शंभुनाथ
दलित विमर्श दलित चेतना की एक मंजिल है, अंतिम मंजिल नहीं।इसी तरह स्त्रीवाद स्त्री चेतना की एक मंजिल है, अंतिम ठिकाना नहीं।१९८० के दशक से स्त्री विमर्श और दलित विमर्श शुरू हुए थे।इसमें राजेंद्र यादव और उनके ‘हंस’ (१९८६) की एक महत्वपूर्ण भूमिका है।उन्होंने नई कहानी आंदोलन के ‘व्यक्ति अनुभववाद’ को ‘सामुदायिक अनुभववाद’ की तरफ मोड़ दिया और ‘भोगे हुए यथार्थ’ को व्यक्ति की जगह समुदाय के संदर्भ में प्रतिष्ठित किया।इस तरह हिंदी में दलित विमर्श को मराठी के दलित पैंथर्स से एक भिन्न बौद्धिक पृष्ठभूमि मिली थी।
विमर्शों के आगमन से समुदायों से समाज में आने की घटना उलट गई, समाज तेजी से समुदायों में विभाजित होने लगे।समाज और समुदाय में फर्क है।समुदाय में कोई आदमी स्वेच्छा से शामिल नहीं हो सकता, जैसे किसी दूसरी जाति में।समाज एक गतिशील जगह है, इसमें सभी को शामिल होने की स्वतंत्रता है।समुदाय ‘रेडिमेड गार्मेंट्स’ की तरह हैं, समाज बनाने के लिए कुछ प्रयास करने होते हैं।इसके लिए समवेदना, संवाद और कल्पनाशीलता जरूरी हैं।
२१वीं सदी की घटना है कि धर्म के आधार पर सामुदायिक विमर्श पिछले लगभग सौ सालों से कछुए की चाल से लगातार चलकर अंततः न सिर्फ संपूर्ण ‘भारतीय राष्ट्र’ पर भारी पड़ गया, बल्कि खरगोश की तरह दौड़ते रहे दलित और स्त्री विमर्शों पर भी।इसका अर्थ है, भारतीय समाज बनाने या वंचितों के अधिकार दिलाने की पिछले लगभग सौ सालों की सोच और रचनात्मक कोशिशों में कुछ खोखलापन था।
विमर्श क्या है
हिंदी संसार में १९८६-२००० के बीच दलित विमर्श और स्त्री विमर्श सामने आ गए थे।अब स्त्री, दलित, आदिवासी और अनगिनत जातियां-पुराजातियां अपने ऊपर हुए जुल्मों का इतिहास खुद खोज रही थीं।इन्हें एक खास काल की टुकड़ों में व्यक्त राष्ट्रीय आकांक्षाओं के रूप में पढ़ा जाना चाहिए और इनके विमर्शों की सीमाओं को समझते हुए देखना चाहिए कि ये नई स्थितियों में कितने अर्थपूर्ण रह गए हैं।
विमर्श का अर्थ है-‘सर्मन’, धार्मिक प्रवचन, संवाद की जगह कुछ भी एकतरफा बोलना।यह विचार विमर्श नहीं है।विमर्श की खूबी है, इसमें पहले से तय होता है कि क्या कहा जाना है और क्या बिलकुल नहीं कहा जाना है।विमर्श में सुना नहीं जाता, सिर्फ बोला जाता है।
विमर्श में जितना बोलते हैं, उससे ज्यादा चुनी हुई चुप्पियां होती हैं।आमतौर पर सांप्रदायिकता और धर्मांधता स्त्री, दलित और आदिवासी विमर्श का निशाना नहीं हैं, जबकि ये पुरुषसत्ता और जाति व्यवस्था दोनों को मजबूत बनाती हैं।विमर्शों का निशाना नई बाजार व्यवस्था की तानाशाही भी नहीं है, जिसके कारण महंगाई और बेरोजगारी बढ़ रही है।विमर्शों के लिए जनआंदोलन का महत्व नहीं है, पर आज किसी खास समुदाय के लोगों की सभा या जाति पंचायत बुलाई जाए, भीड़ लग जाएगी।
