शंभुनाथ
मीराबाई दमन और हिंसा के माहौल में भी कृष्ण के प्रेम में बावरी थी। उन्होंने सवाल किया था कि इतने पाखंड और लोभ से भरकर तुम ईश्वर की भक्ति कैसे कर सकते हो- ‘यहि विधि भगति कैसे होय’। राणा उन्हें पहरे में रखता था। लोग कड़वा बोलते थे, निंदा करते थे। मीरा ने कहा, ‘कड़वा बोल लोक जग बोल्या, करस्या म्हारी हांसी।’ कोई अपशब्द बोले, धमकी दे और भय दिखाए तो क्या व्यक्ति प्रेम की बात कहना छोड़ दे? हर युग में चलती धारा में न बहकर तैरना ही जीवन का लक्षण रहा है।
मीरा को चौहद्दियां मंजूर नहीं हैं। वे कहती हैं, जहां तक धरती और गगन दिखते हैं, वहां तक मैं उठकर चलती जाऊंगी- ‘जेताई दीसां धरण गगण मां तेताई उट्ठ जासी’! किसी सृजनशील दृष्टि को जंजीर से बांध कर रखना संभव नहीं है। वह दीवारें और खाइयां बनाकर रोकी नहीं जा सकती। मीरा पर उनके समुदाय के लोगों द्वारा ही जितने अत्याचार हुए, शायद ही किसी भक्त कवि पर हुए होंगे, पर उन्होंने कभी झुकना स्वीकार नहीं किया।
आज वैश्विक स्तर पर लोगों की दृष्टि मतांधता की शिकार है। उसका निर्माण तर्क की जगह भौतिक ताकत से हो रहा है। वह साझेपन के अभाव में संकुचित होती जा रही है। सृजनात्मकता के सभी लक्षणों से दूर होने के कारण वह कहीं भी अब गतिशील, सुसंगत और समावेशी दृष्टि नहीं है। कहना न होगा कि इसका असर लोगों के प्रेम और मानवता की क्षमता पर पड़ रहा है। आज पूरा सामाजिक परिवेश जिस तरह विषाक्त और शत्रुतापूर्ण हो उठा है, वह चिंताजनक है। हर तरफ भय, लोभ और पैशाचिक हँसी है। इससे जो लोग पढ़-लिख रहे हैं, सृजनात्मक हैं और जिनके पास कलम या कैमरा है, क्या वे प्रेम की बात करना छोड़ दें? हर संकट के दौर में सच कहने वाले लोग रहे हैं। लिखने-बोलने वालों से ही हर युग की मानवता में हरापन रहा है।
क्या यह सभ्यता का मध्यांतर है
इधर पिछले लगभग दो सौ सालों में बहुत-से संबंध बदल गए हैं, स्थापित संस्थाएं उजड़ गई हैं और लोगों के रुख में कठोरता आई है। कई घटनाएं इस दौर की विकासशील संस्कृति को झकझोर देने वाली हैं। हर तरफ आत्मविसर्जन है। परिवार से लेकर धर्म, व्यापार और अन्य सत्ताओं तक बहुत कुछ बदला है। इधर काफी लिखना-बोलना ऐसा है, जिसमें गंभीरता की जगह सतहीपन है। हर जगह भविष्य-दृष्टि का अभाव है। लोकप्रियतावादी तमाशे और नारे आदमी को स्वविहीन कर रहे हैं। वैश्वीकरण ने आशाओं के दौर से आशंकाओं के दौर में कदम रख दिया है।
