कवि, समीक्षक और संस्कृति कर्मी।विद्यासागर विश्वविद्यालय, मेदिनीपुर में सहायक प्रोफेसर।

 

 

हिंदी कविता का परिदृश्य वैविध्यपूर्ण है। जीवन की असंख्य छवियां कविताओं में आकार पाकर हमें उत्प्रेरित करती हैं, चकित करती हैं और कई बार प्रतिवाद के लिए उकसाती हैं। कविता सदियों से निराशा के बीच उम्मीद की लौ है। वैचारिक अंधता और खुदगर्जी के इस दौर में कविता हमें संवेदनशील और विवेकपरक  बनाती है। कई बार कविता हमारे दुखों से संवाद करती है, कई बार हमारे मानसिक संघर्ष के उफान को शांत करती है। आज की कविता किस तरह स्थानीय और सार्वभौम दोनों को संबोधित करके लिखी जा रही है, यह कुछ ताजा संकलनों से स्पष्ट हो सकता है।

हे मेरी कविता/ मुझे माफ़ कर देना/मैं तुम्हें बस कागज की नाव पर बैठा कर/ छोड़ आया हूँ महासागर में/बिलकुल निहत्था/.. इस तरह/ दुनिया भर की समस्याएं/देश के भीतर की उठापटक/यहां तक कि दफ्तर की फंसाहटें/गांव जवार की झंझटें/सब तुम्हें सौंप कर/निश्चिंत हो गया हूँ।

 

हमारे समय के चर्चित लेखक और कवि सदानंद शाही का अपने ताजा कविता संग्रह ‘माटीपानीमें कविता पर इतना भरोसा अकारण नहीं है। एक कवि के लिए निहत्था कविता ही सबसे बड़ी ताकत है। दरअसल उसे यकीन रहता है कि कविता कभी अपना गुण नहीं त्याग सकती। वह सबकी पीड़ा सुन लेगी। आज के समय का संकट यह है कि कोई किसी की सुनता कहां है। सब अपना कहने में व्यस्त हैं। ऐसे में कवि की कविता आदमीयत का राग सुनाती है।

‘माटी पानी’ में अलग-अलग मिजाज की कविताएं हैं। इनमें जीवन को लेकर एक गहरी बेचैनी है। कवि की प्रतिबद्धता हाशिए के समाज के प्रति है। इस संग्रह में वे काव्य-सौंदर्य को जीवन सौंदर्य से जोड़ते हैं। वे सांस्कृतिक प्रतीकों के राजनीतिकरण से व्यथित हैं। इसलिए ‘कमल होने का फायदा’ कविता में तुलसीदास से क्षमायाचना करते हैं। कवि के भीतर एक अपराधबोध शेष है कि वह काफी लोगों के गलत होने पर खुद आत्मग्लानि का अनुभव करता है।

इस संग्रह की कविताओं में स्त्रियां समस्याओं के समक्ष घुटने टेकने के बजाय आत्मसम्मान के साथ मनुष्यता के पक्ष में खड़ी दिखती हैं। मूल्यहीनता और वैश्विक पूंजी के इस आकर्षक दौर में स्त्री के नैतिक साहस के बारे में कवि लिखता है- ‘प्रलोभन तुम्हारे सामने भी आए होंगे/बाजार ने तुम्हें भी लुभाया होगा/मन तुम्हारा भी डोला होगा/इस आवारा पूंजी के दौर में/तुमने कैसे बचाए रखा/अपना ईमान/ विजय लक्ष्मी भाटिया’! कवि दुनिया की आधी आबादी की संवेदना को अपनी कविता में पर्याप्त स्पेस देता है। उसकी कविता में स्त्री-मन के कई द्वार खुलते हैं। कवि बड़ी विनम्रता के साथ स्त्री को जानने की कोशिश करता है।

सदानंद शाही शिक्षा क्षेत्र में एकेडेमिक अवमूल्यन से दुखी हैं। ‘शताब्दी तमाचा’ कविता में देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में एक शिक्षक के गाल पर पड़े तमाचे को वे पूरी शताब्दी के मुंह पर तमाचे की तरह देखते हैं। वे शिक्षा परिसर को ज्ञान के केंद्र की जगह सत्ता के केंद्र में बदलते देखते हैं।  आज गलत को गलत कहने का नैतिक साहस दिखाने वाले बहुत कम हैं, ‘यह राष्ट्रवादी तमाचा था/यह सांस्कृतिक तमाचा था/यह इतिहास बदलने वाला तमाचा था/नालंदा के शिखर पर/ गिद्ध के पुनरागमन का जयघोष था।’ आज इस तरह के जयघोष में इतिहास और लोकतंत्र की आवाजें दबती जा रही हैं।

सदानंद शाही इतिहास की विकृति को लेकर चिंतित हैं। धर्म, जाति, प्रांत, भाषा, संप्रदाय में बंटा हुआ देश, बंटे हुए लोग उस गांधी को भूल रहे हैं, जिसने एक समय बंटे हुए देशवासियों को जोड़कर एक स्वतंत्र सुराज का सपना देखा था। हमारे भीतर ‘गांधी की हँसी’ का सामना करने का नैतिक साहस नहीं बचा है, तभी ‘मैं गांधी से नजरें बचाकर/निकल जाना चाहता था/कि कहीं पूछ न बैठें- गोडसे की प्रतिमा क्यों लगवाई’।

