शंभुनाथ

15 अगस्त का स्वतंत्रता दिवस अब महज छुट्टी का एक दिन है या देश की राजधानियों में परेड और शक्ति प्रदर्शन का दिन। गली-मुहल्ले में तिरंगा फहराने का अनुष्ठान भी हो जाता है। सिर्फ यह नहीं सोचा जाता कि देश-दुनिया के हजारों-लाखों शहीदों ने कैसी स्वाधीनता के स्वप्न देखे थे और आज हम क्या अनुभव करते हैं, कितने स्वतंत्र हैं।

स्वतंत्रता और स्वाधीनता दोनों में एक शब्द समान है ‘स्व’। इसलिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल है, स्वाधीनता के चिंतन में कोई अपने ‘स्व’ को कितने संकुचित या विस्तृत रूप में देखता है। पिछली दो सदियों में मनुष्य का ‘स्व’ लगातार विस्तृत हो रहा था। आज विपरीत स्थिति है। हरेक के पास एक खंडित ‘स्व’ है, जिसका असर स्वाधीनता की धारणा पर है। स्वाधीनता एक न एक तरह से फिर खतरों से घिरी है। बंधन बढ़े हैं, हस्तक्षेप हो रहे हैं, जिन्हें समझना चाहिए।

यदि स्वाधीनता के बारे में सोचा जाए, सबसे पहले यह दिखता है कि प्रेम के संसार के बिना स्वाधीनता की कल्पना नहीं की जा सकती। घृणा के संसारों में, जहां समुदाय सिर्फ अपने हित के बारे में सोचते हैं, स्वतंत्रता का अनुभव नहीं किया जा सकता। इसके लिए ऐसे खुले दिलो-दिमाग की जरूरत है जिसमें सच की खोज की उत्कंठा हो और ‘आखिरी सच’ जैसी कोई चीज न हो। इसका अर्थ है, प्रश्नशीलता का बने रहना और अपनी बनी-बनाई धारणाओं की जांच-पड़ताल करते रहना, क्योंकि पुरानी मृत धारणाओं की गुलामी भी एक समस्या है।

कई बार लगता है कि बच्चे कितने स्वाधीन होते हैं! वे अतीत में नहीं जीते। वे न फटाफट झूठ बोलते हैं, न चालाकी करते हैं और न सरहदें बनाते हैं। वे बालू में घरौंदा बनाते हैं, भले लहरें बहा ले जाएं। बरसात के बहते पानी में छोड़ने के लिए कागज की नाव बनाते हैं, भले वह डूब जाए! वे सपने देखते हैं। जो सपने देखते हैं, वे ही स्वाधीनता को जीते हैं।

‘ना’ कहने की स्वाधीनता

एक छोटा-सा शब्द है ‘ना’, पर जब यह किसी अन्याय या दमन के समय कहा जाता है, एक असाधारण शब्द हो जाता है। किसी समाज में ‘नहीं’ कहने की स्वाधीनता उस समाज की जीवंतता का चिह्न है, हालांकि यह शब्द अकसर नीरवता के अंधेरे में रहता है।  किसी भी शिक्षालय में ‘नहीं’ कहने की शिक्षा नहीं दी जाती। इसे नकारात्मकता का चिह्न माना जाता है। इसलिए आदमी प्रायोजित अज्ञानता को अपनी अज्ञानता बना लेता है और जो असह्य होना चाहिए उसे सहता है।

देखा जाता है कि अन्याय होता देखकर भी ज्यादातर लोग स्वभाववश चुप रहते हैं। इसे कई बार भद्रता कहते हैं। कोई भय से चुप रहता है। कोई दुविधा में होने की वजह से सोचता है, जैसा चल रहा है चलने दो। कोई सुख में चुप रहता है। खासकर इन दिनों बिलकुल सामने घटित होते हुए भी बहुतों को समझ में नहीं आता कि क्या सत्य है। एक घटना यह है कि वर्तमान दौर में उदार सामाजिक मंच कम होते जा रहे हैं और ज्यादातर लोग चुप हैं। आखिर वे कहां खड़ा होकर बोलें?

