शंभुनाथ

मैं जब विलियम डेलरिंपल की नई पुस्तक ‘द गोल्डन रोड : हाउ एंशियंट इंडिया ट्रांस्फार्म्ड द वर्ल्ड’ पढ़ रहा हूं, मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ (1912) की एक पाद-टिप्पणी याद आ रही है, ‘प्राय: सब नए और पुराने इतिहासवेत्ता इस बात को स्वीकार करते हैं कि दर्शन, विज्ञान और सभ्यता-संबंधी सारी बातें यूनान ने भारतवर्ष से ही सीखी हैं और वहां से अथवा इसी प्रकार सारे संसार ने प्राप्त कीं।’ ऐसे दावे तब से किए जा रहे हैं, जब से विश्व ने साझा जीवन-साझी संस्कृति के बारे में सोचना छोड़ दिया और उपनिवेशवाद ने एक दूसरे से ‘भिन्न सभ्यता’, ‘उच्च सभ्यता-पिछड़ी सभ्यता’ तथा ‘सभ्यताओं का टकराव’ की धारणाएं दीं। औपनिवेशिक सोच से मान लिया गया कि कुछ सभ्यताएं आगे बढ़ी हुई हैं और कुछ सदा से पिछड़ी हुई हैं।

गोल्डन रोड क्या है

21वीं सदी में सरहदों पर युद्ध से अधिक व्यापारिक युद्ध चल रहा है। इसे सांस्कृतिक ईंधन चाहिए। ‘द गोल्डन रोड’ ऐसा ही ईंधन है। पिछले दशक से चीन अपने को एशिया के केंद्र में स्थापित करने के लिए ‘न्यू सिल्क रोड’, अर्थात सिल्क रोड के नए रूप ‘वन बेल्ट-वन रोड’ पर काम कर रहा है। चीन का यह मार्ग अरब-फारस और हिंदवृत्त (इंडोस्फीयर) के पहाड़ों-पठारों और नदी-घाटियों से होकर था। यह एक तरफ यूरोप तथा दूसरी तरफ दक्षिण एशिया की तरफ जाता था। फाहियान और ह्वेनसांग सिल्क रोड से भारत आए थे। ब्रिटिश लेखक विलियम डेलरिंपल सिल्क रोड के जवाब में ‘गोल्डन रोड’  खड़ा करते हैं। यह वस्तुतः भारत के प्राचीन व्यापार का समुद्री मार्ग था।

इस मार्ग के प्रमाण हड़प्पा युग के प्राचीन लोथल बंदरगाह से लेकर बौद्ध साहित्य और दक्षिण भारतीय राज्यों के इतिहास में हैं। भारतीय नावें सूती कपड़े, मसाले, हाथी दांत की वस्तुएं और बहुमूल्य रत्न लेकर अरब सागर और लाल सागर से होते हुए यूनान और मिस्र तक जाती थीं। तर्क यह है कि समुद्री यात्रा में बड़ी नावों के लिए मानसून की हवाएं सहायक होती थीं। भारत की व्यापारिक नावें एक तरफ पश्चिमी देशों को छूती थीं, दूसरी तरफ आज के कंबोडिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, चीन आदि एशियाई देशों को!

पहले के इतिहासों में जो समुद्री ‘स्पाइस रोड’ है, उसे डेलरिंपल ‘गोल्डन रोड’ कहते हैं। वे यात्रा के इस मार्ग को विश्व व्यापार के अलावा ज्ञान तथा तकनीकी प्रसार से जोड़कर भारत के प्राचीन गौरवशाली उत्कर्ष का चित्र खींचते हैं। डेलरिंपल खास जोर इसपर देते हैं कि भारत का गोल्डन रोड दुनिया में ज्ञान का प्रकाश फैलाने का मार्ग था। वह एक तरह से इस देश का स्वर्ण युग था।

इतिहास के नए कारखाने में

आज ग्लोबल हुए बिना न किसी व्यापारी का सिक्का चल पाता है न लेखक का। डेलरिंपल की किताबें ‘बेस्टसेलर’ होती हैं। वे ग्लोबल इतिहासकार माने जाते हैं और इंग्लैंड से आए भारत के सबसे ताजा खोजी इतिहासकार हैं। उनकी पुस्तक ‘द लास्ट मुगल’ की तरह ‘द गोल्डन रोड’ भी इधर काफी प्रचारित है। इसमें इतिहास का एक प्राचीन इलाका चुना गया है, जो 250 ईसा पूर्व से लेकर 1250 ईसवी तक का है। इसे गोल्डन रोड का दौर कहा गया है। और शिकायत है कि इसे इतिहास में महत्व नहीं दिया गया।

अब इतिहास लिखा जाए और उसका सांस्कृतिक आयाम प्रमुख न हो, यह नहीं हो सकता। आजकल ह्वाट्सएप विश्वविद्यालय में ही नहीं, बेस्टसेलर की दुनिया में भी इतिहास के नए कारखाने खुले हैं जो नए इतिहास दे रहे हैं और बौद्धिक संसार में उथल-पुथल पैदा कर रहे हैं।

