युवा आलोचक। और साहित्यिक-सांस्कृतिक रूप से निरंतर सक्रिय।
क्या हो यदि किसी दिन कोई आपसे कहे कि अबतक का समग्र ज्ञान पुरुषों द्वारा अपनी कामनाओं के औचित्य-स्थापन की प्रक्रिया भर है? शायद एक बारगी आप इसे स्वीकार नहीं कर पाएंगे कि ज्ञान भी स्त्री-पुरुष का भेद कर सकता है।कारण यह है कि हम ज्ञान को निरपेक्ष और सार्वभौमिक समझते हैं।लेकिन स्त्री-चिंतन की मानें तो ज्ञान निरपेक्ष न होकर हमेशा ही समाज के किसी हिस्से द्वारा अपनी बात मनवाने का औजार होता है।इस तरह, उनके अनुसार, हमारा समेकित ज्ञानकोश पुरुषों द्वारा पृथ्वी की आधी आबादी, यानी कि स्त्रियों पर अपनी बात थोपने का बहुत महीन और कुशल कार्यव्यापार है।स्त्री-चिंतन की इस समझ ने उसे इतना विचारोत्तेजक और स्पंदनशील बना दिया है कि आज ज्ञान का हर संकाय आत्मावलोकन के लिए मजबूर है।सिर्फ मानविकी नहीं, विज्ञान के संकाय भी इस आलोक में खुद को देख-परख रहे हैं।इसके पीछे स्त्रियों का बढ़ता हुआ सार्वत्रिक दबाव तो है ही, कई अन्य कारण भी हैं।एक तो शायद यह है कि इस सभ्यता के पास वास्तविक आत्मजिज्ञासा और मनुष्यता का मौलिक स्वप्न नहीं बचा है।
ऐसे में पुरुष-कामनाओं से आत्मपीड़ित और थकी हुई सभ्यता अबतक अनियोजित स्त्रियों के अंतर्लोक को आशा की नजर से देख रही है।स्त्री का अंतर्जगत इस सभ्यता की आशा-भूमि है और उसकी कामनाएं इस संसार का अबतक अप्रयुक्त ईंधन।उसके आत्मजागरण से पूरे ज्ञानकोश में हलचल हो रही है।शब्द अश्रव्य ढंग से अपनी अर्थछायाएं बदल रहे हैं।इसी जमीन से हिंदी की यह कवयित्री कह रही है कि, यह संसार अब स्त्री की कामना से बदलेगा।ईश्वर की इसमें कोई भूमिका नहीं है।
स्त्रीवादी आंदोलनों की शुरुआत हुई थी स्त्री की सार्वजनिक भागीदारी और मताधिकार की मांग से।इसका तात्पर्य यह था कि उन्हें भी नागरिक माना जाए।परंतु नागरिक पहचान की मांग अपने वास्तविक पहचान के बिना कैसे टिक सकती थी? इसलिए स्त्रियों ने भाषा, इतिहास और संस्कृति में अपने विच्छिन्न आत्म संकेतों को संयोजित करना शुरू किया।इसके बाद यह अन्वेष्ण और गहरा होता दीख पड़ता है।स्त्रियों ने खुद को संस्कृति में खोजने के बजाय अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों, स्वप्नों, कामनाओं और अवचेतन अंधेरों में खोजने की कोशिश की।पहले नागरिक पहचान व बराबरी की मांग।फिर संस्कृति के भीतर विशिष्ट पहचान की खोज।तत्पश्चात एक कदम और आगे; अपने ही अंतर्लोक में अपनी खोज।सुविधा के लिए स्त्री-संघर्ष और सृजन के ये तीन परिसर बनाए जा सकते हैं।
आज की हिंदी में स्त्री-कविता के तीनों परिसर अपनी उल्लेखनीय रचनात्मकता से प्रतिष्ठित हैं।कात्यायनी, शुभा, निर्मला पुतुल, नीलेश रघुवंशी का पहला परिसर है, जिनमें नागरिक हक और बराबरी की कामना है।इन कवयित्रियों ने अपनी तार्किकता, आवेगप्रवण मुखरता और धारदार व्यंग्य से स्त्री प्रश्नों को साहित्यिक समाज के लिए अनुपेक्षणीय बना दिया।अनामिका का परिसर दूसरा है।