कवि, समीक्षक और संस्कृति कर्मी।विद्यासागर विश्वविद्यालय, मेदिनीपुर में सहायक प्रोफेसर।
आज जब चारों ओर संवाद की जगह शोर बढ़ता जा रहा है, हम संवाद के ढांचे को समावेशी और विवेकपरक बनाने की बेचैनी हिंदी आलोचना में देख सकते हैं।इन दिनों इतिहास के पुनर्लेखन के नाम पर बहुलतावादी संस्कृति दरकिनार है और सांस्कृतिक एकरूपता का ‘कन्सेप्ट’ गढ़ा जा रहा है।जबकि किसी राष्ट्र या देश के बनने में कई युगों के मूल्यों की भूमिका होती है।इतिहास की गहरी समझ से ही हम एक मानवीय परिसर बना पाते हैं।जब कोई समाज के इतिहास और संस्कृतियों से कटने लगता है और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का शिकार होने लगता है तो वह जातीय-विस्मृति का शिकार होकर अपनी मानवीय जड़ों से उखड़ने लगता है।ऐसे में जब कोई आलोचक भारतीय संस्कृति के वैशिष्ट्य, समग्र इतिहास और एक उदार आत्मपहचान के साथ आता है, तब वह हमें संकीर्ण सामंती यथास्थिति से टकराने का आलोचनात्मक विवेक प्रदान करता है।
हाल में प्रकाशित वरिष्ठ आलोचक विजय बहादुर सिंह एवं राधावल्लभ त्रिपाठी की पुस्तक ‘संस्कृति के प्रश्न और रामविलास शर्मा’, आलोचक गोपेश्वर सिंह की ‘आलोचक का आत्मावलोकन’ और अनुराधा सिंह द्वारा संपादित ‘आदिवासी इतिहास और संस्कृति’ को पढ़ते हुए लगा कि इन पुस्तकों में भारतीय परंपराओं के साथ वर्तमान का सघन संवाद है।इन पुस्तकों में लेखकीय प्रतिबद्धता के अलावा भारतीय संस्कृति और इतिहास-बोध के प्रति एक सम्यक आलोचनात्मक दृष्टि है।इससे लगता है कि आधुनिक विषयों के बीच लोकतंत्र एवं मानवीय मूल्यों का सफर जारी है।
संपादित पुस्तक ‘संस्कृति के प्रश्न और रामविलास शर्मा’ में चिंतक-कवि रामविलास शर्मा की वैचारिकी को खोलने की कोशिश है।इस पुस्तक के संपादकों ने एक स्वर में यह स्वीकार किया है कि रामविलास शर्मा भारतीय समाज, संस्कृति और परंपरा के एक बड़े भाष्यकार हैं।वे अपनी रचनाओं में भारतीय ज्ञान परंपरा के व्यापक फलक पर आधुनिक युग के प्रश्नों के साथ संवाद करते हैं।इन दिनों जब असहमति को शत्रुता या विरोध का पर्याय मान लिया जाता है, एक मार्क्सवादी चिंतक भारतीय दर्शन, साहित्य और संस्कृति को विषय बनाता है।
इस पुस्तक में रामविलास शर्मा को एक संवेदनशील कवि के तौर पर भी विवेचित किया गया है।उनका कवि मन आवेगों में खो जाने के बजाय तार्किक ढंग से मानव विरोधी घटनाओं को संदेह से देखता है।पुस्तक में रामविलास शर्मा के कवि कर्म पर उनके पुत्र विजय मोहन शर्मा के अलावा कृष्णदत्त शर्मा एवं रवि रंजन ने विस्तार से लिखा है।
रामविलास शर्मा की अधिकांश कविताएं ग्रामीण एवं प्राकृतिक दृश्यों से निर्मित हैं।वे एक ओर अपने क्षेत्र की कथाओं में आकार पाती हैं तो दूसरी ओर औपनिवेशिक शासन और सामंती व्यवस्था का प्रखर विरोध करती हैं।रामविलास शर्मा कविता में चित्र के साथ संगीत (ध्वनि-पक्ष) को भी जरूरी मानते थे।वे तुलसीदास, शेक्सपियर और निराला की कविताओं के विशेष संदर्भ में संगीत के महत्व को रेखांकित करते हैं।
रामविलास शर्मा की ख्याति भले एक आलोचक के तौर पर रही है, परंतु इस पुस्तक में हम देख सकते हैं कि वे स्वीकारते हैं- ‘कला की विषयवस्तु न वेदांतियों का ब्रह्म है, न हेगेल का निरपेक्ष विचार।मनुष्य का इंद्रियबोध, उसके भाव, उसका सौंदर्यबोध कला की विषयवस्तु है।’
