शंभुनाथ
प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ को सौ साल बाद (1924-2024) याद करने का क्या अर्थ है जबकि ‘गोदान’ ने कई दशकों से उसे बौद्धिक पिछवाड़े में डाल रखा है? उसी समय के उनके नाटक ‘कर्बला’ को भी कोई याद नहीं करता। हम जब ऐसी कृतियों पर बात करते हैं जो लंबे समय से चर्चा के बाहर हैं पर कभी वे मील का पत्थर थीं, तो निश्चय ही यह मानवता में मौजूद अदम्य साहस और कुछ घायल स्वप्नों को फिर खोज लाना है।
हर साहित्यिक कृति सभ्यता में एक यात्रा है, कभी खो जाती हुई और कभी लड़ती हुई। ‘गोदान’ एक महान उपन्यास है, पर वर्तमान समय में ‘रंगभूमि’ उससे अधिक अर्थपूर्ण है। इसकी वजह है, इसे पढ़ते हुए आज के समय की गूंज भी सुनाई देती है। संभवत: इसी अर्थ में कोई कृति कालजयी होती है। ‘रंगभूमि’ का प्रधान चरित्र सूरदास समय की रफ्तार में कितना खो चुका है और कितना आज भी लड़ रहा है, यह देखने की चीज है और यह एक आत्मनिरीक्षण भी है।
विस्थापन के विरुद्ध पहली आवाज
‘रंगभूमि’ एक बहुकथापरक उपन्यास है, पर मुख्य कथा विस्थापन की है और संभवत: यह इस विषय पर पहला भारतीय उपन्यास है। अंग्रेजों के समय देश के कई गांवों-कस्बों को औपनिवेशिक नगरीकरण के लिए उजाड़ा जा रहा था। इतना ही नहीं, कृषकों को अन्न की जगह नील, कपास, तंबाकू आदि की व्यापारिक खेती के लिए बाध्य किया जा रहा था। ऐसे ही एक अन्याय की चपेट में ‘रंगभूमि’ का अंधा चरित्र सूरदास है। प्रेमचंद इस घटना के भीतर से वंचित वर्गों के जीवन-यथार्थ सामने लाते हैं, साथ ही बदल रही दुनिया को पहचानते हैं। वे यह भी दिखाते हैं कि मनुष्य के भीतर, भले वह अकेला हो, आदर्शों के लिए लड़ने की कितनी अधिक शक्ति होती है।
एक व्यापारी जानसेवक को सिगरेट का कारखाना खोलना है। वह संपत्तिशाली लोगों को इसके शेयर बेचता है और कारखाने के लिए एक बड़ी जमीन की तलाश शुरू करता है। जमीनें बड़े जमींदारों और राजा साहब के पास भी हैं, पर उसे चालाकी से किसी गरीब की जमीन हथियानी है। उसे पता चलता है कि एक जमीन सूरदास की है और वह बड़े मौके पर है, लेकिन उसने अपनी जमीन पशुओं के चरने के लिए गांव वालों को दे रखी है और वह खुद भीख मांग कर गुजर-बसर करता है। जानसेवक का खेल शुरू होता है और एक गांवनुमा कस्बे के जीवन में हलचल पैदा हो जाती है।
ठाकुरदीन सूरदास से पूछता है, ‘क्या सूरे, कोई विपत आनेवाली है क्या?’ सूरदास जो जवाब देता है, उसमें 21वीं सदी का सभ्यतागत संकट भी झलकता है। वह कहता है, ‘ऐसे बुरे दिन आ रहे हैं जब तुम्हें सेवा टहल करके पेट पालना होगा। जब तुम अपने नौकर नहीं पराये नौकर हो जाओगे और नीति-धरम का निशान भी नहीं रहेगा।’ वैश्वीकरण के बाद यही हालत है।
