शंभुनाथ

इस युग में किसी विचार की सचाई के लिए बौद्धिक शक्ति का होना पर्याप्त नहीं है। भौतिक शक्ति भी चाहिए, अर्थात भीड़ और पूंजी की शक्ति। सौ साल पहले लोग ज्ञानियों का अपार आदर करते थे और पांच सौ-हजार साल पहले वे ही समाज के आलोकस्तंभ थे। वर्तमान युग में ज्ञान की जगह दक्षता ने ले ली है, और दक्षता की जगह धूर्तता ने। इस युग में सबसे बड़े धूर्त ही सबसे अधिक ज्ञानी बने हुए हैं।

ऐसे परिवेश में भारतीय ज्ञान परंपराओं पर फिर से बहस शुरू करने के कुछ निर्माणात्मक नतीजे हो सकते हैं। यह खासकर तब अधिक अर्थपूर्ण है, जब हम सांस्कृतिक आत्मविस्मृति के शिकार हैं। दरअसल वैश्विक घटनाओं और सूचनाओं के संसार से इतनी ज्यादा चीजें हमें घेर रही हैं कि हजारों साल की हमारी बहुत-सी मूल्यवान चीजें ढकती जा रही हैं। कहने की जरूरत है कि अपने अतीत के मूल्यवान ज्ञान को खोकर, चाहे वह सुदूर अतीत का हो या आधुनिक युग का, समाज में प्रेम, स्वतंत्रता और न्याय की रक्षा नहीं की जा सकती।

भारतीय ज्ञान : परंपरा है या पद्धति

मुख्य सवाल है, भारतीय ज्ञान की एक ही परंपरा है या कई परंपराएं हैं, वह परंपरा (ट्रेडिशन) है या पद्धति (सिस्टम) है? स्पष्ट है कि इस बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक देश में भारतीय ज्ञान की एक या दो परंपराएं नहीं हैं। उसकी कई परंपराएं हैं जो किसी भी युग में परस्पर विच्छिन्न तथा रेल के बंद डिब्बे की तरह नहीं रही हैं।

इसी तरह ‘पद्धति’ कहने से किसी सुनिश्चित युक्ति या व्यवस्था का बोध होता है, जबकि परंपरा कहने से अपने को निरंतर नई करती रहने वाली किसी सांस्कृतिक धारा का। इधर शिक्षा जगत में भारतीय ज्ञान परंपराओं की जगह पद्धतियों पर जोर देते हुए कहा जा रहा है, ‘हमें अपनी प्राचीन विरासत से भारतीय ज्ञान पद्धतियों को पुनर्उपलब्ध करना है और दुनिया को बताना है कि हमारे काम करने की एक भारतीय पद्धति है।’ सवाल है, क्या ‘भारत का ज्ञान’ सिर्फ प्राचीन ज्ञान पद्धतियों को जानने भर से हो जाएगा या आधुनिक युग तक के विकासों और नवोन्मेषों को समझने की जरूरत है?

भारतीय ज्ञान परंपराओं का अध्ययन पिछले ढाई सौ साल से हो रहा है। ओरियंटलिस्ट (प्राच्यविद) हमें बता रहे थे कि हम क्या थे, हमेशा कितने पिछड़े और विभाजित थे और यूरोपियन वस्तुतः ‘सभ्यता के मिशन’ पर हैं, जो ‘ह्वाइटमेंस बर्डन’ है। आज ऐसे ज्ञान का ‘डिकोलोनाइजेशन’ जरूरी है। अब एक बार फिर जोर-शोर से भारतीय ज्ञान पद्धतियों की ओर ध्यान आकर्षित किया जा रहा है और इनमें वायुयान, प्लास्टिक सर्जरी, ब्रह्मास्त्र के रूप में मिसाइलों आदि के दृष्टांत खोजे जा रहे हैं। उन्हें शाश्वत माना जा रहा है। इसका ‘डिमिस्टिफिकेशन’ जरूरी है।

