प्रमुख कहानीकार।अद्यतन कहानी संग्रह श्यामलाल का अकेलापन’, उपन्यास तीन ताल।संप्रति नवभारत टाइम्स’, नई दिल्ली में सहायक संपादक।

माथुर साहब ने रिटायर होते ही घोषणा की कि अब वह दिल्ली में नहीं रहना चाहते, वह अपने शहर नजीबाबाद लौट जाएंगे।वहीं रहेंगे।परिवार के लोग इस पर हँसे।उन्होंने कई और लोगों का उदाहरण दिया जो लोग सेवानिवृत्ति के बाद अपने पैतृक गांव या कस्बे में रहने गए, लेकिन वहां टिक नहीं पाए।

‘वहां के लोगों से अब आप एडजस्ट नहीं कर पाएंगे।आपको अपनी तरह के लोग नहीं मिल पाएंगे, जिनसे आप बात कर पाएं।’ उनके बड़े बेटे निशांत ने आपत्ति की।

‘आपको जिन सुविधाओं की आदत हो गई है, वहां नहीं मिलने वाली।’ उनकी बहू श्वेता ने कहा।

‘वहां ढंग का हॉस्पिटल तक नहीं है।अगर आपको कुछ हो गया तो दिल्ली ही आना पड़ेगा।’ निशांत ने एक नई बात जोड़ी।

माथुर साहब की पत्नी चुप रहीं, लेकिन उन्हें देखकर लग रहा था कि वह भी नजीबाबाद के पक्ष में नहीं थीं।

माथुर साहब ने कहा, ‘यहां के लोग बहुत बदल गए हैं।सब प्लास्टिक के लगते हैं।’

‘अगर दिल्ली में नहीं ही रहना है तो पहाड़ पर ज़मीन लीजिए न।कई नेताओं, अफसरों, बिजनेसमैन ने वहां कोठी बनवा रखी है।जब मन करे जाइए और चले आइए।’ निशांत ने आकर्षक सुझाव दिया।

‘लेकिन डॉक्टर तो वहां भी नहीं मिलेगा न।’ माथुर साहब ने निशांत की ओर देखकर कहा।उनकी बात में थोड़ा तंज़ था।

छोटे बेटे सीमांत ने बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की, ‘ऐसा कीजिए कि थोड़े दिन के लिए नजीबाबाद रहकर आ जाइए।’

माथुर साहब को थोड़ी उम्मीद दिखी, ‘बात तो ठीक है, लेकिन रहेंगे कहां? किसी रिश्तेदार को मैं तकलीफ़ नहीं देना चाहता।एकाध-दो दिन के लिए ठीक है, लेकिन ज़्यादा दिनों के लिए तो…।’

पत्नी बोलीं, ‘वहां का मकान नहीं बेचना चाहिए था।’

‘मैं तो नहीं ही बेचना चाहता था।तुम्हीं सब लोग बार-बार कह रहे थे।किराएदारों ने उसकी बुरी हालत कर दी थी।ढहने को था।उसकी भारी रिपेयरिंग की जरूरत थी।किसके पास फुर्सत थी बैठकर वहां मरम्मत का काम कराने की।’ यह कहकर माथुर साहब ने लंबी सांस ली।

‘लेकिन वहां रहेंगे कहां?’ पत्नी ने पूछा।

‘सोच रहा हूँ, वहां एक मकान खरीद लिया जाए।’ माथुर साहब की इस बात पर सब चौंके।

‘आपको क्या लगता है कि नजीबाबाद अब वही रह गया है जो आपके समय में था।अब वहां भी मकान के रेट बहुत हो गए हैं।खेल है क्या!’ निशांत ने अजीब मुंह बनाकर कहा।

‘वहां कोई गेस्ट हाउस तो होगा ही।दस-पंद्रह दिन के लिए तो मिल ही सकता है।’ सीमांत ने फिर हल ढूंढने की कोशिश की।

‘आप गेस्ट हाउस में रहेंगे तो आपके रिश्तेदार लोग क्या सोचेंगे।’ पत्नी की इस बात पर माहौल अचानक बिगड़ गया।माथुर साहब थोड़ा खीझकर उठ गए।

