युवा कवयित्री, लेखिका, पत्रकार और अनुवादक।
कभी कोई निरा वर्तमान नहीं होता। वर्तमान एक अबाध गति के साथ घटित होता हुआ किसी मायावी प्रतिनिधित्व का रूप लेने लगता है। वह बार-बार परिभाषित होना चाहता है। यहां समस्या किसी एकल सच के न होने की है। शहर एक समग्र उपयोगितावादी परिवेश को रचता जाता है। एक केंद्रपरकता सब चीजों पर हावी हो जाना चाहती है। लेकिन इसके भीतर मनुष्य के तमाम विषम भाव संसार भी अपनी तरह से कसमसाता रहता है। |
महानगरीय जीवन के पहले कवि बॉदलेयर ने अपनी एक कविता में लिखा था-
कोई जगह जहाँ बहुत सारे समय इकठ्ठा हो जाते हैं,
जहाँ उच्चारे गए शब्दों की कोई बुदबुदाहट जीवित है
वे दूर से आती कुछ अस्पष्ट सी पुकार हैं
वे निरखती रहती हैं मनुष्यों के होने
और उनके गुज़र जाने को।
विजय कुमार की पुस्तक शहर जो खो गया से उपर्युक्त उद्धरण है। इस पुस्तक को पढ़ने से पहले मैं हैरान थी – मुंबई भी क्या किसी का शहर हो सकता है? मुंबई से जुड़ाव, उसकी बातें, उसका एहसास कितना संभव है! मुझे लगता था, इस मेट्रो शहर के रहवासी को भी अजनबीयत लगती होगी। अनियंत्रित विस्तार में फैला शहर, जिसका कोई ओर-छोर नहीं, जिसके बाहर समुद्र और भीतर मानव समुद्र, इसमें कौन किसे पहचानता होगा, कैसे स्मृतियां सहेजता होगा! परंतु विजय कुमार इस विचार को पूरी तरह गलत साबित करते हैं। वे अपने शहर के विशद आख्यान में उतरते हैं- ‘मेरा यह शहर जो विकास का एक मिथक रचता है और भारतीय आधुनिकता का प्रतीक कहलाता है, शायद यह हमारी आधुनिक सभ्यता की किसी मायावी दुनिया के तमाम रहस्यों को अपने भीतर समेटे किसी अकथ विकलता को रचता है।’ इस कथन का एक-एक शब्द महत्वपूर्ण है। यों इन शब्दों के सहारे हम विजय कुमार की नज़र से मुंबई में एक बार फिर दाखिल होते हैं।
यह किताब उस सपने जैसे शहर के बारे में है, जिसे हमने रूपहले परदे पर देखा है। हममें से बहुत से लोग इसे मायानगरी के रूप में जानते हैं, बहुतों के लिए यह अमिताभ बच्चन की फिल्मों में छाए हुए माफिया का शहर है, खोए हुए बच्चों का शहर है, मशहूर टेक्सटाइल मिलों और मजदूरों का शहर है, समंदर किनारे हाथ में हाथ डाले बेफिक्र घूमते युवाओं का शहर है, ख़्वाजा अहमद अब्बास की कलम से जगमग रातों का शहर है, मज़ाज का आवारा और बे-मुरव्वत शहर है। अब यह शहर विजय कुमार जैसे नामचीन और संवेदनशील कवि और लेखक का शहर है। वे मुंबई की रूह में उतरते हैं और शहर और वे खुद एक दूसरे में घुलकर पाठक से संवाद करने लगते हैं।
विजय कुमार हिंदी के रचनात्मक जगत का एक सुपरिचित नाम है। उनकी कविताएं, साठोत्तरी हिंदी कविता पर उनका काम, एडवर्ड सईद पर उनकी वैचारिक पुस्तक चर्चा में रही हैं। देशी-विदेशी कविताओं और वैचारिकी में उनकी आवाजाही है। उन्होंने तमाम अनुवाद और संपादन भी किए हैं। उनकी सात वैचारिक पुस्तकें आ चुकी हैं।
यह किताब करीब निन्यानबे लेखों का संग्रह है। ये लेख उन्होंने नवभारत टाइम्स में ‘रहगुज़र’ के नाम से पाक्षिक कॉलम के रूप में लगातार तीन बरस लिखे। सौ का आंकड़ा छूने से पहले रुक गए, यों कि कुछ अधूरापन भी आखिर रहना चाहिए। अपनी निरंतरता में चलते ये लेख शहर की पुरानी यादों को खोजते समेटते चलते हैं, जैसे कोई यात्री अपने पुराने रास्तों पर वापस लौटे और सब बदला हुआ पाए। पुस्तक का पहला लेख इसी के नाम के शीर्षक से है- ‘एक शहर जो खो गया’। यहीं से शहर अपनी गुम हुई बाहें फैलाने लगता है, जिनमें लेखक अब भी कैद है और इस गुम हुए शहर का हर क्षण अपनी शिराओं में जीने लगता है।
यह पुस्तक मुंबई का इतिहास है। जीता जागता इतिहास। लेकिन इतिहास जैसा नीरस नहीं। इसके हर पन्ने में मुंबई की धड़कन है। जैसे शहर कोई इंसान बन कर बस गया हो। चूंकि बुनियादी तौर पर ये अखबार के लिए लिखा गया है इसलिए ये छोटे-छोटे लेख हैं, इनकी भाषा बहुत रवानगी भरी और दिलचस्प है। लगता है आप कहानी पढ़ रहे हैं, या जैसे आंखों के सामने फिल्म चल रही है।
