कवि और समीक्षक. विद्यासागर विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर एवं प्रबुद्ध रंगकर्मी.
कविता की लंबी यात्रा से गुजरते हुए कहा जा सकता है कि यह जीवन से एक संवाद है। इसमें जीवन की असंख्य बातों पर बातचीत होती है। यह जितनी भावपूर्ण दुनिया है उतनी ही चेतना संपन्न भी। संबद्धता, सहृदयता और प्रतिबद्धता के त्रिभुज में कविता का संसार उज्ज्वल और सार्वभौम बनता है। यह हमारे भीतर स्मृतियों के संस्कार को बचाने के साथ प्रतिरोध की आलोचनात्मक दृष्टि भी निर्मित करती है। वाल्मीकि ने बहुत पहले क्रौच वध के विरुद्ध प्रतिकार किया था। दरअसल यह कहना गलत न होगा कि जो अन्यायपूर्ण है, जो मानव-विरोधी है, संस्कृति विरोधी है, वह कविता के राडार पर है।
आदमियत के लिए प्रतिबद्ध कविताएं
मैं इतिहास का/एक गुमशुदा पात्र हूँ/मैं नहीं जानता/मेरी आँखों को क्या हो गया है/खुली रखें तो सपने दिखाई दें/बंद करें तो भी सपने नजर आएं…/सपनों में असलहों की झंकार सुनाई दे/सपनों में नदियां हैं…/मैं इन सपनों से मुक्ति चाहता हूँ।
सपनों के बीच जीने वाला कवि जब अचानक यह कहने लगे कि मैं सपनों से मुक्ति चाहता हूँ तो यह सवाल उठना मुनासिब है कि आखिर कवि मुक्ति क्यों चाहता है? सपनों का पूरा न हेाना। सपनों के पूरा न होने की गहरी बेचैनी को अपनी कविता का कथ्य बनाते हैं जाबिर हुसेन। वे एक वरिष्ठ कवि हैं। जैसे रेत पर गिरती है ओस उनका नवीनतम काव्य संग्रह है। इसकी कविताएं इस विध्वंसक समय को चिह्नित करते हुए हमें आगाह करती हैं। वे हमारे भीतर सुंदरता को रोपने की पहल करती हैं। जाबिर हुसेन की कविता लोक और इतिहास से विस्थापित मनुष्य की पीड़ा का आख्यान है। इस नई सभ्यता में मूल्यों और लोक-आख्यानों को एक साथ विस्थापित किया जा रहा है, हालांकि इनसे जीवन-सौंदर्य की सृष्टि होती है।
जाबिर हुसेन इतिहास के बरक्स आदमियत को रचते हैं। वे इस संग्रह को उन असलहों के नाम समर्पित करते हैं जिनका छात्रों-शिक्षकों को लहूलुहान करने में इस्तेमाल हुआ। उनके इस समर्पण में एक बेबसी है। इसमें एक भविष्य-विरोधी समय की झलक है। आज का समय ‘विरुद्धों’ का समय बनता जा रहा है। कवि की चिंता इससे जुड़ी है कि क्या विरुद्धों के बजाय सामंजस्य की पहल नहीं हो सकती? आज आदमी को आदमी के विरुद्ध धर्म, जाति, भाषा, लिंग, नस्ल, विचारधारा, वर्ग आदि के धरातल पर अलगाकर देखने की संस्कृति विकसित की जा रही है। लोग दायित्वों का सही निर्वहन करने के बजाय आरोप-प्रत्यारोप करने में मशगूल हैं। असहमति का प्रयेाग संवाद के बजाय संहार के लिए किया जाना घोर अंधता है। ऐसे अंधत्व से क्या समाज को बचाया नहीं जा सकता?
इस संग्रह की भूमिका में जाबिर हुसेन लिखते हैं, ‘आसमान में चांद है, तारे हैं। सूरज भी है। इनमें से किसी को भी आसमान का साथी नहीं कह सकते। क्या धरती आसमान की साथी हो सकती है। धरती से तो उसकी स्पर्द्धा रहती है। धरती अपनी बहुत सारी विपत्तियों के लिए आसमान को ही जिम्मेदार मानती है। बाढ़ आ जाए, सूखा पड़ जाए, धरती की उंगलियां आसमान की ओर ही उठ जाती हैं। धरती में कंपन हो या स्खलन, आसमान दोषी!’ वे कहते हैं, ‘आसमान हमारा मित्र नहीं हो सकता/एक बार उसे आजमा कर तो देखें।’
यह इलिमिनेशन का समय है जहां जोड़कर नहीं, बल्कि हर जगह लड़ाकर देखने की कोशिश की जाती है। यही वजह है कि दूरियां बढ़ने के साथ आदमी ज्यादा आक्रामक और निष्ठुर हो जाता है।
जाबिर हुसेन का अपनी कविताओं में सहजता और सरल कहन-शैली से भी व्यापक प्रभाव उत्पन्न करना आसान काम नहीं है। वे बिना बनावट के ‘कंचे खेलते बच्चे’ कविता में कहते हैं – ‘इब्नबूतता ने/अपनी धुंधली आंखों से देखा/सत्तर साल के कई बच्चे/संसद भवन के लान में कंचे खेल रहे थे।’ इस संग्रह में उत्पीड़ितों के सबसे विश्वसनीय दस्तावेज के रूप में कविताएँ दर्ज हैं। इनमें अंध-राष्ट्रवाद का शिकार होते लोगों का दर्द, समानता और न्याय की बात कहने वालों के दमन, जन-आंदोलनों को व्यवस्था-विरोधी करार देते हुए झूठे मामले में फँसाए गए लोगों की पीड़ा निर्भीकता से व्यक्त की गई है। ये कविताएं बार-बार अपने समय और समाज को कठघरे में खड़ा करती हैं। वे कहते हैं- ‘तानाशाही हमेशा/दबे पांव ही आती है/सूचना के स्रोतों पर/हमला करती है।’
