युवा आलोचक। और साहित्यिक-सांस्कृतिक रूप से निरंतर सक्रिय।
किसी युग के काव्य-वैशिष्ट्य को चिह्नित करते हुए यह ज़रूर देखना चाहिए कि वे कविताएँ ग्रामीण संवेदना को कैसे अभिव्यक्त करती हैं| इससे उनकी जनोन्मुखता, सामुदायिकता, इंद्रियबोध, पारिस्थितिक गहनता, वाचिकता, जीवंतता आदि अनेक बातों का सहज पूर्वानुमान किया जा सकता है| इसीलिए, कम-अज़-कम हिंदी में, ग्रामीण संवेदना प्रेम और नागर कविता की तरह कविता की कोई विशिष्ट कोटि न होकर कविता मात्र की एक विश्वसनीय कसौटी है|
बहुसंख्यक हिंदी समाज आज भी ग्रामीण है| यही ग्रामीण समाज हिंदी जाति के भावबोध, सौंदर्य चेतना, लोक साहित्य और भाषा-निर्मात्री नर्मदा है| यही धारा है, यही केंद्र है, लेकिन कविता में यह समाज किनारा और सीमांत लगता है| अब यह हमारे विमर्श का भी प्रश्न नहीं रह गया है कि जिस भाषा का बहुलांश समाज ग्रामीण है, उसकी कविता शहरातू और इतनी आकाशचारी कैसे होती गई| क्यों यह कविता मध्यवर्गी कामनाओं, मनोभावों, पीड़ा और फंतासी के रंगीन बुलबुले में क़ैद होती गई| जहाँ ग्राम्य-जीवन दिखाई भी पड़ता है, वह अधिकांशतः वास्तविक सम-वेदनात्मक अनुभूति के बजाय मध्यवर्गी दुश्वारियों का प्रतिवेदनात्मक कौशल ज़्यादा लगता है| तफ़तीस के लिए किसानों की आत्महत्या पर लिखी अनगिनत कविताएं देखिए| चार अच्छी कविताएं भी दुर्लभ हैं| कारण वही है, ऐसी कविताएं गहन सह-अनुभूति के बजाय क्षणिक संवेग, रणनीतिक जरूरतों और कौशल से लिखी जाती हैं|
गांव भारतीयों की सबसे पुरानी संरचना है| इस देश में हजारों गांव हैं जो सैकड़ों चमकदार शहरों से ज्यादा पुराने हैं| ये गांव तमाम बदलावों के बावजूद दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक के अविरत प्रवाह के संवाहक और साक्षी हैं|
दुनिया में अनेक सभ्यताएं खड़ी हुईं और मिटीं, परंतु भारत और चीन में उनकी अजस्रता कभी खंडित नहीं हुई| बदलावों के बावजूद निरंतरता बनी रही| निश्चय ही इसमें सबसे बड़ी भूमिका गांवों की थी| इसलिए गांवों पर सांस्कृतिक और सभ्यतागत संभार अधिक है| यही कारण है कि गांव तीव्र अंतर्विरोधों, संघर्षों व समंजन की गतिशील ज़मीन बन गए| एक तरफ जांत, कांड़ी, चाकी, सिलबट्टा जैसे आदिम पाषाण युगीन औजार चले आ रहे हैं तो दूसरी तरफ हाईटेक मोबाइल फोन भी बज रहा है| हजार वर्ष से चली आ रही जजमानी व्यवस्था अब भी लस्टम-पस्टम चली जा रही है|
दूसरी तरफ ‘पैकेज़’ बढ़िया हो तो कथित उच्च वर्ण को निम्न वर्ण के यहां काम करने में कोई उज्र नहीं है| सहकार, सामुदायिकता, सामाजिकता, लोकसंस्कृति लगभग नष्ट हो चुकी है, तथापि ढहती हुई दीवार पर उनकी छापें बनी हुई हैं| तालाब सूख रहे हैं, लेकिन कोहबर में मछलियां किलक रही हैं| पर्दा तार-तार हो चुका है, लेकिन उस पर बने मोर के चोंच में अब भी एक सांप लटक रहा है – जस-का-तस| स्वीगी-जोमैटो वाले पिज्जा-बर्गर पहुंचा रहे हैं, डीह-काली आज भी लपसी-पूड़ी से ही तृप्त हैं|