पुस्तक के चार सौ सत्तर पन्नों में मुंबई शहर सांस लेता है- शहर के भीतर शहर, धारावी का जीवन, मंटो की मुंबई, मराठी नाटक, शहर में कविता और कविता में शहर, ईरानी रेस्तरां, मुमाबी की टेक्सटाइल मिलें, कुर्ला जंक्शन, नदी की मौत, चाल का जीवन, इस्मत आपा, कृशन चंदर, बेदी, राजा राममोहन राय, नवजागरण, प्रार्थना समाज, महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण, पाठारे प्रभु, पारसी उद्यम, बंबई के यहूदी, ईस्ट इंडियन ईसाई, गोअन लोगों की जीवन शैलियां, जॉन विल्सन, मारियो, समुद्र, मेरवान कैफे, चौराहे, सड़क, पुल, दीवारें, फिल्में, कला, सिनेमा, सिनेमा घर – मुंबई के विराट जीवन को समेटती पुस्तक की ये कुछ झलकियां हैं।
विजय कुमार इस शहर को बहुत अच्छी तरह पहचनाते हैं। इसे बनाने वालों को और बिगाड़ने वालों को। वे इसके तिलिस्म को जानते हैं और सच को भी। वे इसके कारणों का समुचित विश्लेषण करते हैं जैसे कोई अपने घर पर बात करता है, उसी लगाव, उसी खुशी और उसी दुख से। वे शहर की गरीबी का कारण भी जानते हैं और माफिया की नजर में चुभते गरीब को भी। वे उदारीकरण से नष्ट होते मुंबई को भी पहचानते हैं। यह पुस्तक एक साथ ही समाचार भी है, विश्लेषण भी, इतिहास भी, राजनीति और दर्शन भी। मुंबई जैसे विराट नगर को इस तरह देख पाना और उसे कलमबद्ध करना एक बेहद मुश्किल काम है, जिसे विजय कुमार ने पूरा डूब कर और जीकर उकेरा है।
मसलन एक पैरा यह देखिए- ‘मनुष्यों की तरह शहरों के चेहरे भी बदलते जाते हैं। अंधकार के एक कंबल के नीचे पुराने ढांचे, लैंडमार्क, समय, दृश्य, जीवनशैलियां और लोग जा छिपते हैं। हमारे पास सिर्फ एक स्पंदन बचा रहता है और थोड़े से पुराने किस्से। विगत को लिखना कई बार एक शोकगीत की तरह लगता है।
इस विगत के बहुत से झरोखे तो अभी खुलने बाक़ी हैं।’ इतिहास, दर्शन और राजनीति पर गहरी नज़र रखने वाला एक कवि, लेखक और पत्रकार अपने शहर को कैसे देखता है यह सचमुच एक अद्भुत अंतर्दृष्टि है। विजय कुमार के पास गहरी संवेदना के साथ ही अद्भुत भाषा है, जो इस पुस्तक की बुनावट के हर वाक्य पर मोहित करती है।
इस पुस्तक से गुजरते हुए हम इतिहास के उन खंडहरों के चक्कर काटते हैं जहां कभी ज़िंदगी गुलज़ार रहती थी। एक पूरे शहर का यों बदल कर कुछ और ही हो जाना परिवर्तन के शाश्वत होने में यकीन को बढ़ाता है। जो है, कल वह निश्चित ही नहीं रहेगा। अच्छा नहीं रहा है, बुरा भी नहीं रहेगा। स्वर्णिम अतीत इतिहास के पन्नों में सिमट जाएगा। एक दिन यह यकीन करना मुश्किल होगा कि मुंबई कलाकारों, साहित्यकारों, विभिन्न संस्कृतियों का जीता-जागता मिलन स्थल हुआ करता था। आज मुंबई को भारत की आर्थिक राजधानी कहा जाता है।
‘दुनिया भर के शहर आज सभ्यताओं के खंडहर हैं, जिनमें तमाम तरह की जगर-मगर, विषमताएं, विरोधाभास, अर्ध सत्य, तिलिस्म, चुंबक, अपने होने के बोध की द्वंद्वात्मकता तथा मनुष्य की सामूहिकता और एकाकीपन की खंडित सचाइयों के ढेर लगे हुए हैं। एक तेज दौड़ते समय के वीराने में हम कभी रुकते हैं तथा इतिहास और वर्तमान की इन अपूर्णताओं को अपने लिए बटोरते हैं, जीने के किसी अर्थ को जानना चाहते हैं।’ यह लेखा-जोखा मुंबई का रचनात्मक एनसाइक्लॉपीडिया है।
मैंने इस किताब को कई बार पढ़ा। आश्चर्य कि आज जब बड़े-बड़े प्रकाशनों की किताबों में प्रूफ की बेशुमार गलतियां मिलती हैं इस किताब में प्रूफ से लेकर कॉमा तक की एक भी गलती पकड़ में नहीं आई। नुक्ते को भी मौजूद देखकर आनंद आया, चंद्रबिंदु और विराम, संबंध के म और न ऊपर की बिंदी में विलीन नहीं किए गए हैं। लेखक की भाषा को टाइपिस्ट और प्रूफरीडर ने बहुत बेहतरीन ढंग से सहेजा है। यह पाठकीय अनुभव को बहुत प्रवाहपूर्ण और सहज बना देता है। सेतु प्रकाशन को बेहतरीन छपाई के लिए धन्यवाद कहा जा सकता है।
जिज्ञासा :‘शहर जो खो गया’ पुस्तक की ध्वनि ऐसी है जैसे शहर के साथ हमारा भी हिस्सा खो गया है। शहरीकरण की यह एक गहरी टीस है जो बेचैन करती है। आप इस पीड़ा से कैसे उबरते हैं?