इस पुस्तक में रामविलास शर्मा के काव्यसंग्रह- ‘रूपतरंग और प्रगतिशील कविता की वैचारिक पृष्ठभूमि’ और ‘सदियों के सोये जाग उठे’ कविता संग्रह में संकलित कविताओं और वैचारिक लेखों पर चर्चा हुई है।इन संग्रहों में ठेठ स्थानीयता के साथ पूरे भारत के संबंध में सोच है, ‘बचपन गांव के खेतों में बीता है और वह संपर्क रथ नहीं छूटा।… मैं साधारणतः छह घंटे काम करूँ तो खेतों के बीच में रह कर दस घंटे कर सकता हूँ।हिंदुस्तान के जिस गांव पर भी सांझ की सुनहली धूप पड़ती है, वह अपने गांव जैसा ही लगता है।’ वे बार-बार पूंजीवादी परिसर के झूठ को अनावृत करते हैं- ‘पूंजीवादी व्यवस्था श्रमिक जनता का आर्थिक रूप से ही शोषण नहीं करती, वह उसके सौंदर्य-बोध को कुंठित करती है, उसके जीवन को घृणित और कुरूप भी बनाती है।फूलों- फव्वारों से सजे हुए बाग-बगीचे पूंजीपतियों और उनकी रखैलों के लिए हैं, मजदूरों के लिए गंदी बस्तियों की तंग कोठरियां हैं, समाजवाद का उद्देश्य शहर और गांव का भेद मिटाना है।’
इस पुस्तक में रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि, उनकी भाषा और इतिहास संबंधी धारणाओं, संस्कृत काव्यधारा, प्राचीन भारतीय संस्कृति, साम्राज्यवादी षड्यंत्र, उपनिवेशवादी समझ और अर्थशास्त्रीय चिंतन, प्रेमचंद का साहित्य, हिंदी नवजागरण संबंधी मान्यताओं पर लेखों के अलावा केदारनाथ अग्रवाल, विजय बहादुर सिंह और श्रीराम सिंह का संवाद शामिल किया गया है।उपर्युक्त लेखों से गुजरते हुए ऐसा लगा कि संपादकद्वय प्राचीन इतिहास, संस्कृति, काव्य परंपरा के साथ आधुनिक समय की घटनाओं के बीच एक आलोचनात्मक संबंध स्थापित करना चाहते हैं।रामविलास जी लिखते हैं- ‘सामान्यतः सामाजिक इतिहास को सांस्कृतिक इतिहास से अलग रखा जाता है, जबकि हमारी संस्कृति हमारे सामाजिक जीवन को प्रभावित करती है।हमारा इतिहास बोध हमारी संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है।’ इस संपादित पुस्तक में इस संबंध को विशेष रूप से ध्यान में रखा गया है।
दरअसल रामविलास शर्मा आलोचना में इतिहास और संस्कृति को ज्यादा महत्व देते हैं।उनका मानना है कि इतिहासविहीन संस्कृति में पहचान का संकट और संस्कृतिविहीन इतिहास में अराजकता और कट्टरता का आख्यान होता है।इस पुस्तक में विजय बहादुर सिंह और राधावल्लभ त्रिपाठी द्वारा यह संकेत दिया गया है कि रामविलास शर्मा हिंदी आलोचना के एक ऐसे जातीय आलोचक हैं, जिन्होंने साहित्य, कला, संस्कृति और समकालीन इतिहास और राजनीति में लंबे समय से चली आ रही यूरोप-केंद्रित विमर्श को चुनौती दी।वे भारतीय इतिहास, संस्कृति, भाषा, राजनीति आदि के प्रश्नों पर पश्चिमी मान्यताओं को तार्किक ढंग से चुनौती देते हैं।हिंदी की जातीयता और भारत की अस्मिता को पुनःपरिभाषित करते हुए वे नवजागरण की अवधारणा को विस्तार प्रदान करते हैं।
यही वजह है कि रामविलास शर्मा भारतीय ज्ञान परंपरा में प्रगतिशीलता को चिह्नित करते हैं।इस पुस्तक में इस बात की पुष्टि की गई है कि ‘रामविलास शर्मा अतीत में जाकर किस तरह भारतीय संस्कृति के अध्ययन और रुढ़िवादी अध्ययन में बिछाई गई विस्फोटक सुरंगों को बौद्धिक रूप से निष्क्रिय करते हैं।वे बड़ी समझदारी के साथ वैदिक और औपनिषदिक सर्वात्मवाद तथा योरोप के रोमांटिक कवियों के सर्वात्मवाद-दोनों को उनके अनोखेपन में पहचान लेते हैं।’