19वीं सदी से अभी हाल तक सभ्यता का अर्थ था कूपमंडूकता से बाहर निकलना, बुद्धिपरक नैतिकता पर आधारित जीवन और सद्व्यवहार। समाज में प्रतिष्ठा का आधार ज्ञान था। विविधता और असहमति के प्रति सम्मान था। ऐसा विपर्यय हुआ, वर्तमान-केंद्रिकता ने अतीत के खंडहरों को शक्ति का स्रोत बना दिया। ऊंचे भविष्य-स्वप्न विघटित हो गए। कुछ समय से सभ्यता की गाड़ी अब उल्टे गियर में चलने लगी है।
पश्चिम की औपनिवेशिक सोच में सभ्यता को समझने का मुख्य संदर्भ था आदिम जीवन शैली। अंग्रेज जो सभ्यता ला रहे थे, उसके संबंध में प्रेमचंद ने लिखा है, ‘सभ्यता केवल हुनर के साथ ऐब करने का नाम है। आप बुरे से बुरा काम करें, लेकिन अगर आप उसपर परदा डाल सकते हैं तो आप सभ्य हैं, जेंटिलमैन हैं। अगर आप में वह सिफत नहीं है तो आप असभ्य हैं, बदमाश हैं।’ (‘सभ्यता का रहस्य’ कहानी)। पहले जो सभ्यता के नाम पर होता था, वह आज धर्म और जाति के नाम पर होता है।
भारत के इतिहास में सभ्यता का पहला पाठ सम्राट अशोक के शिलालेखों में है। हालांकि एक तरफ अशोक ने सैकड़ों बौद्ध स्तूपों का निर्माण किया था तो दूसरी तरफ उसने जैनियों और आजीवकों का जनसंहार भी किया था। कलिंग युद्ध में बहा लहू देखकर सम्राट अशोक का हृदय बदल गया- अब रणभेरी नहीं सिर्फ धर्मभेरी! भारत ने ‘दूसरे’ के प्रति हिंसा, अहंकार और ईर्ष्या से मुक्त होते एक राजा को देखा है। इसने भाषागत और धार्मिक विविधता को समझने वाले अशोक को संप्रदायों से ऊपर उठकर सोचते देखा है। सम्राट अशोक ने अपने एक शिलालेख में भारत की एकता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की बुनियाद रखी थी, ‘दूसरे संप्रदाय का भी सभी तरह से सम्मान करो। जो अपने संप्रदाय को महिमामंडित करने के लिए उसकी प्रशंसा और दूसरे संप्रदायों की निंदा करता है, वह वस्तुतः अपने संप्रदाय की क्षति करता है!’ इसका अर्थ है, दूसरों को ठीक से जाने बिना मनुष्य अपने को भी ठीक से नहीं जान सकता।
सभ्यता का अर्थ है एक साथ मिलजुल कर रहने की दृष्टि। यह ऐसे सामान्य विश्वासों, नैतिक मूल्यों, संयम, सुविधाओं और तौर-तरीकों से बनती है जिनका लोग स्वयमेव पालन करते हैं या पालन न करने पर दंड पाते हैं। इसलिए किसी देश में सभ्यता है या नहीं, यह परखने की कसौटी यह है कि उस देश में किसी भी रूप में साझी सोच है या नहीं, ‘साझा जीवन-साझी संस्कृति’, है या नहीं। 21वीं सदी में सभ्यता में आया ह्रास लोगों की दृष्टि में उपस्थित किसी बड़े संकट की ओर संकेत है। क्या हम इसे सभ्यता में मध्यांतर कहेंगे, जब उच्च भौतिक सुविधाओं के बीच मनुष्य जीवन परस्पर हिंसा से भरा है?