भारत को टुकड़ेटुकड़े देश के रूप में कौन देख रहा है

कई भारतीय बुद्धिजीवी लंबे समय तक ओरियंटलिस्ट निष्कर्षों को ढोते रहे हैं, जैसे आर्य-द्रविड़ नस्लीय संघर्ष, ब्राह्मण-श्रमण परंपराओं, ‘ग्रेट ट्रेडिशन-लिटिल ट्रेडिशन’ आदि पर विभाजनकारी बहसें चली हैं। 19वीं सदी से इनपर बहस का लक्ष्य रहा है भारत के लोगों को बौद्धिक-सांस्कृतिक रूप से बांट दो, ताकि साम्राज्यवाद और विदेशी व्यापारिक कंपनियां निष्कंटक हो जाएं।

इसमें संदेह नहीं कि भारतीय ज्ञान परंपरा बहुकेंद्रिक है, पर वह अंतरनिर्भर भी है। उसमें क्लासिकल साहित्य के साथ लोक साहित्य और लोकज्ञान का भी महत्व है। महाभारत महाकाव्य में नल-दमयंती, शकुंतला-दुष्यंत की लोककथाएं हैं।

हिंदी में रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा ने भारतीय ज्ञान परंपराओं के उद्घाटन के सिलसिले में जो काम किए, वे  महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने भारतीय बौद्धिकता को ‘डिकोलोनाइज’ करने में एक बड़ी भूमिका निभाई, भिन्नता में अभेद की खोज की और ज्ञान के केंद्र में ‘लोक’ की प्रतिष्ठा की। ऐसे विद्वानों के समानांतर बौद्धिक उपनिवेशवाद या स्थानीय मतांधता से आक्रांत बुद्धिजीवियों का लक्ष्य रहा है भारत को ‘टुकड़े-टुकड़े देश’ के रूप में देखना।

प्राचीन भारतीय ज्ञानी कैसे थे

प्राचीन भारतीय ज्ञानियों के एक सामान्य लक्षण की चर्चा की जाए तो वह है, ‘वादे वादे जायते तत्त्वबोधः’। वे मानते थे कि विभिन्न सिद्धांतों की संवादपरक टकराहट से सत्य का बोध होता है। उनके समय में सत्य जानने के लिए शास्त्रार्थ की परंपरा थी, जिसका आधुनिक रूप सेमिनार है।

राधाकुमुद मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ‘हिंदू सभ्यता’ में ब्राह्मण और श्रमण ज्ञानियों के बीच प्राचीन शास्त्रार्थ के कुछ चित्र जैन-बौद्ध ग्रंथों से लेकर उपस्थित किए हैं, ‘वे विविध संप्रदाय के थे… अनेक दिट्ठि या दार्शनिक मतों के, अनेक विश्वासों, नाना रुचियों और अनेक प्रकार की व्यवस्थाओं वाले थे। वे अपने भिन्न-भिन्न मतों का प्रतिपादन करते हुए एक-दूसरे के साथ वाणी के हथियार से लड़ते रहते थे।… वे शास्त्रार्थ में पटु, सूक्ष्म बुद्धिसंपन्न और अनुभवी, बाल की खाल निकालने वाले थे और अपनी मेधा से विपक्षियों के मतों की धज्जियां उड़ाते हुए इधर-उधर विचरते रहते थे।’

ऐसे ज्ञानी, वे ब्राह्मण हों या श्रमण, बड़ी सादगी से रहते थे, ‘प्रायः नंगे रहते थे या फेंकी हुई कंथा, वल्कल या कृष्ण वर्ण का मृगचर्म पहनते थे। वे शारीरिक तप के अलावा शील, प्रज्ञा, अहिंसा और मोक्ष पर विशेष बल देते थे।… राजा मंत्रियों के साथ पूर्णिमा रात्रि का आनंद लेते हुए अक्सर यह इच्छा प्रकट करते थे- क्या कोई ऐसा ब्राह्मण या श्रमण है जिसे बुलाकर आज रात हम अपने चित्त को संतुष्ट करें।’ उपर्युक्त विवरण से हम प्राचीन काल के ज्ञानियों के जीवन, शासकों से उनके संपर्क और बहस के लक्ष्य आदि के बारे में कुछ जान सकते हैं।