रामविलास शर्मा जी ने जोखिम उठाकर एक बड़ा काम जो हिंदी के वैचारिक जगत में किया वह था- यूरोपकेंद्रित विमर्श का अपदस्थीकरण।उन्होंने साहित्य, कला, संस्कृति और समकालीन इतिहास तथा राजनीति में यूरोपकेंद्रित विमर्श को विखंडित करके हमें आत्म में प्रतिष्ठित करने का अद्भुत जतन किया।यह एक चुनौती भरा कार्य था।शर्मा जी के पहले स्वामी दयानंद और महामहोपाध्याय मधुसूदन ओझा औपनिवेशिक साम्राज्यवाद तथा भारतविद्या के अंतर्गत किए जा रहे यूरोपकेंद्रित विमर्श की धज्जियां उड़ाने का काम करते रहे थे।रामविलास शर्मा ने इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा जोखिम उठाए।उन्होंने औपनिवेशिक मान्यता के द्वारा खड़ी की गई उन निर्मितियों के ढांचे भी ढहा दिए, जो तथाकथित पढ़े-लिखे भद्र समाज में ही नहीं, परंपराओं को पोसने वाले भारतीय मानस में भी बद्धमूल हो गई थीं।
(विजय बहादुर सिंह और राधावल्लभ त्रिपाठी की भूमिका से)
आलोचक गोपेश्वर सिंह की नवीनतम पुस्तक ‘आलोचक का आत्मावलोकन’ उनके लेखों और टिप्पणियों का संग्रह है।इस पुस्तक में आलोचक के बाह्य जगत से संबंध को जरूरी मानते हुए आलोचक के ‘आत्म’ को रख कर देने की बात की गई है।मोटे तौर पर हम देखते हैं कि सृजनात्मक साहित्य में जितनी भूमिका विचार की होती है, उससे कम अनुभव की नहीं होती।जबकि आलोचना में विद्वता के अलावा आलोचनात्मक विवेक और तटस्थता आलोचक के लिए अपेक्षित है।इस पुस्तक में गोपेश्वर सिंह ने आलोचना के परिसर में आत्मीयता और विवेक को साथ रखने की बात कही है।
गोपेश्वर सिंह आलोचक के संदर्भ में ‘आत्मावलोकन’ को जरूरी मानते हैं।उनका मानना है कि आत्मावलोकन की प्रक्रिया से जुड़ने के बाद आलोचक स्वयं को विचारधारा की कसावट से थोड़ा स्वतंत्र हो जाता है।वह अपने विवेक के अलावा संवेदना के लिए भी थोड़ी जगह बनाता है।इतना ही नहीं, वह विचारधारा के परिसर से बाहर भी देख पाता है।गोपेश्वर सिंह कबीर और मुक्तिबोध के जरिए अपनी बात स्पष्ट करते हैं।कबीर ने कहा है-—‘आत्म ज्ञान बिना सब सूना, क्या मथुरा क्या कासी।’ ऐसे में कहा जा सकता है कि आत्मज्ञान के लिए आत्मावलोकन बहुत जरूरी है।आत्मावलोकन के बिना हम परलोकन नहीं कर सकते।इस पुस्तक में इस बात की पुष्टि करते हुए गोपेश्वर सिंह लिखते हैं-—‘आधुनिक युग में मुक्तिबोध अंतःकरण की जरूरत पर बल देने वाले सबसे बड़े कवि हैं।विचारधारा के साथ आत्मावलोकन पर उनके यहां जोर सबसे अधिक है।यही कारण है कि वे अन्य मार्क्सवादी कवियों से अलग हैं और अंतरात्मा/अंतःकरण की ओर बार-बार लौटते हैं।
इस पुस्तक के दो खंड हैं।पहले में आजादी के बाद की हिंदी कविता, रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि, नलिन विलोचन शर्मा की इतिहास-दृष्टि और उनके महत्व पर लिखा गया है।इसके अलावा रेणु के कथा साहित्य, विजयदेव नारायण साही की कविता एवं उनके आलोचना-कर्म पर, नामवर सिंह पर, आधुनिक कविता के प्रमुख आलोचक के रूप में नंदकिशोर नवल, अशोक वाजपेयी की सृजनात्मक आलोचना, वर्तमान आलोचना और छायावाद की अर्थवत्ता आदि विषयों पर भी विस्तार से चर्चा की गई है।
गोपेश्वर सिंह ने परंपरा, इतिहास, आधुनिक मूल्यों, प्रगतिशील विचारों के बीच संबंध स्थापित करते हुए आलोचकीय दायित्व को विस्तृत करने का काम किया है।ऐसा करने के क्रम में वे कई बार ‘मध्यस्थता’ करते नजर आते हैं।उनका मानस लोक से भी जुड़ा हुआ है।
