दलित साहित्य के अग्रणी लेखकों में एक नाम मोहनदास नैमिशराय है।पहली दलित आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ के लेखक।भारतीय दलित आंदोलन का इतिहास (चार खंड) एक दस्तावेजी काम है, जिस पर उनके अनुभव की छाप है।५ वर्षों तक भारत सरकार के डॉ अंबेडकर प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के सदस्य।वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में भी आमंत्रित किया जा चुका है।भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में अध्येता के रूप में शोधपूर्ण कार्य।  ‘बयान’ नाम की पत्रिका के संपादन से भी जुड़े रहे हैं।हाल में ‘एक सौ दलित आत्मकथाएं’ पुस्तक प्रकाशित हुई है।दलित साहित्य में बाल साहित्य को केंद्र में रखकर जरूरी पुस्तकें रच रहे हैं।कुल ३० से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित।

प्रदीप कुमार ठाकुर

दिल्ली के केंद्रीय हिंदी निदेशालय (शिक्षा मंत्रालय) में मूल्यांकक के पद पर कार्यरत।दो किताबें प्रकाशित।

प्रश्न – आपने एक बार कहा है कि ‘दलितों तथा गैर-दलितों के बीच संवाद स्थापित हुआ है, अंतरजातीय विवाहों की शुरुआत हुई है, विभिन्न आंदोलनों में परस्पर सहभागिता बढ़ी है और एक-दूसरे के सुख-दुख में वे पहले से अधिक शामिल होने लगे हैं।’ (वागर्थ, अप्रैल २०२१) किंतु समकालीन परिदृश्य को देखें तो दलितों के ऊपर आज भी अत्याचार थम नहीं रहे हैं।इस बारे में आपका क्या कहना है?

मोहनदास नैमिशराय – ऐसा है, यह बात मैंने एक अलग संदर्भ में कही थी।बहुत पहले से दलित और सवर्ण जाति के बुद्धिजीवी वर्गों के बीच सामंजस्य की रूपरेखाएँ बननी शुरू हो गई थीं।किंतु अभी भी गांव में रहने वाला एक वर्ग ऐसा है जो कम पढ़ा-लिखा है।वह आर्थिक रूप से थोड़ा-बहुत संपन्न भी है।किंतु अभी भी उनके मन में दलितों के प्रति द्वेष-भाव विद्यमान है।खुराफाती किस्म के ऐसे लोग घोर जातिवादी हैं।ऐसे लोग पहले भी थे और अभी भी हैं।परंतु लोग ऐसे भी हैं जो पढ़े-लिखे हैं और मिलनसार प्रवृत्ति के हैं।वे आपस में बातचीत करते हैं।जहां तक दलितों-गैर दलितों के बीच संवाद की बात है, आपको जानकारी दूं कि पिछली शताब्दी में ‘नवभारत टाइम्स’ में इसी मुद्दे पर मेरा एक आर्टिकल (दलितों और गैर-दलितों के बीच संवाद होना चाहिए) छपा था।बात यह है कि पहले से ही इसे लेकर एक स्वस्थ मानसिकता बनती आ रही है।आज हालात अलग हैं।राजनीतिक और धार्मिक रूप से आज बहुत सारी चीजें बदल रही हैं।बहुत सारे लोग धर्म के नाम पर बहक रहे हैं, उनमें एक तरह की हमलावर प्रवृत्ति और आक्रामकता विकसित हो रही है।उसका इलाज दलित और सवर्णों को मिल जुलकर करना चाहिए।कुल मिलाकर मैंने यह बात सकारात्मक दृष्टि से कही थी।अच्छी बातों पर बातचीत होनी चाहिए, ताकि समाज में एक स्वस्थ मानसिकता जन्म ले।

प्रश्न – ‘नया भारत’ क्या दलित आकांक्षाओं के भारत की दिशा में बढ़ रहा है?