कहना कठिन है कि डेलरिंपल वस्तुत: कथा के रूप में इतिहास लिखते हैं या इतिहास के रूप में कथा। इन दिनों इतिहास में पहले की तरह विशेषज्ञता नहीं चलती कि अमुक प्राचीन इतिहास के विशेषज्ञ हैं तो अमुक मध्यकाल के। इसके अलावा, राष्ट्रीय और सबाल्टर्न इतिहास का युग बीत चुका है। अब इतिहास वस्तुतः फ्री-स्टाइल कुश्ती का अखाड़ा है और नि:संदेह डेलरिंपल पर्याप्त कसरत करके उपस्थित होते हैं।

‘द गोल्डन रोड’ लिखने का मुख्य उद्देश्य चीन से वास्तविक व्यापारिक युद्ध के लिए काल्पनिक व्यापारिक औजार बनाना है, जबकि जरूरत हाल के उग्र अमेरिकी रुख को देखते हुए साहस और समझदारी-भरी राह खोजने की है। डेलरिंपल अपनी पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं, ‘भारतीय विद्या, भारतीय धार्मिक अंतर्दृष्टियां और विचार हमारे विश्व की महत्वपूर्ण बुनियादों में से हैं। प्राचीन ग्रीस की तरह प्राचीन भारत भी कुछ बड़े प्रश्नों के ठोस उत्तर लेकर सामने आया था, जैसे- यह दुनिया क्या है, यह कैसे काम करती है, हम इस दुनिया में किस उद्देश्य से हैं और हमें किस तरह जीना चाहिए। जिस तरह ग्रीस रोम का मुख्य आदर्श था और भूमध्यसागरीय या यूरोपीय देशों के लिए भी वह एक आदर्श था, उसी तरह एक खास काल में भारत दक्षिण-पूर्व एशिया, मध्य एशिया, यहां तक कि चीन के लिए भी एक आदर्श था। भारत इन क्षेत्रों में अपने दर्शन, राजनीतिक विचार और स्थापत्य फैला रहा था। वह यह काम आक्रमण द्वारा नहीं बल्कि सांस्कृतिक रूप से रिझाकर और भव्यतापूर्वक कर रहा था। भारत उस काल में विज्ञान, ज्योतिष और गणित के मामलों में अरब का शिक्षक था, इस तरह भूमध्यसागरीय यूरोपीय देशों का भी।’ देखा जा सकता है कि यहां एकतरफा यूरोपकेंद्रिक सोच का जवाब एकतरफा भारतकेंद्रिक सोच से दिया जा रहा है। वास्तविकता यह है कि दुनिया में प्राचीन काल से ही व्यापारिक, कला-सांस्कृतिक और दार्शनिक विकास बहुमार्गी था।

सोने की चिड़िया कैसी थी

इसमें संदेह नहीं कि भारत के प्राचीन राजमहलों और मंदिरों में बड़े-बड़े स्वर्ण भंडार थे। भारत ‘गोल्डन रोड’ के पहले से सोने की चिड़िया समझा जाता था। इसका शिकार करने के लिए सिकंदर (356 ई.पू.-323 ई.पू.) के बाद भी आक्रमणकारी और लुटेरे आए थे। एक प्राचीन इतिहासकार हिरोडोटस ने पर्सियन सूत्रों से उड़ती खबरें पाकर लिखा कि सिंधु पार के देशों में रेत के बिलों में स्वर्णकण होते हैं और बड़े आकार की चींटियां उन बिलों से सोना ढोकर लाती हैं। भारत में सोने के भंडार हैं!

भारत के बारे में पश्चिमी लोगों की आम धारणा यह थी कि यह असभ्य लोगों का एक रहस्यमय देश है। सिकंदर जब भारत आया था (326 ई.पू.), उसे निश्चय ही सोना ढोने वाली चींटियां नहीं मिली होंगी। उसे असभ्य लोगों की जगह दार्शनिक मिले थे जो वेदों को जानते थे।

दक्षिण-पूर्व एशिया के लंका, जावा, सुमात्रा जैसे द्वीपों को ‘स्वर्णभूमि’ कहा जाता था। यहां के लोग मुख्यत: मसालों का व्यापार करते थे। लंका की कभी ‘सोने की लंका’ के रूप में कल्पना की गई। इसका अर्थ यह हो सकता है कि एक समय लंका बड़ी नावों से व्यापार और स्वर्ण भंडार का एक बड़ा केेंद्र था। डेलरिंपल ने एक ग्रंथ के हवाले से बताया है कि भारत के कुछ लोग ‘योग की शक्ति’ से वहां पहुंच जाते थे!