प्रेमचंद ‘रंगभूमि’ की शुरुआत में सभ्यता का नया चेहरा दिखा देते हैं। जानसेवक का आदमी ताहिर अली जब उससे कहता है, ‘मुझे शक है कि वह इसे बेचेगा भी’, एंग्लो-इंडियन व्यापारी जानसेवक आत्मविश्वास से बोलता है, ‘रुपये के सत्तरह आने दीजिए और आसमान के तारे मंगवा लीजिए।’ अर्थात कुछ भी खरीदा जा सकता है! ‘रंगभूमि’ का सबसे बड़ा संदेश है, पैसे से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता। सूरदास को नहीं खरीदा जा सका। उसने पैसे के लोभ की जगह संघर्ष का रास्ता चुना जो उसकी आंतरिक खुशी की रक्षा और उच्च मूल्यों के लिए था। वह विस्थापन के विरुद्ध खड़ा हो गया।
लोगों की चिंता आमतौर पर जब भौतिक सुख-सुविधाओं के बीच जीने या सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के वृद्धि-दर तक सीमित हो जाती है, मूर्खतापूर्ण विचारों को प्रतिष्ठा मिलने लगती है। स्मरण रखने की जरूरत है कि सुख की वस्तुएं बढ़ने का अर्थ जीवन में खुशी का बढ़ना नहीं है। धर्मस्थलों पर भारी भीड़ हो रही हो, इसका अर्थ समाज में धर्म का बढ़ना नहीं है। लिटरेरी फेस्टिवल में मजा आ रहा हो, मजा बेचिए-खरीदिए, पर इसका अर्थ साहित्य का प्रसार नहीं है। जीवन के लिए अच्छा साहित्य चाहिए, अच्छी संस्कृति चाहिए। अच्छे साहित्य या साझे जीवन-साझी संस्कृति में अनगिनत व्यक्तियों का आज भी जो विश्वास है उसे खरीदा नहीं जा सकता। पैसे से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता, प्रेमचंद यह संदेश देने के लिए सूरदास का चरित्र खड़ा करते हैं।
‘रंगभूमि’ के सूरदास में सचाई का दर्द है
सूरदास अपनी 10 बीघा जमीन गांव वालों को धर्मार्थ दे चुका है और खुद भिखारी के रूप में जीता है। वह दलित है, मंगता है, गवैया है और सभी लोगों के प्रति प्रेम से भरा एक अच्छा इंसान है। वह स्वच्छंद है, किसी झूठे बंधन को नहीं मानता। प्रेमचंद बढ़ रही धार्मिक कट्टरता के जमाने में सूरदास के जरिए यह संदेश देने में सफल हुए कि धर्म का स्तंभ भय नहीं है, बल्कि दुख-दर्द में साझेदारी है, न्याय है। वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि धर्म में जब स्वार्थ मिल जाता है, वह धर्म नहीं रह जाता।
निराला की एक पंक्ति है, ‘बाहर मैं कर दिया गया हूँ/ भीतर पर भर दिया गया हूँ।’ सूरदास बाहर अभावों से भरा है, पर उसके भीतर भावों का अगाध समुद्र है। वह प्रेम, सत्यनिष्ठा, न्याय विचार, परोपकार और साहस से भरा है, जबकि जानसेवक, राजा महेंद्र कुमार, कुंवर भरत सिंह जैसे व्यक्ति भौतिक रूप से संपन्न हैं, पर उनका अंत:करण संवेदना और मूल्यबोध से रिक्त है। 20वीं सदी में एक ऐसी सभ्यता का आक्रमण हो चुका था, जिसमें आदमी अधिक से अधिक भौतिक वस्तुओं के बीच भीतर से अधिकाधिक संवेदनहीन और रिक्त होता जा रहा था।
प्रेमचंद ने अपने इस उपन्यास की शुरुआत में सूरदास के बारे में कह दिया, ‘बाह्य दृष्टि बंद, अंतर्दृष्टि खुली हुई’। वह अनपढ़ होते हुए भी गुणी है, धर्म-अधर्म समझता है। उसे अपने भीषण समय का बोध है और जनहित की चिंता है। सबसे बड़ी बात, वह सच को सच और झूठ को झूठ कहता है। इन दिनों लोग बड़े कलकुलेटिव हैं, सेलेक्टिव हैं। वे चुनकर विरोध करते हैं और चुनकर चुप रहते हैं।