विजय कुमार: जिस शहर में आप अपनी जिंदगी का एक बड़ा वक्त गुजारे होते हैं, उस शहर ने आपके व्यक्तित्व को गढ़ा होता है। स्मृतियों, सुख-दुख, आशा-आकांक्षाओं, नींद और जागरण में वह शहर एक किरदार की तरह से उपस्थित रहता है। बदलाव, अवशेष, मिथक और दृश्यजगत के धागों को एक दूसरे से जोड़ते हुए रचा गया एक शहर जो सिर्फ बाहर की एक भौतिक सचाई नहीं, वह हमारे भीतर सजीव होता है, व्यक्तित्व के रेशे-रेशे में। शोर और सन्नाटे में चेतना के भिन्न धरातलों पर वह अपने होने को पाता है। वह शहर कभी नष्ट नहीं होता। उसे अनुभव करना समय और परिवर्तनों की आंधी के बीच खड़े होने की तरह है। छूट गए, ओझल हो गए, खो गए में कुछ होता है जो आने वाले समय के लिए भी प्रासंगिक बना रहता है-चाहे वह एक शोक गीत की तरह ही क्यों न हो। वह रचनात्मकता में लौटता है। बीते हुए की परछाइयां शब्दों में पिघलती हैं- क्षरण और विस्मृति के विरुद्ध एक प्रतिरोध की तरह।
जिज्ञासा: अपने शहर को बदलते देखना मनुष्य को बदलते देखना भी है। बहुत सारी दुरवस्थाएं हैं। इस सबके बीच उम्मीद की किरणें कहां देखी जा सकती हैं?
विजय कुमार: पिछली कुछ शताब्दियों में रुपांतरणों और परिवर्तनों का एक लंबा इतिहास इस महानगर ने देखा है। मछुआरों की बस्ती और सात टापुओं का भू-भाग एक औपनिवेशिक बंदरगाह में तब्दील हुआ। फिर मिलों, कल- कारखानों और उद्योग-धंधों और कारोबार का शहर बना, देश की आर्थिक और वित्तीय राजधानी कहलाया। अब आर्थिक क्षेत्र में आई नई तब्दीलियों के साथ उत्पादन के अर्थ बदल रहे हैं। सेवा क्षेत्र से जुड़ी तमाम नई आर्थिक गतिविधियां इस शहर में उभरी हैं। मिलें बंद हुईं, कमगारों की बस्तियां उजड़ गईं, चिमनियों ने धुआं उगलना बंद कर दिया, प्रोफेशनलों की एक नई कार्य-संस्कृति ने आकार लिया। लेकिन सफेदपोश नौकरियों से इतर असंगठित क्षेत्र में भी लाखों कुशल और अर्ध-कुशल श्रमिक इस शहर में छोटे-मोटे काम-धंधों, निर्माण गतिविधियों और मजदूरी में लगे हुए हैं और अपनी दो जून की रोटी का जुगाड़ करते हैं। प्रगति और विकास के मिथक के भयावह अंतर्विरोधों के साथ अनियोजित शहरी विकास ने शहरी निर्धनता और बदहाली की चरम अवस्था, झुग्गी-झोंपड़ियों और गंदी बस्तियों, भीड़-भाड़, नए किस्म के तनावों, शोषण, गैर-बराबरी, अपराध, प्रदूषण और पर्यावरण विनाश की स्थितियों को जन्म दिया है। लेकिन फिर भी साधारण मनुष्य के लिए यह सपनों की नगरी है। वह चुंबक की तरह लोगों को अपनी ओर खींचता रहा है। चारों ओर की बहुविध जीवन स्थितियों, घटनाओं, वातावरण, मनोभावों और सामूहिकता के अनेक रंगों में उपस्थित यह ‘शहर’ इन अर्थों में एक ‘पाठ’ है। महानगरीय जीवन के ये वैविध्य और उसके ये तमाम अंतर्विरोध बहुत गौरतलब हैं। विस्थापन, बदहाली, विषमता, तनाव, विच्छिन्नताओं, अजनबीपन, अस्थिरताओं के सच के बीच मनुष्य के भीतर जीवित स्वप्न, जिजीविषा और आकांक्षाओं के अनेक रंग भी यहां दिखाई देते हैं । अनियोजित विकास की इन सारी दु:सह्य स्थितियों के बीच जीते मनुष्य के भीतर मौजूद सतत गतिशीलता का तत्व ही सबसे बड़ा सकारात्मक पहलू है।
जिज्ञासा: कया कृषि समाज से शहरीकरण की तरफ बढ़ा एक कदम था? अब जबकि शहरीकरण अत्यधिक सैचुरेट हो चुका है, इस सभ्यता का अगला कदम क्या हो सकता है? शहरीकरण, संवेदनहीनता, स्वार्थ के बीच मनुष्यता का क्या भविष्य है?