मोहनदास नैमिशराय – बहुत हद तक बढ़ रहा है।विभिन्न जातियों और धर्मों के कई लोगों में दलितों के प्रति उदासीनता पहले भी थी, आज भी है।दलित समाज के भीतर शुरू से ही आगे बढ़ने की भावना रही है।इससे लोगों के मन में बाबा साहेब डॉ अंबेडकर, ज्योतिराव फुले, शाहूजी महाराज आदि के सपनों को साकार करने की महत्वाकांक्षा रही है।उसी के आधार पर वे पढ़-लिख रहे हैं, जूझ रहे हैं और आगे बढ़ रहे हैं।भारत के बढ़ने से मेरा आशय यह है कि भारत बहुजन समाज का भी है, केवल सवर्णों का भारत थोड़े ही है।बहुजन समाज की बहुत बड़ी आबादी भारत में निवास करती है।यह भारत बाबा साहेब की आकांक्षाओं के अनुरूप आगे बढ़ रहा है।सौ प्रतिशत बढ़ रहा है।बहुत सारे लोग पढ़-लिख रहे हैं।नई पीढ़ी के बच्चे सक्रिय हैं।सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर लगातार शोध हो रहे हैं।बाबा साहेब के बारे में लोग अधिक से अधिक जानने का प्रयास भी कर रहे हैं।महिलाएं भी आगे बढ़ रही हैं।इन सबका परिणाम है कि स्थितियां बदल रही हैं।जब स्थितियां बदलेंगी तो लोगों का मिजाज बदलेगा।चाहे वह लोगों का बदले, देश का बदले या समाज का।महापुरुषों से प्रेरणा लेते हुए धीमी गति से नहीं, बल्कि तेजी के साथ देश आगे बढ़ रहा है।हालांकि कुछ दुखद स्थितियों का निर्माण भी हो रहा है, लेकिन हमारे देश में सकारात्मक और सुखद तस्वीरें भी हैं।

प्रश्न – कहा जाता है कि दलित साहित्य में पुराने मुद्दों को लेकर घिसा-पिटा लेखन हो रहा है।क्या आप ऐसा मानते हैं?

मोहनदास नैमिशराय – एक सीमा तक आपकी बात सही है।लेकिन पूरे देश में क्या लिखा जा रहा है? क्या पढ़ा जा रहा है? इसलिए यह कहना ठीक नहीं है।हर व्यक्ति की अपनी सीमा होती है।मेरी भी अपनी सीमा है।सैकड़ों नहीं, हजारों पत्र-पत्रिकाएं छप रही हैं।कलकत्ता में क्या छप रहा है, कश्मीर में क्या छप रहा है, मुंबई में क्या छप रहा है, कहा नहीं जा सकता।कुल मिलाकर कहना है कि नई धार वाला साहित्य आगे जा रहा है।कुछ लोगों में दुहराव देखने को मिल रहा है।वहीं कुछ लोग स्वस्थ मानसिकता के तहत साहित्य-सृजन कर रहे हैं, जिससे दलितों और सवर्ण जाति के लेखकों के बीच सामंजस्य बन रहा है।आलोचना के क्षेत्र में भी बहुत सारी अच्छी किताबें लिखी गईं हैं।डॉ तेज सिंह, कंवल भारती, डॉ एन सिंह, डॉ धर्मवीर ने आलोचना की बहुत अच्छी किताबें लिखी हैं।नए लेखक भी लिख रहे हैं।

प्रश्न – क्या दलित लेखकों और संगठनों में अपने समुदाय की भीतरी संरचना पर विचार करने के बजाय जाति के नाम पर अलग-अलग खेमे बनाने का ट्रेंड नजर आ रहा है?