इस पुस्तक के पहले खंड में यदि वैचारिकी की प्रधानता है तो दूसरे खंड में विचार के साथ संवेदना की।वे ‘रामकथा का बहुवचनात्मक पाठ’ तैयार करते हैं।इसका सीधा अर्थ है कि वे भारत की बहुलतावादी संस्कृति के बीच हिंदी आलोचना की जमीन निर्मित करते हैं, जहां राम का ‘एक’ नहीं ‘बहु’ पाठ है।यहां आलोचक आत्मावलोकन करते हुए बहुप्रचलित कथाओं के आधार पर राम की स्वीकार्यता को स्थापित करता है।
इस पुस्तक में भीमराव अंबेडकर की विचार-यात्रा की भी पड़ताल की गई है।गोपेश्वर सिंह की प्रतिबद्धता निश्चित तौर पर हाशिए के लोगों की पहचान, उनके अधिकार और संघर्ष से जुड़ी है।वे अंबेडकर की वैचारिक यात्रा के विभिन्न पड़ावों पर उनकी वंचित वर्ग की चिंता को स्पर्श करते हैं।गोपेश्वर सिंह ने ‘तुम ही से मोहब्बत, तुम ही से लड़ाई’ लेख में नंदकिशोर नवल का पुण्य स्मरण करते हुए उनके जीवन पर एक आत्मीय एवं अर्थपूर्ण संस्मरण लिखा है।इस पुस्तक में रेणु, राजकिशोर, पंकज सिंह, साहित्य और सिनेमा, लोकजागरण, हिंदी में शोध की स्थिति, हिंदी आलोचना के नैतिक पक्ष एवं जानकी वल्लभ शास्त्री, नीरज कुमार मिश्र, रेवती रमण से बातचीत को शामिल किया गया है।आत्मावलोकन के कारण लेखक विचारधारा की बंधी-बंधाई सीमाओं से ऊपर उठ पाता है और आलोचना के फ्रेम में मुक्त होकर थोड़ा आसपास भी झांक पाता है।
हालांकि हमें यह भी देखने की जरूरत है कि ‘आत्म’ की बहुरूपता कहीं आलोचना की आत्मा को मार न दे।आलोचना में ‘आत्म’ की प्रतिष्ठा करते समय हमें आई. ए. रिचर्ड्स की इस बात को ध्यान में रखने की जरूरत है, जहां वे ‘आत्म’ की अति प्रतिष्ठा को मानसिक अराजकता की संभावना के रूप में देखते हैं।हालांकि इस पुस्तक में आलोचक गोपेश्वर सिंह अपने समय के प्रश्नों का हल सिर्फ बौद्धिक धरातल पर नहीं, आत्मीय धरातल पर भी करने का प्रयास करते हैं।
जिज्ञासा – साहित्य को वैचारिक प्रतिबद्धता से जोड़कर देखा जाता है।ऐसे में आत्मावलोकन से लेखकीय प्रतिबद्धता का निर्वहन कहां तक संभव है?
गोपेश्वर सिंह – साहित्य में विचार जरूरी है, आत्यंतिक रूप से विचारधारा नहीं।दूसरे शब्दों में, साहित्य के लिए ‘दृष्टि’ जरूरी है, ‘दृष्टिकोण’ नहीं।विचारधारा सोच-विचार की एक सरणी है।उससे प्रतिबद्धता सृजनात्मकता के मार्ग में बाधक हो सकती है।इसके अलावा, विचारधारा का संबंध राजनीतिक मतवाद से है।लेखक जब राजनीतिक मतवाद का आग्रही हो जाएगा तो उसका लिखा हुआ साहित्य पार्टी लाइन से प्रभावित होगा।लेखक के लिए अपने समय की राजनीति का बारीक ज्ञान जरूरी है, लेकिन उस ज्ञान का आत्मपरीक्षण भी जरूरी है।यह काम सभी बड़े लेखकों ने किया है।आधुनिक काल में मुक्तिबोध इसलिए बार-बार ‘अंतःकरण’ या ‘अंतरात्मा’ की बात करते हैं।वे ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ और ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ की भी बात करते हैं।महात्मा गांधी की राजनीति में सत्य के आग्रह के साथ अंतरात्मा की पुकार भी सुनाई पड़ती है।
साहित्य का संबंध जितना विचार या ज्ञान से है, उतना ही ‘आत्मावलोकन’ या ‘आत्मालोचन’ से है।आत्मावलोकन की प्रवृत्ति लेखक को विचारधारा के अतिक्रमण का साहस और विवेक देती है।तब उसकी रचना में साहित्य का वह सच होता है जो राजनीतिक मतवाद की तात्कालिकता से प्रभावित नहीं होता।उसका रचा हुआ साहित्य सत्य का वाहक होता है और साहित्यकार किसी राजनीतिक विचारधारा का प्रचारक बनने की जगह कलाकर की भूमिका निभाता है।
जिज्ञासा – वर्तमान समय में अस्मितामूलक विमर्शों का चलन बढ़ा है।ऐसे में एक आलोचक के लिए आत्मावलोकन का भाव लेकर लेखन करना कितना चुनौतीपूर्ण है?