विजय कुमार: एक महानगर की संरचना को जब हम देखते हैं तो वह संरचना मनुष्य-तत्व के विखंडन, विस्थापन, अस्थिरता, अनिश्चितता, बदलाव, विस्मृति, टकराहट, जद्दोज़हद और पुनर्वास की किसी बहुआयामी प्रक्रिया को दर्शाने लगती है। यह रूपांतरण की जैसे कोई महागाथा हो। कहना होगा कि कभी कोई निरा वर्तमान नहीं होता। वर्तमान एक अबाध गति के साथ घटित होता हुआ किसी मायावी प्रतिनिधित्व का रूप लेने लगता है। वह बार-बार परिभाषित होना चाहता है। यहां समस्या किसी एकल सच के न होने की है। शहर एक समग्र उपयोगितावादी परिवेश को रचता जाता है। एक केंद्रपरकता सब चीजों पर हावी हो जाना चाहती है। लेकिन इसके भीतर मनुष्य के तमाम विषम भाव संसार भी अपनी तरह से कसमसाता रहता है। बाहरी तौर पर दिखाई देते सच की परत को थोड़ा सा खुरचते ही वस्तुनिष्ठ सी लगती सचाइयों और’ ‘सब्जेक्टिव’ मनोदशाओं के युग्म दिखाई देने लगते हैं। तनाव और जिजीविषा। घेराबंदी और गतिशीलता। सार्वजनिक जगहें और निजता के अंधेरे टापू, भीड़ और अकेलापन। उपलब्धियों के जगमगाते इश्तहार और व्यथा की अनुगूंजें। ये सब एक दूसरे में लिथड़े हुए दिखाई देते हैं।
नगरीकरण की अगली अवस्था अब ‘स्मार्ट सिटी’ की संकल्पनाओं को लेकर आई है। विकसित बुनियादी सुविधाएं, तीव्र गति यातायात, आवास के विशाल संकुल, आकाश में खड़े पुल, भूमिगत स्थल और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से संचालित व्यवस्थाएं। जॉर्ज सिमेल जैसे शहरी जीवन के असाधारण व्याख्याता ने कभी कहा था कि आधुनिक जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि मनुष्य वस्तुओं, ताकत और तकनीक के विशालकाय संगठनों में मात्र एक ऊर्जा बनकर रह गया है और उसके भीतर से उसकी ‘सब्जेक्टिविटी’ को खत्म कर देने की कोशिशें की जाती हैं। जॉर्ज सिमेल तो यह बात बीसवीं सदी के शुरुआती दशक में कह रहे थे। उसके बाद तो निर्वैयक्तिक किस्म की संरचनाओं का यह आक्रमण बहुत अधिक बढ़ता गया है। ‘स्मार्ट सिटी’ का परिवेश 21 वीं सदी की सभ्यता का अगला चरण है। यथातथ्यता की ये निर्वैयक्तिक किस्म की घेराबंदियां मनुष्य की गतिविधियों और उसके मनोजगत को आगे किस रूप में प्रभावित करेंगी यह आने वाला समय बताएगा।
……………………………………………………………………………………………………………
राजनीति हमको विभाजित करके सोचती हैं। मैं इसके विरुद्ध हूँ। दरअसल हमें जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह मुख्य रूप से राजनीतिक इतिहास है। जैसे राजवंशों का इतिहास आदि। इन सब चीज़ों की हमारे ऊपर इतनी नाटकीयता छा जाती है कि हम भूल जाते हैं कि इस इतिहास के साथ-साथ सांस्कृतिक इतिहास की भी एक समानान्तर धारा बराबर चलती रही है। |
‘जिए हुए से ज्यादा’पुस्तक में कुंवर नारायण के साक्षात्कार हैं। जिए हुए से ज्यादा – यह क्या हो सकता है! शायद इसमें वह सब जुड़ता है जो कई पीढ़ियों के अनुभव संसार से आया हो। इस पुस्तक में कुंवर नारायण के साक्षात्कारों का संकलन किया गया है। विभिन्न अवसरों पर लिए गए ये साक्षात्कार उनकी पत्नी भारती नारायण और पुत्र अपूर्व नारायण द्वारा संकलित हैं। संग्रह में कुल 26 संवाद हैं- 23 हिंदी में और तीन अंग्रेजी में।
किसी लेखक को जानना जटिल नहीं तो एकरेखीय भी नहीं होता। लेखक बनने की अपनी एक यात्रा होती है, जो अक्सर जटिल होती है। सरल रास्तों पर चलकर सौंदर्य के विराट स्वरूप के दर्शन कहां होते हैं! दुर्गम मार्ग ही अनछुए अद्भुत सौंदर्य का पट खोलते हैं। कुंवर नारायण के व्यक्तित्व से परिचय में ये संवाद सहायक हैं। इनमें उन्होंने खुलकर बात की है।
ये साक्षात्कार कवि के विचारक रूप को सामने लाते हैं। इस पुस्तक में उनसे इतिहास, भूगोल, दर्शन, कविता, गद्य, उर्दू, पर्यावरण, हिंदी आलोचना, राजनीति, गुजरात, गोधरा, मंदिर, जीवन, मृत्यु, सिनेमा, संगीत, धर्म, समकालीन लेखन, निजी जीवन, घर, परिवार, पत्नी, पिता, मां, बीमारी आदि जीवन-जगत के तमाम सवालों पर सहज संवाद हुआ है।
कुंवर नारायण खुद को मूलतः कवि मानते हैं, हालांकि उन्होंने गद्य भी साधिकार लिखा है। कहानी, समीक्षा, लेख, डायरी आदि से लेकर सिनेमा, रंगमंच पर लिखा। हिंदी में लिखते थे, लेकिन उन्हें अंग्रेजी और उर्दू की बहुत अच्छी समझ थी। उर्दू शायरी लिखने के एक सवाल पर वह कहते हैं कि मैं शायरी नहीं, डायरी लिखता हूँ।
