युवा कवयित्री, लेखिका, पत्रकार और अनुवादक।

 

लिखना शुरू किया तो केवल यह चिंता थी कि जितना कहना है उसे कम से कम शब्दों में कैसे कहा जाय? मैं वह लिखता हूँ जो मुझे पसंद है और मेरा पाठक वह है जिसे मेरा लिखा पसंद है।

लेखक शिवमूर्ति की ख्याति ग्रामीण जीवन के कुशल चितेरे के रूप में है। इसके पहले वे ‘केसर कस्तूरी’, ‘कुच्ची का कानून’ जैसे कहानी संग्रह और ‘तर्पण’, ‘त्रिशूल’ जैसे उपन्यास दे चुके हैं। उनकी कुछ रचनाओं पर फिल्में बनी हैं और नाट्य मंचन हैं। ‘अगम बहै दरियाव’ ऐसा उपन्यास है जो उत्तर भारत के  ग्रामीण जीवन का एक प्रामाणिक दस्तावेज बन गया है। इसका कथानक बहुपरतीय है। इसमें आप जो  खोजना चाहेंगे, वह पाएंगे। इसके केंद्र में पिछड़ी और दलित जातियों का निर्मम उत्पीड़न है, उनकी हृदय विदारक पीड़ा, प्रतिरोध और अंतहीन संघर्ष है। यह उपन्यास आते ही हाथों- हाथ लिया गया और छह माह के अंदर इसका दूसरा संस्करण भी आ गया।

यह भारतीय समाज के चालीस बरसों का महाआख्यान है। आपातकाल से लेकर उदारीकरण के मौजूदा दौर तक यह इस महादेश के एक हिस्से की करुण गाथा है। इसमें ग्रामीण जीवन, खेती किसानी के दुख-सुख , संस्कृति  से लेकर गांव और देश की राजनीति का ऐसा इतिहास है जो हमारी आंखों के सामने से गुजरा है, बस दो  पीढ़ी पीछे। हमारे बाबा, नाना, दादी, नानी से शुरू। जैसे हम इसके आखिरी पन्ने के अंतिम पैरा हैं जहां से हमारे पुरखों की कहानी खत्म और हमारी कहानी शुरू होती है। हम इस कहानी का आखिरी छोर पकड़े उपन्यास के भविष्य के नायक हैं।

उपन्यास को कहावतों जैसे रोचक शीर्षकों से बाईस भागों में बांटा गया है। ये बाईस भाग दो बराबर हिस्सों में है -एक हिस्से में हर अध्याय के समापन पर हल जोतते किसान का चित्र है, और दूसरे हिस्से में ट्रैक्टर का। ये दोनों चित्र भारतीय अर्थव्यवस्था के अलग अलग दौर को दिखाते हैं। हल जोतता किसान आज़ादी के बाद की अर्थव्यवस्था का प्रतीक है तो ट्रैक्टर उदारीकरण के दौर का।

उपन्यास कल्याणी नदी के किनारे बसे गांव बनकट की कथा है। यह उत्तर भारत के किसी आम गांव जैसा ही है। छत्रधारी सिंह नाम के ठाकुर जमींदार इस गांव के राजा की तरह व्यवहार करते हैं। गरीब उनको राजा कहकर ही संबोधित करते हैं। छत्रधारी अपने बाप की तरह छल, प्रपंच से जमीनों को हथियाने में माहिर हैं।  पहला अंक संतोखी की जमीन पर उनके कब्जे से शुरू  होता है। चकबंदी में वे रामनाथ कोइरी की छोटी सी जमीन हड़प लेते हैं, उनके इस अभियान में ब्राह्मण माठा बाबा की छल बुद्धि काम आती है। बाद में छत्रधारी माठा बाबा को भी डंक मारते हैं। उनका सिद्धांत है- जो कमजोर वह नीचे। जो सहजोर वह ऊपर। उनके नाम में सिंह लगा है। इसका अर्थ ही है, शिकार करके खाना। छत्रधारी के ईंटभट्टे पर गजाधर मुंशीगिरी करते हैं, उन्हें छत्रधारी मरवा देते हैं। उनके भतीजे दुर्गेश की निगाह गजाधर की बेटी पर है। गजाधर की बहू दुर्गेश के घर यह शिकायत लेकर जाती है कि ठकुराइन अपने बेटे को काबू में रखें। उनका जवाब होता है किसके लिए बछेड़ी पाल कर रखी हो। ठाकुर के लड़के हैं देखकर ललचाएंगे तो कौन रोक लेगा।

गजाधर बहू भय से रातों रात अपना गाँव छोड़ देती है। इनका बेटा जंगी पढ़ने में बहुत तेज है। स्कूल में सवर्ण बच्चे उसे पीटते हैं। झूठे केस में फंसाकर दबंग उसे जेल भिजवा देते हैं। वहां गोबरधन नाम के व्यक्ति से उसे राजनीतिक ज्ञान मिलता है- ‘अपने यहां कानून लागू करने की शुरुआत गरीब से और न्याय देने की शुरुआत अमीर से होती है।  शौकत अमीर होता तो कब का छूट जाता और ऊंची जात का हिंदू होता तो फर्जी केस में फंसाया  ही न गया होता’। जंगी जेल से छूटकर अपने लोगों को अन्याय से मुक्त कराने के मिशन में लग जाता है, अब लोग उसे डाकू कहते हैं। मुसीबत यह कि जंगी दलित है, इसलिए उसका डाकू होना भी  ठाकुरों के अहम को चोट पहुंचाता है।

पुलिस के अत्याचारों की कहानी दिल दहलाने वाली है, फर्जी अपराध कुबूलवाने के लिए निर्दोष लड़कों पर  बेलन चलाकर घुटने तोड़ देना, मिर्च लगा डंडा भीतर डाल देना। एनकाउंटर के नाम पर हत्याएं करना… लगता ही नहीं यह एक लोकतांत्रिक देश है।

यहां संघर्ष हर स्तर पर है- व्यक्तिगत, सामूहिक और राजनीतिक। वे पुलिस से लड़ते हैं और कोर्ट से भी। व्यक्तिगत स्तर पर  गांव के जमींदार के खिलाफ शुरू हुआ संघर्ष धीरे-धीरे सामूहिक संघर्ष में बदल जाता है जब दलित जातियां महापंचायत करके तय करती हैं कि अब कोई भी दलित मजदूरी बढ़ने पर ही जमींदार के खेतों में मजदूरी करने जाएगा। महापंचायत का मतलब है दलित राजनीति की धमक गांव तक पहुंच जाना।

कहानी आगे बढ़ती है और मान्यवर का जिक्र आता है। धीरे-धीरे मान्यवर गांव के दलितों की बातचीत का अंग बन जाते हैं और दलितों का संघर्ष वहां पहुंचता है जहां उन्हें पहली बार अपनी जाति  की महिला मुख्यमंत्री मिलती हैं। जिनके पिता, दादा को नीची जाति के नाम पर जमींदार रोज ही पीटता  आ रहा हो, उन जातियों के जीवन में यह गौरव का पल है।