सूरदास हड्डियों का एक ढांचा था, पर भीतर लोहे का। प्रेमचंद उसके बारे में बताते हैं, ‘अन्याय देखकर उससे न रहा जाता था, अनीति उसके लिए असह्य थी।’ सूरदास आम मानवीय कमजोरियों से भरा और चिंताओं से घिरा था, पर उसमें ‘सचाई का दर्द’ था। वह एक टिड्डी भर था, पर आंधी को रोकने के लिए खड़ा होता है। वह विस्थापन के विरुद्ध अहिंसक तरीके से लड़ता है। उसका तोप के सामने खड़ा झोपड़ा ‘जातीय मंदिर’ बन जाता है।
फिर भी सूरदास की कल्पना केवल गांधी के स्वाधीनता संग्राम को व्यक्त करने के लिए नहीं, दुनिया को एक भिन्न जगह से देखने के लिए की गई थी। वह एक खास दौर था, जब 1921-22 के पहले सत्याग्रह की विफलता ने एक निराशा फैला रखी थी। अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत धर्म और जाति के आधार पर एक मिथ्या ध्रुवीकरण हो रहा था। साम्राज्यवादी प्रोपगंडा झूठ को तथ्य बनाकर पेश कर रहा था, ताकि औपनिवेशिक आधुनिकीकरण का आकर्षण बढ़े। सिगरेट एक ऐसा ही प्रचार था। वस्तुत: एक विनाशकारी चीज देशसेवा और विकास के नाम पर प्रचारित की जा रही थी। सूरदास सिगरेट उद्योग के भीतर से प्रतिध्वनित एक बहुस्तरीय सभ्यतागत संकट का सामना कर रहा था!
प्रेमचंद हिंदी क्षेत्र के अंतर्कलह से चिंतित थे
प्रेमचंद ने सामाजिक कलह को हमेशा देश की एक बड़ी समस्या के रूप में देखा है। हिंदी क्षेत्र का लेखक होने की वजह से उन्हें इस विडंबना ने खास करके चिंतित किया, जो अस्मिताओं की टकराहट के रूप में थी और ऐसी अस्मिताएं सामाजिक युद्ध के बंकरों का निर्माण कर रही थीं।
‘रंगभूमि’ में ब्राह्मण, पिछड़ी जाति और दलित सभी आपस में हँसी-ठिठोली और साथ भजन-कीर्त्तन करते हैं। सभी का एक-दूसरे से भावनात्मक रिश्ता है, संवाद है। एक समय धर्म-जाति के भेदभाव पर मानवीय अस्मिता भारी पड़ रही थी। इसका चित्र मंदिर के चबूतरे पर मिलता है, जहां सूरदास के गाते समय पनवाड़ी ढोलक बजाता था, अहीर करताल, मिठाईवाला तंबूरा और ब्राह्मण सारंगी। भैरों जैसे पिछड़े और दलित मजीरा बजाते थे। संगीत सभी को जोड़ता है। प्रेमचंद बताना चाहते थे कि ‘सासतरार्थ’ खत्म नहीं हुआ है, पर 20वीं सदी के शुरू के उन दशकों के उदात्त राष्ट्रीय जागरण का लोगों पर असर पड़ रहा था। सभी अभाव के बीच हिल-मिलकर जीवन रस ले रहे थे।
जानसेवक के सिगरेट कारखाने के लिए सूरदास की जमीन हड़पने का खेल शुरू होते ही, खासकर नगरीकरण के मुहाने पर ग्रामीणों के हितों की टकराहट तेज हो जाती है। अहीर बजरंगी सोचता है, अब उसकी गाएं कहां चरेंगी तो भैरों सोचता है, कारखाना खुल जाने पर उसकी ताड़ी की बिक्री बढ़ जाएगी! कस्बा बंट जाता है। भैरों विद्वेष में सूरदास का झोपड़ा जला देता है। सूरदास के भीख से जमा किए रुपए चुरा लिए जाते हैं। सूरदास और भैरों के बीच सुभागी को लेकर केस-मुकदमा चलता है। सूरदास पर अन्यायपूर्वक भारी जुर्माना लगता है। मिठुआ गुस्से में भैरों के घर में आग लगा देता है। विस्थापन की साझी नियति से घिरे होने के बावजूद गांव के लोगों की अंतर्शत्रुता नहीं मिटती। यह अंतर्कलह हिंदी क्षेत्र का एक मार्मिक यथार्थ है। दरअसल यहां की मुख्य फलस गेहूं-चावल नहीं है, कलह है। लोग कलह बोते और कलह ही काटते रहे हैं। इस तरह मुख्य मुद्दे और निशाने धूमिल होते रहे हैं।