मोहनदास नैमिशराय – इसकी शुरुआत बहुत पहले से हो चुकी थी।मेरा मानना है कि इसका कारण है-दूसरे के प्रति ईर्ष्या की भावना, ईर्ष्यालु व्यक्ति का उसके मन के अनुरूप सही स्थान न मिलना।यह पूरे समाज का कोई दोष नहीं है।इस बात पर स्वयं विचार करना चाहिए था।लेकिन इसका दोष दूसरे लेखकों को देना, उनकी आलोचना करना गलत है।यह ट्रेंड पिछली शताब्दी में बना।बहुत सारे लोगों ने इसे बढ़ावा दिया।उन्होंने मुझपर भी आरोप लगाया।दो-तीन महीने पहले कुछ लोगों ने मुझपर भी जातिवादी होने का आरोप लगाया।किंतु मैं उनका नाम नहीं लूंगा।जातियां केवल ऐसे लोगों के लिए सुरक्षा कवच हैं।वे जब कुछ कहते हैं तो उनकी अपनी दलित जाति के लोग ही उनका समर्थन करते हैं और वे दूसरी दलित जाति वालों की आलोचना करते हैं।यह गलत परंपरा है।इस परंपरा को दूर करना चाहिए।

प्रश्न – क्या आपको लगता है कि दलित साहित्य की प्राथमिकता और मार्क्सवादी विचारधारा के लक्ष्य कहीं न कहीं आकर एक बिंदु पर मिलते हैं?

मोहनदास नैमिशराय – अभी यह कम है।अंबेडकरवाद और मार्क्सवाद अब काफी नजदीक आ रहे हैं।पिछली शताब्दी में इसपर बहुत चर्चा होती थी, बहुत गर्मागर्मी भी थी।अभी यह कम हो गया है।हमें एक—दूसरे की बातें सुननी चाहिए।सबको अपनी बात रखने का हक है।इस संदर्भ में दलितों का यह कहना है कि जो भी बड़ा कवि या लेखक हुआ, जैसे पंजाब के एक बड़े कवि हुए हैं पाश, इसके अलावा गोरख पांडे भी रहे हैं, किंतु उनकी रचनाओं में दलित चरित्र उस तरह से उभरकर नहीं आते।यह एक जरूरी सवाल है।चालीस साल तक जो मार्क्सवादी या वामपंथी विचार से जुड़ा हुआ है, ऐसा लेखक या कवि भी जाति की भीतरी तह में नहीं जाता और न जाति की संरचना पर विचार करता है।वह दलितों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ कहीं आवाज नहीं उठाता।इसीलिए कि वह जाति में विश्वास नहीं करता।वर्ग में करता है।दलित-उत्पीड़न की जो घटनाएं बिहार, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड में हुईं, उनके विरुद्ध कुछ लोगों ने आवाज उठाई।किंतु ज्यादातर लोग मौन रहे।जहां तक कविताओं की बात है, जितने भी मार्क्सवादी कवि रहे हैं उन्होंने जाति को लेकर बहुत कम लिखा है।नागार्जुन ने  जाति को लेकर लिखा है।किंतु एक जगह वे फूलन पर लिखते हुए उसे दुर्गा का स्वरूप बताने लगते हैं, जिसको दलित स्वीकार नहीं करते।यहां सवर्ण लेखकों की जो परंपरागत मानसिकता है, वह आड़े आती है।जैसे भिखारी ठाकुर, जो कि सशक्त नाटककार थे और दलित समाज से थे; किंतु वे भी दलितों की बात को सीधे-सीधे किसी नाटक में नहीं उठा पाए।बहुत सारे मार्क्सवादियों ने जाति के सवाल को आरंभ से ही चर्चा का विषय बनने नहीं दिया।उनका कहना था कि वे जाति में विश्वास नहीं करते।वे मानें या न मानें किंतु जाति एक सचाई है।उसे स्वीकार करना ही पड़ेगा।किंतु नई शताब्दी में उनकी आंखें खुलने लगी हैं।वे भी काफी नजदीक आने लगे हैं।अब वे बाबा साहेब को थोड़ा मानने लगे हैं।कामरेड डांगे और अंबेडकर में इस बारे में पहले बातें होती थीं।बाद में यह प्रवृत्ति बदल गई।अब चीजें बदल रही हैं।असल बात तो यह है कि मार्क्सवादियों-लेनिनवादियों का जनाधार लगातार सिमट रहा है।उनके विचार भी लुप्त हो रहे हैं।सर्वहारा वर्ग के जो लीडर है वे तेजी के साथ गायब होते जा रहे हैं।यह वस्तुस्थिति है।इसे समझना होगा।वहीं बाबा साहेब की विचारधारा का प्रभाव दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है।शायद इसलिए भी वे दलितों के करीब आ रहे हैं।इसे समझना होगा।

प्रश्न – मैनेजर पांडे और बजरंग बिहारी तिवारी ने आलोचना के क्षेत्र में क्या इस दूरी (वामपंथी-दलित) को कम करने का प्रयास किया है?

