कवि, समीक्षक और संस्कृति कर्मी।विद्यासागर विश्वविद्यालय, मेदिनीपुर में सहायक प्रोफेसर।

दुनिया में बौद्धिक स्वतंत्रता श्रेष्ठ विचार के लिए हमेशा जरूरी बताई जाती रही है। बौद्धिक होने का अर्थ एक ऐसी ज्ञान परंपरा से अपने को जोड़ना है, जो विद्वता के साथ तर्क से जुड़ा होता है। बौद्धिक व्यक्ति ज्ञान की क्लासिकल एवं आधुनिक तार्किक परंपरा दोनों से संवाद की पहल करता है। भूलना न होगा कि बौद्धिक स्वतंत्रता का संबंध मानवाधिकार, लोकतंत्र, पारदर्शिता और विवेक से है। निरंकुश राजतंत्र सामाजिक पक्षपात, भेदभाव, रूढ़िवाद और अनपढ़ता हमेशा बौद्धिक स्वतंत्रता के शत्रु रहे हैं।

लंबे समय से निरंकुश ताकतों ने इसपर नियंत्रण का हर संभव प्रयास किया। यूरोप में जब चर्च के विरुद्ध कलाकारों, लेखकों एवं वैज्ञानिकों ने अपनी बौद्धिकता से संघर्ष किया था उस समय बंधुत्व, स्वतंत्रता और समानता के नए मानव मूल्य सामने आए थे। उसी तरह 19वीं सदी के राजा राममोहन राय, विद्यासागर, विवेकानंद जैसे भारतीय बुद्धिजीवी और सुधारक भी बौद्धिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे। वे सभी लोग उदारवादी थे। बौद्धिक समाज तभी से स्थापित जड़ विश्वासोेंं और रूढ़ियों का विरोध करता आ रहा है। बौद्धिक मानवाधिकार के समर्थक रहे हैं। मनुष्य की स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों को उठाकर वे लोकतांत्रिक चेतना को विकसित करने का काम करते रहे हैं। लोकतंत्र का संबंध जैसे तर्क से है, वैसे ही सदाचरण से भी है। मुझे लगता है कि इसी दौर से बड़े पैमाने पर पूरी दुनिया में एक बड़ा बौद्धिक कॉरीडोर बनाने का स्वप्न देखा जा सकता है।

भारत में हमारे भक्त कवियों ने अपनी बौद्धिक स्वतंत्रता का परिचय धर्म की जड़ता, भेदभाव और रूढ़िवाद पर प्रहार करके दिया था। हर युग में नए ढंग की चुनौतियां होती हैं। आज के युग में भी बौद्धिक स्वतंत्रता के समक्ष कई नई चुनौतियां हैं। इधर की एक नई घटना है, कृत्रिम मेधा के जरिए बौद्धिक स्वतंत्रता पर प्रहार किया जा रहा है।

इसमें संदेह नहीं कि बौद्धिक स्वतंत्रता एक तार्किक जिम्मेदारी का नाम भी है। बौद्धिक व्यक्ति  अपनी व्यक्तिगत सीमा का अतिक्रमण करके व्यापक समाज की स्वतंत्रता एवं हित के लिए काम करता है। वह एक लोकतांत्रिक धरातल पर समाज में एक चेतनापूर्ण आलोड़न तैयार करता है, जहां सामाजिक अधिकारों की तरफदारी की बातें प्रमुखता से होती हैं। इसके लिए कई बार उसे ‘सिस्टम’ से टकराना भी पड़ता है। बौद्धिक स्वतंत्रता का संबंध सहमति के विवेक और असहमति के साहस से भी है, क्योंकि एक बौद्धिक व्यक्ति का निर्माण विवेक, साहस और सहृदयता के बिना नहीं हो सकता।

एक सच यह भी है कि औपनिवेशिक शासन में भारत के एक बौद्धिक वर्ग का निर्माण अंग्रेजी शासन के हित में किया गया था। पहले की  राजतांत्रिक व्यवस्था में भी दरबार के ‘बौद्धिक’ होते थे, जिनका लक्ष्य था-सत्ता का संरक्षण करना। उसी तरह नए व्यापारिक दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फंड से संचालित बौद्धिकों और बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग पैदा हो गया है। ‘इंटेलेक्चुअल सेल’ भी बनाया गया है। आज व्यवस्था-पोषित थिंक टैंक और जन सरोकारों से जुड़े बौद्धिक लेखकों, चिंतकों एवं विद्वानों के बीच फर्क को समझना भी जरूरी है। प्रायोजित बौद्धिकों से भिन्न होते हैं स्वतःस्फूर्त बौद्धिक।

फिर भी जेनुइन बौद्धिकता की स्वीकार्यता को लेकर आम लोगों के मन में दुविधा और संदेह पैदा हो गया है। उसकी स्वीकार्यता पहले से घट गई है। इस मुद्दे पर भी गहरे विचार की आवश्यकता है।

इतिहास गवाह है कि दुनिया में सुकरात से लेकर हाल के लोगें तक बौद्धिक लोगों की हत्या का अर्थ है कि अब दुनिया में असहमति के लिए पर्याप्त स्पेस नहीं बन पाया है। जबकि सच यह है कि ये तमाम लोग जड़ व्यवस्था, धार्मिक कट्टरता, अंधविश्वास और निर्बुद्धिपरकता के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे। वे अपने बौद्धिक परिसर का विस्तार कर रहे थे, समाज के मिथ्या अवरोधों को तोड़ रहे थे, ताकि पिछड़ापन दूर हो। वे समाज में एक मानवीय परिवेश बनाना चाहते थे, जो कठिन होता जा रहा है।

बौद्धिक स्वतंत्रता का उभार आधुनिक युग की प्रमुख घटना है। उसका संबंध लोकतांत्रिक परिसर के निर्माण से है। वह आधुनिक साहित्य की रीढ़ है। हिंदी के आधुनिक रचनाकारों ने लोकतंत्र, न्याय, बंधुत्व, समानता और राष्ट्र के प्रश्नों को हमेशा विषय बनाया है। वे ‘लोभ’ और ‘भय’ से मुक्त जनमानस के निर्माण का स्वप्न देखते रहे हैं। गांधी और प्रेमचंद भी अंग्रेजों के नियंत्रण की परवाह किए बिना अपने विचार व्यक्त करते रहे हैं।

मुक्तिबोध अभिव्यक्ति को एक बड़ा मानवीय मुद्दा  मानते हुए कहते हैं- ‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे/ तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब।’ उनकी प्रतिबद्धता का संबंध जनसरोकारों से है। मुक्तिबोध और उनके जैसे तमाम लेखक-चिंतक बौद्धिक स्वतंत्रता को एक सामाजिक उत्तरदायित्व के तौर पर देखते हैं। यह निश्चित है कि बौद्धिक स्वतंत्रता का संबंध जब तक संवेदनशीलता और तार्किकता से नहीं बनेगा, तब तक मानवीय और लोकतांत्रिक समाज का निर्माण संभव नहीं है।

यह समय सूचना क्रांति का है। यही वजह है कि हर जगह ज्ञानात्मकता की जगह सूचनात्मकता की बाढ़ है। अब बौद्धिकता को विचार से ज्यादा  ‘सूचना’ में रिड्यूस किया जाना सामान्य बात हो गई है। बौद्धिक स्वतंत्रता पर उपस्थित इस संकट पर भी लेखकों का ध्यान जा रहा है। कृत्रिम मेधा के जरिए भी एक छद्म और क्षिप्र बौद्धिकता को प्लांट किया जा रहा है। तर्क की जगह उन्माद, संवाद की जगह एकालाप, वैचारिक स्वायत्तता और विविधता की जगह अंधभक्तिपूर्ण एकरूपता के जरिए बौद्धिक परिसर संकुचित होता जा रहा है। हमारी सामाजिकता, कल्पनाशीलता और संवेदनशीलता का ह्रास हो रहा है। ऐसे परिवेश में बौद्धिक स्वतंत्रता के सवालों का सामना करना साहस का काम है। इस परिचर्चा में लेखकों ने जो विचार व्यक्त किए हैं, वे सोच को एक नई दिशा दे सकते हैं।

सवाल

(1) बौद्धिक स्वतंत्रता एक दौर में आधुनिक साहित्य का मुख्य स्वर था। इसकी मुख्य चीजें क्या हैं?

(2) बौद्धिक स्वतंत्रता और सामाजिक उत्तरदायित्व के बीच क्या संबंध है?

(3) किसी कलाकार या लेखक के लिए बौद्धिक स्वतंत्रता कितनी जरूरी है? संवेदनशील मामलों में बौद्धिक स्वतंत्रता का उपयोग किस तरह किया जा सकता है?

(4) बौद्धिक स्वतंत्रता का संबंध यदि सूचना पाने और सूचना देने के अधिकार से है, तो इस संदर्भ में सतत तकनीकी क्रांति ने क्या समस्याएं पैदा की हैं?

(5) वर्तमान समय में बाजार और राजनीति बौद्धिक स्वतंत्रता को किस तरह प्रभावित कर रहे हैं?

(6) बौद्धिक स्वतंत्रता का क्या भविष्य है?

हरीश त्रिवेदी

दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में पूर्व प्रोफेसर तथा अध्यक्ष। शिकागो और लंदन विश्वविद्यालयों में अतिथि प्रोफेसर। अंग्रेजीहिंदी दोनों में लिखते हैं। प्रमुख पुस्तकें :‘द नेशन एक्रास द वर्ल्ड’, ‘पोस्टकोलोनियल ट्रांसलेशनआदि।

 

बौद्धिक स्वतंत्रता के पुराने और नए आयाम

(1)परिचर्चा का विषय देख कर यह जिज्ञासा जगी कि बौद्धिक स्वतंत्रता से क्या अभिप्राय है और यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से कैसे भिन्न है? पूछने पर उत्तर यह मिला कि सोशल मीडिया के आ जाने से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो अब लगभग सभी को निर्बाध सुलभ हो गई है, पर बौद्धिक स्वतंत्रता का विशेष महत्व इसलिए है कि बौद्धिकों पर दबाव भी अधिक है और उनकी जिम्मेदारी भी अधिक है। कुछ ऐसा लगता है कि ‘बुद्धिजीवी’ से हटकर यह शब्द ‘बौद्धिक’ कुछ उसी तरह है जैसे कि ‘इंटेलेक्चुअल’ से हटकर ‘इंटेलिजेंसिया’ है। बुद्धिजीवी एक अकेला होता है, बौद्धिकों का एक वर्ग होता है, ‘वर्ग’ मार्क्सवादी अर्थ में।

एक ज़माना था जब बौद्धिक स्वतंत्रता की बात आज की तुलना में कुछ अधिक होती थी। वह समय था 1950 और 1960 के दशकों का। इसके दो मोटे कारण समझ में आते हैं। एक तो यह कि देश तभी स्वतंत्र हुआ था और हर तरह की सद्यःप्राप्त स्वतंत्रता का हमें कुछ अधिक ही भान और अभिमान था। और दूसरे यह कि तब शीत-युद्ध अपनी चरम पर था और अमेरिका और रूस दोनों की ही तरफ़ से हम पर दबाव भी था और प्रलोभन भी थे कि हम उनसे जा मिलें। अपनी आपबीती कहूं तो बहुत ही छोटे स्तर पर (क्योंकि ‘हम कहां के दाना थे, किस हुनर में यक़ता थे’) मेरे सामने भी दोनों ही पक्षों के अवसर आए और मैं दोनों का ही (आज के मुहावरे में) अदना-सा ‘लाभार्थी’ बना। मेरे अनगिनत समवयस्कों के साथ भी संभवतः यही हुआ, क्योंकि वह ज़माना ही ऐसा था। न किसी को ऐसा लगा कि अब हम बिलकुल इस खेमे के हो गए या उस खेमे के।

