शंभुनाथ

 

एक तरह से आज का मीडिया बाजार और राजनीति के बीच सैंडविच है। मीडिया निर्मित उत्तेजनात्मक खबरों का मालवाहक बनता जा रहा है। पत्रकार तो बिलकुल असहाय हैहायर एंड फायर!

हर पाठक-दर्शक को सही खबर जानने का अधिकार है, जबकि आज के मीडिया का लक्ष्य है पाठक-दर्शक के मानस का बौद्धिक समतलीकरण। यह गलत सूचनाओं और अति-पक्षपातपूर्ण ढंग से खबरों का प्रसारण करके तो होता ही है, सबसे अधिक सूचना को रोककर होता है। इसे हम ‘डिसइन्फार्मेशन’ या सूचना-गतिरोध कह सकते हैं। इसका अर्थ है, ‘सूचना समाज’ का निर्माण करते-करते हमारी यात्रा अब सूचनाविहीन समाज की ओर है।

क्या सूचनाविहीन समाज कहा जा सकता है, अगर हर तरफ खबरें ही खबरें हों, सूचनाओं के अंबार हों और जो चाहे जैसे बोल रहा हो? कई बार यह लग सकता है कि पहले से स्वतंत्रता बढ़ गई है। खासकर भारतीय स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ की शुरुआत पर इसपर सोचा जा सकता है कि क्या हमारी स्वतंत्रता अब स्वर्णमृग की तरह मायावी हो चुकी है। खासकर एक सूचनाविहीन समाज में, एक ‘डिसइन्फार्मेशन सोसाइटी’ में, जिसका निर्माण खुद धनी मीडिया कर रहा है, यदि हम सचाइयों से लगातार दूर होते जा रहे हैं तो हम कितना स्वतंत्रता के बीच हैं और कितना कंपा देने वाले भय के बीच-यह जरा देख लेना होगा।

पत्रकारिता को ब्रिटिश इतिहासकार थामस कार्लाइल ने लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा था। जबसे पत्रकारिता की जगह मीडिया आया है, चौथे खंभे की बाहरी चमक बढ़ गई है, पर भीतर से वह खोखला हो गया है। लक्षित किया जा सकता है कि कोरोना महामारी के दौर में नर्सिंग होम या मीडिया ही टकसालघर बना है! दोनों जगहों पर पैसा बरस रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में मीडिया को 2020 में विज्ञापन से 591 अरब रुपये की आय हुई है। यह 2023 में, सिर्फ तीन सालों में 900 अरब अर्थात लगभग दुगुनी हो जाएगी, ऐसी आशा है। यदि आर्थिक मंदी के दौर में मीडिया की आय इतनी ज्यादा बढ़ रही है, तो समझना मुश्किल नहीं है कि वह कहां से और क्यों इतना अधिक अर्थोपार्जन कर रहा है और जनमानस को प्रभावित करने में उसकी भूमिका क्यों अचानक बढ़ गई है। देश जब संकट की दशा में है, मीडिया सबसे अधिक स्मार्ट और रंग-बिरंगा है। अब कुछ भी वैसा नहीं दिखता, जैसा वह है। इधर फैलाई जा रही आग देखकर लग सकता है कि मीडिया अब एक अदृश्य हिंसा है!

आज का मीडिया एक ही बात बार-बार कहकर मानो आदमी को अपनी खबरें रटाता है। वह मस्तिष्क को अपना सूचना-भंडार बना लेता है। वह ज्ञान नहीं देता, चिंतन शक्ति नहीं देता और न उच्च मानवता का अहसास कराता है। वह सहस्रबाहु है, वस्तुतः सूचनाविहीन समाज निर्मित करने का एक शक्तिशाली औजार।

इसी का नतीजा है कि आज समाज में संवाद, बहस, तर्क जैसी चीजें घटी हैं, आलोचनात्मक विवेक का ह्रास हुआ है और आदमी अंध फॉलोअर ज्यादा है। मीडिया का लक्ष्य यही है, पाठकों-दर्शकों की सोच का बंध्याकरण। छद्म बिंब बनाते हुए पैसा बटोरना और पैसा बटोरते हुए छद्म बिंब निर्मित करना। वह ऐसी सूचनाएं नहीं देता जो व्यक्ति में सोचने की शक्ति पैदा करे- उसे अज्ञान से स्वतंत्रता की ओर ले जाए। वह ऐसी सूचनाएं देता है जिसके जाल में फँसकर आदमी परजीवी हो जाता है और सोचना छोड़ देता है। आज का मीडिया एक ही बात बार-बार कहकर मानो आदमी को अपनी खबरें रटाता है। वह मस्तिष्क को अपना सूचना-भंडार बना लेता है। वह ज्ञान नहीं देता, चिंतन शक्ति नहीं देता और न उच्च मानवता का अहसास कराता है। वह सहस्रबाहु है, वस्तुतः सूचनाविहीन समाज निर्मित करने का एक शक्तिशाली औजार।