महोनदास नैमिशराय – मैनेजर पांडे ने पिछले कुछ वर्षों से दलित साहित्य को महत्व देना शुरू किया है।वे काफी देर से दलितों के करीब आए।उनके साथ मेरे अच्छे संबंध रहे हैं।उनके साथ मेरी कई मुलाकातें हुई थीं।राजेंद्र यादव के साथ जे.एन.यू. में हुई थी।किंतु उन्होंने देर से लिखना शुरू किया।दूसरा नाम आपने बजरंग बिहारी तिवारी का बताया।उनके बारे में मैं यही कहूंगा कि वे दलित साहित्य में घुसपैठ कर एक अलग राजनीति खेल रहे हैं।बहुत सारे लोगों को इसका एहसास हो भी चुका है, बहुत लोगों को नहीं भी हुआ है।वे बातें कर रहे हैं, किंतु अपने तरीके से कर रहे हैं।अपने को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से कह रहे हैं।कहीं कोई दलित उत्पीड़न की कोई घटना घटती है तो वे ध्यान देते हैं और वहां जाते भी हैं।यह अच्छी बात है।किंतु जो नहीं जाता, तो उसकी वे आलोचना क्यों करते हैं? सबके साथ एक जैसी सुविधा नहीं होती है।एक बार उन्होंने ‘कथादेश’ पत्रिका के लिए मेरा साक्षात्कार लिया था।उन्होंने मुझसे कहा कि आपने इस साक्षात्कार में बहुत सारी कड़वी बातें कह दी हैं, इन्हें हटाना चाहता हूँ।मैंने कहा कि आपकी मर्जी, आप जो करें।अभी ‘कथादेश’ का जो दलित साहित्य विशेषांक आया है, उसे आप देख लीजिए।उससे उनकी संकुचित मानसिकता और जातिवादी मानसिकता का पता चल जाएगा।तब आप जान जाएंगे कि किन लोगों को छापा है और क्यों छापा है? और किन लोगों को नहीं छापा है और क्यों नहीं छापा है? जैसा कि मैंने पहले ही कहा था कि तमाम मार्क्सवादियों की राजनीति हाशिये पर चली गई है।इसीलिए वे भी चले गए हैं।बजरंग बिहारी तिवारी उनमें से एक हैं।अब वे दलितों के बीच ‘घुसपैठ’ कर रहे हैं।यह शब्द मैं जान-बूझकर इस्तेमाल कर रहा हूँ।वे अब जहां भी जाएं, जो भी लिखें।वे अपनी सुविधा से लिख रहे हैं।यह सब लिखकर वे दलितों का सरदार बनने की कोशिश कर रहे हैं और एहसान जतला रहे हैं।कुछ अच्छी चीजें भी उन्होंने लिखी हैं, किंतु अपनी राजनीति के तहत।वे यह भी कहलवाते हैं कि बजरंग ने जो किया, वह दलित नहीं कर सकते।जो काम दलित समाज के लोगों ने किया है उसके सामने उनका लेखन नाममात्र का है।यह सीधी घुसपैठ है।उन्होंने दलित समाज के दो-चार लोगों को, कुछ स्त्रियों को अपनी तरफ आकर्षित कर इस तरह की मुहिम चला रखी है।यह समझना जरूरी है।इस बारे में मुझे यही कहना है।

