युवा आलोचक।नयी परंपरा की खोजसद्यः प्रकाशित आलोचना पुस्तक।इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापन।

जेसिंता केरकेट्टा का हाल में प्रकाशित तीसरा कविता संग्रह संग्रह है ‘ईश्वर और बाज़ार’।ईश्वर के नाम पर एक बाज़ार सजाया जा रहा है।मंदिर में प्रवेश करने से पहले व्यक्ति को बाजार में प्रवेश करना होगा।अब बाजार से होकर ही हम मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं।इस संग्रह की पहली ही कविता ‘ईश्वर और बाज़ार’ के माध्यम से जसिंता केरकेट्टा उस विचारधारा पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती हैं जो भूखी, असुरक्षित और बेरोजगार है, ‘आदमी के लिए/ईश्वर तक पहुंचने का रास्ता/बाज़ार से होकर क्यों जाता है।?’

इस संग्रह में कई छोटी कविताएं हैं जो ‘देखन में छोटे लगै पर घाव करे गंभीर’ को चरितार्थ करती हैं। ‘इंतजार’ शीर्षक कविता में है, ‘वे हमारे सभ्य होने के इंतजार में हैं/और हम उनके मनुष्य होने के।’ गौरतलब है कि यह कविता आदिवासियों के पूरे दर्द को बयां कर देती है।सभ्य बनना और बनाना अच्छी बात है, पर मनुष्य बनना उससे भी अच्छी और बड़ी बात है।हम बिना मनुष्य बने किसी को सभ्य नहीं बना सकते।

आज मनुष्य जैसे-जैसे सभ्य होता जा रहा है, वैसे-वैसे हिंसक, स्वार्थी और बर्बर भी होता चला जा रहा है।यह गुण आदिवासी संस्कृति और सभ्यता के भीतर भी प्रवेश कर रहा है।इसका प्रतिकार करते हुए ‘सभ्य होते आदिवासी’ शीर्षक कविता में जसिंता केरकेट्टा कहती हैं, ‘उनका सीखना और शिक्षित होना जारी है/और जारी है सभ्य होते हुए/अपने आदमीपन से/एक कदम और नीचे गिरने का सिलसिला।’

इस कविता संग्रह में 21वीं सदी के तथाकथित राष्ट्रवाद को अपने आदिवासी दृष्टिकोण के साथ विषय बनाया गया है।राष्ट्रवाद के नाम पर धर्म की जो बारूद लोगों की मानसिक चेतना में भरी जा रही है, वह मनुष्यता को बर्बाद करने में संकोच नहीं करती।इसके अलावा जाति, संप्रदाय, वर्ग आदि की कट्टरता भी अपने भाई को दुश्मन बना देती है।इसलिए ‘राष्ट्रवाद’ शीर्षक कविता में कवयित्री लिखती है, ‘जब मेरा पड़ोसी/मेरे ख़ून का प्यासा हो गया/मैं समझ गया/राष्ट्रवाद आ गया।’

जसिंता की कविताएं आदिवासियों की समस्याओं को बहुत बुनियादी स्तर पर हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं।वे सोचने पर मजबूर करती हैं कि अपनी जड़ और जमीन से बेदखल होकर कोई कैसे मुख्यधारा में शामिल हो सकता है। ‘क्यों काटे जाते हैं पेड़’ शीर्षक कविता में कवयित्री पूछती है, ‘वे पेड़ों को मुख्यधारा में लाना चाहते हैं/पर अपनी जमीन से उखड़कर पेड़/ क्या मुख्यधारा में कभी आते हैं? बस इसलिए काट दिए जाते हैं।’ यही हाल आदिवासियों का है।

आज विकास की अवधारणा इतनी प्रदूषित हो चुकी है कि विनाश को ही विकास के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।हर कवि इस विकास से व्यथित है, ‘सच बोलती सड़कें’ शीर्षक कविता में  यह यथार्थ है, ‘नई सड़कें बताती हैं/विकास के नाम पर ही/ उखाड़ी जा सकती हैं जड़ें/पेड़ और आदमी दोनों की।’ जसिंता केरकेट्टा आदिवासियों के दर्द को बहुत करीब से देखती हैं, महसूस करती हैं, और अपनी कविताओं में रूपांतरित करती हैं।इसका एक प्रमुख कारण है – स्वानुभूति की प्रामाणिकता।इनकी कविताएं स्वानुभूति से समानुभूति की ओर अग्रसर हैं।

