प्रबुद्ध लेखक, रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी।

ऐसे समय में जब सोच की शोचनीय हालत हो और हर स्तर पर सोच के महा अकाल के दृश्य उपस्थित हों तथा बिना सोचे-समझे जीने की लत लग गई हो, विजय कुमार और नरेश चंद्रकर की संपादित किताब जन बुद्धिजीवी एडवर्ड सईद का जीवन और रचनासंसार को पढ़ना एक डूबते जहाज को किनारा दिख जाने जैसा भरोसा है।यह किताब इस दृष्टि से अनमोल है कि अशोचनीय अवस्था में सोचने के लिए आंखें खोलती है।इसे पढ़ते हुए आप पैसिव पाठक नहीं रह जाते, सक्रिय और सचेत होता हुआ एक नागरिक होते हैं।संवाद प्रकाशन हिंदी का एक ऐसा विलक्षण प्रकाशन है जो ऐसी किताबें छाप कर समय की सर्जरी में सहायक बनता है।

सचाई यह है कि इस्लाम की कोई एक ‘मोनोलिथिक’ या एकरूप छवि नहीं बनाई जा सकती और न उसे मात्र अरब संसार के संदर्भों से जाना जा सकता है।दुनिया भर में इस्लाम की जो अभिव्यक्ति रही है, वह अरब परिप्रेक्ष्य से बहुत अलग तरह की भी रही है।

हिंदी में विजय कुमार वह शख्सियत हैं, जिन्होंने अपनी कविताएं, आलोचना और अनुवाद से अपनी दृष्टिसंपन्न पहचान बनाई है।उन्होंने पाकिस्तानी शायर अफजाल अहमद, समकालीन अफ्रीकी साहित्य, जर्मन चिंतक वाल्टर बेंजामिन तक हिंदी पाठकों की पहुंच बनाई है।नरेश चंद्रकर ने उनके साथ मिलकर एक महत्वपूर्ण काम किया है।

विजय कुमार ने इस किताब की प्रस्तावना में लिखा है, ‘उत्तर-औपनिवेशिक विमर्श के इस जन्मदाता, वर्चस्व की दुनिया में प्रतिरोधी चेतना के असाधारण चिंतक, साहित्य और संस्कृति के मौलिक विवेचक, ईमानदार और साहसी बौद्धिक तथा एक समूची विस्थापित फिलिस्तीनी कौम के मानव-अधिकारों के मुखर प्रवक्ता एडवर्ड सईद को जानना-समझना हमें एक नई ऊर्जा से भर देता है।’

एडवर्ड सईद को जाननेसमझने के लिए इस किताब में चार लेख शामिल किए गए हैं।कनक तिवारी ने हिंदुस्तान का सईदी पाठलिखा है।पी एन सिंह का बुद्धिधर्मी की अवधारणाशीर्षक से लेख है।खुद विजय कुमार ने एक जन बौद्धिक की भूमिकालिखी है।नरेश चंद्रकर ने विस्थापित जीवन का विकल संसारमें जो लिखा है उसके तीन अंश प्रस्तुत हैं:

अंश एक : वे एक फिलिस्तीनी चिंतक थे, परंतु फिलिस्तीन तक ही महदूद नहीं थे।उन्होंने इतिहास से भूगोल, अर्थात टैरेटरी को जोड़ने की जरूरत को समझा।

अंश दो : सईद उन लोगों के खिलाफ थे, जो दुनिया के सभ्य और विकसित समाज में रहते हुए भी दुनिया को सबके लिए नहीं बनने देने की जिद में थे। …सईद उन लोगों की ओर संकेत कर रहे थे, जो कला, संस्कृति और इतिहास की दुनिया के नफीस लोग थे, पर जो नकाबपोश थे और जिन्हें सईद ने अपने शोधपरक अध्ययन व गहन विवेचनाओं से बेपर्दा किया था।

अंश तीन : सईद का कभी कोई घर न था – एडवर्ड होकर भी न ईसाई धार्मिक परंपराओं और सईद होकर भी न इस्लाम धर्म की आस्थाओं में और न अकादमिक बुद्धिवादी खेमों में और न ही मार्क्सवादी चिंतनाओं के तयशुदा घेरे में।सईद ने अपने प्राच्यचिंतन की धारा में मार्क्स के कथन प्रस्तुत करते हुए ऐसे निष्कर्ष दिए हैं, जो मार्क्स को भी पश्चिमी नजरिए से लबरेज और पूरब-विरोधी प्रमाणित करता है।

एडवर्ड सईद दुनिया भर में ‘पब्लिक इंटलेक्चुअल’ के रूप में जाने जाते थे – सार्वजनिक जीवन में दखल रखने वाला ऐसा बौद्धिक जो जनता की लड़ाई सड़क पर आ कर लड़ता है।… वे दबी हुई और अनसुनी रह जाने वाली आवाजों के प्रवक्ता बन गए।एडवर्ड सईद होने का अर्थ था – ताकत के सामने न्याय की गुहार लगाने वाली कौम का नुमाइंदा।

एडवर्ड सईद की मृत्यु पर लेबनान के ‘डेली स्टार’ ने जो अपने संपादकीय में लिखा था, उसे विजय कुमार ने अपने लेख में उद्धृत किया हैः ‘सईद ने वी.एस.नायपॉल और सलमान रश्दी की तरह अपनी आत्मा पश्चिम के आकाओं के पास गिरवी नहीं रख दी थी।यदि उन्होंने ऐसा किया होता तो शायद उन्हें नोबेल पुरस्कार सहित पश्चिम के सारे प्रतिष्ठित पुरस्कार कब के मिल चुके होते।लेकिन सईद की निष्ठा बिकने की नहीं थी।’