उन्होंने ताकतवर इतिहास से बाहर स्मृति, साहित्य, लोकजीवन और व्यक्तिगत-पारिवारिक स्मृतियों में बिखरे स्त्री के विशिष्ट पहचानों की खोज और संयोजन किया।तथा अपनी कांतासम्मित काव्यशक्ति से स्त्री-वैशिष्ट्य के प्रति सबको पर्युत्सुक बना दिया।सविता सिंह नागरिक वृत्त और पहचान के प्रश्नों को अधिक सूक्ष्म बनाते हुए अवचेतन के गहन प्रश्नों तक ले गईं, यह स्त्री-कविता का तीसरा परिसर है।उन्होंने स्त्री की कामनाओं, सपनों, अस्तिबोध और अवचेतन का एक विशाल भूगोल कविता के लिए सुलभ कर दिया।इधर अब हिंदी की अनेक कवयित्रियां जाती हुई दिखाई पड़ती हैं।
उम्र में ये कवयित्रियां एक ही वय की कही जाएंगी।लेकिन अनामिका, कात्यायनी के पहले संग्रह तथा काव्य-प्रतिष्ठा में तथा सविता, नीलेश, निर्मला के संग्रह व काव्य-प्रतिष्ठा में दशक भर का अंतर है।अतः इन कवियों को अंतिम दशक के कवियों में गिना जाना चाहिए।सविता सिंह का ‘अपने जैसा जीवन’ शीर्षक पहला संग्रह २००१ में प्रकाशित हुआ।थोड़ी छूट लेकर कोई इसे उनकी अधिसंख्य कविताओं का शीर्षक कह सकता है।कारण कि वह कविताओं में अपनेपन की ही खोज करती हैं, जिससे धीरे-धीरे स्त्री का आत्म और आत्मसंसार आकार पाता दिखाई पड़ता है।
अब न जीतने की कोई इच्छा है
न हारने का भय
बस खुद को पाने की उत्कंठा है
यह सब कर लेने का संकट ही मगर
स्त्री होने का संकट है।
इन पंक्तियों में संकल्पबद्ध दृढ़ता और विडंबनाबोध साथ-साथ है।स्त्री कविता में अंततः खुद को पाना चाहती है।लेकिन खुद को खोजे कहां! क्या वहां जहां पुरुषों ने उसे बताया है? इस संस्कृति में मौजूद चुप्पी, भ्रंश, बहिष्करण में खोजे और उन संकेतों को जोड़कर कतरन का कैनवास बनाए? या अपने अवचेतन के अनंत तहों में खुद को खोजे और अपने सृजन से ही खुद को पहचाने? सविता सिंह इस तीसरे आचार की कवयित्री हैं।वह अपने को पाने और अपने जैसा प्रामाणिक जीवन जीने की दुश्वारियां जानती हैं, लेकिन यही उनके लिए रोमांच बन जाता है।
हिंदी की वरिष्ठ कवयित्रियों में अनामिका और सविता सिंह, दोनों ही स्त्री-पुरुष समानता के बजाय स्त्री-वैशिष्ट्य पर जोर देती हैं।लेकिन दोनों के स्त्री-वैशिष्ट्य की आधार भूमि में अंतर है।अनामिका स्त्री-वैशिष्ट्य को देह, मातृत्व और ‘प्री-ऑडिपल स्टेज’ में खोजती हैं।इन्हीं मातृमुखी अनुभवों और संबंधों से बहनापा और स्त्री-सामुदायिकता जैसी कोई चीज खोजने की कोशिश करती हैं।यह मातृमुखी अनुभव ही संस्कृति की कतरनों से बनाई गई स्त्री की संवेदनात्मक आत्मा बनती है।लेकिन इससे न सिर्फ मातृत्व की पूर्वस्थापित सांस्कृतिक छवियां मजबूत होती हैं, बल्कि वृहत्तर संरचना का ‘जस्टीफिकेशन’ होने लगता है।दूसरी तरफ सविता सिंह इससे अलग, स्त्री के अपनेपन को देह और मातृमूलक अनुभवों को स्वीकारते, लेकिन उसे पार करके चेतना और विवेक में खोजती हैं।वह विवेकशीलता की उन जगहों को देखना चाहती हैं, जहां से उसने गलत मोड़ लिए।वे छूट गए रास्तों को चिन्हित करती हैं, उसके भीतर की असंगतियों और अंतरालों को पहचानना चाहती हैं।वह अब भी तर्कशीलता के भीतर से ही विशिष्ट स्त्री-पहचानों को खड़ा करने में विश्वास करती हैं।इसलिए सविता सिंह की कविताओं में स्त्री-समूह का कोई चित्र भले न बनता हो, लेकिन स्त्री-व्यक्ति का तनाव चरम पर दिखाई पड़ता है।
