शंभुनाथ

राम जब वनवास के समय केवट से गंगा पार उतारने के लिए कहते हैं, केवट मना कर देता है।वह संदेह व्यक्त करता है कि राम के पैरों की धूल से कहीं उसकी नाव अहिल्या की तरह स्त्री बन गई तो उसकी जीविका कैसे चलेगी।वह कहता है, भले लक्ष्मण तीर चलाकर मार डालें, वह पैरों से धूल साफ किए बिना राम को नाव पर नहीं बैठाएगा (रामचरितमानस)।इसका अर्थ है, लोक एक आत्मविस्मृत या सपाट चेहरा नहीं है।वह संदेह करता है।वह क्षमता संपन्न और विद्वान नहीं है, लेकिन जानता है कि आजीविका बड़ी चीज है और जो कुछ उसके पास है उसे विनम्रता से बचाना है।लोक निश्चय ही नगर-गांव, मैदान-पहाड़ हर जगह है।

एलीट लोगों की पहली पहचान है कि वे हमेशा अपने को लोक से विशिष्ट समझते हैं।उनमें कुछ अपने को महापुरुष मानकर चल रहे होते हैं।वे अपने विचारों को नीचे साधारण लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं, पर उनकी सामाजिक गतिविधियां ऊपर के लोगों के बीच होती हैं।सभी केटेगरी के एलीट लोग आर्थिक रूप से संपन्न होते हैं।वे आमतौर पर पॉश शिक्षण संस्थाओं से निकले, व्यक्तिवादी रुचि के व्यक्ति होते हैं।उनके पास सुख-सुविधाएं होती हैं, बड़े क्लबों की सदस्यता होती है।उनके आभिजात्य के पीछे सामंतवाद सुरक्षित रहता है।एलीट लोगों में आपसी स्पर्धा हो सकती है, पर वे लेखक, बुद्धिजीवी, व्यापारी, राजनेता जो हों, समान रूप से सत्ता की मानसिकता ढोते हैं।सामान्यतः सोचते हैं कि वे जो जानते हैं, उसके बाहर ज्ञान नहीं है।

वर्तमान दौर में एलीट बुद्धिवादियों का एक बड़ा समूह आत्मनिरीक्षण न करके लोक को ही बेवकूफ, पिछड़ा और बदमिजाज बता रहा है।सामान्यतः वह लोक को दया या हिकारत से देखता है।यह रुख उन संपन्न-शिक्षित लोगों का भी हो सकता है जो अपने को एलीट नहीं मानते।

क्या लोक बोल सकता है?

‘महाभारत’ में शकुंतला-दुष्यंत की कथा कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ से थोड़ी भिन्न है।महाभारत की कथा में स्त्री बोलती है।शकुंतला जब अपने पुत्र को लेकर राजा दुष्यंत के दरबार में पहुंची, दुष्यंत ने कहा, ‘दुष्ट तपस्विनी, मुझे कुछ याद नहीं’ (आदि पर्व)।वह शकुंतला से यह भी कहता है, ‘स्त्रियां झूठ बोलने वाली होती हैं।’ वह उसकी माता मेनका को वेश्या कहता है।शकुंतला जवाब में कहती है, ‘आपके जन्म और कुल से मेरा जन्म और कुल बढ़कर है।… एक हजार अश्वमेध यज्ञों की अपेक्षा सत्य का पलड़ा भारी होता है।… आप जैसों के साथ रहना मेरे लिए उचित नहीं है।’ (वही)।यह एक जमाने के पितृसत्तावादी राजा के विरोध में उस स्त्री का साहस है, जिसे आज ‘सबाल्टर्न’ कहा जाता है। (हालांकि महाभारत में आकाशवाणी के बाद दुष्यंत रास्ते पर आ जाते हैं।) शकुंतला साहसी थी।लेकिन परंपरागत समाज के अधिकांश लोगों को ऐसी स्त्रियां नहीं चाहिए।ज्यादातर शिक्षित नौजवानों के लिए आज भी दुल्हन होनी चाहिए- ‘बी.ए. पास-गृहकार्य में निपुण’!