उपन्यास का दूसरा भाग- जिसमें हर अध्याय का आरंभ ट्रैक्टर के रेखाचित्र से होता है, हल-बैल से वहां तक आते-आते उम्मीद बंधती है कि अब गैर-सवर्ण खेतिहर ग्रामीण के जीवन में कोई बदलाव जरूर होगा। यहां भगवत पांडे ट्रैक्टर के लालच में फंस जाते हैं। खेती के लिए मजदूर मिलना महंगा हो गया है। वादा करके भी दलित मजदूरी से नागा मार जाते हैं। अब वह जमाना नहीं रहा कि दलित को घसीट के काम पर ले आओ जैसे कि पारस सिंह अपने हलवाहे झूरी को लाने गए थे। ला नहीं पाए, यह अलग बात है। तब से बात बहुत आगे बढ़ गई है। गांव की प्रधानी उन्हीं झूरी की बहू दहबंगा के हाथ में है और सूबे की सबसे ऊंची कुर्सी पर उसी की बिरादरी  की स्त्री विराजमान है। गांव के दलितों का दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ गया है।

भगवत पांडे जैसे लोग उदारीकरण की व्यवस्था के शिकार हो रहे हैं। अभी तक झूरी जैसे दलित गरीब जेल जाते थे अब पांडे जैसे सवर्ण भी जेल के शिकंजे में हैं। पुराने जमींदार की जगह अब बैंक ने ले ली है। पहले लोन लेने के लिए सपनों के जाल में फंसाना फिर जमीन की नीलामी तक पहुंचा देना।

उदारीकरण को अगर नए मध्यवर्ग के उदय  के तौर पर देखा जाएगा तो यह भी दर्ज होगा कि इसकी इमारत लाखों किसानों के फांसी पर लटके शवों से निर्मित है। अपना आर्थिक कद बढ़ाने  के फेर में ट्रैक्टर लोन ले बैठे  पांडे को इसकी कीमत अपनी सारी जमीन की नीलामी, अपने समधी से अपमान और अंततः जान देकर चुकानी पड़ती है। विकसित भारत की यह एक बेहद कटु सच्चाई है।

जहां उत्पीड़न है वहां प्रतिरोध भी है –  बिगड़ैल जमींदार छत्रधारी को संतोखी, विद्रोही, तूफानी और जंगी जैसे साहसी ग्रामीण रोकते हैं। हजारों पिछड़े दलित खेतिहर मजदूरों के सितारे डुबो कर एक जमींदार अपना सूर्य उगाता है। कितने लोगों को भूख से तड़पा कर, खून के आंसू रुलाकर जमींदार का कुनबा ठहाकों और रस रंग का आनंद लेता है। ताकत का ऐसा नशा कि गरीबों  को अपने पैरों तले रौंदते हुए वह खुद को ईश्वर से एक दर्जा ऊपर ही महसूस करता है।

ये भारत के लोकतंत्र की सूर कथाएं हैं, या कलयुग की कलि-कथाएं। इन्हें पढ़ते हुए  हम जैसे अंधकार युग में बार बार गोता लगाते हैं। (संदर्भ-सूरदास को पंचर बनाने का लोन) किसी लड़की से लगाव के कारण सूरे की आंखें सूआ  घोप कर फोड़ देते हैं। अब इसी ज्योतिहीन सूरे को उठा लिया जाता है कि उसे पंचर बनाने का लोन दिया गया था जो उसने अदा नहीं किया।

यह कहानी एक साथ सामंती उत्पीड़न और नौकरशाही की अति-क्रूरता से शुरू होती है। देश के सबसे ताकतवर नौकरशाह और उनके मुलाजिम देश के सबसे वंचित आदमी का कैसे हांका लगाकर शिकार करते हैं, यहां उसी शिकार का मार्मिक बयान है। हर अंधेरी रेखा जहां खत्म होती है, उसी के गर्भ से एक दूसरी व्यथा शुरू हो जाती है।

उपन्यास जाति-आधारित शोषण और असमानता का आईना है। यह वर्णवाद को लूट और फूट का मुकम्मल इंतजाम कहता है। जातियों को ही मनुष्य के तौर पर पहचानने वाला समाज  नेल्सन मंडेला की भी जाति पूछता है। यहां बहुजन की जय भीम बोली है। राज्य जब एनकाउंटर करता है तो उसकी गोली भी किसी दलित को ही लगती है। हालांकि यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर हल-बैल के समय पिछड़े और दलित आसान शिकार थे तो उदारीकरण की जकड़ में अब भगवत पांडे जैसे सवर्ण सीमांत किसान भी शिकार हैं।

उपन्यास में जैसे पुरुष जी-जान  संघर्ष कर रहे हैं, स्त्रियां भी जीवन के इस संघर्ष में बराबर से सहभागी हैं।  उनके साथ जमींदारों का बलात्कार आम बात है। जबरन नसबंदी के दौर का भी डराने वाला वर्णन है जब सरकारी मुलाजिम अपना कोटा पूरा करने के लिए छत्रधारी की मदद लेते हैं। इस अफरातफरी में नाबालिग, अविवाहित किसी की भी नसबंदी हो जाए, परवा नहीं। किसी को पकड़ के दो-दो बार कर दी। इस भय में दलित पिछड़े घर-बार छोड़कर खेतों में भाग जाते हैं। इन ज्यादतियों से त्रस्त दहबंगा सरकारी अमले को दौड़ा लेती हैं और नायब को उसकी करतूत का इनाम देती हैं। तेज तर्रार बोधा बहू और पहलवानिन हैं। उपन्यास में सोना और बुल्लू की दुखांत प्रेम कहानी है।

उपन्यास में एक पूरी दुनिया है। पेड़, खेत, फसल, कुआं, भेड़, बकरी, गाय, भैंस, सांड, डाक्टर, थानेदार, दरोगा, नेता, जुलूस, राजनीति, आंदोलन- माने वह सब कुछ है जो जीवन में होता है। खेत, चकबंदी, नसबंदी, आपतकाल, बाबा साहब अंबेडकर, मान्यवर, दलित मुख्यमंत्री, मंडल कमीशन, राम मंदिर से होते हुए उदारीकरण में किसानों की आत्महत्याओं तक आने वाली यह कथा भारत माता की असली कथा है। यहां सभी कुछ नंगा है। उघड़ा हुआ सच, जिसके ऊपर अच्छे शब्दों का पर्दा नहीं किया गया।  इस बृहद काल खंड को शिवमूर्ति जी ने गहराई से दर्ज किया है। ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है क्यों न इसे सब का मन चाहे…’ ये सब कहने की बातें हैं। गांव की कड़वी सच्चाई यह है कि यहां आर्थिक असमानता और जातीय भेदभाव अपने सबसे नग्न रूप में तांडव करते हैं। हम ऐसा समाज हैं, जहां जाति देखकर सब तय होता है। जाति देखकर अपराध तय होता है और जाति से ही बेकसूर तय होता है।

इस उपन्यास के हर पात्र का जीवन एक करुण कहानी है। सबके जीवन में कोई न कोई गहरा दुख है, घोर अपमान हैं, भूख है, वंचनाएं हैं, विपदा के मारे इन मनुष्यों पर सरकार, न्यायालय, पुलिस, वकील, अस्पताल सब कहर बन कर टूटते हैं। यह कौन से देश की कथा है? यह अपने देश की कथा है। क्या जीवट है, क्या हौसला कि मर-मर कर जीते हैं, फिर भी हँसने-मुस्कुराने का कोई मौका नहीं छोड़ते। संतोखी, भूसी, पहलवान, विद्रोही, जंगी, तूफानी, बैताली देर तक मन में ठहरने वाले चरित्र हैं। छली माठा बाबा हैं। छत्रधारी, करिया सिंह, पारस सिंह लूट का ताकतवर चेहरा हैं।