कवि लोकतंत्र को महज आभासी मानता है। प्रचार माध्यमों और कारपोरेट साथियों के साथ मिलकर आज जिस अधिनायकवाद का उत्थान हो रहा है, वह पूरी मानव जाति के लिए घातक है। मानव-विकास के मुद्दे पीछे छूट रहे हैं।
व्यस्त हैं वो जिनके कंधों पर
बच्चों की हिफाजत की जिम्मेदारी है
उन्हें अपनी सत्ता
संभालनी है फिलहाल
यह हमारे समय की विडंबना है कि अस्पतालों में आक्सीजन की कमी से बच्चे मर रहे हैं और सरकार करोड़ों रुपये पत्थर की मूर्तियों पर खर्च कर रही है। कवि सरकार की प्राथमिकताओं से पर्दा हटाते हुए लिखता है, क्या क्या बचाएगी सरकार/सरकार मर रहे बच्चों को/सूख रहे खेतों को/गर्म जल कुंडों को/कट रहे पेड़ों को/या खुद को। कवि का मानना है कि जो सुंदर है, शाश्वत है, मानवीय है हमें उसे बचा लेना चाहिए।
हमारे अंदर का भाव जितना उदार और मानवीय होगा, दुनिया उतनी ही सुंदर होगी। हमें वृक्षों, तालाबों, नदियों, पर्वतों आदि के प्रति भी संवेदनशील होने की जरूरत है। जाबिर हुसेन का मानना है कि कवियों को चाहिए कि वे कभी-कभी कविताओं से पूरी तरह मुक्त होकर, खुली हवा में चांद-सितारों से सजे आसमान की ओर देखें और प्रकृति के चमत्कार का आनंद उठाएं। निश्चय ही उन्हें इस चमत्कार के पीछे किसी अलौकिक शक्ति की तलाश नहीं करनी चाहिए। इस संग्रह में पर्यावरण को बचाने की गहरी चिंता देखी जा सकती है। नई कविताओं में पेड़-पौधों, समंदरी लहरों, नदियों और पहाड़ों की चोटियों का संगीत सुना जा सकता है। कवि सिर्फ कविता में जीवन नहीं रोपता, बल्कि कविता के बाहर उनकी पक्षधरता युवा ग्रेटा थुनवर्ग जैसों के प्रति भी है। हिंसक हथियारों के खिलाफ एक निश्छल पर जरूरी प्रतिवाद बनकर आई ग्रेटा जैसे भविष्य ही है।
ये सरदार दुनिया को ‘वार सक्वायर’ में बदलना चाहते हैं/उन्हें धरती को प्रलय से/बचाने वालों की जरूरत नहीं/उन्हें सिर्फ अपने/हथियारों के बाजार की चिंता है तुम लेकिन/अपना संघर्ष/जारी रखना/दुनिया भर के बच्चे/तुम्हारी राह/देख रहे हैं। ‘जैसे रेत पर गिरती है ओस’ संग्रह की लगभग सभी कविताएं पठनीय एवं प्रभावी हैं।
जिज्ञासा : आप सामाजिक-राजनीति का सरोकारों से लंबे समय तक जुड़े रहे हैं। साहित्य की तरफ इतना ध्यान कैसे गया?
जाबिर हुसेन : सामाजिक सरोकारों और नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए गहन सक्रियता के कारण ही हिंदी और उर्दू भाषाओं में रचनात्मक कार्य पर अधिक ध्यान रहा। कथा-डायरी, संस्मरण के रचनात्मक योग से एक नया प्रयोग भी सामने आया। इस दौरान पत्रिकाओं का संपादन भी होता रहा। यह क्रम जारी है।
जिज्ञासा : आपने छोटी कविताएं ज्यादा लिखी हैं?
जाबिर हुसेन : नई पीढ़ी के रचनाकारों के बीच संवेदना की सूक्ष्म गहराई पैदा करने के लिए सरल एवं छोटी कविताएं लिखता रहा हूँ। सरल भाषा में लिखी गई मेरी छोटी कविताओं का मार्ग युवा पीढ़ी के कवियों को ज्यादा आकर्षित करता है। छोटी कविताएं अर्थ की द़ृष्टि से महत्वपूर्ण होती हैं। अनावश्यक रूप से जटिल शब्दों का प्रयोग कविताओं को बोझिल बना देता है।
जिज्ञासा : आज के खतरों को आप कैसे चिह्नित करते हैं?
जाबिर हुसेन : बाजारवाद के बढ़ते संकट, सत्ता के केंद्रीकरण और पूंजीशाही की ओर बढ़ते कदमों ने एक नए प्रकार का सांस्कृतिक खतरा पैदा कर दिया है। सामाजिक समरसता और भाईचारे के मूल्य कमजोर हो रहे हैं। नई पीढ़ी को इन मूल्यों के प्रति संवेदनशील बनाना आवश्यक है। मेरी कविताएं नई चुनौतियां पैदा करती हैं। नई पीढ़ी के कवियों को जोखिम उठाने का साहस अपनी रचनाओं में बरतने की स्वाभाविक कला विकसित करनी होगी। प्रतिरोधी स्वर ही आगे का मार्ग तय करेगा।
जिज्ञासा : वर्तमान हालत पर आप क्या कहना चाहते हैं?