शूद्रक (छठी सदी) का संस्कृत नाटक है, ‘मृच्छकटिकम्’।यह ‘मिट्टी की गाड़ी’ के नाम से १९७० के दशक में काफी लोकप्रिय हुआ था।इसमें अपनी उदारता की वजह से संपन्न से दरिद्र हो चुके एक ब्राह्मण चारुदत्त की कथा है।आर्थिक दरिद्रता को छठा महापाप बताते हुए इस नाटक में कहा गया है, ‘गरीब की बात बंधु-बांधव भी नहीं सुनते।उसकी विपत्तियां बढ़ जाती हैं, चरित्र और शालीनता फीकी पड़ जाती है।दूसरे का दोष उसपर थोप दिया जाता है।श्रेष्ठ लोग गरीब व्यक्तियों के सान्निध्य से बचते हैं, कोई आदर से बात नहीं करता।उत्सव के मौके पर इनके पास अच्छे कपड़े नहीं होते।ऐसे व्यक्ति श्रेष्ठ जनों के पास से संकोचवश बचकर निकल जाते हैं।’ (वही)।इसका तात्पर्य है, विशिष्ट और लोक की श्रेणियां पहले भी थीं!

लगभग ड़ेढ हजार साल पहले का ‘मृच्छकटिकम्’ एक रोचक पाठ है, जिसमें आज का परिदृश्य भी झलकता है।इसमें चौंकाने वाली बात यह है कि न्याय व्यवस्था का अनावरण है।न्यायाधिकारी अच्छी तरह समझता है कि गरीब चारुदत्त हत्या का दोषी नहीं है, लेकिन उसमें साहस नहीं है कि राजा के प्रिय शकार के झूठे आरोप के विरुद्ध फैसला दे।राजसत्ता न्यायालय को कैसे प्रभावित करती है, इसका अनावरण उपर्युक्त नाटक को खास बना देता है।यह भी स्पष्ट कर देता है कि गरीबी किस तरह ब्राह्मण के भी विशेषाधिकार खत्म कर देती है।नाटक का अंत महत्वपूर्ण है, विविधता भरा लोक अंततः दुष्ट राजा की सत्ता पलट देता है।इसका अर्थ है, लोक में गणतंत्र स्थापित करने की शक्ति है।लोक स्वेच्छाचारी राजसत्ता या ‘राष्ट्र’ के लिए एक सिरदर्द है, क्योंकि उसमें संदेह करने, प्रतिवाद करने और गणतंत्र या राजनीतिक न्याय स्थापित करने की अनंत क्षमता है।

बनते हुए राष्ट्र में लोक

एक बनते हुए राष्ट्र में लोक से बढ़कर दूसरी कोई निधि नहीं है।लोक मानव संसाधन भर नहीं है।वह कौशल और उच्च आशाओं से भरा एक जिंदा संसार है।भारतीय लोक कश्मीर से कन्याकुमारी तक उपस्थित है।उसकी सबसे बड़ी ताकत है उसका विविधता-भरा होना, जिसका वस्तुतः आज भिन्नता के रूप में इस्तेमाल हो रहा है।

‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ के लेखक, एक पुराने आलोचक रामचंद्र शुक्ल के विचार हैं, ‘सच्चा कवि वही है जिसे लोक-हृदय की पहचान हो, जो अनेक विशेषताओं और विचित्रताओं के बीच मनुष्य जाति के सामान्य हृदय को देख सके। (चिंतामणि-१)।वे ‘लोक सामान्य भावभूमि’ की बात करते हैं।वे सामान्यीकरण पर जोर देते हैं, जो औसतीकरण नहीं है।उनकी दृष्टि में दुख-सुख से भरा लोक सबसे पहले मनुष्यजाति है।इसलिए वे हिंदू के हृदय में, राजनेता के हृदय में, ब्राह्मण-क्षत्रिय के हृदय में या बांग्ला-मराठी-तमिल या हिंदी जाति के हृदय में लीन होने की बात नहीं करते।वे लोक हृदय में लीन होने का आह्वान करते हैं।कहने की जरूरत नहीं है कि उनके लोक हृदय का संबंध गोबर और हिजाब की संस्कृति से नहीं है, भले हर व्यक्ति को किसी रूढ़ि को त्यागने या चुनने की स्वतंत्रता समान रूप से है।