सदानंद शाही हमारे समय के सजग कवि हैं। सजगता का अर्थ सिर्फ संवेदनात्मक होना नहीं है, बल्कि भाषिक निपुणता भी है। उनका मानना है कि भाषा का धर्म मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होना है। इसलिए जरूरी है कि अच्छे शब्द भाषा के राजतंत्र से मुक्त होकर आदमीयत के पक्ष में खड़े हों।

उनकी कविताएं जितना नगर से संबद्ध हैं, उतना ही लोक भी उनके यहाँ जीवित है। वे सत्ता केंद्रिकता की जगह भक्त कवियों की तरह लोक केंद्रिकता की ओर जाते हैं। ‘लौटना लखनऊ से’ कविता इसका अच्छा उदाहरण है, जहां उनका लखनऊ से लौटना कुंभनदास के सीकरी से लौटने जैसा है। यही वजह है, कवि सत्ता से बराबर दूरी बनाकर अपने भीतर लोक और संस्कृति के भावों को बचाना चाहता है।

सदानंद शाही द्वारा संपादित पुस्तक ‘कविता में काशी’ में अवधेश प्रधान का ‘बनारस का सांस्कृतिक सौंदर्य’, रामसुधार सिंह का ‘काशी में कविता: कविता में काशी’ शीर्षक से दो लेख एवं 53 कवियों की काशी-केंद्रित कविताएं संकलित हैं।

जिज्ञासा: आपने लिखा है ‘मैं कविता की दुनिया का स्थायी नागरिक नहीं हूँ।’ बावजूद इसके आपकी कविताएं हैं और नागरिक चिंताएं भी हैं!

सदानंद शाही : दो बातें हैं। पहली तो यह कि कवि होना कोई हँसी-खेल नहीं है। हमारे यहां कवि को स्रष्टा का दरजा दिया जाता रहा है। दो चार कविताएं लिखकर वहम पाल लेना कि आप कवि हो गए, वहम ही है। कवि होना विशेष होना है, मैं अपने को विशेष के रूप में नहीं देख पाता। जिन चीजों को आप स्थायी चिंताएं कह रहे हैं वे जीवन को कसकर पकड़े रहती हैं और आपको सामान्य या मामूली बनाए रखती हैं। उन्हें छोड़कर पूर्णकालिक कवि हो जाना संभव नहीं लगता। वैसे भी आजकल कविता की दुनिया में इतनी मारा-मारी है कि वहां घर बना लेना और नागरिकता हासिल करना आसान नहीं है। इसलिए कविता की दुनिया का अ-नागरिक होना आसान विकल्प है। मैंने बस आसान विकल्प चुना।

जिज्ञासा: कविताओं में स्मृतियों के जरिए भविष्य के सपने बुनना कहां तक संभव है?

सदानंद शाही : भाषा की प्रकृति ही स्मृतिगर्भी है। इसलिए  भाषा का व्यवहार करते समय स्मृतियां बार-बार लौटती हैं। कविता अंतत: भाषा का विशिष्ट रूप है। इसलिए कविता स्वभावत: स्मृतिगर्भी होती है। इस तरह कविता में स्मृति वर्तमान समय संवेदना से अंत:क्रिया करती है। इस अंत:क्रिया में भविष्य के सपने अनिवार्यत: अनुस्यूत रहते हैं।

जिज्ञासा: आपकी एक कविता ‘गांधी की हँसी’ है। इतिहास के इस दौर में गांधी की जगह गोडसे का नायकत्व गढ़ा जाना किस ओर संकेत है?

सदानंद शाही : यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है, क्योंकि गांधी की अवमानना सच पूछिए तो भारत नामक विचार की अवमानना है। खादी के बारे में कहा जाता है कि खादी वस्त्र नहीं विचार है। इसी तरह गांधी भी व्यक्ति नहीं, विचार हैं। गांधी निकटवर्ती भारत के ऐसे इतिहास पुरुष हैं जिनके व्यक्तित्व में भारतीय परंपरा का सर्वोत्कृष्ट मौजूद है। भारत की आत्अमा ने अपने आपको गांधी में सबसे ज्यादा प्रकट किया है। जो लोग गांधी का विरूपण कर रहे हैं, वे भी गांधी की इस महिमा से परिचित हैं। इसीलिए आतंकित भी हैं। देश ही नहीं, दुनिया उथल-पुथल के जिस दौर से गुजर रही है उसमें आने वाले दिनों में गांधी जरूरी संदर्भ बनते चले जाएंगे। आज से लगभग सौ वर्ष पहले अकबर इलाहाबादी ने गांधीनामा लिखा था, जिसमें उन्होंने घोषणा की थी- इंकलाब आया नई दुनिया नया हंगामा है/शाहनामा हो चुका अब दौर-ए गांधीनामा है।

मेरी एक कविता ‘गांधी नहीं मरेंगे’ में है- गांधी नहीं मरेंगे/मर जाएंगे गांधी को मारने वाले/जैसे कबीर को मारने के/चक्कर में पड़े/पीर और पैग़ंबर मर गए थे/मर गए थे सातों भुवन के चौधरी/कबीर की तरह/गांधी ने भी पी लिया था राम रसायन/कबीर की तरह/गांधी ने भी जान लिया था राम नाम का मर्म/जैसे कबीर राम को बुन सकते थे/अपने करघे पर/गांधी बुन लेते थे राम को/अपने चरखे पर/जैसे कबीर और राम मिल कर हो गए थे एक/वैसे ही गांधी और राम हो गए थे एकमेक/कहते हैं/जब कबीर बनते थे ताना/राम बन जाते थे बाना/गांधी कपास हो जाते थे/राम सूत बनकर/लिपट जाते थे लच्छे में/चरखे से गूंज उठती थी/राम धुन/सूत और कपास/ताना और बाना/मिलकर बन जाती/ईश्वर नाम की चादर/न ईश्वर मरता/न मरते हैं कबीर/फिर कैसे मर सकते हैं/गांधी!