पी एन सिंह बुद्धिजीवी की जगह बुद्धिधर्मी शब्द को फोकस में लाते हुए कहते हैं, ‘हिंदी में इंटेलेक्चुअल के लिए बुद्धिजीवी शब्द प्रचलन में है, जो अपर्याप्त लगता है।यह श्रमजीवी का विरोधार्थी है, इंटेलेक्चुअल का पर्यायवाची नहीं।इस अर्थ में वे सभी जो सफेदपोश पेशे से जुड़े हैं – लिपिक और नटवरलाल से लेकर, लेखक, विचारक तक सभी इसी श्रेणी में आते हैं। वस्तुतः इंटेलेक्चुअल रूसी इंटेलिजेंशिया के अधिक निकट है, जो आलोचक बने रहकर निर्वासन झेलता है और अपने वर्गीय हितों के विरुद्ध खड़ा होता है।अतः इस आलेख में बुद्धिजीवी शब्द का प्रयोग न कर बुद्धिधर्मी या बुद्धिधर्मा का प्रयोग किया गया है, जो एडवर्ड सईद की स्थापना के अनुकूल है।’ पी एन सिंह हिंदी के एक महीन लेखक-विचारक हैं।

वे अपने लेख में बताते हैं, ‘आश्चर्य नहीं, उनके विमर्श के केंद्र में ज्ञान की सत्ता के विभिन्न व्यक्त-अव्यक्त केंद्रों की पहचान और विखंडन रहा।वह बुद्धिधर्मी थे, इसलिए उन्होंने ज्ञान की राजनीति को, जो सामान्यतया दृष्टिपटल से बाहर रह जाया करती है, सतह पर लाने का प्रयास किया।यह संभव हो सके इसके लिए उन्होंने बुद्धिधर्मी की निर्मिति एवं भूमिका के संबंध में ‘लौकिकता’ और ‘आलोचनात्मकता’ पर बहुत बल दिया।अर्थात, उत्तर-औपनिवेशिक बुद्धिधर्मी को अनिवार्यतः लौकिक और  आलोचनात्मक होना होगा।’

एडवर्ड सईद की किताब रिप्रजेंटेशन ऑफ इंटेलेक्चुअल्सके हवाले से पी एन सिंह ने जिस सोच से हमें रूबरू कराया है, वह आंखें खोल देने वाली है।उन्होंने लिखा है, समकालीन संदर्भों में सईद बुद्धिधर्मिता के समक्ष उपस्थित चार चुनौतीपूर्ण विकल्पों की चर्चा करते हैं:

एक – ‘विशेषज्ञता’, जो उसे संकीर्ण बनाती है, तकनीकी रूपवाद में फंसाती है और इस प्रकार इतिहास-बोध और जीवनानुभव दोनों से उसे वंचित करती है।

दो- ‘प्रमाणित दक्षता’, जो बुद्धिधर्मी के स्वविवेक को अप्रासंगिक बनाती है, और अगर वह राजनीति में है तो पार्टी लाइन में सिमटा देती है।

तीन- ‘पेशेवरता’ का जो अनिवार्यतया उसे सत्ता-केंद्रों का दास बनाती है।

अंततः एक चौथा विकल्प बचता है- ‘शौक’, जो सईद को पसंद है, क्योंकि यह लाभ और स्वार्थ से संचालित नहीं होता और एक विचारशील और चिंतित सामाजिक इकाई के रूप में नैतिक प्रश्नों को उठाने का खतरा मोल ले सकता है।

इस किताब का एक आकर्षण एडवर्ड सईद से दमयंती दत्ता और गौर विश्वनाथन का साक्षात्कार है।दो साक्षात्कार के अंश हैं।एक संवाद एडवर्ड सईद और डेनियल बेरेनबोइम के बीच है।इसके साथ ही ऐसे तीन-चार लेख और हैं जो हमें प्रतिरोध के लिए तैयार करते हैं।अनुवाद किया है अजित हर्षे, रामकीर्ति शुक्ल, मदन सोनी, व्योमेश शुक्ल, आशुतोष दुबे और शशांक दुबे ने।

समीक्षित किताब में कनक तिवारी का आलेख ‘हिंदुस्तान का सईदी पाठ’ अनिवार्य रूप से पढ़ा जाने वाला एक व्यवस्थित आलेख है।इस लेख में लेखक ने यह जानकारी दी है, ‘उन्हें हिंदुस्तान के प्रति बेसाख्ता मोहब्बत और अनथक जिज्ञासा रही है। …उनकी यह बाल अवधारणा बनी कि हिंदुस्तान ब्रिटिश हुकूमत के ताज में सबसे चमकता हुआ नक्षत्र है। …सईद के लिए यह आश्चर्य का विषय रहा कि ३५ करोड़ भारतीयों पर एक लाख गोरों ने कैसे हुकूमत की।’ कनक तिवारी ने यह भी बताया है कि बकौल सईद उनकी कृति के विमर्श-केंद्र में भारत प्रमुख रूप से रहा है और उसके सर्वाधिक पाठक भी भारतवासी ही रहे हैं।

जिज्ञासा: एडवर्ड सईद ने भारतीय चिंतन-प्रकिया को कितना और कैसे प्रभावित किया है, खासकर हिंदी की?

