शंभुनाथ

आलोचनात्मक ढंग से देखने या रचनात्मक होने का क्या अर्थ है, यह साहित्य ही नहीं, जीवन का भी प्रश्न है।२१वीं सदी की वास्तविकता यह है कि आलोचनात्मक दृष्टि संकुचित हो गई है और रचना से ज्यादा उत्पादन का महत्व है।समाज में बाजार एक सर्वभक्षी डायनासोर के रूप में घुसा है।हम एक बड़ी उथलपुथल के बीच हैं।

प्रेमचंद ने कहा था, ‘साहित्य जीवन की आलोचना है’।इसे ‘जनसमूह के हृदय का विकास’ और ‘ज्ञानराशि का संचित कोष’ भी कहा गया, हालांकि आज के साहित्य का एक बड़ा हिस्सा उपर्युक्त धारणाओं को ठेंगा दिखाता है।अब जो कुछ लिखा जा रहा है, सब साहित्य है।लेखकों की दुनिया में वे ज्यादा हैं, जो डिजिटल क्रांति के बाद ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सऐप आदि पर सक्रिय हैं।इस तरह लेखकों की भीड़ में वस्तुतः खुद लेखक खो गया है।

हर नया जमाना नई राहों की खोज करता है और कई पुरानी चीजों को त्याग देता है।यदि साहित्य के वर्तमान संसार पर गौर किया जाए तो जिन चीजों को त्यागा जा रहा है, उनमें एक है आलोचनात्मक दृष्टि।अब साहित्य ‘जीवन की आलोचना’ नहीं है, यह एक न एक  मिथ्या रूप से निर्मित ‘दूसरे’ की आलोचना है।इस दुनिया में अंधाधुंध आरोप-प्रत्यारोप हैं, एक-दूसरे के प्रति हिंसा है।लेखकों की अलग-अलग अनगिनत कंस्टिचुएंसी बन गई है, जहां बाजार की ही तरह लेन-देन का संबंध प्रधान है।कई जगहों पर ‘अहो रूपं-अहो ध्वनि’ है।साहित्य की दुनिया में आम तौर पर अब लेखन की गुणवत्ता के आधार पर नहीं, व्यक्तिगत संबंध के आधार पर किसी को पसंद या नापसंद किया जाता है।

आज सभी जगहों पर आलोचना नहीं, अंध-प्रशंसा, ‘इमेज मैनेजमेंट’ और पिछलग्गुओं की जरूरत है।बाजार में विमर्श बढ़ते गए हैं, विचार की कमी होती गई है।हरेक की अपनी चुनी हुई चुप्पियां हैं।कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट पर चुप हैं, कुछ भ्रष्टाचार पर चुप हैं, कुछ सांप्रदायिकता पर चुप हैं और कुछ तीनों मुद्दों पर चुप होकर विमर्शवाद में लगे हैं! इस पर विचार करने की जरूरत है कि आज साहित्य में क्यों गत्यावरोध है और आलोचनात्मक दृष्टि का क्षय क्यों घटित हुआ।

आलोचक की मृत्यु

सामान्यतः रचनाकार और आलोचक को भिन्न समझा जाता है।माना जाता है कि पहले रचना होती है, फिर उसके आधार पर आलोचना होती है।आलोचक परजीवी है या वह एक एकेडेमिक आदमी है।आलोचक रचनाकार नहीं हो सकता, रचनाकार आलोचक नहीं है।कहने की जरूरत है कि ये भ्रामक धारणाएं हैं।

रचनाकारों के मन में सामान्यतः आलोचकों से असंतोष और क्षोभ रहा है।उनके मन में स्वाभाविक रूप से इच्छा होती है कि उनकी कृति की व्याख्या हो, उनका प्रचार हो और उनका महत्व घोषित होता रहे।कई रचनाकार आलोचक को अपने प्रचारक के रूप में देखना पसंद करते हैं।पश्चिमी प्रकाशन जगत में तो पुस्तकों की बिक्री और रचनाकारों को प्रमोट करने के लिए बड़े पुरस्कार, ‘शार्ट लिस्ट’ की घोषणा, ‘राइटर इन रेसिडेंस’ आदि कई लटके-झटके हैं।भारत में ऐसे मामलों में फिलहाल गरीबी है।

कुछ व्यक्ति आलोचना को पाचक जैसी चीज समझते हैं, यह रचना की गूढ़ता को खोलती है।कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जो आलोचक को कृतियों को जीते जी मुखाग्नि देने वाला मानें।चेखव ने आलोचक को घोड़े की पूंछ पर बैठी मक्खी कहा था।खैर, जब से भारी राशि के पुरस्कार शुरू हुए हैं और लिटरेरी फेस्टिवल बढ़े हैं, ये ही अब सारा मूल्यांकन कर देते हैं।अब आलोचक की जरूरत नहीं है!