जाबिर हुसेन : सारी दुनिया में बच्चों के साथ हो रही नाइंसाफी और हिंसा के ख़िलाफ आवाज़ उठाने की परंपरा अपना तेज खोती जा रही है। आतंक और संगठित हिंसा के शिकार बच्चे अपना साहस और तेज खो रहे हैं। एक बेहतर और साहसिक समाज के निर्माण के लिए संघर्ष किए बिना हम आनेवाले समय की कल्पना नहीं कर सकते। मेरी कविताओं में आप धैर्य और साहसिक निरंतरता के तत्व पाएंगे।
असहमति के साहस के साथ बोलती कविताएं
युवा कवि वीरू सोनकर के पहले काव्य-संग्रह ‘मेरी राशि का अधिपति एक साँड है’ का हाल में प्रकाशन हुआ है। इस संग्रह में कुल 86 कविताएं हैं। इन्हें कवि ने सात उपशीर्षकों में रखा है। इस संग्रह की अधिकांश कविताएं उन लोगों की आवाज बनकर आती हैं, जिन्हें बोलने नहीं दिया गया। अपने समय के संकट को चिह्नित करती कविताएं, ऐसे समय में आई हैं, जब सत्ता, पूंजी और बाजार बोलने की परंपरा को मिटाने पर तुले हैं। आज हमारी भूमिका श्रोता-मात्र की होती जा रही है। अगर कोई बोलने की कोशिश करता है या प्रश्न करने की कोशिश करता है, तब उसे व्यवस्था-विरोधी कहकर लोकतंत्र के बस्ते में ठूंस दिया जाता है।
‘आत्मकथ्य’ में वीरू सोनकर बड़े साहस के साथ कहते हैं, ‘मैं इस धरती का सबसे असहमत व्यक्ति हूँ।’ कवि की इस असहमति में महज असंतोष ही नहीं है, बल्कि मनुष्यता की पहचान के लिए एक गहरी प्रतिबद्धता भी है। वे हाशिए के लोगों के पक्ष में खड़े होकर कहते हैं, ‘मैं कई पीढ़ियों से भुलाया जा रहा हूँ। कई हजार वर्षों से सुलग रही भूख की लपटों में झुलसी मेरी देह की हत्या नहीं की जा सकती। इस देह को हराया भी नहीं जा सकता है और इसका ‘अस्वीकार’ तो कतई भी नहीं।’ कवि का आत्मबोध एक गहरी यंत्रणा और सामाजिक सरोकारों से निर्मित है। उसकी चिंता के केंद्र में संसार के सभी पीड़ित और दुखी लोग शामिल हैं। आज जब कई व्यक्ति ‘स्वकेंद्रित’ और आत्मतुष्ट होकर ‘सेलेब्रेशन’ कर रहे हैं, कवि हाशिए के लोगों के लिए बेचैन है-
मैंने कहा दर्द
संसार के सभी किन्नर, सभी शूद्र और
वेश्याएं रो पड़ीं
मैंने शब्द वापस लिया और कहा मृत्यु
सभी बीमार, उम्रकैदी और वृद्ध मेरे पीछे हो लिए
मैंने शर्मिंदा होकर सर झुका लिया
फिर कहा ‘मुक्ति’
सभी नकाबपोश औरतें, विकलांग और कर्जदार
मेरी ओर देखने लगे।
युवा कवि वीरू सोनकर की प्रतिबद्धता महज अधिकार दिलाने से नहीं जुड़ी है, बल्कि वह आदमी की पीड़ा, उसके दर्द, अपनी असहायता की व्यथा को भी व्यक्त करती है। कवि व्यवस्था, बाजार और सत्ता के समक्ष आत्मसमर्पण करने के बजाय प्रतिरोध रचता है। ‘यह सच है’ में कवि मानता है कि अत्याचार की परिणति विद्रोह है। तभी आज किसानों की चुप्पियां खेतों से निकलकर सड़कों पर चीख बन चुकी हैं। यह भी कहा गया कि गोली से पत्रकार कभी खत्म नहीं किए जा सकते। कविता कहती है, ‘यह सच है कि तानाशाहों के हिस्से में हमेशा आखिरी गोली आई/यह सच है कि सच को बदला नहीं जा सकता।’ ऐसी निर्भीकता समय की जरूरत है।
इस संग्रह की अधिकांश कविताएं मानवाधिकार के प्रश्नों को लेकर आई हैं। इन कविताओं में एक ओर जहाँ घृणा, कट्टरता, तानाशाह की मूर्खता, संवेदनहीनता और पाखंड दर्ज है, वहीं दूसरी ओर प्रेम, समभाव, विवेकपरकता और लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने की बेचैनी है।
इस संग्रह में कई जगहों पर यह भी देखने को मिलता है कि कवि में अपने तथाकथित समकालीनों की मंशा को लेकर संदेह है। यह स्वाभाविक और जोखिमपूर्ण है। एक समय था जब मुख्यधारा से वंचित लेखकों ने साहित्य में अपनी जगह बनाई थी। साहित्य में छद्म भी खूब फैला। इस विषय पर वीरू सोनकर का यह सवाल जायज जान पड़ता है- ‘छुपे चेहरे वाले कवि,/क्रांति चीख कर अपने असली चेहरों संग निकल भाग रहे थे/और लोर्का की आत्मा/इन नकली लड़ाइयों से चिढ़कर/स्वर्ग में पुनर्जन्म की मांग पर उपवास पर थी।’ कवि की यह चिंता आगाह करती है कि कविता को नकली लड़ाई का माध्यम नहीं बनाना चाहिए। ऐसा करने से कवि की विश्वसनीयता घटती है।
वीरू सोनकर की कविताओं में प्रेम और जीवन के आख्यान भी हैं। वह अपने जीवन और परिवेश को प्रेम और उम्मीद के रंगों से भरता है। वह रचना में जीवन के अनेक रूपों का वृत्तांत रचता है। भाषा उसके जीवित, जागृत और कल्पनाशील होने के साथ विस्तृत होने का माध्यम भी है। वह अपनी कविता में साधारण को सिर्फ सृजित ही नहीं करता, बल्कि गहरी आत्मीयता के साथ उसका अनुभव भी करता है। भाषा को स्मृति, गंध, पेड़, पहाड़, चीटियों के संवाद, मछली और चिड़िया के जरिए जीवन से जोड़ता है। परिवेश से उसकी गहरी संबद्धता उसकी काव्यात्मक सहृदयता का परिणाम है। ‘बरामदगी’ कविता की पंक्तियां हैं- ‘मैं जितने शहर गया मैंने उतनी ही बार प्यार किया/पहली बार दिल्ली गया तो एक कवि से नफरत की/दूसरी बार गया तो दो कवियों से नफरत और एक स्त्री से प्रेम किया।’