ग्रामीण समाजों के इस अंतर्विरोधी यथार्थ पर ९वें दशक के कवियों में अष्टभुजा शुक्ल और आखिरी दशक के कवियों में केशव तिवारी की कविताओं को सामने रखे बिना कोई विश्वसनीय बातचीत संभव नहीं है| आखिरी दशक की विरल ग्राम्य संवेदना वाले काव्य-परिदृश्य में केशव तिवारी ग्राम्य-जीवन और लोक विमर्श का रास्ता खोलते हैं| बल्कि अपने इसी वैशिष्ट्य के नाते वे ९वें दशक का विस्तार लगते हैं| केशव तिवारी के पास खूब लोकपगी आंखें हैं| उनमें सुंदर का आवेग और शुभ का विवेक है| इतने बदलावों के बावजूद आज भी जब विवाह होता है तो सारे लोकाचार होते हैं| आज भी कलश बैठाया जाता है, बांस टीक कर आते हैं और बांस से ही मंडप बनता है| घर एक साथ लोगों के कदमों और सद्य संभावित निर्जनता की आशंकाओं से भरा होता है| महीने भर पहले से दीवारें पोती जा रही हैं, खाट की ओरदावनें कसी जा रही हैं, आंगन लीपा जा रहा है… अब आगे का दृश्य कवि की आंखों से देखिए-
छिड़की जा रही है
नेवता की पातियों पर हल्दी
मठमंगरे की माटी लिए
तालाब से गाती आ रही हैं सधवाएं
मटके बैठ गए हैं
घिनौचियों पर
टिकवा कर हल्दी की टिपकियां
मड़वे के लिए
आ गए हैं हरे बांस|
निमंत्रण पत्र को तिलक लगाकर भेजा जा रहा है| तालाब से मिट्टी गाते हुए लाई जा रही है, जैसे कोई संबंधी| अपनी घिनौचियों पर मटके बड़े-बूढ़ों की तरह बैठे हुए हैं| और बांस का तो मानो तिलक करके स्वागत किया जा रहा है| यह उत्सव और उछाह का घर है| यहां धरती के छोटे से छोटे अनुषंग का स्वागत-सम्मान किया जा रहा है| ग्राम्य जीवन के ऐसे शुभ सम्मोहक दृश्य केशव तिवारी की पहचान हैं| इस मामले में उनका गाँव प्रेमचंद के बेलारी से दूर फणीश्वरनाथ रेणु के मेरीगंज के करीब पड़ता है| उसमें शक्ति-संरचना का वर्तमान भले कुछ ऊना लगता हो, लेकिन मोहक स्मृतियों का सौंदर्य इसे ढंकने में सक्षम है| विवाह-मंगल के बाद वर्षा-मंगल का चित्र देखिए; सूखे के बाद धान कैसे डूब-डूबकर नहा रहे हैं
खूब अर्रा तोड़
गिरा पानी
भर गये गड़हा-गड़ही, तालाब
मेढकों ने जी भर गाया
टर्र-टों का गीत
गले-गले तक बूड़ कर नहाए धान|
गले तक बूड़-बूड़कर नहा रहे धान फसल से ज्यादा किसानों के बच्चे लगते हैं| धान के लिए यह नेह उसी के भीतर फूट सकता है जिसके लिए जमीन और फसलें संपत्ति होने से ज्यादा गहरा अर्थ रखती हों| लोककवि तुलसीदास भक्त और भगवान के संबंध को धान से रूपायित करते हैं- ‘बरखा रितु रघुपति भगति, तुलसी सालि सुदास/राम नाम बर बरन जुग सावन-भादव मास|’ बात भक्ति और अध्यात्म की है, लेकिन सौंदर्य जड़हन और सावन-भादों महीने का है| त्रिलोचन ने लिखा कि जब धान के पौधे उठ-उठ कर ताकते हैं तो दिशाओं के छोर रंग-रंग उठते हैं| यह है लोकसंवेदना| केशव तिवारी की कविताएं जायसी, तुलसी, त्रिलोचन की इसी उर्वर जमीन पर उगती हैं| आज तो किसान और किसानी पर लिखी जा रही कविताओं तक में यह लोक संवेदना दुर्लभ है|