आम पब्लिक की नजर में आलोचना का अर्थ है निंदा, साहित्यिक दुनिया में इसका जो अर्थ हो।कई बार आलोचना और आलोचनात्मक सोच को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता।कहने की जरूरत है कि रचना जिस तरह ‘उत्पादन’ से भिन्न है, आलोचना उसी तरह ‘निंदा-प्रशंसा’ से भिन्न है।हालांकि आज रचना कई बार उत्पादन से भिन्न नहीं रह गई है।इसी तरह आलोचना भी कई बार महज प्रशंसा, आरोप-प्रत्यारोप या नॉकऑउट कुश्ती होती है।यह सब देखकर कहा जा सकता है कि लेखक के भीतर आलोचक की मृत्यु हो गई है।इसलिए इसपर विचार करना जरूरी है कि आखिरकार दो बड़ी मानव क्षमताओं-‘आलोचनात्मकता’ और ‘रचनात्मकता’ का समाज में क्या भविष्य है।

आलोचनात्मकता और रचनात्मकता का संबंध

यह विचित्र किंतु सत्य है कि आग के आविष्कार के साथ सभ्यता का ही नहीं, आलोचनात्मक सोच का भी जन्म हुआ।आदिम मनुष्य  ने सोचा कि ‘पका हुआ भोजन’ ज्यादा स्वादिष्ट है।उसने सभ्यता की ओर कदम बढ़ाए।वह अपनी आलोचनात्मक सोच से ही समझ पाया कि सभ्यता का विकास नदियों के किनारे ही हो सकता है।रामायण लिखने वाले को पहले से चली आ रही अहल्या की शापित दशा अन्यायपूर्ण लगी।इसलिए उसके राम ने उसे पत्थर से पुनः स्त्री बना दिया! भवभूति को लगा कि राम द्वारा सीता परित्याग अनुचित है, उन्होंने ‘उत्तररामचरितम्’ लिखा।इसका अर्थ है, पूर्णता के दंभ के समानांतर आत्म-आलोचनात्मक होने की प्रवृत्ति सदा रही है।

सुकरात ने अपनी आलोचनात्मक सोच के कारण ही सूर्य, चंद्रमा और तारों को ईश्वर मानने से इंकार कर दिया।उन्होंने आस्था को ‘रैशनलाइज’ करना चाहा।उनका दर्शन प्रश्न-उत्तर में है, संवाद में है।भारतीय क्लासिकल साहित्य भी बहुत कुछ प्रश्न-उत्तर में है, संवाद में है।बुद्ध ने संवाद से कई समस्याएं सुलझाईं।हर जमाने में अलग-अलग दृष्टिकोण के लोगों के बीच संवाद हुआ है, बौद्धिक समन्वय हुआ है और खुलकर सांस लेने की जगहें बनी हैं।क्या २१वीं सदी में आलोचनात्मक सोच और संवाद के क्षय को उत्तर-सभ्यता का चिह्न समझना चाहिए?

आखिर किस मानव क्षमता से भक्त कवियों ने कहा कि यह देह ही कैलास है, भक्तों का हृदय ही वाराणसी है या तेरा साईं तुज्झ में’? उन्होंने प्रचलित धार्मिकता की परवाह न करके खुद जाना, सच क्या है।सभी कहते हैं, प्रेम ही भारत का अंतिम सच है।

१९वीं सदी के भारतीय नवजागरण की सबसे बड़ी देन है, इसने आलोचनात्मक सोच को एक ऊँचाई दी।इसके बिना भारतेंदु को अंधेर नगरी ‘अंधेर नगरी’ नहीं दिखती।वे आर्यावर्त्त की दुर्दशा लिखते, ‘भारत दुर्दशा’ (१८७५) नहीं।प्रेमचंद के ‘ईदगाह’ का हामिद मेला में चिमटा खरीदता है, बाजार के प्रलोभन का शिकार नहीं होता।आखिर जब प्रसाद ‘लघु लघु लोल लहर’ को देखते हैं, निराला ‘बादलों’ को देखते हैं, अज्ञेय ‘असाध्य वीणा’ को, मुक्तिबोध ‘चांद’ को, केदारनाथ अग्रवाल ‘लोहा’ को या जब केदारनाथ सिंह ‘टमाटर बेचने वाली बुढ़िया’ को देखते हैं तो इन सबके ‘देखने’ का क्या अर्थ है? वे मौन या मुखर रूप से ‘क्रिटिकल’ हो रहे होते हैं।

