पेशे से अध्ययन–अध्यापन।मधुबनी व आधुनिक चित्रकारिता का शौक़।प्रकाशित पुस्तक : ‘शोषण में हिस्सेदारी’। ‘साहित्यिक गैंगवाद’ प्रोजेक्ट पर कार्य।
हिंदी कहानी के क्षेत्र में बदलाव उत्तरोत्तर जारी है।उसके प्लाट और शैली में विविधता है।सूचना क्रांति ने सृजन, सोच और सरोकारों को बदलने में एक बड़ी भूमिका अदा की है।उदारीकरण, बाजारवाद और भूमंडलीकरण के दौर में सामाजिक और शैक्षिक मोर्चे पर बहुतेरे बदलाव देखने को मिल रहे हैं।इसका प्रभाव कथाकार के मन और सृजन पर है।
आज हम जिन संग्रहों के बरक्स आपके समक्ष उपस्थित हैं, उन संग्रहों की कहानियां ‘कालजयी और पॉपुलर’ की बहस को दिशा दे सकती हैं।ये नए सिरे से कहानी में समकाल को विवेचित करती और उद्वेलित करती हैं।नए दौर के कहानीकारों की शैली में बेतहासा बदलाव आया है।अनुभव का आकाश भिन्न हुआ है।कई कहानियां भूमंडलीकरण, राजनीतिक षड्यंत्र और स्त्री-पुरुष संबंधों के आस-पास घूमती हैं।
चरण सिंह पथिक के कहानी संग्रह ‘दो बहनें’ में कस्बाई जीवनगाथा है।उनकी कहानियों में राजस्थान की माटी, खांटी रहन-सहन और आंचलिक जीवन शैली स्पंदित है।कहानियों में घटना को रिपोर्ट के अंदाज में रचने के बजाय कहानीकार उसे चरित्रों की कोमल भावनाओं में गूंथकर पाठक के समक्ष रखता है। ‘दो बहनें’ इसका प्रमाण है।यह एक बहुचर्चित कहानी है।
‘बक्खड़’ एक मासूम बच्चे के मनोवैज्ञानिक चिंतन और बुढ़ापे के अनुभव पर केंद्रित है।इनसान आजीवन हाड़तोड़ मेहनत के बल पर संभल के चलता रहा, लेकिन उसके हिस्से में एकाकीपन, ताने और विछोह के दर्दनाक मंजर आए।इस कहानी में बुजुर्ग चारपाई पर लेटे-लेटे अतीत की सांकल खटखटाकर परिवार, समाज, रिश्तों की जड़ों को टटोलता है।वह नए परिवेश से क्षुब्ध होता है, ‘जमीन के एक-एक कूड़ के लिए महाभारत होने लगे हैं।घर-घर टीवी लग चुका है।आए दिन लूट, हत्या, अपहरण की घटनाएं।गांव गंधाने लगा है अब।’ शहर की आवोहवा ने गांव की पगडंडियों से अपनत्व का पानी सोख लिया है।लोग संवेदनाशून्य हो गए हैं और बक्खड़ यह सोचते हुए मानो मनु की तरह प्रलय-प्रवाह देखता है।
गांवों की प्रथाओं का अपना विशेष महत्व है। ‘फिरनेवालियां’ कहानी एक खास प्रथा के मूल स्वर को व्यक्त करती है, ‘गमी के बहाने शोक भी प्रकट करेगा।बाज़ार आदमी को इस कदर ढक लेगा, मैं यह सोच ही नहीं पाया था।’ भाषा, बोली, शिल्प और कथा में राजस्थान तथा हरियाणा के जाट आंदोलन की भीड़ – मानसिकता और बर्बरता की कहानी ‘मूंछ’ है।हिंसक भीड़ किसी को नहीं पहचानती।कहानी सरकार की मंशा पर सवाल उठाती है।हर समस्या के हो रहे राजनीतिकरण पर बहस छेड़ती है।यह गुर्जर आंदोलन की कहानी है।
छोटा-सा फलक और बड़ा-सा वृत्तांत है ‘कोई जादू है क्या’।कहानी में भैंस केवल पशु नहीं है, बल्कि पूरी मानवीयता का एक मजबूत पहिया है, जिसकी परिधि में घूमता है पूरा परिवार।कहानी की स्त्री बेहद जुझारू है।यह बाजारवाद के चंगुल में फंसे घर-आंगन की कहानी है, ‘आपका तो तिनके के बराबर भी सहारा नहीं है।गैस सिलेंडर तक नहीं ला पाए।गोबर, पानी, भैंस, खेत, चारा, बरतन, खाना और ऊपर से आपकी ‘ये लाओ-वो-लाओ’ की रट।’ पीपल में फूल नहीं खिलते हैं लेकिन पीपल एक जीवन परिवेश देता है, ‘वृद्ध पीपल ने एक असहाय नजर उस औरत पर डाली तो उसकी पत्तियों पर जमी ओस टप्प…टप्प की आवाज के साथ आंसू की तरह नीचे गिरने लगी।’ यह संग्रहण केवल पीपल के बस का है।इसीलिए बुजुर्ग केवल वृद्ध नहीं होते, बल्कि अनुभवजनित दुनिया को आलोकित करने के स्तंभ होते हैं, ‘उसकी छोटी-सी पोटली में पीपल की छाल के कुछ छीपटे, मुरझाई पत्तियां तथा जड़ों के एक-दो टुकड़े बंधे हुए थे।’