‘सेना का रुख़ किधर है?’ शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियां देखिए- ‘युद्ध का दौर ख़त्म हो गया/ अब सीमा की सेना का रुख उधर है/मेरा स्कूल-कॉलेज, गांव घर, जंगल-पहाड़ जिधर है।’ यह है विकास की आक्रामकता।इतना ही नहीं, इस दौर में मनुष्य की कीमत इतनी गिर गई कि मनुष्य से अधिक पशुओं को महत्व दिया जाए जाने लगा।शायद इसीलिए ‘शिकार जारी है’ शीर्षक कविता में है, ‘आज अभयारण में हिरण/और शहर में गाय/ दोनों ही सुरक्षित हैं/और दोनों ही जगहों पर/ आदमियों का शिकार जारी है।’

मीडिया कभी इतना अधिक प्रदूषित नहीं हुआ था, जितना इस सदी में हो रहा है।मीडिया पहले पर्दे के पीछे स्थित सत्य को जनता के सामने लाता था, अब असत्य को सत्य बनाकर लोक के सामने प्रस्तुत कर रहा है।कुछेक पत्रों, पत्रकारों एवं चैनलों को छोड़ दिया जाए तो मीडिया सत्ता का नग्न पक्षधर है और मनुष्य-विरोधी गतिविधियों में संलिप्त है।जसिंता केरकेट्टा के लिए आज का मीडिया एक जंगली कुत्ते में परिवर्तित हो चुका है, जिसे सिर्फ खून की प्यास है। ‘अखबार’ शीर्षक कविता में कवयित्री लिखती है, ‘समाज का आईना अखबार कहते थे जिसे/अब वह नहीं रहा/किसी खोजी कुत्ते में तब्दील वह/अब सिर्फ उस आदमी की गंध पहचानता है/ जिसकी गंध भात में सानकर खिलाई गई हो उसे।’

इस संग्रह में एक तरफ ईश्वर के विविध रूपों की झांकी है तो दूसरी तरफ तलवार में तब्दील होते आदमी की तस्वीर है।एक तरफ आत्मा की आवाज है तो दूसरी तरफ शातिर आदमी की भयावह शक्ति की ओर संकेत है।एक तरफ ईश्वर है तो दूसरी तरफ पहाड़।जसिंता केरकेट्टा की कविताएं एक ओर सत्ता की तानाशाही से दो-दो हाथ करती हैं तो दूसरी ओर वे आदिवासी संस्कृति के बीच हो रहे बदलाव को अभिव्यक्त करने में सक्षम हैं।आज प्रदूषित होती सभ्यता की आंच न केवल प्राकृतिक संसाधनों- जल, जंगल, जमीन, पहाड़ और मानवीय मूल्यों को नेस्तनाबूद कर रही है बल्कि आदिवासियों के सांस्कृतिक बोध को भी विकृत कर रही है।ऐसी चीजों के प्रति सजगता के साथ स्त्री चेतना की दृष्टि से भी यह कविता संग्रह महत्वपूर्ण है।जसिंता केरकेट्टा स्त्री चेतना की अलख ही नहीं जगाती हैं, इसके लिए हर स्त्री को आगे आने के लिए उद्वेलित भी करती हैं। ‘हर लड़की को आत्मकथा लिखनी चाहिए’ शीर्षक कविता इसका प्रमाण है।

जसिंता केरकेट्टा की कविताएं भाषा में चित्रकारी करते हुए आगे बढ़ती हैं।सहजता और सरलता इनकी प्रमुख विशेषताएं हैं।इनके संवेदनात्मक चित्र पाठक के अंतःकरण पर अपना प्रभाव अंकित कर देते हैं।

जिज्ञासा: आदिवासी संस्कृति किस तरह से बदल रही है?