देखा जा सकता है कि भारतीय राष्ट्र अधबना है, कई तरह के स्वप्नों की टकराहट लेकर, सांस्कृतिक तनावों से गुजरते हुए अभी वह बनने की प्रकिया में है।आचार्य शुक्ल कहते हैं, ‘देशबद्ध मनुष्यत्व के अनुभव से सच्ची देशभक्ति या देशप्रेम की स्थापना होती है।’ (काव्य में रहस्यवाद)।वे मनुष्यत्व और देशप्रेम में फर्क नहीं करते।

यह एक विडंबना है कि एक बड़ी भारतीय आबादी आज देशबद्ध मनुष्यत्व, लोक सामान्य भावभूमि, समावेशी राष्ट्रीयता जैसी चीजों से विमुख है।कैसा विचित्र संकट है कि उदारवाद एक असुरक्षित जगह हो चुका है।लोग साझी संस्कृति में अपने खो जाने का खतरा देखते हैं।आर्थिक विकास के जिस दौर में भारतीय परंपरा के एक प्रमुख तत्व ‘अ-पर’ के बोध को विस्तृत करने की जरूरत है, मानवतावाद महज परोपकार और खैरात बांटने तक सीमित है।लोग धार्मिक ध्रुवीकरण, जातिवाद और प्रांतीयतावाद के चक्रव्यूह में फँसे हैं।हर तरफ अंधता ही दृष्टि बनी हुई है!

रामचंद्र शुक्ल के बाद हजारी प्रसाद द्विवेदी लोक का अर्थ बताते हैं, ‘‘लोक’ शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है, बल्कि नगरों और गांवों में फैली हुई वह समूची जनता है, जिसके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं हैंं।ये लोग नगर के परिष्कृत रुचि-संपन्न समझे जानेवाले लोगों की अपेक्षा सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं और परिष्कृत रुचिवाले लोगों की विलासिता और सुकुमारता को जिलाए रखने के लिए जो भी वस्तुएं आवश्यक होती हैं, उत्पन्न करते हैं।’ हजारी प्रसाद द्विवेदी का लोक आम कृषक और श्रमजीवी है।वे रामचंद्र शुक्ल की ‘विचित्रताओं’ शब्द को खोलते हैं, लोक को श्रम से जोड़ते हैं।हालांकि अब लोक न पहले के युगों की तरह है और न श्रमिक और उपभोक्ता के बीच अब पहले-सा ज्यादा फर्क है।लोक गंगा में न जाने कितनी गंदी नालियों का पानी गिर रहा है, न जाने कितने शव बह रहे हैं!

नागरिक समाज का क्या हाल है

कई चिंतकों को ‘लोक’ की जगह ‘नागरिक’ शब्द प्रिय है।वे लोक को आत्मअचेत, अपने अधिकारों के ज्ञान से शून्य जनसमूह की शक्ल में देखते हैं, जबकि ‘नागरिक समाज’ को अधिकारों और खासकर व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति सचेत लोगों के रूप में।ऐसे नागरिक समाज के लोग सचेत हों न हों, विकास के सुंदर फल उनके पास होते हैं।लोक को प्रायः छिलका मिलता है।

हमारी सभ्यता कहां खड़ी है, यह इससे पता चल सकता है कि इनमें से किस शब्द को ज्यादा महत्व दिया जा रहा है- ‘मनुष्यजाति’, ‘पब्लिक’, ‘नागरिक समाज’, ‘किस पार्टी का आदमी’!

‘सिविल सोसाइटी’ शब्द शहर के जन आंदोलनों से जन्मा है।एक जमाने में ‘प्रेमाश्रम’, ‘सेवासदन’, ‘महिला एसोसिएशन’ जैसे नागरिक संगठन थे- ये दल से ऊपर थे।मध्यवर्ग के सुविधा-संपन्न लोग तकलीफें उठाकर जनसेवा और सामाजिक जागरण के अलावा शासन से मुठभेड़ करते थे।इन दिनों अनुदान लेकर विभिन्न तरह के लोकोपकार के उद्देश्य से बने नागरिक संगठन ज्यादा हैं जो एनजीओ कहलाते हैं।संपन्न वकीलों, प्रोफेसरों, सोशल एक्टिविस्टों और चिंतकों-लेखकों के ग्रुप हैं, जो ‘सिविल सोसाइटी’ के बौद्धिक चेहरे हैं।ये लुटियन की दिल्ली में ज्यादा सक्रिय देखे जा सकते हैं।एक समय सूचना का अधिकार, खाद्य सुरक्षा, स्त्री-उत्पीड़न के संदर्भ में विशेष कानून आदि नागरिक समाज की ही लिखा-पढ़ी और आंदोलनों की देन रहे हैं।वर्तमान दौर में नागरिक समाज का स्वरूप क्या है, उसका हस्तक्षेप कितना क्षणभंगुर या टिकाऊ है, वह राज्य शक्ति पर कितना असर डाल पा रहा है- यह बहस का विषय है।यह भी देखने की चीज है कि नागरिक समाज आम लोक से कितना जुड़ा है और इसके लिए क्या त्याग कर रहा है।