भारत प्राचीन काल में भले समुद्री व्यापार के खतरों की वजह से दूर देशों में ज्यादा न गया हो तथा वह मुख्यत: कृषि और छोटे व्यापारों तक सीमित हो, वह चिंतन के स्तर पर जरूर एक विश्वबोध संपन्न देश रहा है। उसका विश्व से जब-तब संवाद चलता रहा है। निरंकुश राज्यों में विभाजित रहने के बावजूद प्राचीन भारत में ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की धारणा बनी है। सिल्क रोड हो या समुद्री मार्ग हों, इन्हें आक्रमणकारियों और व्यापारियों से पहले धर्मोपदेशकों और विश्वप्रेमी कलाकारों-चिंतकों ने खोजा था। देखा जा सकता है कि हिंदुओं की सभ्यता कभी स्वकेेंद्रिक नहीं थी। उसमें शुरू से एक अंतरराष्ट्रीयतावाद था, विविधता थी और खुलापन था। मुख्य बात है, इसने अन्य मत वालों को ‘एलियन’ या ‘बाहरी’ के रूप में कभी नहीं देखा। यदि भारत के लोग अन्य देशों में गए भी, खासकर दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में तो उन्होंने ‘वर्चस्व’ नहीं ‘समन्वय’ का पथ चुना।

प्राचीन भारतीय उत्कर्ष के बारे में पश्चिमी लेखक

याद होगा, 19वीं सदी में अंग्रेज प्रशासक मैकाले तीस-तीस फुट के राजा और उनके हजार-हजार साल तक के शासन आदि की बातें कहकर भारत के लोगों का मखौल उड़ाया करता था। 20वीं सदी में नीरद सी. चौधरी, वी.एस. नायपाल जैसे बुद्धिजीवी उससे आगे बढ़कर यह काम कर रहे थे। एक प्रसिद्ध जर्मन लेखक गुंटर ग्रास ‘शो योर टंग’ पुस्तक में कोलकाता के लोगों का मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि देवी काली की तरह अपनी भारतीय स्थितियों पर शर्मिंदा होओ- जीभ दिखाओ! आधुनिक भारत में गर्व और शर्म महसूस कराने वालों की एक दीर्घ परंपरा है।

डेलरिंपल गर्व पैदा करते हैं, हालांकि वे जिन विचारों को समारोहपूर्वक स्थापित करते हैं, वे वस्तुत: कई यूरोपीय विद्वानों और उनको उद्धृत करते हुए भारतीय कवियों-इतिहासकारों द्वारा पहले ही कहे जा चुके हैं!

प्राचीन भारत के गौरवशाली उत्कर्ष के कुछ उदाहरण ‘भारत भारती’ में हैं।  इस चर्चित काव्य की पाद-टिप्पणियों में मैथिलीशरण गुप्त ने जिन पश्चिमी लेखकों के विचार दिए हैं, उनमें प्राचीन ग्रीक लेखक एरियन (200 ई. पू.), भारत यात्री जॉन फ्रायर (1646-1733), अंग्रेज लेखक वाल्टर रेने (1779-1847), अमेरिकी लेखक वाल्टर डेल मार (1862-1944) और जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर (1785-1860) तथा भारतविद मैक्समूलर (1823-1900) शामिल हैं। इनके विचार इस प्रचलित औपनिवेशिक धारणा के विपरीत हैं कि भारत एक असभ्य, पिछड़ा और इतिहासविहीन देश था।

देखा गया है कि एक समय यूरोपीय लेखक जो विचार प्रचारित कर देते थे, भारत के लोग प्राय: आंख मूंदकर उनको सही मान लेते थे। उस दौर में कोई कह रहा था कि जल प्रलय के बाद भारत में ही वनस्पति जन्मी और मनुष्यों की बस्ती बनी (वाल्टर रेने)। तो कोई कह रहा था कि अमेरिका को कोलंबस से पहले भारत के बौद्ध धर्मप्रचारकों ने खोजा था और वहां एशियाई सभ्यता का प्रचार किया था (जॉन फ्रायर)।

मैथिलीशरण गुप्त इन सबसे प्रभावित होकर टिप्पणी करते हैं, वे ‘लोग जो पूर्व से जाकर यूनान में बसे थे और जिन्होंने वहां के असभ्य निवासियों को अधीन किया था, कैसे थे? वे देवताओं के वंशज थे। उनके पास अपने निज का सोना था और अधिकता से था। वे रेशम के कामदार ऊनी दुशाले ओढ़ते थे, हाथी दांत की वस्तुएं व्यवहार में लाते थे और बहुमूल्य रत्नों के हार पहनाते थे।’ सुकरात और प्लेटो और सिकंदर के देश ग्रीस को भारत द्वारा अपने अधीन करने जैसी विचित्र बातें अंग्रेजों की पराधीनता के दंश से थोड़े समय छुटकारा देती हों, पर ये तथ्य-आधारित नहीं हैं।