हिंदी की इन दोनों प्रतिष्ठित कवयित्रियों के स्त्री-वैशिष्ट्य की दो दिशाओं में की गई खोज मूलतः जैक लकां के शिष्यों की संरचनात्मक नियतवाद से निकलने के दो अलहदा रास्ते हैं।पहले रास्ते की प्रस्तोता जूलिया क्रिस्टेवा हैं, जो स्त्री-वैशिष्ट्य को मातृमूलक अनुभवों में खोजती हैं और उसे इतिहास-बाह्य मौलिक भूमि मानती हैं।दूसरे रास्ते की प्रस्तोता लूस इरेग्री और बटलर हैं, जो दैहिक अनुभूतियों को स्वीकार करते हुए भी, देह को संस्कृति से बाहर की कोई चीज नहीं मानतीं हैं।इसलिए वे उसे पार करते हुए फिर से इतिहास और सांस्कृतिक चिंतन में लौटती हैं।सविता सिंह इरेग्री और बटलर के इसी दूसरे रास्ते की विश्वासी हैं।इसलिए उनके ‘अपनेपन’ का विमर्श देह, मातृत्व, मौसियों, बूआओं के बहनापे पर नहीं रुकता, बल्कि उनकी तीक्ष्ण विवेक-निष्ठा उस विमर्श को अवचेतन के अनगिनत स्तरों पर ले जाकर असामाप्य बना देती है।
कई जगह सविता सिंह पर अस्तित्ववादी जीवन-दर्शन का गहरा प्रभाव दिखाई पड़ता है।कुछ कविताओं में आस्तित्विक प्रश्न सीधे आते हैं।और अनेक कविताओं में इनका अनुनाद सुनाई पड़ता है।यह शायद इसलिए हो कि सविता सिंह दशकों तक पश्चिमी देशों में रही हैं।जो भी हो, स्त्री-कविता के लिए यह प्रभाव सकारात्मक है।क्योंकि अस्ति के प्रश्न अस्मिता के प्रश्नों से जुड़कर उसकी अनुभूति को और तीव्र बना देते हैं।
समय की खाली आंखों में
तैरती शताब्दियां
और वह उनमें तैरती मटमैली छायाओं की तरह
रोज मुझसे पूछती है
कैसे मुक्त होऊं।
निरवधि काल के भीतर तैरता मूलहीन गढ़ा हुआ हमारा इतिहास और इतिहास के भीतर आंखों में धुंधली छायाओं-सा हमारा अस्तित्व अपनी इस नियति से पार पाना चाहता है।लेकिन कैसे? उपर्युक्त बिंब पहचानहीनता को जितना गहरा करता है उससे ज्यादा तड़प किंकर्तव्यविमूढ़ ‘कैसे’ में है।इसकी अस्ति-कामना की काव्यात्मक तीव्रता में अस्तित्ववाद अनुस्यूत है, लेकिन मुक्ति-कामना उस बोध को तोड़ रही है।इससे कविता ज्यादा बड़े ऐतिहासिक प्रश्न से जुड़ जाती है।
इस स्त्री में खुदमुख्तारी है, परंतु खुदमुख्तारी के तनाव से भागकर किसी शरण की चाहत नहीं है।बल्कि वह आजादी और उसके उत्तरदायित्व का सामना करती है।सविता सिंह के तीसरे संग्रह में एक लंबी कविता हैशैटगे : जहांजिंदगीरिसतीजातीहै।अपनी मंजरकसी और चरित्रों के अंतर्मुखी आत्मसंघर्ष के कारण यहां सब ‘अपने अपने अजनबी’ लगते हैं।लेकिन जब आखिरी पंक्तियों तक पहुंचते हैं तो पता चलता है कि यह नियति असमाप्त दमन और शोषण की जमीन पर रची सभ्यता की ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है।यहां से यह कविता अस्तित्ववादी सर्वनकार व जुगुप्सा के बजाय न्याय-कामना की तरफ चली जाती है।यह बोध उन्हें अपनी स्वतंत्रता के परिणामों के बहादुरीपूर्ण स्वीकार और संघर्ष की तरफ ले जाता है।यही बात पिता, पति, प्रेम, ईश्वर के प्रति समर्पणकारी भावबोध से अलग नितांत अकेले लेकिन साहसी आत्मसंघर्ष की तरफ ले जाती है।व्यक्तिचेतना का यह आत्मसंघर्ष पिछले दशकों में उभर रही विवेकशील स्त्रियों के भाव-बोध के करीब पड़ता है।
