिपा हुआ रहता है।मनोज कुलकर्णी लिखते हैं, ‘किसी शांत दोपहर कवि राजेश जोशी के घर का दरवाज़ा खटखटाने पर गप्पी ही प्रकट होता है।उस वक्त, घर में अमूमन वह अकेला ही हुआ करता है।

विशेषांक में ज्ञान प्रकाश चौबे और संजय राय द्वारा राजेश जोशी का साक्षात्कार है।इनमें राजेश जोशी बताते हैं कि उन्होंने लिखने की शुरुआत कैसे और किस विधा में की, उनकी दृष्टि में कविता की परिभाषा क्या है, कविता के कथ्य और शिल्प में आए परिवर्तन, कविता की भाषा से क्या अपेक्षाएं रखनी चाहिए, समाज में व्याप्त विविधता और विषमता समकालीन कविता को किस तरह प्रभावित करती है, कविता के कलात्मक मूल्य के क्या मायने हैं, लेखक संगठन नए रचनाकारों के लिए किस तरह से सहयोगी हो सकते हैं।

हरीश चंद्र पांडे राजेश जोशी की कविताओं का अध्ययन करते हुए अपने आलेख में लिखते हैं, ‘राजेश जोशी के यहां हमें भिन्न भावभूमि और कलेवर की कविताएं मिलती हैं।ये हमारे समय के चरित्रों और घटनाओं की फोटोग्राफिक अनुकृतियाँ नहीं हैं, बल्कि चश्मदीद गवाह हैं।’  नीलेश रघुवंशी कहती हैं, ‘चक्रव्यूह में फंसे समय और समाज को बाहर निकालने का रास्ता दिखाती है, उनकी कविता।ये उनकी खूबी और ताकत है कि कमजोर या पीड़ित दया या भीख के पात्र नहीं, वरन अपने हिस्से और हक के लिए लड़ते हैं।’ निशांत अपने लेख में राजेश जोशी को ‘हिंदी कविता का कप्तान’ घोषित करते हैं।जितेंद्र श्रीवास्तव, मदन कश्यप, अरुण होता, विजय कुमार भारती, शशिभूषण द्विवेदी, अनिल मिश्र, मणि मोहन मेहता आदि के आलेख भी इस क्रम में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।

‘राजेश जोशी : गद्य विधाओं की दुनिया’ इस विशेषांक का अंतिम अध्याय है।इसमें राजेश जोशी के गद्य लेखन का विद्वानों द्वारा मूल्यांकन है।राकेश का ‘राजेश जोशी के नाटक’ जितना आलेख है उतना ही उनका संस्मरण।इसमें उनके एक नाटककार के रूप में उभरने, विभिन्न रंगकर्मियों से मिलने, उनसे प्रभावित होने, विभिन्न रंगमंचों से जुड़ने, भोपाल में आयोजित नाट्य समारोह में कमजोर एवं लचर नाटक को देखकर पुनः नाटक की ओर आकर्षित होने के बाद लोककथा पर आधारित ‘जादू जंगल’ जैसे नाटक का सृजन करने का जिक्र है।वैभव सिंह अपने आलेख में राजेश जोशी की पुस्तक ‘किस्सा कोताह’ का अवलोकन करते हुए यह दिखाते हैं कि किस तरह यह कृति आख्यान, गप्प, कहानी, औपन्यासिकता तथा आत्मकथा से अलग अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता है।

यह विशेषांक राजेश जोशी और उनके रचनाकर्म को समझने के लिए एक नया दृष्टिकोण तो प्रदान करता है, साथ ही वर्तमान समाज के मुखौटे को हटाकर यथार्थ से रू-ब-रू कराता है।

जिज्ञासा: आप पर ‘कविता विहान’ ने विशेषांक निकाला है।इस विशेषांक को आप किस नज़रिये से देखते हैं?

राजेश जोशी : मुझे लगता है कि इस तरह के मूल्यांकन सिर्फ पाठकों के लिए ही नहीं, रचनाकारों के लिए भी महत्वपूर्ण होते हैं।आप स्वयं को दूसरे की नज़र से देखते हैं, यह आपको अपने प्रति कुछ हद तक ऑब्जेक्टिव बनाता है।

जिज्ञासा : पहले साहित्यकारों पर दूसरे साहित्यकार पुस्तकें/संपादित संकलन निकालते थे।आज-कल यह चलन में नहीं है।इसके पीछे आप किन कारणों को देख पा रहे हैं?

राजेश जोशी : अब भी इस तरह की किताब निकल रही हैं।हाल ही में कथाकार शशांक पर और अरुण कमल पर किताबें आई हैं।

जिज्ञासा : ऐसे विशेषांक रचनात्मक साहित्य को सामने लाने की जगह व्यक्ति केंद्रित होते जा रहे हैं।इससे साहित्य में व्यक्ति पूजा नहीं बढ़ रही है क्या? कृपया अपनी राय दें!

राजेश जोशी : विधा केंद्रित अंक भी जरूरी हैं लेकिन रचनाकारों पर केंद्रित अंक भी साहित्य के लिए आवश्यक होते हैं।

जिज्ञासा : साहित्य जगत में आप ‘कवि राजेश जोशी’ के रूप में मशहूर हैं।जबकि आपकी पकड़ जितनी पद्य पर है उतनी पद्य पर भी दिखाई पड़ती है।मेरी जिज्ञासा यह है कि आप ‘कवि राजेश जोशी’ कहलाना अधिक पसंद करेंगे या फिर ‘लेखक राजेश जोशी’?

राजेश जोशी : कवि को कविता के अलावा अन्य विधाओं में भी काम करना होता है।गद्य ही कवि का निकष है।संस्कृत साहित्य में तो नाटक को कवि का निकष कहा गया है।

जिज्ञासा :वे कौन से कारक हैं जो आपको निरंतर लेखन के लिए प्रेरित करते रहे हैं।

राजेश जोशी : हर व्यक्ति अपनी आत्मिक और सृजनात्मक आवश्यकता के लिए कोई काम चुनता है और जब तक उसके लिए संभव होता है तब तक वही काम करता है।मैंने लेखन को अपनी अभिव्यक्ति के लिए चुन लिया है।जिस कला को आप चुन लेते हैं तो आपके आसपास की तमाम चीज़ें उसको प्रेरित करने लगती हैं।