मैथिलीशरण गुप्त यह भी कहते हैं, ‘हिंदू अपने देश हिंदुस्तान में विद्या और कला-कौशल में प्रवीण होकर अन्य देशों में उसका प्रचार करने गए।’ वास्तविकता यह है कि अन्य देशों में मुख्यत: बौद्ध गए थे। हिंदुओं के लिए समुद्र यात्रा धार्मिक तौर पर वर्जित थी। निश्चय ही तब भी इंडोनेशिया, कंबोडिया आदि दक्षिण-पूर्व के देशों में कुछ हिंदू गए होंगे। इंडोनेशिया में त्रिमूर्ति मंदिर तथा कंबोडिया में अंकोरवाट मंदिर बना था। अंकोरवाट पहले हिंदू मंदिर था। इसके वर्तमान बौद्ध परिसर में हिंदू मूर्तियां आज भी सुरक्षित हैं। उल्लेखनीय है कि दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में हिंदू धर्म पहुंचा, पर जाति व्यवस्था को भारत की ताख पर छोड़कर।

जगे हम लगे जगाने विश्व

मैथिलीशरण गुप्त ने जिस स्वीडिश लेखक मैग्नस जार्न्सजेर्ना (1779-1847) को उद्धृत किया है, वह स्वीडिश था। उसने एक पुस्तक लिखी थी ‘द थियोगनी ऑफ हिंदूज’। उसने हिंदू देवताओं की एक अद्भुत वंशावली बना ली थी, जो बड़े-बड़े हिंदू भी नहीं जानते थे! उसने लिखा है, ‘आर्यावर्त्त केवल हिंदुओं का घर नहीं है, वरन वह संसार की सभ्यता का आदि भंडार है। हिंदुओं की सभ्यता क्रमश: पश्चिम की ओर इथोपिया, ईजीप्ट, फीनीशिया (रूस-लेबनान) तक, पूर्व की दिशा में श्याम, चीन और जापान तक, दक्षिण में लंका, जावा, सुमात्रा तक और उत्तर की ओर पर्सिया (इरान), चाल्डिया (मेसोपोटामिया), कोल्चिस (पश्चिमी जार्जिया) और वहां से यूनान और रोमवासियों के रहने के स्थान तक पहुंची।’ (भारत भारती)। यह एक अतिरंजित कथन है जो लोकप्रिय हो गया।

अमेरिकी लेखक डेल मार के हवाले से मैथिलीशरण गुप्त ने ‘भारत भारती’ में कहना चाहा है, ‘पश्चिमी संसार को जिन बातों पर अभिमान है, वे असल में भारतवर्ष से ही वहां गई हैं।’ कवि प्रसाद ने उपर्युक्त विचारों के प्रभाव में लिखा था, ‘जगे हम लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक/ व्योम-तम पुंज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक।’ (स्कंदगुप्त) हमने ही विश्व में आलोक फैलाया, जिससे अखिल संसृति से दुख मिट गया।

हमारा देश निश्चय ही महान है। वह सो-सोकर बार-बार जगा है। इसका यह अर्थ नहीं है कि दुनिया के अन्य देश केवल हमारे जगाने से जगे!

गौर करने की बात है कि ऐसे विचारों की मुख्य प्रेरणा उपर्युक्त पश्चिमी विद्वान थे जो हिंदुओं को अलग गौरवबोध करा रहे थे और मुसलमानों को अलग और दोनों को कट्टर बना रहे थे। इतना ही नहीं, उत्तर भारत के आर्यों की महानता और उनके यूरोपीय कनेक्शन को लेकर मैक्समूलर जैसे विद्वान सक्रिय थे। दक्षिण भारत में द्रविड़वाद को लेकर राबर्ट काल्डवेल सक्रिय थे। वे तमिलों में नस्लीय घृणा पैदा कर रहे थे और समादृत हो रहे थे। इस अभियान को हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की खुदाई (1922) ने इतिहास का बारूद थमा दिया, जो आज भी आर्य-द्रविड़ के नाम पर नस्लीय विस्फोट करता रहता है।

वस्तुत: 1857 के बाद अंग्रेजों ने भारत के लोगों को दिग्भ्रमित करके विभाजित करने का अभियान विशेष रूप से तेज कर दिया था। उन्होंने सामाजिक सुधारों से हाथ खींचकर कट्टरता का पोषण शुरू कर दिया। वे भारत के लोगों के बीच  ‘फूट डालो’ की नीति चला रहे थे।