नागरिक समाज का राष्ट्र-राज्य से संबंध यह प्रश्न उठाने से शुरू होता है कि राष्ट्र-राज्य सामाजिक जीवन को किस हद तक नियंत्रित कर सकता है, राज्य को धर्म, कला-साहित्य और सांस्कृतिक गतिविधियों में कितना दखल देना चाहिए।यदि राज्य का काम आदेश देना और नियंत्रण रखना है तो नागरिकों का काम है अपने बौद्धिक, शैक्षिक और सामाजिक जीवन में बुनियादी स्वतंत्रता की रक्षा करना, न्याय पाने के अपने अधिकार की रक्षा करना और इन सबके साथ अपनी महान सांस्कृतिक विरासत की भी रक्षा करना।

देखा गया है कि दलहित और देशहित के एक हो जाने पर यह स्वतंत्रता लगातार छिनती गई है।न्याय पर आघात हुए हैं।इतिहास और सांस्कृतिक विरासत के दुरुपयोग हुए हैं।इन सबके अलावा इधर मीडिया की स्वायत्तता खरीद ली गई है।ऐसे दमनमूलक परिवेश में जीवन असह्य हो जाता है।नागरिक समाज की हालत यह है कि वह फिलहाल लोक से विच्छिन्न, कलहग्रस्त और असहाय है।

सुदीप्त कविराज सबाल्टर्न इतिहासकार हैं।वे उत्तर-औपनिवेशिक विमर्श के पक्ष में बोलते रहे हैं।सबाल्टर्न इतिहास और उत्तर-औपनिवेशिक विमर्श वस्तुतः खंड की विशिष्टता पर जोर देते हैं, जबकि ‘नागरिक समाज’ की अवधारणा सामान्यीकरण पर आधारित है।सुदीप्त कविराज अपनी धारणाओं में एक मोड़ लाते हैं।वे इन दिनों सकारण नागरिक समाज की बात ज्यादा करने लगे हैं।उन्होंने सुनील खिलनानी के साथ मिलकर एक किताब संपादित की है- ‘सिविल सोसाइटी’!

बुद्धि की मुक्तावस्था की देन है राष्ट्रकी साझी सोच

वस्तुतः लोक और नागरिक में फर्क नहीं है, यदि नागरिक एलीट मिजाजी नहीं है।नागरिकों के बीच बहुस्वरता स्वाभाविक है, ग्रुपों में टकराव स्वाभाविक है।लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि एक साझी सोच कई ऐतिहासिक मौकों पर बनी है, जैसे सुधार आंदोलन, स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में या आपातकाल के दौर में।यह चिंताजनक है कि उस तरह की साझी सोच अभी नदारद है।

साझी सोच का पुनर्निर्माण बुद्धि की मुक्तावस्था की देन है। ‘राष्ट्र’ की साझी सोच तब तक संभव नहीं है, जब तक बुद्धि रूढ़ियों से जकड़ी है, वह स्वार्थपरता के अधीन है।

कई बार नागरिक समाज के नाम पर वस्तुतः जो सामने आता है, वह कोई पेशेवर एनजीओ होता है या आत्मविमुग्ध, बंद दिमाग का एलीट वर्ग।वह नागरिक समाज को एक प्रतिष्ठासूचक जगह बनाकर रखता है।नागरिक समाज के अधिकांश प्रवक्ता अपने को उद्धारक, मुक्तिदूत और दृष्टिदाता ज्ञानी के रूप में पेश करते हैं।वे मीडिया में चुनिंदा व्यक्तियों के बयान निकालते रहते हैं, फिर सो जाते हैं या इंस्टाग्राम, फेसबुक, ट्यूटर, व्हाट्सऐप में पड़े रहते हैं।वे नहीं सोचते कि लोक की परंपराओं से भी कुछ सीखा जा सकता है।

