शंभुनाथ

अहिंसा का व्यापक अर्थ है। यह गांधी के दर्शन का संपूर्ण सार और भारत देश का बार-बार दबाया गया महाभाव है। अहिंसा की जो यात्रा बुद्ध से शुरू हुई थी, वह सभ्यता के वर्तमान शिखर पर गंभीर चुनौतियों से घिर गई है। इस बार संपादकीय की जगह अहिंसा के लिए प्रार्थना के रूप में अपनी कुछ कविताएं!

आखिरी प्रार्थना

मुझे थोड़ी सी विस्मृति देना
ताकि उनसे मिल सकूं
जिनसे कभी टेबल अलग हो गया था।

वह पागलपन लौटा देना
जो मीरा के बजते घुंघरुओं में था
है अब भीड़ की लाल आंखों में।

थोड़ी अबोधता देना बच्चों वाली
दम घुट रहा है
ज्ञान के इस बाजार में।

क्या थोड़ी सी याददाश्त दे सकोगे
जो खो चुकी है
इतिहास के जंगल में!

कहीं ज्यादा तो नहीं मांग रहा हूँ
बस अपने छाते से बड़ा हो मेरा आसमान
और देख सकूं अपनी नाक से दूर।

 

दुस्समय में बुदबुदाहट

समय बड़ा खराब है
यह कहते हुए शुरू होती है सुबह
सब्जी बाजार में
यही बात
दोपहर लंच के समय
दफ्तर में
और देखते हुए खबरें टीवी पर
घर में
देर से लौटे बेरोजगार बेटे से
माँ कहती है
समय बड़ा खराब है
और ठीक यही लड़की से भी
सांझ में उसे घर से बाहर निकलते समय।

चिड़िया कुछ कम खोलती है पंख
जब देखती है सड़क पर दहशत
नदी का धीमा हो जाता है बहना
जब चिता पर होता है
आत्महत्या किया हुआ कोई नौजवान
पहाड़ थोड़ा छोटा हो जाना चाहते हैं
जब चौंकते हैं पाकर
अहंकार से भरे दस-दस फुट के मानव
देवता थरथराने लगते हैं
जब देखते हैं भक्तों की आंखों में घृणा
फागुन की नरम धूप में
खेतिहर सोचता है कितना अच्छा है मौसम
पर समय क्यों खराब है?

न्याय की देवी के तराजू पर
एक तरफ है संविधान
दूसरी तरफ है बाजार
खुश हैं काफी लोग कि वे तौले जा रहे हैं
कभी मुफ्त सिलेंडर से
कभी भोजन राशन से
कभी हजार-दो हजार
कभी ऊँचे आसन से
कहीं छूट की लूट से
कहीं लूट की छूट से
कभी मुफ्त लैपटॉप से
कभी दिव्य मंत्रजाप से
दया में अवरुद्ध लोकतंत्र
अब जब्बर के ओसारे में बंधी
अब्बर की गाय है
भारी हाय-हाय है
न्याय की देवी की पट्टी
आंखों से सरक अब मुंह पर है
समय बड़ा खराब है।

फिर भी समय में एक जगह है भविष्य
चींटियों के मुंह में
अन्न के छोटे दाने-सा
समुद्र से निकले वराह के कंधे पर
विराट पृथ्वी-सा
इसलिए
जब कैद है सूरज अंधेरे में
हवाएं हो गई हैं नीली
जब कोई कानून नहीं
और जनादेश है- चुप रहो
रोक दिया गया है
पेड़ों को झूमने से
कोयल को गाने से
वसंत को एक से अधिक रंग से
मेघों को उमंग से
तब भी बुदबुदा रहे हैं लोग
यहां वहां-सारे जहां
समय बड़ा खराब है।

खराब समय में भी
सोचा जा सकता है अच्छे समय के बारे में
भविष्य सिर्फ उनका है
जो प्रेम करते हैं खराब समय में!

