कवि, समीक्षक और संस्कृति कर्मी।विद्यासागर विश्वविद्यालय, मेदिनीपुर में सहायक प्रोफेसर।
हिंदी में कुछ जीवनियां काफी प्रसिद्ध रही हैं, क्योंकि वे सिर्फ जीवनी नहीं थीं। ‘निराला की साहित्य साधना’ (रामविलास शर्मा), प्रेमचंद के जीवन पर ‘कलम का सिपाही’ (अमृत राय), शरतचंद्र के जीवन पर ‘आवारा मसीहा’ (विष्णु प्रभाकर) और ‘मुक्तबोध की आत्मकथा’ (विष्णुचंद्र शर्मा) कुछ ऐसी ही पुस्तकें हैं। ये जीवनियां सिर्फ जीवनी या आत्मकथा इसलिए नहीं हैं कि इनमें जो लेखक केंद्र में हैं, उस लेखक के साथ एक पूरा युग बोलता है। जो निजी है वह भी एक बड़े संकेत के साथ आता है। इसके अलावा लेखक की कृतियां भी खुली आलोचनात्मक दृष्टि के कारण अपना अनोखा चरित्र लेकर उपस्थित होती हैं।
इधर जीवनी लेखन का एक नया सिलसिला बन रहा है, जो स्वागत योग्य है। फर्क यह है कि इधर पाठकों की रुचि बदली है। उसकी दिलचस्पी लेखक के सृजनात्मक व्यक्तित्व में उतरने से ज्यादा उसके निजी जीवन में ताक-झांक करने में है, उसके संबंधों-शत्रुताओं के उतार-चढ़ाव और कोई मुकदमेबाजी हो तो उसे जानने में है। उसकी रुचि ‘युग के परिदृश्यों’ की जगह ‘पर्सनल’ में ज्यादा है। हाल में जो तीन-चार जीवनियां आई हैं, उनको सामने रखकर समकालीन जीवनी साहित्य के नए स्वरूप और चरित्र पर इस कोण से भी बहस की जानी चाहिए कि ये आजकल की पाठकीय रुचि के दबाव से कितनी मुक्त हैं कितनी नहीं। हालांकि कुछ वजहों से मुझे हरिशंकर परसाई पर राजेंद्र चंद्रकांत राय की जीवनी ‘काल के कपाल पर हस्ताक्षर’ तक ही सीमित होना पड़ रहा है, क्योंकि कुछ अन्य पुस्तकों के संदर्भ में ‘समीक्षा संवाद’ की परंपरा के अनुसार जीवनीकार से साक्षात्कार उपलब्ध न हो सका।
इस जीवनी में किसी भी सत्य को छिपाने का जरा-सा भी प्रयत्न नहीं किया गया है। परसाई जी का जीवन खुली किताब था, जीवनी में भी उस सत्य को किसी भी दशा में क्षरित नहीं होने देने का सजग प्रयत्न किया गया है। |
‘काल के कपाल पर हस्ताक्षर’ पढ़ते हुए लगा कि हम एक उपन्यास पढ़ रहे हैं, हालांकि यह मुख्यतः तथ्यों से युक्त जीवनी है। इसमें परसाई के जीवन की घटनाओं, कार्यों तथा उनके गुणों की चर्चा के साथ तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक परिदृश्य का भी विवरण है। इसमें परसाई के अलक्षित जीवन प्रसंगों को पढ़ना एक रोमांचकारी अनुभव है। इसमें लक्षित परसाई से कहीं अधिक अलक्षित परसाई हैं, जिसे जाने बिना उनके लेखकीय और महाकाव्यात्मक व्यक्तित्व को समझना कठिन है।
राजेंद्र चंद्रकांत राय परसाई को एक सुचिंतित लेखक और एक्टिविस्ट की तरह देखते हैं, क्योंकि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। निश्चय ही परसाई की सक्रियता ही एक व्यापक फलक पर नहीं रही है, बल्कि उनकी लोकप्रियता भी अनोखी है। कमलेश्वर ने लिखा भी है कि जब भी ‘सारिका’ में परसाई जी का स्तंभ शुरू होता था, सारिका का प्रिंट आर्डर बढ़ जाता था।
हरिशंकर परसाई का जीवन कई घटनाओं और परिस्थितियों से निर्मित हुआ है। बिना ऐसी घटनाओं पर परिस्थितियों को समझे कोई भी लेखक परसाई के जीवन पर अधिकारपूर्वक नहीं लिख सकता। राजेंद्र चंद्रकांत राय ने इस जीवनी में परसाई के जीवन की अनगिनत घटनाओं का आत्मीय विवरण दिया है। उन घटनाओं से गुजरते हुए हम उनके जीवन से जुड़े प्रश्नों का जवाब पा सकते हैं। जब स्कूल में पढ़ते हुए शिक्षा उन्हें ‘क’ से कमल सिखा रहा था, परसाई ने कहा ‘क’ से कमल नहीं कलम और इसके लिए मार खाई!