पल्लव द्वारा प्रकाशित ‘बनास जनका हाल का एक अंक (अंक 51) राजेश जोशी पर केंद्रित है।इसमें वरिष्ठ आलोचकों और कवियों -अजय तिवारी, विजय कुमार, अनामिका और कुमार अंबुज के लेख हैं।राजेश जोशी के लेखन पर टिप्पणियों और उनकी प्रकाशित पुस्तकों के मूल्यांकन के साथ उनकी रचनाएं भी हैं।उनपर कई लेखकों ने बड़े मन से लिखा है।संस्मरण भी हैं।इस एकाग्र के संपादक आशीष त्रिपाठी ने अपने संपादकीय में लिखा है, ‘राजेश जोशी को पढ़ते हुए यह धारणा मजबूत होती है कि कविता सदैव जीवन और जनता के पक्ष में होती है।जीवन के पक्ष में होने के कारण वह जीवन विरोधी जन-शत्रु शक्तियों की आलोचक होती है।संभवतः इसीलिए उसे विपक्ष कहा जाता है।… वे नागार्जुन-केदार-मुक्तिबोध की परंपरा के कवि हैं जिन्होंने आलोचनात्मक विवेक के साथ सत्तातंत्र पर निरंतर आक्रामक कविताएं लिखी हैं।’ हिंदी की जनपक्षधर पत्रिका ‘बनास जन’ का राजेश जोशी पर केंद्रित यह अंक महत्वपूर्ण और पठनीय है।

राधावल्लभ त्रिपाठी संस्कृत साहित्य जगत में अपनी विशिष्ट गरिमा के साथ प्रतिष्ठित हैं।वे कवि, कथाकार, नाटककार, निबंधकार, चिंतक, आलोचक और अनुवादक के रूप में प्रतिष्ठित हैं और उन्होंने विपुल कार्य किया है।

पूर्वग्रह’ के अंक में बलराम शुक्ल, प्रवीण पंड्या तथा अजय मिश्र का राधावल्लभ त्रिपाठी से उनके रचनाकर्म पर संवाद खासतौर से आकर्षित करता है।उनपर अपने आलेखों में विजय बहादुर सिंह, नौनिहाल गौतम, बलराम शुक्ल ने बहुत सुचिंतित ढंग ले लिखा है।इस विशेष अंक में स्वयं राधावल्लभ त्रिपाठी के कई महत्वपूर्ण लेख एवं संस्कृत कविताओं के अनुवाद हैं।

विजय बहादुर सिंह कहते हैं, ‘कौन नहीं जानता राधावल्लभ जी के लेखन में परंपरा की अद्भुत ताकतों की पुनर्खोज और पुनर्रचना का ऐतिहासिक उद्यम है।निश्चय ही इसमें स्मृति की पूंजी भी लगी है, तथापि नए जीवन -सपनों का वैभव भी खूब है।पुराने को जिस ढंग से वे देखते हैं, वही तो उनकी आधुनिकता है।तथापि यह उधार की आधुनिकता नहीं है, बल्कि सच्चे अर्थों में उनकी लोकतांत्रिक उदारता है।कोई चाहे तो इसे उनकी बहुचर्चित पुस्तक ‘संस्कृत कविता की लोकधर्मी परंपरा’ में देख सकता है।’

संस्कृत के विद्वान बलराम शुक्ल का कथन है, ‘संस्कृत के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि रखते हुए भी तथा आजकल के पाश्चात्य संस्कृत के अध्येताओं द्वारा बहुश: प्रशंसित होने के बावजूद आचार्य त्रिपाठी पश्चिमी अध्येताओं के सभी सिद्धांतों को आँख मूँदकर नहीं मानते।वे अपने व्याख्यानों में बहुत सारे उदाहरणों द्वारा बार बार शेल्डन पॉलक आदि के इस मत का खंडन करते हैं कि संस्कृत में पिछली शताब्दियों से नवीन चिंतन समाप्तप्राय हो चुका है।’

अंत में रंगवीथि में आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी की छवियां और संवादोपनिषद् पर दिए गए दो व्याख्यान हैं।विशेषांक का अंत राधावल्लभ त्रिपाठी द्वारा महिलाओं की संस्कृत में लिखी कविताओं के संकलन, अनुवाद तथा टीका से होता है।

‘पूर्वग्रह’ के संपादक प्रेमशंकर शुक्ल लिखते हैं, ‘भारतीय विद्या परंपरा, चिंतन परंपरा, नवाचार की प्रवृत्ति-समझ की संस्कृति, प्रयोग का आवेग आदि का संगम हैं डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी।’ यह टिप्पणी राधावल्लभ जी के साधनापूर्ण विविधतापूर्ण जीवन को इंगित करती है।

साक्षात्कार में बलराम शुक्ल, प्रवीण पंड्या और अजय मिश्र द्वारा पूछे गए प्रश्नों की एक विस्तृत साझी सूची है जिसमें रचना के मूल, भाषा और रचनाकर्म के संबंध, हिंदी और संस्कृत दोनों में रचनात्मक लेखन करने, उनके पहले काव्य संग्रह ‘सन्धानम्’ के अलावा संस्कृत के कवियों,  अनुवाद, काव्यशास्त्र, रंगमंच आदि पर भी सामग्री हैं।इनका उत्तर आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी ने बहुत सहज होकर दिया है।

‘पूर्वग्रह’ में 14 दिसंबर, 2018 को भारत भवन में युवा समारोह के उद्घाटन के अवसर पर राधावल्लभ जी का दिया गया सारगर्भित वक्तव्य है।इसमें कालिदास के महाकाव्य ‘रघुवंश’ की कथा के प्रमुख पात्र रघु और दिलीप के जरिए नई पीढ़ी तथा पुरानी पीढ़ी के बीच सामंजस्य, परस्पर सम्मान, प्रेम भाव और आपसी सहयोग के भाव की चर्चा करते हैं।पुरानी पीढ़ी जहां नई पीढ़ी का मार्गदर्शन करने के लिए तत्पर रहती है, वहीं नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के कृतिमान को और ऊपर ले जाने का कार्य करती है।उनका एक और वक्तव्य ‘नदी की संस्कृति और संस्कृति की नदी’ शीर्षक से अंक में शामिल है।इसमें वे वेदों में नदियों के संदर्भ में ऋषियों के विचारों को उजागर करते हैं।एक स्थान पर कहते हैं, ‘ऋषियों ने अनुभव किया कि हमारा ज्ञान, हमारी भाषा नदी के किनारे रहने से जन्म ले रही है, इसलिए उन्होंने वाक् को भी सरस्वती कहा, नदी को भी सरस्वती कहा और जो ज्ञान की धारा है, उसको भी सरस्वती कहा है।’ आदिकवि वाल्मीकि के बहती हुई नदी के प्रसंग में कहे गए कथन —‘रमणीयं प्रसन्नाम्बु सन्मनुष्यमनो’ को भी उन्होंने उद्धृत किया है जिसका अर्थ है-ऐसारमणीयप्रसन्नबहताजल, जैसे संत का हृदय!