इस संग्रह में कई कविताएं ऐसी हैं जिनके केंद्र में बच्चे, स्त्री और मछलियां हैं। कवि का मानना है कि बच्चों के जैसा सरल, कल्पनाशील और आत्मीय रहकर ही हम दुनिया को सुंदर और मानवीय बना सकते हैं, ‘पूरी दुनिया में अब बच्चे ही बच्चे हैं/जो दौड़ रहे हैं/जो हँस रहे हैं/जो चीख रहे हैं/और धक्का दे रहे हैं एक दूसरे को/गिर रहे हैं एक सदी से दूसरी सदी की गोद में/और किताबों में ढूंढ रहे हैं/अपनी खो गई काली पुतलियों को।’ नागार्जुन की तरह ही वीरू सोनकर की आस्था के केंद्र में नई पीढ़ी है। यह नई पीढ़ी सचेत है, कल्पनाओं से भरी है।
दरअसल परंपरा का विशेष आग्रह हमें आगे बढ़ने नहीं देता है। अतीत की कीलें हमें दर्द से भर देती हैं। कवि बार-बार असह्य प्रतीक्षाओं को मारने का आह्वान करता है। ये प्रतीक्षाएं सदियों से वर्चस्ववादियों, धर्मनेताओं, सामंतों, राजनेताओं के पास गिरवी हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति ने एक ओर हमें हमारी जड़ों से काटकर दिशाहारा बना दिया है तो दूसरी ओर पुराने धार्मिक प्रतीकों को पुनर्जीवित कर उनके आकर्षण से बांधा है। ऐसी स्थिति में हमारा नैतिक पतन शुरू हो जाता है। ऐसी चुनौतीपूर्ण स्थिति को चिह्नित करते हुए कवि परिवेश और पर्यावरण से जुड़ने का आग्रह करता है- ‘एक साथ बहुत सारी सभ्यताओं को भूलने की बीमारी हो जाएगी/याद रहेंगे सिर्फ पर्वत,/घाटियां, नदी, गुफाएं, संगीत और स्त्रियां/प्रार्थनाएं एक कायरतापूर्ण कृत्य कहलाएंगी/और सहभागिता बदल जाएगी एक नए धर्म में/सबसे कीमती बच्चे ही होंगे/सदी की गोद में बैठकर पिता गाएंगे मीठी लोरियां।’
इस संग्रह में संकलित कविता ‘प्रेतात्माओं का स्वांग’ से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि हम सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के तमाम देशों की स्त्रियों के मुक्ति-पर्व का अवलोकन कर रहे हैं। यह सच है कि समय-समय पर स्त्रियों को ऑनर कीलिंग, पुरुष-सत्तात्मक घेरेबंदी, विस्थापन जैसी स्थितियों के जरिये तोड़ने और खामोश होने के लिए बाध्य किया गया। लंबे संघर्षों के बाद आज वे शिक्षालयों में चहक रही हैं, अपनी देह और सौंदर्य को लेकर आत्मगर्व से भरी हैं। वे देव-स्थान की सीढ़ियों के बजाय लाइब्रेरी में हँस रही हैं। अपनी क्षमता और दक्षता के बल पर जल, थल और आसमान को नाप रही हैं। अपने अधिकार और पहचान के लिए खुलेआम बोल रही हैं- ‘दुनिया भर की व्यवस्थाओं को धूल चटाकर/वे ढूंढ रही हैं मुल्लाओं को/वे ढूंढ रही हैं सत्ताओं को/खेल रही हैं खुली सड़क पर/और बालों को पटक रही हैं सहेलियों के चेहरों पर।’ वीरू सोनकर का यह संग्रह हमें सार्थक रचनाधर्मिता को लेकर आश्वस्त करता है। यह कवि की गहरी संवेदना का आख्यान है, जिसमें जीवन की गति है, अन्याय का प्रतिकार है। कवि ने इसमें अपने समय की आहटों को सावधानी से सुना है।
जिज्ञासा : आपने कविता लिखने का मार्ग क्या सोचकर चुना?
वीरू सोनकर : कवि का व्यक्ति जब इस दुनिया के सीधे संपर्क में आया तो उसके ‘होने’ के वैध रूप पर बार-बार बाहरी आक्रमण हुआ। कई बार सभ्यता के द्वारा उसकी स्वतंत्रता सीमित की गई। अपने ‘बनने’ के दिनों में बार-बार टूटना या अपने आकार से हो रहा अनपेक्षित समझौता ही वह बात होती है जो आपके एकांत का परिसर संपन्न करती है और बातूनी बना देती है। जब दुनिया से संवाद के माध्यम सीमित हो जाते हैं तो अक्सर ऐसी बातचीत आपको अन्य माध्यमों की ओर मोड़ देती है यह कला हो सकती है, जैसे संगीत और कविता भी।
जिज्ञासा : आपकी कई कविताओं में एकाधिक घटनाएं एक साथ चलती हैं। इसके बारे में कुछ बतलाइए।
वीरू सोनकर : एक लंबी कविता किसी एक केंद्रीय विषय पर सीमित न होकर बहुआयामी हो सकती है। उसमें दृष्टि के कई केंद्र हो सकते हैं। उसमें बहुत सारे जीवन समुच्चयों का प्रकटीकरण हो सकता है। अगर कविता की गति प्रभावित नहीं हो रही है तो एक लंबी कविता के भीतर बहुत सारे जीवन वृत्तांत और अमूर्त संकेत मिलते हैं।
जिज्ञासा : आपकी कविताएं आत्मालाप के रूप में भी आती हैं। ऐसा क्यों है?