यदि भारत के इतिहास को समझना है

विलियम डेलरिंपल उपर्युक्त पश्चिमी विद्वान जितने अति-कल्पनाशील नहीं हैं, क्योंकि उन्हें इतिहास की न्यूनतम मर्यादाओं का बोध है। हालांकि वे उपर्युक्त दृष्टिकोण वाले हाल के एक फ्रेंच विद्वान सिल्वेन लेवी (1863-1935) का नाम लेते  हैं जो  प्राच्यविद थे। वे शांतिनिकेतन आए हुए थे, धोती-कुर्ता पहनते थे और हिंदुओं के प्राचीन व्यापारिक उत्कर्ष की चर्चा किया करते थे। गौर करने की चीज यह भी है कि सिल्वेन लेवी एक दूसरे फ्रेंच प्राच्यविद रेने ग्वेनां के विरोधी थे जिन्होंने हिंदू आध्यात्मिक दर्शन पर चर्चा करते-करते अंतत: इस्लाम कबूल कर लिया था। इस तरह यूरोपीय प्राच्यविदों के इतिहास-संबंधी मतों पर उनकी धार्मिक पसंद-नापसंद की गहरी छाप रही है। एक ही यूरोप से मैक्समूलर ॠग्वेद की सराहना करते थे तो मैकाले, गार्सा-द-तासी और बाद में चर्चिल हिंदुओं का मखौल उड़ाते थे!

बहुत कम लोग जानते होंगे कि 20वीं सदी के आरंभिक दशकों में ‘बृहत्तर भारत’ की धारणा सर्वप्रथम एक फ्रेंच भारतविद जार्ज कोएड (1886-1969) ने दी थी। इस धारणा के अनुसार भारत अफगानिस्तान और तिब्बत से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया तक विस्तृत था। इसी तरह अमेरिकी भाषावैज्ञानिक जेम्स मेटिसॉफ (जन्म 1937) ने सर्वप्रथम ‘इंडोस्फीयर’ शब्द प्रचलित किया था जिसे ‘हिंदवृत्त’ कहा जा सकता है। कहना न होगा कि भारत के लोगों को बृहत्तर भारत की धारणा राष्ट्रवादी तृप्ति देती रही है। कई लोग आज भी औपनिवेशिक काल के इस ‘पैन-इंडियन हैंगओवर’ से बाहर नहीं निकले हैं।

विलियम डेलरिंपल खासकर दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के लिए जब ‘बृहत्तर इंडिया’ की ध्वनि वाले ‘इंडोस्फीयर’ शब्द का प्रयोग करते हैं, वे निश्चय ही इस वृत्त के स्वतंत्र देशों की ‘संप्रभुता के साथ सांस्कृतिक साझीदारी’ की भावना को आहत कर रहे होते हैं। कहना न होगा कि यह किसी ‘एक’ में अपने को मुख्यधारा या मूल समझने का अहंकार पैदा करना है और विविधता को स्वीकृति न देना है।

इसका अर्थ है, यदि हमें भारत के इतिहास को समझना है, हमें यूरोपीय औपनिवेशिक प्रभावों से बिलकुल मुक्त होकर समावेशी बुद्धिपरक दृष्टि से समझना होगा।

डेलरिंपल की चुप्पियां

विलियम डेलरिंपल की एक बड़ी सीमा यह है कि वे ‘गोल्डेन रोड’ की स्थापना में कृषकों, कलाकारों और कारीगारों को महत्व नहीं देते। वे मुख्यत: बौद्ध ग्रंथों, पौराणिक ग्रंथों और ब्राह्मणों के उदाहरण से भारत के प्राचीन व्यापारिक-दार्शनिक-वैज्ञानिक उत्कर्ष की बात करते हैं और पश्चिम के प्राचीन उत्कर्ष को भारत की देन और कभी-कभी नकल मानते हैं। जैसे- वे बताते हैं कि इस्लामिक मदरसा बौद्ध विहार की नकल है, जबकि ऐसा नहीं है।

दरअसल भारत की महानता को स्वीकार करते हुए भी यह माना नहीं जा सकता कि दुनिया की अन्य प्राचीन सभ्यताएं अर्थात मिस्र, मेसोपाटिमिया या यूनानी, चीनी आदि केवल भारत द्वारा बनाए गए ‘गोल्डन रोड’ की देन हैं। इसके अलावा, डेलरिंपल अपने निष्कर्ष निकालते समय हिंदवृत्त और भारत को एक समझ लेते हैं। वे कुछ अन्य तथ्यों पर ध्यान नहीं देते, नहीं देखते कि हिंदू ग्रंथों में समुद्र यात्रा का निषेध था। देश के निरंकुश तथा आपस में युद्धरत राजाओं की विदेशों से व्यापार को प्रोत्साहन देने में सामान्यत:  रुचि नहीं थी। ज्यादातर राजा युद्ध या भोग-विलास में लिप्त थे।

आम भारतीय लोग कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था के अधीन थे, व्यापारिक संघों का निर्माण कठिन था। सिल्क रोड हो या गोल्डन रोड, भारत का विदेशी व्यापार वहां की सभ्यताओं को अधीन करने की स्थिति में नहीं था। भारत का कभी ऐसा लक्ष्य भी न था।