क्लार्क की गोली खाकर मरने से पहले सूरदास का आखिरी कथन है, ‘तुम मंजे हुए खिलाड़ी हो, तुम्हारा दम नहीं उखड़ता, खिलाड़ियों को मिलाकर खेलते हो। हमारा दम उखड़ जाता है, खिलाड़ियों को मिलाकर नहीं खेलते।’ यह प्रेमचंद की हिंदी क्षेत्र के यथार्थ पर एक जबर्दस्त टिप्पणी है, एक गहरी चिंता।
हालांकि भैरों का घर आग में जल जाने पर प्रेमचंद ने यह भी दिखाया है कि सूरदास पब्लिक द्वारा चंदा से मिले अपने रुपये भैरों को दे देता है, ताकि वह अपना घर बना ले। इससे द्रवित होकर भैरों का हृदय परिवर्तन हो जाता है। वह सूरदास को पीड़ा से बताता है, तुम्हारे झोपड़े में आग मैंने ही लगाई थी! ऐसा ही कथन प्रेमचंद की कहानी ‘मुक्तिमार्ग’ में है जब गांव से उजड़कर शहर में मजदूर बन जाने पर बुद्धू और झींगुर दोनों को अपनी गलतियों पर अफसोस होता है। बुद्धू झींगुर से कहता है कि तुम्हारे खेत में आग मैंने लगाई थी! बड़े कथाकार स्वप्न देखते हैं, वे यथार्थ में फंसे नहीं रह जाते।
प्रेमचंद सूरदास को अपने युग की सामाजिक अंतर्शत्रुता और हिंसा के प्रतिध्रुव के रूप में चुनते हैं। वे जानते थे, मानवीय उदारवाद के बिना सामाजिक परिवर्तन संभव नहीं है। सूरदास अ-पर का बोध लेकर चल रहा था। वह उदारवादी है, भारत देश के स्वभाव का प्रतिबिंब। वह कूपमंडूकता से मुक्त है। सूरदास के आदर्श क्लार्क-जानसेवक-राजा साहब के लक्ष्यों से भिन्न हैं। उसकी वाणी में नम्रता है, पर आचरण में दृढ़ता है। वह कहता है, ‘पहले उसके शरीर पर फावड़ा चल जाएगा, तब जमीन पर फावड़ा चलेगा।’ वह भैरों से नहीं लड़ता, सभ्यता के शत्रु जानसेवक से लड़ता है। इस बात से सीख लेनी चाहिए।
उदारवाद का अर्थ है सुधार, बुद्धिपरकता, कट्टरता से मुक्ति, धार्मिक सौहार्द और समावेशिकता। वैश्वीकरण के युग में उदारवाद सिर्फ आर्थिक मामलों में सीमित होकर रह गया। सामाजिक मामलों में उदारवाद नहीं आया। यही वजह है, धार्मिक-जातिवादी अंतर्शत्रुता आज अपने भीषण रूप में है। इन दिनों अस्मिताओं की टकराहट ही सत्ता की गंगोत्री है, जबकि ‘रंगभूमि’ ने अस्मिताओं की टकराहट की जगह मूल्यों की टकराहट प्रस्तावित की थी।
क्या ‘रंगभूमि’ में उद्योगीकरण का विरोध है
कुछ लेखकों की नजर में सूरदास ‘सामंती व्यवस्था को लौटाने वाला एजेंट’ है, जबकि जानसेवक राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधि होने के कारण एक प्रगतिशील आदमी है। सिगरेट कारखाना लगाने वाले जानसेवक को यांत्रिक भौतिकवादी दृष्टि से देखना सही नहीं है। जानसेवक वस्तुतः कहीं भी राष्ट्रवादी उद्योगपतियों की तरह स्वाधीनता संग्राम में सहयोग करता नहीं दिखता। उसकी दिलचस्पी स्कूल, अस्पताल