कहा जा सकता है कि रचनात्मकता अकेले अर्थपूर्ण नहीं होती, वह आलोचनात्मकता को साथ लेकर ही कुछ महत्वपूर्ण दे पाती है।रचनाकार ‘क्रिटिकल’ हुए बिना अच्छी रचना नहीं लिख सकता।रचनात्मकता पर आलोचनात्मक सोच का असर पड़ता है तो यह भी देखा जा सकता है कि आलोचक में भी रचनात्मकता होती है।आलोचक की ‘क्रिएटिविटी’ उसकी आलोचनात्मक सोच को बंद चौखटे से बाहर निकालने में सहयोग देती है।उसे नवोन्मेषशील बनाती है।हम जिस दृष्टि से संसार को देखते हैं, उसे धोते-साफ करते रहना जरूरी है, अन्यथा दृष्टि ही अंधता का रूप धारण कर लेगी।

इसमें संदेह नहीं कि आलोचनात्मकता और रचनात्मकता के बीच गहरा संबंध है।हमारा कुछ भी ‘देखना’ प्रश्नों का उठना है और उत्तर खोजना है।हमारे देखने में एक व्याख्या अंतर्निहित है, उसमें एक खोज शामिल है- चाहे कोई पेड़ देखे, कोई आर्थिक संकट या कोई फिल्म देखे या किताब पढ़े।सवाल है, हम कितने ध्यान से देखते हैं और ध्यान से देखने में परंपरा, विचारधारा, अनुभव और कल्पनाशीलता- इन चार चीजों का कितनी व्यापकता या कितनी स्वार्थपरता से इस्तेमाल करते हैं।इसका अर्थ है, समाज के हरेक मनुष्य में आलोचनात्मक क्षमता है, सोचने की शक्ति है, बल्कि इन क्षमताओं की वजह से ही कोई मनुष्य है।इसके आधार पर कहा जा सकता है कि आलोचनात्मकता का क्षय या संकुचन साहित्यिक रचनात्मकता को ही नहीं, बल्कि जीवन की गुणवत्ता और एक तरह से समूची मनुष्यता को प्रभावित करता है।

इन दिनों आलोचनात्मक सोच का क्षय क्यों हो रहा है

आलोचनात्मक सोच का क्षय चीजों को देखने के कोण को बिगाड़ सकता है, क्योंकि इससे परंपरा खंडित रूप में मिलेगी, विचारधारा की जगह मतांधता ले लेगी।ऐसी स्थिति में अनुभव की स्वतंत्रता नहीं रह जाएगी, बल्कि हर अनुभव शक्तिशाली माध्यमों द्वारा एक ‘नियंत्रित अनुभव’ होगा।कोई न कोई मिथ्या चेतना प्रचार के बल पर अनुभव में डेरा डाल लेगी।इसके अलावा, कल्पनाशीलता का अंत हो जाएगा या वह अधिकाधिक यथार्थ-विमुख होती जाएगी।कहा जा सकता है कि आलोचनात्मक सोच का क्षय मनुष्य की बुद्धि और कल्पना में एक दुर्घटना की तरह है।फिलहाल इसकी चपेट में सिर्फ साहित्य नहीं, पूरा जीवन है, पूरा देश है, पूरी दुनिया है।कहने की जरूरत है कि मोटर कार में ही नहीं, इतिहास में भी रिवर्स गीयर होता है! क्या आज यही स्थिति है?