यह पुस्तक परसाई के जन्म से पहले की घटना से लेकर उनके अंतिम समय तक का एक अध्ययन है। जीवनीकार ने शोधपरक ढंग से तथ्यों को इकट्ठा करके उन्हें सृजनात्मक आभा तक पहुंचाया है। इस पुस्तक का नायक ‘हरि’ उर्फ ‘परसाई मास्साब’ का जीवन ‘काल से मुठभेड़’ करता है और मुक्तिबोध की तरह आभिजात्य से दूर रहता है। वह जनसाधारण और अपने देश के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। परसाई कहीं भी पारिवारिक दायित्व से भागते नहीं हैं और न सामाजिक सरोकारों को छोड़ते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि वे अंततः पूरी तरह लेखन-निर्भर हो गए थे।
जब स्कूल प्रबंधन परसाई से स्पष्टीकरण मांगता है, वे कहते हैं- ‘वे किसी राजनीतिक दल के सदस्य नहीं हैं। पर वे एक स्वतंत्र देश के नागरिक अवश्य हैं।’ ऐसे में यह कहना गलत न होगा कि परसाई की प्रतिबद्धता और प्राथमिकता देश के नागरिकों के हित से जुड़ा रहा है। वे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और लेखकीय ईमानदारी का परिचय देते हुए पूरे आत्मविश्वास के साथ कहते हैं, ‘लेखक परसाई को मारकर, यदि अध्यापक परसाई जिंदा रहा, तो वह भी भला कोई जिंदगी होगी? नौकरी के लिए लेखक को दांव पर नहीं लगाया जा सकता।’
परसाई का ‘कलम’ के लिए नौकरी छोड़ना एक बड़ी घटना है। उन्होंने जीवन में अनिश्चितताओं और प्रतिकूलताओं का सामना करना पसंद किया। आज कितने ऐसे लेखक मिलेंगे, जो परसाई की तरह निडर होकर जनसरोकारों के लिए अपनी निश्चित नौकरी छोड़ने का साहस रखते हैं!
बालक परसाई की आस्था भारतमाता, गांधी ऐर देश की स्वतंत्रता से रही है। इसलिए वे गाते हैं- ‘विरोध को, विवाद को, अनीति को, प्रमाद को / घने-घिरे, विषाद को, विषाक्त न्याय नाद को / स्वतंत्र इंकलाब से / हिलाये चल, हिलाये चल / …हर एक तार सांस का बनाये चल, बजाये चल…!’ ऐसे कई प्रसंग हैं जिनका उल्लेख जीवनी में है।
परसाई के भीतर लक्ष्यों को पाने की जिद थी। बिना जिद के भला कोई कैसे थैला टांगकर रात-दिन रेल, प्लेटफार्म और दफ्तरों में भटक सकता है। अक्सर बिना खाए यात्राएं सिर पर उठाए वे भाग रहे थे। नतीजा यह हुआ कि बिना टिकट, चोरी-छिपे यात्राएं कर रहे थे। एकाध बार पकड़े गए। वे अपनी भूलों के लिए खुद को धिक्कारते हैं। वे सच का दामन नहीं छोड़ते और चेकर से सच कहते हैं कि मैं निर्धन हूँ पर अपराधी नहीं!