या धर्मशालाएं खुलवाने में नहीं है, जो राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग में थी। इसके विपरीत, जानसेवक अपनी ईसाइयत का दुरुपयोग करते हुए साम्राज्यवाद के दुमछल्ले के रूप में सामने आता है। वह चाहता है कि किसी तरह उसकी बेटी सोफिया की शादी अंग्रेज प्रशासक क्लार्क से हो जाए, जबकि वह विनय से प्रेम करती है। जानसेवक अंग्रेजों और राजा-जमींदारों का सहयोग लेकर सूरदास और पांडेपुर के बाशिंदों को उजाड़ देना चाहता है। वह किसी कोने से देशप्रेमी नहीं है। ‘रंगभूमि’ में उद्योगीकरण का विरोध नहीं है, साम्राज्यवादी विध्वंस के प्रतीक नशीली चीज सिगरेट के कारखाने का विरोध है।
जानसेवक कहता है, ‘यह व्यापार राज्य का युग है… योरोप के बड़े-बड़े साम्राज्य पूंजीपतियों के इशारों पर बनते-बिगड़ते हैं।’ वह साम्राज्यवाद से अपना नाभि-नाल संबंध बनाते हुए ‘व्यापार राज्य’ की सूचना देता है। व्यापार राज्य का बुनियादी मंत्र सिर्फ ‘बिजनेस इज बिजनेस’ नहीं है, बल्कि ‘एवरी थिंग इज लेन-देन’ है। प्रेमचंद ने इसे एक बड़े सभ्यतागत संकट के रूप में देखा।
हमारा देश प्रेमचंद के युग में जब उपनिवेश से राष्ट्र-राज्य बनने के लिए संघर्ष कर रहा था, ‘व्यापार राज्य’ की भी नींव पड़ रही थी। इसका चरम रूप आज की बाजार-अर्थव्यवस्था है, भूमंडलीकरण है जहाँ व्यावहारिकता के नाम पर नैतिकता मिटा दी गई है। आज का बाजार स्वतंत्रता का दूत दिखाई देता है, जबकि वह स्वतंत्रता का अप्रत्यक्षत: हनन करता है। यहां तक कि राजनीति बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अधीन हो गई है। यह भी लक्षित किया जा सकता है कि इधर बढ़ गई अस्मिताओं की टकराहट भूमंडलीकरण की संतान है। हर संकट अपनी रक्षा के लिए एक दूसरा संकट पैदा करता है!
यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि ‘रंगभूमि’ महज एक राष्ट्रीय रूपक नहीं है, जैसा कि फ्रेडरिक जेम्सन तीसरी दुनिया के उपन्यास को इकहरे अर्थ में ‘राष्ट्रीय रूपक’ बताते हैं, मानो पश्चिमी देशों की पहली दुनिया के उपन्यास अंतरराष्ट्रीय रूपक हैं! ‘रंगभूमि’ विश्व में उपस्थित हो रहे एक बड़े सभ्यतागत संकट के विरुद्ध साझी मानवता की आवाज है। धर्म-जाति के भेदभाव से ऊपर उठा, संत कवियों को गाने वाला भिखारी सूरदास दुनिया की साझी मानवता का रूपक है।
प्रेमचंद यह भी दिखाते हैं कि जानसेवक अन्न, तिलहन आदि की खेती रोककर, लालच देकर कृषकों से तंबाकू की खेती कराना चाहता है। वह कृषि को औद्योगिक-व्यापारिक व्यवस्था के अधीन लाना चाहता है। कृषि पर कब्जे की तत्युगीन घटना वस्तुत: कृषि के उस कारपोरेटीकरण का पुरारूप है, जिसके खिलाफ 2021-22 का ऐतिहासिक किसान आंदोलन चला था। सूरदास ने विपदा की तरफ संकेत कर दिया था, ‘तुम अपने नहीं पराए नौकर हो जाओगे और नीति-धरम का निशान भी न होगा।’ यदि कुछ अर्थपूर्ण बोलना हो, मनुष्य के पास अपना कंठ होना चाहिए।
मध्य वर्ग : ग्रामोन्मुख से ग्राम–विमुख