साहित्य ने हर काल में इसपर जोर दिया-‘देखना’ सीखो! प्राचीन क्लासिकल साहित्य हो या आधुनिक साहित्य, उसमें ‘देखना’ सीखने के लिए प्रश्नों को महत्व दिया गया।हालांकि आलोचनात्मक सोच के बंध्याकरण के लिए प्रश्नों को रोकने की कोशिशें हर युग में हुईं।एक समय ऐसा दमन था कि तमिलनाडु के रामानुजाचार्य और असम के भक्त कवि शंकरदेव को अपना नगर छोड़कर भागना पड़ा था।भारतीय जीवन में कट्टरवाद का बार-बार हमला हुआ है।ब्रिटिश बंदूकें तनी हैं।औपनिवेशिक आधुनिकता के प्रलोभन निर्मित किए गए हैं।आपातकाल लगा है।बौद्धिक स्वतंत्रता बार-बार छीनी जाती रही है।इन दिनों शैक्षिक दुनिया में जो एक नई व्यवस्था आई है, वह विद्यार्थियों को नंबर के पीछे दौड़ाती है।वह आलोचनात्मक सोच और रचनात्मकता को प्रोत्साहित नहीं करती।इस तरह देश एक बड़े राष्ट्रीय क्षय की ओर बढ़ रहा है।

दुनिया पत्थरों पर लिखने से ई-पर्दे पर लिखने के युग तक आ गई है, पर व्यक्ति की बौद्धिक स्वतंत्रता किसी भी जमाने से आज ज्यादा खतरे में है।

आलोचनात्मक सोच स्त्री, दलित, आदिवासी, वंचित या आम नागरिक की आत्माभिव्यक्ति को तार्किक और अधिक अपील करने वाली बनाती है।वह व्यक्ति को अनुभववाद या ‘नियंत्रित अनुभव’ की कैद से मुक्त करती है और उसे भाषा के एक अधिक बेचैन क्षेत्र में लाती है, जहां कई कराहें हैं और आंसुओं में झंडे का रंग नहीं ढूंढा जाता।

यदि हम चाहते हैं कि समाज में वैज्ञानिक तथ्यों के प्रति आदर बढ़े, आलोचनात्मक सोच को बचाकर रखना जरूरी है।इसपर लोकतंत्र का उत्थान और विकास निर्भर है, क्योंकि लोकतंत्र हो या विकास तर्क और बौद्धिक खुलापन के बिना खोखला है।तर्क की जगह हुज्जत, बौद्धिक खुलापन की जगह आत्मकैद और ईमानदार आवाज की जगह चुनी हुई चुप्पियों का बढ़ते जाना लोकतंत्र के क्षय के साथ विकास का भी पथावरोधक है।

यदि कोई मुझसे पूछे कि आज की सभ्यता पर सबसे बड़ी विपत्ति क्या है, मैं बेखटके कहूंगा-आलोचनात्मक सोच का क्षय।उसका अंध-प्रशंसा, अंध-समर्थन, अंध-आरोप या अंधानुकरण में सिकुड़ना एक बड़ी मानव क्षमता का मिटते जाना है।आलोचनात्मक सोच आज इसलिए भी ज्यादा जरूरी है कि ई-मीडिया के बल पर अधिक तेज गति से सूचनाओं की बरसात हो रही है।चारों तरफ अज्ञानता-निर्माण की फैक्टरियों के माल छाए हुए हैं, जो सामाजिक कलह पैदा कर रहे हैं।बारह आदमी-तेरह चूल्हा! इन दिनों खोटा ही सरकारी मुहर या बड़ा व्यापारिक ब्रांड लगाकर खरा बना घूम रहा है, पब्लिक उसे ही प्रामाणिक मान रही है।ऐसी स्थितियों में अपनी आलोचनात्मक सोच के बल पर ही दुनिया को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।

इन दिनों भारी ग्लैमर के साथ जो भरोसा थमाया जाता है, उसके कल-पुर्जों को  तार्किक और आलोचनात्मक सोच के बल पर ही ठीक से जान पाना संभव है और अपने को आंधी में तिनके की तरह उड़ने से बचाना भी।

लोग रोज ही कुछ न कुछ खरीदने के ऐसे विज्ञापनों से गुजरते हैं, जो अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान जैसे सेलेब्रिटी के मुख से सिफारिश किए गए होते हैं।ऐसे झूठ अब नैतिक मान लिए गए हैं, वे पान मसाला के बारे में हों या घुटने का दर्द ठीक करने के बारे में या किसी साबुन के बारे में।बड़े ग्लैमर का प्रदर्शन करते हुए जब किसी साहित्य-उत्सव में शामिल होने, किसी प्रचार का हिस्सा होने या किसी के समर्थन या विरोध के लिए कहा जाता है तो बहुत से लोग उसमें अपने को बहने से रोक नहीं पाते।वास्तविकता यह है कि इधर आंखें चौंधियाने वाले प्रचार, हिंसात्मक माहौल का दबाव या छोटे-बड़े प्रलोभन वस्तुतः लोगों की सोचने-समझने की क्षमता को बड़े पैमाने पर नष्ट कर रहे हैं।इसका अर्थ है, हमारी जीवंत परंपराओं, विचारधाराओं, अनुभव की स्वतंत्रता और कल्पनाशीलता पर इन दिनों बड़े पैमाने पर संकट उपस्थित है।एक तरफ सामुदायिक भीड़ का हिंसक उन्माद है तो दूसरी तरफ प्रचंड स्वार्थपरता है।भारत इन दो बौद्धिक महामारियों की चपेट में है।