कहना होगा, आम लोग जीवन का अर्थ खोजते हैं, भयानक दशाओं में भी खोजते हैं। कई बार भय सोचने की शक्ति बढ़ा देता है।
सुख की होड़ में दूरदृष्टि गायब है
21वीं सदी की सभ्यता की बड़ी कमी यह है कि सबको तुरंत सबकुछ चाहिए। वर्तमान का कैदी होने के कारण लोगों में अब पहले की तरह दूरदृष्टि नहीं है। इसलिए आदमी इस लाइन पर सोचता है कि वह वर्तमान स्थितियों का कैसे अधिकतम फायदा उठाए, कैसे ‘लाभार्थी’ बने। उसमें सुख की भूख के साथ भावावेग बढ़ रहा है। उसकी तर्क से शत्रुता हो गई है। यही वजह है कि पिछले चार दशकों से सच कहने में बुद्धिपरकता का उपयोग घट गया है और उत्तेजनात्मक वक्तव्य बढ़ गए हैं। युग के संकट की व्यापकता को देखते हुए कुछ साझा सच हो सकते हैं, यह मानने के लिए कोई तैयार नहीं है।
हर तरफ किसी न किसी ‘बुराई में महानता’ खोजने की जिद है। हर तरफ अपनी सर्वोच्चता प्रदर्शित करने की होड़ है, अहंस्फीति है और ‘शेर-तर्क’ है- तुमने नहीं तो तुम्हारी मां ने नहर का पानी गंदा किया था। इसलिए मैं तुम्हें खाऊंगा! उपर्युक्त प्रवृत्तियों ने समाज में विभाजन और हिंसा को सार्वभौमता दे दी है। इससे मनुष्य कमजोर हुआ है। सत्ता-प्रतिष्ठान निरंकुश हुए हैं और कारपोरेट लूट बाधाहीन हो गई है। हालांकि आज भी समाज में 80 प्रतिशत लोग सरल हैं और शांतिपूर्ण घुला-मिला जीवन पसंद करते हैं। पर वे क्या करें, वे एक बड़े सांस्कृतिक भू-स्खलन और बाढ़ से घिरे हैं।
अब नवोन्मेष का क्षेत्र दर्शन की जगह टेक्नोलॉजी है। पहले की धीमी रफ्तार की जगह अब दुनिया की रफ्तार तेज है। व्यक्ति उच्च मानवीय दृष्टि, बुद्धिपरक नैतिकता और मूल्यों की परवाह किए बिना किस शार्टकट से सत्ता और सुख की होड़ में सफल हो, यह सोच इस समय प्रधान है। इसके लिए कृत्रिम तर्क निर्मित किए जाते हैं और सामाजिक खाइयां चौड़ी की जाती हैं। कम समय में जल्दी सबकुछ हासिल हो जाए, इस सोच ने दूरदृष्टि को दरवाजे के बाहर कर दिया है।
क्या यह इतिहास के एक दौर के बिलकुल समाप्त होने और मानवता के विघटन को मान लेने का वक्त है और क्या ऐसा लग रहा है कि दुनिया अब सिर्फ टेक्नोलॉजी की मदद से जीवन की एक अधिक उच्च गुणवत्ता के दौर में पहुंच सकती है?
यह दृष्टि का अकाल कहा जाएगा कि वैश्वीकरण के जमाने में अंतरराष्ट्रीय बाजार है, पर जी-21 जैसे संगठनों के बावजूद अभी तक कोई ऐसा अंतरराष्ट्रीय समुदाय नहीं बन पाया है जो वैश्विक अंतर्द्वंद्वों और गरीबी, महंगाई, कर्ज, जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं के ठोस समाधान निकाल सके। वैश्वीकरण के जमाने में हर तरफ अंध–सामुदायिकता का बढ़ना घर के ही चिराग से घर में आग लगने जैसा है। मानो मुर्गा भोजन खोजते हुए भवन में घुसा और भोजन बन गया!
अनोखा दृश्य है कि टेक्नोलॉजी हमारे श्रम को और राजनीति हमारे विश्वासों को अपने जिम्मे करती जा रही है। यह सुख का विषय है या चिंता का, इसपर सोचना चाहिए। हम जब श्रम से बचते-बचते खुद सोचने और कल्पना करने के दायित्व से भी बचने लगते हैं तो वस्तुतः अपनी दृष्टि खोने लगते हैं। हम खुद कुछ नहीं देख पाते और सिर्फ वे चीजें दिखाई पड़ती हैं जो चारों तरफ राजनीतिक-व्यापारिक छवियों, विज्ञापनों, आंकड़ों और सजावटों में हैं। हम नदियों और पहाड़ों तक को वैसे नहीं देख पाते, जैसे पहले देखते थे, यहां तक कि अपने बच्चों और रोटी-दाल को भी!