‘मुर्गा’ कहानी सहज लहजे में व्यंग्य से भरपूर है- ‘दोनों बिरादरी के लोगों में आपसी घृणा इतनी फैल चुकी थी कि लोग आपसी व्यवहार भी भूल गए।ऐसे में किलाण और जगरूप करें तो क्या करें?’ उपभोक्तावाद और भूमंडलीकरण के दौर में पशुओं-पक्षियों की अपेक्षा मनुष्य अधिक डरावना साबित हो रहा है, क्योंकि मनुष्य ने तकनीक के रास्ते से विज्ञान का दामन थामकर तमाम दमनकारी तकनीकी हथियार इजाद कर लिए हैं।इससे राजनीति में हिंसा का प्रवेश खुलेआम हो चुका है, ‘सब वोटों का खेल है भैयाऽऽ।जब कभी मरना होगा, तो गरीब ही मरेगा या कोई हम-तुम जैसा किसान।देख लेना तुम!’ देश में किसान आंदोलनरत हैं और रोज-ब-रोज मौतें हो रही हैं।
जिज्ञासा : ‘सदी का महानायक उनके खेतों में काम करने आ नहीं जाएगा और न ही आमिर, सलमान, शाहरुख उनकी भैंसों को चराने तालाब की तरफ जाएंगे।’ कहानी में स्त्री के ऐसे कथन के प्रेरणास्रोत क्या है?
चरण सिंह पथिक : गांव में घरेलू ग्रामीण औरतें फिल्मी हीरो-हीरोइनों से अप्रभावित रहती हैं।उन्हें खुद सारे काम करने होते हैं।इसलिए वे अपने घर का काम छोड़कर टीवी पर फिल्म या धारावाहिक देखना निठल्लों का काम मानती हैं, आखिर खेती-बाड़ी या पशुओं के बहुत से काम तो उन्हें ही करने होंगे।एक लेखक अपने चारों ओर के परिवेश से ही अपने लेखन की प्रेरणा लेता है।
जिज्ञासा : ‘बक्खड़’ दो असमान व्यवहार वाले लोगों को केंद्र में रखकर स्त्री जीवन की त्रासदी, बच्चे के अभावग्रस्त जीवन और लंबी उम्र बीत जाने के बावजूद सुकून न नसीब होने की करुण कथा है।इसके बारे में कुछ बताएं?
चरण सिंह पथिक : नाता-प्रथा में जब एक बच्चा अपनी माँ के साथ जाता है तो उसे ‘बक्खड़’ कहा जाता है।क्योंकि वह अपने नए बाप के अंश से पैदा नहीं हुआ है।यह एक तरह से गांव में गाली जैसा माना जाता है।लेकिन ध्यान रहे वह ‘नाजायज’ औलाद नहीं है।बाकायदा अपनी माँ के साथ आता है।मगर उसे लोग आजीवन ताने मारते रहते हैं।बाल-विवाह या अनमेल विवाह के कारण राजस्थान के गांवों में अकसर ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है।
जिज्ञासा : क्या ‘फिरनेवालियां’ के नेपथ्य से अमानवीयता की प्रतिध्वनि नहीं सुनाई देती?
चरण सिंह पथिक : ‘फिरनेवालियां’ एक तिये की बैठक में जाने की कहानी है। ‘रुदाली’ किराए की रोनेवाली होती थीं।अपने किसी रिश्तेदार की मौत होने पर तिये की बैठक में जाने की परंपरा हिंदुस्तान में सभी जगह है।कहानी का मूल कथन है कि हम चाहे किसी गमी में जाएं या किसी खुशी में, हमारी जड़ों में बसी उत्सवधर्मिता आखिरकार बाहर निकल ही आती है।शोक प्रकट करने के तरीके हैं।उस बहाने जीवन के कई पहलू सामने आते हैं।
जिज्ञासा : ‘कोई जादू है क्या’ सत्य-आधारित है या महज कल्पना की बुनावट है?