आश्चर्य नहीं है, यदि एलीट नागरिक समाज और लोक फिलहाल आमने-सामने हैं और एलीट को लोक ने कोने में कर दिया है।इसके अलावा, लोक को उसकी उच्च प्राचीन तथा आधुनिक परंपराओं से विच्छिन्न करके ‘प्रिमिटिविज्म’ की तरफ ठेल दिया गया है।अब कूपमंडूकता को ही संस्कृति माना जा रहा है।दरअसल दोनों तरफ अंधेरा है।

सवाल है, क्या हमारे देश में बुद्धि की मुक्तावस्था पर आधारित और स्वार्थपरता से मुक्त नागरिक समाज बन पा रहा है? निःसंदेह ‘बुद्धिजीवी’ और ‘नागरिक समाज’ दोनों जरूरी शब्द हैं, महत्वपूर्ण धारणाएं हैं और देश की जरूरत हैं।इन दिनों दोनों को उपहास का पात्र बनाया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है।लेकिन इसके लिए काफी जिम्मेदार चुप्पियां चुनने वाले और सुविधावाद की राह पकड़ लेने वाले खुद ये लोग ही हैं।

भक्ति आंदोलन के दौर में जातिभेद और समुदायवाद से ऊपर उठकर एक उदार लोकवृत्त बन रहा था।१९वीं सदी और २०वीं सदी के पूर्वार्ध के आंदोलनों, गरमागरम बहसों, पत्र-पत्रिकाओं और पाठकों के बीच से भी एक बृहत्तर नागरिक समाज अस्तित्व में आया था।वह उदार, प्रबुद्ध और त्याग भावना से भरा था।कई सभाओं-समितियों के जरिए ‘अन-अन्य’, ‘अ-भिन्न’ का बोध निर्मित हो रहा था।यह चिंताजनक है कि आज ‘नागरिक समाज’ वस्तुतः एलीट-केंद्रिक है।बुद्धिधर्मी अपने-अपने में डूबे हैं और लोक से विच्छिन्न होते जा रहे हैं।

आज हर व्यक्ति असुरक्षित है

लोक कैसा है? क्या उसकी पुरानी सरलता, अकृत्रिमता और शांतिप्रियता बची है? सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि लोक का संदेह, प्रतिवाद और राजसत्ता से सरोकार आज किस मोड़ पर खड़ा है।लोकतंत्र ‘चुनाव के गणित’ और ‘मत-प्रबंधन’ में कितना खो चुका है तथा कितना बचा है? ये सवाल उद्वेलित करते हैं, क्योंकि आज का लोक वस्तुतः आर्थिक रूप से लगातार बदहाल हो रहा है।लोग बेरोजगार हैं या अर्ध-बेरोजगार होते जा रहे हैं।कुपोषण बढ़ रहा है।ज्यादातर लोग मुश्किल से उस दिन फल खा पाते हैं, जिस दिन कोई पूजा होती है।गरीबी और विस्थापन झेल रहे लोगों को इस समय भीषण अभाव, परस्पर अविश्वास और हिंसा के माहौल में जीना पड़ रहा है।यह कम चिंता का विषय नहीं है कि आम लोक में जो आत्मसम्मान-बोध रहा है, वह खैरात के लिए खड़ा करके मिटा दिया जा रहा है।

दूसरी तरफ, धार्मिक, जातिवादी और प्रांतीयतावादी भेदभाव की वजह से सबकुछ खंड-खंड है।इस परिदृश्य में देखा जा सकता है कि वीआइपी सुरक्षा पाए बड़े सेलेब्रिटी को छोड़कर बाकी सभी लोग बुरी तरह से असुरक्षित हैं, अपने-अपने इलाके के अपराधी-नेता की दया पर निर्भर हैं।आम लोग मिलकर अपनी तकलीफें कह सकें या प्रतिवाद कर सकें, इसके लिए उनके पास कोई ढांचा नहीं है।उनकी विविधता वस्तुतः हिंसक भिन्नता में बदल दी गई है।विविधिता ‘हम-वे’, ‘मोर-तोर’ और ‘दूसरे’ में विभाजित है।फलस्वरूप आम लोग रोज छोटे-छोटे अपमान सहते हुए अपने को असहाय महसूस करते हैं।