केशव तिवारी लोक-सैलानी कवि न होकर लोकभूमि के रहवासी कवि हैं| उनकी लोक संवेदना का भूगोल अवध से लेकर बुंदेलखंड तक फैला हुआ है| केशव की कविताओं से इस पूरे क्षेत्र की नदियों, पठारों, बोलियों व लोक व्यवहारों का मानवशास्त्री संसार रचा जा सकता है| उन्होंने जायसी, तुलसी, पढ़ीस, त्रिलोचन, मानबहादुर सिंह, ईसुरी, केदारनाथ अग्रवाल की काव्य-संवेदना को न सिर्फ हृदयस्थ किया है, बल्कि इसे अपनी कविताओं में ससंज्ञ लौटाते हैं| केशव तिवारी अवधी-बुंदेली के शब्दों, मुहावरों और कहन भंगिमा का खड़ीबोली से सहज संलयन करते हैं| साथ ही समकालीन टंकित काव्यभाषा से अलग इसे वाचिक भाषा की तरफ़ खींचते हुए उसकी लय और तान को इतनी खूबसूरती से साधते हैं कि कविताएं एक बार पढ़ी जाकर मन में घुल जाती हैं| इधर लिखी जा रही कविताओं में किसी हिंदी क्षेत्र का ऐसा ठोस भूगोल विरल हुआ है| ऐसे देखने पर केशव कविता के सपाट भूदृश्य में छविमय पठार लगते हैं|
केशव का गांव स्मृतियों की जगह नहीं है, जिसे वे अपनी मध्यवर्गी ऊब में टेरते हों| बल्कि कहना चाहिए, वह भी एक हद तक है, लेकिन यह ग्रामीण वास्तविकता से मुंह चुराने का ओट नहीं बनता|
फलतः चीजें किसी भावुक सरलीकरण के बजाय द्वंद्वात्मक होने लगती हैं| ध्यान से देखने पर केशव की कविताओं में छीजती और ढहती हुई चीजों पर टिका कोई न कोई मोहक जीवन-चित्र बार-बार लौटता हुआ मिलेगा| ऐसा लगता है कि केशव चीजों के निश्शेष हो जाने की अनिवार्यता को जानते हुए भी उसपर रचे हुए जीवन-बिंब को बचा लेना चाहते हैं| यह जीवन बिंब कहीं ढोल, कहीं मसकबीन, कहीं मइकू, कहीं दीवारों पर लगी हल्दी और गेरू की छापों में आता है| यह दीवार, जिसपर मसकबीन टंगी हुई है, जिसपर ढोल टंगी हुई है, जिसपर हल्दी और गेरू की छापें हैं, वह ढह रही है| यह किसी बरसात में सबकुछ लिए-दिए बैठ सकती है| ढहती हुई दीवारों पर टंगी यह मसकबीन, उसपर लगी हल्दी और गेरू की छापें ग्राम्य संस्कृति के राग, उत्साह और शुभता का बिंब है|
ग्रामीण संरचना की यह दीवार बहुसंख्यक समाज की पीठ पर खड़ी थी| अब उसमें हलचल हो रही है| यह धसक रही है, बल्कि इसे धसक ही जाना चाहिए, लेकिन उस दीवार पर टंगी मसकबीन का क्या, उस हल्दी और गेरू की छापों का क्या जो उस दीवार पर पड़ी है? यह वास्तविकता है कि उस ग्राम्यजीवन की सामाजिक-आर्थिक संरचना में अपरंपार दमन था, इसलिए उसे बदलना ही चाहिए, परंतु उस संरचना में जो सामुदायिकता, सामाजिकता, सहकार, उत्फुल्लता, जीवन-प्रकृति-साहचर्य, संवेदनात्मक ऊष्मा थी उसका क्या? क्या इसका कोई मूल्य नहीं है?