चरण सिंह पथिक : कहानी कोई भी हो, वह सत्यकथा नहीं हो सकती।यथार्थ का मामूली या कभी ज्यादा बीज उसके अंदर होता है, जिसे कल्पना या गल्प के साथ इस तरह फेंटा जाता है कि कहानी सुनते या पढ़ते वक्त ऐसा महसूस हो कि यथार्थ एक कल्पना है और कल्पना एक यथार्थ है।
कथाकार कविता के कहानी संग्रह ‘क से कहानी घ से घर’।कविता की रचनाओं में संबंधों की तरलता इतनी महीन है कि घटना-दर-घटना, दृश्य-दर-दृश्य के साथ संबंध जुड़ता जाता है और लगातार बना रहता है।कहानी कहीं नहीं टूटती।कहानी हमारा हाथ थामकर हमें आगे-आगे ले चलती है।कविता एक जगह लिखती हैं, ‘कहानियों के जंगल से लौट भले ही आओ, वे फिर भी दबे पांव पीछे चली आती हैं।’ माता-पिता और एक मासूम बच्ची की हसरतों से भरी दुनिया में आत्मीयता ही मजबूत डोर है, ‘जिस अनुपात में बड़ी हो रही है, उसी अनुपात में वह इन दिनों नासमझ और बच्ची होती जा रही है।’ मां के अंतर्द्वंद्व में बेटी का बड़ा होना सुखकर है और चिंताजनक भी है।इस संग्रह में ‘लौटना किसी क्रिया का नाम नहीं’ एक मार्मिक कहानी है।जब घुटन से दिल भरा हो तो भावनाओं का उमड़ना स्वाभाविक है।कहानी ठहर-ठहर कर साथ चलती है, दर्द कहानी में जान डाल देता है।यह आत्मकथात्मक शैली की एक उम्दा कहानी है। ‘कथा-अकथा’ में मां और बेटी के रिश्ते की कथा है, ‘घर बंधन है, घर आजादी की उड़ान में बाधक है, वह कमजोर बनाता है… निहायत कायर और भीरु भी…।’ 21वीं सदी में परिवार बिखर रहे हैं, परिवार की भूमिका बदल रही है।एकाकीपन के बढ़ते ग्राफ ने परिवार को हाशिए पर धकेल दिया है।इस घटना के साथ स्त्री के मन का वह दर्द है जिसे बदला जाना ही आखिरी विकल्प है।बंधन कोई हो वह हमें मुक्त नहीं करता है, बल्कि नई तकलीफ में डालता है।
नौकरी से अलग हुआ इनसान जब उपेक्षित किया जाने लगता है तब उसकी व्यथा उस नमक की तरह होती है जो पिघलने के बाद भी नमकीनपन की अपनी नियति से अलग नहीं हो पाता।कहानी का अंश है, ‘अजीब है न विनी, पुरुष उम्र होने के साथ-साथ या यूं कहो कि रिटायर होने के बाद परिवार के लिए बेकार हो जाता है।औरत बढ़ती उम्र के साथ और ज्यादा उपयोगी।’ रुक-रुक कर अंदर तक उतर जाने वाली इस कहानी में पति-पत्नी के बीच संबंधों में घुले मिश्री की तरह ताने और बेटी का पिता के प्रति अविरल अनुराग है।गुजर जाने के बाद भी स्मृति में सब बचा रहता है। ‘यहीं तो रहूंगा’ कहानीकार की प्रयोगात्मक शैली की गवाही है।
‘प्रेम वाले वे दिन जो सुर्ख गुलाबी नहीं थे’ महानगरीय जीवन के आपा-धापी में पत्रकारिता के संघर्ष, सच-झूठ और खबरों में मौत की गणना पर केंद्रित है।एक घर जिसमें सभी रहते हैं, ऐसे घर की बेजान दीवारों की भी अपनी एक सोच, एक दृष्टि हो सकती है।यह कहानी घर के मानकीकरण पर आधारित है। ‘स्मृति नाव है’ कहानी को शैली में एकदम नया प्रयोग कह सकते हैं, ‘कुछ कहानियां जंगली फूलों-सी होती हैं, बहुत खूबसूरत और साथ ही रस, रंग और गंध से सहज परिपूर्ण… कहते हुए पर न जाने वह देख क्यों रहा था उसे लगातार… एक अजीब-सी मासूम और सलोनी दृष्टि से…।’ कहानीकार कविता की भाषा प्रांजल है।
जिज्ञासा : ‘कथा-अकथा’ पुराने फार्मूले पर गढ़ी गई एक ताजा कहानी है।इस दौरान आपकी स्मृति में क्या चल रहा था?
