शंभुनाथ

‘‘शिक्षा से अधिक शील को महत्व दें। साथ ही, अपनी शिक्षा का प्रयोग दीन-दुखी जनता के उद्धार के लिए न करके यदि केवल ‘अपनी नौकरी भली-अपना परिवार भला’ की भावना के साथ करेंगे तो समाज को आपकी शिक्षा से लाभ ही क्या?’’ अंबेडकर

1933 में ‘हंस’ के एक मुखपृष्ठ पर अंबेडकर की तस्वीर देकर प्रेमचंद ने  टिप्पणी की थी, ‘आपने अनेक कष्ट झेलकर तथा सतत प्रयत्नशील रहकर बाधाओं पर विजय प्राप्त की थी और अपनी विद्वता से यह प्रमाणित कर दिया कि तथाकथित अछूतों को भगवान ने किसी असामान्य तत्व से नहीं बनाया। आप विश्वविख्यात महापुरुषों में से एक हैं।’ यह राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के समर्थक एक महान हिंदी कथाकार का अंबेडकर के प्रति सम्मान है। यह अंबेडकर के विचारों की व्यापक स्वीकृति का भी उदाहरण है। प्रेमचंद मानते थे कि राष्ट्रवाद की परियोजना सामाजिक क्रांति के बिना अधूरी है। उन्हें राष्ट्र और हाशिए के बीच संवाद जरूरी लगा था, खुद उनका लेखन यही था।

अंबेडकर (1891-1965) ने एक जगह अपने बारे में लिखा है, ‘मैं एक महाड़ महिला के पेट से पैदा हुआ हूँ। गरीबी के बारे में कहूं तो आज जो गरीबों में गरीब छात्र हैं, उनसे अलग स्थिति मेरी नहीं थी।… बंबई में डेवलपमेंट डिपार्टमेंट की एक चाल के दस बाय दस के कमरे में माता-पिता और भाई-बहनों के साथ रहकर एक पैसे के मिट्टी के तेल के दिये की रोशनी में मैंने पढ़ाई की है।’ (बाबासाहेब अंबेडकर का संपूर्ण वाङ्मय, खंड 39, 1938 का एक भाषण) उन्होंने शुरू में छोटी-मोटी नौकरियां कीं, अपमान सहे, फिर बड़ौदा नरेश के सहयोग से उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका और इंग्लैंड गए। उन्होंने लौटकर फुले, अय्यनकलि, पेरियार रामास्वामी आदि के आंदोलनों की परंपरा में दलित आंदोलन की एक संगठित वैचारिक जमीन तैयार की।

जाति का विनाश

अंबेडकर के नेतृत्व में महाड़ आंदोलन (1927) ने महाराष्ट्र में पहली बार  दलितों को संगठित संघर्ष का रास्ता दिखाया था। उन्होंने चवदार तालाब से पानी लेकर विषमतापूर्ण जाति व्यवस्था को चुनौती दी थी। 20वीं सदी में शिक्षित दलित अब राष्ट्रवाद के प्रतीक्षालय में बैठे रहने और ‘साम्राज्यवाद-विरोधी लड़ाई खत्म होने तक अपने दुखों को सीने से लगाए रखकर मुसीबतों को सहते रहने’ के लिए तैयार नहीं थे। अंबेडकर को शिक्षित होने के बावजूद अपने व्यक्तिगत जीवन में छुआछूत की कड़वी पीड़ा सहनी पड़ी थी।

वे सुधार को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखते हुए कहते हैं, ‘सत्य यह है कि सामाजिक सुधार के बिना सच्ची राष्ट्रीयता का उदय संभव नहीं है।’ (जाति का विनाश)। उन्होंने वर्ण व्यवस्था को श्रम व्यवस्था मानने से इनकार कर दिया। उनके संपूर्ण जीवन की केंद्रीय चिंता जाति का विनाश है। यह नवजागरणकालीन सामाजिक सुधार को सामाजिक क्रांति के स्तर पर ले जाना है। उन्होंने अपना मशहूर लेख ‘जाति का विनाश’ आर्य समाज से जुड़े ‘जाति पांति तोड़क मंडल’ के लाहौर अधिवेशन में पढ़ने के लिए लिखा था, लेकिन इसकी अंतर्वस्तु की विद्रोहात्मकता को देखकर मंडल ने अपना आमंत्रण वापस ले लिया था।