नौनिहाल गौतम ने अपने आलेख में राधावल्लभ त्रिपाठी के व्यक्ति पक्ष और कृति पक्ष का स्वतंत्र अध्ययन किया है।वे संस्कृत भाषा के परिमार्जन एवं उत्थान में राधावल्लभ त्रिपाठी के योगदान की विस्तृत चर्चा करते हैं।समूचा अंक राधावल्लभ त्रिपाठी के कृतित्व और व्यक्तित्व का दर्पण है।

जिज्ञासा: आप पर ‘पूर्वग्रह’ ने विशेषांक निकाला है।इस विशेषांक को आप किस नज़रिये से देखते हैं?

राधावल्लभ त्रिपाठी:  मेरे नज़रिये को तूल नहीं दिया जाना चाहिए, संपादक और पाठकों के दृष्टिकोण तथा प्रतिसाद को विचारणीय माना जाना चाहिए।राधावल्लभ त्रिपाठी नाम के व्यक्ति के लिए यह एक गौरव का विषय हो सकता है।इसके लिए कोई ललक मेरे मन में नहीं थी।इस अंक की योजना और संयोजन में मेरी कहीं भूमिका भी नहीं रही।संपादक प्रेमशंकर शुक्ल जी के आग्रह पर दो या तीन संभावित लेखकों के नाम भी मैंने जरूर सुझाए थे।

मेरे व्याख्यानों के लिप्यंतर शुक्ल जी ने मेरे पास भिजवाए थे, जो मैंने देख कर लौटा दिए।भारत भवन से एक बार फोटोग्राफर तस्वीरें उतारने आए, मैंने और मेरी पत्नी ने उनको अपना काम करने दिया।

प्रेमशंकर शुक्ल ने इस अंक पर काफी मेहनत की।कुछ अच्छे समीक्षकों से दो एक लेख ऐसे भी लिखवा कर जोड़े जा सकते थे, जिनमें मेरे अन्तर्विरोध और कमजोरियां बताई गई हों।मैं खुद ऐसा लेख लिख सकता हूँ, पर वह कदाचित उतना प्रामाणिक नहीं होगा।

इसके पहले पिछले 21 सालों में तीन अन्य पत्रिकाओं के मेरे ऊपर केंद्रित अंक निकले हैं।वे ज्यादातर संस्कृत साहित्य विषयक मेरे काम पर केंद्रित थे। ‘पूर्वग्रह’ का अंक इनसे कुछ अलग इसलिए रहा कि इसमें भारत भवन में दिए गए मेरे कुछ व्याख्यान लिप्यंतरित होकर आ गए।मुझे बताया गया कि अंक छपने के बाद इसकी अच्छी मांग रही, और इसे अलग से भी खरीदा और मंगवाया गया।इससे मुझे लगा कि ऐसे काम की ज़रूरत थी और अन्य रचनाकारों या विचारकों पर भी ऐसे विशेषांक निकाले जाने चाहिए।संपादक प्रेमशंकर शुक्ल ने बताया था कि इस अंक की योजना के साथ कुछ और लेखकों पर भी केंद्रित अंक निकालने की योजना पर काम चल रहा है।मैं आशा करता हूं कि वे अंक निकलेंगे।

जिज्ञासा: पहले साहित्यकारों पर दूसरे साहित्यकार पुस्तकें संपादित करते या निकालते थे।आज-कल यह चलन में नहीं है।इनके पीछे आप किन कारणों को देख पा रहे हैं?

राधावल्लभ त्रिपाठी: मुझे पता नहीं कि क्या चलन में है और क्या नहीं है।यदि यह चलन के बाहर हो गया है, तो यह साहित्य, समाज और देश का दुर्भाग्य है।चलन के बाहर होने का कारण तो यह हो  सकता है कि साहित्य को ही चलन से बाहर कर दिए जाने के घृणित प्रयास में हमारा तन्त्र लिप्त है।अभी मैंने महावीर अग्रवाल के द्वारा संपादित कृष्णा सोबती पर केंद्रित ‘सापेक्ष’ पत्रिका का काफी मोटा और परिपुष्ट अंक देखा।अनामिका पर केंद्रित ‘साखी’ का अंक भी अभी आया है।ये दोनों अच्छी पत्रिकाएं हैं, दोनों के संपादक समर्पित भाव से काम कर रहे हैं।इस समर्पण भाव और संलग्नता का होना महत्व रखता है, चलन से बाहर होना न होना नहीं।

जिज्ञासा: ऐसे विशेषांक रचनात्मक साहित्य के बदले व्यक्ति केंद्रित होते जा रहे हैं।इससे साहित्य में व्यक्ति पूजा नहीं बढ़ रही है क्या? कृपया अपनी राय दें!

राधावल्लभ त्रिपाठी: दयाकृष्ण हमारे समय के अच्छे दार्शनिकों में एक रहे हैं।वे  हम लोगों के बीच कहा करते थे कि हम लोग तारीफ करने की कला को भूलते जा रहे हैं।साहित्यशास्त्र के आचार्यों ने प्रशस्ति और चाटु को कविता का अलंकार माना।शेल्डन पोलक कहते हैं कि दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में संस्कृत और उसकी संस्कृति के एक हजार सालों तक वर्चस्व का एक कारण यह भी था कि इस भाषा और संस्कृति ने प्रशस्ति के विलक्षण मुहावरे रचे।वह प्रशस्ति उदात्त और भव्य का सृजन करती है।संस्कृत साहित्य का अध्येता होने के नाते इस भव्यता का मैं भी साक्षी हूं।आज प्रशस्ति और चाटु के अर्थापकर्ष हो गया है।दो कौड़ी के लोगों और टुच्चे नेताओं की तारीफ में धरती-आसमान के कुलाबे मिलाने से यह हुआ है।हमारे पुरखों ने प्रशस्ति और साहित्य को काव्यालंकार की ऊंचाई दी, उन्होंने विडंबन और विरोध को भी कविता के अलंकार के रूप में स्थापित किया।

राजनीति में नैतिक अध:पतन की पराकाष्ठा पर जा कर व्यक्तिपूजा और व्यक्तिनिंदा की जाती है।वे कत्ल करते जाएं, तो कुछ नहीं, हमारा ज़िक्र भी हो तो हमारे ही लोगों को न पोसाए।प्रशंसा के योग्य व्यक्ति की सराहना को साहित्य में व्यक्तिपूजा कह कर त्याज्य मानना ठीक नहीं है।

जिज्ञासा: आपने विविध विधाओं में लेखन कार्य किया है, कुछ ऐसी भी विधाएं हैं जिनमें आपने अभी तक कलम नहीं चलाई है।क्या विगत वर्षों में उस विधा में लेखन करने की कोई मंशा है?