गोपेश्वर सिंह – अस्मितामूलक विमर्शों ने साहित्य के क्षितिज का विस्तार किया है।जिन समस्याओं की ओर पहले हमारा ध्यान नहीं जाता था, उनको भी रचना-आलोचना में जगह मिलने लगी।दलित, स्त्री, आदिवासी, अल्पसंख्यक समाज की मुक्ति की चाह ने साहित्य को नया आधार दिया।इस कारण सृजनशीलता का नया द्वार खुला है।यह हिंदी नवजागरण का नया अध्याय है।लेकिन अस्मितामूलक साहित्य में शोषक समाज, वर्ग या व्यक्ति की आलोचना का स्वर जितना प्रखर है, आत्मावलोकन या आत्मालोचन की प्रवृत्ति का उतना ही अभाव है।हम मानते हैं कि आत्मावलोकन के बिना साहित्य का काम नहीं चलता।बिना उसके पाठक का भरोसा साहित्य में नहीं बनता।आत्मावलोकन के बिना साहित्य में सत्य की ऊष्मा कम हो जाती है।अस्मितामूलक साहित्य लिखने वाले लेखकों का ध्यान इधर जाना चाहिए।इससे अस्मितामूलक साहित्य की गुणवत्ता का विकास होगा और उसमें पाठक का भरोसा बढ़ेगा।
जिज्ञासा – रामविलास शर्मा मार्क्सवादी और भौतिकवादी हैं।हालांकि यह भी सच है कि उन्होंने भारत की प्राचीन सभ्यता-संस्कृति पर पर्याप्त लिखा है।ऐसे में आप रामविलास शर्मा की आलोचना-दृष्टि के बारे में क्या कहना चाहेंगे?
गोपेश्वर सिंह – रामविलास शर्मा मार्क्सवादी और भौतिकवादी आलोचक हैं।उन्होंने वर्ग और श्रम को अपने मूल्यांकन कार्य का आधार बनाया है।ऋग्वेद पर लिखते हुए वे श्रम करने वाले ऋषियों का उल्लेख करते हैं।वे आधुनिक काल के पूर्व के साहित्य को ‘लोकजागरण’ और आधुनिक काल के साहित्य को ‘नवजागरण’ की कसौटी पर देखते हैं।लोकजागरण और नवजागरण उनके मूल्यांकन के मुख्य आधार हैं।वे वर्ग को अधिक महत्व देते हैं, जाति को नहीं।शुक्ल जी के बाद साहित्य के मूल्यांकन का व्यापक आधार तैयार करने वाले वे दूसरे बड़े आलोचक हैं।हिंदी पाठकों का ‘कॉमनसेंस’ निर्मित करने में इन दोनों आलोचकों की बड़ी भूमिका है।लेकिन छायावाद और उसके पूर्व के साहित्य के मूल्यांकन में वे जितने समर्थ हैं, छायावादोत्तर साहित्य के मूल्यांकन में उतने समर्थ नहीं लगते।नए साहित्य के मूल्यांकन में नवजागरण और यथार्थवाद की उनकी कसौटी बहुत कारगर नहीं साबित होती।
जिज्ञासा – हिंदी आलोचना के मूल्यांकन में अक्सर लड़ाकर देखने की परंपरा रही है, जैसे शुक्ल और द्विवेदी, मुक्तिबोध और अज्ञेय।इस लिहाज से आप नामवर सिंह की आलोचकीय-दृष्टि को कहां पाते हैं?
गोपेश्वर सिंह – अपने मूल्यांकन में रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद बनाम जैनेंद्र का बंटवारा किया जो गलत है।प्रेमचंद की लाठी से उन्होंने जैनेंद्र को पीटा है।इसका परिणाम हुआ कि प्रगतिशील जमात के लिए जैनेंद्र जैसा कालजयी और प्रमुख लेखक वर्ग शत्रु हो गया।नामवर सिंह ने रामविलास शर्मा की इस लाइन को आगे बढ़ाया।वे भी जीवन भर प्रेमचंद बनाम जैनेंद्र की बहस चलाते रहे।प्रेमचंद के मेल में न होने की वजह से वे फणीश्वरनाथ रेणु की भी उपेक्षा करते रहे। ‘नई कविता’ के संदर्भ में उन्होंने अज्ञेय बनाम मुक्तिबोध की नकली बहस खड़ी की।अंतिम दिनों में उन्होंने अपने को बदलने की कोशिश की।बनामों के खेल से मुक्त होने की उनमें छटपटाहट दिखी, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।दुखद यह है कि कुछ लोग बाइनरी बनाने का वह पुराना नामवरी खेल आज भी खेल रहे हैं।
जिज्ञासा – इस पुस्तक में एक जगह आपने लिखा है कि अशोक वाजपेयी का यह मानना है कि ‘साहित्य को किसी पार्टी में शामिल हुए बिना राजनीति की निगरानी का काम करना चाहिए।’ ऐसे में लेखक-संगठनों के बारे में कैसे सोचा जाए?
गोपेश्वर सिंह – लेखक-संगठन आज की तारीख में कोई सार्थक भूमिका नहीं निभा रहे हैं।कुछ रस्म अदायगी के अलावा उनकी सक्रियता लगभग न के बराबर है।जो भी रेडिकल आंदोलन या लेखन हो रहा है वह व्यवस्था-पोषित संस्थानों के छाते से बाहर हो रहा है।दलित, स्त्री, आदिवासी साहित्य के रूप में जो नया रचा गया है उनमें उनकी कोई भूमिका नहीं है।
जिज्ञासा – इन दिनों रामकथा के एक पाठ को असली पाठ बना देने की रणनीति चल रही है।ऐसे में आपका ‘रामकथा का बहुवचनात्मक पाठ’ कितना जरूरी है?