१९८० के दशक में अमेरिका और इंग्लैंड में उत्तर-औनिवेशिक सिद्धांत बने थे।ये सिर्फ अफ्रीका और दक्षिण एशिया को नजर में रखकर बने थे।मजे की बात है कि जिस पश्चिम ने यह बताया कि उपनिवेशवाद क्या है और यह कितना गुणकारी है, उसी ने उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धांत भी दिए।इन्हीं के जरिये सर्वप्रथम ‘डिस्कोर्स’ शब्द आया, जिसका हिंदी रूप ‘विमर्श’ है।हालांकि इसके पहले भी औपनिवेशिक कारीगरी के अंग के रूप में लघु इतिहास और जाति-आधारित इतिहास लिखे जा रहे थे।लघु परंपराएं खोजी जा रही थीं।उनका नया चरण ‘सबाल्टर्न इतिहास’ था, जो इस दौर में एकेडेमिक फैशन बना। ‘मनुष्य’, ‘नागरिक’, ‘लोक’ और ‘वर्ग’ की जगह ‘वंचित’, ‘विस्थापित’, ‘दबाए गए’, ‘दलित’, ‘स्थानीय’, ‘जेंडर’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल बढ़ गया।किसी भी उपनिवेशवादी विद्वान ने भारत के साझा जीवन-साझी संस्कृति की खोज नहीं की।
विमर्श एक न एक वर्चस्व को चुनौती देते हैं।जैसे दलित विमर्श सवर्णवाद को चुनौती देते हुए उभरा तो स्त्री विमर्श पितृसत्ता को।इनकी खूबी यह है सभी विमर्श ‘सामुदायिक पहचान की राजनीति’ पर आधारित हैं।
विमर्शों की एक अन्य महत्वपूर्ण खूबी यह है कि इनमें स्वानुभव और समवेदना के बीच भेद किया जाता है।विमर्श का एकमात्र आधार ‘स्वानुभव’ है।विमर्श में अनुभव को महत्व देने का अर्थ है वर्चस्व पर हमला।इस विडंबना पर गौर करने की जरूरत है कि किसी एक समुदाय के विमर्शकार को किसी दूसरे समुदाय के उत्पीड़न से मतलब नहीं होता, उसे सिर्फ स्वानुभव से मतलब है।
वैश्वीकरण के युग में विश्व गांव की कल्पना की जाती है, पर ऐसे दौर में भी एक समुदाय के लिए ‘दूसरा’ आउटसाइडर है।मराठी अंध-राष्ट्रवादियों के लिए हिंदी भाषी मजदूर आउटसाइडर हैं।दलित के लिए गैर-दलित आउटसाइडर हैं।आदिवासी लेखक दलित पर और दलित लेखक आदिवासी पर नहीं लिखेगा।स्त्री कथाकार दलितों की समस्या और दलित लेखक स्त्रियों की समस्या नहीं उठाएगा, क्योंकि उसके लिए स्वानुभव ही सबकुछ है, समवेदना कुछ भी नहीं है।इस तरह देश छोटे-बड़े टापुओं में रूपांतरित होता गया।
पिछले करीब चार दशकों में विमर्श के जो रूप आए, वे दलितों और स्त्रियों के सैकड़ों साल के अपमान, उत्पीड़न और वंचना से मुक्ति के ही नहीं, सत्ता संघर्ष के भी औजार थे।आज इस पर चर्चा जरूरी है कि दलित ही राष्ट्र है, स्त्री देह ही राष्ट्र है, प्रांत ही राष्ट्र है, क्या ये दृष्टियां आज तक किसी समुदाय को मुक्त कर पाईं या ये अपने एकांतिक कोण की वजह से एक सांस्कृतिक चक्रव्यूह में फँसती गईं।
विमर्श ‘पहचान’ को मोम की जगह पत्थर बना देते हैं, जो पिघल नहीं सकता।इनमें पहचान एक तलाश न होकर पूर्वप्रदत्त चीज है।जैसे कोई लेखक, शिक्षक, तकनीकविद या वकील है तो उसकी यह पहचान गौण है।मुख्य बात है कि उसकी जाति क्या है, उसका जेंडर क्या है, उसकी प्रांतीयता क्या है और उसका धर्म क्या है।इस तरह विमर्शों में पहचान का अर्थ हमेशा ‘भिन्नता’ है।उनका एक मकसद ‘अन्य’ के प्रति घृणा निर्मित करना है।मुक्ति के लिए ‘निर्मित घृणा’ ही जाति, लिंग, प्रांतीयता और धर्म-आधारित विमर्शों का केंद्रीय सार है।आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि दलित विमर्श और स्त्रीवाद की तरह हाल के हिंदुत्व के विमर्श में भी उपर्युक्त सभी गुण नजर आएं और वह सभी विमर्शों को निगलता महाविमर्श-सा दिखे!