प्राचीन ज्ञानियों और आधुनिक युग के प्रोफेसरों-बुद्धिजीवियों के जीवन में जमीन-आसमान का फर्क है। लेकिन वाकपटुता, बाल की खाल निकालने की प्रवृत्ति, सत्ता से संपर्क और विपक्षी के मत की धज्जियां उड़ाने के मकसद उसी प्रकार हैं। आज के ज्ञानी सेमिनारों में मध्यवर्गीय शिक्षित जनों के चित्त को संतुष्ट करते देखे जा सकते हैं।

ज्ञान निरंतर संवाद का फल है

प्राचीन काल से ज्ञान के लिए संवाद को, बहस को जरूरी माना गया, जबकि आधुनिक युग के ज्ञानियों की जिद है पूर्वनिर्धारित एकालाप। आज कोई यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि वह जो जानता है, उसके बाहर भी ज्ञान हो सकता है!

गौतम बुद्ध कई दार्शनिक पंरपराओं के ज्ञानियों से संवाद के बाद बुद्ध हुए थे। अजातशत्रु के राज्य मगध में रहते हुए भी वे लिच्छिवियों के राज्य वज्जि  (वैशाली) को पसंद करते थे। आम्रपाली यहीं की थी। यह राज्य अजातशत्रु के हिंसक दमन का शिकार हुआ। बुद्ध दर्शक थे, कुछ न कर सके। बज्जि में जैन मत का प्रभाव था। यहां  एक विकसित आदिवासी समुदाय का गणतंत्र था- प्लेटो के समय जैसा ही विशिष्ट नागरिकों का गणतंत्र! बुद्ध ने एक संवाद में कहा, ‘मुझे बज्जि राज्य आकर्षित करता है, क्योंकि वहां लोग निर्भय होकर स्वतंत्रतापूर्वक बहस कर सकते हैं।’ यह है ज्ञान की स्वतंत्रता का  सम्मान!

एक वैदिक उक्ति है, ‘सभी दिशाओं से उदात्त विचारों को आने दो।’ (आ नो भद्राः क्रत वो यंतु विश्वतः)। इस उदारता के बिना ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का नारा एक प्रहसन है। आज व्यक्ति खुद को, अपने परिवार को या ज्यादा से ज्यादा अपनी पार्टी को विश्व समझता है।

हम देखते हैं कि किसी युग में एक सर्वमान्य सिद्धांत नहीं रहा है, बल्कि बहुस्तरीय वैचारिक संघर्ष रहा है। हर युग में नए विचारों की खोज चली है और इसका संबंध नए स्वप्नों की खोज से रहा है।

भारत भिन्नताओं का मेल्टिंग पॉट है

वर्चस्व की भावना अपने को दूसरे से श्रेष्ठ समझने की प्रवृत्ति पैदा करती है, जबकि सामंजस्य मिलजुलकर रहना, जीना और काम करना सिखाता है। वैदिक साहित्य में है मिलकर रहो, मिलकर सोचो, मिलकर श्रम करो! सामंजस्य एक तरह की हार्मनी है जो संगीत के सात सुरों की अंतरनिर्भरता-जैसी है। सामवेद में संगीत के महत्व को समझा गया। ‘गीता’ में कृष्ण क्यों कहते हैं, ‘वेदों में मैं सामवेद हूँ?’ सामवेद में हार्मनी की महत्ता है, सामंजस्य की प्रतिष्ठा है।

भारतीय ज्ञान परंपरा में दर्शनों का एक प्रमुख स्थान है। उनमें एक खास दर्शन वेदांत है जिसकी बुनियाद सामवेद में है। वेदांत का स्वप्न है- दुनिया की आत्माओ, एक हो जाओ! जहां हार्मनी है, वहां आनंद है। जहां ‘हेजेमनी’ है, वहां अंतहीन पीड़ा है। जीवन में भौतिकवादी मौज-मस्ती या ‘मनी’ ही सबकुछ नहीं है, हार्मनी भी कुछ है!