उन्होंने काफी लिखा है और अपने पुस्तकालय में बेहतरीन साहित्य का संग्रह भी किया है। उनकी सौ से ज्यादा नोटबुक आज भी उनके पुस्तकालय में मौजूद हैं। इससे समझा जा सकता है कि वे लेखन के प्रति कितने कंसंर्ड रहे हैं। उन्हें लगभग नब्बे वर्ष की सुंदर आयु मिली, जिसके हर पल को उन्होंने जिया और भरपूर लेखन भी किया।
अनुराग वत्स से एक संवाद में वह कहते हैं- ‘सुबह लिखना पसंद करता हूँ – खासकर कविता। सुबह चार-पांच घंटे अपने साथ बैठता हूँ, बस इतनी-सी पाबंदी अपने पर लगाता हूँ।’
बस इतनी सी पाबंदी! है न कमाल की बात! और उनकी इस पाबंदी से यह समझ में आता है कि कलम की साधना कैसे की जाती है। बाकी सब आयोजन इस एक कार्य की सहायक गतिविधियां हैं। जैसे वह शामें घर से बाहर बिताना चाहते हैं, शाम होते ही मन बाहर भटकने को भागता है, अन्यथा एक अजीब-सी घुटन महसूस होती है। इसी संवाद में वह कहते हैं- एक अच्छी शाम बीते तो सुबह लिखना भी बेहतर होता है। किसी कारण से यदि सुबह लिखना नहीं हो पाता तो दिन बेकार लगने लगता है।
यह पुस्तक अपने में डुबो लेती है, जैसे आप कुंवर जी के साथ बैठे उनको सुन रहे हैं। इसका श्रेय कुंवर जी की स्पष्ट, गहन समझ और अच्छे साक्षात्कारकर्ताओं को निश्चित ही जाता है, जिनमें कई जाने-माने विद्वान सर्जक, जैसे नरेश सक्सेना, विजय कुमार, गगन गिल, मृणाल पांडे, अनामिका, वंदना मिश्र, उर्सुला क्रौल, मार्कौफ़, रेनाता ज़ेकाल्स्का शामिल हैं।
लताश्री के साथ उनका संवाद ‘प्रेम बांधता है, मृत्यु मुक्त करती है’, बहुत सरस है। यहां आप कुंवर जी के हृदय में प्रवेश करते हैं। सुनील कुमार मिश्र के साथ संवाद में एक बहुत दिलचस्प बात वह जरथुस्त्र की कहानी के माध्यम से कहते हैं- जब खेल दिखाने वाला नट रस्सी के ऊपर चढ़ रहा है और इसी समय एक मसखरा जाकर रस्सी को हिला देता है और नट नीचे गिरकर दम तोड़ने लगता है, तब उसके पास जरथुस्त्र जाते हैं और उसका सर अपनी गोद में रखकर दो बातें कहते हैं- अव्वल तो यह कि इस ज़िंदगी के बाद कोई ज़िंदगी नहीं है। यह अंत ही अंतिम है, और छुटकारा है। दूसरी चीज यह कि मान लो कोई दुनिया अगर है भी तो इतना यकीन रखो कि वह इस दुनिया से बेहतर होगी।
वे अपने बचपन, मां, बहन के जाने की तकलीफ और अपने परिवार की तकलीफदेह यादों को साझा करते हैं। यहां हमें वे सूत्र मिलते हैं जो एक कवि के अंतःस्थल का निर्माण करते हैं।
इतने समर्पित लेखक से जब कोई अचानक मिलने आता है और उन्हें किताबों में व्यस्त देख वापस जाने को उत्सुक होता है तो कुंवर जी उससे कहते हैं- ‘नहीं, नहीं, मैं बिलकुल व्यस्त नहीं हूँ, यह तो मेरा रिलैक्स करने का तरीका है- किताबों के साथ। व्यस्त होता तो तनाव में होता। किताबें तो तनाव दूर करती हैं।’ अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी के साथ संवाद में इस बात का जिक्र है।
रेखा सेठी एक बात लिखती हैं और वह बड़ी कन्विंसिंग है- उनके पास जाते ही एक अधीर समय में धैर्य जागने लगता है। गंभीरता और रागात्मकता का अतुलनीय समभाव। एक प्रश्न पर वह कहते हैं- ‘कुमारजीव कहता है कि दो तरह से जीवन को जिया जा सकता है, एक तो लड़ करके, और एक जीवन के सकारात्मक पक्ष को सामने रख करके।’ फिर वे अहमद फ़राज़ को याद करते हैं-
शिकवा-ए-जुल्मत-ए-शब से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शम्अ’ जलाते जाते
शास्त्रीय संगीत में उनकी गहन दिलचस्पी चमत्कृत करती है। एक प्रश्नोत्तर में वे बताते हैं- ‘मैं ख़याल, ध्रुपद और कर्नाटक शैलियों को पसंद करता हूँ। अपनी पसंद के गायकों में वे अब्दुल करीम खां साहब, उस्ताद निसार हुसैन खां, फैयाज़ खां, अमीर खां, मालिनी राजुरकर, पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर, बेगम अख्तर, बड़े गुलाम अली खां आदि का नाम लेते हैं।
कुंवर नारायण सिर्फ कवि नहीं हैं, दार्शनिक भी हैं, हालांकि उन्होंने कहीं खुद को ऐसा नहीं कहा। लेकिन उनका लेखन मन की गिरहों को मुक्त करता है, जीवन के सवालों से टकराते पाठक के सामने उम्मीद का एक दर खोल देता है। वे बहुआयामी लोक को जीते और उसे अपनी रचनाओं में उतारते हैं।