वीरू सोनकर : कविता अपने घनिष्ठ रूप में अंततः एकालाप और आत्मालाप ही तो है। हम कविता किसी को सुनाने के लिए नहीं लिखते हैं। यह पहले रूप में संवाद ही होती है। असल बात यह है कि हम अपनी यात्रा कैसे तय करते हैं? सबने अपने-अपने हिस्से की बात कह दी है, आपके हिस्से की बात कहां है? हमारे हिस्से का दुख कहां है? कविता में नए की खोज हमें कितना बेचैन करती है? हम एक कविता न लिख कर खुद को कितना अधिक सहन कर पा रहे हैं? हमारी काव्य ऊर्जाएं हमें जो नशा दे रही हैं उसमें एक असहमत पृथ्वी की गति क्या है? हम बगावत के भीतर हैं या कहीं किसी सुख की प्रार्थना में खोए हैं? हम कहीं सुहावनी कपोल-कल्पनाओं के मजदूर भर तो बन कर नहीं रह गए हैं? कवि के सामने ये सवाल रहते हैं।
अंततः हमें अपने यथार्थ का सामना करना होता है और कविता के भीतर उसकी जांच के नए तरीके खोजने होते हैं- यही महत्वपूर्ण है। यह ध्यान देना होगा कि जो विडंबनाएं/ चुनौतियां सामने हैं वे सब बहुत कठोर हैं। उन्होंने संस्कृति का कवच धारण किया है। आपके भीतर का विचलन भी एक भूमिका अदा करता है। कविता अगर इन सबसे टकरा नहीं सकती तो उसके होने पर प्रश्न है कि वह क्यों है? समतामूलक पृथ्वी की खोज में कविता सबसे आगे खड़ी है और मुझे लगता है हमे यहाँ और अधिक काम करना होगा।
जिज्ञासा : क्या आपको यह नहीं लगता कि काव्य-रचना के लिए स्थानीय परिवेश की एक बड़ी भूमिका होती है?
वीरू सोनकर : मेरी स्मृति में गांव नहीं है। हम बहुत पीछे जाकर भी खुद को टटोलते हैं तो गांव अनुपस्थित है। शहरी जीवन आपको कई किस्म की सुविधा तो कई किस्म के ऐसे अभाव देता है जिनकी भरपाई किसी और चीज से नहीं हो सकती है। आपका पहला स्कूल, आपका पहला प्यार, पहला धोखा जहां से मिला। जहां आप बड़े हुए, जहां की भाषा ने आपको अपनी बात कहने की तमीज सिखाई, जहां आपने मौसमों का आना-जाना देखा और पहचाना, उन जगहों का आपके अस्तित्व और चिंतन से सीधा संबंध होता है। हर पीड़ा में, हर भय में, जीवन के हर उत्सव और विलाप में आप वहां से बोलेंगे, जहां से आप आए हैं। जो लोग इसे सप्रयास रोक लेते हैं फिर वे वह व्यक्ति नहीं रहते जो होते हैं। यह कायांतरण की बात नहीं है। यह असली मन की जगह प्लास्टिक का मन बना लेने वाली बात है!
जिज्ञासा : आपकी कविताओं में बच्चे, मछली, नदी और स्त्रियों का जिक्र बार-बार होता है। इसकी कोई खास वजह?
वीरू सोनकर : हमारी निर्मिति में हमारी अतृप्त इच्छाओं का बहुत बड़ा रोल होता है। कई बार हमारी इच्छाएं इतनी मूक, इतनी सलज्ज, इतनी अमूर्त होती हैं कि हम उन्हें सीधे न कह कर प्रतीकों के माध्यम से कह देते हैं। अगर आप मिथकों में भी जाए तो वहां पाएंगे कि जिस जगह से सभ्यता की शुरुआत के दावे किए गए वहां भी सबसे पहले मिलने वाली चीजों में सब शामिल थीं।
दरअसल नदी और स्त्री सबसे अधिक लयबद्ध और बड़े जीवन स्रोत के रूप में हमारे सामने आ खड़ी होती हैं। इनकी उत्साहधर्मिता जीवन को बहुआयामी बनाती है। यह भी कह सकते हैं कि बच्चे-नदी-स्त्री-आकाश-मछली इस पृथ्वी के सौंदर्य हैं। ऐसा सौंदर्य जो जीवन को पोसता है, उसे रंग और शीतलता देता है। ये चीजें आपको आपका मौलिक आदिम रूप कभी भूलने नहीं देतीं। यह आपको बताएंगी कि आप कहाँ से आए हैं और आप दरअसल हैं क्या?
यह सभ्यता अपनी यात्रा में बहुत ज्यादा भटक चुकी है तो क्यों न हम एक बार उन जगहों की ओर देखें, जहाँ से हम चले थे!