कविता : पुराना फार्मूला क्या है? और इस कहानी में फार्मूला जैसा आपको क्या दिखा? जहां तक मैं समझती हूँ ‘चिड़ा-चिड़ी’ को केंद्र में रखकर बहुत कम कहानियां लिखी गई हैं।मुझे लगता है कि यह कहानी कई चीजों पर एक साथ बात करती है, जैसे प्रेम, विवाह, परिवार और साथ-साथ इन प्रश्नों पर भी कि कहानी क्या है और क्यों लिखी जाए, इसका हमारी जिंदगी में क्या महत्व है आदि-आदि।
जिज्ञासा : आप एक प्रयोगधर्मी कथाकार हैं।अपनी कहानियों में निरंतर नए-नए टूल्स का इस्तेमाल करती हैं।यह आप कैसे करती हैं?
कविता : ‘कथा-अकथा’ और कुछ दूसरी कहानियां लिखते वक्त कई बातें दिमाग में एक साथ चल रही थीं, जैसे लिखना आखिर क्यों और किसके लिए? एक वक्त के बाद लिखना एक आदत में तब्दील हो जाता है।भाषा सध जाती है और हम अपने कंफर्ट जोन में रहते हुए लगातार लिखते रह सकते हैं… लेकिन अगर हम सच्चे अर्थों में लेखक हैं तो मोनोटोनस ढंग से लिखना और लिखते जाना हमें व्यथित और परेशान करता है।यही वक्त होता है कि हम ठहर कर सोचें, फिर लिखें और खुद को और अपने बने-गढ़े फॉर्म और भाषा को तोड़कर, याकि एक नई तरह से रचते हुए… वह भी तब अगर लिखना बेहद जरूरी लगे।
जिसे लेखक अकसर अपने न लिखने के दिन, यानी लेखकीय अवरोध वाले दिन मानते हैं, मैं मानती हूँ कि ये उनके इसी कशमकश के दिन होते हैं, नया कुछ रचने और बनाने के जद्दोजहद के दिन।लेखकीय जड़ता से जूझने और उसे तोड़ने के कशमकश भरे दिन।कुछ लेखक इस जड़ता और शैथिल्य को तोड़कर बाहर निकल आते हैं, कुछ नहीं निकल पाते।लिखना वह कला है मेरे हिसाब से जो एक लेखक से, कभी गुम नहीं होती।
इस संग्रह की कहानियां एक बतौर कथाकार कहूं तो बड़े बोझिल और उदास दिनों में लिखी गई हैं, बरसों बाद खुद की तलाश में निकली थी।घर परिवार से बहुत दूर… शहर अपना और पुराना होते हुए भी जैसे एकदम अजनबी और नया था मेरे लिए।ये कहानियां खुद से लगातार चलने वाली जिरह का परिणाम हैं।
जिज्ञासा : कहानी ‘क से कहानी घ से घर’ में घर का मानवीकरण किया है।कहानियों के माध्यम से मानवीकरण किया जाना क्या किसी तरह का प्रयोग या परिवर्तन की आहट है, आप क्या कहती हैं?