विमर्शों में इतिहास की रोज खुदाई होती है, पुराने इतिहास को मिटाकर समानांतर इतिहास लिखा जाता है।इनमें सुधारवादी, राष्ट्रीय और मानवतावादी धारणाओं को उलट देने का आवेश होता है।इसलिए नवजागरण तथा स्वाधीनता आंदोलन के उदारवादी व्यक्तित्व इनके कठोर निशाने पर होते हैं।उनके महत्व को स्वीकार नहीं किया जाता।इस तरह की बातें बार-बार कही गईं कि हिंदी साहित्य का इतिहास हिंदू साहित्य का इतिहास है या यह पुरुष साहित्य का इतिहास है।
विमर्शवादी लेखन की सबसे बड़ी समस्या उसका होमोजीनियस होना है।आज किसी से पूछा जाए कि २० साल पहले के विमर्शवादी लेखन से आज के विमर्शों में क्या फर्क आया है, तो कोई आशाजनक जवाब नहीं मिलेगा।विमर्श यदि अपरिवर्तनशील होते हैं तो वे एक काल के बाद निष्प्राण हो जाते हैं।मुक्त बाजार व्यवस्था की समस्याएं, जो आज जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रही हैं, दलित और स्त्री विमर्शों में अनुपस्थित हैं जो चिंताजनक है।दलित और स्त्रीवादियों के लेखन को पढ़ा जाए तो पता ही नहीं चलेगा कि इस देश में गरीब किसान भी रहते हैं और बेरोजगारी बढ़ रही है।
उल्लेखनीय है कि विमर्शों के संसार में कुछ भी साझा नहीं है, राष्ट्रीय नहीं है।उनमें भिन्नता ही जीवनशक्ति है।हम जब एक राष्ट्र में अपने बनाए संविधान के तहत रहते हैं, क्या हमारे लिए ‘राष्ट्रीय’ और ‘मानवीय’ का कोई अर्थ नहीं है और राष्ट्र के किसी एक टुकड़े को गेंद बना लेना काफी है? इसका विस्तृत अध्ययन करने की जरूरत है कि १९८० के दशक से उदारवादी क्यों हाशिया पर जाने लगे और कट्टरवादी क्यों लोकप्रिय होने लगे, ‘राष्ट्र’ पर क्यों प्रश्न उठने लगे, ‘पहचान की राजनीति’ किस तरह प्रधान हो उठी और अंततः क्यों सारी लड़ाई पहचानों के बीच सीमित हो गई तथा सबकुछ ‘चिह्नों’ में रूपांतरित हो गया।
विमर्श क्यों उभरे
विमर्श बुद्धिवाद, राष्ट्रीयता, लोकतंत्र, आधुनिकता और वाम विचारधाराओं के आंतरिक संकट की देन हैं।दरअसल ऊँचे आदर्शों की बातें करने वालों ने ही ऊँचे आदर्शों पर संकट उपस्थित किया।आधुनिक युग के ‘ग्रांड नैरेटिव्स’ संदेह से देखे जाने लगे।आजादी के बाद नवजागरण काल के सामाजिक सुधार के कार्यों को आगे नहीं बढ़ाया गया, ‘नियति से मुठभेड़’ बंद कर दी गई।इन वजहों से आधुनिकीकरण के प्रसार के बावजूद आधुनिकता नहीं आ पाई, दृष्टि में कूपमंडूकता जमी रह गई।सामान्यतः स्त्री पुरुष की उपनिवेश बनी रह गई।ऊँची जातियों द्वारा जाति भेदभाव और उत्पीड़न जारी रहे।ऊँच-नीच की धारणाएं भाषा और संस्कृति से नहीं मिटीं।ऐसी दशाओं में कई बार मुक्तिदाताओं से ही मुक्ति पाना जरूरी हो जाता है।
देखा जा सकता है कि हम सामान्यतः जिस भाषा का व्यवहार करते हैं, उसमें जाति और लैंगिक अवमानना संबंधी कहावतें लंबे समय से चली आ रही हैं।लोग धड़ल्ले से बातचीत में ‘चोरी-चमारी’, ‘तिरियाचरित्तर’, ‘कहां राजा भोज-कहां गंगू तेली’ जैसे मुहावरे बोल देते हैं।स्त्रियों को खानदान की ‘इज्जत’, स्त्रियों के बलात्कार को ‘इज्जत लूटना’ माना जाता है, बल्कि कुछ नेताओं के ऐसे वक्तव्य भी आए कि लड़कियां देर रात घर से बाहर रहेंगी तो बलात्कार होंगे! लारियों के पीछे आमतौर पर लिखा होता है-‘बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला’, अर्थात काले रंग को खराब मानने की जड़ीभूत अभिरुचि बनी हुई है।इस तरह समर्थ व्यक्तियों की छद्म सांस्कृतिक भद्रता के भीतर जातिवाद, पुरुषसत्तात्मकता, रंगभेद, प्रांतीयतावाद और कई अन्य तरह के अहंकार कभी नग्न और छिपे रूप में अपना काम करते रहे हैं और इनके प्रति आक्रोश जगना स्वाभाविक है।
विमर्शों ने सामंतवाद को चुनौती दी।उनमें आवेश की प्रधानता हो और कोई विचारधारात्मक अनुशासन न हो, पर उनमें वैचारिकता रही है- उत्पीड़ितों की वैचारिकता।यह मुख्यतः एक सामंतवाद-विरोधी वैचारिकता है।विमर्श राष्ट्र में मौजूद सामंती वर्चस्वों को चुनौती हैं।सैकड़ों साल से जो स्त्रियां और दलित सिर्फ सुन रहे थे, वे अब बोल रहे थे तो सैकड़ों साल से जो सिर्फ बोल रहे थे, उनको अब सुनना था!