विजय कुमार: पश्चिम के बौद्धिक जगत में वर्चस्ववादी मानसिकता, विभेदक दृष्टि, खुद को श्रेष्ठ मानने और अपने से इतर को हेय मानकर उसकी ‘स्टीरियोटाइप’ छवि गढ़ने के प्रपंच, खंडित चेतना, नस्लवाद और आधिपत्य रचने की राजनीति पर १९६८ में प्रकाशित एडवर्ड सईद  की  ‘ओरियंटलिजम’ पुस्तक ने  सबाल्टर्न अध्ययनों के लिए महत्वपूर्ण जमीन तैयार की।उसके बाद उत्तर-औपनिवेशिक चिंतन में वर्चस्ववादी शक्तियों और अधीनस्थों के संबंधों पर बहुत सारा विमर्श हुआ है।

इस संबंध में भारतीय चिंतकों का काम भी बहुत महत्वपूर्ण है।गायत्री स्पीवाक चक्रवर्ती जैसी बीसवीं सदी की महत्वपूर्ण उत्तर-औपनिवेशिक विचारक ने  वर्चस्व की प्रक्रिया की सूक्ष्मताओं  में जाते हुए हुए स्त्री सबाल्टर्न की उस स्थिति को देखा  है जिसमें तमाम सारी आवाजें अनसुनी रह जाती हैं।१९८८ में प्रकाशित अपने बहुचर्चित निबंध ‘कैन दि सबाल्टर्न स्पीक’ में गायत्री चक्रवर्ती ने स्त्रियों के इतिहास, उनकी भौगोलिक स्थितियों और वर्गीकृत सचाइयों पर स्वयं को केंद्रित किया।विभेदपरक सामाजिक संबंधों का विश्लेषण करते हुए वे इस तर्क को रखती हैं कि अधीनस्थ और हाशिए पर जी रहे वजूद की सबसे बड़ी समस्या यह है कि  उसका कोई स्वर नहीं है और नीतिगत बहसों में उस वर्ग की कोई हिस्सेदारी नहीं होती।

होमी के. भाभा जैसे  विचारक ने इस महत्वपूर्ण धारणा को रखा है कि सांस्कृतिक श्रेष्ठता जैसी कोई चीज नहीं होती और न इस तरह की रेडीमेड धारणाएं तैयार की जा सकती हैं।सारे अर्थ एक उभयधर्मी स्पेसके भीतर ही निर्मित होते हैं।

एडवर्ड सईद के चिंतन से गहरे प्रभावित प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में कार्यरत इतिहासकार ज्ञान प्रकाश औपनिवेशिक भारत में श्रमिक दासता के इतिहास को सबाल्टर्न के अध्ययन से जोड़ते हैं।अपनी बहुचर्चित पुस्तकों में उन्होंने औपनिवेशिक समाज में बंधुआ मजदूरों की स्थिति, विस्थापन के सच और भारतीय समाज में आजादी के बाद विकास के लिए पश्चिम की विचार पद्धति पर लगभग अंधविश्वास की हद तक निर्भर हो जाने और नगरीकरण की विसंगतियों की गहरी व्याख्या की है।

जिज्ञासा: एडवर्ड सईद बुद्धिधर्मियों से ‘सार्वभौम’ होने की अपेक्षा रखते हैं।क्या हिंदी के समकाल में ऐसे सार्वभौम लेखक-विचारक की पहचान की जा सकती है?

विजय कुमार: एडवर्ड सईद  सार्वजनिक जीवन में एक ऐसे बौद्धिक की उपस्थिति का निरूपण करते हैं जो ताकत की राजनीति का प्रतिपक्ष हो, जो सत्ता प्रतिष्ठानों की संस्कृति पर सवाल उठाता हो, गढ़ी गई छवियों और छद्म चेतना रचने वाली  व्यूह रचनाओं, आरोपित एकीकरण और विकृत प्रतिनिधित्व के खेल को बेनकाब करता हो, ऐसा बौद्धिक जो अनसुनी आवाजों, विस्थापन और हाशिए के वजूद का प्रतिनिधि हो, जो बुनियादी रूप से विकल हो और सत्ता-तंत्र के सम्मुख एक सतत निर्वासन की स्थिति में स्वयं को पाता हो।

समकालीन समय में हिंदी प्रदेश में बौद्धिक प्रतिरोध के अनेक छोटे-मोटे स्वर रहे हैं।पर इस वास्तविकता को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि हमारे समकालीन समय में जिस तरह से सत्ता-प्रतिष्ठान की संस्कृति  दैत्याकार रूप लेती गई है, बाजार, उपभोग और तकनीक के आधार पर कारपोरेट जगत का जीवन के हर क्षेत्र में दखल बढ़ा है, मास मीडिया और प्रचार-तंत्र द्वारा जनमानस की चेतना को जिस प्रकार से अपना उपनिवेश बनाया गया है, सार्वजनिक स्फीयर में वैचारिकता का एक मानकीकरण किया जा रहा है, असहमति के अधिकारों को जिस तरह  से कुचला जा रहा है, अकादमिक जगत की स्वायत्तता को जिस हद तक नष्ट कर दिया  गया है, संस्कृति को जहां लगभग एक उद्योग बना दिया गया है, वहां हमारे इस समकालीन समय के सनसनी, व्यावसायिकता, सतही मनोरंजन के माहौल में सोचने-विचारने, सृजन के काम में लगे  बौद्धिक, लेखक या कलाकार और जनसाधारण के बीच एक अभूतपूर्व अंतराल पैदा हुआ है।

एक बौद्धिक के चारों ओर लाभ-लोभ, प्रलोभन, स्पर्धा, गति, त्वरित सफलता, यश-आकांक्षाओं, आत्म-प्रचार और उपभोग का शिकंजा निरंतर कसता गया है।और बहुत सारे बौद्धिक तो अब दिन के उजाले में ही डोमाजी उस्ताद के जुलूस में शामिल दिखाई देते हैं और उसके तर्क भी गढ़ लेते हैं।इन स्थितियों में एक विकल बौद्धिक के लिए साहसपूर्वक अपना वैकल्पिक नैरेटिव को रचने की चुनौतियां अब कठिन से कठिनतर होती जा रही हैं।

जिज्ञासा: एडवर्ड सईद में इस्लाम के श्रेष्ठतम होने का बोध किस स्तर पर है?