यह जीवनी परसाई की साहसिकता एवं समझदारी का आख्यान है। जीवनीकार ने पुस्तक में परसाई की आदमियत के लिए प्रतिबद्धता की ओर संकेत किया है। परसाई ज्ञान को उदारता, विन्रमता एवं राष्ट्रीयता का आधार मानते हैं। जाति श्रेष्ठता के अहंबोध के बरक्स परसाई अपने दादा श्यामलाल के ब्राह्मण होने के मामले में आदमी बनने की बात कहते हैं- ‘पढ़े-लिखे हैं, इसी से कहते हैं दादा कि सबसे पहले हम मुनष्य हैं… ब्राह्मण होने से भी बड़ा है मनुष्य होना। मनुष्य से छोटा होना है, हिंदू या मुसलमान हो जाना… उससे भी छोटा होना है ब्राह्मण हो जाना …फिर और छोटा होना है, निझौतिया या सरयूपाणीय हो जाना… तो दादा, बताओ कि हमें छोटा होना चाहिए कि बड़ा…?’
जीवनीकार ने इसमें जबलपुर के इतिहास, पुराकथा, साहित्य, बोलचाल के शब्दभंडार और अभिलेखों के हवाले से इस नगर की समृद्ध परंपरा बताई है। परसाई के बनने में इस शहर की सांस्कृतिक विरासत की एक बड़ी भूमिका है। लेखक ने इसका जिक्र करते हुए लिखा भी है-‘यहां पर संसार की प्राचीनतम लम्हेटा चट्टाने थीं। कभी समुद्र के वहां पर होने के जीवाश्म-प्रमाण और डायनासोर की अनोखी प्रजातियों के जीवाश्मों का भंडार था। परंपराएं, मत और विचारधाराएं थीं। राजनीति और आंदोलन थे। स्वाधीनता पाने की खदबदाहत थी। लोकतंत्र की तरफ दौड़ता हुआ जनमानस था।’ एक लेखक के बनने में उसके नगर की भू-संस्कृति की कितनी बड़ी भूमिका है, यह परसाई के संदर्भ में स्पष्ट है।
जीवनी से ज्ञात होता है कि हरिशंकर परसाई की बहनें भी राजनीतिक चर्चाओं में हिस्सा लेती थीं। चूल्हे-चौके के बाहर की स्त्री-समस्याओं पर चर्चा करती थीं। इस पुस्तक में स्त्री जागरण और स्त्री-भागीदारी को भी प्रमुखता से स्थान दिया गया है। यह जीवनी नगर, परिवार और जन-आंदोलनों के संदर्भ में एक बड़े फलक पर लिखी गई है।
परसाई का मानना है कि बिना चैतन्यता के स्वतंत्रता और मुक्ति संभव नहीं है। परसाई जीवन-भर आलस्य और जड़ता से संघर्ष करते हैं। आजादी के बाद वे ‘प्रहरी’ अखबार में लिखते थे, जिसकी मूल भावना चैतन्यता की रक्षा से जुड़ी थी। इसी सजगता या चैतन्यता ने उन्हें हर तरह की मुसीबतों से लड़ने के लिए तैयार किया। हालांकि उनको अपने जीवन में कई ठोकरें लगती हैं, परंतु वे गिरते नहीं, संभल जाते हैं। ऐसी कई घटनाओं का जीवनीकार ने जिक्र किया है। परसाई कहते हैं, ‘शिक्षा से नई पीढ़ी तैयार होती है। नई पीढ़ी भविष्य बनाती है। उसमें से वैज्ञानिक, विद्वान, कलाकार और दार्शनिक निकलते हैं, जो सारी दुनिया को गढ़ते हैं।’ जीवनी में उनकी ‘वसुधा’ पत्रिका का भी उल्लेख है।