हर तरफ संकुचित दृष्टि है, देश दुखी है

कई बहसों को देखकर लगता है कि इन दिनों तथ्यों और दलीलों का कोई महत्व नहीं है।बस जिसने जो धारणा कसकर पकड़ रखी है, नए तथ्यों की रोशनी में बिना दुबारा सोचे, वही बोलेगा।टस से मस नहीं होगा।लक्षित किया जा सकता है कि पहले से बनी ऐसी धारणाएं चालाकी भरी होती हैं।निश्चय ही आलोचनात्मक सोच की प्रवृत्ति पुरानी दलीलों पर नए तथ्यों और तर्क की रोशनी में पुनर्विचार का अवसर देती है।यह वैचारिक औजारों को तार्किक धार देती है, साथ ही दूसरे दृष्टिकोणों और व्याख्याओं को समझने से कतराती नहीं है।

क्या आलोचनात्मक सोच और सहृदयता के बीच संबंध संभव है? निश्चय ही सहृदयता के बिना आलोचनात्मक सोच में संकीर्णता आएगी, वह यांत्रिक होगी।आलोचनात्मक सोच में सहृदयता के कारण ही दूसरों की अच्छी दलीलों के प्रति सम्मान का भाव होता है।वर्तमान सभ्यता में यह तत्व नहीं है।इसलिए यह सभ्यता हजारों स्वार्थों की हिंसक भिड़ंत है।अपनी देह, अपने समुदाय और अपनी स्थानीयता से ऊपर उठकर सोचने की शक्ति को लकवा मार गया है।आज संकीर्णताओं का बाजार गरम है।अतीत का ऐसा हमला है कि ज्ञान और सहृदयता दोनों हाशिए पर चले गए हैं।

इसपर सोचने की जरूरत है कि बौद्धिक दुनिया में फिलहाल रचनात्मक नवोन्मेष मुश्किल क्यों है।कोई नया आदर्श, नया विचार, बड़ी रचना सामने क्यों नहीं आ रही है? हर जगह एक-से चेहरे हैं, एक-सी आर्थिक नीति है, एक-से लोभी हैं और साहित्यिक संसार में भी लंबे समय से सामान्यतः एक-सी फार्मूलाबद्ध रचनाएं हैं।आखिरकार आलोचनात्मक सोच का इतना क्षय क्यों हुआ और हर तरफ इतना उथलापन क्यों है? यदि तथ्यों से चिढ़ हो, आलोचनात्मक सोच से तलाक हो तो नई चुनौतियों का सामना करना मुश्किल होता है।

वैश्वीकरण के दौर में जब नवोन्मेष की जरूरत सबसे अधिक है, लोगों का दिमाग पुराने फ्रेम में कैद है।इधर बढ़ी धर्मांधता, जातिवाद, समुदायवाद और प्रांतीयता से आंदोलित माहौल के अलावा व्यक्तिवाद का भी भारी विस्फोट हुआ है।हर तरफ संकुचित दृष्टि है, देश दुखी है।

सभी को तुरंत जीत चाहिए

कहने की जरूरत है कि आलोचनात्मक सोच का क्षय या संकुचित होते जाना रचनात्मकता को प्रभावित करता है।इससे महान साहित्य तो क्या अच्छा साहित्य देना भी संभव नहीं हो पाता।लेखक दीवार में खिड़की बनाने की जगह खिड़की को भी दीवार में बदलने लगता है।वह पुराना बौद्धिक कर्मकांड दुहराता रहता है, पुराने जार्गन में फंसा रहता है।उसके कई विरोध प्रहसन होते हैं।

एक जमाना था, जब बुद्धिजीवी कहते थे, ‘साथी, लंबी लड़ाई है!’ अब सभी को तुरंत जीत चाहिए।अब लंबी लड़ाई, दीर्घ प्रयत्न की बात नहीं होती, इसके उलट शार्टकट खोजे जाते हैं।व्यापारिक संसार में ही नहीं, साहित्यिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी तात्कालिक फायदे की भूख ज्यादा है।