‘अगर हम मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियों को सोचें जिसको मैंने शेक्सपीयर में, ग़ालिब में प्रतिकृत किया है, तब हम शायद नफ़रत नहीं कर पाएँगे। लेकिन जब हम राजनीतिक ढंग से अपने भेद-विभेद, जाति, इन सबको आगे रखकर सोचते हैं तब हमारे अन्दर नफ़रत पैदा होती है। इसलिए मेरा यह मानना है कि हमारी एक सार्वभौमिक दृष्टि होनी चाहिए। यह दृष्टि होनी चाहिए कि हम सब एक मनुष्य जाति के हिस्से हैं, अलग-अलग नहीं हैं। जबकि राजनीति है या इस तरह की और भी चीजें हैं, हमको विभाजित करके सोचती हैं। मैं इसके विरुद्ध हूँ। दरअसल हमें जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह मुख्य रूप से राजनीतिक इतिहास है। जैसे राजवंशों का इतिहास आदि। इन सब चीज़ों की हमारे ऊपर इतनी नाटकीयता छा जाती है कि हम भूल जाते हैं कि इस इतिहास के साथ-साथ सांस्कृतिक इतिहास की भी एक समानान्तर धारा बराबर चलती रही है।
गाँधी ने राजनीति में अहिंसा की बात की तो लगा कि यह बिल्कुल नई चीज़ थी। तो जब कोई एक उदाहरण से हमारे सामने इन चीज़ों को जगाता है तब हमारा ध्यान जाता है कि अरे यह तो एक बड़ी प्रशस्त चीज़ है! आदमी की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियों का उसकी बुनियादी भावनाओं और विचारों के साथ सीधा और गहरा सम्बन्ध है। वे साम्प्रदायिक या जातिवाचक नहीं होतीं। अत्यन्त उदार और व्यापक अर्थों में जीवनवादी होती हैं। पूरी कविता में इसी मूलाशय की व्यंजना की चेष्टा है। यह कविता अपनी तरह प्रतिशोध की भावना का निषेध है-कुछ-कुछ उसी तरह जैसे गाँधी की अहिंसा अपनी तरह से हिंसा का प्रतिरोध है।’
……………………………………………………………………………………………………………
वास्तव में हर व्यक्ति कला का भूखा होता है, कला साहचर्य मांगती है, क्योंकि कला को एकांत पसंद नहीं है। कला सामूहिकता का आनंदमय उत्सव है। इसलिए कला जीवन से बड़ी हो जाती है। कुछ लोगों का जीवन ही कलामय हो जाता है। ऐसे लोग किंवदंती हो जाते हैं। वे इतिहास की किसी किताब में सिर्फ नाम नहीं लिखवाते, इतिहास को बदल देते हैं। |
‘कविता पाठक आलोचना’ पुस्तक कवि-समीक्षक निशांत की है।
आलोचना बहुत भारी भरकम विधा मानी जाती है। आलोचना किसी पाठ को समझने में सहायक होती है। कई बार आलोचना ही इतनी दुरूह हो जाती है किउसे ही समझना सामान्य पाठक या छात्र के लिए मुश्किल हो जाता है। इस अर्थ में निशांत की यह पुस्तक आलोचना पर एक विनम्र और सहज बात करती है। इसे पढ़ते हुए आनंद आता है। साहित्य के आदर्श की भीतरी परत में साहित्य से भी ज्यादा चल रहे व्यावहारिक व्यापार को इस पुस्तक के लेख खोलकर रख देते हैं।
पुस्तक में शामिल लेख इतनी प्रवाहमयी शैली में हैं, जैसे आमने सामने बैठकर बात हो रही हो। इसे पढ़ते हुए सहज आनंद आता है। लेखक ने कहा भी है कि इन लेखों को लिखते हुए बांग्ला में जिसे ‘अड्डा मारना’ कहते हैं, वैसा ही सुख मिला। इस अड्डे में उन्होंने अब पाठक को भी शामिल कर लिया। किताब के नाम में ही पाठक को शामिल करना लेखक की उदार और संतुलित वैचारिकी को दर्शाता है। अक्सर कुछ भी लिखते हुए लेखकीय दृष्टि से पाठक नदारद होता है, जबकि बाजार में किताब आते ही पहली अपेक्षा उसी से होती है कि वह इसे धर्मग्रंथ की तरह सर आंखों पर रखे। इस परिदृश्य में निशांत की फिक्र में कविता और आलोचना के साथ पाठक भी टॉप पर है। वे इस अड्डे में पाठक को बाकायदा आमंत्रित करते हैं- आप कुछ बोलेंगे तो अड्डा सार्थक होगा।
बिना सृजनात्मक हुए आलोचक बना ही नहीं जा सकता। आलोचक होने की पहली शर्त है ‘सृजनात्मकता की कोख लिए हुए विश्लेषणात्मक या व्याख्यात्मक व्यावहारिक बुद्धि से लैस होना। ऐसी आलोचना के लिए ही कहा जाता है कि ‘आलोचना भी रचना है।’ (रचनाकार का आलोचक होना लेख से)। लेखक का मानना है कि एक अच्छे आलोचक या आलोचना के पास किसान का हृदय और स्त्री का शरीर होता है। इसे ही शास्त्रों में शायद ‘मणिकांचन योग’ कहा जाता है।