विडंबना का वर्तमान

देखा जा सकता है कि 20वीं सदी के अंतिम दो दशकों से बी.आर.अंबेडकर की राजनीतिक स्वीकृति तेजी से बढ़ी है और सर्वव्यापी हुई है। संविधान बनने के समय अंबेडकर जब हिंदू कोड बिल का सुधार करके हिंदुओं के अंतरजातीय विवाह, स्त्रियों के पति से संबंधविच्छेद के समान अधिकार और संपत्ति में स्त्रियों के अधिकार को कानून बना रहे थे, धार्मिक कट्टरवादियों ने उस समय प्रचंड विरोध किया था। उनकी परंपरा में पले-बढ़े लोग आज अंबेडकर पर फूलमालाएं चढ़ा रहे हैं। अंबेडकर इसलिए भी कइयों को अचानक अनुकूल लगने लगे कि उन्होंने अपने सेकुलर रुझान के कारण समान नागरिक कानून का समर्थन किया था।

कहना मुश्किल है कि इधर अंबेडकर के सबके लिए श्रद्धेय होने को एक नई संभावना के रूप में देखा जाए या विडंबना के रूप में। अंबेडकर का सर्वस्वीकृत हो उठने का निश्चय ही यह अर्थ नहीं है कि अब जाति का विनाश या सामाजिक क्रांति नजदीक है, क्योंकि यह तो दरअसल अब पहले से ज्यादा कठिन है। यह भी चिंताजनक है कि अंबेडकर के विभिन्न वैचारिक पहलुओं को सामने लाने की उत्सुकता अब बहुत कम बची है। वे एक ‘चिह्न’ या पूजा की वस्तु बना दिए गए हैं।

अंबेडकर के व्यक्तित्व और सोच का निर्माण एक जटिल समय में हुआ था। वे दलित आंदोलन और जाति उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई के एक प्रभावशाली प्रतीक हैं। इसलिए वैश्वीकरण और निजीकरण के दौर में उनके विचारों को ‘अस्मिता की राजनीति’ से एक अधिक बड़े रैशनल परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत महसूस हो सकती है, क्योंकि उदारीकरण के जमाने में ही मानवजाति अनुदारता के एक भीषण मोड़ पर खड़ी है।

अस्मिता की राजनीति की खूबी है कि यह एक स्थिर निशाना और स्थिर पहचान देती है, साथ ही पहचान का एक एलीट वृत्त बना लेती है। अस्मितावाद एक खास वर्चस्व को छोड़कर दूसरी समस्याओं की ओर देखने नहीं देता। यह किसी भी अभाव, वंचना और पीड़ा का वास्तविक समाधान नहीं है, यह आज से पहले कभी इतना स्पष्ट नहीं हुआ था। इसने व्यक्तिगत रूप से कुछ को सीढ़ी जरूर दे दी, पर समाज ऊपर नहीं उठा। इसने सिर्फ आत्मतुष्ट मध्यवर्ग का दायरा थोड़ा बढ़ा दिया, ‘मैं सुखी तो जग सुखी!’

अंबेडकर का आंदोलन अस्मिता की राजनीति की जगह दलितों के अधिकारों का आंदोलन था। आज उसे कई बार ‘अस्मिता की राजनीति’ में सीमाबद्ध कर दिया जाता है और नहीं देखा जाता कि यदि कुछ गिने-चुने समर्थ व्यक्तियों को सीढ़ी मिली भी तो भूमंडलीकरण के युग में अधिकांश लोगों को सांप मिले हैं। इन सापों ने बहुत से लोगों को वस्तुतः नीचे सरका दिया है। साधारण मध्यवर्ग बुरे हाल में है। अस्मिता की राजनीति को सीढ़ी-सांप के खेल के संदर्भ में समझने की जरूरत है।

धर्म, नैतिकता और जातीयता के सवाल

अंबेडकर धर्म को भेदभाव, पाखंड तथा हिंसा से मुक्त एक उच्च जमीन पर देखते हैं। वे कहते हैं, ‘आजकल के युवाओं में धर्म के प्रति उदासीनता है।’ आगे यह भी कहते हैं, ‘धर्म अफीम है। लेकिन मुझमें जो भी अच्छी बातें हैं और मेरी शिक्षा का जनता के लिए जो उपयोग हुआ है, वह सब मेरे अंदर बसी धार्मिक भावना के कारण ही हुआ है। मैं धर्म चाहता हूँ, धर्म का ढोंग नहीं चाहता।’ (वही, खंड 39, 1938 का भाषण)। वे हिंदू धर्म को नरक इसलिए कहते थे कि यह ढोंग से भर गया था। यह इसका भी संकेत है, नवजागरण में धर्म की भूमिका अंबेडकर के समय तक बनी हुई थी, भले वे बौद्ध मन के व्यक्तित्व थे। उन्होंने विद्यार्थियों और युवाओं के चरित्र में पांच गुण देखने चाहे थे- विद्या, बुद्धि (अंधविश्वासों को समझनेवाली प्रज्ञा), करुणा, शील और मैत्री। वे बुद्ध, कबीर और फुले को अपना गुरु मानते थे। इसपर सोचने की जरूरत है कि आगे चलकर दलित आंदोलन ने उपर्युक्त जरूरी गुणों और उन महान व्यक्तियों के जीवन आदर्शों पर कितना जोर दिया।