कविता : घर या कहें कि बीहड़ में बने एक आउटहाउस का मानकीकरण तो नहीं मानवीकरण जरूर है।कोई घर आखिर क्या सोचता होगा? उसकी आकांक्षाएं क्या होंगी, कैसे सपने देखता होगा, यह इस कहानी का विषय तो नहीं, पर उसका एक सबल पक्ष है… किसी लेखक के भीतर का निष्क्रिय विराम, उसके भीतर की उलझनें, उसके द्वंद्व और भनोभाव और सतह पर दिखता और चलता हुआ प्रेम भी उसमें शामिल है।इसे प्रयोग ही कहूंगी, परिवर्तन-जैसा बड़ा शब्द इसके वितान के लिए विशाल हो जाएगा।यह भी जरूर जोड़ूंगी कि हर बड़ा परिवर्तन कई बार ऐसे छोटे-से प्रयोग से जन्म लेता है।
उमाशंकर चौधरी का कहानी संग्रह ‘दिल्ली में नींद’ है।कहानी लंबी हो या छोटी वह मारक तभी होती है जब पढ़े जाने के बाद पाठक के हृदय में कसक पैदा करे और घर बना ले।इस संग्रह की चारों कहानियां ऐसी ही हैं।इनकी भावभूमि में नमी है।पत्तों पर भोर की झिलमिलाते बूंदों की आयु कम होती है, मगर दृश्य स्मृति में अंकित हो जाते हैं।
90 के बाद से वैश्वीकरण को मजबूती देने वाले वर्गों में तेजी से वृद्धि दर्ज की गई है।विकास का कलफ लगी जीवनशैली ने असंवेदनशील, आत्मकेंद्रित और एकाकी समाज का निर्माण किया है।भारतीय जीवन पद्धित को झटका लगा है।इनसान इनसान के बीच रहकर भी अकेला पड़ता जा रहा है।यह स्थिति ग्लोबलाइजेशन, शहरीकरण, यांत्रिक विस्तार, आपराधिक प्रवृत्तियों में नवाचार के प्रवेश से उत्पन्न हुई है।निजी जीवन के सार्वजनिक मंच में तब्दील हो जाने की वजह से भी मानवमूल्य का क्षरण हुआ है, विवेकहीनता बढ़ी है।इससे शहर की अवधारणा में निष्ठुरता विन्यस्त हुई है।यह सब उमाशंकर चौधरी के बासुकी बाबू, फुच्चु मास्साब और चारुदत्त सुनानी के चरित्र में परिलक्षित होता है। ‘कहीं कुछ हुआ है, इसकी खबर किसी को न थी’ एक सरकारी कर्मचारी की मानसिक दुविधा, भय और छद्म स्नेह से छले जाने की कहानी है।कहानी के केंद्र में बासुकी बाबू का परिवार है, ‘पत्नी आनंदी को अपने पति से ज्यादा सरकार पर भरोसा था शायद, इसीलिए पति की बात पर विश्वास नहीं हो पा रहा था।’ बासुकी बाबू की तरक्की में शंका का बीज अचानक नहीं अंकुरित हुआ है।
गांव और शहर के बीच का सम्मोहन हमें अकसर उदास कर जाता है या असमंजस में डाल देता है, ‘बासुकी बाबू ने सोचा शहर में ये बतखें, ये पोखर, यह हरियाली कहाँ मिलेगी? उनके मन में तुरंत यह अंकित हुआ कि शहर में तो अब पक्षी के नाम पर एक कौआ तक नहीं दिखता।’ विकास ने समाज को तेजी से बदल दिया है।इसका परिणाम सुखकर है, लेकिन भयावह भी उतना ही है, ‘ढेर सारे लोग हैं और ढेर सारी गाड़ियां।जितनी जगह है उससे ज्यादा लोग हैं और जितने लोग हैं उससे ज्यादा गाड़ियां हैं।’ नए जीवन परिवेश ने अभाव, असुविधा, घुटन और बिला वजह की जरूरतें बढ़ा दी हैं।अनंत इच्छाओं के ढेर ने जीवन को भीड़ में तब्दील कर दिया है।
‘कंपनी राजेश्वर सिंह का दुख’ एक कहानी नहीं है, बल्कि समाज का वह मवाद है जिससे तकलीफ की नदी बहती है।पारिवारिक वृत्तांत में सामाजिक विमर्श की अनुगूंज है।मानवीय संवेदना की सघनता बेधक है।घर की घटना केवल घर की नहीं रह जाती, यह वैश्विक शक्ल ले लेती है।
‘दिल्ली में नींद’ कहानी में स्पष्ट है कि दिल्ली किसी की नहीं है और दिल्ली सबकी है।दिल्ली में आकर कोई बेगाना नहीं रहता, बल्कि महानगर के चकाचौंध में सब के सब खो जाते हैं।कुछ बन जाते हैं, कुछ धक्के खाकर संघर्ष करना सीख जाते हैं।कुछ झोपड़-पट्टी से पक्का घर का सपना पूरा कर लेते हैं, तो कुछ हांफते-हांफते काली घाटी की तरह काले हो जाते हैं और अंततः मृत्यु हो जाती है।इस कहानी में विस्थापन की बारीक पड़ताल है।यह राजधानी की आवोहवा में केसर की सुगंध, केवड़े की गमक, रातरानी की भीनी खुशबू, मोंगरे की दूधिया दुनिया, बेला की-सी नाजुक कली सरीखी गलियों में गुम हो जाने, बस जाने, ठन जाने और ठोकर खाकर संभल जाने के हुनर की कहानी है।सुनानी और मृगावती के जीवन में दिल्ली बसंत है, ‘सचमुच में दिल्ली बहुत अनोखी है।बहुत सारे रंग हैं इसके।’
आज का जीवन अकेलेपन, मूल्य-चिंता और पूंजीवादी प्रवृत्ति में अविश्वसनीय वृद्धि से बुरी तरह प्रभावित है।इसीलिए फुच्चु मास्साब गांव की सोंधी खुशबू की तरफ लौट जाने को विवश होते हैं।यह विस्थापन की कहानी है।यह एकबारगी नहीं, बार-बार इच्छानुकूल व्यवस्थित होने की चाह में अव्यवस्थित होने की भी कहानी है।
जिज्ञासा : आपने ‘कहीं कुछ हुआ है इसकी खबर किसी को नहीं थी’ कहानी में एक लंबा सफर तय किया है।इसके यथार्थपरक सूत्र के बारे में बताएं?