15वीं सदी में छापाखाना के आविष्कार के बाद विश्व का पहला पुस्तक मेला यूरोप के फ्रैंकफुर्त्त (1485) में आयोजित हुआ था, एशिया में नहीं और तब भारत ब्रिटिश उपनिवेश नहीं था। वराहमिहिर (छठी सदी) के समय में सूर्यग्रहण के मुद्दे पर राहु-प्रसंग को त्याग कर विज्ञान सामने आया तो ब्रह्मगुप्त (सातवीं सदी) के समय वह पिछड़ गया। ब्रह्मगुप्त ने राहु-प्रसंग का समर्थन कर दिया। उनका गणित इस देश में नहीं आगे बढ़ सका, अरब देशों में बढ़ा। भारत में विज्ञान और गणित के ग्रंथों की जगह तब तरह-तरह के प्रतिस्पर्धी पुराण रचे जा रहे थे। प्राचीन भारत मुख्यत: ‘लो टेक्नोलॉजी-हाई कल्चर’ का देश था!

राधाकुमुद मुखर्जी (1884-1963) ने समुद्री यात्रा के धार्मिक निषेध के अलावा एक अन्य बात कही है, ‘कौटिल्य के मतानुसार संकट के समय जलमार्ग पर किसी प्रकार की सहायता नहीं पहुंचाई जा सकती। इन मार्गों का सभी ॠतुओं में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।’ (हिंदू सभ्यता)। वे यह भी कहते हैं कि ‘विनयपिटक, सुत्तपिटक और जातक कथा आदि बौद्ध ग्रंथों में एवं आचारांग, उत्तराध्ययन आदि जैन ग्रंथों में आर्थिक तथा सामाजिक अवस्थाओं के प्रासंगिक उल्लेख आते हैं और इन्हें जोड़कर एक रोचक कहानी तैयार की जा सकती है।’ (वही)। क्या डेलरिंपल ने यही किया है?

गोल्डन रोड मुख्यत: प्राचीन स्वर्णभूमि के क्षेत्रों, अर्थात- श्रीलंका, कंबोडिया, इंडोनेशिया, मलेशिया आदि दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों तक सीमित था और दक्षिण भारतीय व्यापारियों का मामला था। एशिया के दक्षिण-पूर्व के देशों पर जरूर सैकड़ों साल पहले भारत की एक छाप रही है। रवींद्रनाथ जब 1924 में चीन गए थे, वे एक ‘विवादास्पद अतिथि’ के रूप में देखे गए थे। पर जब 1927 में दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में गए, उनका हार्दिक स्वागत एक भारतीय ॠषि के रूप में हुआ था। भारत के साथ सांस्कृतिक अंतर्मिश्रण की जितनी घटनाएं दक्षिण एशियाई देशों में हैं मिस्र, मेसोपोटामिया या यूनानी इलाकों में नहीं हैं।

ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि हिंदवृत्त के व्यापारी निश्चय ही फारस, चीन, यूनान, मिस्र आदि क्षेत्रों में जाते थे। वे मसालों, सूती कपड़ों, धातुओं, रत्नों, नील का व्यापार केवल समुद्री रास्तों से नहीं पर्वत-पठारों-नदियों के रास्ते से भी करते थे और अपने देश में स्वर्ण ले आते थे, लेकिन ऐसे ठोस प्रमाण नहीं हैं कि भारत के विदेशी व्यापार में सघनता थी। इसके बावजूद भारत घरेलू स्तर पर एक संपन्न देश था।

क्या गोल्डन रोड 1250. के बाद बंद हो गया

विदेशों से व्यापार को डेलरिंपल ने 250 ई.पू. से शुरू करके हठात 1250 में बंद कर दिया, अर्थात भारत में सुल्तानों के काल से ‘गोल्डन रोड’ बंद हो गया। क्या इस दौर में भारत का व्यापार रुक गया? एक यायावर इब्नबतूता (1304-1377) ने अपने यात्रा वृत्तांत में दक्षिण भारत के कालीकट के बारे में लिखा है, ‘हम मालावार के सबसे बड़े बंदरगाह कालीकट पहुंचे। चीन और जावा, लंका और मालद्वीप, यमन और फारस के ही नहीं बल्कि समस्त संसार के व्यापारी यहां आकर एकत्र होते हैं। संसार के बड़े बंदर-स्थानों में इसकी गणना की जाती है।’ डेलरिंपल ने ऐसे तथ्यों को जानबूझ कर छोड़ दिया। यहां चुप्पियां गहरी हैं।

उनकी नजर बौद्ध धर्मग्रंथों, रोमन हवालों और औपनिवेशिक सोच के यूरोपीय लेखकों की तरफ गई, लेकिन ब्रिटिश अर्थशास्त्री एंगुस मेड्डिसन (1926-2010) की पुस्तक ‘वर्ल्ड इकोनॉमी : अ मिलिनियम पर्सपेक्टिव’ की तरफ नहीं गई। इस पुस्तक में मेड्डिसन ने लिखा है कि पहली सहस्राब्दी में भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था। यह दुनिया के केंद्र में था। पहली सदी में यह दुनिया की आय का एक-तिहाई हिस्सा पैदा करता था। 11वीं सदी में 29 प्रतिशत और मुगल शासन के अंतर्गत 17वीं सदी में 22 प्रतिशत। उस समय भारत की आय पूरे यूरोप से अधिक थी। मेड्डिसन अकबरकालीन मुगल काल के भारत को दुनिया का समृद्धतम देश बताता है। उसके अनुसार, अंग्रेजी राज के बाद 1951 में भारत की आय घटकर 4 प्रतिशत पर आ गई थी।