धूमिल ने लिखा था, ‘इनकार से भरी हुई एक चीख/और एक समझदार चुप/ दोनों का मतलब एक है- भविष्य गढ़ने में चुप और चीख/ अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से/अपना फर्ज अदा करते हैं।’(मोचीराम)। इस युग में चुप्पी के पीछे ‘समझदारी’ से ज्यादा ‘दुविधा’ और ‘उदासीनता’ है। इसलिए कोई स्त्री सड़क पर लांछित की जा रही होती है तो लोग गोल घेरे में बस चुप देख रहे होते हैं या वीडियो बना रहे होते हैं। भीड़ से निकलकर कोई व्यक्ति नहीं कहता-‘ना’!

प्रह्लाद ने सबसे पहले कहा था- ‘ना’! उसके पिता हिरण्यकश्यप ने विष्णु की उपासना करते देखकर उससे कहा, ‘मुझे सर्वशक्तिमान मानो, मैं ईश्वर हूं!’ प्रह्लाद ने दृढ़ता से कहा- ‘ना’! इसे पौराणिक कथारूप में ही सही, सत्याग्रह का पहला बिंब माना जाता है। हिरण्य का अर्थ है स्वर्ण। हिरण्यकश्यप था भौतिक संपदाओं का अहंकार से भरा स्वामी। प्रह्लाद का ‘ना’ नकारात्मक न था, उसके पीछे थी सादगी, शांति और प्रेम की कामना। इसके लिए उसे हाथियों से कुचला गया, पहाड़ से फेंका गया, पर ‘नारायण’ का नाम लेना उसने नहीं छोड़ा।

इसी तरह जटायु की कथा है। जब रावण सीता का हरण करके ले जा रहा था, यह जानते हुए भी कि वह बलशाली है, जटायु ने अकेले प्रतिरोध किया और कहा- ‘ना’! रामकथा में जटायु कम महत्वपूर्ण चरित्र नहीं है, भले उसके मंदिर नहीं बने।

पश्चिम का कोलोनियल रोमांस

17वीं-18वीं सदी में यूरोपीय ज्ञानोदय (इनलाइटेनमेंट) ने दो बड़े मूल्य दिए- व्यक्तिगत स्वाधीनता और सार्वभौमता। कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण इन दोनों मूल्यों की पैरोडी है। इस युग में व्यक्तिगत स्वाधीनता संकुचित होकर अधिकाधिक वस्तुएं खरीदने और उपभोग करने की स्वाधीनता में संकुचित हो गई है, जबकि सार्वभौमता विश्व बाजार में सीमित हो गई है। इस तरह आज की स्वाधीनता में कई मूल्यवान चीजें अनुपस्थित हैं तो आज की सार्वभौमता भी मानवतावादी सार्वभौमता न होकर बाजारवादी सार्वभौमता है।

जॉन स्टुअर्ट मिल ने ‘स्वाधीनता’ शीर्षक अपने प्रसिद्ध लेख में कहा था, ‘मानवजाति के विकास के साथ ऐसे सिद्धांत भी विकसित होंगे जिनके संबंध में अंततः कोई मतभेद या संदेह नहीं रह जाएगा। मनुष्यों की अच्छाई इससे परखी जाएगी कि उसके पास एकसाथ ऐसे कितने शक्तिशाली सत्य हैं जो बिना विरोध के सार्वभौम रूप से मान्य हों।’ लगभग चार दशक पहले की वाशिंग्टन आमराय ही नहीं, विश्व व्यापार संगठन, जी-20, जी-7 आदि  भी ‘सार्वभौमता’ की उसी धारणा के नए राजनीतिक रूप हैं, पर यह नहीं कहा जा सकता कि ये संदेह से परे हैं। सर्वविदित है कि ‘स्वाधीनता’ पर लेख लिखने वाले मिल ने ही नहीं, रूसो, हीगेल आदि ने भी उपनिवेशवाद को सभ्यता, शांति और समृद्धि का वाहक कहा था, उपनिवेशकों को मानवता का दूत बताया था। यह यूरोपियनों का कोलोनियल रोमांस था!