अब तो शीत-युद्ध कभी का समाप्त हो गया है (यानी 1989 में)। दोनों दल अपने प्रलोभन-रूपी खिलौने अपने झोले में वापस डाल के और अपने डेरे समेट के अपने-अपने देश लौट गए हैं। पर विचारधारा की जो गहरी खाइयां तब खोदी गई थीं वे कई बौद्धिकों के दिलोदिमाग में अब भी बरक़रार हैं और उतनी ही गहरी हैं, और उनके अपने तेवर अब भी वही हैं। इतिहास बड़े धीरे-धीरे दामन छोड़ता है।

हिंदी में तब का यह विचारधारागत द्वंद्व दो विशेष व्यक्तियों को लेकर मूर्तिमान कर दिया गया है, जिनमें एक हैं अज्ञेय और दूसरे हैं मुक्तिबोध। (आपके प्रश्न में भी इसी मल्ल-युद्ध का चौखटा है, और तीतर लड़ाने की वही प्रवृत्ति झलकती है जिसका सूत्रपात नामवर जी ने ‘कविता के नए प्रतिमान’ (1968) में कर दिया था, पर यह तो दोनों लेखकों के प्रति अन्याय है।) याद करें कि ये दोनों कवि 1943 में अपनी काव्य-यात्रा पर साथ-साथ चले थे, जब अज्ञेय ने पहले तार-सप्तक में मुक्तिबोध को पहले आसन पर बैठाया था। जब करीब बीस साल बाद उस पुस्तक का दूसरा संस्करण आया तब मुक्तिबोध ने जो नया ‘वक्तव्य’ लिखा उसमें उन्होंने अपनी वैचारिक यात्रा का विस्तार से वर्णन किया है, कि वे कैसे ‘बर्गसोनीय व्यक्तिवाद’ (संदर्भ है फ्रेंच दार्शनिक बर्गसन का) के प्रभाव में बरसों रहे और फिर उससे उबर कर मार्क्सवाद तक आए, पर तब भी एक ‘गुप्त अशांति’ से घिरे रहे और यह धारणा गलत साबित करने को तत्पर रहे कि ‘युगसंधि-काल में कार्यकर्ता उत्पन्न होते हैं, कलाकार नहीं।’

(2-3)बौद्धिक स्वतंत्रता का पहला दायित्व अवश्य ही समाज के प्रति है, नहीं तो सारे विचार और विवेक का क्या लाभ? जहां तक लेखक या कलाकार का प्रश्न है, उसके लिए जितना महत्व बौद्धिक स्वतंत्रता का है उससे कुछ अधिक ही अपनी कल्पनात्मक प्रतिभा का। कलाकार अपनी स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति जितने सूक्ष्म और परोक्ष रूप से करेगा उतना ही अधिक प्रभावी होगा। बौद्धिक भले एक चोट लोहार की करे या करता ही रहे, पर कलाकार को तो हलके-हलके सौ चोटें सुनार की ही करना श्रेयस्कर है। नहीं तो वह भी कहीं बौद्धिक ही बन के न रह जाए!

हां, बौद्धिकों की स्वतंत्रता की भी सीमाएं हैं और अवश्य हैं। जिन्हें आप अपने प्रश्न में ‘संवेदनशील’ मामले कह रहे हैं वे केवल सांप्रदायिकता, जाति-गणना या भांति-भांति के घृणा के प्रचार के मामले ही नहीं हैं, बल्कि कोई भी मामला तार्किक विमर्श की परिधि से बाहर ले जाकर ‘संवेदनशील’ बनाया जा सकता है। बौद्धिक की स्वतंत्रता और संवेदनशीलता दोनों में सदैव ताल-मेल बना रहना चाहिए, सही सामंजस्य चाहिए, नहीं तो उसकी स्वतंत्रता कहीं स्वच्छंदता में परिणत होकर उल्टा ही असर न करने लगे और शोलों को हवा देने लगे।

(4)यह सूचना का युग है ऐसा कहा जाता है, पर हम यह नहीं देखते कि तात्कालिक सूचना और गहरी जानकारी में ज़मीन-आसमान का अंतर है। अभी-अभी प्राप्त सूचना को आगे फारवर्ड कर औरों को ज्ञान-लाभ करा के या कम-से-कम चौंका के वाह-वाही लूटने की होड़ मची हुई है। यह जांचने-परखने कौन रुकता है कि जो सूचना अभी कहीं किसी अज्ञात व्यक्ति के माध्यम से आई है, वह सच है कि अर्ध-सत्य है या कि अपने विशेष मतलब से गढ़ा और फैलाया गया प्रवाद मात्र है।

दूसरे, बड़े-बड़े ख्याति-लब्ध लोगों में भी यह ललक पाई गई है कि अपनी विचारधारा को समर्थित करती ‘सूचना’ का तुरत प्रसार कर दें और विरोधी ‘सूचना’ की ओर पीठ फेर लें। सुप्रीम कोर्ट तक ने ऐसे प्रचार को दंडित किया है। अगर कोई व्यक्ति बहुत घटिया शेर को भी ग़ालिब का रचा कहकर प्रसारित करता है तो कोई बड़ा नुकसान नहीं होता, क्योंकि अधिकांश जनता ने न ग़ालिब पढ़ा है (और साही साहेब की अमर उक्ति में) न वे ग़ालिब कभी पढ़ेंगे। पर यदि कोई जाना-माना व्यक्ति यह गलत खबर प्रचारित करने लगे कि किसी दंगे में कितने एक धर्म के लोग मरे और कितने दूसरे धर्म के तो शायद वह अनेक और लोगों के मरने-मारे जाने की भूमिका तैयार कर रहा है। सूचना को प्रमाणित जानकारी हो जाने तक रुक सकने का सब्र शायद सूचना के नए माध्यमों ने गंवा दिया है, उनके यहां यह प्रक्रिया ही नहीं है।

(5-6)मेरी समझ में बौद्धिक स्वतंत्रता के सामने तीन तरह के खतरे प्रमुख हैं। पहला, सत्ता से खतरा। दूसरा, सत्ता में शामिल होने और उसका समर्थन करने लगने का खतरा। और तीसरा, खुद अपने से और साथी बौद्धिकों से खतरा कि सब लोग अपनी बुद्धि को विराम देकर भेड़-चाल तो नहीं चलने लगे हैं।

इतिहास साक्षी है कि जब-जब सत्ता सर्व-शक्तिमान (टोटलिटेरियन) हो जाती है, तब-तब बौद्धिकों को खतरा सबसे अधिक हो जाता है। वैसे भी सत्ता और बौद्धिकों/कलाकारों के बीच द्वंद्व हमेशा से रहा है और शायद हमेशा रहेगा भी। जैसा कि मेरे प्रिय कवि रहीम ने अकबर और जहांगीर के शासन-काल में कहा था, ‘भूप गिनत लघु गुनिन को, गुनी गिनत लघु भूप’। (रहीम स्वयं एक पांव लेकर भूप के साथ खड़े थे और दूसरे पांव गुनी-जन के साथ।) तब के शहंशाह सर्व-शक्तिमान थे ही, तो आज रहीम की पदवी खाने-खाना की थी और कल वे बागी करार दे दिए गए और कारागार में डाल दिए गए, और फिर एक दिन ऐसा आया कि दुबारा खाने-खाना बना दिए गए।

कुछ ऐसा ही तानाशाही हाल पिछली शताब्दी में फासीवादी, नात्जीवादी और सोवियत संघ और उसके क्षत्रप देशों का भी था, कि ज़रा सी भी विचारधारा में गफलत हुई और महा-बौद्धिक जी को सीधे साइबीरिया पहुंचा दिया गया। आज का बौद्धिक-वर्ग अनेक देशों को सहज ही ‘फासीवादी’ घोषित कर देता है, पर यह कहना शायद अतिरंजित व्यंजना मात्र है, अभिधा नहीं। जिस देश में हर चार या पांच साल में नियमित चुनाव होते हों, जहां बस एक ही पार्टी का एक ही उम्मीदवार न खड़ा होता हो, जिसे 95% या अधिक वोट मिलें, पर जहां मत-गणना शुरू हो जाने तक संशय बना रहे कि कौन जीतेगा, उसे सच ही जनतांत्रिक मानना चाहिए।

अंत में एक बात और। बौद्धिकों को आजीवन एक ही लकीर के फकीर नहीं बने रहना चाहिए नहीं तो वे जल्दी ही दकियानूसी कहलाएंगे, और उनके पैरों के नीचे की ज़मीन खिसकती नज़र आएगी। ज़माना तो बदलेगा ही बदलेगा तो अपनी विचारधारा में भी उसी के उपयुक्त बदलाव लाने की लोच भी होनी चाहिए। यही तो सच्ची (प्र) गतिशीलता है।

मुक्तिबोध के क्रमशः विकास का उल्लेख ऊपर हो चुका है। अज्ञेय शुरू में जान पर खेल कर अंगरेज शासन के विरुद्ध सशस्त्र क्रांतिकारी रहे, कई वर्ष जेल में रहे, और सभी साथी ‘षड्यंत्रकारियों’ के खिलाफ जब मुक़दमा बर्खास्त हुआ तब छूटे और तब भी नज़रबंद रहे। उनको बस कलावादी कहकर चल देना इस पूरे संदर्भ की अवहेलना है। यह भी याद रखना चाहिए कि जब द्वितीय महायुद्ध शुरू हुआ तो अंग्रेजों का विरोध छोड़कर वे खुद अंगरेज़ सेना में भरती हो गए और आसाम के मोर्चे पर भेजे गए। उनके लिए उस वक्त नात्ज़ीवाद और फासीवाद को हराने का ध्येय सर्वोपरि था। ठीक इन्हीं विचारधारात्मक कारणों से उन वर्षों में फैज़ अहमद फैज़ भी अंगरेज़ सेना में भरती हुए।

और तो और, प्रेमचंद खुद पहले आर्यसमाजी थे और उस संस्था का सालाना चंदा भरते रहे। फिर गोरखपुर में गांधी जी का भाषण सुन कर उन्होंने सरकारी नौकरी से इस्तीफा दिया और जीवन भर आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की लौ जगाते रहे, और अंत में यदि मार्क्सवादी हुए तो वह भी उस एक भाषण में अधिक और उपन्यास-कहानी में कम। जिस बौद्धिक के पैर एक ही जगह जम गए वह दुनिया से कट गया। वैसे भी बौद्धिक की हैसियत कलाकार से तो कम ही है, भले ही हिंदी के अनेक बौद्धिकों को यह गुमान हो कि वे कोई जलती मशाल लेकर आगे चल रहे हैं और समाज को ही नहीं, लेखकों तक को रास्ता दिखा रहे हैं। स्वयं बौद्धिक ही यह नहीं मानेंगे तो फिर और कौन मानेगा?