विजय कुमार: एडवर्ड सईद ने बहुत तार्किक तरीके से इस बात को रखा कि अमरीकी मीडिया में इस्लाम की लगातार एक पूर्वग्रहग्रस्त,  सुनियोजित, अतिशयोक्ति पूर्ण, विद्वेष से भरी, स्टीरियोटाइप छवि को गढ़ा जाता है।कुल मिलाकर इस्लाम को आतंकवाद का पर्याय बनाकर पेश किया जाता है।मुस्लिम दिमाग, चरित्र, मजहब और संस्कृति की जिस प्रकार से अवमानना की जाती है, वह पश्चिम के सामान्य बोध में एक स्वीकार्य रूप ले चुकी है।

सचाई यह है कि इस्लाम की कोई एक ‘मोनोलिथिक’ या एकरूप छवि नहीं बनाई जा सकती और न उसे मात्र अरब संसार के संदर्भों से जाना जा सकता है।दुनिया भर में इस्लाम की जो अभिव्यक्ति रही है, वह अरब परिप्रेक्ष्य से बहुत अलग तरह की भी रही है।दक्षिण एशियाई इस्लाम के भीतर भिन्न जातीयताओं के अनेक रंग हैं।इस्लामिक दुनिया के अलग-अलग समाज, भिन्न स्थानिकताएं, पृथक भाषाएं, एक दूसरे से अलग इतिहास, परंपराएं, खानपान, जातीय अनुभव और स्मृतियां हैं।इंडोनेशिया, मलेशिया, लेबनान, पाकिस्तान, सीरिया, मिस्र, सूडान, फिलिस्तीन, जॉर्डन, सऊदी अरब, ईरान और अफगानिस्तान के समाज एक दूसरे से बहुत अलग हैं।

सईद ने इस सचाई को रेखांकित किया कि जब तक हम इन विशिष्ट स्थानिकताओं  के संदर्भ और उनके भीतर पल्लवित इस्लाम के रूपों की विविधताओं को नहीं जानेंगे तब तक पश्चिम द्वारा गढ़ी गई और प्रचारित छवियों के उस साम्राज्यवादी षड्यंत्र को भी नहीं समझ पाएंगे।

रेणु के इन पत्रों को संदर्भ, संकेत जाने बिना – सिर्फ एक मित्र को लिखे गए दूसरे मित्र के पत्र भर मानकर पढ़ें, तो भी उससे बहुत कुछ मिलेगा – मैत्री की वह गहराई और गरमाहट तो मिलेगी ही, यह ‘दो भाइयों की कथा’ भी है, जिसे ये पत्र हमारे लिए बुन देते हैं।’

चिट्ठियां रेणु की भाई बिरजू को रेणु को जानने के क्रम में यह एक नया अध्याय है।यह गड़ा धन हिंदी जगत को मिला है विद्यासागर गुप्ता  और रुचिरा गुप्ता के माध्यम से।इसके संपादकों में एक प्रयाग शुक्ल हैं।वे निमित्त मात्र नहीं बने हैं इन पत्रों को लोकवृत्त में पहुंचाने के, बल्कि उन्होंने इन पत्रों के ऐतिहासिक महत्व को समझा है।बड़ा श्रेय रुचिरा गुप्ता को जाता है, जिन्होंने अपने पिता विद्यासागर गुप्ता को इन्हें संकलित करके किताब बनाने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया।रुचिरा गुप्ता विश्व नारी आंदोलन में सक्रिय हैं, न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं और संयुक्त राष्ट्र के देह-व्यापार के खिलाफ कानून बनाने के लिए सलाहकार हैं।

वे मानती हैं कि उन्हें शब्द रचने की क्षमता रेणु से मिली है।वे यह बात वेश्याईकरण शब्द के संदर्भ में कहती हैं।

रुचिरा गुप्ता यहां जिस मकान का हवाला दे रही हैं, वह फारबिसगंज का जगदीश मिल है।वे बताती हैं, ‘हमारा फारबिसगंज का घर, समाजवादी आंदोलन के सदस्यों का घर बन गया था, शायद समाजवादी आंदोलन का ही घर था।

यह किताब उन साठ पत्रों का संकलन है, जो रेणु ने लिखे हैं अपने बिरजू भाई को दिसंबर १९५३ से जुलाई १९७४ के दरम्यान।इस किताब में प्रणव चटर्जी का रेणु को लिखा वह पत्र भी है जिसके साथ जयप्रकाश नारायण ने मुबंई के जसलोक अस्पताल से १९७५ में लिखी अपनी कविता रेणु के लिए भेजी थी।