विमर्शों के दौर में ‘खंड-खंड-महाखंड’ के दृश्य बढ़ गए।आर्थिक शोषण के मुद्दों को हटाकर जातिवादी वर्चस्व, लैंगिक वर्चस्व, स्थानीय स्वायत्तता आदि संघर्ष के नए मुद्दे बन गए।ये ही अब सत्ता के नए हथियार थे।देखा जा सकता है कि एक अंध-राष्ट्रवाद दूसरे अंध-राष्ट्रवाद के लिए, एक सांस्कृतिक तोड़फोड़ एक दूसरे सांस्कृतिक तोड़फोड़ के लिए और एक घृणा दूसरी घृणा के लिए किस तरह काम करती है।यह भी घटित हुआ कि बड़े अपराधों को भी सांस्कृतिक राजनीति के चलते वैधता मिलने लगी, राजनीति और अपराध का संबंध मजबूत हुआ।
विमर्शवाद की सीमाएं
इस देश के क्षमतावान व्यक्तियों में सामान्यतः सुनने की क्षमता कभी नहीं रही है।वे सैकड़ों साल से चतुराई के साथ अपनी नई-नई सुरक्षात्मक व्यवस्था रचते और कमजोरों को, जो हमेशा बड़ी संख्या में होते हैं, दबाते रहे हैं।स्त्री, दलित और आदिवासी सिर्फ इतने भर सुने गए कि वे चिह्न बना दिए गए।अब चिह्न ही नैरेटिव हैं, अपने विश्वास से भरे रहिए! इससे वंचितों का उत्पीड़न कम नहीं हुआ, तकलीफें कम नहीं हुईं।अंबेडकर की मूर्तियां और चित्र लगाकर मान लिया गया कि दलितों की मुक्ति हो गई।कुछ दलित, स्त्री और आदिवासी ऊँचे स्थानों से प्रतीकात्मक रूप में दिखाए जाने लगे।वे ‘आइटम’ बना दिए गए।वे प्रतिनिधित्व की आकांक्षा से आगे नहीं बढ़ सके, जबकि निजीकरण ने सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व की धारणा को अप्रासंगिक बना दिया है।इस युग में हर सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं में सीमित हो जाने के लिए अभिशप्त है।
विमर्शों की एक अन्य बड़ी सीमा है कि वे समानांतर रूप से क्रांतिकारी नैतिकता का निर्माण करके कोई भिन्न आदर्श उपस्थित न कर सके।एक बार सबाल्टर्न इतिहासकार आशिस नंदी ने एक दलित मुख्यमंत्री के बड़ी संपत्ति बनाने पर बड़ी दृढ़ता से कहा था, ‘भ्रष्टाचार का व्यापक होना लोकतंत्रीकरण का चिह्न है।’ उनका आशय है कि यदि अब पिछड़े, दलित या आदिवासी भी भ्रष्टाचार के जरिए बड़ी संपत्ति बना रहे हैं तो यह लोकतंत्र का चिह्न है।इस तरह का समाजवैज्ञानिक उत्साह अंततः ले डूबने वाला होता है।
यह भी एक विडंबना है कि दलितों में फुले-सावित्री बाई, अंबेडकर की तरह अपने समुदाय में सुधार और आंतरिक ‘भिन्नता’ दूर करने की आकांक्षा पैदा नहीं की जा सकी।दलितों के बीच जाति-स्तरभेद के अनुसार कलह बढ़ता गया है।इसके अलावा, विचारधारा के स्तर पर ‘ब्राह्मणवाद’ का विरोध करते हुए भी वस्तुतः पिछड़ा-दलित संघर्ष ही प्रधान हो गया है।दरअसल आप धर्म के नाम पर किसी के सत्ता में आने का कैसे विरोध कर सकते हैं यदि आप जाति या प्रांतीयता के नाम पर सत्ता में आने का स्वप्न देखते हैं! यदि कोई खुद कट्टरता का बीज बोता है तो उसे उदारवाद की फसल नहीं मिलेगी।