जिज्ञासा: आज ‘सत्ता-समर्थन’ को देशप्रेम के तौर पर देखा जाना क्या लोकतंत्र का विपर्यय है?

सदानंद शाही : देशप्रेम एक बहुत गहरी भावना है, जैसे प्रेम एक बहुत गहरी भावना है। दुर्भाग्य से देशप्रेम की बहुत सतही व्याख्या या परिभाषा की जा रही है। देश प्रेम को महज नारा और दिखावा में बरता जा रहा है। ऐसे में देशप्रेम को भावना के रूप में चिह्नित और परिभाषित करने की ज़रूरत है। देश के भूगोल को, देश की प्रकृति को, देश के लोगों को जानना और उनसे प्रेम भाव रखना ही देशप्रेम है।

जिज्ञासा: इस संग्रह में भोजपुरी की बारह कविताएं संकलित हैं। आप जब खड़ी बोली में लोक जीवन का स्वर देने में सक्षम हैं, तब भोजपुरी में लिखने की कोई खास वजह?

सदानंद शाही : भोजपुरी मेरी मातृभाषा है और हिंदी पढ़ने-लिखने और काम करने की भाषा है। भोजपुरी में गद्य तो लिखता रहा हूँ, कविताएं हिंदी में लिखता रहा हूँ। लेकिन समय-समय पर अनायास ही कुछ कविताएं भोजपुरी में बनती रहीं। मुझे लगता है कि जो कविताएं मैंने भोजपुरी में लिखी हैं, वे भोजपुरी में ही लिखी जानी संभव थीं।

जिज्ञासा: आपने ‘कविता में काशी’ पुस्तक का संपादन किया है। इसमें रैदास, कबीर, तुलसी, भारतेंदु, केदारनाथ सिंह, गालिब, नजीर बनारसी आदि सहित लगभग पचास रचनाकारों की काशी पर कविताएं हैं। यह पुस्तक कहां तक काशी की स्थानीयता को बचाते हुए भारतीयता, मनुष्यता और सार्वभौमिकता को छू पाई है?

सदानंद शाही : बनारस प्राचीन नगरी है। यह प्राचीनता उसे रहस्यमय बनाती है। आसान नहीं है इस रहस्य को भेद पाना। जाने कब से कविताएं बनारस की ‘रहस्यमयी’ को भेदने की कोशिश करती रही हैं। प्रकट तौर पर देखें तो बनारस में दो बनारस हैं, एक जो केवल काग़ज़ की लेखी को प्रमाण मानता है और दूसरा वह जो काग़ज़ की लेखी को सिरे से ख़ारिज करता है। एक जो कर्मकांड में गहरे धंसा है, दूसरा जो अनुभव सत्य और अनभय सत्य पर यकीन करता है। एक, जिसके यहां मानवीय श्रम की अप्रतिष्ठा है, जबकि दूसरा श्रमजीविता को मान देने के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार है। एक का ब्रह्मास्त्र पाखंड है, दूसरे का प्रेम…! आपके हिस्से कौन-सा बनारस आता है- आपके विवेक पर निर्भर है।

 

हिंदी के चर्चित आलोचक-कवि श्रीप्रकाश शुक्ल का नवीनतम काव्य संग्रह ‘वाया नई सदी’ हमारे समय की ईमानदार अभिव्यक्ति का दस्तावेज है। 78 कविताओं का यह संग्रह जीवन की विभिन्न अवस्थाओं एवं घटनाओं के काव्यात्मक अनुभव से निर्मित है। श्रीप्रकाश शुक्ल हिंदी के सजग कवि हैं और कदाचित अपने विन्यास में कुछ अलग दिखते हैं। वे उत्तर-आधुनिक समय के बदलावों को अपनी कविता में टांकते हैं। नई सदी के संभावित खतरों के खिलाफ इनकी कविताएं प्रतिरोध की जमीन तैयार करते हुए पाठकों को बेचैन करने में सक्षम हैं। ‘यह कैसा समय’ कविता में कवि की चिंता प्रेम, विश्वास और जनतंत्र पर संकट को लेकर है। संवादहीनता के इस दौर में कवि उन लोगों की उपेक्षा से बेचैन है, जिन्होंने इस संसार को सुंदर बनाने का स्वप्न देखा था।

नई सदी बाहर से जितनी आकर्षक है, भीतर से उतनी अमानवीय और अलोकतांत्रिक है। पुरानी सदी में संवाद की गुंजाइश थी। आज के समय में चुप्पी और चापलूसी सभ्यता का गुण-धर्म है। ऐसे समय में कवि श्रीप्रकाश शुक्ल व्यवस्था के भीतर छिपे सच को बेपर्दा करते हैं- मित्रो यह कोई कविता नहीं है/ यह एक ऐसे परिसर का बयान है/जहां हमें सब कुछ को देखने की आजादी है/लेकिन बहुत कुछ को न बोलने की हिदायत है। यह एक चुप्पी का शोर है/कराहना जहां अपराध है/और उलाहना अवसरवाद।