जीवनीकार राजेंद्र चंद्रकांत राय ने 30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या पर परसाई की पीड़ा का जिक्र किया है। जब 9 फरवरी को गांधी जी की अस्थि जबलपुर लाकर नर्मदा में प्रवाहित की गई, तब परसाई की व्यथा क्षोभ का रूप धारण कर लेती है-‘जो हमारी स्वाधीनता के लिए जीवन भर लड़ता रहा। जेल जाता रहा। हमने उसे स्वतंत्रता के छह महीने भी नहीं दिए। जो सांप्रदायिक हिंसा के बरखिलाफ, पूरे दुस्साहस के साथ लड़ता रहा, उसे ही हमारी सांप्रदायिक हिंसा ने अपना शिकार बना लिया। जबलपुर को इस दुख से उबारने में महीनों लगे।’
परसाई और शकुंतला तिवारी परस्पर एक-दूसरे के प्रति अनुरक्त थे और उनकी अंतरंगता बढ़ती गई। हालांकि उनका जीवन इस प्रेम को विवाह की शक्ल नहीं दे पाया। परसाई के जीवन में एक दुखद घटना घटती है। उनके बहनोई की आकस्मिक निधन से वे बहन के परिवार की जिम्मेदारी लेते हैं और अपनी शादी टाल देते हैं।
‘काल के कपाल पर हस्ताक्षर’ परसाई के जीवन की कई घटनाओं को, जिनमें उनका सांप्रदायिक ताकतों द्वार लाठी के प्रहार से पैर टूटना भी शामिल है, विश्वसनीय प्रमाणों के साथ उपस्थित करती है। यह बताती है कि परसाई जीवन भर प्रतिक्रियावादी शक्तियों से लड़ते हुए अपनी रचनात्मक ऊर्जा, मनुष्यता और जनप्रतिबद्धता को किस तरह बचाए रखते हैं। यह जीवनी उनके सृजनात्मक इतिहास की तरह है। इसमें टिभरनी से जबलपुर तक के पारिवारिक, शैक्षणिक, साहित्यिक, वैचारिक और राजनीतिक जिम्मेदारियों के बीच परसाई के बनने, बढ़ने, थकने और अंत में विदा लेने की कथा है। परसाई जैसे प्रगतिशील लेखक के विराट और वैविध्यपूर्ण जीवनवृत्त को समेटना आसान नहीं था। इस जीवनी में स्थानीयता की छौंक है, लोकगीतों और संवाद का भी उपयोग है। पुस्तक आकार में बड़ी होने के बावजूद पठनीय है और साक्ष्यों के साथ कुछ ज्याद आत्मीयता के साथ लिखी गई है।
जिज्ञासा: कहा जाता है कि हरिशंकर परसाई का लेखन और जीवन एक-दूसरे के पूरक हैं। ऐसे में आप परसाई को कितना लेखक और कितना एक्टिविस्ट मानते हैं?
राजेंद्र चंद्रकांत राय: परसाई जनता से कट कर कमरे में बैठे रहकर लिखने वाले एकांतवासी लेखक नहीं थे। उनका संसार और समाज से जीवंत नाता था। वे लेखकों की गोष्ठी में हिस्सेदारी करते थे, तो मजदूरों की सभाओं में भी शिरकत करते थे। अड्डेबाजी उनका स्वभाव था। अपने अनन्य मित्र शेषनारायण राय की किताबों की दुकान यूनिवर्सल बुक डिपो पर उनकी नियमित बैठकी लगती थी, जहां लेखक, कवि, मजदूर यूनियन के नेता और कार्यकर्ता, प्रगतिवादी विचारों वाले लोग और राजनैतिक दलों के साथी जुड़ते थे। बहसें होती थीं। उन्हीं बहसों और लोगों से उनका लेखन बनता था। वे जितने बड़े लेखक थे, उतने ही बड़े एक्टिविस्ट भी थे।
जिज्ञासा: परसाई के पूरे जीवन में कई बदलाव दिखते हैं वे स्वाधीनता आंदोलन, समाजवाद और मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होते गए। आप उनके बदलाव को कितना अर्थपूर्ण मानते हैं?