रस, गंध, स्वाद और आंच का कोरस है प्रेम
कवयित्री लवली गोस्वामी की ‘उदासी मेरी मातृभाषा है’ काव्य-संग्रह को प्रेम की एक नवीनतम अभिव्यक्ति के तौर पर दर्ज किया जा सकता है। इस संग्रह को पढ़ते हुए लगता है कि युवा कवयित्री के यहां प्रेम स्मृतियों का कोलाज है। आज जीवन पर बाहरी जगत और घटनाओं का दबाव बढ़ने के कारण हमारे भीतर के भाव जगत का संकुचन होने लगा है। ऐसे समय में लवली गोस्वामी अपने भीतर के भाव जगत को अपनी कविताओं में पर्याप्त स्पेस देती हैं और अपने मन की बात बेबाकी, आत्मीयता और गंभीरता से रखती हैं।
इस संग्रह का भाव-स्वर भले परंपरा से भिन्न न हो, पर कहन के स्तर पर भिन्नता है। इनके यहां प्रेम सिर्फ साहचर्य का नहीं, बल्कि स्मृति का भी आख्यान बनकर आया है जहां जीवन की जटिलताओं का भी सामना है। वे प्रेम में दुख से उत्पन्न टीस के लिए आंखों से अंजुरी भर खारा पानी भी बहाती हैं। इसे वे इस रूप में देखती हैं, ‘फूलों की एक बड़ी माला में/पूरे बगीचे का वसंत कैद होता है।’ उनके यहां प्रेम को जीने में पूरा जीवन लग जाता है।
दरअसल प्रेम के प्रति लवली गोस्वामी की आस्था प्रकृति की तरह विराट और उर्वर है- ‘वह हर बीज को फोड़ कर देख रहा था/कि उसके अंदर क्या है/मैं उसे अंत तक समझा नहीं पाई/कि बीज के अंदर पेड़ होते हैं।’ वे एक लंबे प्रेमानुभव को विस्तार से अपनी कविताओं में व्यक्त करती हैं। उनका मानना है कि प्रेम की कविता महज एक रचना नहीं है, बल्कि संबंधों के कई सालों का दस्तावेज होती है।
इस संग्रह की अधिकांश कविताएं प्रेम की फैंटेसी में उसकी परिणति की ओर भी संकेत करती हैं-
कुछ इच्छाओं को हमने कभी नहीं पहना
वे वार्डरोब में पड़ी-पड़ी बदरंग हो गईं
जिन इच्छाओं को हम जी भर पहनकर घूमें
वे अब कई जगहों से फट गई हैं।
इस संग्रह को पढ़ते हुए लगा कि कवयित्री के लिए प्रेम एक आश्वस्ति है। इस आश्वस्ति में जीवन की असंख्य कोमल अनुभूतियां हैं, ‘मैं उसके साथ सोती थी/धरती की देह पर शिराओं-सा आकार लिए नदियां सोती हैं।’ पर वह ऐसी अनुभूतियों में विसर्जित नहीं होती हैं, बल्कि निडरता के साथ प्रेम के जोखिम का सामना करती हैं। वे प्रेम में बार-बार जीवन को तलाशती हैं। उनके लिए कविता एक बल है, एक भरोसा है। इसी बल और भरोसे से वह दुख और उदासी का सामना करती हैं। इसलिए आज के उत्सव-धर्मी समय में वह अपनी कविता में दुखीजनों के साथ खड़ी रहती हैं, ‘सबसे कमजोर कराह को सुनने के लिए मैंने/बीच महफिल पुरजोर झनकती वीणा के तार पकड़े/मैं सुरों की अपराधी मानी गई।’ लवली गोस्वामी ने यह कहने का नैतिक साहस दिखलाया- ‘मुझे पता है जब तक दुख और आशाएं रहेंगी/कविता भी रहेगी/रहेगी कविता, दुखों की जर्जर कथरी में/आशा के वफादार पैबंद की तरह/तकलीफों की भीषण झांझ बरसात में/कमजोर लेकिन सर उठाकर खड़ी झोपड़ी की तरह/दुनिया में कविता तब तक रहेगी/जब तक दुनिया में दुख रहेंगे।’
लवली गोस्वामी के इस संग्रह की अधिकांश कविताएं बीज की तरह हैं, जो पाठकों के मन में अंकुरित होती हैं। वे किसानों की लहलहाती फसल की तरह हैं, जिन्हें देखकर पाठक का चेहरा हरा-भरा हो जाता है। ये कविताएं मनुष्यता के सांचे में ढली हैं। आज पूरी दुनिया में कट्टरवाद, आतंकवाद, नस्लवाद अपने चरम पर है। ऐसे कठिन समय में कविता की भूमिका बढ़ जाती है। ‘कायरता का गीत’ में कवयित्री प्रेम को विपर्यय का शिकार हो चुकी दुनिया को बचाने के माध्यम के रूप में देखती हैं- ‘जब सनकी रणबांकुरों के जालिम हाथ दुनिया की रूपहली सीवन उधेड़ेंगे/हराए जाने के अफसोस को एक तरफ करके तुम/प्रेम की छोटी-सी सुई से दुनिया के टुकड़े रफू करना।’
इस संग्रह की लगभग सभी प्रेम कविताओं में एक गहरी प्रतिबद्धता देखने को मिलती है। वे अपनी कविता में मरते हुए प्रेम को बचा लेना चाहती हैं। दरअसल उनके यहां प्रेम की स्मृतियां दीवार में लगी उस पेंटिंग में चित्रित लहर-सी होती हैं, जहां चित्रकार चित्र बनाकर उस लहर को हमेशा के लिए पेंटिंग में कैद कर देता है। लवली गोस्वामी स्मृति का सहारा लेती हैं, ताकि वे प्रेम की लहरों के साथ बह सकें- ‘रात मील का पत्थर है/जिस पर बैठा मन दुहरा रहा है तुम्हारा नाम/भूले हुए अधूरे जादू की तरह/चकाचौंध से डरी मैं तुम्हें हर जगह ढूंढ रही हूँ/मन जानता है सिर्फ हिलोरें लेता पानी ही पैदा कर सकता है/चमचमाती रौशनी में सिलवटें।’ वे प्रेम को रस, गंध, स्वाद और आंच का कोरस मानती हैं। प्रेम के इसी कोरस की मीठी यादें रह-रहकर इनकी कविताओं में उपस्थित हुई हैं- ‘उसके जाने के बाद/मैं सालों तक उसकी चिट्ठियां खोलकर पढ़ने से डरती रही/फिर एक दिन मैंने खतों में लिखे शब्द खुरचकर निकाले/उन्हें भिगोया और एक गमले में बो दिया/उनमें अंकुर फूटे।’
कवयित्री को भरोसा है कि ऐसी स्मृतियां भविष्य में भी संगीत की तरह बजेंगी। वे दुख से भयाक्रांत होने के बजाय उसका सामना करते हुए लिखती हैं- ‘हजारों साल बाद एक दिन पुरातत्ववेत्ता/तुम्हारी पसलियां खुदाई से निकालेंगे/वहां चारों तरफ मेरी उंगलियों से बुना संगीत गूंजेगा।’ कवयित्री के यहाँ प्रेम अवसाद नहीं है, महज स्मृति-विलाप भी नहीं। यह शक्ति है, संबल है, सृजन है। तभी वह कहती है- ‘मेरे पास बैठ जाओ और मुस्कराओ/यकीन मानो सिर्फ ऐसे ही मैं/दुनिया की सबसे सुंदर कविता लिख सकती हूँ।’ बहुत कम कवि मिलेंगे जो ठूंठ जीवन को जलावन बनाकर कम से कम ठिठुरते लोगों को गरमाहट दे सकें।
जिज्ञासा : आपके पहले संग्रह ‘उदासी मेरी मातृभाषा’ में काफी दर्द और उदासी है। उदासी से इतना लगाव क्यों?