 

प्रेम

साथ जब हँसते हैं कुछ क्षण
लगता है
सूखे में भी पत्ते हरे हैं पेड़ पर
चिड़िया बना सकती है घोंसला।

चलते हैं जब चार कदम साथ
लगता है नदी नहीं है रेत
उसमें जल है
मछलियां तैर सकती हैं जी भर।
करते हैं जब बातें खोलकर गांठें
लगता है उमस को चीरकर
हवा में होने लगी है हलचल
उड़ती आएगी अब एक पतंग।

रचते हैं जब कुछ मिलकर
लगता है लाठियों के बीच से
बचकर आ गए हैं कबीर
बुनी जा सकती है एक चादर।

क्या है और प्रेम
साथ हँसना, कुछ दूर साथ चलना
गांठें खोलकर जी भर बातें करना
कुछ रचते जाना
और छिपाना कि यह प्रेम है।

 

अलाउद्दीन खां का जला सरोद*

दुहराया गया अलेक्जेंड्रिया
दुहराया गया नालंदा
संगीत नहीं पहुंचाता किसी को नुकसान
फिर भी जलती रही संगीतशाला
यह एक अलग ही महफिल थी बर्बरों की
खेसारी को देखकर
रंग पकड़ती है खेसारी
और कट्टरता को देखकर कट्टरता
जबकि देखकर जलती हुई किताबें, वाद्ययंत्र
तारे बदल जाते हैं आंसुओं में।

एक घर जल रहा है प्रेम का
जल रहा है
अलाउद्दीन खां का बजाया सरोद
सिर है ऊंचा जलते हुए भी
लपटों में झूम रहे हैं नए राग
वाद्ययंत्र चुप नहीं है।

जल गया है तबले का चमड़ा
फिर भी हांडी भरी है थापों से
फैली राख में
अग्निपक्षी फड़फड़ा रहा है अपने पंख
फिर उड़ने को तैयार
मैहर की धुन पर
गाता हुआ संगीत की अमरता का गान।

जल गए हैं संजोकर रखे गए पुराने पत्र
पर टपक रहा है उनसे अभी भी मधु
प्लास्टर झर गए हैं
पर गुस्से में हैं लाल ईंटें
फर्श से छत तक है एक ही रंग
काला… काला… काला
दुनिया में राख का नहीं है अलग-अलग रंग।

 

भूलने के बारे में

वे एक दिन चर्चा करेंगे इसपर
कि हम भूल गए थे
और खोजते फिर रहे थे
भूलने के नए-नए रास्ते
मसलन हम भूल गए थे ट्रेन का सफर
सह-यात्रियों के साथ बांटकर खाना
भूल गए थे प्रेम से रहना
पहाड़ा भूल गए थे
हम कर रहे थे बर्बरों का अभिनंदन
क्योंकि कुछ भूल गए थे।
नदी जब भूलती है कि वह नदी है
एक अपवित्र बाढ़ होती है
इसी तरह सब भूलते गए कुछ न कुछ
कप भूल गया तश्तरी को
मंदिर देवकथनों को
और चाकू सब्जियों को
संसद है ही
भूलने की सबसे बड़ी जगह
बल्कि भूलना एक कला है।

वे एक दिन चर्चा करेंगे इसपर
हर महान व्यक्ति को भूल जाने के बाद
होता था उसकी विशाल मूर्ति का अनावरण
भूलने का एक सिलसिला था
धर्म का अर्थ भूलने का
स्वतंत्रता का अर्थ भूलने का
सभ्यता का अर्थ भूलने का
शहर का पुराना नाम भूलने का
पेड़, पौधों और कवियों के नाम
पहले ही भुलाए जा चुके थे।

भूलने के दौर में
हम भूल गए थे अपना घर
कमरे में संध्या बत्ती
पुस्तकालय जाना
खुलकर हँसना भूल गए थे
यह भी कि
हमारे पास बड़ा हृदय है
हम भूल गए थे
चिड़ियों के घोंसले से
चूजे हमेशा आसमान की ओर देखते हैं
और पत्थर पर जमती है दूब
हम यह भी भूल गए थे कि
कई लोग याद रखते हैं।

 

जिराफ और कछुआ

कभी इच्छाएं होने लगती हैं जिराफ
ललचाता है मन
पाने को वह जो है दूर
इस जमाने में
ब्रांडेड चीजों से पहचाना जाता है आदमी
कार की लंबाई से मापी जाती है
आदमी की औकात
जिराफ की ऊंची गरदन
मॉल और फूड कोर्ट में घुसती है
जहां है आकर्षण का अनंत संसार
लोभ के पीछे भय आता है
जिराफ की तरह गरदन बढ़ाए।

कभी इच्छाएं होने लगती हैं कछुआ
देश-दुनिया-आकाश छोड़ कर
खोजती हैं एक सख्त खोल
भय जब बढ़ता है
चौड़ी होने लगती हैं खाइयां
भय बन जाता है राजनीतिक उद्योग
कछुए की गरदन
धर्म के खोल में जाती है
जाति में घुसती है
और कभी प्रांतीयता में
सिकुड़ती है कभी ‘मैं’ के भीतर
असुरक्षा
आदमी को बना देती है कछुआ।

इस दौर में
लोभ और भय के बीच फँसा आदमी
कभी होता है जिराफ
कभी होता है कछुआ
टू इन वन!