उमा शंकर चौधरी : यथार्थ हर जगह है।यथार्थ के बिना साहित्य का क्या महत्व।हां, यथार्थ को जब एक अच्छे शिल्प का साथ मिल जाता है तो वह यथार्थ कई स्तरों पर खुलने लगता है।यह कहानी वास्तव में एक तरफ नगरीय जीवन और ग्रामीण जीवन के अंतर्द्वंद्व की कहानी है, वहीं यह मनुष्यता के दरकने की भी कहानी है।कहानी का मुख्य बिंदु है वासुकी बाबू का भोला मन।अगर उन्होंने अपने भोले मन से विश्वास नहीं किया होता तो शायद वे शिकार होने से बच जाते।तो यह जो विश्वास का दरकना है, वह आज के समय का सत्य हो गया है।लेकिन कोई नहीं सोचता है कि विश्वास के निरंतर खत्म होने की प्रक्रिया ने हमें अंदर से कितना रिक्त कर दिया है।
जिज्ञासा : आज के विकासों से क्या कोई बदलाव नहीं आया और सिर्फ रिक्तता मिली?
उमा शंकर चौधरी : हम जानते हैं कि हमारे समाज के अंदरूनी हिस्से में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है।जिन थोड़े-बहुत बदलावों को लेकर हम अपने विकसित होने की बात करते हैं, वहां भी यह सोचना चाहिए कि आजादी के ७० वर्षों के बाद भी आज अगर हम इन्हीं सब मुद्दों पर बात कर रहे हैं तो क्या बदलाव हुआ? गांव की बात छोड़ दीजिए, अंदरूनी तौर पर हमारा समाज शहर में भी नहीं बदल पाया है।अपरंपरागत जीवनशैली को हम आज भी सहजता से स्वीकार नहीं कर पाते।अविवाहित जीवन, तलाकशुदा जीवन, बच्चा पैदा न होना या फिर सिर्फ बेटियां पैदा होना, यह सब हमारे समाज के लिए आज भी अजीब है और एक सामाजिक दंश है।एक तरफ हम भौतिक स्तर पर विकास कर रहे हैं, लेकिन मानसिक स्तर पर हम और दिवालिया होते जा रहे हैं।यह जो विकास की बेतरतीबियत है, वह देश की असली कहानी कहती है।
जिज्ञासा : ‘दिल्ली में नींद’ में कैसा विस्थापन है?
उमा शंकर चौधरी : यह कहानी विस्थापन को नए नजरिए से देखने का प्रयास है।आज तक विस्थापन का मतलब हम एक देश से विस्थापन या राज्य या फिर गांव से किसी कारणवश हुए विस्थापन को ही समझते हैं।लेकिन किसी ने यह सोचा नहीं होगा कि एक महानगर के भीतर भी आधुनिक विकास के संदर्भ विस्थापन होता है। ‘दिल्ली में नींद’ में जिस विस्थापन का जिक्र है, वह अपने मिजाज में थोड़ा अपरंपरागत है।यहां कोई जोर-जबरदस्ती नहीं है।ऊपर से देखने में यह सब विकास का प्रतिरूप लगता रहा है, पर क्या किसी ने सोचा है कि मनुष्य के दुख के कितने रंग होते हैं?
हम भारतीय लोग गांव के पिछड़ेपन की, अविकसित होने की बात अकसर करते हैं और उसकी तुलना अकसर महानगरीय जीवन से करते हैं, पर मेरा मानना है कि इन महानगरों में गांव के प्रतिरूप में जो स्लम्स हैं या जो सीधे-सीधे गांव ही हैं, उनके हालात भारतीय गांवों के हालात से कई गुना ज्यादा बदतर हैं।महानगर में नीतियां और रवायतें इसके विकसित हिस्से को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं।महानगरों का स्याह पक्ष, इसका छुपा हिस्सा है जो फोकस में ही नहीं है।इस कहानी में जो यह सुरंग है वह दो चीजों की प्रतीक है – एक तो आम मनुष्य के दिन-प्रतिदिन के संघर्ष की, जिससे रोज हमारा वास्ता पड़ता है और दूसरा हमारे ख्वाब की, जो आम आदमी रोज देखता है।
जिज्ञासा : फुच्चु मास्साब के किरदार के माध्यम से आपने क्या कहना चाहा है?