सविता सिंह के अबतक प्रकाशित चारों संग्रहों में स्त्रियों के सामूहिक संघर्ष और वर्गबोध की कविताएं गिनती की हैं।लेकिन वह खुद को समाजवादी स्त्रीवादी कहती हैं।आखिर वह किन अर्थों में स्त्रीवादी हैं? कात्यायनी, शुभा, अनामिका, निर्मला पुतुल के साथ देखने पर वह ‘व्यक्ति-विमर्ष’ में डूबी हुई लगती हैं।बल्कि इन सबसे वरिष्ठ कवयित्री गगन गिल के करीब लगती हैं।दरअसल वे स्त्री के सामूहिक-बोध के कारण नहीं (यह कविता में स्त्रीवाद की एकमात्र पहचान नहीं है), बल्कि स्थापित सौंदर्यबोध के बरक्स वैकल्पिक सौंदर्यदृष्टि की स्थापना के कारण स्त्रीवादी हैं।स्त्री लेखन में व्यक्तिगत सुख, दुख, विषाद की अभिव्यक्तियां हैं और उद्बोधनपरक कविताएं भी हैं, लेकिन इनमें बहुत कुछ वही चला आ रहा अप्रस्तुत रूप-विधान चलता रहता है।स्त्रीवादी सौंदर्यदृष्टि और भाषा-विधायन का प्रश्न हिंदी में अभी उठाया ही नहीं गया।सविता सिंह बहुत सचेत ढंग से कविता में इस जिम्मेदारी को स्वीकार करती हैं।बल्कि यथासंभव आलोचना में भी।
इस दिशा में सविता सिंह प्रथमतः स्त्री को पुरुष के विलोम प्रत्यय की तरह देखने वाली सौंदर्यदृष्टि के बरक्स स्त्री को एक आत्मपरिभाषित स्वायत्त प्रत्यय की तरह स्थापित करने की कोशिश करती हैं।इसका प्रमाण यह है कि उनकी प्रेम कविताओं तक में पुरुष संज्ञा या संबोधन के रूप में दुर्लभ है।कितने शब्दों के अर्थ तक बदल गए हैं।वासना का पारंपरिक अर्थ नकारात्मक है, लेकिन सविता के यहां यह बार-बार आता है और स्त्री के उज्ज्वल वैभव का प्रतीक है।उनकी कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि यह जगत ही स्त्री के सुख, दुख, उदासी, अवसन्नता का विस्तार है।लेकिन उनका यह जगत उतना बहुवर्णी नहीं लगता, जैसे कि यह है।
इसी तरह उनकी व्यक्तिगत अनुभूतियां भी लगभग संज्ञाहीन हैं।उनके तमाम मनोभाव ऐसे घुलमिल गए हैं, जैसे सारे रंग एकमेक हो जाएं।क्या पता अनुभूतियां अपने मूल में इतनी बेठोस ही होती हों, या शायद वह इसे शास्त्रानुमोदित श्रेणियों में नहीं पातीं! जो भी हो, लेकिन इससे काव्य-प्रभाव एक कुहरिल अनुभूति में बदलने लगता है।यह भी हो सकता है कि वह हमारी मानस कोटियों में न बैठने के कारण कहीं-कहीं रहस्याभासी और ब्लर लगता हो।