जसिंता केरेकेट्टा : जब तक कथित मुख्यधारा से दूर जंगल-पहाड़ों के निकट आदिवासी हैं, उनकी एक अलग दुनिया है।खूंटकटी, भूईहरी जमीन जो पुरखों की मेहनत से पीढ़ियों को मिली है, उसके कारण भी लोग एक दूसरे के निकट रहे हैं।जमीन, जंगल, पहाड़, पेड़, नदी के चारों तरफ उनके नेग-नियम घूमते हैं।प्रकृति के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना ही उनका पर्व-त्यौहार है।आज भी ऐसे आदिवासी हैं जो कथित सभ्य समाज से दूर हैं या बहुत कम या जरूरी भर इनसे उनका संपर्क है, वे स्टेट, सरकार, पैसा के कॉन्सेप्ट को बहुत अधिक समझ नहीं पाते।उनकी दुनिया सचमुच अलग है।हर चीज को देखने का उनके पास एक सरल और सच्चा नजरिया है।

लेकिन कथित सभ्य समाज में आदिवासियों को शामिल करने के बहाने जब आदिवासी इलाकों में कथित मुख्यधारा का प्रवेश हुआ, तब उनके हाथ से उनकी जमीन छीनी गई, जंगल जिन्हें वे घर समझते हैं, वहां से वे बेदखल किए गए।तब उनके भीतर बहुत तरह के भ्रम पैदा हुए।लोग दिग्भ्रमित हुए।अस्तित्व के खत्म होने का भय पैदा हुआ।ऐसे में जिन्होंने भी उन्हें उनके अस्तित्व को बचाने का जरा-सा भी भरोसा दिलाया, वे काफ़ी संख्या में उनकी तरफ मुड़े।मसलन ईसाईयत की तरफ।डॉक्टर रामदयाल मुंडा कहते थे कि इस देश में आदिवासियों के योगदान से ही आर्यों का अनार्यकरण हुआ है।उनके आस्था के प्रतीक आदिवासियों के इलाकों से उठाए गए हैं।इस समानता के कारण काफी आदिवासी हिंदू धर्म को अपना समझने लगे और कुछ अन्य धर्मों की शरण में भी गए।मगर संगठित धर्म और उनके द्वारा आदिवासियों के भीतर ईश्वर की स्थापना, आदिवासियों की संस्कृति, उनके जीवन-मूल्यों से पूरी तरह से अलग है।वे बहुत हद तक विरोधाभासी हैं।उन्हें लेकर आदिवासियों के भीतर भी आपस में संघर्ष पैदा हुए हैं।

वेरियर एल्विन देख पाते थे कि जो संगठित धर्म और कथित सभ्य समाज आदिवासी इलाकों में विकास के नाम पर घुसना चाहते हैं, वे अंततः बहुत तरीके से आदिवासियों के भीतर मौजूद सुंदर जीवन मूल्यों को खत्म करेंगे।बहुत तरह की कुरीतियां लेकर आएंगे और कथित सभ्य समाज में मिलाने की कीमत उनसे वसूलेंगे।इसलिए आदिवासी समाज के भीतर खुद को स्थापित करने से पहले कथित सभ्य समाज को ज्यादा मानवीय होना सीखना पड़ेगा।मगर ठक्कर बापा सहित कई अन्य उनकी बातों को यह कहकर खारिज करते थे कि वे आदिवासियों के विकास के पक्ष में कम और उनके आइसोलेशन के पक्ष में अधिक हैं।

यह सच है कि शिक्षा, विकास जैसी चीजों की परिभाषा, उनका ढांचा सबकुछ आदिवासी नजरिए से बहुत अलग हो सकता है, यह नजरिया पेड़ की तरह है जो नीचे से ऊपर बढ़ता है।शिक्षा ऐसी है जो इंसान को प्रकृति और जीवन के निकट लाए।जीविका के साधनों पर कुछ लोगों के वर्चस्व की जगह, बांटने और एक दूसरे की परवाह करने की संस्कृति बढ़े।पर वर्चस्ववादी संस्कृति में व्यवस्था ऊपर से नीचे थोपी जाती है।वहां हर मामले में शासन की संस्कृति होती है।