उमा शंकर चौधरी : यह कहानी महानगरीय जीवन में एक बुजुर्ग की दारुण स्थिति को दर्शाती है।महानगर में उसकी बेचैनी, उनका अंतर्द्वंद्व पागलपन की हद तक चला जाता है।यह किसी बड़े रोग से ज्यादा खतरनाक है।दिलचस्प है कि इसके लिए कोई दोषी नहीं है।हम इसे दो पीढ़ियों की समस्या कहकर टरका देते थे, पर यह दो पीढ़ियों की समस्या नहीं है।यह दो संस्कृतियों की समस्या है जिसे हमने बनाया है, हमने चुना है।फुच्चु मास्साब इस असमान विकास के ही शिकार हैं।विकास के इस रास्ते पर हम सभी का यही हश्र होना है।
निर्मला तोदी का कहानी संग्रह है- ‘रिश्तों के शहर’।रिश्ते को दीवारों के बीच बचाए रखने की कला निर्मला तोदी की कहानियों में देखने को मिलती है।हमारा समाज जिस गति से बदल रहा है, ऐसे दौर में खुद की शिनाख्त सबसे बड़ी चुनौती है।इस संग्रह की कहानियों में बंगाल की सोंधी खूशबू है, भाषा की मिठास है, शिल्प की तरंगें हैं।शहरों की चकाचौंध रोशनी के मध्य महिलाओं के अपने सवाल होते हैं, उनकी हिम्मत, उनके प्रश्न, उनके संघर्ष होते हैं।निर्मला तोदी ने कहानी नहीं, बल्कि जीवन को जैसा देखा, वैसा लिखा है।एक ऐसा जीवन जिसमें जुड़ने-टूटने के बाद पुन: जुड़कर उठ खड़े होने की जिद शामिल है।संग्रह की सभी कहानियों में सघन भावावेग है।उनमें संवेदना की तरलता है।घटनाओं का निरूपण निष्क्रिय शैली में नहीं है, बल्कि जीवंतता और सचाई के साथ है।
‘ग्राफोलाजी’ कहानी मनुष्य की पहचान को पुख्ता करने की कहानी है, एकदम टटका शैली है।इसमें व्यक्ति की पहचान किए जाने के सूत्र छिपे हैं।यह कहानी मानव हृदय की अभेद्य संवेदना का रहस्योद्घाटन है।
‘एक मां, एक मां को मां बनने से रोक रही थी’, यह ऐसी अजन्मी कन्याओं की हत्या की दास्तान है जिनकी तकलीफ की फरियादी चिट्ठी कहीं पहुंचती ही नहीं, निष्ठुरता की चट्टानों से टकराकर पुनः लौट आती है, ‘समाज को पिता का नाम चाहिए।वो नाम सूर्य के समान ही बड़ा था, जिसे छू भी नहीं सकते।होटल के एक कमरे में बिताई रात का कोई नाम नहीं होता।’ हालांकि समाज में परिवर्तन आ चुका है।सिंगल मदर, सिंगल पैरेंट अब संकोच का विषय नहीं रह गया है।
फ्रायड ने कहा है कि बच्चे को बच्चा मानकर उसके सामने किया जाने वाला कृत्य सही नहीं है, क्योंकि बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है वैसे-वैसे घटित दृश्य के आलोक में स्व-मूल्यांकन करने लगता है।ऐसे ही मासूम, अबोध, नासमझ लेकिन अत्यधिक जिज्ञासु, गुणवान बच्ची की कहानी ‘नीले फूलों वाली गुलाबी साड़ी’ है।दरअसल बच्चे छुपे हुए तथ्य और सत्य को नेपथ्य में होने के बाद भी समझते हैं।भागमभाग भरी दिनचर्या में ठहरकर सुस्ताने का वक्त किसी के पास नहीं होता।यही वजह है कि लोग जीवन के अमूल्य पलों के आस्वाद से वंचित हो जाते हैं।यह वंचना ‘मैं इन थोड़े से शब्दों में’ की कहानी है।यह मानवीय संवेदना के सूखते जाने की गहन पीड़ा की कहानी है।पारिवारिक हिंसा ने अनगिनत घरों को बर्बाद किया, सांस्कृतिक जड़ों को नष्ट किया और संवेदना के तंतुओं को छिन्न-भिन्न कर दिया। ‘अंधेरे को निगलता हुआ सूरज’ में आयशा रिश्तों की गरमाहट के बीच पनपती हिंसा की परतों को धीरे-धीरे खोलती है।यह मासूम आयशा की हिम्मत व जिजीविषा की कहानी है।