उपनिवेशवाद के पक्षधर कहते थे कि उपनिवेशित देश भले ‘स्वतंत्र’ न हों, पर इन देशों के लोग ‘स्वाधीनता’ का अनुभव कर रहे हैं। वे पुराने निरंकुश राजाओं-बादशाहों के शासन से मुक्त होकर अंग्रेजी राज में आधुनिकीकरण का लाभ उठा रहे हैं। पश्चिमी बुद्धिजीवी इसी तरह ‘इंडिपेंडेंस’ और ‘फ्रीडम’ का फर्क समझाते रहे हैं। आजकल भी कई नव-पुनरुत्थानवादी बुद्धिजीवी उपनिवेशवादियों की भाषा में कहते हैं कि भारत अब जाकर पिछले 10 सालों से स्वतंत्र हुआ है। दरअसल 1947 की घटना को ‘झूठी आजादी’ मानने वाली दो विचारधाराओं- भारतीय साम्यवाद और धार्मिक राष्ट्रवाद में से धार्मिक राष्ट्रवाद बाजी मार ले गया। दोनों की सौ सालों की यात्रा (1925-2025) को खरगोश और कछुए की दौड़ कहा जा सकता है!

स्वाधीनता की वैकल्पिक व्याख्या

वैश्वीकरण सभ्यता, स्वाधीनता और समृद्धि का नया दूत बनकर आया। उसने नव-स्वतंत्र देशों का ‘इंडिपेंडेंस’ घटाया है और ‘फ्रीडम’ की वैकल्पिक व्याख्या दी है। वह आया था लोकतंत्र का गुब्बारा लेकर, पर उसने दुनिया के देशों में स्वेच्छाचारिता और स्थानीय कट्टरताओं को बढ़ावा दिया। इसके अलावा, नव-उदारीकरण ने हर  देश में स्वाधीनता की सोच को ऐसे ढांचे में ढाल दिया जो पहले से बिलकुल भिन्न है और वस्तुतः व्यक्तिवादी और बाजार-केंद्रित है।

खुद अमर्त्य सेन कहते रहे हैं, विकास ही स्वाधीनता है। इस धारणा की छाया में अधिकाधिक विकास, अधिकाधिक इकोनॉमिक ग्रोथ ही अधिकाधिक स्वाधीनता की गंगोत्री मानी गई, भले यह बढ़ती जा रही गर्मी, जलवायु परिवर्तन, चरम विषमता और श्रमजीवी वर्गों की आधुनिक गुलामी की कीमत पर हो। इस व्याख्या में खास तरह के ‘विकास’ और ‘ग्रोथ’ के कारण घटित पर्यावरणीय, बौद्धिक और सामाजिक विध्वंस की उपेक्षा की जाती है। इन दिनों विकास स्वाधीनता की कीमत पर हो रहा है।

सामाजिक विषमता और स्वाधीनता दोनों एक साथ संभव नहीं हैं, बल्कि अत्यधिक विषमता लोकतंत्र और मानवाधिकार की क्षति करती है। खासकर भारत में सबसे अमीर 1 प्रतिशत लोगों के पास देश की 40 प्रतिशत संपत्ति आ चुकी है। स्त्री-पुरुष गैरबराबरी के मामले में देखा जाए तो भारत का स्थान 146 देशों के मध्य 2024 में 129वें पर है। स्त्रियों की लड़ाई पहले से कठिन हुई है, स्त्री-उत्पीड़न बढ़ा है। दलित और कमजोर वर्गों की असहायता बढ़ी है, सामाजिक न्याय में ह्रास आया है।

लक्षित किया जा सकता है कि हाल के दशकों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तानाशाही में वृद्धि हुई है, चीजों की कीमत खुलकर बढ़ी है और श्रमजीवियों की स्वाधीनता में कमी आई है और हिंसा से भरे माहौल में मानव भविष्य अधिक असुरक्षित है। इन स्थितियों को बदलने के लिए अंधाधुंध भौतिक विकास की जगह पर्यावरणीय-मानवीय कल्याण पर ज्यादा ध्यान दिया जाना जरूरी है। यह बिना जीडीपी घटाए संभव है, यदि विकास की नई राह खोजने की नैतिक शक्ति हो।