उपन्यास में भरपूर डिटेलिंग है। लोकगीतों और नौटंकी की पंक्तियों का खूब इस्तेमाल है, इनसे उपन्यास रिदमिक हो गया है। इसमें पीड़ा और प्रतिरोध के गीत हैं। इन्हें पढ़ते हुए आंख भर आती है। मुहावरों और कहावतों का रोचक प्रयोग है, वे बरछे की तरह कलेजे में चुभते हैं। कई जगह हास्य फूहड़ हो गया है, पर ग्रामीण जीवन- क्या शहरी जीवन, हर जगह ताकतवर पुरुष अति निर्लज्ज हास्य करते देखे गए हैं। लेखक की निगाह बहुत पैनी है, उसने सूक्ष्म और बड़ी हर बात पकड़ी है। विवरण इत्मीनान से दिए हैं। यह उपन्यास ठहर कर पढ़ने की मांग करता है। आखिर दुखों का दरिया क्या सहज पार होता है! यह उपन्यास शहरी पाठकों में जितना पसंद किया जा रहा है उतना ही ठेठ ग्रामीण पाठक भी इससे अपने को रिलेट कर रहे हैं।

तकलीफ का यह लगातार बह रहा दरिया अगम्य है, इसको पार करना बड़ी चुनौती है। उपन्यास तूफानी के इस आवाहन पर खत्म होता है- रात नफरत की काली खतम जल्द हो, एक सी सुबह की यहां पौ फटे। जिसमें इंसां बराबर हों दुनिया के सब जातियों-धर्मों की नामोनिशानी मिटे। यही भविष्य की चुनौती है।

जिज्ञासा: आपने इतना रोचक और महत्वपूर्ण उपन्यास लिखा है, जो उत्तर भारतीय ग्रामीण जीवन के चार दशकों का प्रतिनिधि स्वर बन गया है। अनेक कथाएं गूंथकर यह महा आख्यान निर्मित हुआ है। आप ग्रामीण जीवन के चितेरे माने जाते हैं।  इस पृष्ठभूमि पर क्या अब भी कहने को कुछ शेष है?

शिवमूर्ति : जितना कहना चाहता था उसका 60%ही इस उपन्यास में समा पाया है। 40% अभी बाकी है जिसे भविष्य की किसी रचना में अंटाने की कोशिश करूंगा।

जिज्ञासा: आपके इस उपन्यास से लंबे उपन्यासों और धैर्यशील पाठकों का दौर लौट आया है। यह उपन्यास लिखते हुए पाठक के कम होते अटेंशन स्पान की आपको कोई चिंता थी?

शिवमूर्ति: लिखना शुरू किया तो केवल यह चिंता थी कि जितना कहना है उसे कम से कम शब्दों में कैसे कहा जाय? मैं वह लिखता हूँ जो मुझे पसंद है और मेरा पाठक वह है जिसे मेरा लिखा पसंद है।

जिज्ञासा: ग्रामीण जीवन पर यह उपन्यास आपका व्यावहारिक अध्ययन-लेखन है। आप क्या सोचते हैं कि ‘अगम बहै दरियाव’ के दुखों की यह अगम्यता कभी पार होगी?

शिवमूर्ति: आशा पर दुनिया टिकी है। इतिहास बताता है कि दुख और पीड़ा का यह दौर भी खत्म होगा।

जिज्ञासा: जातीय टकराव और उत्पीड़न को लेकर आपने उपन्यास में बहुत तीखा सत्य लिखा है। लिखने के बाद आपके गांव में आपके साथ कोई समस्या तो नहीं हुई?

शिवमूर्ति: थोड़ा बहुत चिल्ल पों तो पहले भी हुआ है, जब मेरा उपन्यास ‘त्रिशूल’ प्रकाशित हुआ था। कथाकार दूधनाथ सिंह ने उसे जातियुद्ध भड़काने वाली रचना कहा था। लेकिन व्यक्तिगत रूप से मेरे साथ कभी कोई समस्या नहीं हुई।

जिज्ञासा: आपने बहुत कुछ रचा है, आत्मकथा नहीं लिखी है। क्या उम्मीद करें कि अब खुद रचयिता का अपना जीवन भी लेखनीबद्ध होगा।

शिवमूर्ति: कहा गया है कि लेखक अपनी आत्मकथा की ईंट उखाड़-उखाड़ कर अपनी रचनाओं का महल खड़ा करता है। सारी ईंटें तो रचनाओं में खर्च हो गईं। आत्मकथा के लिए कुछ बचा ही नहीं। फिर भी कुछ अपनी – कुछ जग की मिला कर एक नई चीज देने की सोच रहा हूँ।

 

‘अल्लाह मियां का कारखाना’  इस लिहाज से दूसरे उपन्यासों से मुख़्तलिफ़ है कि इसके पाठक किसी खास वर्ग या आयु के नहीं हैं। बल्कि इसे सभी वर्ग और आयु के पाठकों द्वारा पढ़ा गया और पसंद किया गया। 

जब मैं मोहसिन खान के उपन्यास अल्लाह मियां का कारखाना पर लिख रही हूँ, यह पर्याप्त चर्चित हो चुका है। पुस्तक फ्रांस और रूस में कोर्स में लग गई है और हिंदी सहित इसके आठ भाषाओं  में अनुवाद हो चुके हैं या हो रहे हैं। उनमें अंग्रेजी, तुर्की, पर्शियन, मराठी, सिंधी, पंजाबी और काश्मीरी हैं। पहली बार यह किताब मूलतः उर्दू में नवंबर 2020 में हमारे बीच आई। किसी भी लेखक और अदब की दुनिया के लिए यह बड़ी बात है कि पुस्तक की मकबूलियत देश-विदेश में हो।

इस उपन्यास के लेखक मोहसिन खान लंबे समय से लिख रहे हैं। उन्होंने फिक्शन और कहानियों के अलावा बच्चों के लिए भी काफी कुछ लिखा है। वह कहते हैं कि उन्हें भी पुस्तक की इस कदर सफलता का अंदाजा नहीं था। हाँ, एक बच्चे की नज़र से लिखा था और पूरी गंभीरता से लिखा था। किताब उर्दू में छपी, फिर हिंदी अनुवाद हुआ और इसे राष्ट्रभाषा सम्मान मिला। तब से पुस्तक कैसे हाथों हाथ ली जा रही है, इस पर अलग से एक दिलचस्प फीचर लिखा जा सकता है।

उपन्यास के पृष्ठ कवर पर उपन्यास का जो परिचय लिखा है वह सब आप इसमें पाएंगे- ‘इसमें एक बच्चे जिब्रान के जरिये मुस्लिम समाज की दशा और सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, शैक्षिक और घरेलू जीवन की परेशानियों का हाल बताया गया है।’