लोक की अपनी उदार सांस्कृतिक जड़ें हैं

भारतीय संस्कृति सिर्फ वेद-पुराण में नहीं है।यह रामायण और महाभारत की लोककथाओं में, लोकभाषा से जुड़े भक्त कवियों की रचनाओं तथा लोकगीतों और कथाओं में भी है।इस देश में बसवण्णा, ललद्दद, तुकाराम, कबीर, सूर, मीरा, तुलसी, जायसी आदि भक्तों ने विपुल साहित्य लिखा है।उनके प्रेम और ज्ञान की वाणी में पढ़ा जा सकता है कि लोक क्या चाहता रहा है, उसकी संस्कृति क्या है।जब कबीर बोलते हैं ‘कहे कबीर सुनो भाई साधो’ तो वे साफ कर देते हैं कि एक समय लोक में न सिर्फ बोलने का साहस था, बल्कि सुनने वालों का एक उदार लोकवृत्त बन रहा था।

शास्त्र एक सीमित शिक्षित वर्ग में सीमित रह जाते होंगे, लेकिन महान संदेश वाली पुराकथाओं ने देश में भाषाओं की बाउंडरी तोड़ दी, एक हद तक काल की भी।कृष्ण से जुड़ी सारी कथाओं को पछाड़ कर राधा-कृष्ण की मनोहर युगल मूर्ति लोकप्रिय हुई।उनकी प्रेम भावना और बांसुरी लोक आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करती है।प्राचीन काल के ऐसे न जाने कितने उदात्त बिंबों में आज के लोक की सांस्कृतिक जड़ें हैं।

ए.के.रामानुजन ने लिखा है, ‘हर कोई चाहे वह गरीब हो या अमीर, सवर्ण हो या शूद्र, प्रोफेसर हो या पंडित या अज्ञानी, इंजीनियर हो या फेरीवाला-अपने भीतर एक निरक्षर उपमहाद्वीप लिए हुए होता है।’ (भारत की लोककथाएं)।निरक्षर उपमहाद्वीप का अर्थ है शास्त्रों के समानांतर लोकज्ञान का उपमहाद्वीप!

यहां संकेत देना उचित है कि 1930 में यूरोपकेंद्रित सोच के बुद्धिजीवी राबर्ट रेडफील्ड ने सबसे पहले ‘ग्रेट ट्रेडीशन- लिटिल ट्रेडीशन’ की धारणा दी थी।यह एक षड्यंत्रकारी औपनिवेशिक विभाजन था।इसमें वैदिक साहित्य, रामायण-महाभारत और अन्य क्लासिकल ग्रंथों को ‘ग्रेट ट्रेडीशन’ में रखा गया था।भक्ति साहित्य को, लोक परंपराओं के साहित्य को ‘लिटिल ट्रेडीशन’ में रखा जाने लगा था।इस विभाजन में ‘लिटिल ट्रेडीशन’ इस तरह कहा गया, मानो लोक ज्ञान, लोक साहित्य महान नहीं हो सकता।वह अन्य परंपराओं से इंटरैक्ट नहीं कर सकता! ए.के.रामानुजन ने रेडफील्ड के ही असर में लोकज्ञान को महाद्वीप न कहकर उपमहाद्वीप कहा था।

आज भी यह गलत विभाजन कई तरह से फैशन में है- ‘राष्ट्र और खंडित सबाल्टर्न’, ‘मुख्य धारा-उपधारा’,‘मेनलैंड-सब कल्चर’ ‘हम और वे’, ‘बाहरी और भीतरी’! इस तरह के विभाजन महसूस होने नहीं देते कि अंतर्विरोधों के बावजूद भारत एक ‘साझी संस्कृति-साझा जीवन’ वाला देश है और भारत के लोग आमतौर पर शांतिप्रिय तथा उदार सांस्कृतिक जड़ों वाले हैं।दरअसल कई बार भरी नदी में नाव जलने लगती है!