इस पर सोचने की जरूरत है कि आज के विमर्शवादी कितना मनुवाद, धर्मांधता, पितृसत्ता और बाजार की तानाशाही से लड़ रहे हैं और कितना आपस में लड़ रहे हैं।आज सभी विमर्शों के सामने यह चुनौती है कि वे इस देश में उदारवाद का किस तरह प्रचार करें।विमर्शों का ताजा हाल यह है कि ये चुनाव–मशीन या आत्मप्रोपेगंडा के औजार बनकर रह गए हैं।आखिर कोई लेखक समाज के कुछ बड़े प्रश्नों की उपेक्षा करते हुए कितना अर्थपूर्ण लेखन कर सकेगा।
निश्चय ही दलित लेखन का महत्व है, इसने उत्पीड़न के एक बड़े रूप को उजागर करते हुए, शिक्षित दलितों में आत्मविश्वास पैदा किया और उन्हें बोलने की शक्ति दी।लेकिन आज नई चुनौतियों के बीच उसमें एक मोड़ की जरूरत है।
पिछले दो सौ सालों के विभिन्न जन-आंदोलनों ने स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों के प्रति भारत के काफी लोगों के सामाजिक दृष्टिकोण को विकसित किया है।यह पर्याप्त न हो, पर महत्वपूर्ण है।साहित्यिक दुनिया में भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा, अज्ञेय, मुक्तिबोध आदि ने जाति और लैंगिक भेदभाव का काफी विरोध किया है।दरअसल साहित्यिक परंपराओं का अंध-नकार विमर्शों की एक अन्य बड़ी सीमा है।इसने विमर्शवादियों को एकांगी और अहंकारवादी बना दिया।उन्हें एक बंद गली में खड़ा कर दिया।उन्हें लगता है कि वे संसार के पहले और सबसे महत्वपूर्ण विद्रोही हैं।उनसे पहले के साहित्यकार निरर्थक हैं, सारा ज्ञान निरर्थक है।
हिंदी में मराठी दलित लेखकों से भिन्न, प्रायः अंध-नकारवाद रहा है।इससे विमर्श की सीमाएं शुरू हो जाती हैं।विमर्श उत्तेजक उग्र कथन के द्वारा सामाजिक वैमनस्य बढ़ाता है और एक सहज वेध्य बौद्धिकता देता है।विमर्श कई बार एक फैशन, सत्ता की सीढ़ी और अपने अंधे उत्तेजक आक्रमण से दूसरों का अपनी ओर ध्यान खींचने का औजार भर होकर रह जाता है।इसके अलावा, विमर्शों का कैननाइजेशन हुआ है, रचनाएं रीतिकालीन साहित्य की तरह अलग-अलग विमर्श के प्रचारित लक्षण देखकर लिखी जा रही हैं और अनुभव ‘निर्मित’ किए जा रहे हैं।
विमर्श के निशाने पर सामंती मिजाज की जगह व्यक्ति आ जाता है।व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप चिंताजनक स्तर तक पहुंच जाते हैं।जो असहमत है, वह शत्रु के रूप में देखा जाने लगता है।समाज के अन्यायपूर्ण संबंध को न्यायपूर्ण संबंध में बदलना जरूरी है, लेकिन भिन्नता को किसी भी रास्ते से शत्रुता तक ले जाना एक किस्म की कूपमंडूकता है।
विमर्शों के दौर में अतिरंजनापूर्ण बातें प्रधान हो गईं।एक दलित बुद्धिजीवी ने प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ की बुधिया का डीएनए टेस्ट करके साबित कर दिया कि उसके पेट में जो बच्चा था, वह ठाकुर का था।मानो दलित युवक-युवती कभी अपना बच्चा पैदा नहीं कर सकते!