लवली गोस्वामी : जी, मैं ऐसा बिलकुल नहीं मानती। उदासी अपने अर्थ में बहुत व्यापक है। पूरा विचार ऐसे है, ‘उदासी मेरी मातृभाषा है/हँसी की भाषा मैंने तमाम विदेशी भाषाओं की तरह/जिंदगी चलाने के लिए सीखी है।’
ओरहन पामुक की एक लाइन है ‘माय हैप्पीनेस प्रोटेक्ट्स मी फ्रॉम लाइफ’। जरा सोचिए, वह कौन सी जिंदगी है जिससे आपको नाखुश होना बचा सकता है? हममे से अधिकांश लोग लगभग हर रोज जीवन की आधारभूत जरूरतों के लिए संघर्ष करते हैं। जरा सी आर्थिक स्टेबिलिटी के लिए हमें कितने सारे समझौते करने पड़ते हैं। आत्मा को मारना न भी पड़े तब भी दबाना पड़ता है। कला और सत्य को अनदेखा करना पड़ता है। रोजाना की जिंदगी में क्लेश और कटुता से भरे लोगों से अपमान सहकर दो समय का भोजन पानेवाले एक मनुष्य को अगर खुशी नहीं छू पा रही है और वह उदास है तो इसमें इतना क्या आश्चर्य है?
फिर प्रेम तो जीवन की तरह ही होता है। उसमें खुशी-दुख, आशा-निराशा, लगाव-विराग सब होते हैं।
जिज्ञासा : आपके संग्रह में स्मृतियों का आख्यान फैला हुआ है। वर्तमान को जीने में इन स्मृतियों को आप कितना कारगर मानती हैं?
लवली गोस्वामी : साहित्य स्मृतियों पर टिका होता है। अगर इसी क्षण मैं मन से सब स्मृतियां पोछ दूं तो मैं कुछ नहीं लिख पाऊंगी। एक तरह से साहित्य की आत्मा स्मृति ही है। आप वाक्य बना रहे हैं तो उसके गठन में व्याकरण की स्मृति है। स्मृति साहित्य का व्याकरण है। वह वास्तविक आधार है जिस पर आप साहित्य के झालरदार कंगूरे गढ़ते हैं।
जिज्ञासा : आपकी कविताओं में साहचर्य-प्रेम की सघन अभिव्यक्ति है। इसमें समर्पण की तुलना में प्रतिरोध कम क्यों है?
लवली गोस्वामी : प्रेम या तो होता है या नहीं होता। आप किसी के प्रेम में हैं तो यह ख्याल बार-बार आता है कि आपका अस्तित्व सामनेवाले के अस्तित्व के साथ एकाकार हो गया है। इसलिए शायद ईश्वर से प्रेम करने वाले अद्वैत को मानने लगते हैं। अगर ऐसा नहीं अनुभूत हो रहा है तो आप प्रेम में नहीं हैं। प्रेम में आप वलनरेबल हो जाते हैं। साथी का कर्तव्य है कि इस भाव का आदर करे, तभी यह प्रेम है। अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो आप उस मनुष्य को नमस्कार करके अपनी अलग राह चुनें, यह विश्वास रखकर कि दुनिया में आपको ऐसा प्रेम जरूर मिलेगा। इसमें प्रतिरोध की बात कहां आती है?
जिज्ञासा : आपने कई कविताओं में स्त्री के लिए वर्जित क्षेत्रों में साधिकार प्रवेश किया है। आपके मन में क्या चल रहा था?
लवली गोस्वामी : मुझे बतौर स्त्री कोई क्षेत्र कभी वर्जित नहीं लगा अपने लिए। जो किसी भी गरिमामय मनुष्य के लिए ग्रहणीय है वह मेरे लिए भी ग्राह्य है। कुछ भी लिखते वक्त मैं सिर्फ भाषा, शिल्प और भाव के सही और सटीक संप्रेषण के बारे में सोचती हूँ।
स्त्री-मन की कथा कहती कविताएं
ज्योति शर्मा का पहला काव्य संग्रह है- ‘नेपथ्य की नायिका’। इस संग्रह में आधी आबादी की लगभग पूरी कहानी कहने की कोशिश है। यह संग्रह हमेें आश्वस्त करता है कि दुनिया की वह आधी आबादी अब अपनी बात कहने का दम रखती है, जिसे सदियों से नेपथ्य की नायिका मात्र समझा गया। अब वह नेपथ्य से निकलकर मंच पर है।
इस संग्रह की भिन्न-भिन्न पृष्ठभूमि पर लिखी गई कविताओं के केंद्र में एक कॉमन बात यह है कि इन सभी के केंद्र में स्त्री है। एक ऐसी स्त्री जो जीवन और प्रकृति के विविध रूपों को अपने ढंग से महसूस करती है। कवयित्री में अनुभव की प्रामाणिकता के साथ अभिव्यक्ति की नैतिक बेचैनी है जो इस संग्रह की कविताओं को विशिष्ट बनाती है।
इस संग्रह की अधिकांश कविताएं प्रेम की हैं। इन कविताओं में उल्लास, उमंग, बेचैनी और उदासी के ढेरों रंग उभर आए हैं। ज्योति शर्मा कहती है-‘आज भी बुन रही हूँ यादों के क्रोशिए से/तुम्हारा मफलर/खिड़की से आती रोशनी में बैठकर/इंतजार है तुम्हारे लौटकर आने का/तुम्हारे कंधे पर देखूं मफलर जो/अनगिनत ख्यालों से बुना।’