अंबेडकर शिक्षा का महत्व बताते हुए साफ कर देते हैं, ‘शिक्षा से जातिवाद नष्ट हो जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।’ (वही, खंड-40, 1956 का भाषण)। वे कहते हैं, ‘‘शिक्षा से अधिक शील को महत्व दें। साथ ही, अपनी शिक्षा का प्रयोग दीन-दुखी जनता के उद्धार के लिए न करके यदि केवल ‘अपनी नौकरी भली-अपना परिवार भला’ की भावना के साथ करेंगे तो समाज को आपकी शिक्षा से लाभ ही क्या?’’ (वही, खंड-39, 1938)। जाहिर है, वे दलित आंदोलन में ज्योतिबा फुले के ‘सत्य मार्ग’ की जरूरत नए ढंग से बता रहे थे। उनका मानना था, ‘शील और सौजन्य के अभाव में शिक्षित व्यक्ति हिंस्र पशु से भी क्रूर और डरावना होता है।’ (वही)। निश्चय ही वे यह बात सिर्फ ब्राह्मणों के संदर्भ में नहीं कह रहे होंगे।

नवजागरण का एक लक्षण है ज्ञान को महत्व देना, यह बात अंबेडकर में है। वे कहते हैं, ‘उपाधियां ज्ञान नहीं होतीं। विश्वविद्यालय की उपाधियों और बुद्धिमत्ता का कोई आपसी ताल्लुक नहीं है।’ (वही)। उनके ज्ञान का अर्थ व्यापक है।

अंबेडकर नवजागरण काल के व्यक्तियों की तारीफ में एक भाषण में कहते हैं, ‘पहले हिंदुस्तान के राजनीतिक नेतृत्व की धुरी दादाभाई, रानाडे, तिलक, आगरकर, गोखले, फिरोजशाह मेहता, सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे व्यक्तियों के हाथों में था। वे सब पुराने नेता अच्छे कपड़े पहनते थे और पढ़ाई के बाद ही बोला करते थे। आज यह रिवाज बदल चुका है।’ (वही, 1939) उपर्युक्त सूची में तिलक का नाम बहुतों को विस्मय में डाल सकता है। बल्कि अंबेडकर तिलक के संबंध में कहते हैं, ‘कारावास के असल दुख और क्लेश तो तिलक ने भोगे।… कारावास के उनके अनुभवों को देखकर आंखों से आंसुओं की जगह खून की बूंदें रिस सकती हैं।’ (वही)। महाराष्ट्र नवजागरण के व्यक्तित्वों के योगदान को समझने और मान्यता देने में अंबेडकर ने जरा भी बौद्धिक दकियानूसीपन का परिचय नहीं दिया और न ही आज के कई बुद्धिजीवियों की तरह उच्छेदवादी नजरिया अपनाया।

अंबेडकर का नवजागरण से संपर्क बुद्धिवाद की तरफ उनके झुकाव की वजह से स्पष्ट है, ‘हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन की बुनियाद बुद्धिवाद होनी चाहिए।’ (वही, 1944)। वे चाहते थे, लोग ‘बुद्धि की कसौटी पर खरी न उतरनेवाली बातों को न मानें।’ (वही)। मनुष्य का बौद्धिक विकास वस्तुतः अवधारणाओं के संकट से मुक्त करता है और अवधारणाओं में विकास लाता है।

गौर करने की बात है, अंबेडकर ने मद्रास प्रांत में दलितों की जस्टिस पार्टी की यह कहकर आलोचना की थी, ‘ नौकरी पर लगे अ-ब्राह्मण लोग समाज से अलिप्त रहकर ऐशोआराम का जीवन बिताने लगे। ब्राह्मणों को गालियां देनेवाले ब्राह्मणेतर लोग फिर ब्राह्मणों की तरह ही सेंट लगाने, पूजा करने, अच्छे कपड़े पहनने आदि ब्राह्मणों के आचार-विचार अपनाने लगे।… ब्राह्मणवाद उसी प्रकार जिंदा रहा।’ (वही, 1944)। कहना न होगा कि 21वीं सदी में सत्ता-संपन्न ब्राह्मणेतरों द्वारा यह घटना उत्तर प्रदेश में दुहराई गई। आज बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, लेकिन  मामूली सत्ता मिलते ही छोटे-छोटे स्वार्थ में लिप्त हो जाना आम बात है। दरअसल धीरे-धीरे ‘सुधारों’ को पीछे छोड़कर ‘अधिकारों’ की बात ही बची रह गई।