जीवन सारी चीजों से ऊपर है
हम कल्पना नहीं कर सकते कि आज की राजनीति ने हमारी दृष्टि का विस्तार करने की जगह किस तरह उसे टुकड़ों में बांट दिया है। अब वह पहले की तरह समाज की सामूहिक चेतना का प्रतिबिंब और परिवर्तन की वाहक नहीं है। उसने जनता की आशाओं को तोड़ा है। वह कलुषित और विध्वंसक हो गई है। उसमें फिलहाल तर्क के साथ अच्छाई और बुराई, ऊँचाई और गहराई को समझने के लिए अवसर नहीं है, हालांकि समस्याओं से मुक्ति की राह वही है।
भारत में समाजविज्ञान के संस्थापक धूर्जटी प्रसाद मुखोपाध्याय ने एक समय कहा था, ‘भारत में राजनीति ने संस्कृति को तबाह कर दिया।’ आज यह बात नुकसान उठाकर भी फिर कहने की जरूरत है। नए युग में खंड-खंड कर देने वाली राजनीति का प्रवेश अवसर, सुविधाओं, पद-सम्मान के अलावा हमारे विश्वास, सोच और कल्पना तक हो गया है। उसमें बौद्धिक स्वतंत्रता के प्रति आदर भाव नहीं है और न जीवन को लेकर नई दृष्टि है। उसमें तिल को ताड़ तथा ताड़ को तिल बनाया जाता है।
आज की राजनीति में नागरिक वफादार होता है या शत्रु। वह अब इतनी महंगी हो गई है कि बड़े भ्रष्टाचार के बिना संभव नहीं है, हालांकि प्रकट रूप से सभी नेता ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध बोलते हैं। ऐसी स्थितियों में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि राजनीति का पुनर्मानवीयकरण कैसे हो।
यदि राजनीति ने इधर समाज का पृथक्करण (फ्रैग्मेंटेशन) किया है तो बाजार व्यवस्था ने मनुष्य का व्यापक वस्तुकरण (कमोडिफिकेशन) किया है। वस्तुकरण का अर्थ है किसी चीज को खरीद-बिक्री के उत्पाद में बदल देना। इस स्थिति में आदमी की रीढ़ एक टूटा इंद्रधनुष होती है। बाजार के असर की वजह से अस्मिता की राजनीति करने वाले जिधर फायदा हो उधर लुढ़कते रहते हैं।
इन दिनों तकनीकी उग्रता बढ़ी है। मेधारोबो आ गए हैं। अब ये मोक्ष देंगे। आम लोगों के जीवन मूल्यों के आधार पर नहीं, व्यापारियों और राजनीतिक नेताओं की जरूरत के अनुसार ये काम करेंगे। इनकी असीमित शक्ति आम श्रमजीवियों की कठिनाइयों का सबब बन सकती है। चिंताजनक यह है कि चमत्कारपूर्ण तकनीकी विकास और जीवन के अर्थ की समझ के बीच खाई बढ़ती जा रही है। इस तरह आज की राजनीति ही नहीं, विकसित टेक्नोलॉजी भी वि-मानवीयकरण की ओर ले जा रही है।
इन स्थितियों में सबसे ज्यादा संकट में हमारी भविष्य दृष्टि है, क्योंकि राजनीति हो, बाजार हो या टेक्नोलॉजी हो, ये दुनियाएं सीमित स्वार्थ और सुख के परे सोचने नहीं देतीं। फिर आज कौन बोलेगा कि राजनीति, बाजार और टेक्नोलॉजी नहीं, मनुष्य का जीवन सारी चीजों से ऊपर है?