इस दौर में जल्दी सत्ता हासिल करने, जल्दी अमीर बनने, जल्दी चर्चित होने की होड़ है जो बिना गरम मसाला के संभव नहीं है।अब सब्जी कम-मसाला ज्यादा चाहिए।इन स्थितियों ने हर क्षेत्र की रचनात्मकता और आलोचनात्मक सोच को प्रभावित किया है।हर तरफ मतांधता, सैद्धांतिक लफ्फाजी के साथ समझौते और आत्मविमुग्धता बढ़ गई है।

देखा जा सकता है कि जल्दी शिखर पर पहुंचने की भूख अदूरदर्शिता बढ़ाती है और विपदाएं पैदा करती है।यह जितना वित्तीय-व्यापारिक दुनिया का सच है, उतना ही कला-साहित्यिक दुनिया का भी।इसलिए बेतहाशा गिरने या अवसाद में जाने की घटनाएं हैं।सवाल है, ऐसी घटनाओं को देखकर हमारे मन में नए प्रश्न क्यों नहीं पैदा हो रहे हैं?

यह आलोचनात्मक सोच के क्षय का ही नतीजा है कि हमारे देश में सहिष्णुता की कमी हो गई है।अब ‘भिन्नता’ का निर्लज्ज ढंग से महिमामंडन होता है और तनाव जिंदा रखे जाते हैं।इन दिनों निर्लज्जता बढ़ ही नहीं रही है, अपडेट भी की जाती है।

सचाई के मुंह में कहीं कपड़े ठूंस दिए गए हैं और कहीं चाकलेट भरा हुआ है।अधिकांश शिक्षित लोग अहमन्यता और आत्मजयजयकार में डूबे हैं।वे अपने स्वार्थ के लिए शार्टकट खोजते हैं।स्वार्थपरता इस युग का सबसे बड़ा कुसंस्कार है, यह सारी चीजों पर भारी है।ऐसी विषम घड़ी में जागरूकता विकलांग है।कहीं एका नहीं है, सम्मिलित आवाज नहीं है।

भारतेंदु के नाटक ‘भारत दुर्दशा’ की याद आ रही है, ‘फूट, डाह, लोभ, भय, उपेक्षा, स्वार्थपरता, पक्षपात, हठ… इन एक दरजन दूती और दूतों को शत्रुओं की फौज में हिला-मिलाकर ऐसा पंचामृत बनाया कि सारे शत्रु बिना मारे घंटा पर के गरुड़ हो गए ।फिर अंत में भिन्नता गई।इसने ऐसा सबको काई की तरह फाड़ा कि भाषा, धर्म, व्यवहार… सब एक-एक योजन पर अलग-अलग कर दिया।अब आवे बचा ऐक्य।देखें, आ ही के क्या करते हैं।’ यह अंग्रेजों के जमाने की साम्राज्यवादी-सामंती तोड़फोड़ का चित्र है।हमारा वर्तमान समाज भी कुछ उसी तरह छिन्न-भिन्न है।वैसी ही फूट, एक-दूसरे से वैसी ही डाह, वैसे ही प्रलोभन, वैसा ही भय, वैसी ही स्वार्थपरता, वैसा ही पक्षपात और वैसा ही हठ क्या आज भी दिखाई नहीं देता?

साहित्य से साहित्य का सफाया

इन दिनों एकेडेमिक संसार के विषय सत्ता-अनुकूलित किए जा रहे हैं।शैक्षिक और बौद्धिक स्वायत्तता एक खारिज मामला है।साधनारत रचनाकारों और कलाकारों की तरह-तरह से अवहेलना है।देशबोध पर पार्टीबोध भारी है।इसलिए इन दिनों पीतल को सोना बनाकर दिखाया जा रहा है।

साहित्यकार के नाम पर अयोग्य व्यक्ति तरह-तरह से प्रतिष्ठा पा रहे हैं और  शिखर साहित्यकार घोषित किए जा रहे हैं।उनका कला-साहित्य के संस्थानों के ऊँचे पदों, समितियों और आयोजनों पर कब्जा है।ऐसे संस्थान खंडहर में बदलकर देश के सांस्कृतिक-बौद्धिक विकास को अवरुद्ध किए हुए हैं।योद्धाओं की भीड़ है, मानो हिंदी साहित्य में वीरगाथा काल लौट आया है! सबसे अधिक कूपमंडूप सबसे बड़े पोस्ट-माडर्न हैं!