लेखक ने उपन्यास बहुत सजगता के साथ लिखा है। हर बात को लिखने का कारण है। बात पूरी न करने या अधूरी छोड़ने का भी कारण है। उपन्यास किसी तयशुदा पारंपरिक अंत तक नहीं पहुंचता, जीवन चलता रहता है और पाठक को आगे की कहानी जानने के लिए उत्सुक छोड़ जाता है। कथानक के ट्रीटमेंट के इस तरीके से तमाम पाठक सहमत होंगे। इस तरह कृति पर रचनात्मक तरीके से सोचने के लिए उन्हें पूरा स्पेस मिल जाता है। यह उपन्यास इस तरह की कृति है जिसे लेखक के साथ पाठक भी रचता है।

‘ये दुनिया एक तमाशागाह है, यहां कोई तमाशा दिखा रहा है, कोई तमाशा देख रहा है।’ जैसी कई इबारतें इस किताब में हैं जिनसे हर नए चैप्टर की शुरुआत होती है। मासूम जिब्रान को जिंदगी नए नए सबक सिखाती रहती है- ‘तुम अपनी पतंग को उतनी ही ऊंचाई तक ले जा सकते हो जितनी तुम्हारे पास डोर है।’ किताब छोटे छोटे चैप्टर में बंटी हुई है। शुरुआत संस्मरणों की तरह होती है और लगभग आधी किताब तक जिब्रान के साथ हम भी बचपन की शरारतों को जीने लगते हैं।

उपन्यास का कथ्य इतना रोचक है कि पुस्तक हाथ से छूटती ही नहीं। बेहतरीन प्रवाह के साथ बहते हुए इसे दो दिन में पूरा पढ़ा जा सकता है। इसे पढ़ते हुए अपने बचपन की शरारतें और किस्से याद आते हैं। उपन्यास की भाषा बेहद सहज है, कहीं कोई अलंकार  या भाषाई करामात नहीं। पर जादू तो इसी सरलता और सहजता में है। छोटे छोटे सरल वाक्य, सामान्य भाषा को थामे पाठक जिब्रान, नुसरत, अम्मां, अब्बा, चचाजान, हाफी जी, कल्लू चचा की दुनिया में दाखिल हो जाता है और फिर सब कुछ जैसे हमारे सामने घटने लगता है।

जिब्रान इस उपन्यास का केंद्रीय पात्र है। निम्न आर्थिक पृष्ठभूमि, अभाव, गरीबी के बीच एक बालक अपनी इच्छाओं और वास्तविकता के बीच कैसे झूलता रहता है यह देखना द्रवित करता है। उपन्यास कई जगह बहुत मार्मिक है। पढ़ते हुए गला भर आता है। जिब्रान के  परिवार की माली हालत इससे समझी जा सकती है कि उनके गुसलखाने में टाट का पर्दा है, कच्ची दीवार दरकी हुई है जिससे रौशनी और हवा अंदर आती है, जिब्रान के शब्दों में – ‘बाद में अब्बा ने वह दरार बंद कर दी थी क्योंकि मोहल्ले के लड़के उससे झांकने लगे थे।’ उसके अब्बा वलीद  की किराये की छोटी सी परचून की दुकान है। पिता का बहुत ज्यादा ध्यान दीन पर रहता है, दीनी तालीम के लिए वे बेटे को मदरसे भेजते हैं कि वह बड़ा होकर मोअल्लिम बने। हालांकि अम्मा नाहीद चाहती हैं कि उसे दुनियावी तालीम भी मिले, पर अब्बा की मर्जी के कारण ऐसा हो नहीं पाता। अब्बा की वजह से अम्मा पर्दा भी करती हैं, इन सबके साथ जिब्रान की बहन नुसरत है जो जिब्रान के साथ मदरसे में पढ़ती है और घर में मां की मदद करती है। बहुत समझदार है, जिंदगी में कोई रिस्क नहीं लेती, अपने भाई को हमेशा मुसीबतों और डांट से बचाने की कोशिश करती है।

दूसरी तरफ चचाजान का परिवार है, जिनकी आर्थिक हैसियत अच्छी है। उनका निजी  पुस्तकालय है, उनके बच्चे मदरसे न जाकर स्कूल जाते हैं। चचीजान पर्दा नहीं करतीं। और अब्बा से चिढ़ती हैं, क्योंकि वह उनकी बेपर्दगी और दुनियावी तालीम के कारण उनके घर नहीं आते। जिब्रान की पढ़ाई-लिखाई, खेलकूद से लेकर अब्बा की गिरफ्तारी, अम्मा की मृत्यु और जिब्रान का अनाथ होकर भटकना-  इन सब के बीच यह पुस्तक बहुत सहजता से मुस्लिम तहजीब, मुसलमानों के हालात और सोच के दोनों छोरों को साध कर चलती है। आश्चर्य होता है कि इतने कम और सरल शब्दों में इतनी सारी बात कैसे कह दी गई है।

बच्चा सरल जुबान में अपनी कहानी बयां कर रहा है- जिस मुर्गी से जिब्रान और नुसरत को इतना प्यार है उसे बिल्ली चुरा ले जाती है तो कहता है- अल्लाह ने मुर्गी बनाई तो बिल्ली क्यों बनाई? अहमद उसकी पतंग काट देता है, कल्लू चाचा कंटाप मार देते हैं और हाफी जी तो जब तब इबरत की छड़ियां मारते ही हैं, मुर्गा बनाते हैं अलग। पर जिब्रान के हौसले इससे पस्त नहीं होते। उसके चटक सपनों की दुनिया में पतंगें, डोर, मांझा, तिकुल्ला का राज है, इनसे समय मिले तो मुर्गी, अंडे, कुत्ता, बिल्ली, बकरी, चूजे, भेड़िये, तितली है। संक्षेप में कहें तो जिब्रान अल्लाह मियां के कारखाने में है। एक जगह गाय और बकरी को लेकर रामसेवक और जिब्रान की बहस हो जाती है। रामसेवक कहता है गाय हिंदू है बकरी मुसलमान।

यह कहानी इसी दिलेर और बहादुर जिब्रान के हौसले की है जो कुटते-पिटते, टूटी चप्पलों और चोटों के बावजूद अपनी मामूली खुशियों के पीछे भागता फिरता है। बच्चे उसे चिढ़ाते हैं तो नाक पर घूंसा जमा देता है। वह कित्मीर नाम के कुत्ते और उसकी बात को समझने वाली बकरी के साथ खेलता है। कब्रिस्तान में अकेले अपनी अम्मा और चचाजान की कब्र पर कत्बा लगता है, भेड़िये के डर के बावजूद बकरी को जंगल में चराकर लाता है, जेब में एक रुपया भी नहीं, सर पर अम्मा-अब्बा का हाथ नहीं – रोता है, आंसू पोंछता है और अपना भविष्य अपने पाठकों के हाथ में सौंप देता है। यह हमारे समय का शिकार ऐसा बच्चा है, जिससे हमने अनजाने में ही मुंह फेर लिया है।