आज दलित और स्त्री विमर्श नए सामाजिक यथार्थों से विच्छिन्न हैं।अधिकांश विमर्शकार समुदाय के नाम पर सिर्फ अपने या एक तात्कालिक गठजोड़ के प्रतिनिधि हैं।यह एक विडंबना है कि वंचित, गरीब और सीमांत के लोग प्रतिनिधित्व के परिसर से बुरी तरह गायब कर दिए गए हैं।विमर्श अब लेखकों की दुनिया के अलावा विश्वविद्यालयों में भी चर्वितचर्वण हैं।न पहले जैसा मोलभाव का अवसर है और न व्यापक आक्रामकता है।सभी विमर्शों पर धार्मिक प्रति-विमर्श भारी हैं।ऐसी दशा में कुछ भिन्न सोचना जरूरी हो जाता है।
अस्मिता एक सुरक्षागृह तभी है, जब उसमें खिड़कियां हों।
विमर्शवादी लेखन में आलोचनात्मक समावेशिकता जरूरी है
वैश्वीकरण से अपेक्षा थी कि वह सामाजिक अंतरमिश्रण बढ़ाएगा, उदारवाद पनपेगा, लेकिन वह भीतरघाती निकला-‘बाजार में एकता – समाज में अंतर्शत्रुता’ का पोषक।आर्थिक संसार में उदारवाद है, पर समाज में अनुदारवाद है।एक तरफ से धार्मिक-जातिवादी भावनाओं को उकसाकर, दूसरी तरफ से लोकहित-विरोधी आर्थिक सुधारों को निष्कंटक बनाया जा रहा है।कहीं कॉमन प्लेस नहीं बन पा रहा है।
कहा जाना चाहिए कि ‘दूसरे’ के सच, उत्पीड़न को पहचानने की सबसे अधिक जरूरत साहित्य में है और इसकी संभावना भी सबसे अधिक साहित्य में ही है।साहित्य कभी भी राजनीतिक विचारधारा की जेरॉक्स कॉपी नहीं है।इसलिए राजनीतिक संस्कृति की तरह साहित्य को भी काट-छांटकर एक छोटा स्थान बना देना आत्मघातक है।इतिहास के एक अन्याय को मिटाने के लिए दूसरे अन्यायों से आंखें मूंदे रखना सिकुड़ते-सिकुड़ते अंततः असहाय हो जाना है।
विमर्श अकेला उनका मामला नहीं है जो बोल रहे हैं; यह उनका भी मामला है, जो सुन रहे हैं।कबीर जब ‘सुनो भई साधो’ कह रहे थे तो वे सिर्फ जुलाहों को संबोधित नहीं कर रहे थे।इसलिए एक चुनौती यह है कि विमर्शों और बुद्धिपरकता के बीच संबंध कैसे अधिकाधिक मजबूत हो, विमर्शों और सुधारों के बीच संबंध कैसे स्थापित हो और विमर्शों में कैसे आलोचनात्मक समावेशिकता आए।
उदाहरण के तौर पर, फुले और सावित्रीबाई जाति व्यवस्था को चुनौती देते हुए समाज सुधार और रचनात्मक कार्यों से जुड़े हुए थे।बिरसा मुंडा ने जब संघर्ष किया था, उसने अपने संघर्ष को प्रेतात्मा की पूजा रोकने जैसे कई सुधारों से जोड़ा था।अंबेडकर ने ‘ब्राह्मणवाद’ का विरोध करते हुए पिछड़ी-दलित जातियों के भीतर पनपते ब्राह्मणवाद जैसे तत्व का विरोध किया था।उन्होंने सामाजिक सुधार का सवाल उठाया था।हालांकि वर्तमान युग में ब्राह्मणवाद जैसे शब्द से बचकर ‘मनुवाद’ शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए।
उपर्युक्त सीमाओं के बावजूद विमर्श-आधारित साहित्य का बड़ा योगदान यह है कि इसने साहित्य का केंद्रीकरण खत्म किया, स्वयंभू साहित्यिक नेताओं की इजारेदारी तोड़ी।साहित्य बहुकेंद्रिक हुआ।एकबार लघु पत्रिकाओं ने साहित्य को बहुकेंद्रिक किया था, दूसरी बार विमर्शों ने किया।सोचने का मुद्दा यह है कि बुद्धिवाद, आधुनिकता, वाम-दृष्टिकोण और राष्ट्रीयता की निश्चय ही कई ज्यादतियां हैं, लेकिन इन चीजों को खोकर विमर्श कहां पहुंचेंगे।दुनिया की कोई सच्चाई पूरी सफलता तक नहीं पहुंच पाई।इसका यह अर्थ नहीं है कि उन सच्चाइयों को जीवन से निकालकर फेंक दें।
क्या अब राष्ट्र आंख वाले अंधों का हाथी है