दलित होने का अर्थ पहचान की एकरूपता नहीं है। दलित की एक स्थानीय राष्ट्रीय पहचान भी हो सकती है। वह अपनी भारतीय, ग्लोबल और नई पेशागत पहचान भी रख सकता है, यहां उसकी भूमिका विस्तृत हो जाती है। अंबेडकर अपनी मराठी जातीयता का उद्घोष करते हैं, ‘अपने महाराष्ट्रीय होने का मुझे बेहद गर्व है, यह बात मैं यहां विशेष जोर देकर बताना चाहता हूँ। महराष्ट्रीयों में कुछ ऐसे गुण हैं जो अन्य प्रांत के लोगों में आपको दिखाई न देंगे।’ (वही, 1938)। हिंदी क्षेत्र में इस तरह का जातीय बोध नहीं पनप सका।

साम्राज्यवाद के बारे में

अंबेडकर कहते थे, ‘साम्राज्यवाद हटे, यह मेरी इच्छा है।’ वे ‘जिम्मेदार स्वराज’ और ‘जिम्मेदार राजनीतिक सत्ता’ की धारणाओं के साथ यह सवाल उठाते हैं-‘अस्पृश्य बंधु, मजदूर और किसानों के बीच रिश्ते कैसे ठीक किए जा सकते हैं?’ (वही)। उनकी चिंता के केंद्र में अस्पृश्यों को शामिल करते हुए एक बड़ा मेहनतकश वर्ग है। निःसंदेह वे अस्पृश्यता से जन्मी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को लेकर सबसे अधिक मुखर थे। शूद्रों और अंत्यजों के भीतर भी अस्पृश्यता सहित जाति भेदभाव के विभिन्न रूप मौजूद थे। इस मामले को लेकर भी उनमें चिंता थी। उनके सामने ही महाड़ और चमार के भेद सामने आ गए थे। दरअसल उन्होंने धर्मांतरण का समर्थन इसलिए भी किया था कि ‘धर्म बदलेंगे तो कम से कम महाड़, मांग, चमार आदि नाम तो हमसे चिपकेगा नहीं!’ (वही, 1939)। वे सही कहते थे कि भारतीय समाज के अभिशाप- जाति के संपूर्ण विनाश की बुनियाद पर ही एक ‘जिम्मेदार स्वराज’ बन सकता है और लोकतंत्र आ सकता है।

अंबेडकर ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ न कभी आवाज उठाई और न वे कभी जेल गए। वे खुद बताते हैं कि किस तरह यह दलितों की राजनीतिक उन्नति के लिए उनकी एक रणनीति है, ‘कोई भले चाहे जितना बलवान क्यों न हो, दुश्मन पर चौतरफा हमला नहीं कर सकता। मैंने भी हमेशा एक-एक दुश्मन पर हमला कर उसे नियंत्रण में लाने की कोशिश की है। लेकिन आज तक मैंने जिस (ब्रिटिश) सरकार के साथ पूरी ईमानदारी बरती, वही आज हमारे खिलाफ हो गई है! इस देश में अंग्रेजों का राज्य हम ले आए हैं, यह ऐतिहासिक सत्य है। अंग्रेजों के पक्ष में खून बहाकर हमने पेशवा युग को समाप्त किया।… निर्णायक लड़ाई में अंग्रेजों की जीत केवल महाड़ वीरों की वीरता के कारण हुई। कोरेगांव में खड़ा विजयस्तंभ इसकी गवाही देता है।’ (वही, 1941)। ब्रिटिश साम्राज्यवाद सिर्फ अपने औपनिवेशिक हित को प्रधान मानता है, यह अंबेडकर को तब समझ में आया, जब उसके अत्याचार के दायरे में मुंबई के महाड़, मांग, बेठिया जाति के लोग प्रत्यक्ष रूप से आ गए। उन्होंने  घोषणा की, ‘आज तक मैं हिंदू धर्म और हिंदू समाज पर हमले करता आया हूँ, लेकिन अब… मैं उससे सौ गुना तेज हल्ला (ब्रिटिश) सरकार पर बोलूंगा।’ (वही, 1941)। स्पष्ट है कि वे आगे चलकर अंग्रेजों का साथ देने की घटना को महिमामंडित नहीं करते।

लेपेल ग्रिफिन (1838-1908) जैसे ब्रिटिश प्रशासक और कूटनीतिज्ञ की समझ यह थी कि भारत में राष्ट्रीय विद्रोह को फैलने से रोकने के लिए जाति प्रथा एक अच्छी चीज है, क्योंकि जाति प्रथा समाज को हमेशा विभाजित रखेगी और इसके आधार पर आंदोलनों को विभाजित करना आसान होगा।