यह बहुआयामी कथा है – एक तरफ खुशियों की दुनिया है और दूसरी तरफ गम। शुरू में हँसी मजाक, शरारतें… बाद में दुखों का अंतहीन सैलाब। जंगल में हर बड़ा जानवर छोटे जानवर को, समाज में बड़ा आदमी छोटे आदमी को क्यों निगल जाता है – ऐसा क्यों है? इस किताब के मायने इस इबारत से और साफ़ हो जाते हैं- ‘उन बच्चों के नाम जिनकी उंगलियों पर खुशरंग तितलियां अपने परों के रंग छोड़कर फजाओं में गुम हो गईं।’ यह एक सी किताब है जो बार-बार पढ़ी जाएगी और अपने पाठकों को हर बार जिब्रान के कुछ और करीब ले आएगी।

सईद अहमद साहब के अनुवाद की तारीफ भी बनती है, क्योंकि किताब पढ़ते हुए एक बार भी ख्याल नहीं आया कि हम अनुवाद पढ़ रहे हैं।

जिज्ञासा: आपको बहुत बधाई कि आपकी यह पुस्तक खूब पढ़ी और पसंद की जा रही है और इसे बैंक ऑफ बड़ौदा का राष्ट्रभाषा सम्मान मिला है। इसके अलावा कई भाषाओं में इसके अनुवाद हो रहे हैं। उर्दू से किताब के हिंदी में आने और इस कदर पसंद किए जाने पर आप क्या कहेंगे? क्या इससे उर्दू साहित्य की तरफ अब लोगों का ज्यादा ध्यान जाएगा?

मोहसिन खान: ऐसा नहीं है कि ‘अल्लाह मियां का कारखाना’ वह पहला उपन्यास है जिसे उर्दू पाठकों ने दिलचस्पी के साथ पढ़ा हो।  इससे पहले और इसके बाद लिखे जाने वाले उपन्यास भी पाठकों द्वारा खूब पढ़े गए हैं और दूसरी भाषाओं मे इनके अनुवाद हुए हैं। हां, यह कहा जा सकता है कि ‘अल्लाह मियां का कारखाना’  इस लिहाज से दूसरे उपन्यासों से मुख़्तलिफ़ है कि इसके पाठक किसी खास वर्ग या आयु के नहीं हैं। बल्कि इसे सभी वर्ग और आयु के पाठकों द्वारा पढ़ा गया और पसंद किया गया। यहां तक कि बच्चों ने भी इसे बड़ी दिलचस्पी के साथ पढ़ा। इसमें कोई शक नहीं कि खालिद जावेद के उपन्यास  ‘नेमत ख़ाना’ और मेरे उपन्यास ‘अल्लाह मियां का कारखाना’ के बाद उर्दू दुनिया में एक खुशगवार फजा कायम हुई है। नेमत ख़ाना को जे सी बी और अल्लाह मियां का क़ारखाना को बैंक ऑफ बड़ोदा राष्ट्र भाषा सम्मान दिए जाने के बाद उर्दू लेखकों का उत्साह बढ़ा है, उपन्यास ख़ूब लिखे जा रहे हैं और  पढ़ने वालों का दायरा बढ़ा है।

जिज्ञासा: यह पुस्तक मैंने पढ़ी। पढ़ते हुए कई बार लगा कि बच्चे भी इसे मन से पढ़ सकते हैं, क्योंकि इसमें उनके बचपन की शरारतें गुंथी हुई हैं। आपने खुद भी बच्चों के लिए काफी कुछ लिखा है। बाल मनोविज्ञान की आपको जबरदस्त समझ है। इस पुस्तक के बालक जिब्रान को बचपन में ही दुनिया की कठोरताओं में दाखिल होना पड़ता है। पुस्तक लिखने के लिए क्या प्रेरणा रही?

मोहसिन खान: चूंकि उपन्यास आसान भाषा मे लिखा गया है। इसमें खेल-तमाशों का वर्णन है और एक बच्चा कथावाचक है। इस कारण बच्चों ने इसे पढ़ा और खूब पसंद किया। उपन्यास के शीर्षक ने भी बच्चों को अपनी ओर आकर्षित किया।

जी हां, बच्चों के लिए लिखने में ज्यादा रुचि रही और शायद यही कारण था कि जब लिखने बैठा तो बच्चे का खयाल जेहन में आया और यह बच्चा उपन्यास का मुख्य पात्र बन गया।

आपको  शायद यह अतिश्योक्ति लगे लेकिन सच यह है कि इस उपन्यास को लिखते समय न तो मैंने नोट्स बनाए थे और न जेहन में कोई  प्लाट या खाका था। खयाल से खयाल की कड़ियां जुड़ती चली गईं और ‘अल्लाह मियां का कारखाना’ तैयार हो गया।

दरअसल होता यह है कि जिस प्रकार मिट्टी में दबे हुए बीजों से बारिश के बाद अंखवे फूटते हैं, उसी प्रकार लेखक के अवचेतन में दबी हुई घटनाएं सृजनात्मक लहर के साथ कृतियों का रूप धारण कर लेती हैं। मेरे अवचेतन में रह जाने वाली कुछ बातें थीं, कुछ पात्र थे जिनकी रंग आमेजी करके उपन्यास का रूप दे दिया गया है।

जिज्ञासा: हिंदी और उर्दू के पाठक संसार में आप किसे बेहतर पाते हैं और क्यों? और बेहतरी के लिए क्या सुझाव हैं?

मोहसिन खान: हमारे समाज में आमतौर पर यह समझा जाता है साहित्य का अध्ययन समय की बर्बादी है और इससे कुछ हासिल नहीं होता। जब तक यह अवधारणा बनी रहेगी, पाठकों का संसार सीमित और संकुचित होता चला जाएगा। हमें आपने घरों और स्कूलों में बच्चों को साहित्य की अहमियत का एहसास दिलाना होगा और इस सच्चाई से अवगत कराना होगा कि साहित्य बेकार की चीज नहीं, बल्कि एक बहुमूल्य खज़ाना है यह न केवल इंसान के व्यक्तित्व को संवारता और समृद्ध करता है, बल्कि सभ्य समाज के निर्माण में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है।

सरकार द्वारा हर वर्ष विभिन्न योजनाओं पर अरबों रुपये खर्च किए जाते हैं। यदि एक पुस्तकालय योजना बना कर देश के तमाम शहरों, देहातों में वाचनालय स्थापित कर दिए जाएं और ठीक तरह से उनका संचालन किया जाए तो आम लोगों में किताबें पढ़ने का शौक पैदा होगा और समाज में एक खुशगवार तब्दीली आएगी।

यह खयाल एक सपने जैसा है, दुआ कीजिए कि यह साकार हो।

जिज्ञासा: बहुत से सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं और उपन्यास खत्म हो जाता है। ऐसा फिल्मों में होता तो उसका सीक्वल बनने की बात होती। क्या आप भी इसका दूसरा भाग लिखेंगे या तमाम सवालात जैसे- उनके पिता का क्या हुआ, क्या नए हाफी जी आए, उनका स्वभाव कैसा है, जिब्रान अब कैसे पलेगा, वह अपनी जिंदगी में क्या बनेगा, नुसरत का क्या होगा, दादी का क्या हुआ, चचाजान को क्या बात पता लगी थी जो वे गुमसुम हो गए और अचानक उनको ब्रेन स्ट्रोक हो गया और वे चले गए, इन सवालों के जवाब पाठकों की कल्पना के हवाले रहेंगे?