मुझे लगता है, भारत के लोग कभी वर्चस्व-आकांक्षी नहीं रहे हैं। वे प्राचीन काल से शांति, प्रेम और खुशियों की खोज में रहे हैं। वे कठोर नहीं, लचीले रहे हैं। इसलिए ज्ञान परंपराओं में कई विमर्श चले, कई सुधार हुए। सैकड़ों साल से राज्य बनते और उजड़ते रहे हैं, भारत के लोगों की शांति, प्रेम और खुशियों की खोज कभी बंद नहीं हुई। वे धर्मशास्त्रों के दबाव, निरंकुश सत्ता के अत्याचार, वंचनाओं और अंतर्द्वंद्व के बीच लगातार अपने अनुभवों से सीखते रहे हैं, हर युग में नई भूमिका निभाते रहे हैं और आज 21वीं सदी में हैं।

यह समझने की जरूरत है कि भारत की विविधता दीवारों वाली नहीं, खिड़कियों वाली है। इस स्थिति में ‘पर’ को संवेदनशीलता के साथ समझना और सामंजस्य बनाना हमेशा जरूरी है। सवाल है, क्या मनुष्यजाति आमतौर पर लचीले स्वभाव की है? हम कहते आए हैं- मनुष्य एक ‘बौद्धिक प्राणी’ है, ‘आर्थिक प्राणी ’ है। क्या वह स्वभावतः एक ‘लचीला प्राणी’ भी है? निश्चय ही वह ऐसा भी है। आज हम भारतीय समाज में चारों तरफ कठोरता और धार्मिक-सामाजिक विद्वेष देख रहे हैं। इसकी बुनियाद में वास्तविक भारत के ज्ञान से विच्छिन्न विभाजन की राजनीति है, जबकि भारतीय मानवता की यात्रा सैकड़ों साल से परस्परनिर्भरता की दिशा में रही है।

यूरोपीय उपनिवेशकों द्वारा भारतीय ज्ञान परंपराओं में हमेशा ‘भिन्नता’ दिखाई गई है।  एक भी पश्चिमी विद्वान ने उनके अंतर्संबंधों को नहीं पहचाना। बौद्धिक उपनिवेशन की व्यापकता के कारण भारतीय बुद्धिजीवियों ने भी नहीं पहचाना। इस मामले में कट्टरवादियों और अंध-बुद्धिवादियों के बीच बड़ी समानता है। आज की चुनौती है कि हम नए भारत के लिए ‘कृत्रिम भिन्नताओं’ की जगह ‘संबंधों’ और ‘पुलों’ की खोज करें। भारतीय ज्ञान पंरपराओं की मुख्य शिक्षा है- ‘भिन्नता में अभेद’! धर्म, नस्ल, जाति और प्रांत के आधार पर भेदभाव का अतिक्रमण ही भारत को जानने की पहली सीढ़ी है। भारत भिन्नताओं का मेल्टिंग पॉट है!

भारतीय ज्ञान स्थिर नहीं है

भारतीय ज्ञान परंपरा की एक खूबी पुनर्रचनात्मकता है। उसमें निरंतरता के साथ पुनर्रचनात्मकता हमेशा रही है, क्योंकि हर नए युग में कृतिकारों की पुनर्रचनात्मक कल्पना ने जीवन की नई आकांक्षाएं प्रतिबिंबित की हैं।

पुनर्रचनात्मकता के गुण की वजह से वाल्मीकि रामायण में सीता की आत्महत्या को भवभूति स्वीकार नहीं कर पाते। वे ‘उत्तररामचरित’ में सीता को पृथ्वी से बाहर लाते हैं और दुखी राम अपनी पत्नी वापस पाते हैं। पुनर्रचनात्मकता के गुण के कारण ही ‘रामचरितमानस’ में रामायण के सीता वनवास और शंबूक वध के प्रसंग नहीं हैं। इसी गुण की वजह से तमिल की कंब रामायण, बांग्ला कृतिवासीय रामायण आदि भी संस्कृत की रामायण से भिन्न हैं और नए युग में निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ भी अलग है।

यह उस खास भारतीय बौद्धिकता का दिवालियापन है जिसके अनुसार राम मिथक है, पर रावण इतिहास है- रावण ब्राह्मण भी है और द्रविड़ भी! 19वीं सदी से पहले किस तमिल ग्रंथ में है कि रावण द्रविड़ है?