जयप्रकाश नारायण का यहां वह पत्र भी है जो उन्होंने १९७० में रेणु को भेजा था।यह पत्र छपरा मठ, मुजफ्फरपुर से लिखा गया है।इस पत्र के मजमून का दूसरा पैरा देखिए, ‘यहां जो काम मैं कर रहा हूँ, उसके अनुभवों पर आधारित मेरा एक लंबा सा लेख ‘आर्यावर्त’ में २९ नवंबर से लगातार कई किस्तों में प्रकाशित हुआ है।आपने देखा होगा।२३ वर्षों के स्वराज्य के बावजूद भारत माता का ‘आंचल’ सचमुच कितना मैला है! इसमें नक्सलवाद नहीं तो और क्या पलेगा? मैं चाहता हॅूं कि आप इन वास्तविकताओं को आकर देखें और उनकी तस्वीर साहित्य में उतारें। ‘मैला आंचल’ लिखकर आपने साहित्य-लेखन या उपन्यास-लेखन की जो परंपरा शुरू की थी, वह समाप्त हो गई सी लगती है।आज की पृष्ठभूमि में उसे पुनर्जीवित कर आगे बढ़ाने की जरूरत है।यह तो जाहिर है कि इस देश में भावी क्रांति का क्षेत्र गांव ही होगा, और नव निर्माण का आरंभ भी वहीं से होगा।अतः क्रांतिकारी नव साहित्य का सृजन गांव में बैठ कर किया जा सकता है।’ जयप्रकाश नारायण की इस चिट्ठी को स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के माहौल में पढ़ना विशेष मायने रखता है।

इस किताब में छपी चिट्ठियां बोलती हैं कि यह घर रेणु का अपना था।एक पत्र में रेणु ने लिखा है, ‘भाई बिरजू बाबू, नहीं, मैंने फारबिसगंज गंज आना नहीं छोड़ा है।आज आना था।नहीं आ सका।कल निश्चय ही आ रहा हूँ।… टोकरी-भर बातें हैं, आकर आपसे करूंगा।बगैर मिले कैसे जा सकता हूँ?’ लगता है रेणु ने बिरजू बाबू के उलाहने पर पत्र लिखा है।यह पत्र उन्होंने ४ अप्रैल १९७५ को लिखा है।रेणु का जितना बिरजू बाबू से अपनापा है, फारबिसगंज से भी उतना ही रोजमर्रा का रिश्ता है।

‘विश्वमित्र’ के फरवरी १९४६ में रेणु की एक कहानी छपी थी ‘रसूल मिसतरी’।फारबिसगंज के रहने वाले थे और उनकी बिगड़ी चीजों की मरम्मत की एक दुकान थी।रेणु की कई अन्य कहानियों में फारबिसगंज मिलता है।विस्तार से जानने के लिए भारत यायावर की किताब ‘रेणु : एक जीवनी’ पढ़नी चाहिए।भारत यायावर की इस कृति में फारबिसगंज की चर्चा खूब है, मगर ये बिरजू बाबू उन्हें नहीं मिलते हैं।बिरजू बाबू कौन हैं जिनका वहां होना जरूरी-सा लगता है?

बिरजू बाबू विद्यासागर गुप्ता के मझले भाई थे।रुचिरा गुप्ता के ताऊ का पूरा नाम था बृजमोहन बांयवाला।बिरजू बाबू कलकत्ता में अपनी पढ़ाई खत्म करके चले गए थे फारबिसगंज, अपना पारिवारिक व्यवसाय संभालने।तब से वे फारबिसगंज में ही स्थायी रूप से रहे।जब वे फारबिसगंज नगरपालिका के अध्यक्ष थे उन्होंने फारबिसगंज की उस सड़क का नाम ‘डॉ. राम मनोहर लोहिया पथ’ रखवा दिया था, जहां के घर में डाक्टर लोहिया काफी समय बिताते थे।यह लिखा है विद्यासागर गुप्ता ने इस किताब के अपने संस्मरण ‘रेणु और बिरजू बाबू : अद्भुत एक मैत्री कथा’ में।लोहिया के प्रति रेणु के मन में कितना आदर भाव था, यह समझने के लिए रेणु के दो पत्रों का हवाला देना काफी रहेगा।

पहला पत्र :

रेणु ने बिरजू बाबू को औराही-हिंगना से २७.४.६५ को एक पत्र लिखा है, उस लंबे पत्र का पहला पैरा देखें, ‘क्या हाल है? आप बीरपुर गए थे क्या? मैं अस्वस्थ हूँ – थोड़ा।यदि आप गए हों तो आपसे पूरी रिपोर्ट तो मिल ही जाएगी। ‘दिनमान’ के मुखपृष्ठ से तो अब आपको एकदम शिकायत नहीं होनी चाहिए।और अंतर्पृष्ठ में डॉक्टर साहब से मुलाकात? मुझे ईर्ष्या हुई कि डॉक्टर साहब के बारे में मैंने कुछ क्यों नहीं लिखा।बहरहाल, ‘धर्मयुग’ के लिए एक अंतरंग लेख लिखने की सोच रहा हूँ, १९४१-४२ में पहली मुलाकात से शुरू करके हाल-हाल में – जो भेंट हुई है, अब तक का स्मृति चित्र।जिसमें मुख्य स्वर यह रहेगा – ‘कोई महान दार्शनिक-विचारक, कलाकार को राजनीति से मन ‘उचाट’ करवा दे तो भारत का कल्याण हो।’

दूसरा पत्र :

यह २५.३.७५ का है, जो रेडियो पर ओम प्रकाश दीपक के देहांत का समाचार सुन कर लिखा गया था: मैं शांतचित्त होने के लिए रामकृष्ण और विवेकानंद और लोहिया को बारी-बारी से रात भर पढ़ता रहा हूँ।आप भी शांत होकर बस यही सोचिए कि हमारा साथी लड़ाई के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुआ है। …जनक्रांति जिंदाबाद! दीपक जी जिंदाबाद!’ इस पत्र के पुनश्च में लिखा है, ‘बिरजू बाबू, शांत होइए।…सब भगवान की लीला है।’