बौद्धिक स्वतंत्रता का भविष्य सबसे अधिक जिस कारण पर निर्भर है वह है कृत्रिम (या नकली) बुद्धि (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) का बेतहाशा विकास। हमें शायद पता भी नहीं चलेगा कि किस दिन हमारी अपनी बुद्धि ने उस मायावी बुद्धि के सामने हथियार डाल दिए। उस भीषण भविष्य (डिस्टोपिया) के अंग्रेजी और अन्य पश्चिमी भाषाओँ के साहित्य में अनेक पूर्वाभास सौ वर्षों से अधिक पहले से छपते रहे हैं। इनमें से कुछ के हिंदी अनुवाद भी शायद आ चुके हैं, जैसे कि करेल चापेक का नाटक ‘आर. यू. आर.’ (1920)। इसमें ‘रोबोट’ नामक यंत्र का उन्होंने आविष्कार किया और फिर उन यंत्रों की फ़ौज को पूरी मानवता को नष्ट करते दिखाया। इस युग-दृष्टा नाटक का हिंदी में अनुवाद निर्मल वर्मा ने 1972 में प्रकाशित किया था।

तो अब सौ साल बाद सर्वथा संभव है कि एक दिन जल्दी ही हम सोकर उठेंगे और पाएंगे कि हमारी बौद्धिकता, हमारी संवेदना, और हमारी चेतना-अवचेतना सभी किसी और ही परोक्ष शक्ति से संचालित हो रही है। या शायद हमें यह भी पता न चले कि कब और कैसे यह हो गया, क्योंकि यह Aएआई के हित में होगा कि हमें यह भ्रम तो पाले रहने दे कि हम अभी भी अपनी असली या मानवी बुद्धि से मंडित एवं प्रेरित हो रहे हैं :

ज्यों नाचत कठपूतरी, करम (या AI?) नचावत गात।
आपुन हाथ रहीम है, नहीं आपने हाथ।

 

डी – 203, विदिशा अपार्टमेंट्स, 79, इंद्रप्रस्थ एक्स्टेंशन, दिल्ली-110092 मो.9818355433

शरणकुमार लिंबाले

मराठी के सुप्रसिद्ध दलित साहित्यकार। सरस्वती सम्मान से सम्मानित। यशवंतराव चव्हाण, महाराष्ट्र मुक्त विद्यापीठ, नासिक के प्रकाशन विभाग में सहायक संपादक के पद पर कार्य करते हुए इसी विश्वविद्यालय से प्रोफेसर एवं निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए। प्रमुख कृतियों मेंअक्करमाशी’ (आत्मकथा), ‘दलित ब्राह्मण’ (कहानी संग्रह), ‘झुंड’ (उपन्यास), ‘यल्गार’ (कविता संग्रह), ‘सनातन’ (उपन्यास) आदि।

 

व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और जनतंत्र को जीवित रखने वाली प्रेरणा बौद्धिक स्वतंत्रता है

(1)बौद्धिक स्वतंत्रता जनतंत्र में महत्वपूर्ण होती है। यह एक आधुनिक सोच है। आजादी के बाद इस विषय पर गंभीरता से मत प्रकट हुए हैं। बुद्धिजीवी वह होता है जो स्वतंत्र सोचता है। बुद्धिजीवी समाज का ब्रेन होता है। ओपिनियन मेकर होता है। वह नए विचारों का नेतृत्व करता है और संकीर्णता का पुख्ता विरोध करता है। बौद्धिक स्वतंत्रता का अर्थ है गुलाम मानसिकता और विचारों का विरोध करना। बौद्धिक स्वतंत्रता का अर्थ है जनतंत्र का समर्थन करना और आम इंसान के हित में बोलना। सत्ता, संस्कृति और परंपराओं के खिलाफ भी बोलना पड़ता है। बौद्धिक स्वतंत्रता वह है जो हमेशा निर्भय होकर सत्य का पक्ष लेती है।

जनतंत्र की पहली शर्त निर्भय होना है। जो निर्भय बन नहीं सकता, वह सत्य का पक्ष नहीं ले सकता, जो अपनी भूमिका के लिए परिणाम भुगतने से डरता है, वह पतित होता है। उसे बुद्धिजीवी नहीं कह सकते। बुद्धिजीवी हमेशा प्रतिबद्ध होता है। रवींद्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद, महाश्वेता देवी, गिरीश कर्नाड, मुक्तिबोध, दुर्गा भागवत, विजय तेंदुलकर जैसे लेखकों के लेखन और जीवन में यह भूमिका दिखाई देती है। यह जीवन मूल्यों की रक्षा करने का व्रत है। बौद्धिक स्वतंत्रता व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की स्वतंत्रता की गरिमा और सौंदर्य बढ़ाती है। बुद्धिजीवी का अलर्ट होना और व्यक्त होना मुझे महत्वपूर्ण लगता है।

बौद्धिक स्वतंत्रता किसी की निजी बात नहीं है। यह सामाजिक संपत्ति है। बौद्धिक स्वतंत्रता प्रखर होती है। वह सोचने के लिए मजबूर करती है। लोगों की मानसिकता पर उसका असर होता है। इसलिए सत्ता भी बौद्धिक स्वतंत्रता से डरती है। बौद्धिक स्वतंत्रता कोई लिखने की चीज नहीं है। यह बुद्धिजीवी को अपनी भूमिका निभाने की प्रेरणा है।

चित्रकार का चित्र बनाना, गीतकार का गीत लिखना, नृत्यांगना का नृत्य करना, गायक का गाना, कवि का कविता लिखना, लेखक का साहित्य लिखना यह उच्च कोटि का सृजन-उत्सव है। कलावंत जब भी सृजन करता है तब वह अपनी आजादी का जश्न मनाता है। मेरा लिखना  केवल लिखना नहीं, बल्कि आजादी का उत्सव है, यानी मैं लिख रहा हूँ। हर कलावंत की कला उसकी स्वतंत्रता का सृजन होती है। कला की जन्मभूमि स्वतंत्रता है। कला और कलावंत कभी भी मानसिक गुलाम नहीं होते। उनका मन आजाद होता है। कलावंत अपनी कला के प्रति जितना ईमानदार है, उतना ही जीवन के प्रति ईमानदार होता है। मैं अपनी कला के प्रति ईमानदार हूँ और जीवन से मेरा कोई लेना-देना नहीं, यह बेईमानी है। कलाकार समाज का हिस्सा होता है। उसकी कला समाज के लिए होती है। वह एक इंसान भी है। कलावंत का इंसान होना मुझे महत्वपूर्ण लगता है। बौद्धिक स्वतंत्रता और कुछ नहीं। यह तो इंसानियत की बात है। नाइंसाफी के लिखाफ बोलने की हिम्मत दिखाना बौद्धिक स्वतंत्रता का पुरस्कार करना है।

(2)बौद्धिक स्वतंत्रता और सामाजिक उत्तरदायित्व एक-दूसरे के अभिन्न अंग हैं। सामाजिक उत्तरदायित्व माने सामाजिक कार्य नहीं। सामाजिक उत्तरदायित्व हमेशा वंचित, पीड़ित, शोषित के पक्ष में होता है। अमीरों के पक्ष में नहीं होता। जो पीड़ित है उसके प्रति हमारा जो दायित्व है उसे मैं सामाजिक उत्तरदायित्व कहता हूं। व्यक्ति हो, समाज हो या वर्ग हो उनपर होने वाले अन्याय के खिलाफ काम करना, बोलना, लिखना बुद्धिजीवी का दायित्व है। हम जब भी पीड़ित का पक्ष लेते हैं तब पीड़ित के लिए काम नहीं करते, हम स्वतंत्रता के पक्ष में काम करते हैं। समाज में जो गुलामी है उसके खिलाफ बोलना यह बुद्धिजीवी का दायित्व है। सारा देश आजादी का पचहत्तरवां अमृत महोत्सव मना रहा था। उसी वक्त राजस्थान में एक उच्च जाति के शिक्षक ने अपने पानी पीने के घड़े से पानी पीने के कारण अछूत विद्यार्थी का खून किया। सारा देश चंद्रयान-3 की सफलता का जश्न मना रहा है और उत्तर प्रदेश में एक शिक्षिका क्लास में सारे बच्चों को एक मुस्लिम विद्यार्थी को पीटने को कहती है। हम चांद पर गए, यह गौरव की बात है। मगर आज भी अछूत गांव के मंदिर में नहीं जा सकता। ऐसे समाज में बुद्धिजीवी का उत्तरदायित्व महत्वपूर्ण हो जाता है।

बौद्धिक स्वतंत्रता बुद्धिजीवियों द्वारा समाज के प्रति उत्तरदायित्व निभाने के लिए जरूरी है।  हम जिस समाज के अंग हैं उस समाज के प्रति हम अपना दायित्व नहीं निभाएंगे तो यह अपराध है। स्वतंत्रता की जड़ समाज है। स्वतंत्रता की जड़ मनुष्य है। स्वतंत्रता की जड़ गणतंत्र है। स्वतंत्रता की जड़ राष्ट्र है। स्वतंत्रता जीवन मूल्य है। स्वतंत्रता सामाजिक मूल्य है, केवल राजकीय मूल्य नहीं। स्वतंत्रता व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और जनतंत्र को जीवित रखने वाली प्रेरणा है। जनतंत्र इससे प्रेरित होकर कार्य करता है। बुद्धिजीवी जब अपनी बौद्धिक स्वतंत्रता सामाजिक उत्तरदायित्व के पक्ष में व्यक्त करेगा, तभी उसकी बौद्धिक स्वतंत्रता का मूल्य है। बौद्धिक स्वतंत्रता और सामाजिक उत्तरदायित्व एक-दूसरे से प्रेरित होते हैं। बुद्धिजीवी का समाज के प्रति जवाबदेह होना आवश्यक है।

केवल बुद्धिजीवी ही सामाजिक उत्तरदायित्व को निभाता है, यह सही नहीं है। सामाजिक कार्यकर्ता भी समाज के प्रति प्रतिबद्ध होता है। अनपढ़ इंसान भी सामाजिक उत्तरदायित्वों को निभा सकता है। अनेक मजदूर, किसान, आदिवासी आंदोलन में सक्रिय होते हैं। सामाजिक उत्तरदायित्व मनुष्य का मनुष्य होने का लक्षण है। बौद्धिक स्वतंत्रता इस सामाजिक उत्तरदायित्व का समर्थन करती है।