पुस्तक में चौदह लेख हैं, जो एक साल के भीतर लिखे गए हैं। एक दूसरे से जोड़कर पढ़ें या कहीं बीच से- इनका तारतम्य बना रहता है। इनमें बड़े-छोटे सभी सवालों पर चर्चा है। मसलन कविता क्या है, आलोचना क्या है, रचनाकार का आलोचक होना, छंद और तुक पर बात, कविता लिखने में मेहनत नहीं लगती, समकालीन हिंदी कविता, स्त्रियों की कविता, प्रकृति और कृति का संबंध और दो लेख ऐसे हैं जिन्हें आप संस्मरण की तरह पढ़ सकते हैं। अपने असमय काल कवलित दो मित्रों को याद करते हुए लिखे गए ये संस्मरण आलोचना का एक सृजनात्मक तरीका है।
पुस्तक आलोचक के व्यक्तित्व पर गहन बात करती है। इसमें उन रचनाकारों-आलोचकों पर कठोर दृष्टि है, जिनकी सृजन योग्यता यही है कि वे किसी शिक्षण संस्था में हैं। लेखों में कई जगह ऐसे लोगों को कसा गया है। निशांत बुनियादी तौर पर मानते हैं कि रचनाकार जब आलोचना करता है तो वह ज्यादा बेहतर है। वह सिर्फ आलोचक (पी-एच.डी. डिग्रीधारी) होकर, रचना का मर्म जान ही नहीं सकता। उसके लिए रचनाकार का मन होना जरूरी है, भले ही थोड़ा हो।’ आगे भी- ‘आधुनिक कविता का आनंद लेने लायक बनना होगा, इसकी आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा गया है कि इस काम में कविता से ज्यादा कवियों की भूमिका, प्रकाशकों, संस्कृतिकर्मियों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों की भूमिका थोड़ी ज्यादा महत्वपूर्ण होगी॥ वहां पढ़ाने वाले महामानवों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण होगी। इसलिए हे महामानवो, अपना विराट रूप दिखलाइए और भारतीय नौनिहालों को सांस्कृतिक पूंजीपति में तब्दील कीजिए ताकि उन्हें पता चले कि केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण और कुमार विश्वास में क्या अंतर है?’
लेखक ने आज की पीढ़ी के पाठक की चर्चा की है जो समय बिताने के लिए नहीं पढ़ता। बल्कि वह ट्रेन में, मेट्रो में, बाजार में, बस में, दोस्तों से गपशप करते हुए भी पढ़ता चलता है। वह कुछ न कुछ लगातार पढ़ता रहता है। लेख पसंद आए तो तुरंत लाइक कमेंट्स में प्रतिक्रिया देता है, जिसे पढ़कर लेखक फूला नहीं समाता। इसे पंद्रह सेकंड की प्रसिद्धि कहा जाता है। मोबाइल और सोशल मीडिया के समय उनके दो बेहतरीन लेख बखूबी पकड़ते हैं।
लेख सवाल करते हैं कि कविता क्यों, लिखना क्यों, पढ़ना क्यों? ये सवाल लेखक अपने से भी करता है और पाठकों से भी। और जवाब यह मिलता है- ‘रामचंद्र शुक्ल का निबंध पढ़िए- ‘कविता क्या है?’ मैं भी वही पढ़ता हूँ। अभी भी वही ‘द बेस्ट’ है। मनुष्य के लिए कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य-असभ्य सभी जातियों में, किसी-न-किसी रूप में पाई जाती है। इसकी अंतःप्रकृति में मनुष्यता को समय समय पर जगाते रहने के लिए कविता मनुष्य जाति के साथ लगी चली आ रही है और चली चलेगी। जानवरों को इसकी जरूरत नहीं।’
गिआर्गी प्लेखानोव की पुस्तक ‘कला के सामाजिक उदगम’ का जिक्र है। इससे सहमत होते हुए लेख में कहा गया है- आज की कविता पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय लोगों का शगल है। ऐसे लोग पहले भी काफी कम थे और आगे भी कम ही रहेंगे। आगे वह कहते हैं वास्तव में हर व्यक्ति कला का भूखा होता है, कला साहचर्य मांगती है, क्योंकि कला को एकांत पसंद नहीं है। कला सामूहिकता का आनंदमय उत्सव है। इसलिए कला जीवन से बड़ी हो जाती है। कुछ लोगों का जीवन ही कलामय हो जाता है। ऐसे लोग किंवदंती हो जाते हैं। वे इतिहास की किसी किताब में सिर्फ नाम नहीं लिखवाते, इतिहास को बदल देते हैं।
यह पुस्तक साहित्य के छात्रों, आम पाठक, आलोचना में दिलचस्पी रखने वालों और गंभीर अध्येताओं- सभी के पढ़ने योग्य है। गंभीर अध्येता जान पाएंगे कि एक युवा आलोचक आज साहित्य के बारे में किन सवालों से रूबरू हो रहा है। आम छात्र और पाठक और हां, नए कवि भी, इस पुस्तक को पढ़कर जान सकेंगे कि साहित्य में तिकड़म और गुणा गणित कैसे हो रहा है, किस तरह समीक्षाएं और आलोचनाएं भांति-भांति से प्रायोजित की जा रही हैं। उसे पहचानते हुए बेहतर और सार्थक साहित्य तक कैसे पहुंचा जा सकता है।