भारतीय ज्ञान परंपरा में भक्ति आंदोलन का महत्व

भारतीय ज्ञान परंपराओं में जितना महत्वपूर्ण स्थान ईश्वरवादी वैदिक और अनीश्वरवादी बौद्ध-जैन दर्शनों का है, उतना ही भक्ति आंदोलन और 19वीं-20वीं सदी के नवजागरण का भी है। जो लोग प्राचीन क्लासिकल विरासत को ही भारतीय ज्ञान पद्धतियों के ऊर्जा-केंद्र के रूप में देखते हैं, वे इन दो घटनाओं को निर्मम ढंग से नकार देते हैं। यह सांस्कृतिक अंधता का लक्षण है।

भक्ति आंदोलन ने दक्षिण भारत और उत्तर भारत का फर्क मिटा दिया था। कहा गया है, ‘भक्ति द्राविड़ उपजी’। 11वीं सदी में रामानुजाचार्य ने शंकराचार्य से भिन्न वैचारिक रुख अपना कर भक्त कवियों द्वारा जाति भेदभाव तथा बाह्याडंबर के विरोध को दार्शनिक स्वीकृति दी थी। इतना ही नहीं, उन्होंने 8वीं सदी के आलवार भक्तों के काव्य संकलन ‘दिव्य प्रबंधम’ को ‘तमिल वेद’ घोषित किया था।

भक्ति के सभी प्रमुख दार्शनिक दक्षिण भारतीय हैं। इसके बावजूद हिंदी क्षेत्र के रामानंद ने रामानुजाचार्य को और सूरदास ने वल्लभाचार्य को कभी गैर नहीं माना। वल्लभाचार्य ने दक्षिण भारत से आकर वृंदावन को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। तमिलनाडु से भक्ति आई तो तमिल के संगम साहित्य में महाभारत के कई प्रसंग गए हुए थे। जिस पतंजलि के योग की दुंदुभि उत्तर भारत में बज रही है, वे दक्षिण भारत के थे।

भक्त कवियों ने ईश्वर में उन आदर्शों को खोजा, जो उन्हें अपने समाज में नहीं मिले। यह ‘विशफुल थिंकिंग’ न होकर आत्मपरिष्कार और समाज सुधार की आवाज थी।

भक्त कवियों ने दूर-दूर की यात्राएं कीं। उन्होंने देश को जोड़ रखा था। गुरुनानक यात्राएं करते थे। ‘गुरुग्रंथसाहिब’ में ज्ञान परंपराओं का संगम है। इस धर्मग्रंथ में मराठी के नामदेव के अलावा हिंदी के रामानंद, कबीर, सूर, रैदास और कई पंजाबी सूफी कवियों के पद हैं। इसमें मौजूद ‘मल्टीकल्चरल सोच’ पर गौर करना चाहिए।

उल्लेखनीय है कि भक्त कवियों ने ईश्वर से एकात्मता की धारणा ईश्वरवादी वैदिक दर्शन से ली तो जाति भेदभाव और बाह्याडंबर से विद्रोह का तत्व अनीश्वरवादी बौद्ध-सिद्ध परंपराओं से लिया। उनकी भक्तिपरक रचनाओं में भारतीय ज्ञान परंपराओं का मिश्रण है, एक बौद्धिक खुलापन है। क्या ज्ञान और शुद्धतावाद दोनों एक साथ संभव है?

भक्त कवि भारतीय ज्ञान परंपराओं से संबंध रखते हैं, पर उनकी आलोचना भी करते हैं। कबीर योग से प्रेरणा लेते हैं, पर यह भी कहते हैं, ‘मन ना रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा।’

सूरदास के एक पद में गोपियां कहती हैं कि ये जो ज्योतिष और ग्रह-विचार की बातें हैं, वैदिक कर्मकांड हैं और पुराण ठगी के औजार हैं। वे चक्कर में डाले रहते हैं कि अमुक दिन शुभ है, अमुक अशुभ। हमसे पूछो तो वह हर दिन अच्छा है, जिस दिन कृष्ण से भेंट हो जाए। आखिर सभी ग्रह अपने स्थान पर थे, फिर भी सीता का हरण हो गया। कृष्ण से प्रेम करने वालों के लिए तो भद्रा भी अच्छा है, जिसे लोग बुरा महीना मानते हैं। भरनी नक्षत्र भी अच्छा है। छींक होने पर भी सब ठीक है। धर्म की ऐसी चीजों में फंस कर  या पैसा गिनने के लिए जो लोग भक्ति करते हैं, उनकी भक्ति दो कौड़ी की है। सूर अंधविश्वासों का विरोध करते हैं, ‘जा दिन श्याम मिले सो नीको। ज्योतिष, निगम, पुरान बड़े ठग, फांसत जे जिय हीकौ।… सूर धरम धरि लाल गुनै जो, तो प्रेमी कौड़ी को’!