राधावल्लभ त्रिपाठी: जिस विधा में लिखने का मन होता है या जो विधा मुझे वरती है, उसमें लिखता हूं।जिन विधाओं में नहीं लिखा, उनमें लिखने का मन होगा या वे मुझे वरेंगी, तो मैं उन्हें अपनाऊंगा।

जिज्ञासा: क्या आपको यह नहीं लगता कि संस्कृत भी पालि, प्राकृत की तरह लुप्त होती जा रही है? अगर हाँ, तो इसके पीछे आप किन कारणों को देखते हैं?

राधावल्लभ त्रिपाठी: मुझे ऐसा नहीं लगता।

जिज्ञासा: आप चूंकि एक अनुवादक भी हैं इसलिए आप से प्रश्न यह है कि एक अनुवादक को अनुवाद करने के दौरान किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?

राधावल्लभ त्रिपाठी: आचार्यों ने द्विविध प्रतिभा बताई है- कारयित्री और भावयित्री।रचनाकार में कारयित्री का होना पर्याप्त है, पर अनुवादक में कारयित्री और भावयित्री दोनों अपेक्षित हैं।दोनों प्रतिभाएं हैं, तो अनुवाद सध जाएगा।प्रतिभा के साथ व्युत्पत्ति और अभ्यास भी अपेक्षित हैं।

पत्रकारिता के इस दौर में ‘सहयोग’ जैसी साहित्यिक पत्रिका का आगमन साहित्यिक पत्रकारिता जगत का सहयोग ही है।इसका प्रवेशांक प्रगतिशील लेखन परंपरा को आगे लेकर जाने वाले कथाकार संजीव पर आधारित है।संजीव का साहित्य लेखन इतना विस्तृत है कि शायद ही कोई विमर्श या समस्या उससे अछूता हो।उनका साहित्य यथार्थ के धरातल पर है जिसमें सामाजिक शोषण से लेकर प्रकृति शोषण तक की कथा है।

लेखक के परिजनों तथा अस्सी से भी अधिक आलोचकों, विद्वानों, अध्यापकों एवं शोधार्थियों के सहयोग से 580 पृष्ठों में संजीव के व्यक्तित्व और कृतित्व पर इतना सुदृढ़ और बृहद अंक निकालना इसके संपादकों के कठिन परिश्रम एवं दृढ़ संकल्प को दर्शाता है।प्रधान संपादक शिव कुमार यादव कहते हैं- जैसे काशी और काबा, हिंदू और मुसलमान के लिए तीर्थस्थल हैं, वैसे ही संजीव की कर्मभूमि कुल्टी पूरे साहित्य जगत के लिए तीर्थस्थल बन गई है।

संजीव की शख्सियत और उनके रचना संसार को समझने एवं उसका अवलोकन करने के लिए ‘सहयोग’ के इस अंक को 6 खंडों में बांटा गया है।पहले खंड की शुरुआत में संपादक का कथन है, ‘यदि आप प्रेमचंद की जगह संजीव शब्द रखकर इन अंशों को पढ़ेंगे तो संजीव को प्रेमचंद की तरह ही पाएंगे।’ आगे संजीव के प्रसंग में नामवर सिंह और राजेंद्र यादव की बातचीत का एक अंश है।नामवर सिंह अपनी आलोचकीय दृष्टि से संजीव के कथा साहित्य का मूल्यांकन करते हुए जहाँ संजीव की कहानी ‘आरोहण’ की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हैं, वहीं ‘ब्लैक होल’ कहानी में अत्यधिक अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग की वे आलोचना करते हैं।

नामवर सिंह का संजीव के बारे में कथन है, ‘मेरी राय में संजीव का मूल्यांकन करना भारी काम है।इसे इत्मीनान से करने की जरूरत है।मेरे जहन में इनकी जिस कहानी ने गहरी छाप छोड़ी, वह थी— ‘आरोहण’।मुझे याद नहीं पहाड़ में रहने वाले किसी लेखक ने ऐसी मजबूत कहानी लिखी हो।संजीव पहाड़ के नहीं हैं।बावजूद इसके उन्होंने ऐसी अच्छी कहानी लिखी है जो किसी चमत्कार से कम नहीं है।इस कहानी में गढ़वाली भाषा की छौंक है जो उसे विशिष्ट बनाती है।’

राजेंद्र यादव संजीव को प्रेमचंद के बाद गांव-कस्बे का सबसे महत्वपूर्ण लेखक मानते हुए उन्हें शैलेश मटियानी, रेणु के साथ रखना पसंद करते हैं।इसी खंड में संजीव से निर्मला तोदी और मिथलेश कुमार यादव के लिए गए साक्षात्कार हैं।इफ्को सम्मान तथा खान श्रमिकों की दुर्दशा एवं चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में संजीव के दिए गए वक्तव्य को भी पत्रिका में स्थान दिया गया है।इसके साथ ही उनके अप्रकाशित नाटक (इक्कीसवीं सदी का जादू), रिपोर्ताज (उमरपुर दियारा), आलेख (कहानी लेखन कला), कहानी (एक मां का खत) को पत्रिका में संकलित करने से उसका वैशिष्ट्य न केवल बढ़ा है, बल्कि पाठकों के आकर्षण का केंद्र भी बन गया है।आलोचक रविभूषण लिखते हैं, ‘उनके यहां पात्रों से अधिक लेखक का श्रम है।जो इलाके कथाकारों के लिए अज्ञात और अनजान थे, उन इलाकों की उन्होंने खोज की है।कोई चाहे तो उन्हें हिंदी कथा-साहित्य का कोलंबस भी कह सकता है।’

दूसरा खंड है ‘संजीव और उपन्यास : आईने के सामने’।इस खंड में रणेंद्र और महेश दर्पण संजीव के उपन्यासों के मारफ़त आदिवासी संस्कृति, परंपरा, आंदोलन के साथ ही आदिवासी वंचना की बात करते हैं।अवधेश प्रधान, रीता सिन्हा, रोहिणी अग्रवाल, विवेक मिश्र, रामजी सिंह यादव, प्रीति सिंह, विजय भारती, रामनिहाल गुंजन, रामकुमार कृषक, एकता मंडल, प्रतिभा प्रसाद के लेख संजीव के उपन्यासों को समझने के लिए दृष्टिकोण प्रदान करते हैं।