केशव तिवारी का तनाव यह है कि वे फूल के साथ उसके सुवास को भी नष्ट होते नहीं देख सकते| यह एक गहन सांस्कृतिक जिम्मेदारी है, क्योंकि ईंट-पत्थरों की तरह अलग-विलग व्यक्तियों की भीड़ न मनुष्यता का स्वप्न है न कविता का|
गांवों का संरचनात्मक अंतर्विरोध सामाजिक मनोविज्ञान, सौंदर्यबोध और काव्य प्रतिमानों को भी उलझा देता है| दलित और स्त्रियां गांवों को वैसे ही मोहासक्त होकर नहीं देखतीं जैसे उच्च वर्ण पुरुष| सूरज पाल चौहान की कविता, ‘मेरा गांव/कैसा गांव?/न कहीं ठौर/नहीं ठांव’, इसी अंतर्विरोध की एक सरल अभिव्यक्ति है| यह बात जायज है कि उस व्यक्ति को गांव क्यों याद आए जिसके लिए वह दमन और अपमान की दुस्सह वास्तविकता है| लेकिन दूसरे प्रश्न भी वस्तुगत जवाब की मांग करते हैं, क्या शहरों की गंदी झुग्गियों में उन्हें हवा-पानी, सुरक्षा और आत्मसम्मान मिल गया? अगर ऐसा होता तो इस महामारी में अंतिम आश्रय के लिए लाखों लाख लोग गांवों की तरफ न भागते| कविता में इस संरचनात्मक तनाव का सरलीकरण दो तरह से होता है| पहले तरह के लोग इस पूरी संरचना का सौंदर्यीकरण करते हैं| दूसरे तरह के लोग सर्वनकारवादी हैं| बहुसंख्यक लोकवादी कवियों की तरह पुरानी संरचना में मौजूद दमन का सौंदर्यीकरण उतना ही आसान है जितना अंबेडकरवादी कविता की तरह उसकी सामुदायिकता, सामाजिकता, सहकार और सौंदर्य का सर्वनकार| इन दोनों तरह की कविताओं में भावुकता तो है, लेकिन विवेक-वृत्ति के अभाव से कोई रचनात्मक तनाव पैदा नहीं हो पाता| केशव तिवारी इस तनाव को बहुत कोमल बिंदु पर संभालने की कोशिश करते हैं, इसलिए इधर-उधर भी होते हैं| जहां इस तनाव को संभाल पाते हैं, वहां कविता बहुवचनीय होकर अनेक अनुगूंजों से भर उठती है| जहां फिसलते हैं, वहां भावुकता में आकाश फुलौरी छानने लगते हैं|
उनका पहला संग्रह- ‘इस मिट्टी से बना’ २००४ में प्रकाशित हुआ था| इस संग्रह में कई कविताएं ऐसी हैं जहां वे संरचना और सौंदर्य के इस तनाव को साधकर उल्लेखनीय कलाकृति में बदल देते हैं| ऐसी ही एक कविता है- ‘ये वहीं पर गा रही हैं’| इस कविता का मंज़रकसी आकर्षक है| अगिया बैताल मौसम और मनमनाती दुपहरिया में ढोलक की टनक के साथ नारी स्वर का बिंब रचते हैं ‘ठाढ़ी सिया पछताएँ लव कुश वन मा भये|’ सीता के दुख में इनका दुख भी बोलता है| क्योंकि वे सिर्फ मनमनाती दुपहरिया में नहीं गा रही हैं, एक सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में भी गा रही हैं-
अपनी ही दुनिया में तिरस्कृत