सविता की काव्याभिव्यक्ति उनकी काव्यानुभूति का माध्यम होने के बजाय उसी का विस्तार लगती है।यहां अंतर्वस्तु, भाषा, प्रस्तुत-विधान सब एक-दूसरे में लथपथ हैं।इसलिए इन पर अलग-अलग बात संभव नहीं है।दरअसल उनकी कविता जाने हुए की अदायगी नहीं है, बल्कि कविता इस जीवन की संपूरक है।अपनी उस आजादी और सृजनेच्छा को महसूसने की प्रक्रिया है, जो उसे इस दुनिया में उपलब्ध नहीं है।आप पाएंगे कि सविता की कविताएं बराबरी के बजाय स्वतंत्रता को पंख देती हैं।उनके पास स्वतंत्रता कोई परिभाषित नहीं है, बल्कि यह निरंतर सृजनेच्छा का ही दूसरा नाम है।क्योंकि शायद स्वतंत्रता को सिर्फ सृजन में ही महसूस किया जा सकता है।इस अर्थ में ये कविताएं स्त्री की आत्मकामना, आजादी और सर्जनात्मकता की प्रक्रिया हैं।इन कविताओं की स्त्री की उन्मुक्त उड़ान का आसमान है उसका निस्सीम अवचेतन।जहां उसका स्वातंत्र्य और सृजन घुलमिल गए हैं।इसी निस्सीम अवचेतन में भाषा और कविता की जड़ें भी डूबी हुई हैं।यह निस्सीम इसलिए है क्योंकि व्यक्तिगत अवचेतन अंततः मनुष्य मात्र के अवचेतन में डूब जाता है।
सविता सिंह के लिए कविता इस निस्सीम अंतर्लोक में उतरने की प्रक्रिया है।जहां सिर्फ उसके व्यक्तिगत दुख नहीं हैं, बल्कि जहां अनगिनत स्त्रियों का रुदन, आनंद, विषाद है।यह निस्सीम अवचेतन सदियों से उसके हर दुख, दर्द की छाप लेता आया है।यही अवचेतन रात के बिंब में बार-बार लौटता लौटता है-एकतड़पकांपतीरही/भीतरकाधीरजजिसे/रातकीतहमेंतहकरतारहा।न जाने कितने जन्मों का यह तह किया हुआ दुख अब भी उस अंधेरे पड़ा हुआ है।ये कविताएं फिर से उससे जुड़ पाने का जरिया हैं।इसीलिए इस वन में, इस अंधेरे में वह बार-बार लौटती है-
लौटती हूँ अपनी कविताओं में
उस आनंद के लिए
जिसे सिर्फ शब्द जानते हैं
अपनी ध्वनियों के विलास में
उस अर्थ के लिए
जिसे देह जानती है
स्मृति में बचे अभिसार की तरह।
प्रसिद्ध आलोचक आई. ए. रिचर्ड्स से किसी ने पूछा कि शताब्दियों से भाषा में कविताएं लिखी जा रही हैं, भाषा की यह क्षमता चुक क्यों नहीं जाती है? रिचर्ड्स ने कहा कि भाषा अपनी मूल प्रकृति में ही कविता-जैसी है।कविता तो हर बार भाषा के इसी मूल कवित्व का उपयोग किया करती है।हिंदी की यह कवयित्री कह रही है कि शब्द अपनी ध्वनियों में हमारी अनुभूतियों को छिपा कर रखते हैं।ध्यान देने की बात है कि, वह अर्थ की बात नहीं कर रही है, ध्वनियों की बात कर रही है, जिनसे अक्षर बनते हैं।अर्थ तो लगातार उसके बहिष्करण में लगे रहते हैं।ये ध्वनियां कैसे बचाती हैं उसकी अनुभूतियों को? जैसे- देह अभिसार की स्मृतियों को।वह राजनीतिक अर्थ और संरचना से नीचे, जहां चीजें एक दूसरे में घुली-मिली हैं, वहां खोजती है अपनी पहचान।यह कविता की वह मिट्टी है, जो उसे जानती है, ‘जिसे संभव करती हुई एक स्त्री और खुद संभव होती है।’
सविता सिंह की कविताएं स्त्री का स्वायत्त संसार है।यहां पुरुष-अनुभवों के आलोक में कविता को पाने का अभ्यास धोखा दे सकता है।इसलिए धैर्य से इसके लिए खुद को तैयार करें।यहां चीजें स्थापित बाइनरी से बाहर हैं, इसलिए भी समझने में दिक्कत होती है।यहां दिन-रात, स्याह-सफेद, धरती-आसमान सब पारंपरिक बाइनरी से बाहर स्वायत्त और मुकम्मल हैं।यहां से पारंपरिक सत्तात्मक छवियों को पोछ दिया गया है।जैसे दोपहर और सूर्य का कोई बिंब दुर्लभ है, यहां रात्रि का वैभव है।रात के अनंत रंग, ध्वनियां और सुगंधियां हैं।महादेवी वर्मा के बाद रात का ऐसा वैभव यहीं मिलेगा।सविता सिंह के दूसरे संग्रह का शीर्षक ‘नींद थी और रात थी’ है और तीसरे संग्रह का ‘स्वप्न समय’।यह रात उसका निस्सीम अवचेतन है और स्वप्न उन्मुक्त सृजन।स्त्री का जितना दमन हुआ उतना ही वह इस निस्सीम की तरफ करुणा, जिजीविषा और सौंदर्यचेतना से भरती गई :