(3)कलाकार या लेखक कलावादी है या जीवनवादी है, इसपर उसका विचार निर्भर करता है। कलावादी लेखक और कलाकार कला को महत्व देते हैं। वे कला की स्वतंत्रता को महत्व देते हैं। कला जीवन से अलग और हटकर होती है। वह स्वायत्त होती है। ऐसा कलावादी मानते हैं। उन्हें कला का मूल्य श्रेष्ठ लगता है। वे जीवन मूल्यों को नहीं मानते। कला मूल्यों का महत्व नकारा नहीं जा सकता। पर कला में जीवन मूल्य होते हैं तो कला अमर होती है, वह जीवन को प्रभावित करती है। जीवनवादी लेखक और कलाकार कला को माध्यम मानते हैं। कला जीवन बदलने के लिए होती है। कला जीवन को सुंदर और समृद्ध करने के लिए होती है। कला लोगों के लिए होती है। कलाकार और लेखक को अपने सृजन के प्रति ईमानदार होना महत्वपूर्ण होता है। उनका मनुष्य होना भी महत्वपूर्ण है। समाज में जब आक्रोश पैदा होता है तब कलाकार और लेखक को अपनी भूमिका निभानी पड़ती है। जब संपन्न रोम जल रहा था, तब नीरो फिडेल बजा रहा था। ऐसी भूमिका अलिप्त होती है। मुझे लोगों से क्या लेना-देना, यह भूमिका आत्मघाती होती है। हम जहाज में बैठे हैं। जहाज चल रहा है और जहाज में छेद हो जाए तो उसे अनदेखा नहीं कर सकते। यदि अनदेखा करेंगे तो सबके साथ आप भी डूब जाएंगे।

लेखक या कलाकार अपनी कला के प्रति जितना ईमानदार होगा, उतना ही बौद्धिक स्वतंत्रता के प्रति भी ईमानदार होगा। लेखक और कलाकार बौद्धिक स्वतंत्रता के प्रति जागृत नहीं होंगे तो उनकी कला का और उनका कोई सामाजिक अस्तित्व नहीं होगा। ऐसे लेखक या कलाकार केवल ‘टाइम पास’ होते हैं। वे ‘एंटरटेनर’ होते हैं। बौद्धिक स्वतंत्रता एंटरटेन नहीं करती।

लेखक और कलाकार को अपनी बौद्धिक स्वतंत्रता किसी के पास गिरवी नहीं रखनी चाहिए। बौद्धिक स्वतंत्रता से लेखक और कलाकार की भूमिका की पहचान होती है। ऐसे लेखक आम लोगों के लेखक होते हैं। उनका साहित्य सामाजिक परिवर्तन लाता है।

लेखक और कलाकार को हमेशा सत्य का पक्ष लेना होता है, समता की बात करनी होती है। कभी-कभी ये बातें समाज के एक बड़े हिस्से के विरोध में जा सकती हैं। तब समाज में बवाल मचता है। लेखक को कभी स्टंटबाजी नहीं करनी चाहिए। उसका प्रयोजन समाज को बदलना है। अति संवेदनशील मामलों में लेखक को जिम्मेदारी से काम लेना पड़ेगा। बौद्धिक स्वतंत्रता से ही सामाजिक भाईचारा को महत्व देना संभव है, राष्ट्रहित संभव है। अणुबम से युद्ध जीते जा सकते हैं, किंतु संस्कृति का निर्माण नहीं हो सकता। संस्कृति का निर्माण तो महाकाव्यों की रचना से होता है।

बौद्धिक स्वतंत्रता बहुत ही गंभीरता और जिम्मेदारी से निभानी पड़ती है। लेखक और कलाकार केवल व्यक्ति नहीं होते। उनकी भूमिका, उनके विचारों और उनकी स्वतंत्रता का समाज पर असर पड़ता है। स्वायत्तता सर्वोपरि नहीं हो सकती, मनुष्यता सर्वोपरि है। बौद्धिक स्वतंत्रता को मनुष्यता के लिए खतरा नहीं बनना चाहिए, ऐसा मैं मानता हूँ। मैं केवल लेखक नहीं हूँ। मैं एक कार्यकर्ता लेखक हूँ। समाज में परिवर्तन लाने के लिए मैं लिखता हूँ। मेरे लेखन से सवर्ण समाज में भी परिवर्तन होना चाहिए, ऐसा मैं सोचता हूँ। सवर्ण समाज मेरा शत्रु नहीं है। मैं उनकी जातिवादी मानसिकता का विरोध करता हूँ।

(4)सूचना क्रांति से हमें लाभ हुआ है। विश्व एक ग्लोबल विलेज में तब्दील हुआ है। इतना ही नहीं, तकनीकी क्रांति के कारण हम चंद्रयान-3 की चांद पर लैंडिंग लाइव देख सके हैं। सूचना सत्य हो, सही हो तो लोगों तक पहुंचाने में तकनीकी क्रांति के कारण आसान हुआ है। तकनीकी क्रांति के कारण बौद्धिक स्वातंत्र्यता की बात लोगों तक पहुंचाना आसान हो गया है। सोशल मीडिया पर वायरल हुआ वीडिओ और पोस्टर कई बार बवाल के कारण बने हैं। सूचना सही है या गलत, यह देखना जरूरी है। सूचना गलत है तो उसका परिणाम गलत ही होगा। उसका दोष हम तकनीकी क्रांति को नहीं दे सकते।

तकनीकी क्रांति के कारण बौद्धिक स्वातंत्र्य को बल मिला है ऐसा मैं मानता हूँ। यदि हमारी सोच और हमारा पक्ष सही है तो हमें फालोवर्स मिलेंगे। सोशल मीडिया के कारण कविता हो, कहानी हो या कोई किताब हो, यदि जन भावना के खिलाफ है तो आक्रोश पैदा होता है। उसपर पाबंदी की बात शुरू होती है। जब तकनीकी क्रांति नहीं थी, तब लेखक या कलाकार एक भाषा या एक प्रदेश में सीमित रहता था। लेखक या कलाकार के चाहने वाले दुनिया भर में फैले हों तो तकनीकी क्रांति के कारण एक ही पल में लेखक या कलाकार दुनिया के किसी भी कोने तक पहुंचता है। मेरा मानना यह है कि इस प्रकार लेखक अपना पक्ष रख सकता है। उसे अपना पक्ष रखने की आजादी है। मगर उसकी भूमिका आमलोगों के लिए और आम लोगों के पक्ष में होनी जरूरी है। वह अपनी बात को अपनी जिम्मेदारी से कह रहा है तो वह मन की बात होगी। मन की बात बोलनेवाला और सुननेवाला स्वयं हो तो कोई बात नहीं। मन की बात जब जन की बात बनती है, तो जन की बात को बौद्धिक स्वातंत्र्य से ही परखा जा सकता है।

हमें फासीवाद, जातिवाद, धर्म का उन्माद, भ्रष्टाचार और बलात्कार के खिलाफ एक भूमिका निभानी होगी। इसको मैं बौद्धिक स्वातंत्र्य मानता हूँ। स्वातंत्र्य कभी एक व्यक्ति का नहीं होता। स्वातंत्र्य आकाश से पैदा नहीं होता। स्वातंत्र्य लोगों के हक-अधिकारों से जन्म लेता है। लेखक का बौद्धिक स्वातंत्र्य लोगों के हक और अधिकारों से जुड़ा हुआ है।

लेखक जब एक भाषा में लिखता है तब उस भाषा का जो सोशल कल्चर है, उसको वह प्रजेंट करता है। भारतीय लेखक कास्ट कल्चर के हैं। लेखक अपने काल और परिस्थिति की देन है। एक भाषा का लेखक जब अन्य भाषाओं के प्रदेश में जाता है तब कई मुश्किलें पैदा होती हैं। क्षेत्रीय लेखक क्षेत्रीय भाषा में लिखते हैं। पाठक को ज्यादातर क्षेत्रीय साहित्य पर ही निर्भर रहना पड़ता है। अनुवाद के कारण और तकनीक के कारण लेखक का लेखन क्षेत्रीयता को पार करता है। दूसरे प्रदेश की भाषा और कल्चर अलग है। हिंदुस्तान में बहुत-सी भाषाएं और संस्कृतियां हैं। ऐसे माहौल में लेखक की जिम्मेदारी बढ़ती है।

मैं जाति व्यवस्था के खिलाफ बगावत करता रहता हूँ। मैंने हमेशा मालिक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह किया है। मेरा विद्रोह मेरे हित में होता है। मगर मेरा गुलामी के खिलाफ बोलना मालिक व्यवस्था को नुकसान पहुंचाता है। मैं मराठी में बहुत ही आसानी से और सहजता से ‘हराम परंपरा’ ऐसा लिखता हूँ, बोलता हूँ, क्योंकि इस परंपरा ने हमें अछूत ठहराया है। जब मैं हिंदी बेल्ट में आया था और अपनी सहजता से ‘हरामी परंपरा’ कह गया तो कई बुद्धिजीवी मुझे कोसने लगे। यह हमारी ‘परंपरा’ को ‘हरामी’ कहता है। वह मुझे टालने लगे। यह पुरानी बात है।

अनुवाद, सोशल मीडिया, ट्रांसपोर्ट और ऑन लाइन प्लेटफार्म के कारण हमें लोगों तक पहुंचने में बड़ी आसानी हुई है। जो उपद्रवी होते हैं वे इस तकनीकी का गलत इस्तेमाल करते हैं। बुद्धिजीवी कभी भी उपद्रवी नहीं होते। हाँ, उनके विचार उपद्रवी हो सकते हैं। मुझे लगता है, इसका दोष तकनीक क्रांति को नहीं देना चाहिए। लोगों को बौद्धिक स्वातंत्र्य की आदत नहीं है। लोगों को संवदेनशील होना चाहिए। एक-दूसरे के मतों का आदर करना चाहिए। लोगों की संकीर्ण मानसिकता का खतरा हमेशा डरावना होता है। बुद्धिजीवी को यह खतरा उठाना होगा।

(5)बाजार से राजनीति प्रभावित होती है। राजनीति बाजार की प्रोडक्ट बनती जा रही है। राजनीति से बाजार प्रभावित है। ये दोनों आज के हथियार हैं। मैं कमिटेड लेखक हूँ। मैं लिखता हूँ, मैं राजनीति करता हूँ। राजनीति और बाजार ने इंसान के जीने के हक-अधिकार को अपने काबू में रखा है। इस विवशता से लेखक अलग कैसे हो सकता है।

हम जनतंत्र में रहते हैं। लोगों ने अपना सरकार चुनकर दिया होता है। लोगों की सरकार होती है। सरकार में आने के लिए लोककल्याण की बात करना जरूरी होता है। सत्ता मुंह से लोककल्याण की बात करती है और पैरों तले लोगों को रौंदती है। सत्ता में और भीड़ में कोई फर्क नहीं होता। सत्ता जब क्रूर होती है, तब बुद्धिजीवी को लोगों की आवाज बनना पड़ता है। सत्ता का डरावना चेहरा देखकर बुद्धिजीवी मौन रहना पसंद करता है। बुद्धिजीवी का मौन वस्तुतः सत्ता को निरंकुश करता है। इस तरह बौद्धिक स्वातंत्र्य एक ‘पोलिटिकल स्टैंड’ है। बुद्धिजीवी की बौद्धिक स्वतंत्रता सत्ता और लोगों के बीच जन्म लेती है। राजनीति जितनी खूंखार बनेगी, बौद्धिक स्वतंत्रता उतनी प्रखर बनेगी, ऐसा मेरा मानना है। हम राजनीति को टाल नहीं सकते। हाँ, यह बात सच है कि नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, गौरी लंकेश और एम.एम.कुलबर्गी को अपने विचारों के लिए जान की कीमत चुकानी पड़ी है। इस कारण समाज में भय का माहौल बना है। यह भय हिंसा का रौद्र रूप है। यह भय और कुछ नहीं, बुद्धिजीवियों का मौन है।