यहां यह जानना सही रहेगा कि दीपक जी की बिरजू बाबू से काफी घनिष्ठता थी।जे पी के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में वे उनके सहयोगी और उनकी बहुत नजदीकी मंडली में थे।दीपक जी डॉ. लोहिया के भी सहयोगी रहे तथा सोशलिस्ट पार्टी के दोनों मासिक पत्रों जनऔर मैनकाइंडके संपादक भी रहे।दिनमानमें भी लिखते रहते थे।

१९७५ में रेणु ने अपनी बेटी नवनीता की शादी की थी।उनका एक पत्र हैः

चलती गाड़ी से दिनांक १५.२.७५

भाई बिरजू बाबू,

श्री जुशा से सारी बातें मालूम हो जाएंगी।निवेदन है कि कल आप किसी समय आधे घंटे के लिए भी मेरे पास आएं तो मैं बहुत उपकृत होऊंगा।चूंकि शहर के मेहमान आ रहे हैं – मुझ ग्रामीण के पास उनके स्वागत-सत्कार के सामान्य साधन भी नहीं हैं।जुशा के मार्फत जो भी चीजें भेज सकें, भेज दें।’ यह जुशा जुगनू शारदेय हैं।

दूसरा पत्र : औराही- हिंगना से, दिनांक ३.२.७६

आदरणीय बिरजू बाबू,

आपका पत्र मिला।

मैंने पटना के समधी श्री रजनीकांत बाबू को २९.१.७६ को एक पत्र भेज कर सूचित कर दिया था कि अकस्मात एक सगोत्र की मृत्यु के कारण – पूर्व निश्चित श्री पंचमी के दिन द्विरागमन कार्य संपन्न नहीं हो सकेगा।… किंतु ऐसा लगता है कि पत्र मिलने के बावजूद वे लोग चले आए हैं?

हम लोग जिस समाज में रहते हैं – उसमें अशौचावस्था में कोई शुभ कार्य नहीं होता।पटना वाले इन सब बातों को रूढ़ि मानते हैं।अशौचावस्था में – मेरे ख्याल से किसी हिंदू के घर में कोई शुभ कार्य नहीं होता।बल्कि, इस उद्देश्य से आना अथवा आ पहुंचना भी अशुभ है।मेरे दामाद साहब सदल-बल आए हैं – सदल-बल फारबिसगंज से ही वापस चले जाएं।इस अशौचावस्था में – पहली विदाई के लिए यहां उनका पहुंचना अच्छा नहीं है।’

तीसरा पत्र : दिनांक ४.२.७६

आदरणीय भाई,

आपका पत्र मिला।शुरू से अंत तक कई बार पढ़ गया।किंतु मेरी किंकर्तव्यविमूढ़ता पूर्ववत बनी रही।अशौचावस्था में कोई शुभ काम संभव नहीं, यह तो आप जानते हैं ? … साइत -शुभ – अशुभ घड़ी तथा ग्रह-नक्षत्र, लग्न, राशि के मामले में बहुत ही रूढ़िवादी और कट्टरपंथी हूँ।इसके लिए मुझे लज्जा भी नहीं।२० फरबरी के पहले द्विरागमन हम नहीं संपन्न करवा सकते। …मेरी इज्जत का यहां कोई प्रश्न नहीं।बेटी-दामाद के सुखमय भविष्य के लिए ही मेरी यह जिद्द है।प्रणाम।

बेशक इतनी पारदर्शिता के साथ कोई अपने जिगरी से ही मिलता-खुलता है।बेशक रेणु और बिरजू बाबू एक दूसरे के जिगरी थे।कह सकते हैं दो देह एक प्राण।

एक और आखिरी पत्र इस लेख में इस किताब से।इस चिट्ठी में तारीख नहीं है।पढ़िए:

बिरजू बाबू,

यह क्या हो गया है।मैं हमेशा की तरह झूठा का झूठा ही रहा – वायदे पर कोई काम नहीं करने वाला आप लोगों का रेणु? …‘दिनमान’ का डिस्पैच भेजना आज अत्यावश्यक था।सुबह ९:३० बजे से लग गए।कल के बाद और किसी दिन का प्रोग्राम बनाइए न कृपया? कल रामनवमी है – मैं जरा पाखंडी हो गया हूँ न।उस दिन ‘निराला’ कृत रामजी का ‘राम की शक्ति-पूजा’ पाठ करता हूँ।परसों आ रहा हूँ।बातें होंगी।’ निराला की इस रचना को यह मान शायद ही किसी ने दिया होगा, जो रेणु ने दिया।रेणु ही यह मान दे सकते थे।रेणु ने निराला को जो मान दिया है, यह मान किसी और कवि को कहां नसीब!