 

कारपोरेटं शरणं गच्छामि

देश से कहीं और जा रहा था देश
कहते हुए
मुझे याद मत रखना।
इतिहास आतंकित था धरोहरों से
बनाए जा रहे थे उनके लिए ड्रेस
आसमान के नीले रंग में मची थी उथल-पुथल
उसके लिए
पता नहीं कहां-कहां निकल रहे थे टेंडर
मूर्तियों से प्रस्थान कर रहे थे महापुरुष
कहते हुए
मुझे याद मत रखना।
अब ट्रेनों पर नहीं लिखा था
यह जनता की संपत्ति है
हवाई पट्टियां जा चुकी थीं उनके पास
नदियां हो रही थीं नीलाम
उदास थीं मछलियां
उदास थीं नावें
पेड़ों पर बैठने के लिए
चिड़ियों को अब लेना था कूपन
बड़े गोदामों में था अन्न
बाहर कृषक विपन्न
चूल्हे तक थी उनकी पहुंच
देशवासियों को खरंजा सौंपकर
और टूटी सड़कें
हाईवे बन रहे थे सभ्यता के
पाताल था उनके निशाने पर
पहाड़ों को अलविदा कर रहे थे खनिज
कहते हुए
मुझे याद मत रखना।

खुल रही थी सामने एक नई दुनिया
चल रहा था मंत्रोच्चार-
कारपोरेटं शरणं गच्छामि
वे बन चुके थे पुण्यार्थी महादानी
सामने थे करोड़ों कटोरे
अब सबकुछ कारपोरेट था
मुस्कराहट हो चुकी थी कारपोरेट
उसमें खुलकर हँसना शामिल नहीं था
आम लोग देश की ऐसी निधि थे
जिसमें भविष्य शामिल नहीं था
लंच कारपोरेट था
लोग बोल सकते थे सिर्फ वे शब्द
जो कंपनियों के शब्दकोश में थे
वे अपने को खोज नहीं पा रहे थे
जबकि अदृश्य कैमरों की निगाह में थे।

प्रेम कारपोरेट था
उसमें थी एक निस्संग सहयात्रा
देशप्रेम होता गया कारपोरेट
उसमें देश न था
मित्रता शांति श्रमिक पर्यावरण स्त्री मातृभाषा
सब दिवस भर थे
स्वतंत्रता दिवस की तरह
कबाड़ की तरह
जा रहे थे ट्रकों पर बहुत से स्वप्न
सिर्फ भूलने की स्पर्धा थी
देश से कहीं और जा रहा था देश
कहते हुए
मुझे याद मत रखना।

 

डरा हुआ शहर

हम बचे हुए लोग हैं
हमारे पास है एक डरा शहर
सच से डरा हुआ
जो बार-बार दुहराए झूठ से बना है
विश्वास से डरा हुआ
जो है अपहरणकर्ताओं के कब्जे में
ईमानदारी से डरा हुआ
जो कर देती है बहुत अकेला
प्रेम से डरा हुआ
जो है कुछ क्षणों का उत्सव।

बहुत कुछ नहीं है पहले-सा
जैसे गंगा
जो तटों के आलिंगन में बहती थी शांत
हवा भी नहीं है पहले-सी
जिसमें खुलकर सांस लेते थे
पहले-सा चलना-फिरना नहीं है
जिसमें बेफिक्री थी।

अब नींद में भी घेरता है
एक विकट उल्लास
और एक असहाय हाहाकार
किसी पुल से गुजरते हुए लगता है
पता नहीं यह कब गिर पड़ेगा अचानक

हम बचे हुए लोग इतना डरे हुए हैं
कि अर्घ्य के समय
भोर का सूरज दिखता है
प्यासे आसमान में
खून की एक बड़ी-सी बूंद!