तीसरा खंड ‘संजीव और संस्मरण : दुनिया ऐसे बनती है’ में संजीव से जुड़े हुए विभिन्न व्यक्तियों तथा विद्वानों के संस्मरणों को रखा गया है।संजीव का साहित्य तथ्यों का साहित्य है, यथार्थ का साहित्य है।और उन्हीं तथ्यों की खोज में वे विविध जगहों पर भटकते रहते हैं, विविध लोगों से मिलते रहते हैं।विभूति नारायण राय, मृत्युंजय तिवारी, मधु कांकरिया, संजय सुमति, अनवर शमीम, मार्टिन जॉन आदि के संस्मरण महत्वपूर्ण हैं।

चौथा खंड संजीव की कहानियों पर आधारित है।इसमें विशेषतः सुधीर सुमन, अरुण होता, राहुल सिंह, संजय राय, प्रेमपाल शर्मा के अलावा, कलावती कुमारी, विनय कुमार पटेल, संदीप कुमार और संयोगिता वर्मा द्वारा संजीव की कहानियों का नए परिदृश्य एवं नए दृष्टिकोण के साथ अध्ययन करते हुए मूल्यांकन किया गया है।

एक खंड में संजीव की महत्वपूर्ण और चालीस विशिष्ट कहानियों को केंद्र में रख कर विश्लेषण किया गया है।संजीव कुमार, वेंकटेश कुमार, अष्टभुजा शुक्ल, महेंद्र प्रसाद कुशवाहा, मृत्युंजय सिंह, ए. अरविंदाक्षन, पंकज मित्र, ऋतु भनोट, शशि कुमार शर्मा, मृत्युंजय पांडेय, गंगा सहाय मीणा, नीरज खरे का विवेचनात्मक अध्ययन नई सामाजिक समस्याओं पर रोशनी डालता है।

पत्रिका का अंतिम खंड ‘संजीव और पत्र : एक दुनिया समानांतर’ के रूप में है।इसमें संजीव द्वारा और संजीव को लिखे गए पत्रों को संकलित किया गया है।राजेंद्र यादव, ओमा शर्मा और बड़े भाई रामजीवन का पत्र संजीव के नाम है तो शिवमूर्ति, ओमा शर्मा, मदन कश्यप, पत्नी और भतीजे के नाम संजीव के पत्र हैं।संजीव खुद अपने बारे में लिखते हैं, ‘मेरी रचना मेरे लिए शोध की प्रक्रिया से गुजरना है और लिखना मेरे लिए एक सतत प्रक्रिया है,—प्रश्न भी है, समाधान भी, यातना भी है और यातना से उबरने का माध्यम भी, निपट एकांत गुफा भी है और पछाड़े खाती झंझा में उतरने का साधन भी, हर पल तिल-तिल कर मरना भी है और मौत के दायरों के पार जाने का महामंत्र भी।’

संपादक और कवि निशांत संजीव पर लिखने का पहला हक स्वयं संजीव को देते हैं।दूसरे स्थान पर संजीव की माता श्री, तीसरे स्थान पर संजीव की पत्नी और चौथे स्थान पर गौतम सान्याल को रखा गया है।

अंक की एक ख़ास उपलब्धि है, कुल्टी के उस घर की तस्वीर है, जहां संजीव ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण चौंतीस साल बिताए।

जिज्ञासा: आप पर ‘सहयोग’ ने विशेषांक निकाला है।इस विशेषांक को आप किस नज़रिये से देखते हैं?

संजीव:  सहयोग ने यह विशेषांक निकाला है, इसमें नज़रिया उनका होगा मेरा नहीं।मुझे लोग जिस ढंग से देखना चाहते हैं, परखना चाहते हैं इसपर उनका अधिकार है।हाँ, एक बात अवश्य है कि लोग मुझसे पूछ लेते तो कुछ बातें और साफ हो पातीं।

जिज्ञासा: पहले साहित्यकारों पर दूसरे साहित्यकार पुस्तकें- संपादित संकलन निकालते थे।आज-कल यह चलन में नहीं हैं।इनके पीछे आप किन कारणों को देख पा रहे हैं?

संजीव: बाहर की दुनिया में क्या हो रहा है, इसकी जानकारी मुझे कम है।

जिज्ञासा: ऐसे विशेषांक रचनात्मक साहित्य के बदले व्यक्ति केंद्रित होते जा रहे हैं।इससे साहित्य में व्यक्ति पूजा नहीं बढ़ रही है?

संजीव: व्यक्ति विशेष पर निकला हुआ विशेषांक या निकाला गया विशेषांक व्यक्ति केंद्रित होगा ही।साहित्य में व्यक्ति पूजा तभी बढ़ती है जब वह मात्र प्रशंसात्मक हो, वरना विश्लेषणात्मक होना उसके लिए आवश्यक है।एक तो दिक्कत यह भी है कि लोग रुष्ट हो जाते हैं।बहुत पहले की बात है। ‘हंस’ का आरंभिक काल था, उदय प्रकाश पर कोई कमेंट था।वह सह नहीं सके।अब ठकुर सुहाती किस हद तक की जाए।यह तो भद्दी चीज है न।

जिज्ञासा: हिंदी में निर्मल वर्मा और कृष्ण बलदेव वैद भी अपनी कहानियों में इतने अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते जितना संजीव ने ‘ब्लैक होल’ में किया है।यहां तक कि अंग्रेजी के लंबे मुहावरे भी हैं।इससे तो बेहतर यही होता कि इसे हिंदी के बजाय अंग्रेजी में लिखा जाता।नामवर सिंह के इस कथन पर आप क्या कहना चाहेंगे?