उस घर में इस तरह तरह की बहस बाद में भी कई बार हुई।माथुर साहब थोड़ेथोड़े दिन पर अचानक ही नजीबाबाद की धुन छेड़ देते।फिर एक दिन उनमें और सीमांत में सहमति बनी कि वहां दोचार दिनों के लिए चला जाए और बाद के लिए संभावनाएं देखी जाएं।फिलहाल किसी रिश्तेदार के यहां टिका जा सकता है।लेकिन तभी दुनिया पर कोरोना का हमला हो गया।

उस दिन सुबह माथुर साहब जब टहल कर लौटे तो उन्हें पूरे बदन में भारी दर्द महसूस हुआ।उन्हें लगा थोड़ी थकान है, दूर हो जाएगी।यह बात उन्होंने किसी को नहीं बताई।लेकिन शाम होते-होते उन्हें शरीर तपता हुआ लगा।उन्होंने पत्नी को झिझकते हुए यह बताया।पत्नी ने तुरंत निशांत को बताया।निशांत घर में ही था, क्योंकि उसकी कंपनी ने उसे घर से ही काम करने को कह दिया था।उसने थर्मामीटर लगाकर देखा तो पता चला कि माथुर साहब को एक सौ दो बुखार है।निशांत ने अपने पारिवारिक डॉक्टर लूथरा को फोन लगाया तो उन्होंने कहा कि अभी पैरासीटामोल दे दो।बुखार और सांस पर नजर रखो।निशांत ने पूछा कि क्या कोरोना टेस्ट करा लिया जाए तो डॉक्टर ने कहा- ‘कराना तो होगा।अभी रुक जाओ।मैं बताऊंगा।’

सब एक-दूसरे का मुंह देखने लगे जैसे ये क्या हो गया।माथुर साहब ने घबराहट पर काबू करते हुए कहा, ‘जरूर वायरल होगा।मुझे कोरोना कैसे हो सकता है।मैं तो कई दिनों से किसी से मिला ही नहीं।’

‘आप मॉर्निंग वॉक के लिए तो जा ही रहे हैं।पार्क में लोगों से मिलते होंगे।’ श्वेता ने कहा।

‘मैं दूरी बनाए रखता हूँ।बस दूर से ही दुआ-सलाम कर लेता हूँ।’

माथुर साहब की इस बात पर किसी को विश्वास नहीं हुआ।निशांत बोला, ‘बाहर से किसी के घर आने से भी हो सकता है।कामवाली बाहर से आती है।मुझे तो शक है कि उसी से इन्फेक्शन हुआ होगा।वह न जाने कहां-कहां होकर आती है।’

‘लेकिन पापा तो उसके संपर्क में कम रहते हैं मम्मी ज्यादा रहती है।’ सीमांत ने कहा।

‘लेकिन चाय देती है, खाना परोसती है।उससे तो सबको ख़तरा है।’ निशांत की इस बात ने सबकी चिंता बढ़ा दी।

‘लेकिन वह तो मास्क लगाकर आती है।आते ही उसे हाथ धोने को कहती हूँ।’ माथुर साहब की पत्नी ने सबको आश्वस्त करने की कोशिश की।

‘लेकिन न जाने वह किसके-किसके संपर्क में आती होगी।उसे हटा देना चाहिए।’ निशांत ने यह कहकर अपनी मां की ओर देखा।

‘फिर खाना कौन बनाएगा?’ सीमांत के इस सवाल पर थोड़ी देर के लिए चुप्पी पसर गई।श्वेता ने अपनी सास की ओर देखकर कहा, ‘मम्मी जी, आप बना लेंगी न?’ इस पर निशांत ने तपाक से कहा,  ‘तुम कर देना मां की हेल्प।’

‘देख ही रहे हो मेरे ऑफिस का काम कितना बढ़ा हुआ है।’ श्वेता के स्वर में थोड़ी झुंझलाहट थी।

‘मैं बना लूंगी।’ माथुर साहब की पत्नी ने धीरे से कहा।

‘मैं करूंगा आपका हेल्प।’ सीमांत ने यह कहकर श्वेता को घूरा।श्वेता ने मुंह घुमा लिया।सीमांत ने फिर कहा, ‘लेकिन एकाएक कामवाली को हटाने से उसे काफी तकलीफ हो जाएगी।’