भारत के मध्य वर्ग के जीवन और सोच में विविधता है। बल्कि इन दशकों में भारतीय मध्यवर्ग के भीतर जितने वर्ग बने हैं, उतने दुनिया के किसी देश के मध्यवर्ग में नहीं हैं। 19वीं सदी की शुरुआत में वह छोटे आकार में था। आज वह पूरी आबादी का करीब 21 प्रतिशत है। वह एक समय सुधार और परिवर्तन के ऊंचे लक्ष्यों को लेकर चल रहा था। मध्यवर्गीय लोगों का चित्त बड़ा हो रहा था। उनमें अपने विचारों के लिए भोग-विलास का बलिदान कर देने का नैतिक साहस था। आज वे धर्म, जाति आदि पर आधारित मिथ्या अंतर्विरोधों और झूठ में फायदा देखते हैं। उनकी सबसे बड़ी चिंता सुख-सुविधाओं से भरे अपने आरामदायक जीवन को लेकर है। वे अब अपने ‘मैं’ से बाहर कम देखते हैं।
प्रेमचंद के युग में मध्यवर्ग का सुविधावादी चरित्र सामने आ चुका था, पर वे देख रहे थे कि अभी इस वर्ग के कई लोगों में ऊंचे आदर्शों के लिए जीने-मरने का जज्बा है।
प्रेमचंद की ‘रंगभूमि’ में मध्यवर्ग का कोई चरित्र उस तरह अपने परिवेश के साथ उभरकर नहीं आया है, जिस तरह ‘गोदान’ में मेहता और मालती का चरित्र उभरा है। फिर भी मध्य वर्ग के वीरपाल सिंह और इंद्रदत्त दो भिन्न कोण से राष्ट्रीय सोच सामने लाते हैं। एक ने हिंसा और दूसरे ने अहिंसा तथा शांतिपूर्ण सेवा कार्यों का रास्ता चुन रखा था। वह ऐसा युग था, जिसमें विभिन्न वर्गों और विचारों के लोग राष्ट्रीय आंदोलन में तरह-तरह से हिस्सा ले रहे थे। यहां तक कि राजभक्त राजा महेंद्र कुमार की पत्नी इंदु पति की परवाह न कर सत्याग्रह करने वालों का साथ देती है। ईसाई जानसेवक की बेटी सोफिया और जमींदार पुत्र विनय भी राष्ट्रीय सेवा व्रत धारण करते हैं। दोनों के मन में प्रेम और राष्ट्रीय कर्त्तव्य को लेकर द्वंद्व है, जो उस युग की एक घटना है।
प्रेमचंद अपने उपन्यास में विनय की दुविधा और प्रभुसेवक के काल्पनिक अंतरराष्ट्रीयतावाद की ही आलोचना नहीं करते, वे अंग्रेजों द्वारा बनाई गई काउंसिल की भी बखिया उधेड़ते हैं। डॉ. गांगुली कहते हैं, ‘जो सिपाही गले में सोने की ईंट बांधकर लड़ाई के मैदान में जाता है, वह लड़ नहीं सकता।’ यह उन रईसों पर व्यंग्य है, जो अपने को देशभक्त कहते थे। गांगुली का काउंसिल से मोहभंग हो जाता है, जबकि उस युग के राष्ट्रवादियों के बीच काउंसिल में जाने की होड़ थी।
प्रेमचंद ‘रंगभूमि’ में शिक्षा के मध्यवर्गीय संसार पर भी टिप्पणी करते हैं। वे कहते हैं, ‘शिक्षा धूर्त्तों की स्रष्टा है।’ शिक्षा से मनुष्य का मन न तब बड़ा बन रहा था और न आज बन रहा है। रवींद्रनाथ और प्रेमचंद के बीच वैचारिक दूरियों के बावजूद विश्वविद्यालय की उच्च शिक्षा को लेकर विचारों में समानता है। प्रेमचंद ‘रंगभूमि’ में यह भी कहते हैं, ‘विशेषज्ञों में एक संकीर्णता होती है जो उनकी दृष्टि को सीमित कर देती है। वे किसी विषय पर स्वाधीन होकर विस्तीर्ण दृष्टि नहीं डाल सकते।’ कहने का अर्थ है, ज्ञान के बीच दीवारें नहीं होनी चाहिए, विशेषज्ञता संकीर्ण बनाती है!