संजीव: कहानियों पर, परिवेश पर, पात्रों पर मैं जितनी मेहनत करता हूँ और सचेत रहता हूँ, उतना शायद ही कोई रहता हो।अब निर्मल वर्मा या कृष्ण बलदेव वैद की बात छोड़िए, ‘ब्लैक होल’ में जो पात्र हैं वे कैसी भाषा बोलेंगे! काश! नामवर जी या अन्य कोई इस पर गौर करते तो उनकी शिकायत न रहती।मेरा पात्र भोजपुरी या आंचलिक भाषा बोलेगा या अंग्रेजी या कोई अन्य भाषा, यह कृत्रिम रूप से नहीं बनाई गई है।आप किसी भी मध्यमवर्गीय परिवार को देखिए, वहां लगभग ऐसी भाषा बोलने के लिए लोग बाध्य हैं; ताकि उनका बच्चा धाराप्रवाह अंग्रेजी बोले और वे खुद अंग्रेजी भावभूमि को अपने परिवार में स्थापित कर सकें।मुझे पता नहीं कि मेरी आलोचना करने वाले कहानी के पात्र और परिवेश की भाषा भावभंगिमा पर कितना काम करते हैं।मैं पूरी कहानी को पाठक के अंदर उतार देना चाहता हूँ।प्रेमचंद की भाषा कैसी, रेणु की भाषा कैसी और पात्रों के अनुसार है या नहीं, यह गहन विवेचन का विषय है।मेरे पात्र बांग्ला भी बोलते हैं, अंगिका भी बोलते हैं, बज्जिका भी बोलते हैं।ब्रज और अवधी भी बोलते हैं, मराठी तक बोलते हैं।जैसी भाषा की जरूरत हुई वैसी भाषा बोलते हैं।अब कोई पात्र ‘लड़की’ न कहकर मुलगी कहता है तो क्यों सरदर्द होता है, वह तो सहज भाव है।कहानी लिखने के पहले मैं पर्याप्त वर्कआउट (फील्डवर्क) करता हूँ।घरों तक में अंग्रेजी बोली जाती है।कहानी की डिमांड है।नामवर सिंह कहानियों की गहराई में नहीं जा पाते, यह कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है।इसपर बनारस के सारनाथ में एक लंबी बहस हो चुकी है।

जिज्ञासा: संजीव के यहां संघर्ष करते हुए लोग तो हैं लेकिन प्यार करते लोग नहीं हैं।राजेंद्र यादव के इस कथन पर अपनी राय दीजिए?

संजीव: मैंने राजेंद्र जी को इसका उत्तर दे दिया है।हमारी कहानी में प्यार भी है और संघर्ष भी।मैंने राजेंद्र जी से कुछ कहानियों के नाम पूछे, उन्हें पता ही नहीं था।जैसे ‘हो’ जनजाति पर लिखी गई कहानी ‘जीवन के पार’।

जिज्ञासा: आपकी वे कौन सी रचनाएं होंगी जिसे आप पुनः सृजित करना चाहेंगे?

संजीव: ऐसी तो बहुत सारी रचनाएं हैं।अभी मैंने ‘किशनगढ़ के अहेरी’ को फिर से लिखा ‘अहेर’।ऐसी बहुत सी चीज़ें हैं कैसे बताऊं? काश! जिंदगी फिर से दी जाती और रचनाएं फिर से लिखी जातीं तो फिर बहुत सारे परिवर्तन संभव थे।

जिज्ञासा: क्या आपकी साहित्यिक यात्रा में साहित्यिक मित्रों के अलावा साहित्यिक शत्रु भी रहे हैं।अगर हाँ, तो उसका आपके लेखन पर क्या प्रभाव पड़ा?

संजीव: शत्रु और मित्र का होना बहुत स्वाभाविक है।कुछ तो ईर्ष्या और जलन के मारे और कुछ अन्य कारणों से…।कोई कहानी विशेष, पात्र विशेष, परिवेश विशेष पर अलग-अलग बात करे तो उसे समझा सकता हूँ, लेकिन सामान्य तौर पर उतने बड़े रचना फलक में हर चीज़ खोलकर नहीं बताई जा सकती।उसके लिए आमने-सामने बैठना बहुत जरूरी होता है।

साहित्य की दुनिया में जब कोई नया लेखक अपना पहला कदम रखता है तो उसका संघर्ष उस कदम को जमाने की होती है।वह कदम जमा लेता है तो उसके मन में जो आकांक्षा जन्म लेती है, वह एक संपादक बनने की होती है, किसी पत्रिका के प्रकाशन की होती है।कमर मेवाड़ी ऐसे ही एक वरिष्ठ लेखक और संपादक रहे हैं, जिन्होंने कई दशकों तक ‘संबोधन’ लघु पत्रिका निकाली।वे 80 की उम्र कभी पार कर चुके हैं।

महावीर प्रसाद द्विवेदी, भैरवप्रसाद गुप्त, मार्कंडेय, अमरकांत, शैलेश मटियानी, उपेंद्रनाथ अश्क, रवींद्र कालिया आदि ऐसे कई नाम हैं जिन्होंने पत्रिकाओं का संपादन एवं प्रकाशन किया है।इनमें से कुछ एक को ही संपादक के रूप में उतनी सफलता प्राप्त हुई, जितनी एक लेखक के रूप में प्राप्त थी।

राजस्थान के राजसमंद में जन्मे कमर मेवाड़ी की प्रसिद्धि के दो आधार हैं।पहला उनका लेखन और दूसरा ‘संबोधन’ का संपादन एवं प्रकाशन।उनकी सादगी, धैर्य, भावुकता, मित्रता जैसे गुण उनके व्यक्तित्व के आभूषण हैं।ऐसे व्यक्तित्व पर केंद्रित करके माधव नागदा ने ‘कमर मेवाड़ी रचना संचयनका संपादन किया।यह हिंदी साहित्य के प्रेमी पाठकों, लघु पत्रिकाओं से जुड़े लेखकों के लिए अद्भुत भेंट है।भावना प्रकाशन की यह पुस्तक महत्व की है।

इस संकलन में क़मर मेवाड़ी के दो आत्मकथ्य हैं- पहला ‘एक मामूली आदमी का बयान’ और दूसरा ‘संबोधन का सहयात्री : मैं’।पहले आत्मकथ्य में क़मर मेवाड़ी उस घटना का जिक्र करते हैं जब वे सातवीं के छात्र थे और एक पति द्वारा अपनी पत्नी को पीटने का दृश्य देखकर उन्होंने उसका विरोध किया था।इसी घटना ने उन्हें लेखन की ओर मोड़ा।वे अपने आत्मकथ्य में लिखते हैं, ‘मैंने तो सीआईडी बनने का सपना संजोया था, पर अर्द्धरात्रि को उस महिला की दर्दनाक चीख़ ने मेरे उस सपने को तोड़ कर मेरे हाथ में कलम थमा दी।’ वह उन बातों को भी बताना नहीं भूलते, जब संपूर्ण समाज उनका विरोधी हो गया था, तब साहित्यिक परिवार मजबूती से उनके साथ खड़ा रहा।