‘होगी तो हम क्या करें।हम पूरे परिवार के लिए खतरा क्यों मोल लें।’ निशांत ने तुरंत जवाब दिया।

‘पूरे महीने के पैसे दे देंगे।थोड़ा ज्यादा दे देंगे।’ माथुर साहब की पत्नी ने कहा।

‘पापा को तुरंत क्वारंटीन होना पड़ेगा।’ निशांत की इस बात से घबराहट फैल गई और सब एक-दूसरे को देखने लगे।माथुर साहब को लगा जैसे उनके भीतर कुछ आ धंसा हो।

‘लेकिन पापा का कमरा तो अलग है ही।बस मम्मी साथ में रहती है।वह कहीं और सो लेगी कुछ दिन, मेरे कमरे में।’ सीमांत बोला।

‘नहीं नहीं, पापा को इस फ्लोर पर ही नहीं रहना चाहिए।ये हम सबकी सेफ्टी का मामला है।फिर बच्चों की सोचिए।उन्हें ज्यादा खतरा रहता है।’

श्वेता ने यह कहकर अपने पति की ओर देखा, अपनी बात के समर्थन की उम्मीद में।निशांत ने तुरंत बात आगे बढ़ाई, ‘हां, हां।उन्हें हम सब से अलग रहना पड़ेगा।ऊपर रहेंगे तो किसी न किसी के कॉन्टैक्ट में आएंगे ही।और बच्चों को रोकना मुश्किल है।वे तो उनके पास चले ही जाएंगे।’

‘लेकिन नीचे…।’ माथुर साहब कहते-कहते रुक गए।उन्होंने असहाय भाव से सबको देखा जैसे वह कोई अपराधी हों।

उनके मकान में नीचे सीढ़ी से सटा एक कमरा था, जिसमें कबाड़ भरा हुआ था।कभी वह कमरा नौकर के रहने के काम आता था।हालांकि अब कोई फुलटाइम नौकर नहीं था।पास के मोहल्ले से एक कामवाली दिन भर के लिए आती थी और शाम में चली जाती थी।जब से नौकर गया तब से इसे स्टोर रूम की तरह इस्तेमाल किया जा रहा था।

घर के लोगों ने इसे क्वारंटीन के लिए उपयोगी माना और आनन-फानन इसे रहने के लिए तैयार किया गया।रात में माथुर साहब को इसमें रहने के लिए भेज दिया गया।दरवाजे के बाहर एक टेबल रख दिया गया।तय हुआ कि उनका खाना इसी टेबल पर रख दिया जाएगा।माथुर साहब खाना उठा लेंगे फिर कमरे से लगे बाथरूम में बर्तन खुद धोएंगे और लाकर टेबल पर वापस रख देंगे।उन्हें चाय-पानी, दवा वगैरह इसी तरह दी जाएगी।यह भी तय हुआ कि सिर्फ निशांत और सीमांत नीचे आएंगे।

माथुर साहब दवाएं, थर्मामीटर, ऑक्सीमीटर, बीपी मापने वाली मशीन, सैनिटाइजर की बोतल, तौलिया और अपने कुछ कपड़े लेकर कमरे में आए तो एक अजीब गुमसाइन गंध से उनका सामना हुआ।वह बिस्तर पर बैठकर सोचने लगे कि आखिर इस कमरे में किस तरह दिन गुजारेंगे।यहां कई दिन रहने का खयाल उन्हें डरा रहा था।हालांकि ऐसा नहीं था कि वह कभी अकेले नहीं रहे।नौकरी के सिलसिले में अलग-अलग शहरों में कई बार गेस्ट हाउस में रहना पड़ा था।लेकिन वहां से निकलकर कहीं आने-जाने या किसी और के कमरे में आने पर रोक नहीं थी।पर यह तो अलग तरह का अकेलापन था।कम से कम एक हफ्ता रहना पड़ सकता था।हां, अगर टेस्ट में कुछ नहीं निकला तो जल्दी मुक्ति मिल सकती थी।

थोड़ी देर बाद निशांत ने टेबल पर खाना रखा और आवाज दी, ‘खाना रख दिया है।ले लीजिए।’ उसने बुखार और सांस जांच करने की हिदायत भी दी।