हम ग्लोबल हैं, हमारा कोई देश नहीं

एक समय कई व्यक्ति विश्व नागरिक, विश्व सरकार की बात करते थे, जैसे एच.जी.वेल्स, रूजवेल्ट, गारी डेविस, एक हद तक बर्टेंड रसेल जैसे पश्चिमी बुद्धिजीवी और समाजवादी राम मनोहर लोहिया।दूसरे विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ भर बन पाया, जो बार-बार कमजोर साबित हुआ।

इस तथ्य की तरफ ध्यान जाना चाहिए कि दुनिया के सर्वहारा एक न हो सके, लेकिन दुनिया के व्यापारी एक हो गए।बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लाइन लग गई।विश्व बाजार बन गया।तकनीकी क्रांति ने यह कर दिया कि अब करोड़ों एलीट लोग प्रायः भूल चुके हैं कि वे किस देश के हैं।उनकी सोच में सिर्फ यह है कि उनके लिए क्या फायदेमंद है।वे वस्तुतः पैसे के हैं, मुनाफा के हैं, किसी खास देश  या संस्कृति के नहीं।भारत छोड़ चुके या भारत में रहने वाले अब लाखों लोग ऐसे हैं जो अपने को ग्लोबल समझते हैं।उनका इस देश के आम लोगों से कोई लगाव नहीं है।उन्हें लोगों की कोई परवाह भी नहीं है।वे अपनी मातृभाषा भूल चुके हैं।लोेक अपनी मातृभाषा से प्रेम करता है, दूसरों की भाषा को आदर देता है और सामान्यतः अपनी समावेशी संस्कृति के प्रति आस्था रखता आया है।

एक विश्व प्रसिद्ध बुद्धिजीवी गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक से किसी ने पूछा, आपकी जड़ें कहां हैं? उन्होंने जवाब दिया, क्या मैं पेड़ हूँ कि मेरी जड़ें होंगी! हालांकि अमेरिका में बसे होने के बावजूद उन्होंने पश्चिम बंगाल और झारखंड में पांच स्कूल खोल रखे हैं! वे जब भी कोलकाता आती हैं, इन स्कूलों में जाती हैं, वहां पढ़ाती भी हैं।उनकी चिंता ‘सबाल्टर्न’ को लेकर है, अर्थात उन वंचित वर्गों के प्रति जो इतिहास के सीमांत पर हैं।

सबाल्टर्नवादियों की दृष्टि में लोक

लोक की धारणा में पिछले कुछ दशकों से नई-नई धारणाएं घुसी हैं।इटली के ग्राम्शी ने इतिहास के सीमांत पर रहने वाले लोगों को ‘सबाल्टर्न’ कहा था।सबाल्टर्न से अभिप्राय है कृषक, स्त्री, आदिवासी, दलित, पिछड़ा जैसे वंचित समुदाय।इस धारणा में सभी सबाल्टर्न खंड-खंड हैं।रणजीत गुहा, पार्थ चटर्जी जैसे समाजविज्ञानियों ने सबाल्टर्न को मिशेल फूको के सत्ता सिद्धांत से हाइब्रीड करके दक्षिण एशियाई देशों के एकेडेमिक संसार में  लोकप्रिय बना दिया।लगता है, ‘सबाल्टर्न’ अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी, आस्ट्रेलिया में नहीं हैं।वे सिर्फ दक्षिण एशिया में हैं।यह सिद्धांत भारत के लिए सबसे ज्यादा है! पिछली पौर्वात्यवादी दृष्टियों की कतार में भारत को समझने की एक और दृष्टि शामिल हुई।सबाल्टर्नवाद ने भारत को थोड़ा खोला-ज्यादा ढका।

भारत के एकेडेमिक संसार में सबाल्टर्नवाद ने विद्वता के शार्टकट बनाए।इसने पिछले चार दशकों से शैक्षिक-साहित्यिक मेधा को अपने कब्जे में ले रखा है।समाज में पिट चुकने के बावजूद विश्वविद्यालयों में विभाजित सामुदायिक कोण से फास्ट फूड की तरह, हजारों की संख्या में पीएच.डी. शोध हो रहे हैं।पेड़ के एक-एक पत्ते को उलटा-पलटा जा रहा है, पेड़ के संसार को भूलकर!