आज आदिवासी शिक्षित हुए हैं, पर भ्रष्ट होना उन्होंने सीखा है इस कथित सभ्य समाज से।कुछ आदिवासी समुदायों में सामूहिकता, सहजीविता की बातें भर होती हैं, लेकिन उनकी जीवन शैली से वे सारी बातें गायब हो रही हैं।वे सभ्य होने की कीमत चुका रहे हैं।वे बदलाव चाहते हैं, पर वर्चस्ववादी संस्कृति, सत्ता और व्यवस्था के भीतर रहते हुए, उनके जीवन मूल्यों पर चलते हुए उन्हें रास्ते नहीं दिखाई पड़ते।इसलिए कह सकते हैं कि बहुत से आदिवासी समुदाय बदल रहे हैं।

ऐसे समय में जब तक इस समाज के भीतर से आत्ममूल्यांकन न हो, आदिवासी समाज के भीतर अपने जीवन-मूल्यों की स्थापना के लिए काम न हो, व्यापक जागरण न आए और कथित सभ्य समाज के भीतर भी आदिवासी नजरिए से चीजों को देखने की दृष्टि उत्पन्न न हो तो भविष्य में उनके बचने के रास्ते कठिन हैं।

जिज्ञासा: आदिवासी संस्कृति में पहाड़ों का क्या महत्व है?

जसिंता केरकेट्टा : आदिवासी समाज में पहाड़, सिर्फ पहाड़ नहीं है।वह उनके लिए पूज्य है।आदिवासी पहाड़ों की मौजूदगी के लिए हमेशा उनके कृतज्ञ रहते हैं।उनका मानना है कि पुरखों की आत्माएं जो मृत्यु के बाद भी प्रकृति में रहती हैं, उनमें से कुछ पुरखों की आत्माएं या कहें शक्तियां पहाड़ों पर निवास करती हैं।वे पहरेदार की तरह खड़ी रहती हैं और बुरी ऊर्जा या शक्तियों से उनकी रक्षा करती हैं।वे बारिश लाने में मदद करती हैं।इस तरह वे धरती, जंगल, जमीन सबकी मदद करती हैं।जीवन बचाए रखती हैं।

पहाड़ की भूमिका आदिवासी समाज के लिए बहुत अधिक है।इसलिए वे पूजे जाते हैं।आदिवासी पहाड़ों में भी आत्मा का वास समझते हैं।इसलिए उन्हें लगता है जब पहाड़ों की जान जाए तो उनके प्राण की रक्षा करना उनकी जिम्मेदारी है।वे उन्हें बचाने के लिए लड़ते हैं।कथित सभ्य समाज के निकट जी रहे, उनकी जीवन शैली अपना चुके और आदिवासी जीवन दर्शन के सुंदर एहसासों को भूल चुके लोगों के लिए संभवतः पहाड़ों से ऐसा संबंध अब नहीं हो, लेकिन आज भी पहाड़ों के निकट जी रहे लोग, पहाड़ों पर जीते आदिवासी वस्तुतः पहाड़ों पर खनन, पहाड़ों के खात्मे के प्रयास के खिलाफ़ पूरी ताकत लगाकर लड़ते हैं।वे अपनी जान भी देने से नहीं हिचकते हैं।आदिवासियों का यह जुड़ाव, प्रेम बहुत आत्मिक है।यह हिसाब-किताब लगाने वाले, पहाड़ को सिर्फ संसाधन की तरह देखने वाले कथित सभ्य समाज की समझ से परे है।

जिज्ञासा: सत्ता और आदिवासियों के बीच क्या संबंध है?

जसिंता केरकेट्टा : स्टेट, सरकार, पैसा आदि के कॉन्सेप्ट को सुदूर इलाकों में रहने वाले बहुत से आदिवासी आज भी नहीं समझ पाते हैं।स्टेट, सेना, सत्ता के आदिवासी प्रारंभ से प्रतिरोधी रहे हैं।देश में अंग्रेजों के खिलाफ़ सबसे पहले आदिवासियों ने विद्रोह शुरू किया था।आज भी ये लोग उन शक्तियों के खिलाफ़ लड़ते हैं जो स्टेट, सत्ता जमीन को संसाधन समझती है।इसलिए शुरुआत में जमींदारों के सहारे आदिवासियों से कर वसूलना शुरू हुआ था।