यदि सचमुच सौंदर्य से प्रेम हो तो वह रूढ़ियों से कितनी तरह से आजाद करता है, यह भक्त कवियों की रचनाओं में देखा जा सकता है।

भक्ति आंदोलन के दौर में लोकभाषाओं का ही उत्थान नहीं हो रहा था, लोक संस्कृतियों का भी हो रहा था। आज ‘हाई टेक्नोलॉजी- लो कल्चर’ का मामला है, तब ‘लो टेक्नोलॉजी-हाई कल्चर’ की स्थिति थी। आज ‘एक्ट ग्लोबली-थिंक लोकली’ का मामला है, तब ‘एक्ट लोकली-थिंक ग्लोबली’ की आवाज थी। भारत के भक्त कवि एक बड़ा मन लेकर चल रहे थे।

ज्ञान ही ईश्वर है

19वीं सदी का भारतीय नवजागरण ज्ञान का आधुनिक संगम है। इसने न सिर्फ ज्ञान को एक सामाजिक शक्ति के रूप में स्थापित किया, बल्कि इसपर कुछ वर्गों का एकाधिकार समाप्त कर दिया। वे फिर बोलने लगे, जो महज सुनने वाले बना दिए गए थे। इससे देश में एक बड़ा फर्क घटित होने लगा। एक नया युग आया, हालांकि उपनिवेशवाद के बौद्धिक दुष्प्रचार से जटिलताएं भी निर्मित हुईं।

एक दूसरी विडंबना है, नवजागरण के नकार में अंध-बुद्धिवादी और कट्टरवादी एक साथ खड़े हैं। दोनों को अपने-अपने कारणों से भारतेंदु और महावीर प्रसाद द्विवेदी पसंद नहीं आते। हम देख सकते हैं कि राजा राममोहन राय से लेकर ईश्वरचंद्र विद्यासागर, रामकृष्ण परमहंस, ज्योतिबा फुले, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, रानाडे, नारायण स्वामी, रवींद्रनाथ, गांधी- इन सभी ने भारतीय ज्ञान परंपराओं से संबंध रखा था। उन्होंने अतीत से उदाहरण चुने थे। रानाडे और ज्योतिबा फुले दोनों ने शिवाजी को माना था। नवजागरण के व्यक्तित्वों में से कई लोग औपनिवेशिक आधुनिकता से प्रभावित थे, पर उन सभी ने भारतीय ज्ञान परंपराओं का अपनी सीमा में ‘रैशनलाइजेशन’ किया, कोई व्यक्ति अंध-प्रवाह में नहीं बहा।

विद्यासागर ने विधवा पुनर्विविवाह के पक्ष को मजबूत करने के लिए हिंदू धार्मिक परंपरा की ‘पराशर संहिता’ से उदाहरण चुना था। गांधी की प्रेरणा तुलसी का ‘राम राज्य’ और ‘कबीर का चरखा’ है। प्रसाद के छायावादी काव्य ‘कामायनी’ की प्रेरणा शैव दर्शन है। इसमें राष्ट्रीय आदर्शवाद के साथ वैश्विक बुद्धिपरकता की भी प्रतिष्ठा है। ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं।

तमिल कवि सुब्रह्मण्य भारती ने कहा था, ‘ज्ञान ही ईश्वर है’। उनकी एक पंक्ति है, ‘ऐसे यंत्र बनेंगे कि हम कांचीपुरम में बैठकर काशी के विद्वतजन का संवाद सुनेंगे।’ एक जमाने में ऐसे स्वप्न देखे गए थे।