दरअसल अधिक उत्पादन पर जोर देते हुए भी असीमित बहुराष्ट्रीय मुनाफाखोरी पर नियंत्रण सरकारों का एक प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए। साथ ही उपभोक्तावाद पर ज्ञान की प्रबलता हो, अर्थात लोग वस्तुएं खरीदने से पहले सोच-समझ लें। इतना ही नहीं, जीवन में सांस्कृतिक सुधार लाना होगा और सामाजिक साझापन बढ़ाना होगा, तभी वर्तमान पर्यावरणीय, बौद्धिक और सामाजिक विध्वंस रुकेगा और दुनिया में स्वाधीनता एक बार फिर बड़ी आवाज बनेगी।

हम जानते हैं कि यह सब कितना कठिन है, क्योंकि एक तरफ दुनिया की सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों की शक्ति के सामने बहुत लाचार हो चुकी हैं, भले हर देश में ही राजनीति की पहले से ज्यादा तेज आंधी हो। वे अधिकाधिक दमनकारी भी होती जा रही हैं और संविधान की शपथ लेकर भी संविधान के निर्देशों की अवहेलना करती हैं।

दूसरी तरफ, खासकर हमारे देश में 1947 के कुछ सालों बाद तक शिक्षा, ज्ञान, तर्क की एक ऊँची जमीन बन रही थी और एक उदार बौद्धिक आबोहवा थी, पर अब वह प्रायः नष्ट की जा चुकी है। इधर शिक्षा की उत्कृष्टता में ही नहीं, शैक्षिक जगत की स्वायत्तता में भी बड़े पैमाने पर ह्रास आया है।

यह वैचारिक खुलेपन और सिद्धांत पर चलने की जगह किसिम-किसिम के खंडित स्वार्थों का युग है, वैचारिक असहिष्णुता का दौर है। निःसंदेह देश की उच्च परंपराओं और ज्ञान के विस्थापन का अर्थ है पर्यावरणीय-मानवीय कल्याण, बौद्धिक उत्थान, सांस्कृतिक सुधार और सामाजिक साझापन का कठिन मामला होते जाना। इसलिए चिंता का केंद्रीय विषय है कि स्वाधीनता के लिए प्रेम के जिस संसार की जरूरत है, वह नए युग में फिर कैसे सुलभ हो। दरअसल हमारे लिए किसी भी व्यक्ति का विरोध करने से यह तय करना ज्यादा जरूरी है कि हमें किन उच्च मूल्यों और अच्छी चीजों के पक्ष में लड़ना है। इसके लिए राष्ट्रीय अंतर्शत्रुता की जगह राष्ट्रीय संवाद की जरूरत है।

स्वाधीनता का नव-उदारवादी चेहरा

21वीं सदी में स्वाधीनता का अर्थ धूसर होता गया है। अब स्वाधीनता का हर समुदाय के, हर व्यक्ति के अनुसार अपना-अपना अर्थ है, कोई साझी समझ नहीं है। इन दिनों मनुष्य की स्वाधीनता को बाजार कई तरह से प्रभावित कर रहा है। उदाहरण के तौर पर, आज अपना अलग बाइक रखना स्वाधीनता का चिह्न है, थोड़ी दूर भी पैदल चलना तब छूट जाता है!

मीडिया को लें। वह अपनी स्वायत्तता खोकर एकरेखीय राजनीतिक-व्यापारिक प्रचार का हथियार बन गया है। उसमें फेक न्यूज और अज्ञानता का प्रचार छाया है। इस प्रकार लोकतंत्र का चौथा खंभा जर्जर है, भले चमक से भरा हो। उसकी नई भूमिका से लोगों की सही खबरें पाने की स्वाधीनता छिनी है।

कृत्रिम बुद्धि को लें, यह बड़ी कंपनियों की क्षमता बढ़ाने के लिए है। कृत्रिम बुद्धि के डेटा का बेहतर उपयोग मानव रुचियों-व्यवहारों पर नियंत्रण रखने के लिए ही नहीं, लोगों को सामाजिकता से विमुख करने के लिए भी किया जा रहा है। लोग मोबाइल के रंगीन आकर्षणों में डूबे रहते हैं। टेक्नोलॉजी की राह से व्यक्तिगत स्वाधीनता को आभासी स्वतंत्रता में बदलने का एक बड़ा खेल चल रहा है। यह भी सर्वविदित है कि ऑनलाइन पर लूटखसोट का भयावह जाल बिछा हुआ है। हम सोचते हैं कि पहले से अधिक स्वाधीन हैं, जबकि हम जुकेरबर्गों, गूगल और कृत्रिम बुद्धि के अप्रत्यक्ष नियंत्रण में हैं।