क्या हममें कुछ बहुमूल्य खोने का बोध बचा है
हम विकास की प्रक्रिया में अपने समाज और संस्कृति की कुछ चीजों को खुद छोड़ देते हैं, कुछ चीजें हमसे छीन ली जाती हैं और कुछ चीजें हम खो देते हैं। उदाहरण के तौर पर हमने सती प्रथा, बाल विवाह, बलिप्रथा जैसी चीजें छोड़ दीं। हमसे हमारी वैयक्तिकता, हमारा इतिहास, हमारे भविष्य-स्वप्न छीन लिए गए। हमने इच्छाओं का उदात्त संसार, बौद्धिक सहृदयता और अपना मेरुदंड खुद खो दिया। अधिक चिंताजनक यह है कि हममें कुछ ‘बहुमूल्य’ छिन जाने या खो देने का बोध, ‘सेंस ऑफ लॉस’ नहीं है। यदि इंसान में खोने का बोध बचा हो तो खोई हुई चीजों को पुनः उपलब्ध करने का आत्मविश्वास भी बचा होता है। खोने के बोध को बचाना आज की सबसे बड़ी चुनौती है, हालांकि हमलोग इस समय सभ्यता की सबसे संकरी गलियों में हैं।
हमारे देश के पास सैकड़ों साल का महान साहित्य है। हमारे पास संगीत, नृत्य, गायन, फिल्म और अन्य कलाओं तथा उच्च शिक्षण–चिंतन की समृद्ध आधुनिक परंपराएं हैं। ऐसे देश में यदि निर्बुद्धिपरकता अपने बीभत्सतम रूप में उपस्थित हो, जीवन का कोई बड़ा अर्थ, बड़ा मकसद सामने न हो और स्वार्थपरता के आधार पर ‘राष्ट्र’ कई कठोर टुकड़ों में विभाजित होता जा रहा हो तो इससे अधिक विडंबनापूर्ण कुछ नहीं हो सकता।
निराला ने करीब सौ साल पहले लिखा था, ‘अपनी डफली-अपना राग छोड़ो। अब यह ढाई चावल की खिचड़ी पकाने का समय नहीं है। इससे देश की नौका समुद्र पार नहीं जा सकेगी।’ छोटा मन लेकर, कूपमंडूक होकर विश्व में खड़ा होने की कोशिश अंधे के दौड़ने जैसा है। यहां लंगड़े और अंधे की दोस्ती याद कर लेने की जरूरत है।
अंधे और लंगड़े की अधूरी कहानी
राजनीति में स्वार्थांधता होती है। आमतौर पर राजनेता तात्कालिक स्वार्थ के अनुसार सोचते और निर्णय लेते हैं। उनके पास कोई बड़ा विजन नहीं होता। कला-साहित्य, दर्शन या विचार के इलाके में दृष्टियों की खोज चलती रहती है और विकल्प स्पष्ट होते रहते हैं, पर इस दुनिया में लोग खुद कुछ सुधारने या कुछ करने में असमर्थ होते हैं। पहली दुनिया अंधे की है और दूसरी लंगड़े की। इस समय राजनीति में अंधापन और कला-साहित्य, विचारों की दुनिया में लंगड़ापन चरम पर है। अंधा चल सकता है, पर उसे राह नही दिखती। लंगड़े के पास दर्शन है, दृष्टि है, पर चल नहीं सकता।
मुश्किल है कि आजादी के बाद बारी-बारी से सत्ता में लिप्त रहकर जो अंधे हो चुके हैं, वे ही रास्ता दिखा रहे हैं और लंगड़े सोशल मीडिया पर पहाड़ लांघ ले रहे हैं! इस युग में अंधे और लंगड़े की कहानी अधूरी रह जा रही है, वे एक-दूसरे से बिछुड़ गए हैं। क्या किया जाए?