एक समय शाहजहां के बड़े बेटे दाराशिकोह ने उपनिषद का फारसी में अनुवाद किया था। एंक्वेटिल दुपेरां (1731-1808) ने 1804 में उपनिषद के कुछ अंशों का अनुवाद किया था। एक धारणा है कि इसने अंग्रेजी के ‘रोमांटिक मूवमेंट’ पर असर डाला। शॉपेनहावर पर उपनिषद का प्रभाव था। विलियम जोंस (1746-1794) द्वारा कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ के किए गए अंग्रेजी अनुवाद को पढ़कर जर्मन कवि गेटे मुग्ध हो गए थे। ये भारतीय ज्ञान परंपराओं की दूर-दूर तक यात्रा के नमूने हैं। ज्ञान कभी भूगोल के जेल में नहीं रहता। वह दूर-दूर तक यात्रा करता है। एक ज्ञान दूसरे ज्ञान के सामने कभी दीवार नहीं खड़ी करता। वह हवा की तरह स्वाधीन है, उसे कोई मुट्ठियों में बंद नहीं रख सकता।

भारतीय ज्ञान परंपराओं में सबकुछ हरा-हरा नहीं है, काफी मुरझाए पत्ते हैं। उनमें चावल और कंकड़ दोनों हैं। इसलिए जब भी कुछ ग्रहण करना हो, थोड़ा फटक लेना चाहिए। हर युग में विवेकपूर्ण चयन ही आदर्श है, अंध-चयन नहीं।

किसी समावेशी ज्ञान परंपरा को भूलना हमारे अंतःकरण की मृत्यु है 

भारतीय ज्ञान परंपरा दो तरह की है। एक तरह की परंपरा वह है जो ‘अन्य’ को, ‘अदर’ को हमेशा प्रज्वलित रखती है। यह बहिष्कारपरक है। दूसरे तरह की परंपरा वह है जो ‘भिन्नता में अभेद’ की खोज और ‘अ-पर’ के बोध से जुड़ी है। यह समावेशी है। हमें सोचना होगा कि हम किस ज्ञान परंपरा की रोशनी में अपने बहुसांस्कृतिक भारत को देखना चाहते हैं। हम जब किसी समावेशी ज्ञान परंपरा को भूलते हैं या ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझे बिना किसी महान कवि या लेखक को भूलते हैं या उसका मखौल उड़ाते हैं तो वस्तुतः हमारे भीतर एक सांस्कृतिक मृत्यु घटित हो रही होती है। हमारी बौद्धिक दुनिया छोटी हो रही होती है।

भारतीय ज्ञान परंपराओं का संबंध साहित्य के साथ-साथ कलाओं से भी है। इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि बुद्ध की मूर्ति, भित्तिचित्र, पुराकथाओं पर आधारित मूर्तियां, खजुराहो, अजंता-एलोरा की गुफाएं, प्राचीन मंदिरों के स्थापत्य, हिंदुस्तानी संगीत, सूफी संगीत आदि महान उपलब्धियां वस्तुतः ज्ञान और कलाओं की अंतर्क्रियाओं से जन्मी हैं। इनमें कई चीजें शासक वर्गों के संरक्षण में बनी हों, पर इनका निर्माण श्रमजीवी कलाकारों की उदारवादी कल्पनाशीलता और मिश्रणशील सौंदर्यबोध की देन है। आज लगता है कि ये दोनों चीजें हमारी दुनिया में विस्थापित हैं। आज खुद कल्पना करने की शक्ति कमजोर हो गई है, सौंदर्यबोध क्षयग्रस्त है।

भारतीय ज्ञान परंपराओं के उदारवाद, लोक से उनके निरंतर संपर्क, बहुकेंद्रिकता, आलोचनात्मक समावेशिकता और पुनर्रचनात्मकता जैसे गुणों को हमेशा याद रखने की जरूरत है। ज्ञान का काम हमेशा उदार और निर्भय बनाना है, मानवीय सोच में खुलापन लाना है।

आज की एक बड़ी मुश्किल यह है कि ज्ञान की नई दुनिया में सत्ता, पैसा और टेक्नोलॉजी की शक्तियां ही सबकुछ हो गई हैं। सत्ता, संपत्ति या पांडित्य बढ़ जाने पर ज्ञान दूर भागता है।

ज्ञानियों के बीच मनुष्य कहां हैं?