अंग्रेजों के औपनिवेशिक शोषण ने देश को जहां खड़ा कर दिया था, उसके बारे में रामविलास शर्मा ने विस्तार से लिखा है, जबकि कुछ खास लेखक चुप रहे हैं।

जब नवउदारीकरण से मोहभंग हो रहा है

विलियम डेलरिंपल 1250 के बाद की व्यापारिक उन्नति पर सोद्देश्य चुप्पी रखते हुए अपनी पुस्तक के अंत में एक बड़ा प्रश्न उठाते हैं, ‘इस संपूर्ण विवेचना के बाद एक प्रश्न खड़ा होता है जो ब्रिटेन से स्वतंत्रता के तुरंत बाद 1947 में तो उठ ही नहीं सकता था।’ जो प्रश्न केवल अब जाकर उठ सकता है (!), वह है- ‘क्या भारत विश्व व्यापार में वैसी श्रेष्ठता फिर हासिल कर सकता है?’ डेलरिंपल के प्रश्न का संबंध 21वीं सदी के व्यापारिक नव-पुनरुत्थान से है जो बड़ा सम्मोहक और चटपटा है।

इसपर सोचना चाहिए कि चीन के प्रभुत्व वाले ‘सिल्क रोड’ के समानांतर भारतीय प्रभुत्व वाले विश्व व्यापार या ‘गोल्डन रोड’ का नवनिर्माण इस समय किन चुनौतियों से घिरा है।

2025 में स्थिति काफी बदल चुकी है। वैश्वीकरण के आदर्शों को तोड़ते हुए स्वस्थ व्यापारिक स्पर्धा की जगह अब हिंसक व्यापारिक युद्ध ने ले ली है। दुनिया के देशों के बीच ही नहीं, मनुष्य-मनुष्य के बीच तनाव चरम पर है। अमेरिका, चीन, रूस, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी सब संकुचित मन लेकर कमजोर को दबाने और अपने देश को ‘ग्रेट’ बनाने की घोषणा कर रह हैं। ये सभी देश राष्ट्रवादी स्वार्थ में लौट आए हैं और ‘बदले’ की भावना से काम करने लगे हैं। उनका वैश्वीकरण से मोहभंग हो चुका है। वे टैरिफ बढ़ाकर दूसरे देशों का माल अपने देश में आने से रोक रहे हैं। खासकर अमेरिका-चीन चरम आक्रामक तथा वर्चस्ववादी देश के रूप में सामने हैं और दुनिया अति-धनिकों के नियंत्रण में है।

ऐसे में प्रश्न है कि भारत जो ट्रेड रोड बनाएगा, वह कितना गोल्डन होगा, अपने देश के नागरिकों के हित से उसका क्या संबंध होगा और पहले की तरह क्या इससे महान दर्शनों, कलाओं और संवादशील मानवता का जन्म होगा? गोल्डन रोड और रुपए के घटते मूल्य के बीच संबंध को हम कैसे देखेंगे?

हाल में एलन मस्क नामक जिस अमेरिकी तत्व का जन्म हुआ है, उसे अभी ठीक से समझा जाना बाकी है। अब कृत्रिम मेधा की शक्ति लेकर डेटा एक नए अवतार में आ रहा है जो जल्दी लोगों को अचंभित करेगा। यदि डेलरिंपल के ‘गोल्डन रोड’ और एलन मस्क के एआई-नियंत्रित ‘डेटा-आधिपत्य’ के बीच सांठगांठ हो जाए तो आगे चलकर वर्तमान बाजार-नियंत्रित अर्थव्यवस्था कितनी बदल जाएगी, लोकतांत्रिक आदर्श कितने प्रभावित होंगे और विश्वमानवता का क्या हाल होगा, इसके दृश्य आने अभी बाकी हैं।

राजा हमेशा बदलते रहे हैं, अब डेटा ही राजा है और संपूर्ण मनुष्यजाति उसकी प्रजा!

कुल मिलाकर इस अतिरंजित धारणा की सफलता संदिग्ध है कि दुनिया की सभ्यताएं भारत के समुद्री ‘गोल्डन रोड’ की देन हैं। आज यदि फिर कोई इस तरह सोचता है, यह पुरानी बोतल में नई शराब है।

क्या लोगों को अतीत लौटाया जा सकता है

हर इतिहास संपूर्ण तथ्य होने की जगह एक मत है और एक अच्छा इतिहास हमेशा अधूरा होता है। इतिहास में अतीत के तथ्य लड़ते नहीं हैं, वे एक-दूसरे से जुड़कर क्रम और तर्क खड़ा करते हैं। जबकि आजकल के इतिहास जितना उजागर करते हैं, उससे ज्यादा छिपाते हैं!