 

तानाशाह

भय वहां नहीं होता
जहां से दिखते हैं तारे
और वहां भी नहीं
जहां होती है भूख
भय नहीं है
जहां हैं पुस्तकें
प्रेम में भी
जगह नहीं है भय के लिए
बिलकुल नहीं फटकता भय
जहां है तर्क
कल्पना का आनंद
जहां है भोली मुस्कराहट
और विद्रोह
ये सभी हैं
सौंदर्य के अमिट ठिकाने।

अधिक सुंदर होने का अर्थ है
अधिक निर्भय होना
तानाशाह रहते हैं हमेशा भयभीत
क्योंकि वे हैं सौंदर्य के शत्रु
और सौंदर्य है कि
उसके बिना रह नहीं सकती सृष्टि।

क्या किसी तानाशाह को देखा है
तारे देखते हुए
भूख-प्यास से गुजरते हुए
पुस्तकें पढ़ते हुए
किसी से असीम प्रेम करते हुए
जीवन की सुंदरता रचते
कल्पना का आनंद लेते
तर्क करते
किसी रूढ़ि से विद्रोह करते
क्या तानाशाह को
कभी शिशु-सा मुस्कराते हुए देखा है?

 

अजनबी

अपने चेहरे से लग रहा है डर
इसे कहां रखकर चल पड़ूं
जिधर बेतहाशा जा रहे हैं इतने लोग
और पहन लूं उनका चेहरा
क्या अपना चेहरा छिपाकर रख दूं लाइब्रेरी में
जहां बसी है गंध पुराने पन्नों की
पर यहां पीछा करने लगते हैं
लेखकों के अधूरे सपने।

मेरे चेहरे ने मुझे अजनबी बना दिया है
अपने ही लोगों के बीच
क्या इसे रख दूं पीले गुलाब के पास
जिसे किसी ने बड़े प्रेम से दिया है
पर यहां से कितनी कठिन हो जाएगी यात्रा
घृणा के राजपथ पर।

चलो ले चलते हैं अपने चेहरे को
समुद्र में बहा देते हैं
जहां एक समय
देवताओं का अमृतकाल शुरू हुआ था
दिखते हैं तभी गांधी हाथ में लिए नमक
नमक ही समुद्र का धर्म है।

भीड़ में अपना चेहरा लेकर आना वर्जित है
इसमें घुसना होता है चेहराविहीन होकर
पर यहां मिलती हैं
चांद तक पहुंचने की सीढ़ियां
भीड़ है कामधेनु
भीड़ है अपराधियों की सुरक्षित जगह
रंग सिर्फ झंडों के नहीं
भीड़ के भी होते हैं
यहां अपना माथा रखना होता है
विचारों से रिक्त
और बिलकुल झुका हुआ।

जरूर किसी बोरसी में छिपी है आग
जिससे गर्म है अभी भी धरती
दौड़ती हैं
दमकल गाड़ियां सायरन बजाते हुए
छिपी आग की खोज में
वे उन लोगों की सूची बना रहे हैं
जिनके पास अपना चेहरा है।

जब हो जाना चाहिए राष्ट्र
मैं छूट गया हूँ अकेला देश में
अपने चेहरे से हलकान
क्या म्युजियम का हो रहा है विस्तार
जहां पहले से हैं पीतल का लोटा
सरकंडे की कलम और
सुलेखा कंपनी की दवात
तो क्या रख दूं अपने चेहरे को वहां
जहां है
चांद से आया पत्थर का टुकड़ा!

मैं अपना चेहरा लेकर हाथ में
उलटता-पलटता हूँ
उसपर जमी धूल साफ करता हूँ
बैठ जाता हूँ
रेत पर बने
रंग-बिरंगे तंबुओं से दूर
एक नंगी चट्टान पर
उन सबकी भाषा के बाहर
अपने पास।

 

रचैवेति*

रचैवेति रचैवेति रचैवेति।

ध्वंसों के ढेर हर तरफ होड़
छाया हो शोर दूर हो भोर
तब भी
रचैवेति रचैवेति रचैवेति।

संसद खामोश जीवन उदास
संकट के दौर कोई न पास
तब भी
रचैवेति रचैवेति रचैवेति।

खंडित इतिहास नायक विलुप्त
पुस्तक के पन्ने हों सब सुप्त
तब भी
रचैवेति रचैवेति रचैवेति।

दुख के समुद्र भय के पहाड़
लहरों में कूद जीवन न हार
चरैवेति चरैवेति चरैवेति
रचैवेति रचैवेति रचैवेति।

* रचैवेति – रचते रहो