‘नेपथ्य की नायिका’ में स्त्री-अधिकार के लिए स्वर बुलंद है। लंबे समय से स्त्रियों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। आज भी स्त्री को अपनी शिक्षा, प्रेम, आर्थिक आजादी, विवाह, समानता के लिए स्वयं आगे आना पड़ता है। यह सच है कि पुरुष सत्तात्मक समाज में आज भी अधिकांश महिलाओं का बौद्धिक और शारीरिक उपनिवेशन किया जा रहा है। इस संग्रह की कई ऐसी कविताएं हैं जिन्हें पढ़ते हुए मीराबाई का स्मरण हो आता है। उन्हें ऑनर किलिंग का सामना करना पड़ता है। उनके लिए जहर का प्याला भेजा जाता है। यानी एक स्त्री को अपने प्रेम के लिए कितना कुछ सहना पड़ता है। ज्योति शर्मा निडर होकर ‘चंबल प्रवाहिनी’ में कहती हैं- ‘द्रौपदी से श्रापित नदी हूँ मैं/मेरा गंदला जल पूजनीय नहीं/बगावत की मिट्टी उगलती हूँ मैं/मेरे किनारे मर्यादाओं और संस्कृति/से लिपी-पुती संस्कृति नहीं/खूंखार बागियों-दस्युओं का रक्त मुझमें बहता/उनकी अस्थियां मेरे तल में बिखरीं/मेरे जल में प्रतिशोध भरा/मैं तारिणी नहीं/मुझे मिला ताड़ण/ग्रंथों में/रखती हूँ अपनी कोख में उत्तेजक बीज/मेरा आचमन कर बनते बागी और दस्यु सुंदरियां।’
पुरुषवादी व्यवस्था में स्त्री के लिए हमेशा से जगहें कम और मुसीबतें, उत्पीड़न और चुनौतियां ज्यादा रही हैं। पहले अधिकांश अवसरों पर उन्हें परिवार, धर्म, आदर्श, सुरक्षा और मर्यादा से बांधा गया। आधुनिक काल में शिक्षा, लोकतंत्र और आर्थिक आजादी ने उन्हें भले बंधन मुक्त नहीं किया, परंतु बंधन को ढीला जरूर किया। वर्तमान समय में बाजार, धार्मिक पुनरुत्थान और अतीत-मोह के जरिए फिर उसे घेरा जा रहा है। फंदों में सबसे ऊपर है पुरुष की स्त्री-विरोधी मानसिकता। इसका जिक्र ज्योति शर्मा ‘पुरुष सूक्त’ कविता में करती हैं- ‘उसी स्त्री ने भरा है/तुम्हारे अंदर आत्मविश्वास/वही है तुम्हारा मेरुदंड/उसके बिना/पृथ्वी पर रेंगने वाले कीट से ज्यादा/कुछ भी नहीं रे पुरुष तू/उसी मेरुदंड पर/बार-बार प्रहार करता पुरुष,/भूल जाता है- स्त्री का भी है हृदय/उसकी धमनियां, हाड़, मांस, मज्जा/पहुंचती है उसके मस्तिष्क तक/उसे भी होता है दुख।’ यहां पीड़ा के कारणों को स्त्री पहचानती है और आत्मविश्वास के साथ पुरुष को आगाह करती है। वह स्वयं को पुरुष से तोड़कर नहीं, बल्कि जोड़कर देखती है। वह चाहती है कि पुरुष स्त्री को गरिमा दे।
आज भी पुरुष स्त्री को देह, वंश-वृद्धि का आधार, कुल की रक्षिका, धर्माचारण पालनकर्ता के रूप में देखता है। कवयित्री का मानना है कि पुरुषों के लिए स्त्री वैतरणी नदी की गाय है। स्त्री को पालकर वह अपने सारे बोझ और पाप से मुक्त होना चाहता है- ‘बिछवे पहना लाल सिंदूर कपाल में भर/खूंटे से बंधी रहेगी सारी उम्र/जब चाहे करे प्रणय या प्रहार/व्रती उपवासी रहेगी तभी उम्र बढ़ेगी।’ इन पंक्तियों में भारतीय-स्त्री के जीवन का वृत्तांत है। पुरुष उसकी पहचान को अपनी शक्ति से परिवर्तित करता है। उसे ब्याह के बाद पुरुष के सरनेम को ढोना पड़ता है।
ज्योति शर्मा का यह काव्य-संग्रह कमजोर शिल्प के बावजूद स्त्री-मन की व्यथा से समृद्ध है।
समीक्षित पुस्तकें :
(1) जैसे रेत पर गिरती है ओस : जाबिर हुसेन, दोआबा प्रकाशन, पटना, 2020
(2) मेरी राशि का अधिपति एक साँड़ है : वीरू सोनकर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2020
(3) उदासी मेरी मातृभाषा : लवली गोस्वामी, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2019
(4) नेपथ्य की नायिका : ज्योति शर्मा, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2020
1, राम कमल रोड, पोस्ट-गरिफा, पिन-743166, उत्तर 24 परगना (प.बं.) मो.9331075884
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नई दृष्टि, एवं नई सोच। सचमुच यह नए समाज की आधार शिला है।
Kamal ke soch hai sir ji,
Jhut me akarshan hota hai
Istherta satya me hoti hai
App ki kabita samaj ko sabhya
Banane ke hoch ko pranam karte
App age aye app ke peche hajar aye
सभ्य समाज रचने के लिए कविता:
सौएत जायसवाल की संवाद समीक्षा बेहद समसामयिक और सुरूचिपूर्ण लगी। स्वर्गीय धूमिल के शब्दों में कविता भाषा में आदमी होने की पहचान है को चरितार्थ करती हुई विभिन्न रचनाकारों की कविताओं पर समीक्षा के लिए लेखक को हार्दिक बधाई।