अब समय आ गया है कि इस समीक्षित पुस्तक के हवाले से एक और शख्सियत की जानकारी साझा करने का, जिसके बिना यह चर्चा अधूरी कही जाएगी।वे हैं बालकृष्ण गुप्त।यह नाम हिंदी जगत का जानापढ़ा नाम है।

इस किताब में विद्यासागर गुप्ता ने बताया है कि बालकृष्ण राजस्थान से और राम मनोहर लोहिया बनारस से १९२८ में कोलकाता आए।दोनों अलग – अलग कॉलेज में पढ़ते थे मगर दोनों मारवाड़ी छात्रावास में एक ही कमरे में रहते थे।यहां दोनों की दोस्ती हुई।यह दोस्ती भारत में समाजवाद की पहल बनी और विस्तृत भी हुई।अधिक विस्तार से जानने के लिए यह समीक्षित पुस्तक पढ़ना अनिवार्य होगा।अभी केवल इतना बताना काफी होगा कि बालकृष्ण गुप्त बड़े भाई थे बिरजू बाबू और विद्यासागर गुप्ता के।रुचिरा गुप्ता के बड़े ताऊ थे।रुचिरा गुप्ता ने इस किताब में दावा किया है, ‘मेरा बालिग अस्तित्व मानता है कि अच्छा साहित्य आंदोलन और जमीन के प्रति लगाव से जन्मता है।रेणु जी का साहित्य फारबिसगंज की जमीन और समाजवादी आंदोलनों से जन्मा है।उनके विचार मेरे ताऊजियों (बालकृष्ण गुप्त और बिरजू बाबू) और मेरे घर के संपर्क में आकर और दृढ़ हुए।’

इस बेशकीमती किताब का संपादन किया है हिंदी के मनस्पर्शी लेखक प्रयाग शुक्ल ने।इस संकलन के बारे में मन को कई स्तरों पर छूने वाला एक निबंध है- ‘एक बड़ी थाती है यह’।इसमें उन्होंने लिखा है, ‘अंत में एक बार कुछ जोर देकर ही यह कहने की इच्छा हो रही है कि रेणु के इन पत्रों को संदर्भ, संकेत जाने बिना – सिर्फ एक मित्र को लिखे गए दूसरे मित्र के पत्र भर मानकर पढ़ें, तो भी उससे बहुत कुछ मिलेगा – मैत्री की वह गहराई और गरमाहट तो मिलेगी ही, जो ‘भाई बिरजू भाई’ के संबोधन में है – और पत्र के अंत में दिया हुआ ‘भाई ही रेणु’।सो पत्र के शुरू में ‘भाई’ और अंत में भी ‘भाई’- तो है सचमुच यह ‘दो भाइयों की कथा’ भी, जिसे ये पत्र हमारे लिए बुन देते हैं।’

रेणु के जिन दीवानों ने भारत यायावर की कृति ‘रेणु : एक जीवनी’ पढ़ रखी है, वे जानते हैं जीवनी का यह खंड ‘मैला आंचल’ के प्रकाशन की निर्मम बाकयाओं से समाप्त होता है, मगर वहां ‘मैला आंचल’ के प्रकाशन के संदर्भ में वह एक पत्र नहीं है जो रेणु ने २९.११.५३ को बिरजू बाबू को लिखा था।यह चिट्ठी इस संकलन की पहली चिट्ठी है।इस लंबी चिट्ठी से वे पंक्तियां उद्धृत करता हूँ जिनमें ‘मैला आंचल’ के प्रकाशन की समस्या को लेकर रेणु का दर्द बोलता है, ‘दिन-रात परिश्रम करके जिसके ३५० या ४०० पृष्ठों का ताना-बाना बुन डाला वह चीज अच्छी उतर गई है, इसलिए बड़ा मोह हो गया है।… यह पांडुलिपि जब तक अप्रकाशित अवस्था में रहेगी, समझो – बिना ब्याही जवान बेटी गरीब की।और क्या कहूं? … आपसे विशेष क्या कहूं? आप चाहें तो अपने बंधुओं से मिलकर – थोड़ा परिश्रम तो करना पड़ेगा – इसके प्रकाशन की समस्या को हल कर सकते हैं।… साहित्यिक मित्र को ‘डिप्रेस्ड’ नहीं कीजिएगा, यही आशा है।’ हालांकि बिरजू बाबू कुछ नहीं कर पाए, मगर आगे जो हुआ वह एक उजागर इतिहास है।

विद्यासागर गुप्त: यह सच है कि रेणु जी की भौतिक काया निःशेष हो चुकी है लेकिन साथ-साथ यह भी सच है कि रेणु जी हमारे बीच आज भी मौजूद हैं, अपने सम्मोहक व्यक्तित्व से जुड़ी स्मृतियों के रूप में।रेणु जी के साहित्यिक जीवन, उनकी कहानियों और उपन्यासों से सारा हिंदी जगत परिचित है।हमारे परिवार से नजदीकी का कारण उनका साहित्यिक होना नहीं, उनका समाजवादी और राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाना है, जो उनके साहित्यिक जीवन को बार-बार राजनीति में खींच लाता था।हमारा परिवार शुरू से ही बिहार तथा फारबिसगंज के अलावा देश के राजनीतिज्ञों तथा कार्यकर्ताओं का अड्डा रहा है।

१९४२ के आंदोलन में रेणु जी की उम्र सिर्फ २७ साल की थी।उस जमाने में फारबिसगंज के हमारे घर में स्थानीय समाजवादी कार्यकर्ताओं कमलनाथ झा, भोला भगत, सरयू मिश्र तथा कांग्रेसी नेता द्विवेदी जी और बोकारो मंडल शाम की चाय-मंडली में जुटते थे। ’४२ के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के कारण इन सबको जेल जाना पड़ा था।रेणु जी के बारे में जो जानकारी यादों में है, वह उनका जेल में सबसे ज्यादा मार खानेवालों में है।बाद में उनको भागलपुर जेल भेज दिया गया।वहां जेल में पहले से ही यहां के प्रसिद्ध बंगाली लेखक सतीनाथ भादुड़ी तथा श्री द्विजेन जी थे।उन्हीं के प्रभाव में उनके साहित्यिक जीवन की शुरुआत हुई।जेल से छूटकर आने के बाद अपने सभी समाजवादी राजनीतिक मित्रों के साथ वे भी शाम की चाय-मंडली में शरीक होने लगे, तथा मेरे मझले  भाई बिरजू बाबू से उनकी घनिष्ठता बढ़ती गई।रेणु का पहला उपन्यास ‘मैला आंचल’ प्रकाशित होते ही हिंदी जगत ने उनको हाथों-हाथ उठा लिया और उनका साहित्यिक जीवन शुरू हो गया।लेकिन दिमागी रूप से वे अपने को राजनीतिक गतिविधियों से दूर नहीं कर पाए।