आप सुख की सीढ़ी पर हैं, ऊपर देखें
हम दरअसल इतने सुख और सत्ता में विभोर हैं कि अपने चारों तरफ फैले विस्तृत दुख को देख नहीं पा रहे हैं। हम सिर्फ अपने सुख, स्वार्थ और उन्नति के बारे में सोच रहे हैं। दुनिया के सांस्कृतिक इतिहास में किसी भी महान दृष्टि का जन्म सुख से नहीं हुआ। दर्शन और दृष्टियों का जन्म हमेशा वंचना, बहिष्कार या विलगाव से हुआ है। आज दृष्टि का अकाल इसलिए है कि नजरें सुख पर हैं, ऐन-केन-प्रकारेण अधिक सत्ता हासिल करके अहंकार के प्रदर्शन पर है।
लोगों को एहसास कराया जा रहा है कि वे सुख की सीढ़ी के एक न एक पायदान पर हैं, सिर्फ ऊपर देखें। छोटा फ्लैट है तो बड़ा फ्लैट, 40 इंच की टीवी है तो 60 इंच की टीवी और छोटी गाड़ी है तो लंबी गाड़ी लेने की सोचें। 50 करोड़ का व्यापार है तो 500 करोड़ को लक्ष्य बनाएं। विधायक और सांसद हों तो मंत्री बनने का जुगाड़ करें। यह सोचें कि छोटे पद से कैसे ऊँचे पद पर छलांग लगा सकते हैं। छोटे-छोटे सम्मान से कैसे बड़ा सम्मान हासिल कर सकते हैं। जरा भी न देखें कि आप कितने लोगों को रौंदते हुए ऊपर उठ रहे हैं, हालांकि आप जिनको रौंद रहे हैं, वे भी किसी न किसी को रौंद रहे होते हैं!
लक्षित किया जा सकता है कि आज से पहले लोग कभी इतने निर्लज्ज होकर सिर्फ अपनी जाति के स्वार्थ, सिर्फ अपने धार्मिक लोगों के स्वार्थ, सिर्फ अपने दल के स्वार्थ और अपनी प्रांतीयता की वकालत नहीं करते थे। पिछले सौ सालों में लोग कभी इतने कम भारतीय नहीं थे। समाज में कभी इतनी अधिक हिंसा नहीं थी। बुद्धिसम्मत की तरफ इतना कम आकर्षण और खौलते भावावेग की तरफ इतना अधिक झुकाव नहीं था। भावावेग कभी इतना बड़ा उद्योग नहीं बना था।
समाज आज से पहले कभी इतना सुलग नहीं रहा था और कभी इतनी अधिक निस्सहायता नहीं थी। यदि कहीं संवाद, एकता और जुड़ने की बात होती भी है तो शिवाजी और अफजल खां की तरह हथियार छिपा कर मिला जाता है। फिर भी इतिहास पुकारना नहीं छोड़ता- सुधरो या मिटो! उसकी आवाज सुनी जाए या न सुनी जाए, वह बोलेगा। इतिहास से अधिक अकेला आज कुछ भी नहीं है!
तर्क का संकट
यह एक बेहद अतार्किक समय है, तर्क का युग बीत गया है। भावावेगपूर्ण उत्तेजनात्मक कथन ही अन्य सारी चीजों पर भारी है। बुद्धि सचमुच घास चरने चली गई है। अब जो प्रचलित है या ताकत से प्रचारित किया जाता है, उसे मानने के लिए सोचने-विचारने की जरूरत महसूस नहीं की जाती। हर जगह एक न एक ‘भिन्नता’ को आधार बनाकर हिंसा का प्रचार होता है। हिंसा जब भी होती है, उसका पहला हमला तर्क पर होता है। समस्या है, बड़े-बड़े शब्द हिंसा के औजार बना लिए गए हैं, जैसे धर्म, सामाजिक न्याय, राष्ट्र, विकास। और सबसे असहाय शब्द है देश!