गोपेश्वर सिंह – रामकथा के अनेक पाठ हैं।वाल्मीकि रामायण से लेकर अब तक रामकथा विभिन्न क्षेत्रों और भाषाओं में निरंतर लिखी जाती रही है।तुलसीदास लिखित ‘रामचरितमानस’ उनमें से एक है।कोई संगठन या राजनीतिक दल किसी एक पाठ को ही रामकथा का असली पाठ बनाने की कोशिश करता है तो उसका विरोध होना चाहिए।जो लोग मानस को ही रामकथा का असली पाठ बताते हैं वे या तो अज्ञानी हैं या राम के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं।ऐसा करके वे राम के विराट व्यक्तित्व को सीमित कर रहे हैं।
जिज्ञासा – आप अपनी आगामी योजनाओं के बारे में हमारे पाठकों से कुछ साझा करना चाहेंगे?
गोपेश्वर सिंह – छिटफुट लेखन के अलावा मैं ‘आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री रचनावली’ तैयार करने की योजना पर काम कर रहा हूँ।रामवृक्ष बेनीपुरी की जीवनी भी लिखनी है।दो वर्ष इसी में लग जाएंगे।आगे फिर देखेंगे।
युवा अध्येता अनुराधा सिंह द्वारा संपादित ‘आदिवासी : इतिहास और संस्कृति’ पुस्तक में आदिवासी समाज के इतिहास और संस्कृति-केंद्रिक दर्जन भर शोधपरक लेखों को शामिल किया गया है।इस पुस्तक में आदिवासी समाज का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आख्यान कई स्त्रोतों से आया है।इसमें आदिवासियों की वर्तमान स्थिति, समस्याओं और चुनौतियों के बारे में विस्तार से चर्चा है।इतिहास लेखन के अनुशासन के भीतर आदिवासियों की भाषा, सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन, आर्थिक स्थितियों एवं राजनीतिक घटनाओं का उल्लेख इस पुस्तक को पठनीय बनाता है।
पुस्तक में भारतीय संदर्भ में आदिवासियों की अवधारणात्मक रूपरेखा स्पष्ट करते हुए उनके लिए मूलवासी, आदिवासी, जनजाति, अनुसूचित जनजाति शब्दों की व्याख्या है।यह सच है कि इतिहास के बिना किसी समाज की कल्पना करना बेमानी है। ‘प्रागैतिहासिक काल और आदिवासी जीवन’ शीर्षक लेख में पर्याप्त साक्ष्य, चित्र एवं सारणियों के माध्यम से आदिवासी जीवन के आदिम इतिहास का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है।इसमें भारतीय आदिवासियों के अध्ययन के लिए ऐतिहासिक स्त्रोतों का जिक्र करते हुए यह भी बताने का प्रयत्न किया गया है कि भारत में आधुनिक आदिवासी समाज का अध्ययन ब्रिटिश उपनिवेशवाद की स्थापना के बाद शुरू होता है।औपनिवेशिक समय में विभिन्न सर्वेक्षणों, जनगणना, ब्रिटिश गजेटियर आदि के आधार पर आदिवासियों को चिह्नित करते हुए वर्गीकृत किया गया है।
औपनिवेशिक भारत के आदिवासी आंदोलनों के हवाले से यह भी बताने का प्रयास किया गया है कि औपनिवेशिक शासन में किस तरह लूटमार थी।अंग्रेजी शासक जब-जब संसाधनों के दोहन के लिए आदिवासी क्षेत्रों की ओर रुख करते थे, उन्हें आदिवासी समाज के प्रखर प्रतिरोध का सामना करना पड़ता था।उदाहरणस्वरूप- पहाड़िया विद्रोह (१७८९), हो विद्रोह (१८१९-२०), कोल विद्रोह (१८३०-३२), भूमिज विद्रोह (१८३३), संथाल विद्रोह (१८५५) कोंध विद्रोह (१८३७-५६) आदि।यह पुस्तक आदिवासी समाज के बहाने औपनिवेशिक शासन की दमनात्मक नीति का खुलासा करती है।इसमें आदिवासियों की पीड़ा दर्ज है।
गौर करने वाली यह बात सामने आई है कि पहले भारत में प्रायः ८० फीसदी प्राकृतिक संपदा सामूहिक थी, केवल २० फीसदी जमीन का निजी रूप से उपयोग किया जाता था।यानी भारत के देहाती क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी उसी सामूहिक संपदा का उपयोग अपनी जीविका के लिए करते थे।सामुदायिक स्त्रोतों के निजीकरण की यह प्रक्रिया अंग्रेजों के समय १८६५ से आरंभ हुई।उन्होंने सामुदायिक संपत्ति और जमीन पर स्थायी सेटेलमेंट करा दिया।बहुत से क्षेत्रों को ‘रिजर्व-फारेस्ट’, ‘प्रोटेक्टेड फारेस्ट’ और ‘रेवेन्यू लैंड’ घोषित करके धीरे-धीरे उसे राज्य की संपत्ति बना दिया गया।इसका नतीजा यह हुआ कि आदिवासी अपने परंपरागत तरीके से यहां-वहां खेती करने के अधिकार से वंचित कर दिए गए, वनोपज चुनने-बटोरने का अधिकार जाता रहा।