देश में पहला अखबार ‘हिकी बंगाल गजट’ 1780 में निकला था। उसका नीतिकथन था, ‘सभी के लिए खुला, पर किसी से प्रभावित नहीं’। अंग्रेजी राज की आलोचना करने के कारण अंग्रेज होते हुए भी हिकी को जेल जाना पड़ा था। उससे डाक की सुविधा छीन ली गई तो उसने 20 हरकारे रखे और वह अखबार निकालता रहा!

कहा जा सकता है कि भारत की पत्रकारिता का जन्म ही असहमति, प्रतिवाद से हुआ था। पत्रकारिता का किसी से प्रभावित न होना ही पत्रकारिता का स्वराज है, मीडिया का स्वराज है। देश के नागरिक जिस दौर में पराधीनता के बंधनों से घिरे थे, अखबारों ने जंजीरों पर चोट की थी। लोग जब बोल नहीं पा रहे थे या अभी जाग्रत न थे, तब भी पत्र-पत्रिकाएं मुखर थीं। उस जमाने के पत्रकार आजकल के टीवी एंकरों की तरह भड़कीले नहीं थे। वे बड़े सादे इनसान थे, लेकिन वे आज की तरह कठपुतली न थे।

पत्रकारिता का स्वराज, उसकी स्वायत्तता और गरिमा के लिए बेहद जरूरी है। फिर भी आज स्वराज की इच्छा मर गई-सी लगती है। भूमंडलीकरण के दबाव में आर्थिक स्वराज के बारे में सोचना तो फिलहाल असंभव-सा है। पत्रकारिता के स्वराज पर भी इधर आक्रमण बढ़े हैं, पूंजी और सत्ता का दबाव बढ़ा है, लेकिन सबसे चिंताजनक है ‘स्वराज’ की इच्छा को ही मिटा देने का प्रयास। खासकर नई पीढ़ी के लोगों में इधर जिस पैमाने पर खबरों में दिलचस्पी घटी है, वह चिंताजनक है।

खबरें बेचने के लिए छोटे-बड़े अनगिनत मीडिया काउंटर बने हुए हैं, अपने पैसे दो- अपनी खबरें लो! जिसका खाना, उसका गाना। मीडिया के लिए इस नीतिकथन का अब कोई अर्थ नहीं है, ‘सभी के लिए खुला पर किसी से प्रभावित नहीं’!

भारत में मीडिया का व्यापक पतन हुआ है। सवाल है, पश्चिमी देशों में वह अब भी काफी स्वतंत्र और निर्भीक क्यों है, जबकि उन देशों में ज्यादा बड़ी पूंजी लगी है? अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि बड़े देशों में देखा जा रहा है कि वहां विचारों की बहुलता बनी हुई है, संपादक ज्यादा स्वतंत्र हैं। वहां आर्थिक स्पर्धा में सच के लिए जगह है। मीडिया सामान्यतः सत्ता का लाउडस्पीकर नहीं हो पाता। भारत में मानसिकता के किस दोष के कारण मीडिया प्रोपगंडा का औजार बना हुआ है और ज्यादातर ‘सनसनीखेज’ पर टिका है, यह देखने की जरूरत है। यह सवाल भी है कि पाठकों-दर्शकों की दृष्टि सिर्फ उन चीजों की ओर क्यों आकर्षित होती है जिनमें मिर्च-मसाला भरा होता है? कहना न होगा कि रुचि की निरंतर गिरावट पक्षपातपूर्ण और विकृत सूचनाओं के लिए एक उर्वर भूमि है।