इस संग्रह की शीर्षक कहानी ‘रिश्तों के शहर’ थोड़ी लंबी है, विषय में व्यापकता है।फलक विस्तृत है, बहुपरतीय घटनाएं हैं।कहानी बंगलुरू, अहमदाबाद, कोलकाता तक फैली हुई है।केंद्र में हैं दो मासूम छोटी बच्चियां जो दो अलग पिता की संतानें हैं।उन दोनों की मासूमियत के मनोविज्ञान का सूक्ष्म विश्लेषण है।एक स्त्री की शादी होती है, टूटती है, वह खुद चयन करके विवाह करती है और पुनः संबंधविच्छेद हो जाता है।बार-बार टूटने की इस कसक से उपजे हालात दो बेटियों को विद्रोही और चिंतनशील बनाते हैं। ‘पांच-सात रोज साथ में रहना और हमेशा साथ रहने में बहुत फर्क है।’ वे आधुनिक दौर के बयार से भी परिचित कराती हैं, ‘सिंगल पैरेंट के बच्चे जल्दी मेच्योर हो जाते हैं।’ निर्मला तोदी की इस कहानी में औपन्यासिक विस्तार है।उनकी कहानी का शिल्प कथानक के हिसाब से सटीक है।यह नई पीढ़ी के लिए कौतुक का नहीं सहजबोध का विषय है।
जिज्ञासा : आपकी कहानी का वृत्तांत उपन्यास की शैली में है।आपने इसे इस तरह क्यों प्रस्तुत किया?
निर्मला तोदी : कहानी की शुरुआत कहानी की तरह ही हुई, आगे नदी के बहाव की तरह बढ़ती और फैलती गई।मैंने भी महसूस किया फिर लगा जिस रूपरेखा में शुरू की है, उसी में ख़त्म करना सही है।बातें कम शब्दों में कही गई हैं।मूक शब्द ज्यादा बोले जाते हैं, समझे जाते हैं।
जिज्ञासा : क्या आप अपनी कहानी को आज के जेंडर डिस्कोर्स में रखकर देखती हैं?
निर्मला तोदी : स्त्री भी कुछ कहना चाहती है।स्त्री कमजोर नहीं है, उसे झूठा पाठ पढ़ाया गया है।उसे महानता और त्याग का जामा पहनाया गया है, जिससे बाहर निकलना जरूरी है।आज की अपनी अस्मिता को भूलकर, अपने आत्मसम्मान को दबाकर यदि कोई चोट करे तो उसे सहन करके जीते रहने से उसे इनकार है।
जिज्ञासा : ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ ऐसा शीर्षक रखने का औचित्य?
निर्मला तोदी : घटनाएं अनंत हैं, कहानियां भी अनंत हैं।सत्य भी अनंत है।विज्ञान अनंत है तो खोज भी अनंत है।इस कहानी में बची रह गई कहानियां हैं, लेकिन जो बची रह गईं, वे अनंत हैं।वे समुद्र की लहरों की तरह उछल-उछल कर लहलहा कर आती हैं।कभी शब्द दिए जाते हैं कभी लहरें ऐसे ही लौट ज़ाती हैं।बिना लॉजिक ढूंढे कुछ बातों को मान लेना होता है।
जिज्ञासा : कहानियों में परिवार और रिश्तों को इतनी अहमियत देने के पीछे क्या वजह है?
निर्मला तोदी : व्यक्तित्व निर्माण में परिवार की अहम भूमिका है।मां बच्चे की पहली गुरु है।परिवार के रिश्ते जड़ें बनाते हैं।इन्हीं जड़ों से सामाजिक रिश्ते बनते हैं।इससे समाज का निर्माण होता है।रिश्तों की टूटन आदमी को तोड़ देती है, बिखेर देती है।इसका सीधा प्रभाव समाज पर पड़ता है।समाज देश का अंग है, देश दुनिया का।पानी के घड़े में पानी की हर बूंद का महत्व है।परिवार के संबंधों का दायरा मुझे बहुत महत्वपूर्ण लगता है।
समीक्षित पुस्तकें –
- दो बहनें: चरण सिंह पथिक, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली (2)क से कहानी घ से घर: कविता, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली (3)दिल्ली में नींद: उमा शंकर चौधरी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली (4) रिश्तों के शहर: निर्मला तोदी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
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