आमतौर पर लोगों की स्वाधीनता मिथ्या वस्तुओं और प्रचारों के मायावी संसार में कैद है। अब किसी विदेशी राज्य की गुलामी नहीं है, वैश्विक उपभोक्ता वस्तुओं और मिथ्या प्रचारों की अधीनता है, जहां स्वाधीन सोच मुश्किल है। सारा ‘कांटेंट’ उनका है। हम ‘कंज्यूमर’ या ‘यूजर’ में बदल दिए गए हैं, हमारी अपनी धार खत्म है।

कारपोरेट संस्कृति में श्रमिकों की स्वतंत्रता का अर्थ बदला है। यहां विभिन्न स्तरों पर सुखों की गुलामी है। इसके अलावा, श्रमिक ‘हायर एंड फायर’ की दशा में हैं, वे अचानक पहाड़ से गिरते हैं। हम देख सकते हैं कि कारपोरेट संसार के शिक्षित नौजवान स्वाधीनता के वैकल्पिक अनुभवों और धारणाओं के बीच जीते हैं। उनकी ज्यादा आय उन्हें अधिक कुशल ही नहीं बनाती, अधिक स्वकेंद्रिक और जड़विहीन भी कर देती है। कारपोरेट संस्कृति का मंत्र है- ‘खूब कमाओ खूब खरीदो- भोगो और भूल जाओ’! यह एक अमानवीय संसार है, जहां सोचा जाता है कि व्यापार बढ़ेगा तो रोजगार बढ़ेगा और बाजार में बेहतर चीजें उपलब्ध होंगी तो स्वाधीनता में भी वृद्धि होगी। कारपोरेट संस्कृति में स्वाधीनता अधिक वेतन और सुख-सुविधाओं का पर्याय है, इससे अधिक नहीं। जाहिर है, कारपोरेट संसार में पैसा ही स्वाधीनता की धुरी है।

वंचितों की स्वाधीनता

विपरीत तरफ एक अंधेरी दुनिया है, जहां करोड़ों आम मनुष्य धार्मिक अंधविश्वास, जाति, प्रांत आदि के संकुचित घेरे में इधर पहले से ज्यादा कैद हैं। उनका जीवन अभाव, दुख और निराशाओं से भरा है। ऐसे वंचित हर धर्म, हर जाति, हर देश-प्रांत में हैं। वे विभिन्न दुनियाओं की दयापूर्वक छोड़न-छाड़न पाते हैं, जिसे सभ्यतावश राहत कहा जाता है। उनके सोचने की शक्ति पर कारपोरेट जगत की जगह छोटे-बड़े धार्मिक और राजनीतिक नेताओं का नियंत्रण है।

आम लोग अलग ढंग से स्वाधीनता से वंचित होते हैं और भावावेगमय प्रचारों से अंधे-पागल बना दिए जाते हैं। उन्हें स्वाधीनता की चिंता नहीं होती। उन्हें राहत चाहिए- हजार-दो हजार रुपये, दो रुपये किलो चावल, सौ दिनों का रोजगार, साड़ी-कंबल जैसी चीजें और मानवाकार भगवानों की चरणधूलि, धार्मिक गुरु की एक झलक!

21वीं सदी में धार्मिक सुधार की आवाजों को दबा कर धार्मिक पागलपन के लिए प्रोत्साहन तरह-तरह से बढ़ा है। उसका एक नतीजा हाल (2024) में हाथरस में एक सूट-बूटधारी भगवान के धार्मिक आयोजन में मची भगदड़ है, जिसमें 121 व्यक्तियों की मौत हो गई। उनमें स्त्रियां ज्यादा हैं, क्योंकि स्त्रियों तक सबसे कम स्वाधीनता पहुंची है, स्त्रीवाद पर चाहे जितनी गरम बहसें हों।