कालिदास के ‘रघुवंश’ में राजा रघु, दशरथ और राम की वंश परंपरा में अंतिम राजा अग्निवर्ण का उल्लेख है। वे इतने अधिक भोगवादी और काम-जर्जर हो गए थे कि किसी तरह खिड़की से बस अपनी टांग बाहर निकालकर प्रजा को दर्शन देते थे! 21वीं सदी में कुछ वैसा ही बुद्धि-जर्जर भोगवाद है।

पश्चिम में कई बुराइयां हैं, पर एक खास बात है। ब्रिटेन में भारतीय मूल के एक हिंदू ॠषि सुनक प्रधान मंत्री बन सकते हैं। भारत के लोगों ने इस मामले में बहुत गर्व व्यक्त किया है। जरा अपने आपसे प्रश्न करें कि क्या हम भारत में किसी ईसाई प्रधानमंत्री की कल्पना कर सकते हैं?

दरअसल ज्ञान झाड़ना एक चीज है। ज्ञान का अपनी इच्छाओं तथा कर्मों से संबंध बनाना बिलकुल दूसरी चीज है। ज्ञान और कर्म की दूरी ने आधुनिक युग में कई महान दर्शनों को पिछवाड़े में डाल दिया, वे विफल हुए। बुरे इस्तेमाल की वजह से अच्छी विचारधारा की सामाजिक शक्ति समाप्त हो जाती है और बुरी विचारधारा हावी हो जाती है। बड़े दर्शन हार जाते हैं, जब उनके वैचारिक ध्वजवाहक स्वार्थी लोग होते हैं।

पिछले कुछ दशकों से मनुष्य के अनुभवों पर बाजार और राजनीति का नियंत्रण बढ़ा है। ‘अनुभव की स्वतंत्रता’ में ह्रास आया है। अब अनुभवों पर ‘निर्मित सूचनाओं’ का कब्जा है। सूचनाओं को ज्ञान मान लेना मनुष्यता का पराभव है।

पहले था, ‘ज्ञान ही ताकत है’, आज है- ‘ताकत ही ज्ञान है’! इस वजह से अनुभव की व्यापकता में, ‘अ-पर’ के बोध में ह्रास आया है। अब ताकत के जोर से प्रचारित की गई ऐसी ‘निर्मित सूचनाएं’ ज्ञान हैं जिनका यथार्थ से संबंध नहीं है। ऐसी सूचनाएं ‘ज्ञान प्रबंधन’ हैं, नॉलेज मैनेजमेंट।  ज्ञानी लोग प्रबंधक हो गए हैं, ‘पावर स्लेव’!

जब भी बाजार और राजनीति की मांगों के अनुसार सोचा जाएगा, ज्ञान से विलगाव बढ़ेगा। वैज्ञानिक स्वतंत्रचेता न होकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बंधुआ मजदूर होंगे। फिर जो ज्ञान होगा, उसे ‘विष’ या ‘चतुराई’ कहा जाना चाहिए। आज हमारे सामने यह एक बहुत बड़ी चुनौती है।

कई बार लगता है कि कूपमंडूकता ही शाश्वत चीज है; ज्ञानवान होना, सुधारवादी होना और विद्रोह अल्पकालिक मामले हैं, फिर भी कितने अर्थपूर्ण हैं ये! यह सभ्यता का एक ऐसा दौर है जिसमें धर्म, जाति और संस्कृति के नाम पर  वस्तुतः उत्तर-मनुष्यता छा रही है।

आज ज्ञान के दिखावे हैं, उठा-पटक है। अतीत की नई खुदाई है। वर्तमान के नए आंकड़े हैं। ज्यादातर व्यक्ति ‘ज्ञानसमुद्र-भावकूप’ हैं। अब अनोखे मेधारोबो हैं।

एक ग्रीक दार्शनिक डायोजनीज शिक्षाविदों और बौद्धिक धुरंधरों से भरे अपने नगर में दिन में लालटेन लिए चले जा रहे थे। एक ने पूछा- दिन में लालटेन लिए कहां जा रहे हैं? डायोजनीज ने कहा- ज्ञानियों के बीच मनुष्य खोजने निकला हूँ!