आदिवासी अपनी जमीन को मां की तरह देखते हैं।उन्हें लगता है कि मां का सौदा वे क्यों करें? उसकी कोख से उनका अस्तित्व जुड़ा हुआ है।इसलिए जब जमीन, जंगल, पहाड़ों पर हमले होते हैं तब वे हिंसक प्रतिरोध करने से भी नहीं कतराते।ऐसे संघर्ष बहुत से आदिवासी इलाकों में आज भी लोग कर रहे हैं।राजनीति अपने अलग-अलग तरीके से उन्हें घेरने, उन्हें अपने मूल्यों से समझौता करने आदि का लालच देकर फुसलाती है।तब भी बहुत इलाके संघर्ष से पीछे हटते नहीं हैं।

आदिवासी स्टेट, सत्ता, सेना के आ जाने के बाद भी इसी एक बात पर जी रहे हैं कि जब इनमें से कोई नहीं था तब उनके पुरखों ने जमीन तैयार की, अगली पीढ़ियों को दिया।वे उसी जमीन के उत्तराधिकारी हैं।वे सरकार की नहीं अपने पुरखों की जमीन पर अपने हक के लिए लड़ते हैं।लेकिन सरकार सब चीजों पर अपना अधिकार समझती है।आदिवासी कहते हैं, सरकार को तो जनता बनाती है।वह लोगों के लिए है, उनके हक-अधिकार बचाने, देने के लिए है।फिर वह आदिवासियों से उनका सबकुछ क्यों छीनना चाहती हैं? आदिवासियों के मूल जीवन दर्शन और सत्ता के नेचर में बहुत फर्क है।ये विरोधाभासी हैं, वैसे ही जैसे संगठित धर्म और आदिवासियों के विश्वास में विरोधाभास है।इसलिए हर काल में सत्ता और आदिवासियों के बीच संघर्ष बना रहता है।

पर लोग कब तक संघर्ष करेंगे? पैसा, सत्ता, सेना की अपनी ताक़त है।इतनी बड़ी शक्ति के आगे बहुत से दिग्भ्रमित आदिवासी दम तोड़ देते हैं।वे अपना धर्म, मूल्य बदलने को मजबूर हैं।लेकिन तब भी आदिवासी जानते हैं कि ऐसी सत्ता स़िर्फ आदिवासियों को ही नहीं कथित सभ्य समाज के साधारण लोगों को भी बर्बाद कर रही है।जब तक सभी लोग एक साथ यह महसूस नहीं कर सकेंगे, कोई आदमी अपनी पीढ़ी के लिए इस सुंदर धरती नहीं बचा सकेगा।एक दिन कुछ मुट्ठी भर शक्तियों के हाथों सबकुछ ख़त्म होगा।विध्वंस भी इन्हीं शक्तियों के भीतर है।

पत्थलगड़ी’ युवा कवि अनुज लुगुन का कविता संग्रह है।इसमें कुछ छोटी कविताएं हैं तो कुछ लंबी।कुछ विचार प्रधान हैं तो कुछ विमर्श प्रधान और कुछ मौन तोड़ने के लिए विकल कर देती हैं।

अनुज लुगुन अपने संग्रह की भूमिका में कहते हैं, ‘पत्थलगड़ी आदिवासियों का सांस्कृतिक विधान है।जन्म से मृत्यु तक मुंडा आदिवासी पत्थरों को सहेज कर रखते हैं।उनकी मान्यता है कि पत्थर भी जीवित होते हैं, समय के साथ उनकी उम्र बढ़ती है।उनका जीवित रहना आदिवासियों के जीवन का बचे रहना है।वे पत्थरों को नहलाते हैं, तेल लगाते हैं।चावल के गुण्डी (आटा) से उसे सम्मान देते हैं।उनके लिए जतरा (त्योहार) का आयोजन करते हैं, मादल बजाते हैं और गीत गाते हैं।पत्थर भी इस भावना को महसूस करते हैं और वे ताउम्र आदिवासियों के साथ खड़े रहते हैं।वे गवाह हैं आदिवासी जीवन और इतिहास के।अनादिकाल से आदिवासी जीवन और इतिहास से गहरे जुड़े होने के कारण पत्थर प्रतिरोध और स्वायत्तता के प्रतीक बन गए हैं।दोनों एक दूसरे से बिछ़ुड नहीं सकते।