मोहसिन खान: उपन्यास में जिब्रान के मां-बाप, चाचा-चाची और कई पात्रों की मौजूदगी ज्यादा देर तक नहीं रही, लेकिन यह बात साफ हो गई कि जिब्रान की जिंदगी में किसकी क्या भूमिका रही। मेरा खयाल है कि अगर जिबरान पर ध्यान केंद्रित करके उपन्यास पढ़ा जाए तो सवाल अनुत्तरित नहीं रह जाएंगे।

हां, इसका सीक्वल लिखा जा सकता है। कई पाठकों ने आग्रह भी किया, लेकिन फिलहाल लिखने का इरादा नहीं है।

जिज्ञासा: किताब में उर्दू के बहुत से शब्द हैं, जो आम हिंदी पाठक कम ही इस्तेमाल करते हैं। क्या बेहतर न होता कि किताब के आखिर में या हर पेज के नीचे इन शब्दों के हिंदी अर्थ भी दे दिए जाते।

मोहसिन खान: उपन्यास आसान उर्दू भाषा में लिखा गया है। मुमकिन है कि कुछ अल्फाज ऐसे हों जो हिंदी वालों की समझ में न आ सकें और उनके अर्थ फुटनोट में दिए जा सकते थे, लेकिन रेख्ता पब्लिकेशन द्वारा देवनागरी में प्रकाशित होने वाली पुस्तकों में फुटनोट नहीं होते। रेख्ता वालों ने यह पॉलिसी क्यों बनाई है, यह वही बता सकते हैं।


मेरे उपन्यास की शुरुआत में गांधी लाहौर में अक्टूबर 1919 को सरलादेवी के घर पर आते हैं और उन्हें उनके दरवाजे पर कहते हैं कि आपकी हँसी इस देश की संपदा है। आप यूं ही हँसती रहें। यह बात सरलादेवी चौधरानी ने अपनी आत्मकथा में लिखी है कि गांधी ने उनको ऐसा कहा। पर कहां पर कहा, यह मेरी कल्पना है।

‘जिस सरलादेवी चौधरानी की बौद्धिक प्रतिभा और देश की आजादी के यज्ञ में खुद को आहुति बनाने का संकल्प देख गांधी ने अपनी ‘आध्यात्मिक पत्नी’ का दर्जा दिया, उसका नाम इतिहास के पन्नों में कहां दर्ज है?

‘जिनकी शिक्षा और तेजस्विता से मुग्ध हो स्वामी विवेकानंद उन्हें अपने साथ प्रचार करने विदेश ले जाना चाहते थे। उसे इतिहास ने बड़े नामों की गल्प लिखते समय हाशिए पर तक जगह क्यों नहीं दी?’

सरलादेवी चौधरानी भारत में स्त्री आंदोलनकारियों का सुपरिचित नाम है। अलका सरावगी की पुस्तक ‘गांधी और सरलादेवी चौधरानीसरलादेवी के नजरिए से गांधी के बारे में बात करती है। पुस्तक की रग-रग में गांधी हैं। सरलादेवी की इस कहानी का पहला पृष्ठ गांधी से शुरू है और आखिरी पृष्ठ तक गांधी हैं। उन्होंने सरलादेवी के जीवन को लगभग बदल डाला। वे आभिजात्य जीवन से खादी तक पहुंच गईं। तलवारों की पूजा, बंग युवकों को लट्ठ चलाने और व्यायाम की शिक्षा देते हुए वे अहिंसा के रास्ते पर बहस तक आ गईं।

गांधी अपने सिद्धांतों का पालन करने और करवाने में बेहद दृढ थे। इस प्रेम में, अगर इसे ठीक-ठीक प्रेम कहा जा सके, उनका यही रूप देखने को मिलता है। दो विवाहित व्यक्तियों के बीच यह कहा-अनकहा प्रेम लगभग साल भर  चला। इसका आरंभ और अंत वैसे ही हुआ जैसे कि इस तरह के प्रेम में संभावित है। यह उपन्यास इसी एक साल के तमाम घटनाक्रम- गांधी की यात्राओं, सरलादेवी को लिखे उनके लगाव भरे पत्रों, देश की राजनीति, आंदोलन, गांधी आश्रम के जीवन और इन सबके बीच प्रेम में भावुक हुई सरलादेवी की मनःस्थिति की कथा है, जिसे पढ़ते हुए गांधी का पुरुष पक्ष उद्घाटित होता है।

अक्टूबर 1919 से आरंभ इस कथा की पृष्ठभूमि में जालियांवाला बाग हत्याकांड और असहयोग आंदोलन है। कहानी सरल, एकांगी और एकरेखीय नहीं है। यह दो ऐसे व्यक्तियों के ऐसे सुयोग की कथा है जिनके लिए देश की आजादी पहली प्राथमिकता थी। आजादी के स्वप्न के बिना इन दोनों के व्यक्तित्व की कोई अलग पहचान या परिभाषा नहीं है। अंग्रेजों के असत्य, शोषण, हत्याओं  और लूट के खिलाफ खड़े ये दो विपरीतलिंगी मनुष्य परिस्थितिवश सहज ही एक दूसरे के साथ हो गए। गांधी को जितना जानिए उनके व्यक्तित्व की परतें चमत्कृत करते हुए खुलने लगती हैं। गांधी का स्त्रियों पर कितना भारी असर था, और स्त्रियां उनपर कैसा अगाध और सहज विश्वास करती थीं। हजारों स्त्रियां गांधी के आंदोलन में शिरकत करने उमड़ पड़ती थीं, न सिर्फ साधारण शिरकत बल्कि नेतृत्वकारी भूमिका में भी। सरलादेवी भी ऐसी ही एक निडर, साहसी और प्रतिभावान स्त्री थीं।

पुस्तक बारह अध्याय में विभक्त है। ये अध्याय ही इस बारहमासा प्रेम के बारह अध्याय हैं। यह पुस्तक क्यों लिखी गई है इसका परिचय उपन्यास शुरू होने के पहले ही, इसके पहले पृष्ठ की टिप्पणियों में मिल जाता है। यह पुस्तक की केंद्रीय लाइन है।

प्रेम तो ऐसे भी बड़ी जटिल चीज है, फिर दो ऐसे व्यक्तियों के बीच प्रेम जो समय के ऐसे मोड़ पर हैं, जहां वे खुद इतिहास बना रहे हैं। उनके रिश्ते में जटिलता भी अपने चरम पर है। उस समय के सामाजिक मूल्य, स्त्रियों के लिए समाज की दृष्टि आज से भिन्न है। यह सौ साल पहले का भारत है। एक संत-राजनीतिज्ञ जिसका हर कदम लाखों लोगों की निगाह में है, और जो खुद भी निजी और सार्वजनिक जीवन में कोई भेद नहीं करता, और जोड़ासांको ठाकुरबाड़ी की अभिजात पृष्ठभूमि में पली गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की भांजी, जिसे कदम कदम पर अपने कुल, मर्यादा का ख्याल रखना है।