अंबेडकर देश की स्वतंत्रता के पक्षधर थे। वे विभिन्न आंदोलनों को जोड़ने के पक्ष में वक्तव्य देते हैं, ‘अपना देश आजाद रहा तभी हम भी आजाद रहेंगे, यह सही है। जाहिर है, देश की आजादी को संकट में डालनेवाली नीति हमें नहीं रखनी चाहिए।’ (वही, 1939)। हालांकि वे मुख्यतः इस तरह सोचते थे, ‘अपना राजनीतिक काम थोड़ी देर रोककर आप अगर अस्पृश्यता को नष्ट करेंगे, तभी साबित होगा कि आप ईमानदार हैं।’ अंबेडकर ने पूना पैक्ट के बाद एक बार बातचीत में गांधी से कहा था, ‘हमारी एक ही लड़ाई है आपसे। आप राष्ट्रीय कल्याण के लिए काम करते हैं, हमारे हितों के लिए नहीं। यदि आप अपना पूरा समय दलित वर्गों के लिए दें तो आप हमारे नायक होंगे।’ यह गांधी के वश की बात नहीं थी कि वे स्वाधीनता की लड़ाई और राष्ट्रीय एकता के प्रयत्न बंद कर दें। दरअसल जब तक देश में सामाजिक गैर-बराबरी या आधुनिकीकरण पूरी तरह न आ जाए, तब तक अंग्रेजी राज बना रहे, इस तर्क को अनगिनत कुर्बानियां दे चुकी देश की जनता मानने के लिए तैयार नहीं थी।  बल्कि ऐतिहासिक तथ्य यह है कि उसका ब्रिटिश उपनिवेशवाद से असंतोष और संघर्ष लगातार तीव्र होता जा रहा था।

अंबेडकर की एक सीमा है कि वे सवर्ण समाज में गरीबी, वंचना और भेदभाव नहीं देख पाते थे, ‘आज स्पृश्य समाज अधिकारारूढ़ है। अतः स्पृश्य समाज की हालत संतोषजनक है। उनके जीवन में सबकुछ आसान है, (जबकि) आपकी राह में संकट ही संकट खड़े हैं। आपका मार्ग कांटों से भरा हुआ है।’ (वही, 1942) समाज में शोषण और दमन के लिए जाति प्रथा को एक बड़े कारक के रूप में देखना एक चीज है, और बाकी अंतर्विरोधों की उपेक्षा करके समाज को सिर्फ स्पर्श्य और अस्पर्श्य में बंटा देखना एक बिलकुल दूसरी बात है।

कहना न होगा कि सवर्ण समाज में भी ज्यादातर लोग गरीब, बेरोजगार और किसी न किसी तरह से उत्पीड़ित ही रहे हैं। आज भी कई भुखमरी की दशा तक पहुँच जाते हैं। कई किसानों ने आत्महत्या कर ली। इन सभी की जीवन दशा को सिर्फ इसलिए संतोषजनक नहीं कहा जा सकता कि वे स्पृश्य हैं। देर-सबेर समझने की जरूरत है कि इनके बीच भी सांस्कृतिक सुधार और आर्थिक विकास का पहुंचना जरूरी है। आमतौर पर 19वीं सदी से शुरू हुआ सांस्कृतिक सुधार कई कृत्रिम राजनीतिक विवादों की वजह से आधे रास्ते में ठहर गया था। यह 21वीं सदी में धार्मिक पुनरुत्थानवाद के उभरने और धीरे-धीरे लगभग सौ सालों में एक ठोस जमीन बना लेने की एक बड़ी वजह है।

जाति के विनाश के लिए धार्मिक कूपमंडूकता को मिटाना जरूरी है। इस पर सोचने की जरूरत है कि यह क्यों न हो सका? दरअसल इस देश के श्रमिक आंदोलनों पर एक बड़ी जिम्मेदारी थी कि वे आर्थिक मुद्दों- अपने वेतन बढ़ाने और काम करने की दशाओं में सुधार के अलावा धार्मिक-सामाजिक सुधार आंदोलन को आगे बढ़ाएं, दलितों और स्त्रियों के मुद्दे पर विशेष ध्यान दें और नवजागरण के अधूरे कार्यों को पूरा करें। लेकिन जिस तरह 19 वीं सदी में ‘राष्ट्रीय कांग्रेस’ ने सुधार आंदोलन के काम को अपने एजेंडे से बाहर कर दिया था और अपने को राजनीतिक सुधारवाद तक सीमित कर लिया था और 1947 के बाद तो वह सत्ता के नशे में इस काम से पूरी तरह विमुख हो गई, उसी तरह श्रमिक आंदोलन भी मुख्यतः ‘अर्थवाद’ में फँस गए।