1982 में रणजीत गुहा द्वारा ‘सबाल्टर्न हिस्ट्री’ के प्रकाशन के बाद गायत्री चक्रवर्ती  स्पीवाक ने 1988 में अपनी चर्चित किताब लिखी थी, ‘कैन द सबाल्टर्न स्पीक?’ बातचीत करना नहीं, बोलना! गौर करने की बात है कि इस किताब की स्थापनाओं के पास वे  झूला डालकर बैठ नहीं गईं।वे बुद्धि की मुक्तावस्था के कारण आगे बढ़कर सोचती हैं।उनके एक भाषण से उनकी नई चिंताओं को समझा जा सकता है।यहां कह देना चाहिए कि बुद्धि की मुक्तावस्था भारत में फिर से आकार लेने लगी है।वे जो मतांध अतीतजीवी और सिद्धांतजीवी नहीं हैं, वे घेरेबंदी से बाहर आ रहे हैं।वे सिद्धांत कैदी न रहकर 21वीं सदी में मनुष्य को फिर से समझना चाहते हैं।

स्पीवाक स्वानुभववाद पर टिप्पणी करती हैं, ‘यह एक मध्यवर्गीय धारणा है कि वे अपनी बात खुद कहेंगे।आंदोलनों के भीतर से जो धनसंपन्न होते जा रहे हैं, ऊपर की श्रेणी की ओर उठते जा रहे हैं, वे ही ऐसी बातें करते हैं।’ (बांग्ला में छपी पुस्तक ‘अपरा’, 2022)।वे इस तरह के सवाल उठाती हैं, ‘दूसरे की बात कौन करेगा, ‘अ-पर’ का बोध कैसे जगेगा?’ ‘अपर’ एक अच्छा शब्द है।हमें एक नया संसार चाहिए, जिसमें कोई ‘पर’ न हो, कोई दूसरा न हो!

सबाल्टर्न इतिहास के खंड-खंड रूप के साथ स्पीवाक नीचे से सामान्यीकरण का सवाल उठाती हैं।यह एलीटवादी नागरिक समाज की रचना प्रक्रिया से भिन्न है।संस्कृत में अभिनवगुप्त और हिंदी में रामचंद्र शुक्ल ने सामान्यीकरण का मुद्दा उठाया था।रामचंद्र शुक्ल ने कहा था -लोक सामान्य भावभूमि!

स्पीवाक कहती हैं, ‘हम लोग सामान्यीकरण करेंगे, इसकी जरूरत है।अभिनवगुप्त हमारी जरूरत हैं।इसकी चिंता किए बिना राजनीति नहीं की जा सकती, शिक्षा नहीं दी जा सकती, जीवन यापन भी मुश्किल है।… रूस, चीन जैसे बड़े-बड़े क्रांतिकारी देश क्यों गिर गए! वे सब अकेले-अकेले थे, सामूहिकता की चिंता किसी ने नहीं की।… (उसी तरह) सभी सबाल्टर्न समूह इतिहास के सीमांत पर हैं, उनके बीच सामान्यीकरण नहीं हो पा रहा है।इन लोगों में आज भी कई ऐसे हैं जो अपने देश का नाम भर सिर्फ इसलिए जानते हैं कि उनहें पढ़ाया गया है।… उनमें से कई ने ट्रेन नहीं देखी है।… कई व्यक्ति चूहे के बिल से खोद कर संचित खाद्यान्न निकालते हैं और तब थोड़ी भूख मिटती है।’ (वही)।

जमीन से सामान्यीकरण का अर्थ है- ‘दीवारों को तोड़ते हुए विमर्शों के बीच पुल, एक ऐसा राष्ट्रीय पुनर्जागरण, जो बुद्धि की मुक्तावस्था और मानवीय, संवेदनशीलता के विस्तार के बिना संभव नहीं है।

स्पीवाक एक विडंबना की ओर संकेत करती हैं कि एक तरफ विपत्तियों से घिरे लोग हैं और दूसरी तरफ हैं ‘ऊँचे तबकों में विचरण करते बुद्धिजीवी’! उल्लेखनीय है कि भारत के सभी सबाल्टर्नवादी या उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धांतकर्ता भारत से जाकर विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ाते रहे हैं।वे नेताओं की तरह वंचितों की चिंता करते हुए हमेशा सुख में रहे हैं।वे अंग्रेजी में लिखते रहे हैं, जिसे ‘सबाल्टर्न’ नहीं समझता! सामान्यतः एक तरफ एलीट के मगरमच्छ के आंसू हैं।दूसरी तरफ ‘प्रिमिटिविज्म’ के ऑक्टोपास से जकड़ा लोक है।लोक को नया संसार चाहिए, पर उसकी नाव के पास इस बार अमेजन का सीईओ खड़ा है!