‘औपनिवेशिक भारत के आदिवासी आंदोलनों का इतिहास-लेखन: बदलते संदर्भ’ लेख में आदिवासियों पर उपनिवेशवाद के प्रभावों का जिक्र किया गया है।आदिवासी महिलाओं की स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी का तथ्यपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए नारीवादी चारु गुप्ता, कुमकुम सांगरी, सुदेश वैद्य, महाश्वेता देवी, मानुषी मिश्रा आदि ने अपने लेखन और चिंतन में औपनिवेशिक विमर्शों में आदिवासी स्त्रियों की स्थिति का जिक्र किया है।इस तरह ‘औपनिवेशिक विमर्शों में स्त्री-देह को विजित भूमि की तरह समझा गया है तथा औपनिवेशिक एवं सेक्सुअल वर्चस्व में नजदीकी संबंध रहा है।’
पुस्तक में साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर आदिवासी समुदाय के सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास का अध्ययन है।ये साहित्यिक साक्ष्य मुख्य रूप में लोकगीतों, मौखिक साहित्य एवं लोकगाथाओं के हैं।इस पर भी चर्चा है कि औपनिवेशिक काल तथा बाद में स्वतंत्र भारत में भी आदिवासी भाषाओं की विविधता पर किस तरह प्रहार किया गया।
यह पुस्तक आदिवासियों के इतिहास और संस्कृति के बहाने साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के गठबंधन से उत्पन्न संकटों की ओर संकेत करती है।जमीन के संबंध में आदिवासियों की भावना को बाहरी लोगों ने नहीं समझा।
जिज्ञासा – क्या आधुनिक विमर्शों के दौर में आदिवासी विमर्श को साहित्य और समाज में पर्याप्त ‘स्पेस’ मिल पा रहा है?
अनुराधा सिंह – समकालीन दौर में आदिवासी विमर्श को साहित्य और समाज में पर्याप्त स्थान मिल रहा है।इस विषय में हमें ध्यान देना होगा कि जो साहित्य आदिवासी विमर्श की तरफ अग्रसर है उसे जनवादी होने की शर्तों को भी पूरा करते रहना होगा।आधुनिक आदिवासी विमर्श को लेखन की प्रविधियों के संदर्भ में वस्तुनिष्ठता के पैमाने को भी पूर्ण करना होगा, क्योंकि हम आदिवासी विमर्श के नाम पर जिन परंपराओं का अध्ययन कर रहे हैं वे या तो विस्मृत हो चुकी हैं या कहीं-कहीं उनके अवशेष ही बचे हैं और कहीं-कहीं तो वे अपने मूल स्वरूप से विकृत हो चुके हैं, अर्थात उनके अस्तित्व का संकट है।ऐसे में आदिवासी विमर्श की जिम्मेदारी बढ़ जाती है, यानी इसे और संवेदनशील तथा जागरूक होना है।
जिज्ञासा – आदिवासियों की प्रगति में आदिवासी साहित्य और कला-संस्कृति कहां तक कारगर हो सकती है?
अनुराधा सिंह – आदिवासी समाज की प्रगति में आदिवासी साहित्य और कला-संस्कृति का आगे भी महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है।आज जब आदिवासी समाज अपने साहित्य तथा संस्कृति की पहचान की लड़ाई लड़ रहा है, आदिवासी साहित्य और कला-संस्कृति अपने समाज की परंपराओं और मूल्यों को अपने में समेटे हुए है।उसके लिए आवश्यक है कि आदिवासी साहित्य और संस्कृति की पहचान के सहारे आज के विकसनशील समाज से एका बनाकर सामरिक समायोजन करते हुए आदिवासियों की प्रगति का विधान तय किया जाए।
जिज्ञासा – औद्योगिक विकास के नाम पर आदिवासी का विस्थापन का तर्क कितना सही है?
अनुराधा सिंह – इस विषय में मेरा यह कहना है की प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने से पहले हमें गांधी जी की इस बात को याद रखना चाहिए कि ‘मानव की आवश्यकताओं के लिए प्राकृतिक संसाधन पर्याप्त हैं, लेकिन मानव के लालच के सामने अपर्याप्त हैं।’ स्वातंत्र्योत्तर भारत में पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा विकास की बहुत सी परियोजनाओं को जबरदस्ती आदिवासी और उपेक्षित जनों पर थोपा गया है।ऐसे में आदिवासियों के पारंपरिक संसाधनों, भूमि आदि पर अधिकारों के लिए बेहतर ढंग से आवाज उठाने की जरूरत है।इस दिशा में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा किए गए बहुत से प्रयास महत्वपूर्ण हैं, परंतु वैश्विक स्तर पर योजनाबद्ध जबरिया बेदखलीकरण इतना भारी है कि हमें इस पर फिर से विचार करना चाहिए।
जिज्ञासा – आदिवासियों की जागरूकता के अभाव और लिपि की अपर्याप्तता के कारण आदिवासी साहित्य हाशिए पर है या मुख्यधारा की उदासीनता भी एक कारण है?