परेशान करने वाली गंध में खाना उन्हें कष्टकर लग रहा था।फिर भी उन्होंने किसी तरह खाया और बाथरूम में लेकर प्लेट और कटोरे धोए और उन्हें वापस बाहर टेबल पर रखा।फिर दवा खाकर लेट गए।तभी उन्हें घुटन सी महसूस हुई और वह झटके में उठे और खिड़की के पास आकर खड़े हो गए और सामने के फ्लाइओवर की ओर देखने लगे।

वहां सन्नाटा छाया था।उस पर लगी हाइमास्ट लाइटें कुछ मद्धिम लग रही थीं, उदास सी।तभी एक ऐंबुलेंस सायरन बजाती हुई तेजी से गुजरी।उसके जाने के बाद ‘हों हों’ करता सायरन उन्हें अपने सीने के भीतर कहीं बजता महसूस हुआ।उनकी धड़कन तेज हो गई।उन्होंने लपककर ऑक्सीमीटर उठाया और अपना ऑक्सीजन लेवल मापने लगे।उनकी जान में जान आई।ऑक्सीजन का स्तर ९६ था।उन्होंने अपने को सामान्य बनाने की कोशिश की, मगर ऐंबुलेंस उनके भीतर से निकल नहीं रही थी।वे बार-बार उस व्यक्ति के बारे में सोच रहे थे, जो उसमें लेटा हुआ होगा।क्या वह कोरोना का मरीज रहा होगा? क्या उसका ऑक्सीजन का स्तर ९२ से नीचे आ गया होगा? कहीं वह डाइबिटीज और हार्ट का मरीज तो नहीं? कहीं उसके बच्चे बहुत छोटे तो नहीं? क्या उसे अस्पताल में जगह मिल जाएगी? अगर वह नहीं बचा तो..?

फिर उन्होंने सोचा कि अगर उनकी तबीयत भी ज्यादा बिगड़ गई तो? कल ही उन्होंने खबर पढ़ी थी कि अस्पताल में बेड नहीं मिल रही।लोग अपने मरीजों को लेकर एक से दूसरे अस्पताल भटकते रहते हैं।ऐंबुलेंस बाहर इंतजार में रुकी रहती है कि कोई बेड खाली हो।अस्पताल में एक बार अंदर हो जाने के बाद मरीजों से उनके रिश्तेदारों को मिलने तक नहीं दिया जाता।मरीजों को खाना-पानी ठीक से मिल रहा है कि नहीं, इसका भी पता नहीं चलता।कुछ लोग तो भर्ती हुए और फिर मिले ही नहीं।लाश तक बाहर नहीं आई।

माथुर साहब अस्पताल के नाम तक से ही सिहर उठते थे।जब उनके पिता बीमार पड़े थे, तो वह हॉस्पिटल के बाहर गेट पर ही खड़े रहते थे।अंदर जाने की हिम्मत नहीं होती थी।वह सोचते थे कि अस्पताल में भर्ती होने की नौबत आते ही उनकी जान निकल जाएगी।

काश उन्हें कोविड न हो! चार-पांच दिन वह इस कमरे में काट लेंगे।लेकिन राहत की बात बस यही थी कि उन्हें पहले से कोई बीमारी नहीं थी, न तो डायबिटीज न ही दिल का रोग।सर्दी, खांसी और बुखार भी कम ही हुआ करता था।अपने रोज की सुबह की सैर को वह इसका श्रेय देते थे।लेकिन इस कोरोना ने उनका आत्मविश्वास हिला दिया था।

वह सोच रहे थे, अगर हालत खराब हुई तो डॉ. लूथरा सब संभाल लेंगे।वह किसी बड़े प्राइवेट हॉस्पिटल में व्यवस्था करा देंगे।उन्हें किसी भी चीज के लिए भटकना नहीं पड़ेगा।तभी उनका मोबाइल बज उठा।देखा तो पत्नी का फोन था।क्षण भर के लिए ऐसा लगा, जैसे वह दूसरे शहर में हो।

‘हैलो, सब ठीक है न।’ पत्नी ने पूछा।

‘क्या ठीक रहेगा।नींद नहीं आ रही है।तुम भी आ जाओ यहीं।’

‘मैं कैसे आ सकती हूँ।’

‘क्यों नहीं आ सकती हो?’