हम देखते हैं कि किसी व्यक्ति को सिर्फ एक वर्चस्व नहीं, एक साथ कई वर्चस्वों का सामना करना पड़ता है।इसलिए उसकी पीड़ा को सिर्फ ‘मनुवाद’ से पैदा हुई पीड़ा, सिर्फ पितृसत्ता से पैदा हुई पीड़ा या सिर्फ ‘विकास’ से पैदा हुई पीड़ा तक सीमित करके देखा नहीं जा सकता।
यह एक बड़ी समस्या है कि भारत में कई ‘हम’ और कई ‘वे’ बन गए हैं।मनुष्य की अस्मिता एक रणभूमि बन गई है।भय, घृणा और हिंसा हाल के दशकों की मुख्य फसलें हैं।ये ही अब सत्ता के मुख्य स्रोत हैं।पहले सांस लेने की कोड़ी जगह थी, हर अन्याय का स्वतःस्फूर्त विरोध होता था।फिलहाल हाल यह है कि किसी का बलात्कार हुआ तो पहले उसकी जाति पूछो, किसी की हत्या हुई तो पहले उसका धर्म मालूम करो।कोई भूख से मरा तो जान लो कि किस जिले या प्रांत का था।कोई दुर्घटना में घायल है तो उसे अस्पताल पहुंचाने से पहले देख लो कि वह तुम्हारे धर्म का आदमी है या नहीं।यदि माफिया है या किसी ने बड़ा अपराध किया तो पहले देख लो कि वह अपने राजनीतिक दल का है या किसी और दल का।मानवता अब यहां पहुंच गई है।क्या यह हमारी उत्तर-औपनिवेशिक नियति है?
दरअसल ज्यादातर भारतीय बुद्धिजीवियों ने उपनिवेशवादियों द्वारा तोड़े गए आईने में अपना चेहरा देखा।
आज उसी प्रभाव में हर ‘दूसरे’ को आक्रमणकारी सत्ता के रूप में देखा-दिखाया जा रहा है।अजीब मामला है कि अतीत जोर-शोर से उपस्थित है और बाजार भी उतने ही जोर-शोर से।यह सब देखकर राष्ट्रीयता, आधुनिकता, वाम विचारधारा और विकास के पैरोकार हलकान हैं, जबकि वे खुद इस विडंबना के लिए जिम्मेदार हैं।
क्या ‘राष्ट्र’ अब अंधों के हाथी की जगह आंख वाले अंधों का हाथी है? पिछले कुछ दशकों में ‘राष्ट्र’ को इस नजरिये से भी देखा जाने लगा कि यह एक खराब चीज है, इसके ‘टुकड़े’ करो।सबाल्टर्न इतिहास ऐसी ही धारणा लेकर आया, जबकि वर्तमान दशाओं में किसी भी समस्या का समाधान ‘राष्ट्र’ के जरिए ही संभव है, भारतीय संविधान के जरिए ही संभव है।समावेशी राष्ट्रीयता के जरिये ही किसी बड़ी चुनौती का सामना संभव है।हिंद महासागर आकर किसी समस्या का समाधान नहीं करेगा।
यह एक महत्वपूर्ण सवाल है कि हम भारतीय राष्ट्र में बैठे वर्चस्वों का समाधान कैसे निकालें और क्या वर्चस्वों से अलग-अलग लड़कर आगामी २०० सालों में किसी समस्या का थोड़ा भी समाधान संभव है।भारतीय राष्ट्र में फिलहाल मुख्यतः सात वर्चस्व मौजूद हैं- (१) पुरुषसत्ता का वर्चस्व, (२) जाति व्यवस्था का वर्चस्व, (३) सांप्रदायिक वर्चस्व, (४) बहुसंख्यकता का वर्चस्व, (५) महानगरीय वर्चस्व, (६) अंग्रेजी वर्चस्व और (७) कार्पोरेट वर्चस्व।यह अद्भुत है कि भारतीय राष्ट्र में इतने अधिक वर्चस्व की जोंकें हैं।भारत में ही ‘भारतीय’ की भावना नहीं बन पा रही है।
देश के ऐसे हालात को बदलना होगा, जिनमें एकसाथ सभी वर्चस्वों को लेकर चिंता करना, सभी प्रमुख समस्याओं का मिलजुलकर सामना करना असंभव लगता है।सोच की एकायामिता समाप्त कर उसका पुनर्गठन इस युग की एक प्रमुख चुनौती है।
स्वानुभव की कैद से बाहर आना है
इन दिनों इतिहास की नव-औपनिवेशिक फैक्टरियां खुली हुई हैं, जबकि ‘हम कौन हैं’, से यह कम बड़ा प्रश्न नहीं है कि ‘हम किधर जा रहे हैं’।यह कोई नहीं बताता।इस देश में जिराफ मानो कछुओं में बदल रहे हैं!