आज मनुष्य सामाजिकता के अभाव में अवसाद से घिरता जा रहा है। इस तरह के सामाजिक सौहार्द  पर आघात नई सदी का सबसे डरावना चेहरा है। आज इतिहास के पुनरुत्थान  के नाम पर इतिहास को विकृत करने की कोशिश हो रही है, यह चिंताजनक है। दरअसल यह पिछली सदी के बने मानवीय मूल्यों पर हमला भी है। कवि की दृष्टि बड़ी सजगता के साथ इस नए बदलाव को चिह्नित करती है- चुप्पा जब बोलने लगे तो यकीन कीजिए सब महफूज हैं/लेकिन बोलता आदमी चुप हो जाए/तो समझिए कि इस व्यवस्था में/ तानाशाह का आगमन हो चुका है/ तानाशाह सीधे-सीधे वेश में नहीं आता/ वह हमारे मुँह से प्रवेश करता है और जीभ को चीरता हुआ/ अंतड़ियों में उतर आता है।

कवि श्रीप्रकाश शुक्ल अभिव्यक्ति के खतरे उठाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस संग्रह में संकलित ‘गाय’, ‘मुगलसराय वाया मंगल का सराय’, ‘वाया नई सदी’, ‘विकास’ आदि कविताओं में समकालीन यथार्थ की कई परतें खुलती हैं। हिंसा, इतिहास विहीनता, अनैतिकता, निजीकरण, सत्ता-उन्मुखी स्वकेंद्रिता, स्वार्थपरता आदि नई सदी के धर्म बनते जा रहे हैं। सांप्रदायिक प्रतीक का उभार भारत की सामासिक संस्कृति पर प्रहार है। इसी संदर्भ में मुगलसराय को कवि महज एक नाम नहीं, स्मृतियों की यात्रा मानता है।

इसके अलावा, ‘वाया नई सदी’ काव्य संग्रह में कोरोना महामारी से संबंधित कुछ कविताएं हैं, जो अपने समय की सबसे बड़ी विपदा को मानवीय संवेदनशीलता के साथ रेखांकित करती हैं। असहाय लोगों की बेबसी, पीड़ा एवं सेवा भाव के कई दृश्य आंखों के सामने तैरते हैं।

श्रीप्रकाश शुक्ल की ‘वाया नई सदी’ उदारीकरण और नई तकनीक के युग में इतिहास, स्थानीय लोक परंपरा और कई सार्वभौमिक प्रश्नों के बीच नए सिरे से मनुष्यता को  खोजने का उपक्रम है।

जिज्ञासा: कविता का मूल स्वर हमेशा से प्रतिरोध और मनुष्यता के स्पंदन से जुड़ा रहा है। ‘वाया नई सदी’ में संकलित कविताएं इस बिंदु पर अपने समय के प्रश्नों से कहां तक टकराती हैं?

श्रीप्रकाश शुक्ल:‘वाया नई सदी’ की ज्यादातर कविताएं अपने समय के प्रश्नों से टकराने की कोशिश हैं। इस संग्रह की कविताओं में नई सदी में सत्ता की आक्रामकता और अराजकता का प्रतिवाद है ही, उनमें निरंतर अमानवीय होते चरित्र की पहचान भी की गई है। इस संग्रह में कोरोना के पहले तथा कोरोना के दौर में लिखी कविताएं हैं। रोचक बात यह है कि कोरोना के दौर की सत्ता की चालाकी और जल्दबाजी को यहां पहचानने की कोशिश की गई है। संग्रह का सूत्र ही है-आपदा में अवसर नहीं, कोरोना में क्रिएशन! जो सत्ता के लिए अवसर था, वह हमारे लिए वह सृजन का विस्तार था। इससे एक व्यापक मानव समुदाय से हम कवियों के माध्यम से जुड़ सके।

जिज्ञासा : आपने एक जगह लिखा है, ‘लोकतंत्र के मुद्दे भुजा से नहीं/भाषा से तय होते हैं, आज लोकतंत्र में सत्ता, शक्ति और पूंजी के गठजोड़ का बोलबाला है। ऐसे में भाषा के द्वारा लोकतंत्र की बात करना कहां तक अर्थपूर्ण है?

श्रीप्रकाश शुक्ल: कविता झूठ की तमाम तहों के बीच एक रिसते हुए सच की तरह है। कोई व्यवस्था जब कई बार झूठ प्रचारित करती है, तब कविता उस झूठ को पूरी ताकत से छिन्न-भिन्न करती है। इस काम में भाषा उसका हथियार होती है। मेरे लिए कविता झूठ की गठरी में भाषा के भाले को चुभोने जैसी है। यह साहस केवल भाषा कर सकती है, क्योंकि इसके पास एक समुज्ज्वल पक्ष है। इसका मतलब है एक पारदर्शी विकारमुक्त भाषा। आज नई सदी में लोकतंत्र को इसी भाषा से बचाया जा सकता है। यह महज भाषा में लोकतंत्र को बचाना नहीं है, बल्कि भाषा द्वारा लोकतंत्र को बचाना है।

जिज्ञासा: आज हमारी संस्कृति पर हिंसात्मक छवियों से हमले हो रहे हैं। इसके बारे में आपको क्या कहना है?