इस संग्रह की पहली कविता है ‘अभी और रात बाक़ी है दोस्त’।इसे पढ़कर हम अपने समय के अंधेरेपन को समझ सकते हैं।हम केवल अंधेरे को ही अंधेरा न समझें।प्रकाश के भीतर स्थित छल-छद्मों  के अंधेरे को मिटाए बगैर सत्य की कल्पना करना मुश्किल है।कवि कहता है, ‘यह जो रात है विदा की/आखिरी नहीं है/चांदनी और साज़िशों की पदचाप से भरी हुई/इससे गुजरे बिना/अधूरे होंगे मिलन के किस्से।’

‘आधी रात की कविता’ को पढ़ते हुए हम आज की देशभक्ति को समझ सकते हैं, ‘जंगलों को रौंदता हुए/उनके हाथों में पोथियाँ होती हैं/मैदानों को बंजर बनाते हुए/उनके पैरों में/किसी पड़ोसी देश का/झंडा अपमानित होता है/और जब वे मैदानों, मुहल्लों से/चौकचौराहों की ओर बढ़ जाते हैं/उनकी जुबान पर/देशभक्ति की वर्तनी इतराती है।’ यही हमारे समय का राष्ट्रवाद है जिसे लेकर इस युग की राजनीति आगे बढ़ रही है।यह कितना सार्थक या निरर्थक है, यह सोचने का विषय है।

‘बहुत कम बच रहा है ऑक्सीजन’ शीर्षक कविता प्रकृति और मनुष्यता में हो रहे क्षरण की तस्वीर है।प्राकृतिक प्रदूषण मनुष्य के लिए खतरनाक है, पर राजनीतिक और मानसिक प्रदूषण उससे कम खतरनाक नहीं है।यह मनुष्य को चलते-फिरते मानव बम में तब्दील कर देता है।उसके विवेक को नष्ट कर देता है और उसे हिंसक पशु में बदल देता है।इस  कविता की कुछ पंक्तियां देखिए, ‘बहुत कम बच रहा है ऑक्सीजन/इसका मतलब स़िर्फ यह नहीं कि जंगल कट रहे हैं/या ग्रीन हाउस का उत्सर्जन बढ़ गया है/इसे इस तरह भी समझा जाना चाहिए कि/ किसी एक आदमी/ या, किसी एक रंग की जातीयता/ और राष्ट्रीयता की बात/ अचानक लाखों लोगों को मौत की नींद सुला सकती है।

‘अल्पसंख्यक’ शीर्षक कविता अल्पसंख्यक की नई परिभाषा गढ़ती है।दरअसल आज जिस तरह से झूठ का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है, सच अल्पसंख्यक होता चला जा रहा है।अब सच बोलना अल्पसंख्यक होना होगा।कविता की पंक्तियां हैं, ‘अल्पसंख्यक होना आदिवासी होना नहीं होगा/अल्पसंख्यक होना मुसलमान होना नहीं होगा/अल्पसंख्यक होना हिंदू होना नहीं होगा/जो सच को सच की तरह बोलेंगे, वे अल्पसंख्यक होंगे/जो सवाल करने वाले होंगे वे अल्पसंख्यक होंगे/अल्पसंख्यक होना साहस की बात होगी।’

अनुज लुगुन की कविताएं मजदूरों, आदिवासियों, दलितों और पीड़ितों के पक्ष में खड़ी हैं।वे इन समुदायों के उन अधिकारों के लिए जद्दोजहद करती हैं जो हमारे संविधान ने प्रदान किए हैं।सत्ता, विज्ञापन और अश्लील न्यूज़ चैनलों के प्रचार के समानांतर भूख की भट्ठी में दहकते मजदूरों की चिंता कोई नहीं करता।न संसद और न धर्म।विकास की बलिवेदी पर चढ़ मजदूरों की स्थिति कैसी है, इसे ‘मजदूरों की मौत का सदमा लाल किले को नहीं होता’ शीर्षक कविता से समझा जा सकता है।कुछ पंक्तियां देखिए, ‘मजदूरों की मौत का सदमा लालकिले को नहीं होता/न ही संसद की दीवारों पर सूराख़ होता है/धर्म के सफेद पन्ने भी नम नहीं होते/ईश्वर की ऐय्याशी फिर भी कम नहीं होती/केवल कुछ दिनों के लिए/सरकारी शवदाह गृहों से धुआं उठता रहता है।