अंतिम दो अध्यायों का जिक्र करना अच्छा होगा। ये संस्मरण की शक्ल में आलोचना हैं। यह भी आलोचना का एक आत्मीय रूप है। जिस तरह निशांत ने असमय दिवंगत दो युवा संभावनाशील कवियों पर लिखा है, वह मार्मिक है और सुंदर भी। ‘वह जवान होकर बूढ़ों की तरह लिखता था’ और ‘उम्मीद अभी बाकी है’ इन लेखों में क्रमशः प्रकाश और रविशंकर उपाध्याय और उनके लेखन को याद किया है। ये दोनों लेख एक सांस में खुद को पढ़वा ले जाते हैं-
‘दो मित्रों का असमय जाना मुझे मेरे गाल पर तमाचे की तरह अभी भी महसूस होता है। लगता है इसमें मेरी भी भूमिका है। एक दोस्त, एक नागरिक की हैसियत से मैं भी कुसूरवार हूँ, चाहे थोड़ा या ज्यादा। हम व्यक्तिगत लड़ाई को सामूहिक बना ही नहीं पाए। प्रकाश के नाम पर रज़ा फाउंडेशन ‘प्रकाश वृत्ति योजना’ है, जो हर साल दो युवा कवियों की पांडुलिपियों का प्रकाशन करता है और रविशंकर के नाम पर ‘रविशंकर उपाध्याय युवा कविता पुरस्कार’ है, जो युवा कवियों को दिया जाता है। ‘मृत्यु से जीतने के लिए ही कलाओं का जन्म हुआ है। मृत्यु जीवन को नष्ट करती है, कलाएं जीवन को अमर बनाती हैं।’
निशांत एक सचेत लेखक और कवि हैं। अंग्रेजी सहित कई भारतीय भाषाओं में उनकी कविताओं का अनुवाद हुआ है। बांग्ला साहित्य और फिल्मों से भी उनका लगाव है। वे अपने वक्त के बड़प्पन और क्षुद्रताओं को भलीभांति समझते हैं। यह पुस्तक एक कवि का मन भी खोलती है। अक्सर कविताओं में कवि का व्यक्तित्व सामने नहीं आता, वैचारिकी की यह पुस्तक उस खाली जगह को पूर्ण करती है। इस सार्थक पुस्तक में थोड़ी एडिटिंग की जरूरत है, जिससे कुछ शब्दों के अनावश्यक दोहराव से बचा जा सके और प्रूफ के मामूली व्याकरण दोष को सुधारा जा सके। पुस्तक का अगला संस्करण शीघ्र आने की शुभकामनाएं देते हुए यह आशा है कि उसमें यह कसावट देखने को मिलेगी।
जिज्ञासा : साहित्य में जनपक्षधरता को आप किस तरह देखते हैं?
निशांत : जनपक्षधरता शब्द को जो नहीं जानते, खासकर गांव–देहात या रिक्शा–मुटिया मजदूर या निम्नवर्ग, वे भी जनपक्षधर होते हैं, व्यवहार में। वे सिद्धांत नहीं जानते, पर व्यवहार जानते हैं। मुझे नहीं पता कि कबीर के जमाने में यह शब्द था या नहीं, पर वे जनपक्षधर थे। प्रेमचंद याद आते हैं कि लेखक जन्म से ही प्रगतिशील होता है। उसी तरह यदि लेखक ‘सच्चा लेखक’ है तो वह जनपक्षधर होगा ही होगा, भले वह इस शब्द को जाने या न जाने।
जिज्ञासा : कालिदास, शेक्सपियर और इनके जैसे कई अनमोल साहित्यकार सैकड़ों साल का सफर तय करके हमारी आधुनिक रचनाशीलता में अपना महत्वपूर्ण मुकाम बनाए हुए हैं। हमारे समय की कविता कितना आगे तक जाएगी?
निशांत : मैं इस समय की कविता को लेकर काफी आशावादी हूँ। इतिहास की छलनी से छनकर ये जरूर अपनी जगह बनाएंगी। मैं उन कवियों को लेकर भी आशावादी हूँ जो फोन पर कहते हैं ‘केदारनाथ अग्रवाल जो जेएनयू में पढ़ाते हैं, आपके गाइड हैं, जरा उनका नंबर दे दीजिए, उन्हें अपनी कविताएं भेजनी हैं।’ ऐसे व्यक्तियों से आशा रखता हूँ कि आज यह केदारनाथ अग्रवाल का फोन नंबर मांग रहा है तो कल जान भी जाएगा कि केदारनाथ सिंह और केदारनाथ अग्रवाल अलग हैं। फिर वह उनको पढ़ेगा और अच्छी कविताएं लिखेगा।
जिज्ञासा : हिंदी कविता लंबे समय से सिर्फ कवियों के बीच सिमट गई है। इसे आम जन की कविता बनाने के लिए क्या तरकीब सोचते हैं।
निशांत : राजस्थान में पड़ वाचने, केरल में इको पोएट्री, बंगाल में आवृत्ति जैसी परंपरा है। हिंदी में भक्ति काव्य (ब्रज–अवधी बोलियों) की परंपरा थी। कविता जब तक किसी आंदोलन से नहीं जुड़ेगी, आमजन से जुड़ना मुश्किल है और आंदोलन से हिंदी के कवि जुड़ते ही नहीं। जुड़ेंगे तो उनके बीच जाकर कविता लिखेंगे–पढ़ेंगे। उनके अंदर और आम पाठकों के अंदर भी कविता की बेहतर समझ ऑटोमैटिक विकसित होगी। फिर हम–आप ऐसे प्रश्नों पर बात नहीं करेंगे।
……………………………………………………………………………………………………………
समीक्षित पुस्तकें–
(1)शहर जो खो गया : विजय कुमार, सेतु प्रकाशन, नोएडा, 2023, मूल्यः 550 (2)जिए हुए से ज्यादा : (कुंवर नारायण के साथ संवाद), संपादक : भारती नारायण, अपूर्व नारायण, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2023 मूल्य :595 (3)कविता पाठक आलोचना : निशांत, सेतु प्रकाशन, नोएडा, 2022, मूल्य :349
25, यमुना विहार, द्रौपदी घाट, इलाहाबाद –211014 मो. 9839721868