ब्राह्मणवाद से लड़ने का अर्थ

अंबेडकर पूंजीवाद से लड़ने के अलावा ‘ब्राह्मणवाद’ से भी लड़ने की बात करते थे, क्योंकि उन्हें इस देश में समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के अभाव को मिटाए बिना आर्थिक मुक्ति संभव नहीं दिखती थी। इसके लिए लगातार संघर्ष चलना चाहिए था। लेकिन तथ्य यह है कि बड़े उद्देश्यों को लेकर शुरू हुए ऐसे  आंदोलन बार-बार तात्कालिकतावाद में फँसे। व्यक्तियों की निजी या सामुदायिक घनिष्ठताओं ने नाक से दूर की सचाइयों को समझने नहीं दिया। अंबेडकर के बाद जाति के विनाश का आंदोलन ‘जिम्मेदार स्वराज’ या सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के उद्देश्यों से हटकर तात्कालिक फायदे के कीचड़ में फँस गया। पिछड़ी और दलित जातियां एक मिलीजुली उदात्त भूमिका निभाने की जगह अंतर्शत्रुता से भर गईं।

अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद को स्पष्ट किया है, ‘दुश्मन मानकर ब्राह्मणवाद से टक्कर लेनी चाहिए, यह मेरा कहना है। और मैं चाहता हूँ कि कोई इसका गलत अर्थ न निकाले। ब्राह्मणवाद से मेरा मतलब ब्राह्मण जाति से नहीं है। इस संदर्भ में मैं इस शब्द का प्रयोग नहीं करता। ब्राह्मणवाद का मेरी नजर में मायने है- आजादी, समता और बंधुत्व का अभाव।’ (वही, 1938)। यह सही धारणा है  जो भुला दी गई। आज कुछ दलितों को ऊंचे पद या पुरस्कार दे दिए जाते हैं। यह भी देखना है कि क्यों यह प्रतीकात्मक प्रतिनिधिकता आंखों में धूल झोंकना नहीं है।

कहना न होगा कि वैश्वीकरण के दौर में आजादी, समता तथा बंधुत्व के लोकतांत्रिक तत्व तेजी से गायब हुए। अब मूल्यों, उसूलों और वस्तुपरक कसौटी को वे भी नहीं अपनाते जो इनकी हमेशा बात करते हैं। पक्षपात एक खुल्ला खेल फर्रुखावादी है! इसमें ऊंची जातियों के क्षमतावान लोग सबसे आगे हैं। इसलिए यदि ब्राह्मणवाद से संघर्ष का अर्थ भी सिकुड़ता गया और दलित आंदोलन संकुचित सत्ता संघर्ष में खोता गया तो इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। निश्चय ही तात्कालिक फायदे में लिप्तता एक सार्वभौम विपदा है।

राष्ट्र और हाशिए का संवाद

भारत में ‘राष्ट्र’और हाशिये के बीच तनाव स्वाभाविक है, लेकिन इससे राष्ट्र बेमतलब नहीं हो जाता और न सामंजस्यपरक मानवीय राष्ट्रीय भावना अप्रासंगिक हो जाती है। अंततः ‘राष्ट्र’ ही समाधानदाता है। उससे लड़ना भी होगा, प्रेम भी करना होगा। अंबेडकर की लड़ाइयों के दिनों में सभी देशप्रेमी उनके उग्र कथनों के बावजूद उनके महत्व को समझ रहे थे। विविधताओं और विचित्रताओं से भरा भारत अपने नए सफर के लिए मार्ग खोज रहा था। कहा जा सकता है कि वह ‘विद्रोहों और समझौतों’ से बना एक मिलाजुला मार्ग था, क्योंकि अंग्रेजों की व्यापक औपनिवेशिक लूट और अत्याचारों की वजह से यदि देश की आजादी भारत के बहुत से लोगों और सभी राष्ट्रीयताओं का मुख्य लक्ष्य बन चुकी हो तो उस जटिल माहौल में धार्मिक-सामाजिक सुधारों को न उग्र रूप देना संभव था और न पूरी तरह त्याग देना।