एक दृश्य यह भी है कि इधर आदर्शवान लेखकों का भी मन डोला है, कुछ पाने के लिए बस जरा-सी पूंछ दबा लेने की जरूरत होती है।इधर व्यापारिक प्रचार के लिए साहित्य को भी आवरण बनाया जा रहा है।ऊपर देशी घी का लेबल है, भीतर डालडा।जो साहित्य वाल्मीकि-कालिदास, कबीर-सूर-मीरा, प्रेमचंद-प्रसाद, अज्ञेय-मुक्तिबोध जैसों का माध्यम रहा है, उसके आवरण में फिल्मी गायकों, पॉप-कलाकारों, धार्मिक प्रवचनकर्ताओं,  व्यापारियों और सत्ताधारी  राजनीतिज्ञों को परोसा जाता है।यह साहित्य का अर्थ मिटा देने का अभियान है।इसकी ओर कई लोगों का ध्यान नहीं जा रहा है, क्योंकि प्रलोभनों से बचने की क्षमता घट गई है।

कुछ का तकियाकलाम है, ‘हमें जो बुलाएगा, हम जाएंगे और अपनी बात कहेंगे’ और साहित्य के विनाश के अभियान को सांस्कृतिक वैधता देंगे! जाहिर है, यह आलोचनात्मक सोच पर एक बड़े संकट का चिह्न है और यथासंभव आत्मनिरीक्षण की जरूरत है।

रेणु की  ‘तीसरी कसम’ कहानी में नर्तकी हीराबाई जब ट्रेन से लौटते वक्त हीरामन का दर्द देखती है तो कहती है, ‘महुआ घटवारिन को सौदागर ने खरीद लिया है गुरु जी!’ हीराबाई में अहसास बचा है कि वह कंपनी द्वारा खरीदी गई है।वह बेबस है और हीरामन की भावनाओं का साथ नहीं दे सकती।

युग बदल गया है, बाजार नए अवतार में है।कहा गया है, ‘सबहिं नचावत राम गोसाईं’! अब बाजार सबको नचा रहा है।कलाकार और साहित्यकार खरीदे जा रहे हैं, वे इस बात से भरपूर गदगद हैं।वे नहीं देखते कि जो खरीद रहा है, वह देश के लिए पोलियो है या कैंसर।इधर ऐसे कई अभियान सुनियोजित रूप से चल रहे हैं, जो चिंताजनक है।

आलोचनात्मक सोच परटेक्नोलॉजी का हमला

आलोचनात्मक सोच पर एक बड़ा हमला आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस का है।अब मानव रोबोट के नए-नए रूप हैं।ये उपयोगकर्ताओं से चैट कर सकते हैं, सवालों का गूगल से भी आगे बढ़कर जवाब दे सकते हैं और रोमांटिक बातें भी कर सकते हैं।इनका उपयोग बढ़ने का अर्थ है बेरोजगारी बढ़ना।इनके कारण मनुष्य की अपनी रचनात्मकता, आलोचनात्मक सोच और भावनात्मक क्षमताओं का लगातार ह्रास घटित होगा।

जाहिर है, कृत्रिम मेधा के उपकरणों से मनुष्य वही जानेगा जो वे बताना चाहते हैं।उसी सीमा तक सूचनाएं देते हैं, जिस सीमा तक प्रशिक्षित किए गए हैं।उनकी दी गई जानकारियों को अंतिम मान लेना सत्ताअनुकूलित होना है, यह वैचारिक रूप से कंडीशंड किया जाना है।

कृत्रिम मेधा कृत्रिम संवेदनशीलता का निर्माण  करती है।यह मनुष्य की खुद रचने की क्षमता को क्षतिग्रस्त करेगी।मानव रोबोट सबकुछ जानता है, पर यह नहीं जानता है कि वह क्या कर रहा है!

वर्तमान सभ्यता नई टेक्नोलॉजी के बगैर चल नहीं सकती, लेकिन सिर्फ इसके बल पर वह मानवीय भी नहीं रह पाएगी।हम जानते हैं कि इंटरनेट दूर-दूर तक संपर्क निर्मित कर दे, व्यक्ति पहले से अधिक असामाजिक होता जा रहा है।कृत्रिम मेधा मनुष्य को असामाजिक बनाने का नया औजार है।इसे आने वाला समय लूट-हिंसा के इतने बड़े हथियार के रूप में विकसित करेगा, जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते।आने वाले दिनों में जब डिजिटल दुनिया छद्मों और मक्कारी से ज्यादा भर जाएगी, मनुष्य को ईश्वर की उतनी याद नहीं आएगी, जितनी अपनी रचनात्मकता और आलोचनात्मक सोच के खो जाने की!