प्रेमचंद कई स्तरों पर साम्राज्यवादी विध्वंस देखते हैं। वे अदालत को ‘दीनों की बलिवेदी’ और ‘अमीर के हाथों अत्याचार का यंत्र’ बताते हैं।
डॉ. गांगुली कहते हैं कि अंग्रेज आर्थिक लूट-शोषण के अलावा हमारे अस्तित्व, हमारी सभ्यता और मनुष्यत्व को मिटा देना चाहते हैं। ‘रंगभूमि’ में यह एक बड़ा एक्सपोजर है। कहा जा सकता है कि अंधे सूरदास का संघर्ष सिर्फ अपने झोपड़े या जमीन के लिए नहीं है। उसका संघर्ष इस देश के लागों के अस्तित्व, सभ्यता और मनुष्यत्व को बचाने के लिए है।
उल्लेखनीय है कि सूरदास के संघर्ष में साथ देने के लिए मध्यवर्गीय लोग शहर से गांव आते हैं। सोफिया, इंद्रदत्त और विनय आते हैं। शहर के हिंदू और मुसलमान आते हैं, गोली चलने पर नौ अर्थियों के साथ तीन जनाजे उठते हैं। सूरदास के संघर्ष को जबर्दस्त जन समर्थन मिलता है।
पहले से आज एक बड़ा फर्क यह आया है, मध्यवर्ग के शहरी लोगों की दृष्टि अब गांव की तरफ नहीं जाती। उन्हें गांव की सामान्य पीड़ाओं से मतलब नहीं रह गया है। मध्यवर्ग के शहरी नागरिक किसी खास यौन हिंसा पर ही उत्तेजित होते हैं, यदि वह शहर में घटित हुई हो। गांव में यौन हिंसा की शिकार लड़की के मुद्दे पर या गांव के किसी प्रश्न पर शहरी लोगों को आज आंदोलन करते नहीं देखा जाता।
शहरी मध्यवर्ग के लोग आईपीएल के क्रिकेट मैच या किसी म्यूजिक कंसर्ट में एक बड़ी भीड़ बनते हैं। वे बड़े मॉल में टहलते हैं और एक के साथ एक फ्री पाकर खुश हो जाते हैं। वे लाइन तोड़कर आगे निकल जाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं, लाइन में खड़ा रहना सिर्फ गरीबों के दायित्व में गिना जाता है!
मध्य वर्ग के शिक्षित लोगों को आम तौर पर अब भ्रष्टाचार, महंगाई, जाति उत्पीड़न की क्रूर घटना आंदोलन के लिए उत्तेजित नहीं करती। उनकी अपनी इच्छाएँ अंतहीन हैं। वे प्रेमचंद युग के मध्यवर्ग से काफी भिन्न हो चुके हैं। आजकल वे पूरी तरह ग्राम-विमुख हैं और उत्तर-विचारधारा के संसार में हैं।
धार्मिक मन का न्याय से क्या संबंध है?