अब सत्य प्रचारित नहीं होता, जो प्रचारित होता है, उसे ही सत्य मान लिया जाता है। धारणा बनी है, लोकतंत्र पर कब्जा रखना है तो चौथे खंभे को जैसे संभव हो, वश में रखो। यही वजह है कि मीडिया को जनता के मनमस्तिष्क में सेंध मारने वाले सूचना तंत्र के रूप में विकसित किया जा रहा है। दुखद है कि वह इधर घृणा और असहिष्णुता के नग्न प्रचारक के रूप में सामने आया है। वह राजनीति और बहुराष्ट्रीय कंपनियों — दोनों की सेवा में है, बिकने वाले लोकप्रिय कलाकारों की पूरी टीम के साथ। वह लोगों के दिमागी रेजिमेंटेशन के लिए अब उच्च तकनीक और विशेषज्ञों की फौज के साथ है। हिंदी तो उसके लिए खिलवाड़ की चीज है, इसे जितना बिगाड़ो। जीवन के शब्दों को जितना संभव हो अर्थहीन बना दो और लोगों को संवेदना के रेगिस्तान में छोड़ दो। खबरें बेचने के लिए छोटे-बड़े अनगिनत मीडिया काउंटर बने हुए हैं, अपने पैसे दो- अपनी खबरें लो! जिसका खाना, उसका गाना। मीडिया के लिए इस नीतिकथन का अब कोई अर्थ नहीं है, ‘सभी के लिए खुला पर किसी से प्रभावित नहीं’! अब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीनने की जरूरत नहीं है,‘अभिव्यक्ति का प्रबंधन’ काफी है!

पिछले कुछ दशकों से समाज में सार्वभौम पतन के दृश्य हैं, ‘यूनिवर्सल डीजनरेशन’। इसलिए हर तरफ घृणा की रसोई ज्यादा स्वादिष्ट हो गई है। भले इससे सामाजिक समरसता विघटित हो, भेदभाव फैले और भय छाए। घृणा से जन्मी संकीर्णता पेट्रोल की आग की तरह फैलती है। चिंताजनक है कि अब समाचार समाज के आईने नहीं हैं। वे ‘फ्रेम की हुई छवियों’ की तरह होते हैं, ‘मैनुफैक्चर’ किए जाते हैं। वे खबरें नहीं,‘निर्मित खबरें’ हैं। एक तरह से आज का मीडिया बाजार और राजनीति के बीच सैंडविच है। मीडिया निर्मित उत्तेजनात्मक खबरों का मालवाहक बनता जा रहा है। पत्रकार तो बिलकुल असहाय हैहायर एंड फायर!

सोशल मीडिया पांचवें खंभे का आभास देता है, लेकिन इसकी हर ईंट अलग द्वीप की तरह दिखती है। वह एक प्रभावशाली माध्यम बनकर उभरा है, लेकिन  इसमें विद्वेषमूलक छद्म और निर्मित खबरें ज्यादा होती हैं। बिना जांचे चीजें शेयर करना आम प्रवृत्ति है। यहां ‘यूजर’ वस्तुतः ‘यूज्ड’ होता है, वह स्वहीन मालवाहक बन जाता है। सोशल मीडिया में ‘विचार’ की तुलना में ‘फोटो’ की लोकप्रियता अधिक है। यह धीरे-धीरे पढ़ने की संस्कृति नष्ट कर रहा है। अब पांच-दस पंक्तियों से ज्यादा पढ़ना मुश्किल होता है। एक मामला यह भी है कि कोरोना महामारी के दौर में फेसबुक, व्हाट्सऐप, ट्यूटर आदि बहुतों के लिए भरोसा बने हैं। इन डेढ़-दो सालों में इनका बहुत ज्यादा प्रसार हुआ है, एक जरूरी आफत!

क्या अब मान लेना होगा कि मीडिया के इलाके में बौद्धिक पुनर्जागरण असंभव है? क्या अब वह आपस में झगड़े-लड़ाई, आरोप-प्रत्यारोप, पैनेल डिस्कशन में शोरगुल, सूचना प्रदूषण या सूचना अराजकता का मंच होकर रह जाएगा? इसने कई देशों में विचारों की बहुलता को अंध-जातीय दीवारों में बदल दिया है। जो देश सुलग रहे हैं उनमें भारत भी है, जबकि यह मानवता में गहरी जड़ें रखनेवाला देश है। कहा जा सकता है कि पाठकों-दर्शकों में जब तक सच की भूख है और स्वतंत्रता की प्यास है, तब तक आशा है। सत्य मरजीवा होता है, उसे जितनी बार मारो, वह जी उठता है। फिर भी इस प्रश्न का सामना करना होगा, यदि मीडिया में अंधेरा हो, क्या राजनीति में सूर्योदय संभव है?