उपन्यास में उकेरे गए गांधी, सरलादेवी को प्रेम करते हैं और सखा, बंधु, प्रिय और कहीं कहीं बहन के तौर पर उन्हें पुकारते हैं। और सहज ही हर वह उपाय करते हैं जिससे सरलादेवी उनके नजदीक रह सकें। पुरुष स्त्री के प्रेम में विरले ही अपने काम छोड़ता है, जबकि स्त्री सबसे पहले खुद को ही विस्मृत करती है। यह बात पुस्तक में बार-बार देखने को मिलती है। गांधी का हर संभव प्रयास है कि सरलादेवी देशसेवा और त्याग का रास्ता चुनें, और हमेशा के लिए साबरमती आश्रम आ जाएं। सरलादेवी को लिखे हर पत्र में गांधी असहयोग, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, खद्दर पहनना आदि बातों को बार-बार दोहराते हैं और हर बार सरलादेवी को इसी कसौटी पर कसते हैं। गांधी एक पल के लिए भी अपने मूल्यों और देश की आजादी के अपने विश्वासों पर संदेह नहीं करते, न उन्हें कभी कमजोर होने देते हैं। वे  सरलादेवी के बारह साल के पुत्र दीपक को साबरमती बुला लेते हैं और अपने अनुसार दीक्षित करते हैं। सारी दुविधाएं सरलादेवी के भीतर उदित होती हैं। उनके पति हैं, टैगोर खानदान का बड़ा नाम है। गांधी के असहयोग, ब्रह्मचर्य और अहिंसा के मूल्यों पर उन्हें संदेह है।

गांधी के सारे प्रयास केवल इसी दिशा में होते हैं कि वे सरलादेवी को अपनी राह पर ले आएं। उनकी निगाह में सरलादेवी के उनके प्रति प्रेम की यही सच्ची कसौटी है। आज भी अकसर स्त्री को ही प्रेम में सब कुछ छोड़कर पुरुष के साथ चले आना होता है। पुरुष सदियों, शताब्दियों से डॉमिनेट करते आए हैं यह उनका इनबिल्ट फीचर है। उनकी सामजिक और आर्थिक हैसियत इसे आसान और व्यवहारिक बनाती है।

पुस्तक में कई महत्वपूर्ण और दिलचस्प उल्लेख आते हैं जो गांधी की परतों को समझने में मददगार हैं। गांधी खुद कितने सारे काम कर रहे हैं और यही आशा वे सरलादेवी से करते हैं जिनसे सरलादेवी काफी परेशान और भ्रमित  होती हैं कि गांधी उनसे एक ही जीवन में कई जीवन के काम कराना चाहते हैं। पुस्तक में गांधी के बहाने मिल मजदूरों और मालिकों पर बात है। मजूर महाजन संघ बनाना और अनसूया बेन को उसका आजीवन अध्यक्ष मनोनीत करना। इसके अलावा मरियम जिन्ना उर्फ रूटी पेटिट उर्फ रूटी जिन्ना के बारे में जानना एक अलग ही आयाम है जिससे पता लगता है गांधी की सतह को एक ही समय में कितने अलग-अलग तरह के व्यक्ति स्पर्श करते थे। जलियांवाला में शहीदों का स्मारक बनाने के लिए गांधी का फंड इकट्टा करना, असहयोग आंदोलन के लिए देश को तैयार में शहर दर  शहर नापना- जिसके बारे में सरलादेवी कहती हैं -ऐसा लगता है अंग्रेजों ने ट्रेन गांधी के चलने के लिए ही बनाई है।

उपन्यास में सबसे कम जिनके बारे में उल्लेख है, वे रामभज दत्त हैं -सरलादेवी चौधरानी के पति। वे अपनी पत्नी की निष्ठा पर कोई सवाल नहीं उठाते, न ही उनके मंतव्यों और गांधी के साथ उनके घनिष्ठ पत्र व्यवहार पर कभी सवाल करते हैं। वे सरलादेवी के प्रति पूर्ववत स्नेही बने रहते हैं और गांधी से उनके संबंध को सरलादेवी के राजनीतिक संबंध के बतौर देखते हैं। गांधी से उनके मेलजोल पर कभी रोक लगाने का प्रयास नहीं करते। यह बहुत विशिष्ट चरित्र है, और स्त्रियों के लिए ऐसा जीवनसाथी मिलना सपने जैसा ही होता है। संभवतः यही कारण है कि रामभज की स्पष्ट तारीफ न करते हुए भी सरलादेवी गांधी के पास चले जाने का निर्णय लेने में दुविधा में रहती हैं।

यह इतिहास का वह दौर था जब पुरुष नायक ही लंबे दौर के आंदोलनकारी हो सकते थे, स्त्रियों के विशिष्ट सामाजिक आर्थिक पिछड़ेपन की पृष्ठभूमि में सरलादेवी को उनके पीछे चलकर ही इतिहास में जगह बनानी थी। 19वीं सदी में जन्मी सरलादेवी पर इस तरह लिखने का सही समय शायद यही है जब भारत स्त्रीवाद से परिचित हो चुका है। बड़ी संख्या में स्त्रियां शिक्षित हैं, बाहर निकल रही हैं और राजनीति के दुर्गम मार्गों पर भी वे कम ही सही, पर निकल पड़ी हैं। आज स्त्रियां इस स्थिति में हैं कि वे सरलादेवी के  अपना पूर्वज होने का अर्थ समझ सकती हैं।

पुस्तक पढ़ते हुए सहज ख्याल आता है- सरलादेवी और गांधी , क्या सचमुच कुछ सत्य है या गल्प? अलका सरावगी ने अपने साक्षात्कार में इसे स्पष्ट किया है- सरलादेवी की  आत्मकथा ‘जीवनेर झरा पाता’ उपलब्ध है, हालांकि इसमें उनकी कहानी अधूरी है। ‘लॉस्ट लेटर्स एंड फेमिनिस्ट हिस्ट्री -गेराल्डिन फ़ोर्ब्स (1920) में गांधी के सरलादेवी को लिखे करीब अस्सी पत्र उपलब्ध हैं। इन पत्रों में अलका सरावगी के मन में इस पुस्तक की भूमिका तैयार कर दी। उन्होंने पूरी जिम्मेदारी के साथ सरलादेवी के देशप्रेमी रूप को ऐतिहासिक तथ्यों के साथ रचा है।

ऐतिहासिक चरित्रों पर लिखना आसान नहीं होता। इनका फलक बड़ा होता है और आपको खास ख्याल रखना पड़ता है कि किसी चरित्र के साथ ना-इंसाफी न हो जाए। इस लेखन की विश्वसनीयता पर हजार सवाल उठ सकते हैं। अलका सरावगी ने अपने गहन अध्ययन और शोध से इसे बखूबी साध लिया है। 216  पृष्ठों की यह पुस्तक उपन्यास की तरह एक दो सिटिंग  में खत्म करना मुश्किल है। इसमें कदम-कदम पर इतिहास पिरोया हुआ है जो इसे काफी संश्लिष्ट बनाता है और ठहर कर पढ़ने  की मांग करता है। कवर मोहक है, युवा गांधी और सरलादेवी की आकर्षक तस्वीर इसे विश्वसनीय बनाती है। रुपहले अक्षरों में किताब का नाम दमकता रहता है।