तर्क को आधुनिक अनुभववादियों और विमर्शों के दौर से ही खारिज किया जाना शुरू हो गया था। संवाद की जगह एकतरफा बोला जाने लगा था। इसकी चरम परिणति धर्मांधता के दौर में हुई। सामान्यतः वैज्ञानिक और तकनीकी साधनों का उपयोग करते हुए जो सामाजिक व्यवस्था विकसित की जाती रही है, वह अधिकाधिक तर्कहीन होती गई है। इसलिए बुराइयां पहले की तरह छाई हुई हैं, तर्क विध्वस्त हैं। इसका असर तथ्यों के आधार पर सोचने की शक्ति, सहिष्णुता और समानता की भावना पर पड़ा है।
तर्क और लोकतंत्र के बीच गहरा संबंध है। जब तर्क से ही तलाक हो जाएगा तो साझा जीवन और लोकतंत्र की दशा क्या होगी! कृत्रिम तर्क आभासी लोकतंत्र का जनक है। दरअसल समाज में निर्बुद्धिपरकताओं और हिंसक भावावेगों को मिटाने के लिए ही नहीं, लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए भी तर्क को जीवन में महत्व देना जरूरी है, हालांकि इतनी ही जरूरी है सहृदयता।
तर्क को कमजोरों का हथियार बनना था, पर इसका इस्तेमाल दमन, ‘अदर’ निर्मित करके ‘भिन्नता’ को उकसाने जैसे मामलों में ज्यादा हुआ। तर्क को कुतर्कों ने घेर लिया। तर्क का इस्तेमाल यथार्थ पर पर्दा डालने के लिए होने लगा। तर्क और उन्माद के बीच अंतर कम होता गया। आज हर घृणा और युद्ध के लिए तर्क है। हर शक्तिशाली बुराई के पास एक तर्क है और खुद तर्क निर्वाक है। दरअसल वर्तमान संवादहीनता की सबसे बड़ी वजह यह है कि तर्क को कहीं भी जिंदा रहने नहीं दिया जा रहा है।
मैथिलीशरण गुप्त के छोटे भाई थे सियाराम शरण गुप्त (1895-1963)। उन्होंने लिखा है, ‘तर्क और बहस ही वह वस्तु है, जो हमारे मन में अनजाने ही सही, यह बोध उत्पन्न करती है कि हमें छोड़कर भी किसी को होना चाहिए।’ उन्होंने बड़ी सरलता से आगे कहा, ‘विधाता ने हमें आंख, कान, हाथ, पैर, ये सब दो-दो दिए हैं। तब प्रश्न उठता है कि जीभ ही उसने हमें एक क्यों दी? निश्चय ही जीभ का दो होना ठीक न होता। जीभ की संख्या दो होने पर तर्क या बहस करने के लिए किसी अन्य की आवश्यकता न रहती।…(इससे) जिस अपेक्षित स्वार्थपरता का उदय होता, उससे क्या हमारे इस बहुत विचित्र संसार के असंख्य टुकड़े न हो जाते?’ (झूठ-सच)। देखा जा सकता है कि टुकड़े हो चुके हैं।
सियारामशरण गुप्त ऐसे समाज में लिख रहे थे, जिसमें संवाद और बहस की अच्छी स्थिति थी। सोचा जा रहा था कि हमें छोड़ कर ‘औरों’ को भी होना चाहिए। कहा जा रहा था, ‘औरों को हँसते देखो मनु’! आज ‘अन्य’ का हिंसक नकार है और देश के भीतर ‘असंख्य टुकड़े’ होते जा रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि तर्क नहीं होता तो लोकतंत्र का बीजवपन नहीं होता। तर्क हो तभी लोकतंत्र में जीवन लौटेगा, भव्य दिखावा से नहीं। इस समय एक बड़ी चुनौती है कि कैसे तर्क की पुनःप्रतिष्ठा हो और कैसे बौद्धिक सहृदयता का पुनः उदय हो।
एक तत्व की ही प्रधानता प्रलय लाती है
आज समाज में हिंसा बढ़ती जा रही है। कोई नहीं छोड़ता, छोटा मौका हो या बड़ा। वह लूटता है और मारता है। लूटता सबको है, मारता ‘भिन्न’ को है। अपनी क्षमता के अनुसार 100-200 रुपये की लूट से लेकर 20-30 हजार करोड़ रुपये तक की लूट है। पैसे की लूट है, पद और सम्मान की लूट है। बर्बरताओं का भी अपना मजा है, तो यह मजा भी लो। वे सोचते हैं कि जो हैं सो हमीं हैं, औरों के बारे में क्या सोचना, उन्हें लूटो और मारो! राष्ट्रीय जीवन में ऐसा संकट तभी आता है, जब किसी चीज का कोई तर्क नहीं रह जाता। आंख रहते हुए भी आंख नहीं होती। जब दृष्टि का ही अकाल है, तर्क कहां से होगा और सहृदयता कहां से आएगी?