इसका अर्थ है, दुनिया के सामने यह चिंता प्रधान हो जानी चाहिए कि हम मनुष्यजाति का बौद्धिक और आर्थिक संहार करने वाले कृत्रिम मेधा के नए-नए उपकरणों को कैसे रोक सकते हैं।इस तरह की मानव-विरोधी मशीनों के उपयोग से बचे बिना मानव स्वतंत्रता का जयगान संभव नहीं है।

इधर बड़ी संख्या में लेखक और रचनाकार सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं।ऐसा लगता है कि दुनिया बदल रही है, संस्कृति बदल रही है।यह भी कम स्पष्ट नहीं है कि ई-मीडिया पर कहानी, उपन्यास, कथेतर गद्य, आलोचना आदि की पुस्तकें पढ़ना कठिन है।डिजिटल पाठक को छोटी-छोटी, मजेदार और विस्फोटक चीजें चाहिए।वस्तुतः उसकी ग्रहण करने की कल्पना शक्ति सीमित होती जा रही है।पाठकों की गंभीर चीजों में रुचि मिटती जा रही है।इसपर सोचने की जरूरत है कि डिजिटल दुनिया ज्ञान के एक बड़े माध्यम का निर्माण जरूर करती है, पर वह बौद्धिक रुचि के सतहीकरण का भी औजार है।डिजिटल संसार रचनाकार की विधायक कल्पना और पाठक की ग्राहक कल्पना दोनों को संकुचित करता है।

कोरोना काल में डिजिटल पाठक-श्रोता बढ़े हों, पर २०२३ के एक ताजा अमेरिकी सर्वेक्षण के अनुसार पाठकों की दुनिया में ई-बुक पढ़नेवाले पाठक सिर्फ ७ प्रतिशत हैं, जबकि मुद्रित पुस्तक पढ़नेवाले पाठक ३७ प्रतिशत हैं।ई-बुक और मुद्रित पुस्तक दोनों पढ़ने वालों की संख्या २१ प्रतिशत है।

किताबें हैं तो सोचने की शक्ति है।देख लें, अभी भी किताबें हैं और इनकी हत्या संभव नहीं!

ऐसे लेखक कम हैं जो खाइयों की जगह पुल बनाते हैं

इस युग में बहुत अधिक, हजारों लेखक हैं।लेकिन ऐसे लेखक कम हैं, जो अपने जीर्ण-शीर्ण वैचारिक खूंटे को बचाने की जगह आलोचनात्मक सोच और रचनात्मकता को महत्वपूर्ण मानते हैं।ऐसे लेखक कम हैं जो आलोचनात्मकता और रचनात्मकता में अंतर्विरोध नहीं देखते।ऐसे लेखक कम हैं जिनके लिए साहित्य आत्मप्रचार की सीढ़ी या उपभोग से एक अधिक बड़े उद्देश्य के लिए है।ऐसे लेखक कम हैं जो साहित्य लिखते हैं तो इससे पुनर्निर्मित भी होते हैं।ऐसे लेखक कम हैं जिन्हें अपने देश और दुनिया के तमाम लोगों से प्यार है और वे असहमत को शत्रु के रूप में नहीं देखते।ऐसे लेखक कम हैं जो खाइयों की जगह पुल बनाते हैं।

एक अच्छे लेखन में तथ्य, विचार और हृदय मिलकर बोलते हैं।ऐसा लेखन चयन किए हुए किसी एक खास वर्चस्व से नहीं, सभी वर्चस्वों, भेदभावों और अन्यायों से जूझने की ताकत देता है।वह सौंदर्य की गहरी समझ निर्मित करता है।इस तरह का लेखन और कोई सुविधाजनक जगह दोनों एकसाथ संभव नहीं है।यही वजह है कि कट्टरताओं के संसार में न रचनात्मकता के लिए जगह है और न आलोचनात्मक सोच के लिए।बाजार में भी लेखक आमतौर पर ‘एलिअन’ है।फिर भी पाठक जिंदा है तो लेखक भी है; और पाठक कभी नहीं मरेगा!