प्रश्न – नरेंद्र पुंडरीक अपनी पुस्तक ‘साहित्य: सवर्ण या दलित’ में कहते हैं कि ‘प्रतिरोध के स्वर राजनीतिक आंदोलन को गति देते हैं, उसके प्रति सामान्य जन के जुड़ावों को बल देते हैं।लेकिन साहित्य के सृजन में अपनी रचनात्मक क्षमता को संयमन न कर पाने के कारण, भाषा एवं अभिव्यक्ति की सहजता का निर्वाह न कर पाने के कारण प्रतिकार व प्रतिरोध का स्वर ही प्रमुख हो जाता है।’ क्या आपको लगता है कि दलित साहित्य में प्रतिरोध का स्वर ही प्रमुख हो गया है? और क्या उसकी स्वीकार्यता में इधर कमी आई है?

मोहनदास नैमिशराय – साहित्य-सृजन के तहत प्रतिकार और प्रतिरोध एक प्रक्रिया है।यह स्वाभाविक है।कुल मिलाकर यह कहना चाहता हूँ कि बहुत कुछ सकारात्मक लिखा जा रहा है।बहुत सारा साहित्य पर्यावरण पर, बुजुर्गों पर, महिलाओं  की परेशानियों पर लिखा जा रहा है।पिछले बीस-पच्चीस सालों में दलित साहित्य का विस्तार हुआ है।हर क्षेत्र में दलित साहित्यकारों ने दस्तक दी है।अतएव ऐसा नहीं कह सकते कि सब नकारात्मक साहित्य है।सकारात्मक साहित्य भी लगातार लिखा जा रहा है।देश और साहित्य की भलाई के लिए और सामाज को जोड़ने के लिए दलित साहित्यकार लगातार लिख रहे हैं।अब उनकी अपनी एक नई केंद्रीय धारा बन रही है।देश ही नहीं, विदेशों में भी दलित साहित्य लिखा जा रहा है।हम इसका स्वागत करते हैं।सवर्णों को भी इसका स्वागत करना चाहिए।

प्रश्न – ‘हिंदी साहित्य में श्रेष्ठ रचनाकारों की कतार में कोई दलित रचनाकार अपनी रचनात्मकता के बल पर ही शामिल होता है न कि दलित होने की वजह से। ‘दलित होना त्रासदी है, पहचान नहीं’ इस धारणा से आप कहां तक सहमत हैं?

मोहनदास नैमिशराय – मैं यह बात मानता हूँ।कोई किसी भी जाति का व्यक्ति हो, जब तक उसके अंदर लिखने की क्षमता नहीं होगी, उसमें आवेग, जिज्ञासा, इच्छाशक्ति, रचनाधर्मिता और लिखने का जुनून नहीं होगा और सबसे अधिक किसी समस्या विशेष से जुड़ने की अभिलाषा नहीं होगी, तब तक कोई लेखक या कवि बेहतर रचना नहीं दे सकता।मेरा ऐसा मानना है।जाति या धर्म विशेष का आशय केवल इतना है कि उनकी जो शब्दावली है, उनका जो परिवेश है, घर है, मुहल्ला है; उसका चित्रण वे ही ज्यादा सुंदर तरीके से कर सकते हैं और यथार्थ के अधिक करीब से कर सकते हैं।लेकिन इसके अलावा बहुत सारी चीजें होती हैं।केवल यथार्थ का वर्णन करना ही दलित साहित्य नहीं है।इसके अलावा दलित साहित्यकार को बहुत सारी चीजें कागजों पर उतारनी होती हैं।इस मामले में मैं उनका समर्थन करता हूँ।दलित साहित्यकारों को बहुत सारी नई चीजों की तरफ बढ़ना चाहिए।समय बदल रहा है, परिस्थितियां बदल रही हैं और दलित और सवर्ण जाति के बीच में कुछ मेल-मिलाप की भावना भी आ रही है।ये जो तमाम परिस्थितियां हैं, दलित साहित्यकारों को उनसे सबक लेना चाहिए।उन्हें बेहतर तरीके से अपनी रचनाधर्मिता को सामाजिक सरोकारों के साथ आगे बढ़ाना चाहिए।

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