अपने ही जवान होते बेटे से
बात करते थरथराती ये
जहाँ इनके तेज़ बोलने पर भी पाबंदी है
ये वहीं गा रही हैं|
अगर इस पूरी कविता से यह संदर्भ हटा दिया जाए तो कविता दुख, मार्मिकता, प्रतिरोध की बहुस्तरीयता खोकर सपाट और ठंडी पड़ जाएगी| अगर लोकसौंदर्य को उसके सामाजिक संदर्भ और संरचना से काटकर प्रकृति से जोड़ दिया जाए तो न स़िर्फ कलात्मक बहुस्तरीयता खोकर अविश्वसनीय हो जाएगी, बल्कि कला और सौंदर्य का इस्तेमाल एक अमानवीय संरचना के पक्षपोषण का तर्क बन जाएगा| जो दृष्टि इस पहले संग्रह की कविताओं में है वह दस साल बाद प्रकाशित तीसरे संग्रह ‘तो काहे का मैं’ में नहीं है| इस तीसरे संग्रह की कविताओं में वह समवेदनात्मक तनाव और अंतर्दृष्टि नहीं दिखाई पड़ती जो पहले संग्रह की खासियत है| इसलिए इन कविताओं का रचनात्मक तनाव भी रिलीज़ हो गया लगता है|
ऐसी ही कविता है- ‘कंकरा का घाट’| इसमें घुटने-घुटने पानी में खड़े हच्छ-हच्छ करके कपड़ा धोते हुए धोबी इतने सुंदर लगते हैं कि ऐसा न देखकर उसे दुख होता है| लिखते हैं कि वे ‘रिन और सर्फ के चमकार के पीछे के अंधेरे में कहीं खो गए’|
उन्हें अपनी घिसी हुई स्मृतियों के पीछे धोबियों की पीड़ा ध्यान में नहीं है| दो समयों के तनाव और अंतर्विरोध के ऊपर लहराते सौंदर्य को पकड़ पाने की अक्षमता ने कविता की शक्ति को सोख लिया है| इससे कई बार यह लगता है कि केशव तिवारी ने ग्रामीण संरचना और सौंदर्य के इस तनाव को विचार के स्तर पर नहीं देखा है| बल्कि क्षणिक सौंदर्यात्मक संवेग में जहां जैसा पाते हैं वैसा रचते जाते हैं| इसीलिए यादृक्षिक रूप से कहीं तो वह मिल जाता है और कई जगहों पर छूट जाता है|
वैश्विक बाजार ने गांवों में अपरंपार इच्छाएं पैदा की हैं| परंतु लोगों के पास इसे पूरा कर सकने का कोई साधन नहीं है| इस अंतर्विरोध ने असह्य अवसाद और अवसन्नता पैदा की है| अतिरिक्त उत्पादन की चाहत ने प्रकृति का नाश कर दिया| व्यक्तिवादी महत्वाकांक्षाओं ने सामुदायिकता और सहकार को नष्ट कर दिया| भोड़े सांस्कृतिक उद्योग ने जनमानस के दुख-सुख को समोने-सोखने वाली लोकसंस्कृति को नष्ट कर दिया| इसका परिणाम यह है कि कवि केशव की स्मृतियों में बसा सुंदर छबीला गांव अब एकदम पटरा हो चुका है| और ग्लोबल गांव के विज्ञापनों के नीचे गांव की सिसकी, अनुताप और अवसाद का अनुनाद सुनाई पड़ रहा है| जिसे शायद वही कवि सुन सकता है जिसकी सूक्ष्म संवेदी तंतु लोकहृदय तक फैले हुए हों|
मन रेल गुजर जाने के बाद
प्लेटफॉर्म पर अकेला खड़ा