न जाने कितने तारे
मेरी आंखों में आ-आ कर ध्वस्त होते रहे हैं
उनकी तेज रौशनी
गहन ऊष्मा उनकी
आकर मेरी आंखों में बुझती रही हैं
और मैं इन तारों का
एक विशाल दीप्त घर बन गई हूँ
जिसमें मनुष्यों की भांति ये मरने आते हैं।
सदियों की पीड़ा और पहचानहीनता ने उसे रवां कर दिया, उसके जख्म चमक उठे, उसके दुख दीप्त हो गए।बात यही है, लेकिन स्त्रीवादी सौंदर्य उसकी कॉस्मिक विराटता में है।सामयिक हिंदी कविता में ऐसे विराट बिंब दुर्लभ हैं।कारण कि इसके पास कोई विराट स्वप्न नहीं है।लेकिन स्त्रियों के पास मुक्ति का स्वप्न अब भी है, वहीं से ऐसे बिंब पैदा हो रहे हैं।सविता सिंह की ये कविताएं उनके दैहिक अनुभवों, अवचेतन के अनगिनत संस्तरों, जन्म-जन्मांतर की व्यथाओं, मृत्यु, आनंद, दुनिया की अपर्याप्तता, सपनों और ध्वनियों से जुड़ी हैं।वे इन्हें मुकम्मल गीत की तरह निरुद्वेग गाती, खुद को पहचानती, महसूसती और संभव हुई जाती हैं।
(विशेष कवि सविता सिंह की कविताएं पढ़ने के लिए कृपया यहां क्लिक करें।)
संपर्क: तीसरा तल, हाउस न.1, जी.एन.-5, ब्लॉक–ए, हमगिरी एन्क्लेव, संत नगर बुरारी, दिल्ली–110084 मो.9990668780
बहुत शानदार लेख है भैया🌺🌺बहुत सुंदर🌺
सविता अपने बिंब प्रयोग और नवीन अर्थ छवियों के लिए जानी पहचानी जाएंगी। रात, नींद, सपने, प्रेम और परंपरा आदि को उन्होंने स्त्री जीवन के साथ संबद्ध करके देखा है। इसलिए पूरी दुनिया की स्त्रियां उनके यहां आती है। सिल्विया प्लाथ, एलिना डिकंसन, मरीना तस्वेतायेवा आदि को कविता के मार्फत स्मरण करती हैं…कविता स्वयं उनके लिए एक सहयात्री है, उनका अपना साथी है🙏🙏
आपने तीन तरह की महिलाओं और उनकी रचना प्रक्रिया के बारे में बताया है,
पहली जो स्त्री विमर्श के नाम पर हक अधिकार, समानता के सवालों को अपने लेखन में लेकर चलती हैं, दूसरी वो जो स्त्रियों को उनकी मातृत्व क्षमता से जोड़कर देखती हैं और स्त्री चेतना, बुनावट को सांस्कृतिक तत्वों में खोजती हैं , बहनों का एक अलग स्पेस बनाना चाहती हैं।
तीसरा जो सबसे महत्वपूर्ण दायरा आपने बताया है वो है स्त्री की कामनाओं का, इक्षाओं का, इसे आधार बनाकर सविता सिंह कविताएं लिखती हैं। सविता सिंह ऐसी स्वतंत्र चेता महिलाओं के लिए, उनकी कामनाओं के लिए, सोचने और विश्वास करने के लिए विषयवस्तु तैयार करती हैं। सविता सिंह स्त्रिय शब्दावलियों को नए अर्थ देती हैं।। रात को, अंधेरे को एकदम नए अर्थ उनकी कविताओं में मिलते हैं।
सविता सिंह का मानना है कि सिर्फ हक अधिकार मांगने से काम नहीं चलेगा। चलिए हक अधिकार मिल भी गए तो क्या करेंगी। अगर मन को पुरुषों द्वारा दिखाए सपने ही दिखाने हैं तो फिर क्या मतलब ।