दूसरे आत्मकथ्य में लेखक एवं संपादक के तौर पर उनके संघर्ष और सफलताओं की कहानी है।अपना और अपने परिवार का पेट काट कर ‘संबोधन’ निकालते रहना उस संघर्ष का एक छोटा-सा अंश है।इस संघर्ष में डटे रहने की शक्ति उन्हें श्रीकांत वर्मा के इस कथन से मिलती रही है, ‘यदि चोरी करके भी लघु-पत्रिका निकालनी पड़े तो निकाली जानी चाहिए।’

संकलन के ‘व्यक्तित्व की खुशबू’ खंड में कृष्ण कुमार ‘आशु’, नंद चतुर्वेदी, सूरज पालीवाल, मधुसूदन पांड्या से लेकर रूपसिंह चंदेल, महेंद्र भानावत, स्वयंप्रकाश और बृजेंद्र रेही जैसे विद्वानों के लेख हैं।नंद चतुर्वेदी का कमर मेवाड़ी के बारे में कथन है, ‘‘संबोधन’ इस देश की धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक विचार शक्ति को फैलाने और मजबूत करने की प्रतिज्ञा से बंधी है।यह कमर मेवाड़ी की जिद है।मैंने बार-बार उनसे पूछा है कि ‘संबोधन’ के प्रकाशन पर कितना खर्च आता है? इसका उत्तर कमर कभी नहीं देते।राहुल की प्रसिद्ध पंक्ति है-‘भागो मत, दुनिया को बदलो’।पता नहीं दुनिया बदली या नहीं, उस तरह जैसी और जितनी कमर चाहते थे लेकिन वे भागे नहीं।’

इस संकलन में संस्मरण भी हैं, जिनमें कई किस्से हैं।इनमें कमर मेवाड़ी के व्यक्तित्व की खुशबू है।यह खुशबू आत्मीयता, मित्रता, संवेदनशीलता, भाईचारे  के रूप में न केवल राजस्थान, बल्कि पूरे भारत की फ़िज़ाओं में फैली हुई है।इसमें कविताओं के साथ क़मर मेवाड़ी का मणि मधुकर, मधुसूदन पाण्ड्या,  स्वयंप्रकाश, निरंजननाथ आचार्य, राजेंद्र यादव तथा अपने पिता पर लिखे गए संस्मरणों को भी पुस्तक में जगह दी गई है।

वेद व्यास अपने आलेख में उनके उपन्यास के बारे में लिखते हैं, ‘‘वह एक’ उपन्यास एक ऐसे कलमजीवी संपादक-लेखक की आपबीती है जो अपने ही उठाए और लगाए पौधों के ज़हर को लंबे समय तक भोगता है, लेकिन शालीनता या ऊंचापन नहीं खोता।’ क़मर मेवाड़ी ने छोटी-छोटी कविताओं के अलावा लगभग तीन सौ पंक्तियों की लंबी कविता ‘आख़िर कब तक’ लिखी है।विजेंद्र अनिल ‘युवा आक्रोश की कविता’ तथा पंकज मिश्र ‘क्या यह सच नहीं है’ लेख के जरिए कवि के साफगोई का अभिनंदन करते हैं।

एक लेखक और संपादक होने के कारण क़मर मेवाड़ी के जीवन में बहुत से लेखकों और पाठकों का आगमन हुआ, उनसे मित्रता हुई, अपनत्व का भाव पनपा।कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, हरीश भादानी, स्वयंप्रकाश, काशीनाथ सिंह, विष्णुचंद्र शर्मा, मणि मधुकर, सावित्री परमार आदि ऐसे कई लोग हैं।उनके संस्मरण ‘यादें’ के विषय बने।उनके पारिवारिक पृष्ठभूमि को दुर्गाप्रसाद अग्रवाल, प्रेमकुमार, रामनिहाल गुंजन और हुसैनी बोहरा ने अपने आलेख में बखूबी दिखाया है।

‘विचारों का ताप’ में नरेंद्र निर्मल, माधव नागदा और बिहारी पाठक की कमर मेवाड़ी से हुई बातचीत का अंश है।एक अध्याय है- ‘आधी सदी का सफ़रनामा’।इसके अंतर्गत एक उप-अध्याय है ‘साहित्यिक पत्रकारिता की दुनिया में : ‘संबोधन’ जिसमें ‘संबोधन’ पत्रिका के संबंध में विविध साहित्यिक पत्रिकाओं की प्रशंसापूर्ण और उत्साहवर्धक छोटी-छोटी टिप्पणियां एवं लेख हैं।

इस संकलन की व्यापकता में ‘सृजन कुंज’ त्रैमासिक पत्रिका में कमर मेवाड़ी पर आए विशेषांक का विशेष योगदान है।एक लघु पत्रिका आंदोलन के एक समर्पित योद्धा और लेखक पर केंद्रित यह संकलन प्रेरणा देता है कि ऐसे दूसरे संपादकों-लेखकों की सुधि ली जाए।

जिज्ञासा: आपने लेखन की शुरुआत किस विधा में की?

कमर मेवाड़ी: लेखन तो बहुत बाद की बात है मुझे पढ़ने का शौक उर्दू की प्रसिद्ध पत्रिका ‘शमा’ से हुआ।बाद में उर्दू की ही पत्रिकाएं  ‘बीसवीं सदी’ ‘जमालिस्तान’ और ‘शब खून’ का मैं सदस्य बन गया। ‘जमालिस्तान’ में उन दिनों मंटो के अफसाने और नाविल छपा करते थे।मंटो साहित्य ने मुझे पढ़ने के लिए अत्यधिक प्रभावित किया।

जिज्ञासा: वह कौन सी रचना है जिसे आपने सर्वप्रथम लिखा?

कमर मेवाड़ी: मैंने आरंभ में अशआर लिखे।मेरी एक कॉपी में ६७ अशआर लिखे हुए हैं।पर वे कहीं प्रकाशित नहीं हुए।कॉपी में एक स्थान पर 11-12-58 की तारीख लिखी हुई है।इनके अलावा चार अन्य कॉपियों में कच्ची-पक्की ढेरों रचनाएं मैंने लिखीं।उनमें से एक कहानी ‘ये सिनेमा प्रेमी’ 8 मार्च 1959 के ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में  प्रकाशित हुई।उसके बाद एक बाल कथा का भी ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में ही प्रकाशन हुआ।

जिज्ञासा: मेरी समझ में आपको उर्दू तथा अन्य भाषाओं का भी ज्ञान है, लेकिन लेखन आपने केवल हिंदी में ही किया, इसके पीछे क्या कारण है?