हाथरस के पहले भी धार्मिक भगदड़ों में अनगिनत लोग मारे गए हैं। महाराष्ट्र (2005) के मंधार देवी मंदिर में करीब 340 श्रद्धालुओं की, राजस्थान (2008) के चामुंडा देवी मंदिर में 200 श्रद्धालुओं की, हिमाचल प्रदेश (2008) के नैना देवी मंदिर की भगदड़ में 142 भक्तों की जान गई है। आखिरकार हम अपने धर्म को कैसा बनाते जा रहे हैं कि इसमें भगवान के मंदिर में ही या धर्मसभाओं में इस तरह कुचले जाकर प्राण देना पड़ता है। सौ साल पहले तो ऐसा नहीं था कि लोग ऐसे कुचले जाते हों। वे अनपढ़ थे, पर ऐसी धार्मिक विमूढ़ता न थी। ऐसी पागल भीड़ नहीं थी, बल्कि 19वीं-20वीं सदी के उस दौर में धार्मिक रूढ़ियों से मुक्ति की आवाजें उठ रही थीं।

कहना होगा कि धार्मिक रूढ़ियों, बाबाओं पर अंधविश्वास और जाति प्रथा से देश के लोगों की मुक्ति के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा सत्ता की राजनीति है। आज की सत्ताएं इन चीजों की सबसे बड़ी संरक्षक हैं। यदि हाथरस जैसी घटनाओं को रोकना है तो भारत के लोगों को निर्भीकतापूर्वक खुद आगे आकर धार्मिक अंधेरे के बारे में बोलना होगा। यह इसलिए भी जरूरी है कि वे ईश्वर के प्रति अपनी धार्मिक आस्था को प्रदूषण-मुक्त कर सकें।

भारत के लोगों में स्वाधीनता की व्यापक भूख तब तक पैदा नहीं हो सकती, जब तक वे खुद संकीर्ण बंधनों को न तोड़ें, जब तक आपस में प्रतिस्पर्धा रखते हुए भी यह न सोचें कि संकट के समय वे लोग एक-दूसरे के साथ खड़े हो सकते हैं। एक मनुष्य के रूप में हर व्यक्ति में प्रेम, करुणा और स्वतंत्रता की भूख होती है। उसमें इंद्रधनुष की सुंदरता को देखने की शक्ति होती है।

वस्तुएं कर रही हैं स्वाधीनता को परिभाषित

एक समय स्वाधीनता की चिंताएं कुछ खास मूल्यों, जैसे बौद्धिक स्वतंत्रता, अहिंसा, आत्मसम्मान, सदाचार, धार्मिक सहिष्णुता, समानता की भावना और परोपकार से जुड़ी थीं। इन आदर्शों को अपनाने की तरफ गहरा रुझान था।

पश्चिमी देशों में भी कभी कहा जा रहा था कि भौतिक उपलब्धियां अकेले मानव आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर सकतीं। मनुष्य को उच्चतर स्वतंत्रता को जानना होगा, मुक्त वाद-विवाद, बहस के लिए स्पेस बढ़ाना होगा और उसके लिखने तथा विचारों की पूरी स्वाधीनता हो।

इन दशकों में स्वाधीनता की धारणा उस दौर की धारणा से भिन्न है, जिस दौर में मानव विवेक स्वाधीनता की राह दिखाता था। इन दिनों मानव विवेक या बुद्धि की जगह वस्तुएं हैं, जो स्वाधीनता को परिभाषित करती हैं और बताती हैं कि कौन कितनी मात्रा में स्वाधीन है। अधिक कपड़े, अधिक जूते, अधिक परफ्यूम, अधिक गाड़ियां, अधिक शेयर – अधिक स्वाधीनता!

स्वाधीनता का अर्थ बदलता जा रहा है। आज उपभोग के दर्शन से निकली स्वाधीनता की नजर में ‘देश’ सबसे बड़ी उपभोक्ता वस्तु है, उसे तरह-तरह से खा जाओ! साहित्यिक लेखन, कलाओं, स्वतंत्र मीडिया, बौद्धिक स्वाधीनता और गंभीर बहस के लिए स्पेस से ज्यादा जरूरी हो चुकी हैं सुख की वस्तुएं!