अंबेडकर और गांधी दोनों देशप्रेमी हैं, पर अंबेडकर का लक्ष्य गांधी के लक्ष्य से बिलकुल अलग है। अंबेडकर नई भारतीय विडंबनाओं की सही कल्पना कर रहे थे। वे देश की राजनीतिक आजादी के पहले अस्पृश्यों के राजनीतिक अधिकार और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी जल्दी तय कर लेना चाहते थे। उन्होंने स्पष्ट तौर पर सामाजिक विभाजन का अपना विमर्श प्रस्तुत किया, ‘जिस प्रकार मुसलमान हिंदुओं से साफ तौर पर अलग दिखाई देते हैं, उसी प्रकार अस्पृश्य भी हिंदुओं से अलग हैं। भारतीय राष्ट्र-जीवन में हमें पृथक और विभक्त घटक के तौर पर जाना जाएगा। अस्पृश्य हिंदुओं का एक हिस्सा है, इस सोच का आपको पुरजोर विरोध करना होगा।… इस देश में कई पंथ हैं- (1) हिंदू, (2) मुसलमान, (3) ईसाई, (4) अस्पृश्य।’ (वही, खंड-39)। उन्होंने स्वाभाविक रूप से घोषित किया, ‘गांधी हमारे सबसे बड़े प्रतिपक्ष हैं।’ अंबेडकर स्पेस रखते हुए आगे स्पष्ट करते हैं कि वे ‘दुश्मन’ शब्द का प्रयोग करने से बचे हैं!

देखा जा सकता है, उपर्युक्त ‘स्पेस’ का महत्व है। अंबेडकर ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण मोड़ पर धर्मनिरपेक्ष लोककल्याणकारी भारतीय गणराज्य के लिए जो संविधान बनाया, वह 19वीं -20वीं सदी के लगभग डेढ़ सौ साल की भारतीय आशाओं, स्वप्नों और संघर्षों का प्रतिबिंब है, निश्चय ही सामाजिक विभाजन के अंंबेडकर के उपर्युक्त विचार का दर्पण नहीं। अंबेडकर द्वारा निर्मित उस संविधान की आलोचना उस समय उन सबने की थी जो वस्तुतः आज उसे बचाने के लिए सबसे ज्यादा आगे हैं!

अंबेडकर निश्चय ही एक खास सामुदायिक कैंप के प्रवक्ता थे। लेकिन वे अपनी चिंता एक समुदाय तक सीमित नहीं रखते। 9 दिसंबर 1946 को उन्होंने संविधान सभा में भाषण दिया, ‘आज हम राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक नजरिए से विभाजित हैं, इसका मुझे अहसास है। एक-दूसरे के खिलाफ लड़नेवाली छावनियों के समूह हैं हम। बल्कि मैं तो यह भी मानता हूँ  कि मैं ऐसी ही एक छावनी का नेता हूँ। महोदय, यह सब भले सही हो, लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि समय और स्थितियों को अगर अनुकूल बनाया जाए तो कोई भी शक्ति इस देश को एक होने से रोक नहीं सकती। विभिन्न जातियां और संप्रदाय होने के बावजूद हमें एक होने से कोई रोक नहीं सकता।’ (वही, खंड-40)। उनकी ऐसी बातों को उड़ा देना संभव नहीं है। बल्कि इस पर सोचा जा सकता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों और धार्मिक कट्टरवादियों की चुनौतियों को देखते हुए सचमुच फिर एक वैसा ही वक्त आया है या नहीं।

देखा जा सकता है कि अंग्रेजों ने राष्ट्रीय आंदोलन के दबाव में अंबेडकर को धोखा दिया और जिस राष्ट्रीय कांग्रेस का कटु तरीके से अंबेडकर ने लगातार विरोध किया, उसने उनकी योग्यता को समझते हुए उन्हें सरकार में शामिल किया। इसके बाद, यह सभी जानते हैं कि अंबेडकर ने वह संविधान बनाया जो 21वीं सदी के दूसरे दशक से भारतीय जनता के लोकतांत्रिक संघर्ष का सबसे बड़ा हथियार है और वस्तुतः इस संघर्ष का रक्षक भी। यह हर फासीवाद, धर्मांधता और भेदभाव के गले में हड्डी की तरह है।

अंबेडकर ने कहा था, ‘संविधान पर अमल करना पूरी तरह संविधान पर ही निर्भर नहीं करता।’(वही, खंड-40, 1949)। उन्होंने आशंका व्यक्त की थी, ‘मेरे मन में खयाल आता है कि इस जनतांत्रिक संविधान का क्या होगा? इसे महफूज रखने के लिए मेरा यह देश समर्थ रहेगा या एकबार फिर वह अपनी आजादी गवां बैठेगा?’ (वही)। यह संविधान लागू होने के पहले का कथन है, जिसमें उनकी चिंता साफ झलकती है। उन्होंने यह भी कहा था कि राजनीतिक दल स्वयं को देश से बड़ा मानने लगें तो आजादी खतरे में पड़ जाएगी। आजादी बार-बार खतरे में पड़ी भी। यह भी उल्लेखनीय है कि बंबई ही अंबेडकर के आंदोलन का केंद्र था। यह आधुनिक महानगर आगे चलकर अंध-राष्ट्रवाद और धार्मिक पुनरुत्थान का भी एक बड़ा केंद्र बन गया।

हमारा देश कहां है?