बाजार के साहित्य का स्वतंत्रता पर असर दिखाई देता है। बेस्ट सेलर किताबों की मार्केटिंग होती है। कई संस्थाएं बेस्ट लेखकों की सूची बना रही हैं। टॉप टेन कौन लेखक हैं इसपर बहस होती है। मल्टीनेशनल पब्लिशिंग हाउस के कारण लेखक को अच्छे प्रकाशक मिल रहे हैं। अच्छी किताबों का अनुवाद हो रहा है। लेखक की किताब बेचने की चीज है। कला बेची जा रही है। फेस्टिवल और मेले हो रहे हैं। अपनी किताब बेस्ट सेलर हो, मल्टीनेशनल पब्लिशर्स द्वारा प्रकाशित हो, किताब को अवार्ड मिले, किताब का ट्रांसलेशन हो, यह बाजारवाद की एक कड़ी है। कुछ लेखक इसके पीछे पड़ते हैं। लेखक कौन-से बड़े शहर में रह रहा है और उसका लेखन कौन बड़ा प्रकाशक छाप रहा है, यह महत्व का मामला नहीं है। अब हर किताब ऑनलाइन मिल रही है। वस्तुतः लेखकों को मॉडर्न होना जरूरी है।

राजनीति और बाजारवाद का लेखन पर असर होता है और होना भी चाहिए, क्योंकि साहित्य समय का आईना होता है। लेखक की किताब बाजार में बेची जाती है, उसका ईमान नहीं बिकता। यह हमें ध्यान में रखना चाहिए।

(6)बौद्धिक स्वतंत्रता का भविष्य क्या है? यह एक बहुत अच्छा सवाल है। मनुष्य, समाज और विश्व में बड़ी रफ्तार से बदलाव हो रहे हैं। समाज लिबरल बन रहा है। कानून, विज्ञान, जनतंत्र, एजुकेशन और आंदोलनों के कारण समाज में परिवर्तन हो रहा है। समाज बदला है। देश बदल रहा है। विश्व बदल रहा है। नई पीढ़ी नए ज्ञान-विज्ञान से आगे आ रही है। नई पीढ़ी पर ‘इसरो’ का ही प्रभाव पड़ेगा, धार्मिक नारों का नहीं। नए समाज और नई पीढ़ियों के दौर में बौद्धिक स्वतंत्रता का महत्व और बढ़ेगा। लोग जितने शिक्षित होंगे, उतने ही बौद्धिक स्वतंत्रता का आदर करेंगे। समाज में सकारात्मक बदलाव हो रहा है। ये बदलाव बौद्धिक स्वतंत्रता के बीज हैं।

बुद्धिजीवी केवल मध्यवर्ग में होते थे। ये व्हाइट कॉलर की मानसिकता लेकर चलते हैं। बुद्धिजीवी का दायरा अब बढ़ रहा है। विभिन्न सामाजिक स्तरों पर बुद्धिजीवियों का निर्माण हो रहा है। नए लेखक और चिंतकों का निर्माण हो रहा है। नए विमर्शकार मिसाल के तौर पर ले सकते हैं। बुद्धिजीवियों की संख्या और वर्ग बढ़ने लगे हैं। आगे का काल मल्टीनेशनल, मल्टीकल्चरल और मल्टीलिंगुएल होगा। तरह-तरह के फैशन और फूड हमारी आदत के अंग बन गए हैं। आगे जाकर मल्टीरिलीजन के दर्शन का जरूर निर्माण होगा। हम इसे रोक नहीं पाएंगे। आज हर धर्म आक्रामक और हिंसक हुआ है। धर्म के नाम पर हिंसा हो रही है। धर्म का भय सताता है। अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। आगे की पीढ़ियां मल्टीकल्चरल होंगी।

 

सुयोग कुंज, सर्वे नं. 72/1, धनश्री हॉस्पिटल के निकट, नवी सांगवी, पुणे411061

अरुण कमल

प्रसिद्ध हिंदी कवि। प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित।अद्यतन कविता संग्रहयोगफल

 

बौद्धिक स्वतंत्रता का भविष्य मनुष्यता के भविष्य से जुड़ा है

(1)मेरी समझ से बौद्धिक स्वतंत्रता का मतलब है बुद्धि की स्वतंत्रता। सोचने, विचारने, प्रश्न करने और तथ्यों के आधार पर तर्क करने की स्वतंत्रता। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यह प्रचार तेज हुआ कि जो लोग समाजवाद, मार्क्सवाद या सोवियत को सही मानते हैं वे बौद्धिक तौर पर स्वतंत्र नहीं हैं। जो विरोध में हैं वे शुद्ध-बुद्ध आत्मा हैं, स्वतंत्र बौद्धिक हैं। यह बात अलग है कि ‘एनकाउंटर’, ‘कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ समेत अनेक संगठनों और व्यक्तियों पर सीआईए से संबंध के आरोप लगे थे। आज भी यह विभाजन बदले रूप में जारी है। जो बुद्धि पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के पक्ष में हो वह स्वतंत्र है और जो गरीबों और शोषितों का साथ दे वह परतंत्र। आज भी सबसे मुश्किल है आर्थिक सवालों पर बातचीत। जर्मन कवि एन्तेन्सबर्गर ने ‘मार्क्स के प्रति’ नामक कविता में कहा है-

तुम्हारे दोस्त भले बदल गए, लेकिन दुश्मन कभी नहीं बदले।

(2)बौद्धिक स्वतंत्रता ही आपको जीवन और समाज का विश्लेषण करने और एक निष्कर्ष पर पहुंच कर अपना पक्ष तय करने का अवसर देती है। भगत सिंह ने अपना पक्ष चुना और उसके मुताबिक जीवन जिया। सिर्फ सोचना काफी नहीं है, हालांकि शुरुआत वहीं से होती है। हमें सोचने से कोई रोक नहीं सकता। लेकिन बोलने से रोक सकता है। कर्म से रोक सकता है। हम आजादी से सोच सकें और बोल सकें इसके लिए भी जरूरी है कि हम इस आजादी की रक्षा करें।

(3) लिखने का मतलब ही है बौद्धिक स्वतंत्रता। जब दासों का विद्रोह थोड़े समय के लिए सफल हुआ तब उन्होंने एक मूरत बनाना शुरू किया। बिना स्वाधीनता के सृजन संभव नहीं। इसीलिए अक्सर लेखक-कवि कोई आश्रय, राजसम्मान या धन स्वीकार नहीं करते। जब भी ऐसा लगे कि इस बात से हमारी स्वतंत्रता को नुकसान होगा तो उसे छोड़ देना चाहिए। बौद्धिक स्वतंत्रता का अर्थ सत्ता, समाज और गलत मूल्यों की आलोचना भी है।

धन और सत्ता के प्रति हिकारत की भावना के बिना कविता संभव नहीं।

जो आजादी के साथ सोचते हैं उनके लिए कोई मामला संवेदनशील नहीं। जैसे आज धर्म, जाति, भाषा, अस्मिता जैसे मामलों पर बोलना खतरनाक है। आज हमारे समाज की चमड़ी इतनी दग्ध है कि हवा चलने भर से वह व्याकुल हो उठती है। ऐसे में सोचना, तर्क करना, बोलना ख़तरनाक है। लेकिन जो सचमुच आजाद है वह जानता है कि लिहाज केवल सत्य का होगा, और किसी बात का नहीं, संख्या-बल का तो हरगिज़ नहीं- इब्सन का ‘एनेमी अ‍ॅव द पिपुल’ एक उदाहरण है।

(4)बौद्धिक स्वतंत्रता का सीमित सरोकार सूचना पाने से है। चुनावी बांड मामले में सरकार ने अभी अभी कहा है कि सब को सब कुछ को जानने का अधिकार नहीं है। ठीक है, लेकिन हमें बताया गया है कि देश के एक प्रतिशत के हाथ में सत्तर प्रतिशत संपत्ति है। लेकिन क्या यह जानकर भी देश की राजनीति में यह कोई मुद्दा है? आज पूंजीवाद की सारी कोशिश यह साबित करने की है कि आर्थिक आधार पर शोषण होता ही नहीं है। जबकि हमारी कोशिश है कि हर सवाल को ‘प्रोपर्टी क्वेश्चन’ से जोड़ा जाए।

(5)बाज़ार की जगह पूंजीवाद कहूंगा। मार्क्सवाद के अनुसार राजनीति का अर्थ है सत्ता के लिए वर्गों का संघर्ष। इकॉनॉमिक क्लासेज। पूंजीवाद आपको आजादी से सोचने नहीं देगा। अनेक लोभ होंगे। सबसे ख़तरनाक है ग्लैमर का महिमामंडन। पूंजीवाद समर्थक राजनीति आपको मिलाने की कोशिश करेगी। आप गरीबों के बारे में नहीं लिखेंगे, आप युद्ध का विरोध नहीं करेंगे,  आप दमन पर चुप रहेंगे-और यह सब चुपचाप होता जाएगा, ‘आंतरिक सेंसर्स’ काम करेंगे। आप सत्ता के लेखक बन जाएंगे। पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा हत्या स्वतंत्र रूप से सोचने वाले पत्रकारों की हुई है। असान्जे, स्नोडेन को सब जानते हैं। बौद्धिक स्वतंत्रता तभी तक है जब तक आप पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का पक्ष लेते हैं।

(6)बौद्धिक स्वतंत्रता का भविष्य मनुष्यता के भविष्य से जुड़ा हुआ है। आगे भी महान विचारक, कवि, लेखक होंगे। आज भी हैं। सत्य को कांख के नीचे दबाए। अगर हुक्मरानों की मर्जी से ही सब होता तो आज भी दुर्योधन और हिटलर का हुकुम चलता। दिक्कत यह है कि आदमी के पास बुद्धि है और सोचने की आजादी है, और वह सोचता है। जब तक बीज मिट्टी फोड़कर अंकुरित हो रहा है तब तक बौद्धिक स्वतंत्रता भी है।

 

7 मैत्री शांति भवन, बी एम दास रोड, पटना800004 मो.9931443866

सुधीश पचौरी

मीडिया विश्लेषक। विख्यात स्तंभकार। अद्यतन उपन्यास मिस काउ : ए लव स्टोरी

 

बौद्धिक स्वतंत्रता का एक अर्थ हमारे मन की स्वतंत्रता है

साहित्य का मतलब ही ‘स्वातंत्र्य’ है। अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में एक स्वायत्त और स्वतंत्र क्रिया है। साहित्य मकसद ही है अपने आपको अपने से बाहर निकालना। वह अपने आपसे मुक्ति भी है। स्वातंत्र्य का यही भाव साहित्य का प्राण है। इसमें ‘भावनात्मक स्वातंत्र्य’ के साथ ‘बौद्धिक स्वातंत्र्य’ भी शामिल है। इसे हम बहुत पहले से होता देख सकते हैं।

उदाहरण के लिए एक बार बादशाह अकबर अष्टछाप के भक्त कवि  कुंभनदास की कीर्ति की चरचा से इतना प्रभावित हुआ कि उनको अपने दरबार में हाजिर होने के लिए बुलावा भेजा। कुंभनदास इच्छा न होते हुए भी हरकारों के साथ अकबर के दरबार चले गए। अकबर ने दरबार बुलाकर  उनसे कहा कि आपकी बड़ी तारीफ सुनी है, आप कुछ गाकर सुनाएं। कुंभनदास ने अकबर के सामने जो पद गाया वह साहित्यकार की आजादी की अभिव्यक्ति का एक मानक माना जाता है। उन्होंने गाया:

संतन कों कहा सीकरी सों काम
आवत जात पनहिया टूटी बिसरि गयो हरिनाम
जिनके मुख देखत दुख उपजत उनको करनों परी प्रनाम

पद सुनकर अकबर के दरबारी बहुत नाराज हुए। अकबर को भी कुंभनदास का यह पद अपमानजनक लगा, लेकिन कुंभनदास की कीर्ति के बारे में सोच उसने अपने को संभाला और कुंभनदास के गायन की खूब तारीफ की फिर कहा कि आप जो चाहो सो मांगो। इसपर कुंभनदास ने कहा कि आप हमें यहां अगली बार आने को न कहें! यह घटना इतिहास में दर्ज है।

बौद्धिक स्वतंत्रता का यह एक उद्धरणीय उदाहरण है। नहीं जानता, दूसरा है। कुंभनदास जानते होंगे कि अकबर की ‘हुकुम उदूली’ करना  मौत को बुलावा देना है फिर भी उन्होंने निडर भाव से वही कहा जो कहना था। यह एक कवि का अपनी भक्ति पर विश्वास था, जिसके आगे एक बादशाह को भी झुकना पड़ा।

नवजागरणकालीन व्यंग्य लेखन ‘बौद्धिक स्वातंत्र्य’ की जगह को बनाता, बताता था। छायावाद हो या नई कविता आंदोलन, सब इसी ‘बौद्धिक स्वातंत्र्य’ की जगह को विस्तृत करते रहे हैं।

1957 में इलाहाबाद मेेें हुए ‘लेखक सम्मेलन’ में साहित्यकार और साहित्य के स्वातंत्र्य को लेकर विचार हुआ था और यह प्रस्तावित किया गया था कि लेखकों को राज्यसत्ता, उसके संस्थानों और उसके इनाम-इकरामों से दूर रहना चाहिए, तभी उनकी स्वतंत्रता के कोई मानी हैं- इस आयोजन में अज्ञेय की बड़ी भूमिका रही!

अज्ञेय का अपना समस्त लेखन भी लेखक की स्वतंत्रता की खोज का ही पर्याय है। नई कविता के अन्य बड़े कवि मुक्तिबोध की कविताएं भी ‘मुक्ति की तलाश’ कही जा सकती हैं, लेकिन उनकी ‘मुक्ति की कामना’ शीतयुद्ध काल में प्रचलित ‘स्वतंत्रता के विचार’ के विरोध में रही। वे पूंजी के शोषण से मुक्ति को असली स्वतंत्रता मानते रहे। एक कविता में उन्होंने कहा भी है:

समस्या एक
मेरे सभी नगरों और गांवों के सभी मानव
सुखी, सुंदर और शोषण मुक्त कब होंगे!

अज्ञेय ‘राज्य सत्ता’ से ‘स्वतंत्रता’ चाहते थे, जबकि मुक्तिबोध इस ‘स्वतंत्रता’ को ‘बूर्जुआ व्यक्तिवाद’ का पर्याय और शोषक पूंजीवाद का पोषक मानते थे और उससे मुक्ति चाहते थे।

1975 में जब आपातकाल लगा, तब आम लोगों को  लेखन की स्वतंत्रता का मूल्य मालूम पड़ा। उससे पहले स्वतंत्रता एक अमूर्त विचार भर था। आपातकाल में अखबारों की एक-एक लाइन को ‘सेंसर’ किया जाता था। सत्ता के बारे में  कुछ होता तो उसपर स्याही फेर दी जाती। रेणु और नागार्जुन जैसे लेखकों को जेल में डाल दिया गया था। आपातकाल  और उसके बाद हमें ‘बौद्धिक स्वातंत्र्य’ के असली मतलब समझ में आए, यद्यपि कुछ ने नागार्जुन की निंदा भी की, लेकिन इससे उनका जेल जाना ‘रिकार्ड’ से नहीं मिट जाता! इसके बरक्स कुछ प्रगतिशील लेखक भी रहे जो आपातकाल का समर्थन करते रहे और ‘स्वातंत्र्य के दुश्मन’ कहलाए!

बहरहाल, इन दिनों अनेक लेखक केंद्रीय सत्ता को ‘बौद्धिक स्वतंत्रता’ का सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं। उसे ‘निरंकुश’ और ‘फासिस्ट’ मानते हैं। सोशल मीडिया में वे उसके खिलाफ कुछ भी बोलते-लिखते रहते हैं। ऐसे लोग इस सवाल का जवाब नहीं देते कि अगर सचमुच का ‘फासिज्म’ होता तो क्या ये कुछ भी ऐसा-वैसा बोल पाते?

लेकिन, यह सच भी है कि कई पत्रकार तथा सोशल मीडिया एक्टिविस्ट पिछले बरसों के दौरान सत्ता के टारगेट बने हैं। जाहिर है कि ऐसी स्थिति किसी को स्वीकार्य नहीं हो सकती, लेकिन जैसा कि लेनिन ने कहा है, हर सत्ता, शासक वर्ग की तानाशाही ही होती है… वह एक हद तक ही आजादी देती है। जैसे ही शासक वर्ग को अपने हितों को खतरा महसूस होता है, राज्यसत्ता दमन का सहारा लेने लगती है। हर सत्ता ऐसा ही करती है। इस मानी में जनतांत्रिक सत्ताएं ऊपर से जनतांत्रिक दिखती हैं, लेकिन तत्वत: वे निरंकुश होती हैं। इस तर्क से केंद्रीय सत्ता हो या राज्य सरकारें, सब अपने-अपने राज्य में जरूरत होने पर सीधे निरंकुशता से ही काम लेती हैं।

इसलिए इस लेखक का मानना है कि इन दिनों हम सब, कुछ बड़े और कुछ छोटे-छोटे तानाशाहों के ‘राज’ में रहते हैं। हम सबके अपने अपने अच्छे और बुरे तानाशाह हैं। उनकी नकल पर हम सब भी अपनी अपनी छोटी-छोटी सत्ताओं और अपनी टुच्ची मनमर्जियों और तानाशाहियों को नितांत अपने हितों में लागू करते रहते हैं। हम अपने को लाख उदारतावादी कहें, हम सबके अंदर एक छोटा-मोटा तानाशाह ही ‘राज’ करता है। अपने खिलाफ एक हरफ या लाइन भी हमें पसंद नहीं होती। जो हमारे पक्ष में नहीं, उसे हम अपना दुश्मन मानते हैं और अपने सारे ‘हथियारों’ को उसके खिलाफ तैनात कर देते हैं। अपने खिलाफ जरा सी बात भी हमें एक क्षण बर्दाश्त नहीं होती! ऐसी ‘निरंकुशता’ या ‘तानाशाही’ या ‘फासिज्म’ अब हमारे वातावरण और हमारे स्वभाव का हिस्सा है। हममें से हर कोई अपने को छोटे-मोटे हिटलर से कम नहीं समझता!

इस हिटलरी स्वभाव से मुक्ति के लिए हमें या तो ‘भगवान राम’ या ‘बुद्ध’ या फिर गांधी जैसा सहिष्णु होना होगा। लेकिन आजकल ये नाम भी हमारे लिए दूसरे को नीचा दिखाने का एक ‘औजार’ और अपने को सजाने के लिए ‘अंलकार’ भर हैं। इनको हम ‘यूज एंड थ्रो’ करते रहते हैं।

इस वातावरण में ‘स्वातंत्र्य’ की अवधारणा भी बदल गई है। साइबर तकनीकी क्रांति से संचालित गूगल, फेसबुक, ट्विटर अब ‘एक्स’, इंस्टागा्रम, लिंक्डइन, व्हाट्सऐप जैसे मैक्रो-माइक्रो सोशल मीडिया प्लेटफार्मों ने हमें स्वतंत्रता के कुछ नए ‘ग्लोबल स्पेस’ दिए हैं। लेकिन हमारे स्वातंत्र्य को पोसने वाले ये ‘प्लेटफार्म’ दुधारी तलवार हैं।  ये पहले हमें ‘परम स्वतंत्र न सिर पे कोउ’ वाला अहंकारी बनाते हैं। हम भी सोशल मीडिया द्वारा दी जाती आजादी को दूसरों की आजादी से ऊपर समझने लगते हैं और हर हाल में अपने-अपने ईगो को ‘जिताने’ की फाइट में लगे रहते हैं।

आजादी को एक खतरा सोशल मीडिया की प्रकृति से है : फेसबुक हो या ट्विटर; एक्स या इंस्टाग्राम या लिंक्डइन या व्हाट्सऐप ये सभी, उपयोगकर्ता को घोर आत्मरतिवादी, ‘ईगोइस्टिक’, ‘दुरहंकारी’, ‘बेअदब’; इर्रेवरेंट और ‘हेटफुल’ और बदलाखोर (रिवेंजफुल) बनाते हैं और इस तरह हम वहां अपनी आजादी के अलावा बाकी सबकी आजादी को ‘सप्रेस’ कर यानी ‘ब्लॉक’ कर या ‘अनफोलो’ करके चलते हैं!

हम अपने को ‘साइबर आजादी’ का मालिक समझते रहते हैं, जबकि असल में हमारी आजादी इन प्लेटफार्मों के मालिकों, कारपोरेटरों के लिए एक ‘डेटा’ मात्रा होती है। इसे वे ग्लोबल मार्केट और सरकारों को बेचकर कमाई करते रहते हैं। इस तरह वे हमारी ही ‘आजादी’ को हमें ही नए नए उपभोक्ता ब्रांडों एवं सेवाओं में बदलकर बेचते रहते हैं और हम खरीदते रहते हैं।

स्पष्ट है, हम जिसे आजादी समझते हैं, वह इन कारपोरेटरों के लिए एक बेहद कमाऊ पण्य, कमोडिटीज बन जाती है। उसी के जरिए वे हमारे दिमागों को ‘मेनिपुलेट’ करते हैं और अंतत: अपना गुलाम बनाते चले जाते हैं।

उपर्युक्त के अलावा धार्मिक, जातिवादी, लैंगिकतावादी, इलाकाई एवं भाषाई अस्मितावादी संगठन/समूह भी इन दिनों बौद्धिक आजादी के दुश्मन हैं। इसलिए जहां तक ऐसे संवेदनशील इलाकों में बौद्धिक स्वतंत्रता के उपयोग की बात है, वहां तो ऐसे संवेदनशील तत्व ही आपकी स्वतंत्रता की लिमिट तय करते हैं, आप नहीं। राज्यसत्ताएं, कानून और कथित मानवाधिकारवादी तक इनका कुछ नहीं कर पाते।

लेकिन, बौद्धिक स्वतंत्रता का एक मानी हमारे ‘मन की स्वतंत्रता’ भी है, जो हजार पहरे में रहे तो भी वह अपनी स्वतंत्रता को बनाए रख सकती है। ‘राम की शक्ति पूजा’ में निराला की इन पंक्तियों, ‘वह एक और मन रहा राम का जो न थका’ में, ऐसा ही ‘बौद्धिक स्वातंत्र्य’ गूंजता  मिलता  हैं। ‘बौद्धिक स्वातंत्र्य’ का मतलब ‘मन का स्वातंत्र्य’ है।