वैश्वीकरण ने नागरिकों को जनसंख्या बना दिया है, आत्म-अचेत ‘मास’! कहना न होगा कि वह स्वाधीनता की जो धारणा दे रहा है, उसमें ही स्वाधीनता के शत्रु बैठे हैं। इन दिनों जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार ही नहीं, मनुष्यजाति की सामूहिक भलाई की बातें भी खत्म होती जा रही हैं, जबकि इन चीजों की रक्षा आज किसी भी कीमत पर बहुत जरूरी है।

इन दिनों आम लोगों को अपने मामूली काम के लिए भी स्थानीय दबंग नेताओं के पास जाकर गिड़गिड़ाना पड़ता है। आम मध्यवर्गीय लोगों को रोज छोटे-छोटे अपमान से गुजरना पड़ता है। वे अपना स्वाभिमान बचा नहीं पा रहे हैं। इसके अलावा ‘हमारा आदमी उनका आदमी’, ‘हम-वे’, ‘बाहरी-भीतरी’ के सैकड़ों हिंसक वृत्त बन गए हैं। मनुष्य मनुष्य को संदेह से देख रहा है। राजनीति मानवता से इतनी दूर चली गई है कि उसका पुनर्मानवीयकरण जरूरी है। कहना न होगा कि आखिर इन्हीं घटनाओं के बीच से स्वाधीनता की नई संभावनाओं की खोज करनी है। फिलहाल स्वाधीनता कहीं स्वर्ण मृग है तो कहीं प्राचीन अतीत का प्रेत नृत्य।

मानवता का क्षय स्वाधीनता का क्षय है

पुराने लोगों के उदार मानवतावादी चित्त के साथ पुराने मूल्य भी जा रहे हैं। आज की स्वाधीनता कहती है, स्पर्धा में अपने स्वजन-परिजन, दोस्तों-अपनों को रौंदते हुए भी आगे निकलो। दौड़ में किसी भी उपाय से जीत हासिल करो, ‘वीर भोग्या वसुंधरा’! लूटो, अन्यथा कोई तुम्हें ही लूट लेगा। अपना होना सीखो!

आज की एक बड़ी विडंबना है, स्वाधीनता और तर्क का संबंध टूट गया है। तर्क स्वाधीनता पर बंधन नहीं है, उसकी नैतिक शक्ति है। तर्क स्वाधीनता की समझ को विस्तार देता है, स्वाधीनता को मानवता से जोड़ता है। इन दिनों किसी को तर्क की जरूरत महसूस नहीं होती। सभी को सिर्फ अपने लिए स्वाधीनता चाहिए, ‘दूसरा’ आउटसाइडर है, अजनबी है। दुनिया के महानगरों में, जिनकी आत्मा बहुसांस्कृतिकता से बनी है, अजनबीपन की बड़े पैमाने पर वापसी हुई है। संकीर्ण होती जा रही यह कैसी दृष्टि है जो समाज में अजनबीपन बढ़ा रही है?

स्वाधीनता की सोच को ग्रहण लगता है, जब लोभ घेरता है और खेल के नियम टूटते हैं। वर्तमान बाजार व्यवस्था ने आदमी का लोभ बढ़ाया है। लोभ आज एक तूफान है, जिससे अब आम लोग भी घिरे हैं। कहा गया है, लोभ पतन का मूल है!

लोभ जितना बढ़ रहा है, असुरक्षा भी बढ़ती जा रही है। सुरक्षा का अर्थ होता जा रहा है संकीर्ण सामुदायिक राष्ट्रवाद में पनाह लो। अपने धर्म, अपनी जाति और अपनी प्रांतीयता की छतरी में आओ। इस तरह लोगों को ध्रुवीकृत किया जा रहा है, जिससे स्वाधीनता ही नहीं, साझी मानवता भी घट रही है।

21वीं सदी में बुद्धिजीवी वर्गों को भी लोभ ने कम नहीं दबोच रखा है। वे अच्छी तरह जानते हैं कि कहां चुप रहना है, कहां पक्षपात करना है, कहां चुपचाप फिसल जाना है और कहां चीखना है। इन दिनों सत्ता और सुविधाओं के लिए अपना मानवीय स्वाभिमान खोने और कहीं भी गिरने में ग्लानि नहीं होती। कहना होगा, स्वाधीनता महज एक शाब्दिक उच्चारण नहीं है। यह मानवता की एक बड़ी शक्ति है, जिसकी रक्षा की जानी चाहिए।