किसी छोटे जंगली स्टेशन-सा
लौटते तांगे की आवाज़ सुनता है|
…
बबूल की डाल पर झूल रहा है
एक वीरान घोंसला|
…
कटे धान की उदासी रह गया है
हमारा प्रेम
यह शैली वैयक्तिक लग सकती है, लेकिन पीड़ा सार्वजनीन है| केशव में जैसा चटक लोकसौंदर्य है वैसा ही विषाद भी| बल्कि सौंदर्य के पर्श्व में भी सारंगी की विषादपूर्ण धुन सुनाई पड़ती है, जैसे कोई कलेजे पर गज फेर रहा हो| केशव के संग्रह उदास-विषादपूर्ण बिंबों से भरे हैं| इनमें हमेशा कुछ नष्ट होने या छीजने का चित्र उभरता है; कहीं लौटते तांगे की आवाज, कहीं वीरान घोंसला, कहीं खाली खेत, कहीं कुछ और…| यह नाश-बोध केशव की स्मृतियों के छबीले ग्राम्य-जीवन का नाश है, जो विविधवर्णी बिंबों में अभिव्यक्त होकर बेवश विषाद में ढल जाता है| तथापि तीसरे संग्रह के बाद पिछले वर्षों में प्रकाशित कविताओं से यह लगता है कि उनके काव्यबोध में सौंदर्य और विषाद के साथ बिडंबनाबोध मजबूत हो रहा है| भावबोध का यह बदलाव उनकी मोरपंखी भाषा और चित्रात्मकता को अपर्याप्त बनाकर इसके नए आयाम सामने ला रहा है|
(दिसंबर अंक के विशेष कवि ‘केशव तिवारी’ की कविताएं पढ़ने के लिए कृपया यहां क्लिक करें।)
संपर्क: तीसरा तल, हाउस न.1, जी.एन.-5, ब्लॉक–ए, हमगिरी एन्क्लेव, संत नगर बुरारी, दिल्ली–110084 मो.9990668780
“वैश्विक बाजार ने गांवों में अपरंपार इच्छाएं पैदा की हैं| परंतु लोगों के पास इसे पूरा कर सकने का कोई साधन नहीं है| इस अंतर्विरोध ने असह्य अवसाद और अवसन्नता पैदा की है| अतिरिक्त उत्पादन की चाहत ने प्रकृति का नाश कर दिया| व्यक्तिवादी महत्वाकांक्षाओं ने सामुदायिकता और सहकार को नष्ट कर दिया| भोड़े सांस्कृतिक उद्योग ने जनमानस के दुख-सुख को समोने-सोखने वाली लोकसंस्कृति को नष्ट कर दिया| इसका परिणाम यह है कि कवि केशव की स्मृतियों में बसा सुंदर छबीला गांव अब एकदम पटरा हो चुका है| और ग्लोबल गांव के विज्ञापनों के नीचे गांव की सिसकी, अनुताप और अवसाद का अनुनाद सुनाई पड़ रहा है| जिसे शायद वही कवि सुन सकता है जिसकी सूक्ष्म संवेदी तंतु लोकहृदय तक फैले हुए हों|” कविता की पंक्तियों के बीच फैले इस हाहाकार को दर्ज़ करने के लिए आपकी आलोचना-दृष्टि का भी महत्व है। ‘मंज़रकसी’ क्या है, समझ नहीं आया। कृपया बताएँ।
आप चीज़ों को बहुत आसानी से समझाते हैं. जाति और लोक सौन्दर्य वाली बात को आपने बहुत साफ़ संतुलित जगह पर रख दिया है. जबकि इस बारे में मैंने लोगों को अतिवादी ढंग से बात करते ही सुना है.