श्रीप्रकाश शुक्ल: समाज में धर्म जब-जब हिंसक होता है, तब-तब सांस्कृतिक प्रतीक भी हिंसक बिंबों में बदलने लगते हैं। इसी का परिणाम है सामाजिक हिंसा। इससे सामाजिक संस्कृति का मजबूत रेशा दरकने लगता है, क्योंकि धार्मिक उन्माद अनिवार्यतः सामाजिक हिंसा में बदलने लगता है। इधर के वर्षों में राम, गाय, मंदिर, कांवरिये जैसे सांस्कृतिक प्रतीक हिंसक होते गए हैं, जिसका मतलब है इन प्रतीकों का शुद्धिकरण! यह जो शुद्धता की बात है, यहीं से इसपर कुछ लोगों का वर्चस्व  बढ़ता है। इससे एक व्यापक अशांति उत्पन्न होती है। प्रतीकों का ध्रुवीकरण बहुत खतरनाक मामला है, क्योंकि कई बार सुंदर तथा शिष्ट प्रतीक भी आक्रामक हो उठे हैं। ‘आदिपुरुष’ फ़िल्म इसी का शिकार है। हनुमान सबके न होकर कुछ के होने लगते हैं। ऐसा लगता है वे एक राजीनीतिक नारे को वैधता दे रहे हैं। गाय सबकी न होकर कुछ के वर्चस्व का आधार बन जाती है। नई सदी में ये प्रवृत्तियां बढ़ी हैं। आगे भी इनके बढ़ने का संकेत है। यह भारतीय समाज के लिए अशुभ है। हमारी बुनियादी चिंता यही है।

जिज्ञासा: आपने ‘केवल युद्ध’ कविता में लिखा है ‘यह एक सभ्य समाज की पशुता है।’ क्या आज विलोमों का ऐसा युग्म नई सदी में नैतिकता का क्षरण है?

श्रीप्रकाश शुक्ल: हम जिसे सभ्य समाज कहते हैं, वह पूंजी से जुड़कर गलाकाट स्पर्धा में इतना लीन है कि कुछ को सब कुछ चाहिए। यह एक खतरनाक लक्षण है। इससे विकसित समाज वर्चस्व के संघर्ष में उलझ जाता है। इसका सबसे अधिक नुकसान जनता को उठाना होता है। आज रूस तथा यूक्रेन में जिस तरह का संघर्ष है, वह भयानक है। इसका असर पूरी दुनिया पर है, जबकि हम जानते हैं कि यह दो व्यक्तियों का संघर्ष है। असल में सभ्य होते समाज में सामूहिकता का प्रतिनिधित्व जब सत्ता के शीर्ष में बैठे व्यक्ति करने लगते हैं, तब एक निरंकुश स्थिति पैदा होती है। इसमें दो व्यक्तियों का अहंकार पूरे मानव समुदाय पर भारी पड़ने लगता है। संदर्भित कविता में यही दर्ज है।

जिज्ञासा: इस संग्रह की अधिकांश कविताएं नई चुनौतियों से सीधे मुठभेड़ करती हुई नई सदी को सुंदर बनाने के स्वप्न पर खड़ी हैं। क्या मूल्य क्षरण के इस वर्तमान में यह संभव है?

श्रीप्रकाश शुक्ल: मेरे लिए कविता खुद को जीवन की गति तथा लय में बनाए रखने का माध्यम  है। मैं मानता हूँ कि जहां-जहां गति है, वहां-वहां कविता है। बस उसे संदर्भ देना है। मूल्य क्षरण के वर्तमान दौर में इस गति की पहचान जरूरी है, क्योंकि गति में हमेशा एक लय होती है। वह हमें विलीन नहीं करती, बल्कि लोकमन में तल्लीन करती है। गति की तल्लीनता को समझने की कोशिश में मैं कविताएं लिखता हूँ और कविता में अपने स्वप्न को बचाता हूँ।

यह भी सच है कि कविता हमेशा भाषा की उम्मीदों में जीवित रहती है। ये उम्मीदें समाज को शक्ति और दिशा देती हैं। आज मूल्य क्षरण के दौर में समाज को सुंदर बनाने के स्वप्न को जीवित रखना नागरिक समाज का एक बड़ा दायित्व है। कविता इसी समाज का एक हिस्सा है।

नई सदी में कविता की भूमिका ज्यादा चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि समाज में जब-जब आत्मसंकोच होता है, तब-तब आत्म गौरव का भाव जगाने के लिए कविता आगे आती है। मेरे लिए आज कविता की यही भूमिका है।

मैं बार-बार महसूस करता हूँ कि जिस ईश्वर की देन यह सृष्टि है, उसके पास सिर्फ एक भाषा है,  जबकि कवि के पास सबकी भाषा है। वह अपने परिवेश के साथ समाज को भी भाषा देता है, जिसमें उसके स्वप्न पलते हैं। इसलिए कवि बुनियादी रूप में बहुभाषिक है। इसी कारण वह मूल्यों का सजग रक्षक है।

 

धरा का स्वप्न हरा हैयुवा कवि अरुण आदित्य का नवीनतम काव्य संग्रह है। कवि को धरती की हरियाली के लिए स्वप्न देखना सुखद लगता है। आज जब पर्यावरण पर संकट गहराता जा रहा है, कवि मानव भविष्य को सुंदर बनाने का सपना देखता है। कवि की आस्था प्रकृति की विराटता एवं उदात्तता में है। ‘डायरी में बारिश’ कविता में वे बारिश का एक कोलाज बनाते हैं जहां प्रेम, स्मृति, बेचैनी और स्वप्न के कई चित्र हैं। इस संग्रह को पढ़ते हुए लगा कि कवि के लिए प्रकृति और प्रेम एक आश्वस्ति है- एक ठूँठ के नीचे दो पल के लिए रुके थे/फूल-पत्तों से लदकर झूमने लगा ठूँठ/अरसे से सूखी नदी के तट पर बैठे ही थे कि नहरें उछल-उछल कर मचाने लगीं शोर।