आम मनुष्य के लिए राजनीतिक असहायता का यह एक बड़ा गंभीर दौर है।आज का सामान्य चित्र यह है कि गरीबी समुदाय नहीं देख रही है, बेरोजगारी समुदाय नहीं देख रही है, विषमता समुदाय नहीं देख रही है और आत्महत्या भी समुदाय नहीं देख रही है!
देखा जा सकता है कि एक समुदाय की पीड़ा वस्तुतः दूसरे समुदाय की पीड़ा से, बल्कि हरेक समुदाय की पीड़ा से जुड़ी हुई है।कोई व्यक्ति सिर्फ अपने समुदाय के लिए आवाज उठाकर अपने को भले एक ‘चिह्न’ के रूप में प्रतिष्ठित कर ले और खुद को एलीट वर्ग में शामिल कर ले, वह अपने समुदाय के आम वंचित जनों को स्वाधीनता के द्वार तक नहीं पहुंचा सकता।इसके लिए भेदभाव की संपूर्ण सामंती मानसिकता पर प्रहार करना होगा, कार्पोरेट तानाशाही को मुद्दा बनाना होगा और अपने उत्पीड़नों का बयान करते हुए ‘दूसरे के अनुभव’ में साझेदारी बढ़ानी होगी।
यह कहने की जरूरत है कि विमर्शों में अब ठहराव आ चुका है।ये नए समय को संबोधित नहीं कर पा रहे हैं।इसलिए बेअसर हो चुके हैं।हरेक के एक जैसे सीमाबद्ध निशाने हैं, एक जैसी हड़बड़ी हैं, एक जैसा जिद्दी आवेश है।विमर्श विभाजित है, अंतर्विभाजित हैं।इसलिए धार्मिक महाविमर्श को इन्हें निगलने में मुश्किल नहीं हुई।इस बदली स्थिति में विमर्शों के आपस में जुड़ने की जरूरत बढ़ गई है।
विमर्शों को जोड़ने का अर्थ है, स्वानुभव की कैद से बाहर आना, देश-संसार के बहुत से प्रश्नों के बारे में सोचना, कल्पनाशील होना और बिखरावों से उबर कर कॉमन प्लेस बनाना।प्रतिवाद की एकायामिता से मुक्त होना हमारे समय की एक प्रमुख आवाज है।पूर्वग्रह स्थगित किए जाएं, संवाद शुरू हो और एक नया माहौल बनाया जाए।
विमर्शों को जोड़ने का तात्पर्य है, सभी तरह की वंचनाओं और उत्पीड़नों को जोड़ना, उत्तेजना की जगह तर्क को प्रधानता और हर विमर्श का नवोन्मेषशील आत्म-रूपांतरण।विमर्शों को जोड़ने का अर्थ है नीचे से राष्ट्रीय पुनर्जागरण!
कैसी विडंबना है कि बाजार में कोई आउटसाइडर नहीं है, जबकि विमर्श और महाविमर्श में आउटसाइडर निर्मित किए जाते हैं!
विमर्शों के अपने वितान हैं तो उनकी अपनी सीमाएं भी हैं। संपादकीय उन समस्त आयामों को स्पर्श करता है , बल्कि गहरे से आत्मसात करता है। यह दृष्टि और दृष्टिकोण की व्यापकता का वाहक है। ऐसे समय में, जब साहित्य में विचार-संकुचन का दौर है , यह आलेख हमारी साहित्य समझ को व्यावहारिक अवलम्ब देता है। साधुवाद संपादक महोदय।
.सादर नमन आदरणीय
वागर्थ पत्रिका में प्रकाशनार्थ काव्य, गीत सम सामयिक विसंगतियों पर आलेख या (आपके द्वारा निर्धारित विषय पर ) यथोचित।
हेतु बताएँ ।
विमर्श पर नए सिरे से विचार करने की जरुरत को प्रामाणिक तौर पर स्थापित करने वाला लेख है? इस संपादकीय को एक जरुरी संपादकीय के लिए भी जाना जा सकता है।