डेलरिंपल का ‘द गोल्डन रोड’ ऐसा ही है। इसमें एक तरह का उग्र-एकतरफापन है, जिसे आजकल फुर्ती से दिए गए ऐसे लोकप्रियतावादी बयानों से जोड़कर देखना चाहिए जो तथ्य-आधारित कम और भावना-आधारित ज्यादा होते हैं। इसे कुछ व्यक्ति आधुनिक और सबाल्टर्न इतिहासकारों की एलीट सोच के प्रत्युत्तर के रूप में देख सकते हैं, जबकि ऐसा उत्पादित प्रत्युत्तर लोक के पक्ष में नहीं होता।

निश्चय ही कुछ इतिहास अपना युद्ध हार रहे हैं। उनकी जगह इन दिनों मेटा-इतिहास न केवल लोकप्रिय हो रहा है, बल्कि वह डेलरिंपल जैसे मेटा इतिहास-ज्ञानियों को लोकप्रिय बना रहा है। यहां चएढअ का अर्थ है- किसी खेल में जीतने के लिए ‘मोस्ट एफेक्टिव टैक्टिस एवलेबुल’!

इसमें संदेह नहीं कि औपनिवेशिक निष्कर्षों से घिरे अपने अतीत के बारे में हमें अभी बहुत कुछ जानना बाकी है। इसका अर्थ इतिहास में लोकप्रियतावाद को आमंत्रण नहीं है। लोकप्रियतावाद और तथ्य हमेशा दो विपरीत ध्रुव हैं। बौद्धिक दुनिया में लोकप्रियतावाद का प्रवेश वस्तुतः एक किस्म का बौद्धिक आत्मसमर्पण है जो इधर बढ़ा है।

लोकप्रियतावादी इतिहासकार घटनाओं को सरलीकृत, संदर्भविमुख और सनसनीखेज बना देता है ताकि एक बड़ी भीड़ के भय, गर्व या नॉस्टेल्जिया को उकसाया जा सके और तर्कसंगत सोच के दरवाजे बंद हो जाएं। वह अतीत का अराजक इस्तेमाल करता है। उसकी तथ्यों, तथ्यों के बीच संबंध और किसी बड़े परिप्रेक्ष्य में रुचि नहीं होती। ऐसे विमर्शकार इतिहास को भावावेग का रूप दे देते हैं। इससे इतिहास बाजार में बेस्टसेलर हो जाए, पर सोचकर रखना चाहिए कि इससे विश्वबाजार की वैतरणी पार न हो सकेगी- मानव भविष्य नहीं संवरेगा। ऐसे इतिहासकार ही इतिहास के दो मुख्य गुण- क्रम और तर्क को विपर्यस्त करके उसे फ्री स्टाइल अखाड़े में बदल रहे हैं।

विलियम डेलरिंपल का ‘द गोल्डन रोड’ भारत से यूनान और मिस्र की तरफ जाने वाले सैकड़ों व्यापारिक जहाज खोज लेता है, पर एक भी ऐसा भारतीय यात्री नहीं बता पाता जिसने मेगस्थनीज, फाहियान, ह्वेनसांग या बर्नियर की तरह भारत से विदेशों तक जाने का यात्रा वृत्तांत संस्कृत, तमिल, पालि या किसी अन्य भाषा में लिखा हो। इसके अलावा, डेलरिंपल बहुलता की उपेक्षा करते हुए यह स्वीकार करना नहीं चाहते कि दुनिया की अन्य सभ्यताओं का भी अपना-अपना महान ज्ञान भंडार रहा है। दूसरे देशों में भी टेक्नोलॉजी और व्यापार के अपने मार्ग रहे हैं तथा पूर्व-औपनिवेशिक विश्व में बहुत कुछ ऐसा था जो साझा था।

क्या लोगों को अतीत कभी लौटाया जा सकता है? डेलरिंपल अपनी पुस्तक का अंत जिस बुनयादी प्रश्न से करते हैं, वह यही है कि 250 ई.पू. से 1250 ई. तक भारत ने जिस तरह अपनी ज्ञान व्यवस्था और व्यापार से दुनिया को बदल डाला था, क्या आज वह फिर ऐसा कर सकता है? क्या भारत फिर दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन सकता है? निश्चय ही वह बन सकता है यदि अपने घर और बाहर की वास्तविकताओं को समझे, हिंसक अंतर्कलह से ऊपर उठे और दुनिया के इतिहासों की अब तक की इस सबसे बड़ी सीख पर गौर करे- वर्तमान कभी अतीत जैसा नहीं होता!