कहने की जरूरत नहीं अलका सरावगी उपन्यास जैसी श्रमसाध्य विधा की सिद्धहस्त हैं। ‘एक सच्ची-झूठी गाथा’, ‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’ और अब यह उपन्यास जिस तेजी और बेहद कम अंतराल में आए हैं, उनकी यह तल्लीनता और गति चकित करने वाली है। उनके कई उपन्यासों के भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। उनका पहला उपन्यास, जिसे  साहित्य अकादमी सम्मान मिला, ‘कलिकथा वाया बाईपास’ – भारत, केम्ब्रिज, नेपल्स, ट्यूरिन के विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल है। इतिहास के इस चरित्र को आज की ख्यातनाम लेखिका का साथ मिलना हमारी पीढ़ी के लिए दुर्लभ संयोग है। अलका सरावगी ने यह उपन्यास लिखकर हमारी पीढी का कर्ज कुछ तो कम किया ही है और अपनी बहादुर पुरखन को शब्दों की दुनिया में शानदार तरीके से जीवित कर दिया है।

जिज्ञासा: आपने गांधी और सरलादेवी के आध्यात्मिक या इंटलेक्चुअल रिश्ते को बहुत संतुलित तरीके से दिखाया है, जबकि इसमें जजमेंटल होने की तमाम गुंजाइश थी। ऐतिहासिक पात्रों पर लिखने में क्या चुनौतियाँ रहीं?

अलका सरावगी: गांधी को पात्र बनाना निश्चय ही चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि गांधी पर सैकड़ों किताबें लिखी गई हैं। इसके अलावा ‘कंप्लीट वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी’ जिसमें गांधी के सभी लेख, भाषण और पत्र संग्रहित हैं, में लाखों पन्ने हैं। इसलिए गांधी पर कल्पना की गुंजाइश बहुत कम है।

मैंने जो कुछ भी लिखा, वह गांधी के सरलादेवी को लिखे उपलब्ध पत्रों के आधार पर गांधी और सरलादेवी के रिश्ते का एक पुनःपाठ है। बेशक यह एक व्यक्तिगत पाठ है किंतु मैंने अपनी समझ में बहुत सावधानी बरती कि इसमें मेरी कल्पना संभावना के दायरे में ही रहे। इसके अलावा मेरा ऐसा कोई अजेंडा नहीं था कि गांधी की मूर्ति को ध्वस्त किया जाए या कि उस रिश्ते को एक सनसनीखेज रिश्ते के तौर पर पेश किया जाए।

जिज्ञासा: इसमें गल्प कितना है और इतिहास कितना, क्या इसे जानकर उपन्यास पढ़ना और ज्यादा ऑथेंटिक होगा। उपन्यास आपके गहन अध्ययन को भी दर्शाता है। इसे लिखने के लिए आपने काफी कुछ पढ़ा होगा। वैचारिक स्रोत क्या रहे?

अलका सरावगी: गल्प और इतिहास के मिश्रण के बारे में एक किस्सा बताना चाहूंगी। मेरे उपन्यास की शुरुआत में गांधी लाहौर में अक्टूबर 1919 को सरलादेवी के घर पर आते हैं और उन्हें उनके दरवाजे पर कहते हैं कि आपकी हँसी इस देश की संपदा है। आप यूं ही हँसती रहें। यह बात सरलादेवी चौधरानी ने अपनी आत्मकथा में लिखी है कि गांधी ने उनको ऐसा कहा। पर कहां पर कहा, यह मेरी कल्पना है।

गांधी की आत्मकथा, संपूर्ण गांधी वांग्मय, हिंद स्वराज के अलावा सुधीर चंद्र, रामचंद्र गुहा आदि को पढ़ा। सरलादेवी को जानने के लिए उनकी आत्मकथा, उनपर लिखे हुए शोध प्रबंध, उनकी रचनाओं के संकलन आदि मुख्य स्रोत थे। गांधी की भाषा की अंतर्ध्वनियां पकड़ने के लिए गांधी के कई भाषण भी सुने। सरला देवी के मामा रवींद्रनाथ टैगोर के घर बिताए बचपन के जीवन के बारे में जानने के लिए जोड़ासांको पर भी कई किताबें उपलब्ध हैं। सरलादेवी गांधीजी को अपनी परवरिश के बारे में जो कथाएं सुनाती हैं, उनका स्रोत इस तरह की किताबें और टैगौर परिवार की स्त्रियों द्वारा लिखी गई आत्मकथाएं भी रहीं।

जिज्ञासा: उपन्यास की रचना प्रक्रिया पर कुछ साझा कीजिए।

अलका सरावगी: सरलादेवी जैसी प्रबुद्ध स्त्री, जिनका स्त्री-शिक्षा, स्त्री-मुक्ति और राजनीति में स्त्री की जगह को लेकर लगभग क्रांतिकारी विचार थे, उनका इतिहास में कहीं जिक्र न आना आश्चर्यजनक है। गांधी के सरलादेवी को लिखे पत्रों को एक किताब के रूप में लानेवाली अमेरिकन इतिहासकार जेराल्डीन फ़ोर्ब्स ने एक ऑनलाइन सेमिनार के दौरान कहा था कि सरलादेवी का जीवन बहुत औपन्यासिक है। मैंने पत्रों को पढ़ना शुरू किया। पचास साल की उम्र में तेरह साल पहले से ब्रह्मचारी गांधी के जीवन के इस पहले व्यक्तिगत प्रेम की पात्र सरलादेवी कैसी रही होंगी? जिसे गांधी अपने बौद्धिक पार्टनर के रूप में देख रहे हों, जिसे विवेकानंद अपने साथ विदेश में धर्मप्रचार के लिए ले जाना चाहते हों, जिसने वंदेमातरम के अगले अंतरा की धुन बनाई, उनका यदि कहीं जिक्र आता है, तो सिर्फ इस तरह कि एक बंगाली विदुषी के प्रेम में पड़ गए थे गांधी! इस तरह मेरी अपनी यात्रा शुरू हुई-सरला देवी को जानने की, उनके मन को पहचानने की, उनकी प्रतिभा को सराहने की। और लोगों की स्मृति में एक शून्य को भरने की।

जिज्ञासा : आपके उपन्यास लेखन की सक्रियता सजगता चकित करने वाली है। इस गति और तल्लीनता को बनाए रखने में आपके जीवन में कौन-सा फैक्टर उपयोगी या प्रेरक हैं।

अलका सरावगी:‘मन लागा मेरो यार फकीरी में’। शायद इसी बात में सब कुछ आ जाता है, कि और किसी जगह दिल लगता नहीं। लिखने-पढ़ने में ही मन रमता है। हमारे गुरु अशोक सेकसरिया को जो लोग जानते हैं, उन्हें कोई आश्चर्य नहीं होगा कि ऐसा हुआ।

 

समीक्षित पुस्तकें

(1) अगम बहै दरियाव, शिवमूर्ति, राजकमल प्रकाशक, मूल्य- 599 (2) अल्लाह मियां का कारखाना (उपन्यास)- मोहसिन खान, अनुवाद : सईद अहमद, रेख्ता और राजकमल का संयुक्त प्रकाशन, मूल्य- 349 रुपये। (3) गांधी और सरलादेवी चौधरानी (उपन्यास), अलका सरावगी, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य- 299 रुपये।

25, यमुना विहार, द्रौपदी घाट, इलाहाबाद 211014  मो. 9839721868