देखा जा सकता है कि भौतिक सभ्यता की इतनी ऊँचाई पर दुनिया के देशों में नस्लवादी और आतंकवादी घटनाएं बढ़ी हैं। भेदभाव बढ़ा है, हिंसा बढ़ी है। इन दिनों समाज में खाइयां खोदने में स्पर्धा है, सत्ताएं खाइयों से निकलती हैं। इन घटनाओं ने भी स्वाधीनता को संकट में डाला है।

दुनिया में जब भय, अविश्वास और असुरक्षा चप्पे-चप्पे पर है और मानवता पनाह मांग रही है, क्या सच्ची स्वाधीनता की कल्पना करना संभव है? उस युग में स्वाधीनता का क्षय निश्चित है, जब लोगों की भूलने की बीमारी बढ़ गई हो, स्मृति-ध्वंस हो। इस तथ्य की ओर ध्यान जाना चाहिए कि वैश्वीकरण से उपजी विषमता और असुरक्षा ने स्थानीयतावाद को बढ़ाया है और समुदायों को कछुआ धर्म की तरफ ठेल दिया है। लोग कछुए की तरह अपने भीतर सिकुड़ कर रहने लगे हैं। पुराने बंधन और रूढ़ियों का महिमामंडन बढ़ गया है। हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के बीच कठमुल्लेपन को पुनः बड़े पैमाने पर संगठित होने का अवसर मिला है। धार्मिक कठमुल्लापन स्वाधीनता छीनता है। वह स्त्रियों को ज्यादा घेरता है। इधर हर किस्म के कठमुल्लेपन में उग्रता आई है और राजनीतिक चुप्पियां बढ़ गई हैं। कोई किसी मुद्दे पर चुप है तो कोई किसी मुद्दे पर। चयनित चुप्पी और चयनित मुखरता!

पक्षी और दीमक की कहानी

मुक्तिबोध की एक कहानी है ‘पक्षी और दीमक’। एक पक्षी को व्यापारी से दीमक लेकर खाने की लत लग जाती है। इसके लिए उसे हर बार अपना एक पंख नोचकर व्यापारी को देना पड़ता है। धीरे-धीरे पंख के अभाव में पक्षी का उड़ना बंद हो जाता है। अब वह सिर्फ फुदक पाता था, पर उसे दीमक खाने का चस्का लग गया था। एक दिन कुछ सोचकर पक्षी ने खुद दीमक का एक ढेर इकट्ठा किया और व्यापारी से कहा, ये दीमक लेकर मेरे पंख वापस कर दो ताकि उड़ सकूं। व्यापारी ने कहा, ‘मैं पंख लेकर दीमक बेचता हूँ, दीमक लेकर पंख नहीं देता।’

आज का मनुष्य बाजार तथा कठमुल्लेपन के सौदागरों को अपनी स्वाधीनता एक-एक कर इसी तरह सौंप रहा है। उसकी स्वाधीनता खोती जा रही है। वह आभासी स्वाधीनता को ही स्वाधीनता समझ बैठा है।

इसपर गौर किया जाना चाहिए कि स्वाधीनता की नई व्याख्याओं ने इन दिनों आदमी को इतना अंधा बना दिया है कि उसे यथार्थ दिखाई नहीं देता। आज की स्वाधीनता वस्तुओं में फँसी और इतनी वर्तमान-केंद्रिक है कि वह मानव भविष्य के बारे में सोचने नहीं देती। स्वाधीनता के बारे में कुछ भी उस दौर में सोचना बड़ा कष्टदायक है, जब आदमी का ‘स्व’ सिकुड़ा हो और गुलामी आनंददायक लगती हो। यही वजह है कि भय और लोभ के कंधों पर जा रही स्वाधीनता की अर्थी दिखती नहीं है।

वस्तुतः वर्तमान समय में लंबे संघर्षों से अर्जित हमारी स्वाधीनताओं का ही नहीं, उन महान सपनों का भी अपहरण हो गया है जो सैकड़ों साल से विश्व मानवता की आंखों में थे। इसलिए एक नए देश और एक नए विश्व की जरूरत है, एक नए संघर्ष की जरूरत है!