प्रेमचंद ने अपने युग की समस्त कट्टरताओं, क्रूरताओं और चालाकियों के प्रतिध्रुव में ‘रंगभूमि’ के अनोखे चरित्र सूरदास को खड़ा किया है। वह एक सरल आत्मा है। ऐसे व्यक्ति को आजकल पागल कहा जाएगा, जो अपनी जमीन की कीमत न ले और किसी के साथ न देने पर भी अन्याय का अकेला ही प्रतिवाद करे। मंटो का टोबाटेक सिंह, रेणु का वामन दास, भीष्म साहनी का जरनैल सिंह क्या थे? प्रसाद की ‘पुरस्कार’ कहानी में मधूलिका सोने से भरी थाल फेंक देती है। राष्ट्रीय जीवन में सक्रिय अनगिनत व्यक्तियों में एक समय धन और ऐश्वर्य से उदासीनता थी।
प्रेमचंद के नाटक ‘कर्बला’ में खलीफा बना दुश्चरित्र यजीद कहता है, ‘हमें पैसे की ताकत से धर्म को जीतना है।’ वह शक्तिशाली होते हुए भी पैगंबर मुहम्मद के धर्म-भाव से भरे पोते हुसैन से डरता है और उसे मरवा देना चाहता है, क्योंकि पाखंड के आगे वे झुक नहीं रहे थे। ‘रंगभूमि’ का सूरदास भी नहीं दबता। दोनों के ‘धार्मिक आत्म’ का संबंध न्याय से है।
प्रेमचंद का नाटक ‘कर्बला’ इतिहास की दृष्टि से देखने पर आपत्तिजनक और रंगमंच की दृष्टि से अनुपयुक्त लगेगा। पर यदि उसे आधुनिक युग-संदर्भ में एक नाटक या साहित्यिक कल्पना के रूप में पढ़ा जाए, वह धन की ताकत और सामाजिक विद्वेष के विरुद्ध एक वैसा ही बड़ा संदेश देता हुआ मिलेगा, जो ‘रंगभूमि’ में है। कई बार कथाएं दृष्टि देती हैं, जबकि इतिहास के नाम पर उपस्थित चीजें अंधा बनाती हैं।
निश्चय ही ‘रंगभूमि’ का सूरदास एक आदर्शवादी चरित्र है, पर उसका आदर्शवाद कुंवर भरत सिंह और प्रभुसेवक की तरह निष्क्रिय आदर्शवाद नहीं है, वह सक्रिय आदर्शवाद है। एक समय आदर्शवाद में बहुत ताप था, वह झांसा नहीं था।
‘रंगभूमि’ और ‘कर्बला’ पढ़कर सवाल उठता है, वर्तमान युग में ‘धार्मिक आत्म’ का न्याय से क्या संबंध है, उसका ईमानदारी और अ-पर के बोध से क्या संबंध है? खासकर ‘रंगभूमि’ उपन्यास सौ साल बाद आज हमलोगों से पूछता है, क्या तुम वर्तमान सभ्यता के आक्रमण से अपने अंत:करण को बचा पा रहे हो? हो सकता है, उपर्युक्त दोनों कृतियाँ आज लोगों को अपनी-अपनी गुमटी से बाहर आकर कुछ नया सोचने की प्रेरणा दें। ये उस वक्त रची गई थीं, जब देश एक सांस्कृतिक चौराहे पर खड़ा था और धर्म के अर्थ की तलाश थी।
सत्ता सूरदास जैसे मनुष्यों से ही डरती है
सूरदास के अंग्रेज प्रशासक क्लार्क की गोली खाकर मरने के साथ ही शहर में एक अनोखा जागरण आया। जन-आंदोलन शुरू हुआ, मानो देश की सोई आत्मा जगी हो। प्रेमचंद सूरदास के बारे में कहते हैं, ‘वह यथार्थ में खिलाड़ी था- जिसने कभी हिम्मत नहीं हारी, जिसने कदम पीछे नहीं हटाए। जीता तो प्रसन्नचित्त रहा, हारा तो मारने वालों से कभी कीना नहीं रखा। जीता तो हारने वाले पर तालियां नहीं बजाईं, जिसने खेल में सदैव नीति का पालन किया, कभी धांधली नहीं की।’ आज की दुनिया में, जब हर चीज धंधा है, अनीति और धांधली से क्या बचा हुआ है, इसपर सोचना चाहिए।
प्रेमचंद ने ‘रंगभूमि’ में सूरदास के जरिये दिखाया कि एक मामूली आदमी में भी अन्याय से लड़ने की कितनी ताकत होती है। अंग्रेज प्रशासक क्लार्क इस अंधे की ओर संकेत करते हुए राजा साहब से कहता है, ‘हमें आप जैसे मनुष्यों से भय नहीं, भय ऐसे ही मनुष्यों से है।’ यदि ‘रंगभूमि’ का सूरदास आज खो चुका हो, यदि उसका प्रेम भाव, सत्यनिष्ठा, त्याग, सामाजिक दर्द और नैतिक साहस आज के संसार में प्राय: नदारद हो तो कोई भी राज्य सत्ता आखिर आज किस चीज से डरे, और वह निरंकुश क्यों न हो?
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