‘चांदनी रात में लांग ड्राइव’ में कवि को चांद का साथ प्रीतिकर लगता है। आज जब लोग प्राकृतिक छटा और सौंदर्य को महज ‘क्लिक’ करने की वस्तु मानने लगे हों, तब कवि चांद के साथ बतियाता है, उसका साहचर्य प्राप्त करता है और उसके साथ वक्त बिताना चाहता है। यहां चांद महज सौंदर्यबोध नहीं है, बल्कि कवि का साथी है। वह प्रकृति और मनुष्य के आदिम राग प्रेम से भरा जीवन देखता है।

आधुनिक मनुष्य यांत्रिकता और सुखवाद के बीच फंसकर रह गया है। शोर के बीच पेड़, नदी, पक्षी कहीं दूर छूटते जा रहे हैं। कवि सामाजिक एवं पर्यावरणीय परिवेश के बीच दूरी से व्यथित है, जिन्हें नहीं सुनाई देती/पेड़ के पत्ते से टूटकर गिरने की आवाज/जिनके कानों तक नहीं पहुंच पा रही/नदियों की डूबती लहरों से आती/बचाओ, बचाओ की कातर पुकार/जिन्हें नहीं चकित करती/अभी-अभी जन्मे गौरैया के बच्चे की चीं-चीं चूं-चूं।

‘पहाड़’ में पहाड़ सहृदय, परोपकारी और जीवनदायक के रूप में उपस्थित है। वह दृढ़ता का बिंब बनकर अपने सीने पर बर्फ की जमी कठोरता को द्रवित कर नदियों को सींचता है। उसका गलना नदियों को जीवन देना है। इस संग्रह में ‘युद्ध-भूमि’ शीर्षक से तीन कविताएं संकलित हैं, जिनमें एक सैनिक की बेबसी है और परिवार के भरण-पोषण के उसके सपने हैं। कोई सैनिक युद्ध नहीं चाहता। कवि युद्ध के पीछे की एक बड़ी सचाई की ओर भी पाठकों का ध्यान खींचता है- देश के लिए लड़ रहा हूँ यह हकीकत है लेकिन/कैसे कह दूं कि उनके लिए नहीं लड़ रहा मैं/जो मेरी जीत-हार की बिसात पर खेल रहे सियासत की शतरंज।

इस संग्रह में ‘बीसवीं सदी’ शीर्षक से कुल पांच कविताएं हैं। इनमें प्रकृति और पर्यावरण पर बढ़ते संकट के अलावा महंगाई, बेरोजगारी, आत्ममुग्धता, असहिष्णुता, इतिहास-विस्मृति परमाणु परीक्षण आदि प्रश्न उठे हैं। इतिहास-विस्मृति के कारण ही यह सदी मानव-विरोधी एवं यांत्रिक होती जा रही है। बुद्ध को शस्त्र से जोड़ना दुर्भाग्यजनक है। कवि प्रतिवाद करता है, बुद्ध मुस्कुरा उठे/कहा गया परमाणु विस्फोट के तत्काल बाद/अपनी लहूलुहान आत्मा का दर्द भूल/इस उलटबांसी पर व्यंग्य से जरूर मुस्कराए होंगे बुद्ध।

जिज्ञासा: इस पुस्तक का शीर्षक ‘धरा का स्वप्न हरा है’ रखा है। क्या सोच कर रखा है?

अरुण आदित्य: ग्लोबल वार्मिंग के भयावह दौर में खुद को हरा भरा देखना ही धरती का सबसे बड़ा स्वप्न हो सकता है। यह शीर्षक इस संग्रह की एक कविता शृंखला ‘डायरी में बारिश’ की अंतिम कविता की एक पंक्ति से लिया गया है। कविता इस प्रकार है – ‘रात भर मेघ झरा है/धरा का स्वप्न हरा है’।

जिज्ञासा: आपने बारिश, चांदनी, पहाड़, नदी, फूल जैसे प्राकृतिक बिंबों को चुना है और ‘आक्सीजन’ जैसी कविता भी है। आपका क्या उद्देश्य है?

अरुण आदित्य: बारिश, चांदनी, पहाड़, नदी, फूल, ऑक्सीजन आदि सब प्रकृति के ही अवयव हैं। ऑक्सीजन तो सबसे जरूरी अवयव है। मैंने बिंब जरूर प्रकृति से लिए हैं, लेकिन वे राजनीतिक-सामाजिक संदर्भ को भी उजागर करते हैं। मसलन फूल और हवा के बहाने सहकार, सह-अस्तित्व, सहिष्णुता और समन्वय की बात है। इस तरह कविता की कई परतें हैं।

कोरोना काल में अस्पतालों में ऑक्सीजन का भयावह  संकट चल रहा था। कई बिडंबनाओं के बीच इस कविता का जन्म हुआ। पाठकों के ध्यानार्थ कुछ पंक्तियां- ‘बूढ़े हांफ रहे थे लगातार/रह-रहकर हांफ रहे थे नौजवान/हांफ रहा था महिलाओं का हौसला/हांफ रही थी बच्चों की मुस्कान’।

जिज्ञासा:‘बीसवीं सदी’ की काव्य शृंखला में मनुष्य, गांधी और बुद्ध की बात कही गई है। आज ये तीनों कहां खड़े हैं?