मन की स्वतत्रंता के उदाहरण के रूप में मुझे सोवियत संघ के पतन के बाद रूस से प्रकाशित एक अंग्रेजी वीकली में छपी एक खबर की याद आ रही है जो कहती थी कि एक रूसी लेखक ऐसा भी रहा जो बरसों तक केजीबी का काम करता रहा। दूसरी ओर, चुपचाप रूस के यथार्थ के बारे में लिखता रहा और उसको छिपाकर रखता रहा! यह सब बाद में सामने आया।

इसे भी उस लेखक का ‘दूसरा मन’ कहा जा सकता है या एक खास तरह की बौद्धिक स्वतंत्रता कहा जा सकता है। इस तर्क से अवसरवादी चतुराई भी निरंकुशता के खिलाफ एक तरकीब हो सकती है। लेकिन अपने कट्टरतावादी इसे अवसरवाद ही कहेंगे।

दमन ‘झूठ की संस्कृति’ पैदा करता है। ऐसे में झूठ भी दमन के खिलाफ एक तरकीब बन जाता है! एक मानी में हर दमन हमारे कला कौशल की परीक्षा भी है। लेकिन ऐसा कला-कौशल हर एक के बस की बात नहीं। इसके लिए बड़ी और सच्ची प्रतिभा चाहिए। ऐसी उच्च कोटि की कला दमन के खिलाफ सबसे बेहतरीन तरकीब हो सकती है जो दमनकारी को एक अर्थ देकर उल्लू बनाए, लेकिन ‘दमित’ को उसका अर्थ देकर उसे चुपके से ताकत दे। ऐसे में भाषा की बहुस्वरता, श्लिष्टता और व्यंजनात्मक और कूट हास्य व्यंग्य और उपहास वक्रता आदि आजादी के लिए बेहतरीन कलात्मक तरकीबें हो सकती हैं।

 

17/बी-1, हिंदुस्तान टाइम्स अपार्टमेंट्स, मयूर विहार, फेज-1, दिल्ली-110091ईमेल: spachauri17@gmail.com

विजय कुमार

कविआलोचकनिबंधकारअनुवादक। कविता व आलोचना की अब तक नौ पुस्तकें प्रकाशित। अद्यतन पुस्तक एडवर्ड सईद : जनबौद्धिक की भूमिका’ (विचार)

 

ताकत की दुनिया में असहमत होने का रोमान बौद्धिकों में अभी बचा है

(1)सामाजिक ढांचे के भीतर बौद्धिक एक ऐसी व्यक्ति इकाई रही है, जिसकी उपस्थिति का अर्थ दी गई समाज व्यवस्था में समय और स्थितियों की पड़ताल और आवश्यकता होने पर उन्हें प्रश्नांकित करना है। एक ऐसी विशेषता जो मस्तिष्क की उन्नत अवस्था को परिभाषित करती हो, जहां मानव मूल्य और नैतिक चेतना से जुड़ी सार्वभौमिकता की कोई संकल्पना जिज्ञासा, विवेक, तार्किकता, विचार, संवाद, साहस और असहमति के रूप में उभरती हो।

प्राचीन यूनानी सभ्यता में सुकरात केवल एक दार्शनिक नागरिक नहीं, बल्कि विचारवान असहमति का स्वर भी था। असहमत होने का यह अर्थ ज्ञान मीमांसाओं में हर समय ही महत्वपूर्ण रहा है। बौद्धिक की उपस्थिति एक वैयक्तिक  विचारक की नहीं, व्यापक मानवता के प्रति समर्पित उस स्वर की है जो यथास्थितिवाद पर सवाल उठाते हुए समस्त अनुशासनों, नियमों,  कायदे कानूनों की अवहेलना कर सकता हो, तमाम तरह की घेराबंदियों का अतिक्रमण कर सकता हो, एक आलोचनात्मक विवेक और सर्जनात्मक निष्ठा का प्रतिनिधित्व कर सकता हो। उसके भीतर विकल्प का यह स्वप्न  किसी बेहतर की कल्पना और विचार संपदा के विस्तार से जुड़ा रहता है।

लेकिन बौद्धिक कर्म की ये गतिविधियां व्यक्ति के अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए नहीं हैं और न वहां अहं के विस्फोट की कोई गुंजाइश होती है। हमारे समय के एक बड़े विचारक एडवर्ड सईद ने कहा था कि निजी बौद्धिकता जैसी कोई चीज नहीं होती। जैसे ही आप शब्दों को कागज पर उतारते हैं, उन्हें प्रकाशित कराते हैं वैसे ही आप एक सार्वजनिक ‘स्फीयर’ में हिस्सेदारी करने लगते हैं। लेकिन महत्वपूर्ण बात वह यह भी कहते हैं कि पूरी तरह ‘सार्वजनिक बौद्धिक’ भी कोई नहीं होता। उसकी निजी जीवन स्थितियां और उनसे उठे संवेदना के रूपाकार उसके कहे और लिखे को अर्थ प्रदान करते हैं। बाहरी और भीतरी तमाम बाधाओं और अवरोधों को पार करता यह बौद्धिक अपने प्रतिनिधित्व को अपने लोगों के समक्ष अभिव्यक्त करता है। उसके कहे गए की एक पहचान बनती है और उसमें स्वतंत्रता, निष्ठा, ईमानदारी, प्रतिबद्धता, जोखिम, साहस और संवेदनशीलता के मुख्य गुण होते हैं।

एडवर्ड सईद ने ‘बौद्धिक के प्रतिनिधित्व’ वाले अपने व्याख्यान में कहा कि जब मैं ज्यां पाल सार्त्र या बर्ट्रेंड  रसेल  को पढ़ता हूँ तो उनके तर्कों से भी कहीं ज्यादा उनके स्वर निजता और उपस्थिति मुझ पर प्रभाव डालती है, क्योंकि वे जो कुछ भी बोल रहे हैं उसमें उनकी गहरी आस्था और एक दृढ़ता दिखाई देती है।

(2-3)बौद्धिक  का सामाजिक उत्तरदायित्व समुदाय, परंपरा, रूढ़ियों,  प्रचलित  ढर्रों, मताग्रहों, जड़ मान्यताओं, अंधविश्वासों और विभिन्न प्रकार के पूर्वग्रहों की एक वस्तुनिष्ठ पड़ताल करते हुए   ताकत के तंत्र और उसके प्रबंधन तथा उसे संचालित करने वाली तमाम प्रक्रियाओं के सामने खड़े होना है। तब वह एक व्यक्ति मात्र नहीं रह जाता। ऐसा बौद्धिक सत्ता-व्यवस्था द्वारा पोषित विचारों, मूल्यों, ढांचों की समीक्षा के रास्ते एक व्यापक जनसमुदाय की अपूर्ण आकांक्षाओं का प्रतिनिधि बन जाता है। वह विकल्प की एक विशिष्ट संकल्पना में सीधे-सीधे या परोक्ष रूप से  हिस्सेदारी करता है।

न्याय, एकात्मकता और नैतिक ईमानदारी से जुड़े उसके ये सवाल व्यवस्थाएं नज़र अंदाज़ करना चाहती हैं। लेकिन सोच-विचार की यांत्रिकता और ठहराव के सामने यह उसकी अपनी गतिशीलता की एक ‘पोजिशनिंग’ है । इसके मूल में  संभवत: एक ‘आदर्श’, एक ‘यूटोपिया’ होता है। समाज में प्रतिनिधित्व के सवालों को निरंतर उठाते रहने  की बौद्धिक की यह कोशिश उसके भीतर की किसी जिद, जद्दोजहद और   असमाप्त ऊर्जा को प्रदर्शित करती है। फासीवाद के आतंक से बच निकले प्रसिद्ध लेखक टामस मान जब 1938 में यूरोप से अमेरिका पहुंचे तो उन्होंने कहा था ‘मैं जहां भी हूँ वहां मनुष्य की संस्कृति है और मानवीय गरिमा के लिए एक संघर्ष है।’

(4-5)हमारे समय की बड़ी विडंबना है कि उस परंपरागत बौद्धिक की स्थिति और आज के सार्वजनिक ‘स्फीयर’ के बीच एक बड़ा अंतराल पैदा हुआ है। उस पुराने बौद्धिक की जगह नए समय के ‘प्रोफेशनल’ ने ले ली है। जैसे-जैसे राजनीति का रूप ज्यादा वर्चस्ववादी होता गया है, मीडिया और संचार साधन ज्यादा  शक्तिशाली, सर्वव्यापी, पूंजी और सत्ता आश्रित होते गए हैं। टेक्नॉलॉजी ने एक नए आभासी यथार्थ को जन्म दिया है, अकादमिक जगत जन- समाज के प्रश्नों से दूर होता गया है, वैसे वैसे बौद्धिक मेधा का भी संस्थानीकरण होता गया है और उसके कार्यक्षेत्र में बदलाव आया है।

आज का बौद्धिक व्यक्तित्व स्वतंत्र चेतना, स्वायत्तता और आलोचनात्मक विवेक का  प्रतिनिधि नहीं रह गया है। वह अकादमियों, न्यायपालिकाओं, नौकरशाही अथवा वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में एक वेतनभोगी, आज्ञाकारी सेवक है। उससे आगे के किसी और ‘स्पेस’ को निर्मित कर पाने में वह बहुत सक्षम नहीं रह गया है, न उसके सरोकार अब वैसे रह गए हैं।

अंतोनियो ग्राम्शी ने लेखक, कलाकार, विचारक, वैज्ञानिक सिद्धांतकार, गैर-पुरोहित किस्म के दार्शनिक आदि के रूप में स्वायत्त रहने वाले उस परंपरागत बौद्धिक और आधुनिक समय के  ‘ऑर्गेनिक’ बौद्धिक के बीच जिस फर्क को परिभाषित किया था, उसमें पहले प्रकार का बौद्धिक जनजीवन में न्याय की कल्पना और मनुष्यता  के बुनियादी मूल्यों की रक्षा के संघर्ष में अपनी भूमिका निभाता था। वे जागरण काल से जन्मे मूल्य थे। जबकि आज दूसरे प्रकार का यह ‘ऑर्गेनिक’ बौद्धिक नियंत्रणकारी व्यवस्था के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपनी सेवाएं देता है।

उन्नत  पूंजीवादी व्यवस्था अपने साथ उत्पादन में सहयोगी औद्योगिक सलाहकारों, प्रबंध गुरुओं, तकनीकी तंत्रज्ञों, अर्थशास्त्र  के जानकारों, कॉर्पोरेट जगत की व्यूह रचना करने वाले विशेषज्ञों, मास मीडिया में बैठे हुए ‘तर्क -वितर्क करने वाले’ ‘चिंतकों’ और संस्कृति के प्रचारकों आदि के रूप में नए किस्म के प्रोफेशनल बौद्धिकों की जिस जमात को लेकर आई है वे हमारे समय में नियंत्रणकारी शक्तियों के एजेंट हैं, उनके पैरोकार हैं। वे सामाजिक वर्चस्व और शक्ति के तंत्र के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपनी सेवाएं देते हैं। वे एक ऐसी व्यवस्था के उपकरण हैं जो शासक वर्ग द्वारा रचे गए विमर्शों के प्रति जन समाज में सहमति निर्मित करती है।