राजेंद्र चंद्रकांत राय: परसाई जी जब मिडिल स्कूल के छात्र थे, तभी कांग्रेस के संपर्क में आए थे। वह कांग्रेस स्वाधीनता के लिए जूझने वाली आंदोलनकारी कांग्रेस थी। त्याग, बलिदान और चरित्र की उच्चता उसके आदर्श हुआ करते थे। फिर जब जबलपुर में वे भवानी प्रसाद तिवारी के साप्ताहिक पत्र ‘प्रहरी’ के संपर्क में आए और उसमें न केवल लिखने लगे, बल्कि उसका हिस्सा बन गए, तो वे तिवारी जी और उनकी मंडली के साथ रहकर उनके प्रखर समाजवादी विचारों से प्रभावित हुए और इनसे जुड़े। बाद में मुक्तिबोध और मजदूर नेता महेंद्र बाजपेयी के वैचारिक संपर्कों ने उन्हें मार्क्सवादी बनाया। वे आजीवन मार्क्सवादी रहे। यह बदलाव नहीं था, विचारधारा का क्रमिक विकास था, निरंतर गति थी। यह परिपक्वता की दिशा में की गई विचार-यात्रा थी।
जिज्ञासा: परसाई ने 1999 में लिखा था कि मैं आत्मकथा नहीं लिखूंगा। लोग मानते हैं कि जीवनी या कुछ आत्मकथाओं में कुछ सच छिपा लिए जाते हैं। इस जीवनी में क्या कुछ छिपाने के भी प्रयत्न हैं?
राजेंद्र चंद्रकांत राय: इस जीवनी में किसी भी सत्य को छिपाने का जरा-सा भी प्रयत्न नहीं किया गया है। परसाई जी का जीवन खुली किताब था, जीवनी में भी उस सत्य को किसी भी दशा में क्षरित नहीं होने देने का सजग प्रयत्न किया गया है।
जिज्ञासा:‘काल के कपाल पर हस्ताक्षर’ में आपने दो तरह के परसाई का जिक्र किया है। एक आजादी के पहले के और दूसरे आजादी के बाद के। दोनों किन बिंदुओं पर अलग हैं?
राजेंद्र चंद्रकांत राय : आजादी के पहले के परसाई में परसाई बनने की प्रक्रिया है और बाद के परसाई अपनी व्यापक जीवन दृष्टि, यथार्थवादी जीवन मूल्यों और कालजयी लेखन करने वाले परसाई हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में शहरी मध्यवर्ग के जीवन के द्वैत और विसंगतियों की पड़ताल की है। एक सुचिंतित विचारधारा और जीवन दृष्टि के कारण ही उनका लेखन समय की सीमाओं को फलांग कर निरंतर प्रासंगिक बना हुआ है।
जिज्ञासा: आज ऐसे कितने लेखक हैं जो परसाई की तरह निर्भय होकर लिख रहे हैं?
राजेंद्र चंद्रकांत राय: आज भी ऐसे लेखकों का टोटा नहीं है, जो पाखंडियों और भ्रष्टाचार के खिलाफ खुलकर लिख रहे हैं। हिंदी ही नहीं, भारत की सभी भाषाओं में बुरी प्रवृत्तियों के विरोध में लगातार लिखा जा रहा है। समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता रखने वाला साहित्य कभी भी मनोरंजन मात्र के लिए नहीं हो सकता, वह लेखक के हाथ में ऐसा हथियार है, जिसका उपयोग मनुष्य जीवन की विसंगतियों को उजागर करने तथा अपने समाज को बेहतर बनाने के लिए किया जाता है, किया जाना चाहिए।
समीक्षित पुस्तक :
(1) काल के कपाल पर हस्ताक्षर : राजेंद्र चंद्रकांत राय, सेतु प्रकाशन, दिल्ली, 2023 मूल्य :625 रुपये।
1, राम कमल रोड, पोस्ट-गरिफा, पिन-743166, उत्तर 24 परगना (प.बं.) मो.9331075884