अरुण आदित्य: इसमें मनुष्यता की पड़ताल है। मेरा मानना है कि बीसवीं सदी में आदमकद मनुष्य सिर्फ गांधी थे। बुद्ध का जिक्र पोखरण परमाणु विस्फोट के संदर्भ में है। अहिंसा के सबसे बड़े प्रतीक को इस विस्फोट से जोड़ना कितनी बड़ी विसंगति है। 21वीं सदी की कविताएं ऐसी ही विसंगतियों को रेखांकित करती हैं।

जिज्ञासा: वर्तमान समय में लेखक और कलाकार कहां तक पद, प्रतिष्ठा और पुरस्कार के लोभ से समझौता करने से खुद को बचा पा रहे हैं?

अरुण आदित्य:‘सपने में पाश’ कविता में यह बात है। इसमें साहित्यिक उत्सवों की बाढ़ में कवि के सरोकारों के बह जाने की व्यथा है। समय-समय पर साहित्यिक उत्सव होने चाहिए, लेकिन सामाजिक सरोकारों के लिए संघर्ष भी तो चाहिए। साहित्यिक उत्सव बाजार का औजार है, लेकिन आज बाजार से अछूता क्या है! लेखक को देखना होगा कि बाजार उसका कितना इस्तेमाल कर रहा है और वह खुद अपने सरोकारों के लिए बाजार का कितना लाभ उठा पा रहा है। पद, प्रतिष्ठा और  पुरस्कार का लोभ किसी भी रचनाकार की अंतरात्मा को मार देता है।

 

नए हस्ताक्षरआदिवासी जीवन-केंद्रिक लेखन से जुड़ीं आलोका कुजूर का पहला काव्य संग्रह है। इस संग्रह की कविताएं आदिवासी समाज की लोकभाषाओं के शब्दों को लेकर रची गई हैं। नागपुरी, कुडूख, मुंडारी भाषा के अनेकों शब्दों से गुंथीं कविताएं आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन के लिए संघर्ष से जुड़ी हैं। उनका समाज औद्योगिक विकास के नाम पर हो रही लूट के कारण छिन्न-भिन्न हो रहा है।

इस संग्रह में आदिवासी समाज का आख्यान है। आलोका कुजूर प्रतिरोध की अपनी प्रेरणा स्मृतियों और अपने सांस्कृतिक नायकों से ग्रहण करती हैं। एक समय बिरसा मुंडा, दुर्गावती, हीरामणि, महेंद्र सिंह आदि आदिवासी नायकों ने अपने समाज, संस्कृति और संसाधनों पर हुए आक्रमणों का जवाब दिया था। आज आदिवासी समाज को धर्म, पद का प्रलोभन, मुआवजा आदि के नाम पर बांटा जा रहा है। कवयित्री को इस बात की चिंता है कि उसके समाज के कई भाई कॉरपोरेट घरानों एवं राजनेताओं के झांसे में आकर अपने स्वार्थ के लिए बिरसा के संघर्ष को भूलते जा रहे हैं- कैसे करेंगे याद बिरसा आबा को/हो गई खत्म धार/आबा पूछेंगे/ देना होगा हिसाब/जिसने उलगुलान का सौदा किया/जिसने बिरसा आबा के क्रम का/सौदा किया।

कवयित्री ने आदिवासी समाज की राजनीतिक विडंबना और समस्याओं को विवेकसंगत ढंग से देखने का प्रयास किया है। इस संग्रह की कविताएं इतिहास से कटी नहीं, बल्कि बंधी हैं। कवयित्री इतिहास और संस्कृति के बीच श्रमिक, स्त्री और विस्थापन के प्रश्नों को भी उठाती हैं। हजारों वर्षों के इतिहास के साथ जंगलों में जीने वाली पुराजातियां आज हाशिए पर खड़ी हैं। विकास के नाम पर उनका विस्थापन पीड़ादायक है, शोषक सपने दिखाते हैं/ विकास के धूल उड़ाते हैं।

इस कविता संग्रह में आदिवासी स्त्रियों के जीवन के कई चित्र हैं, जिनमें आदिवासी स्त्रियों के श्रम और दैहिक शोषण की बात कही गई है। ‘कमसिन बनी श्रमशील’ कविता में तमाम सुविधाओं से वंचित एक युवती की आजादी के चूर-चूर सपने  हैं। इसके समानांतर ‘नए हस्ताक्षर’ कविता में एक सबल स्त्री है- अपने सृजन को/शब्दों से बदल/नए युग में/विचारों को जोड़ा/…जीवन की कसौटी पर/खड़े किए/नए हस्ताक्षर।

‘नए हस्ताक्षर’ से गुजरते हुए लगा कि आलोका कुजूर एक संभावनाशील कवयित्री ही नहीं सामाजिक आंदोलनों से जुड़ी सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। इस संग्रह की कविताएं एक ईमानदार अभिव्यक्ति के साथ आई हैं। भाषागत अनगढ़ता के बीच इस संग्रह की कविताएं हमारी संवेदना को झकझोरती हैं।

जिज्ञासा: औद्योगिक विकास और आधुनिक विमर्शों के इस दौर में क्या आदिवासी विमर्श को साहित्य और समाज में पर्याप्त ‘स्पेस’ मिल रहा है?