अनुराधा सिंह – मैं दोनों बातों से इत्तेफाक रखती हूँ।जागरूकता और लिपि की अपर्याप्यतता एक महत्वपूर्ण कारण है।इसके साथ ही अपने को मुख्यधारा का लेखक कहने वाले समुदाय की उदासीनता ने भी स्वाभाविक रूप से आदिवासी साहित्य तथा समाज को हाशिए पर कर रखा है।ऐसे में आवश्यक है, हम साहित्य के साथ आदिवासी समाज के इतिहास के अलग-अलग संदर्भों तथा पैमानों को समझते हुए आदिवासी इतिहास लेखन का महत्वपूर्ण कार्य करें।आज यह भी आवश्यक है कि हम आदिवासी इतिहास लेखन की जड़ों को आदिवासी साहित्य के संदर्भों में तलाशें और उसके महत्वपूर्ण आयामों का पुनःपाठ करें।इससे आदिवासी समाज का गौरवपूर्ण स्वबोध समकालीन साहित्यिक परिदृश्य से जुड़ सकेगा।
जिज्ञासा – औपनिवेशिक भारत के आदिवासी प्रश्न से आज स्वतंत्र भारत में यह प्रश्न किन अर्थों में भिन्न हैं?
अनुराधा सिंह – आदिवासी प्रश्न आज स्वतंत्र भारत में कई अर्थों में भिन्न है, परंतु आज भी उनकी प्रकृति बहुत हद तक औपनिवेशिक भारत जैसी ही है।स्वतंत्रता के पश्चात आदिवासी कल्याण की योजनाओं को गंभीरता से जरूर लिया गया है, लेकिन परंतु इस विषय में हमें ध्यान रखना होगा कि आदिवासी विकास की योजनाएं अफसरशाही के उन्हीं नियमों से जमीन पर आती हैं, जो अंग्रेज छोड़ कर गए थे।शायद यही कारण था कि अफसरशाही के उदासीन रवैये से संविधान के मानवतावादी दृष्टिकोण में बिखराव आ गया और पिछड़े-आदिवासी तबके के लोगों के लिए बनी योजनाएं आज तक बहुत हद तक मूर्त रूप नहीं ले सकी हैं।
ऐसा लगता है कि स्वातंत्र्योत्तर काल की नीतियां ऐसी रही हैं कि भारतीय सरकार न आदिवासियों को मुख्यधारा में सम्मिलित करना चाहती थी और न उनकी स्वतंत्रता सुरक्षित रखना चाहती थी।सचाई यह थी कि राष्ट्रीय मुख्यधारा यह चाहती थी कि एकीकृत रूप से आदिवासियों का विकास हो।पर आदिवासियों की वास्तविक स्थिति को अनदेखा कर इन योजनाओं को बस औपचारिक मानकर क्रियान्वित किया गया।इससे कुछ स्वार्थी लोगों को जरूर फायदा हुआ, पर इन योजनाओं के अपने निहितार्थ आज तक पूरे नहीं हो सके।
यह भी हुआ कि आदिवासी समाज के बड़े अभिजातवर्गीय लोगों ने अपनी परंपरागत जीवन पद्धति को तिलांजलि देकर, महानगर की पंचसितारा जीवन शैली का आनंद लेते हुए अपने स्वजनों को उनकी स्थिति पर छोड़ दिया।आज ऐसा एक बड़ा आदिवासी समूह है जिसको वायदे और कायदे की रोटी नसीब नहीं है।ये वे लोग हैं, जो अपने अस्तित्व की लड़ाई दशकों से लड़ रहे हैं।इन्हें सरकारी सहयोग से बड़ी उम्मीदें हैं, परंतु इन्हें छलावा के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला है।इनमें तमाम वे लोग भी हैं, जो आजादी के पहले बेहतर स्थिति में थे, परंतु अब आदिवासी विकास के नाम पर व्यवस्थागत खामियों के शिकार होकर रह गए हैं।
समीक्षित पुस्तकें :
(१) संस्कृति के प्रश्न और रामविलास शर्मा-संपादक-विजय बहादुर सिंह, राधाबल्लभ त्रिपाठी, वाणी प्रकाशन, २०२२, मूल्य-७५० (२) आलोचक का आत्मावलोकन- गोपेश्वर सिंह, वाणी प्रकाशन, २०२२, मूल्य-२९९ (३) आदिवासी इतिहास और संस्कृति, संपादक-अनुराधा सिंह, वाणी प्रकाशन, २०२३, मूल्य-५९५
1, राम कमल रोड, पोस्ट-गरिफा, पिन-743166, उत्तर 24 परगना (प.बं.) मो.9331075884