प्रसिद्ध विचारक फ्रेडरिक जेम्सन ने हमारे समय में उत्तर-औद्योगिक संस्कृति, बाजार, उपभोक्तावाद, मास मीडिया, संचार क्रांति, सूचना समाज, इलेक्ट्रॉनिक हाई टेक समाज से जुड़ी हुई सामाजिक स्थितियों का विश्लेषण करते हुए इस तथ्य को रेखांकित किया है कि बहुराष्ट्रीय निगमों की पूंजी पर आधारित उत्पादन और बाजार की इस नव उदारवादी व्यवस्था ने समकालीन समाज में संस्कृति के हर पहलू को अपने कब्जे में ले लिया है। वर्चस्ववादी संस्कृति के सामने प्रतिपक्ष और आलोचनात्मक विवेक की भूमिका सिमटती गई है। आज किसी भी बौद्धिक के लिए- चाहे वह कलाकार हो, विचारक हो, नीति-निर्धारक हो- उसके चारों ओर इस हाई-टेक पूंजी व्यवस्था के तर्कों की कुछ इस तरह की घेराबंदी है। वह विसंगतियों का एक ‘क्रिटिक’ भले ही रच ले  पर वह लगभग हाशिये पर धकेल दिया गया है।

कहना न होगा कि हमारे समय की यह एक कठोर वास्तविकता है। इस व्यवस्था में ज्ञान उत्पादन की प्रणालियों का एक अंग बनकर रह गया है। ज्ञान का पदार्थीकरण हुआ है। उस ज्ञान का उत्पादन और वितरण अब एक उद्यम है। वह मांग और पूर्ति की आधुनिक अर्थव्यवस्था से संचालित है। ज्ञान की विशेषज्ञता पर बढ़ते हुए आग्रह और मेधा के अधिकाधिक छोटे-छोटे खंडों-प्रखंडों,  श्रेणियों-उप श्रेणियों में विभाजित होते जाने की स्थिति ने इन विशेषज्ञों के समक्ष युग-सत्य को अंधों के उस हाथी की तरह बना दिया है, जहां कोई भी किसी को समग्रता में देख पाने में असमर्थ है।

आधुनिक विश्वविद्यालय इस ‘प्रोफेशनल ज्ञान’  को उत्पादित और विभाजित करने वाले कारखाने बन गए हैं। ज्ञान के इस संस्थानीकरण और उसकी  प्रयोजनमूलक स्थिति ने बौद्धिक के भीतर किसी रेडिकल, सार्वभौमिक, व्यापक जन जीवन से जुड़ी विकलता को बहुत हद तक अपदस्थ कर दिया है। वह समय गया जब समाज में एक नीत्शे, एक बटर्र्ंड रसेल या एक सार्त्र हुआ करता था।

इन स्थितियों में हम देखते हैं कि इस पूरे तंत्र में बौद्धिक की भूमिका ‘पैसिव’ किस्म की होती चली गई है। सर्वसम्मति की इस दुनिया में बौद्धिक की असहमति के स्वर को बड़ी आसानी से  ‘अवज्ञा’ और ‘राजद्रोह’ तक कह दिया जाता  है। लेकिन बाजार, राजनीतिक सर्वसत्तावाद और टेक्नोलॉजी जनित वर्चस्व की दुनिया में बौद्धिक चाहे जितना हाशिए पर धकेल दिया गया हो, उसके भीतर का आलोचनात्मक विवेक भले ही आज नक्कारखाने में तूती की आवाज जैसा हो गया हो, पर ताकत की दुनिया में वह अभी लुप्त नहीं हुआ है। आज भी ऐसे तमाम बौद्धिक उपस्थित हैं  जो ‘कंफर्मिस्ट’ नहीं हैं। उनके भीतर ताकत की दुनिया से असहमत होने का रोमान अभी बचा है। फ्रेडरिक जेमेसन कहते हैं कि समग्रता अभी भी एक महत्वपूर्ण विचार है। इसी के द्वारा हम इस दुनिया में अपने अनुभवों के छोटे-छोटे टुकड़ों को आपस में जोड़ सकते हैं। हमें वित्त पूंजी के सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को समझना होगा। देरीदा विखंडन की तमाम दलीलों के बाद अपने जीवन की संध्या में यह कहने लगे थे कि मनुष्य के भीतर न्याय की कामना कभी खत्म नहीं हो सकती। इतिहास का शव उसके कंधों पर सवार है। उसे उठाकर फेंका नहीं जा सकता।

नोम चोम्स्की जैसा बौद्धिक कुछ समय पहले प्रकाशित अपने इंटरव्यू की पुस्तक ‘ऑप्टिमिज़म  ओवर डिस्पेयर’ में कहता है, ‘हमारे सामने दो ही विकल्प हैं- या तो हम समर्पण कर दें और संपूर्ण निराशा के गर्त में गिर जाएं या एक उम्मीद को जिलाए रखें और उन अवसरों का लाभ लें जो निश्चित रूप से अभी भी मौजूद हैं और इस दुनिया को अभी भी एक बेहतर जगह बना सकते हैं।’

 (6)बौद्धिक की स्वतंत्रता की भावी शक्ल  को टेक्नोलॉजी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के द्रुत विकास के बीच रखकर देखना होगा। कल के लिए उम्मीद और आशंकाएं एक साथ  जगती हैं। यद्यपि कुछ सदियों पहले जब मुद्रण की तकनीक आई थी तो क्या उस समय के सत्ता -तंत्र और चर्च ने मुद्रण के आविर्भाव से आने वाले समय में जनतांत्रिक चेतना के विकास और सांस्कृतिक विकास की कल्पना की थी?

डिजिटल युग में इंटरनेट और कंप्यूटर की टेक्नोलॉजी ने अभिव्यक्ति के लिए एक नई तरह के जनतांत्रिक ‘स्पेस’ को निर्मित किया है। ऑनलाइन फोरम, ब्लॉग, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर प्रश्न, वैचारिक सहभागिता, अभिमत, संवाद, विवाद की आजादी ने अभिव्यक्ति की पुरानी ‘हाइरार्की’ को लगभग समाप्त किया है। कल तक जिनके पास अपनी बात कहने के लिए मंच नहीं  थे, वे आज बखूबी अपने को अभिव्यक्त कर सकते हैं।

आज एक व्यक्ति बहुत सीमित  साधनों के बल पर भी अपनी बुलेटिन बोर्ड  सेवाएं आरंभ कर सकता है। यू ट्यूब  पर नवोन्मेषी अभिव्यक्तियों का अंबार है। मुख्यधारा के मीडिया के समानांतर आभासी दुनिया में वैकल्पिक संचार मंचों और अभिव्यक्ति के नए माध्यमों द्वारा सूचनाओं और जानकारियों के त्वरित विनिमय और प्रस्तुति के नवोन्मेषी तरीकों में इधर यह जो अभूतपूर्व वृद्धि हुई है उसने निश्चित ही अनेक तरह के हाशिए  पर पड़े मुद्दों, स्थानिकता की आवाजों, सिविल आंदोलनों और प्रतिरोध की हलचलों को भी जन्म दिया है। वर्चस्व और एकाधिकार की दुनिया के सामने रखी गई ये चुनौतियां आने वाले दिनों में संभवत: एक अधिक सहिष्णु, बहुलतावादी, समावेशी, भयमुक्त सिविल सोसायटी  की संभावना  निर्मित कर सकती हैं।

फेसबुक और ट्विटर जैसी कंपनियों ने जो  डिजिटल प्लेटफॉर्म निर्मित किए हैं उनपर विश्व भर में लाखों लोग अपनी धारणाओं और विचारों को व्यक्त कर रहे हैं। एक ओर जहां यह स्थिति वैचारिक स्वतंत्रता के लिए एक नया ‘स्पेस’ रच रही है, वहीं दूसरी ओर यह नई टेक्नोलॉजी अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित करने के लिए नए-नए तरीके भी खोजती रहती है।

जब हम कंप्यूटर पर चीजों को देख और पढ़ रहे होते हैं, उसी समय कुछ अज्ञात स्रोत हम पर निगरानी रखे हुए होते हैं कि हम क्या खोज रहे हैं, क्या जानना चाहते हैं। सरकारी और कारपोरेट जगत इस स्वतंत्र विचार सामग्री के विनिमय को नियंत्रित करने के प्रयासों में लगे रहते हैं। एक ओर सरकारी नीतियों की आलोचना पर सेंसरशिप, राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर असहमति और प्रतिरोध की आवाजों का दमन, कानून-व्यवस्था बनाए रखने और आस्थाओं की रक्षा के बहाने अभिव्यक्तियों पर पाबंदियां लगाई जाती हैं तो दूसरी ओर मास मीडिया द्वारा छद्म चेतनाओं और एक गढ़े गए सच का व्यापक प्रचार-प्रसार भी चौबीसों घंटे संचार माध्यमों द्वारा होता रहता है।

इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की आजादी को ऑनलाइन सेंसरशिप और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के उपकरणों द्वारा सीमित किया जाता है। इस अज्ञात की उपस्थिति अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

फेसबुक और ट्विटर जैसी कंपनियों ने एक ओर जहां वैचारिक स्वतंत्रता के लिए ‘स्पेस’ दिया है, वहीं दूसरी ओर वे  नियमों, कायदे कानूनों की जकड़बंदी, आचार संहिताओं, समुदायिकता के मानकों और तरह-तरह की सेवा-शर्तों द्वारा इन अभिव्यक्तियों पर अंकुश भी लगाती हैं। विवादास्पद पोस्ट को इन मंचों से हटा दिया जाता है। जिन अशांत क्षेत्र में जन-आंदोलन हो रहे होते हैं वहां अक्सर संचार सेवाएं और नेटवर्क बंद कर दिए जाते हैं।

हाल के वर्षों में निजता के अधिकारों के उल्लंघन, विश्व स्तर पर कंप्यूटरों में जासूसी के सॉफ्टवेयर, मानव अधिकारों के आंदोलनों से जुड़े लोगों के उत्पीड़न, असहमति के स्वरों को कुचल देने और मुक्त सूचनाओं के प्रसार पर लगाई गई पाबंदियां हमारे समय का एक बड़ा  सच है।

कोई यदि यह सोचता है कि संचार-क्रांति के युग में नए उपकरणों से मनुष्य को अभिव्यक्ति की एक अबाधित स्वतंत्रता मिल गई है तो वह एक प्रकार का भ्रम होगा। ‘गेटकीपर’ हर जगह उपस्थित हैं और वे आप पर निगाह रखे हुए हैं। इन्हीं विरोधाभासों के बीच आने वाले समय में अभिव्यक्ति की आजादी की स्थितियों पर विचार किया जाना चाहिए।

 

302, महावीर रचना, सेक्टर15 सीबीडी बेलापुर, नवी मुंबई 400614  मो. 9820370825

संपर्क प्रस्तुतिकर्ता :​ 1, राम कमल रोड, पोस्टगरिफा, पिन743166, उत्तर 24 परगना (.बं.) मो.9331075884