यह एक वास्तविकता है कि देश में आज जातिवाद से काफी लोग मुक्त हैं, तथाकथित ऊँची जातियों, पिछड़ी-निम्न सभी जातियों में। कुछ के भीतर चोर दरवाजा हो सकता है, लेकिन बड़ी संख्या में नौजवानों के अलावा बुजुर्गों में भी जातिवाद के अब अनगिनत सच्चे विरोधी हैं। लड़कियों ने जाति तोड़कर विवाह किए हैं। उनकी निगाह में कोई ऊँच-नीच नहीं है। साफ हो चुका है कि दहेज के राक्षस की जान जातिवाद के मटकों में है। इन मटकों को नौजवानों ने तोड़ना शुरू कर दिया है!

आज जो किसी के अंध समर्थक नहीं हैं, उनकी खैर नहीं है। आज जो उदारवादी हैं, जाति-आश्रय नहीं चुनते और चापलूसी नहीं करते उन्हें इन सबका खामियाजा भुगतना पड़ता है, पर ऐसे व्यक्तियों में अटूट साहस होता है। आज बहुतों का जातिवाद-विरोध सहभोजन तक सीमित न होकर सामाजिक अंतरंगता और सम्मिश्रण का मामला है।

यह भी एक यथार्थ है कि जाति चीता की तरह पीछे से हमला करती है। ऊंची जातियों के क्षमतावान लोगों के बीच एक मौन गठबंधन रहता है। दुर्भाग्यजनक है कि शिक्षा, आधुनिकीकरण और प्रगतिशील आंदोलनों के बावजूद भारत में जातिवाद पहले से बड़े शातिर रूप में मौजूद है और फिलहाल धर्म उसकी इम्युनिटी बढ़ा रहा है।

अंबेडकर का जीवन और संघर्ष भारत में 1980 के बाद नए सिरे से दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष, विमर्श और मुक्ति की प्रेरणा बना। यह ऊंची जातियों के लिए भी प्रेरणा रहा है। यह आवाज की ताकत है कि वे राजनीतिक आत्मसातीकरण के शिकार हो रहे हैं। यह भी देखने की जरूरत है कि उनके विचारों में ‘पृथकता’ और ‘सहयोग’ का द्वैध रहा है, चाहे वह उपनिवेशवाद के संदर्भ में हो, संविधान निर्माण के संदर्भ में हो या राष्ट्रीय भावना के संदर्भ में। यह तथ्य भी सामने है कि नई स्थितियों में पृथकता की पुरानी लक्ष्मण रेखाओं की तुलना में नई लक्ष्मण रेखाएं ज्यादा गहरी हुई हैं। आज की समस्याएं निशाने को व्यापक बनाने की मांग करती हैं, क्योंकि पुराने निशाने अपना स्थान बदल चुके हैं और पुराने हथियार भोथड़े हो चुके हैं!

1990 के बाद दलितों की सामाजिक स्थिति कुछ उन्नत हुई हो, संपन्नता में कुछ फर्क आया हो और वे मध्यवर्ग में पहले से ज्यादा शामिल हुए हों, लेकिन  दलितों पर अत्याचार और उनकी उपेक्षा के कई नए रूप भी सामने हैं। किसी दलित लड़के का ऊँची जाति की लड़की से विवाह आज के जमाने में भी उत्तेजना पैदा करता है। कहा जा सकता है, दलित अपने क्रूर अतीत और विडंबनापूर्ण वर्तमान के बीच बहुत संकटपूर्ण दशाओं से गुजर रहे हैं। यह भी अब काफी साफ है कि वैश्वीकरण के जमाने में अकेले में किसी की मुक्ति संभव नहीं है!

देखा जा सकता है कि देशभक्ति के दौर में ही ‘भारतीय राष्ट्र’ सबसे ज्यादा खतरे में है। निर्बुद्धिपरक विचारों और छवियों ने हमारे राष्ट्र पर, राष्ट्रीय भावना पर कब्जा कर लिया है।  एक बड़ी सचाई यह है कि ‘राष्ट्र’ से ज्यादा ताकत ‘कार्पोरेट जगत’ के पास है। ऐसे कठिन दौर में चुनौती ‘राष्ट्र’ को पृथकतावाद के बल पर तोड़ने की नहीं, उसे भारतीय महाजाति के सामाजिक और संवैधानिक सपनों के साथ वापस पाने की है। इसलिए सिर्फ दलित ही नहीं हर सच्चे भारतवासी की जुबान पर अंबेडकर का सवाल नए संदर्भ में मौजूद है-‘मेरा देश कहां है?’