आलोका कुजूर: आदिवासी-विमर्श समय की मांग है। इसे औद्योगिक विकास और आधुनिक विमर्शों के इस दौर में पर्याप्त महत्व और स्पेस मिला है। आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक और सामाजिक विशेषताओं को समझने और शोध के साथ रचनाओं पर बहस जारी है। उनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए विशेष उपाय किए जा रहे हैं। लेकिन अपने राज्य में पर्याप्त स्पेस मिलना बाकी है। इस दौर में अक्सर इस विमर्श को कभी नगण्य और कभी महत्वपूर्ण माना जाता रहा है। कुछ साहित्यिक मंच इसे सिर्फ एक ‘अवसरवादी’ मुद्दा  मानते हैं। आदिवासी विमर्श का महत्वपूर्ण पहलुओं के साथ सफ़र जारी है। यह हमारे समाज की समृद्धि और समरसता के लिए आवश्यक है, ताकि हर व्यक्ति के अधिकार और गरिमा की प्रतिष्ठा हो।

जिज्ञासा: इस संग्रह में आपको स्त्री लेखन के नए हस्ताक्षर के तौर पर देखना कहां तक उचित है?

आलोका कुजूर: मैं एक स्त्री रचनाकार हूँ। स्त्रीवादी दृष्टिकोण के आधार पर कह सकती हूँ कि संग्रह में स्त्री नजरिए से भी लिखी गई कविताएँ हैं। अधिकतर कविताएं जमीन से जुड़ी हुई हैं। जल-जंगल के सवाल के साथ जो संघर्ष चले हैं, उन्हें स्त्री के नजरिए से रखा गया है। इस संग्रह में खुद के लेखन का स्त्री दृष्टिकोण से भी विस्तार है। बदलते युग में स्त्री को पढ़ना, उसका प्रकाशित होना सुखद है और चैलेंज भी है।

जिज्ञासा: आपने आदिवासी संस्कृति के किन प्रतीकों को मुख्य रूप से चुना है?

आलोका कुजूर: मैंने आदिवासी नायकों के साथ धरोहरी पहाड़ को चुना है। यह पहाड़ संस्कृति उनकी पहचान का प्रतीक है और उनकी संस्कृति की प्रतिष्ठा को दर्शाती है। आदिवासी नायक अपने परंपरागत गीतों में पहाड़ों को अपने से जोड़ते हैं, और अपने व्यक्तित्व और सम्मान का प्रतीक मानते हैं। ये पहाड़ गांव की सीमा भी तय करते हैं।

दूसरे प्रतीक के रूप में आदिवासी संघर्ष के साथ जल-जंगल-जमीन को बचाने वाले पूर्वज हैं, जो आदिवासी राजनीति और सामाजिक जीवन का बड़ा महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

एक प्रतीकात्मक आदिवासी कला खजूर की चटाई है। आदिवासी शिल्प उनकी कारीगरी, सौंदर्य और समृद्धि का प्रतीक है। इन प्रतीकों को चुनने का मुख्य उद्देश्य यह है कि हम आदिवासी संस्कृति को समझें, मान्यताओं को सम्मान दें और साझा करें।

जिज्ञासा: आदिवासी स्त्रियों के श्रम और शोषण की घटनाओं ने आपके लेखन को कहां तक प्रभावित किया है?

आलोका कुजूर: आदिवासी स्त्रियों के जीवन ने मेरे लेखन को गहराई से प्रभावित किया है। उनके श्रम और शोषण की घटनाओं ने मेरे लेखन को सामाजिक न्याय और मानवीय अधिकारों के प्रति जागरूक बनाया है। मैं उनकी आवाज को फैलाने के लिए अपने लेखों में आदिवासी संगठनों की गतिविधियों, समारोहों और आंदोलनों की रिपोर्टिंग करती हूँ और उनकी मांगों को साझा करती हूँ। आदिवासी स्त्रियों के शोषण की घटनाएं मेरे लेखन को समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी प्रभावित करती हैं।

मेरे लेखन का मकसद है उनकी आवाज को सुनना, उनकी कठिनाइयों को समझना और उनके साथ मिलकर उन्हें न्याय दिलाने के लिए लड़ाई लड़ना। यह सब लेखन को एक सकारात्मक और प्रभावशाली दिशा देता है, जिससे समाज में उनके अधिकारों का पुनर्स्थापन हो सके और विशेषतः आदिवासी नारीवाद, नारी सशक्तिकरण को बढ़ावा मिल सके।

जिज्ञासा: इस संग्रह की एक कविता में एक जगह मार्क्सवाद को लेकर आस्था है तो दूसरी कविता में संदेह। इस बारे में कुछ बताइए।

आलोका कुजूर: दोनों कविताओं में मार्क्सवादी विचारों की प्रशंसा और उनके प्रति संदेह का व्यक्तिगत अनुभव है। यह विरोधाभास सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों के संबंध में हमारे समाज में मौजूद है। जो कविता मार्क्सवादी विचारधारा की प्रशंसा करती है वह एक आदर्श बताती है और न्याय की बात करती है। जहां संदेह है, वहां कविता कुछ सवालों को प्रकट करती है, जो मार्क्सवाद के प्रति जनता के मन में हो सकते हैं। यह प्रश्न पूछने की महत्ता को उजागर करती है। यह काम सिद्धांतों को अधिक मजबूत तथा सही बनाने में मदद करता है। मैंने विरोधाभास बनाए रखना चाहा जो वास्तविक है।

 

समीक्षित पुस्तकें
(1) माटी पानी, सदानंद शाही, लोकायत प्रकाशन, 2018
(2) वाया नई सदी, श्रीप्रकाश शुक्ल, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2022
(3) धरा का स्वप्न हरा है, अरुण आदित्य, आधार प्रकाशन, 2023
(4) नये हस्ताक्षर, आलोका कुजूर, अनुज्ञा बुक्स, 2020

1, राम कमल रोड, पोस्ट-गरिफा, पिन-743166, उत्तर 24 परगना (प.बं.) मो.9331075884