अरुण कमल की एक लंबी कविता है- ‘प्रलय’! इसकी पंक्तियां हैं, ‘ऐसा क्यों लग रहा है कि मेरा घर सीमा पर है/ और मैं हर आवाज पर बाहर आ जाता हूँ कमीज के बटन लगाता/ बज रहे हैं ढोल नगाड़े/रात्रि जागरण अखंड जैकारे/पूरा देश वधस्थल की ओर जा रहा है/… गांधी का नाम मत लो/गांधी तो अब एक झाड़ू का नाम है/नोट रुपइये पर आश्रम है धाम है/…तभी किसी ने पर्चा थमाया/…क्या करना क्या न करना/ क्या खाना क्या न खाना/क्या पीना क्या न पीना/क्या पहनना कितना ढंकना/… क्या बोलना क्या सोचना/… हर घर प्रक्षेपास्त्र के घेरे में/ कहां जा रही है यह भीड़/ इतने लोग कभी नहीं देखे एक साथ सड़क पर/ वो बच्ची एक पांव की टूटी चप्पल ठीक कर रही है झुकी/कहां जा रहे हैं ये लोग।’ कहां जा रहा है यह विश्व?
अच्छी छोटी कविताएं लिखने के लिए भी सभ्यता में लंबी यात्राएं करनी पड़ती हैं। हर अच्छा कवि करता है। अरुण कमल की उपर्युक्त लंबी कविता आज के भय, असुरक्षा और जीवन की अनिश्चितता के चित्र पूरे ‘हॉरर’ के साथ उपस्थित करती है। मेरी दृष्टि में मुक्तिबोध के ‘अंधेरे में’ के बाद पहली बार इतने बड़े फलक पर कोई समयचेतस कविता लिखी गई है। इसमें एक फंतासी है, ‘एक झड़ता पत्ता भी भारी है हवा को/एक अजीब भयानक सपना था वो/एक चील के मुंह में सांप/सांप के मुंह में मेढ़क/मेढ़क के मुंह में एक कीट/उड़ी जा रही है चील नीले स्वच्छ आकाश में/नीचे पानी/केवल पानी पानी पानी/कहीं नहीं धरती, न पर्वत न हिमालय/प्रलय प्रलय प्रलय।’ आज हर आदमी किसी को दबा रहा है और खुद अपने से मजबूत द्वारा दबाया जा रहा है।
यह कविता वहीं खत्म होती है, जहां से जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ शुरू हुई थी। इसके प्रलय के चित्र में हर तरफ जल ही जल है- ‘एक तत्व की प्रधानता’ है। जब भी दुनिया में विविधता को मिटाकर ‘एक तत्व की प्रधानता’ का दृश्य उपस्थित होता है, एक न एक रूप में प्रलय आता है- सभ्यता मिट जाती है। यह नहीं चल सकता। ‘एक देश-एक ॠतु’, यह दुनिया में कहीं नहीं चल सकता।
किसी भी धर्म, जाति, जेंडर, प्रांत या देश का आदमी हो उसमें मनुष्य अभी मरा नहीं है। इसलिए कहीं भी सभ्यता को, इतिहास, संस्कृति और साहित्य को मिटा पाना संभव नहीं है, जब तक लाखों बच्चियों के मन में अपनी टूटी चप्पल ठीक करते हुए यह प्रश्न है- कहां जा रहे हैं ये लोग?
vagarth.hindi@gmail.com (All paintings : Subhajit Paul)
बहुत ही सुन्दर लेख |कविताएँ बहुत ही खूब,कहानियां मार्मिक और विचार प्रधान |