कमर मेवाड़ी: आपका प्रश्न सही है।मैं हिंदी, उर्दू, राजस्थानी और अंग्रेजी पढ़-लिख लेता हूं।लेकिन मुझे हिंदी में लिखकर जो आनंद प्राप्त होता है वैसा आनंद किसी अन्य भाषा से नहीं मिलता।दरअसल हिंदी हमारे परिवार की मातृभाषा है।

जिज्ञासा: लेखन को ही क्यों चुना आपने?

कमर मेवाड़ी: चुनने से कुछ नहीं होता है अमित भाई! समय और परिस्थितियां आदमी को कुछ का कुछ बना देती हैं।मैं भी कुछ बनना चाहता था, लेकिन बन गया शिक्षक।फिर कुछ ऐसी घटनाएं घटीं कि हाथ ने कलम को पकड़ लिया और इतनी मज़बूती से पकड़ा कि बीस साल की उम्र में ही पहली कहानी एक प्रसिद्ध पत्रिका में छप कर आ गई।उम्र के नौवें पड़ाव में कलम को आज भी मैंने मजबूती से संभाल रखा है।

जिज्ञासा: आपने मात्र एक ही उपन्यास का सृजन किया, उसके बाद क्या आपने कोई दूसरा  उपन्यास लिखने का प्रयास नहीं किया? अगर नहीं किया तो क्यों?

कमर मेवाड़ी: भाई, मैं ज़िंदगी में तीन-तीन मोर्चों पर युद्धरत रहा हूं।मैं शिक्षक था।मेरा प्रथम  दायित्व छात्रों को शिक्षित और संस्कारवान बनाना था।दूसरा अपने परिवार की ज़िम्मेदारियों को पूरा करना और तीसरा दायित्व साहित्यिक पत्रिका ‘संबोधन’ को ज़िंदा रखना था।मुझे इतना समय नहीं मिला कि मैं और उपन्यास लिखता।

जिज्ञासा : आपने कई दशकों तक ‘संबोधन’ का प्रकाशन किया।उसके कई महत्वपूर्ण विशेषांक निकाले, क्या कारण है कि आज पत्रिका बंद है?

कमर मेवाड़ी:‘संबोधन’ आज भी अपने लेखकों और पाठकों के दिलों में जिंदा है।मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि जहां करोड़पतियों और अरबपतियों ने रंगीन और चिकने पेपर पर छपने वाली अपनी पत्रिकाओं को लाभ-हानि का हिसाब लगाने के बाद बंद कर दिया।वहीं वर्षों तक ‘संबोधन’ प्रकाशित होता रहा।वरिष्ठ तथा नए से नए लेखकों और हिंदी संसार का ‘संबोधन’ को जो स्नेह और प्यार मिला, उसे मैं कभी भूल नहीं सकता।

नरेंद्र पुंडरीक ‘माटी’ के प्रधान संपादक हैं।प्रगतिशील चेतना की इस संवाहक पत्रिका का अंक -15अशोक वाजपेयी पर केंद्रित है।इसका अतिथि संपादन अरुण देव ने किया है।इस एकाग्र में अशोक वाजपेयी की कुछ कविताएं और टिप्पणियां हैं।उनपर शमीम हनफी, विजय कुमार, सुबोध सरकार, मैनेजर पांडेय, नरेश सक्सेना, उदयन वाजपेयी, ओम निश्चल जैसे लेखकों के लेखों के अलावा समीक्षाएं और संस्मरण भी हैं।नरेंद्र पुंडरीक ने अपने संपादकीय में मीडिया की सामान्य हालत के बारे में लिखा है, ‘देश की मीडिया ने सत्ता के खेल में अपने को शामिल करके एक दिशाहीन, नकारा, हताश, विध्वंसकारी भीड़ का निर्माण किया है।’ इस परिदृश्य में अतिथि संपादक अरुण देव ने लिखा है, ‘स्वायत्तता और बहुवचनात्मकता अशोक वाजपेयी के लेखन के बीज शब्द हैं।इधर इनके अर्थ बहुत प्रासंगिक हो उठे हैं।भारत ही नहीं विश्व के अनेक क्षेत्रों में जो राजनीतिक संघर्ष चल रहे हैं, उसके मूल में ये शब्द विद्यमान हैं।’ अशोक वाजपेयी की 6 दशकों की काव्य यात्रा और उनके जीवन के 80 साल पूरे करने पर यह एकाग्र बहुत महत्वपूर्ण है।

‘आलोचना सिर्फ रचना का नहीं, उसके माध्यम से मनुष्य का ही साक्षात्कार है।और अगर रचना सामाजिक यथार्थ को अपना उपजीव्य बताती है तो उसकी प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और वस्तुपरकता की जांच किए बिना यह साक्षात्कार सार्थक बल्कि पूरा भी नहीं हो सकता।हमारी समूची संस्कृति के स्वास्थ्य के लिए यह अनिवार्य है कि आलोचना रचना में सामाजिक यथार्थ को लेकर व्याप्त सरलीकरणों, रूमानियत और राजनैतिक भोलेपन और नैतिक संवेदनहीनता के विरुद्ध लगातार संघर्ष करे ताकि साहित्य में अनुभव, आकलन और समझ राजनीति, विज्ञान, पत्रकारिता, अर्थशास्त्र जैसे अनुशासनों के मुकाबले अव्यस्क या अविश्वसनीय न माने जाएं, जैसा कि इन दिनों अक्सर माना जा रहा है।’  -अशोक वाजपेयी

समीक्षित संकलन :

(1) सोच विचार (काशीनाथ सिंह पर केंद्रित) : अतिथि संपादक : आशीष त्रिपाठी, वाराणसी। (2) कविता विहान (राजेश जोशी पर केंद्रित) : संपादक : ज्ञान प्रकाश चौबे, लखनऊ। (3) पूर्वग्रह (राधावल्लभ त्रिपाठी पर केंद्रित) : संपादक : प्रेमशंकर शुक्ल, भोपाल। (4) सहयोग (संजीव पर केंद्रित) : संपादक : निशांत, पश्चिम वर्धमान। (5) कमर मेवाड़ी रचना संचयन:  संपादन : माधव नागदा, दिल्ली।

अमित साव, लक्ष्मीपुर माठ, कांटा पुकुर, बर्द्धवान -713101 पोस्ट : बर्द्धवान, जिला : पूर्व बर्द्धवान (पश्चिम बंगाल) मो. 7365013507