सार्थक और शांतिपूर्ण प्रतिरोध की आवाज को दबाने के लिए सत्ताएं क्या करती हैं, ‘जब भी शासकों को डर लगता है/वे गणतंत्र के ऊपर मंडरा रहे खतरों की बात करते हैं/और किसी भी गांव में सीआरपीएफ कैंप लगवा देते हैं’। इस संग्रह की कविताएं कृतज्ञता के भाव से भरी हुई हैं।इनमें बहेलिए के खेल को उद्घाटित करने की अद्भुत क्षमता है।

एक तरफ चूल्हों की दुनिया है तो दूसरी तरफ मुख्यधारा के लोगों की मानसिकता का चित्रण।इन कविताओं में एक अलग रंग है।ये मनुष्य को स्वायत्तता प्रदान करने तथा उसकी पहचान दिलाने के लिए अनवरत संघर्ष करती हैं।इनमें धरती के रंगों की तरह विविधता है, स्वाभाविकता है, स्वच्छता है और वर्चस्ववादी शक्तियों का प्रतिकार हर जगह मौजूद है।कई कविताएं गद्यात्मक हो गई हैं, फिर भी उनमें कविता के तत्व मौजूद हैं।

जिज्ञासा: पत्थलगड़ी आंदोलन क्या है?

अनुल लुगुन: पत्थलगड़ी आदिवासी संस्कृति की बुनियाद है।खासकर मुंडा आदिवासियों में पत्थलगड़ी का विशेष महत्व है।जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार में पत्थलगड़ी का महत्व है।इसे ‘दिरी बिद्’ और ‘ससन दिरी’ भी कहते हैं।इससे संबंधित ‘जतरा’ त्योहार मनाया जाता है।इस त्योहार में पूर्वजों द्वारा गाड़े गए पत्थरों को नहलाया जाता है, उनपर तेल लगाया जाता है और चावल की गुंडी डाला जाता है।यह सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा रिवाज है।

औपनिवेशिक समय में जब अंग्रेजों ने सेटेलमेंट कानून द्वारा आदिवासी जमीनों को अदालती प्रक्रिया द्वारा हड़पना शुरू किया, तब उन्होंने पूर्वजों द्वारा गाड़े गए पत्थरों को ही अपने मालिकाना दावे के रूप में प्रस्तुत किया।इस तरह पत्थलगड़ी औपनिवेशिक वर्चस्व के प्रतिरोध का प्रतीक बना।आजादी के बाद, खासकर नव-उदारवादी दौर में यह आंतरिक औपनिवेशिक प्रक्रियाओं के प्रतिरोध का प्रतीक बना और पत्थलगड़ी आंदोलन शुरू हुआ।

जिज्ञासा : आज आदिवासी जीवन के प्रमुख खतरे क्या हैं?

अनुज लुगुन: आज आदिवासी समाज का अस्तित्व ही संकटग्रस्त है।संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद उसकी ‘स्वायत्तता का अपहरण’ कर लिया गया है।आदिवासी स्वायत्तता का अपहरण उसके अस्तित्व संकट का सबसे बड़ा कारण है।दुखद यह है कि कथित मुख्यधारा का नागरिक समाज आदिवासी समाज की स्वायत्तता के प्रति न केवल संवेदनहीन है, बल्कि वह राज्य द्वारा प्रायोजित हिंसा के प्रति मौन भी है।

समीक्षित पुस्तकें :
(1) ईश्वर और बाजार : जसिंता केरकेट्टा (कविता संग्रह), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण :2022
(2) पत्थलगड़ी : अनुज लुगुन (कविता संग्रह), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण :2021

हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभागइलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज211002 मो.9454653490