नेपाल में उस समय राणाशाही का राज था, वहां बहुत ही अत्याचारी शासक था।वहां किसी प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने की इजाजत नहीं थी।कुछ भी बोलने या स्वतंत्र बोलने पर जेल या फांसी दे दी जाती थी।पर जैसे सारी दुनिया में होता है, उस अत्याचार को देखकर कुछ नेपाली युवक जो भारत में पढ़ने आते थे, यहां की राजनीति में शामिल हो गए।

उनमें विशेष नाम बी पी कोइराला, उनके बड़े भाई एम पी कोइराला भी भारत के १९४२ आंदोलन में जेल गए।विराटनगर, नेपाल तथा फारबिसगंज की दूरी ९२ मील होने के कारण वे अपने समाजवादी मित्रों से मिलने यहां आते रहते थे।

उस समय की बात है कि हमारे फारबिसगंज के घर में जयप्रकाश नारायण तथा डॉ राम मनोहर लोहिया समाजवादी नेता और हमारे बड़े भाई बालकृष्ण जी के मित्र आते रहते थे।कोइराला बंधुओं तथा किशन भट्टराय ने, जो बाद में नेपाल के प्रधानमंत्री भी बने, लोहिया जी तथा जेपी से मुलाकातों के बाद नेपाल में राजाओं के खिलाफ राजनीतिक गतिविधियां चलाईं।जेपी तथा लोहिया जी के प्रभाव तथा नेतृत्व में हमारे घर में नेपाली कांग्रेस बनाने  से पहले चर्चा हुई थी।भारत को १९४७ में आजादी मिलने के बाद उनकी राजनीतिक गतिविधियां अंडरग्राउंड चलने लगीं।राजाओं का अत्याचार बढ़ता जा रहा था।

रेणु जी का भी कोइराला बंधुओं से यहां परिचय हो चुका था।नेपाल में जब सक्रिय आर्म्ड रिवोल्युशन की तैयारी शुरू हो गई, तब फारबिसगंज का हमारा घर उनका आर्मी हेड र्क्वाटर बना।हथियार चलाने की ट्रेनिंग भी यहां दी जाती थी।डाक्टर लोहिया की उस समय पड़ोसी देश वर्मा की सोशलिस्ट सरकार के नेताओं से अच्छी दोस्ती थी।उन्होंने वर्मा सरकार से नेपाल के आंदोलन के लिए हथियारों की मांग की।इसके बाद कलकत्ता के समाजवादी भोला चटर्जी को दो हवाई जहाज के साथ हथियार लाने भेजा।वे हथियार हमारे फारबिसगंज के मिल में लाए गए।

इतनी चहल-पहल के बीच यहां के समाजवादी नेता भी इस सशस्त्र क्रांति में सक्रिय रूप से शामिल हो गए।रेणु जी भी १९५१ के इस मोर्चे में बंदूक लेकर शामिल हो गए।जब अंडरग्राउंड  क्रांतिकारियों ने आंदोलन शुरू किया तो कोइराला तथा रेणु जी को इस आंदोलन को चलाने का जिम्मा सौंपा गया।रेणु जी दूसरी बार राजनीतिक रूप से इतने सक्रिय हुए थे।

१९७२ का चुनाव आ गया, तब कांगेस की घिनौनी राजनीति देखकर रेणु ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने का फैसला किया।उन्होंने अपने खास बंधु बिरजू बाबू से सलाह ली तथा परचा भर दिया।उनके सामने उनके प्रिय समाजवादी मित्र सरयू मिश्र कांग्रेस के उम्मीदवार थे।रेणु जी का चुनाव-चिह्न नाव था।

चुनाव में रेणु जी हार गए।हारने का उन्हें कोई दुख नहीं हुआ, वे तो हारने के लिए ही खड़े हुए थे।उन्हें चुनाव की सारी बारीकियों का ज्ञान मिला।

१९६६ में बिहार के कुछ इलाकों में भयंकर सूखा पड़ा था, अकाल जैसी स्थिति हो गई थी।जे पी ने उस समय बिहार में काफी दौड़-धूप की।उनके कहने पर अज्ञेय जी भी उन इलाकों के दौरा करने आए थे।रेणु जी तथा जितेंद्र प्रसाद सिंह उस दौरे में उनके साथ थे। ‘ॠणजल-धनजल’ में उस दौरे का संस्मरण छपा है।अज्ञेय ने लिखा है- ‘आप तो बिलकुल सिद्ध पुरुष हो गए, … और यहां से भी ‘सिद्धों’ की तरह ही लापता हो गए!’

समीक्षित पुस्तकें

(१) जन बुद्धिजीवी एडवर्ड सईद का जीवन व रचना संसार, संपादक : विजय कुमार एवं नरेश चंद्रकर,  संवाद प्रकाशन, संस्करण : २०२२

(२) चिट्ठियां रेणु की भाई बिरजू को, संकलन : विद्यासागर गुप्ता, संपादक : प्रयाग शुक्ल एवं रुचिरा गुप्ता, राजकमल प्रकाशन, संस्करण : २०२२

 

 

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