‘सब ठीक हो जाएगा।परेशान मत हो।’

‘आखिर मैं करूं तो क्या।अजीब-सा लग रहा है।’

‘मन लगाने की कोशिश करो।मोबाइल पर फिल्म देखो, गाना सुनो, कुछ लोगों से बातें करो।’

‘ठीक है, ठीक है।’ माथुर साहब ने झुंझलाकर फोन काट दिया।वह चिढ़े हुए बड़ी देर तक कमरे में टहलते रहे।सोच रहे थे जल्दी से टेस्ट हो जाए और सब कुछ साफ हो जाए।

टेस्ट में वही हुआ जिसका डर था।माथुर साहब कोविड पॉजिटिव पाए गए।राहत की बात बस यही थी कि घर के और लोग निगेटिव निकले, वरना कौन खाना बनाता, कौन किसका ध्यान रखता! आफत आ जाती।हालांकि माथुर साहब के लिए तो आफत आ ही गई थी! उन्हें अस्पताल जाने का डर तो सता ही रहा था, अब यह चिंता कहीं ज्यादा भारी हो गई थी कि समय कैसे कटेगा, क्योंकि अब ज्यादा दिन आइसोलेशन में रहना पड़ता।लॉकडाउन लगने के बाद से भले ही घर से दूर जाना नहीं होता था, लेकिन वह कॉलोनी के पार्क में टहल आते थे।छत पर गमलों में लगे फूल-पौधों में कुछ न कुछ करते रहते।घर में किताबें झाड़ने से लेकर रसोई के डिब्बों की सफाई करते और नहीं तो पोते-पोती के साथ कभी कैरम तो कभी लूडो खेलते रहते।अब यह सब बंद हो गया था।वक्त काटने के पत्नी के नुस्खे पर उन्होंने अमल करना शुरू किया।

मोबाइल पर वह कभी कोई फिल्म पूरी नहीं कर पाते थे, क्योंकि मोबाइल पर लगातार टकटकी लगाए रहने से उनकी आंखों में चुभन होने लगती थी, सिर पकड़ लेता था।उन्होंने अपने जमाने के गाने भी सुने, पर पुराने गानों का उनपर विचित्र असर होता था।वे गाने उनके भीतर सिहरन पैदा करते थे, उन्हें उनके अतीत में ले जाते थे।वह भावुक हो जाते।उनकी इच्छा होने लगती कि अभी उड़कर कहीं चले जाएं।इसलिए गानों से बचने लगे।फेसबुक से भी उन्हें परेशानी होने लगी।वहां भी बीमारी की ही चर्चा रहती।भयावह तस्वीरें दिखतीं या फिर सरकार के पक्ष-विपक्ष में बेसिर-पैर की बहसें रहतीं।तरह-तरह की कटूक्तियां या गाली-गलौज से वह दुखी हो जाते।

जब उनका मन घबराता तो वह किसी को फोन लगा देते।एक बार उन्होंने अपनी बहन को फोन लगा दिया।जब माथुर साहब ने बताया कि उन्हें कोरोना हो गया है, तो बहन ने एक-दो मिनट सहानुभूति प्रकट की फिर लगी शिकायत करने कि माथुर साहब ने उसके बेटे के लिए कुछ नहीं किया।वह बड़ी जगह पर थे, चाहते तो उसे कहीं भी सेट करवा सकते थे।अब माथुर साहब क्या बताएं कि उनका वैसा कोई लंबा-चौड़ा संपर्क कभी रहा नहीं कि वह अपने भांजे को कहीं लगवा दें।बहन की बातों से उनका मन खट्टा हो गया।यही हाल नजीबाबाद के उनके रिश्तेदारों का था।जब उन्होंने अपने एक चाचा को फोन लगाया तो लगे वह ताने मारने।पहले तो उन्होंने व्यंग्य किया कि इतने दिनों बाद कैसे उनकी याद आई।यहां तक कह दिया कि हां, अब रिटायर हो गए तो अपने लोग याद आने लगे।

इनसान जब तक पावर में रहता है तब तक अपनी जमीन की याद नहीं आती।फिर लगे गड़े मुर्दे उखाड़ने कि उन्होंने अपना मकान क्यों बेचा।उन्हें उसे बेचने में काफी नुकसान हुआ।वह माथुर साहब को अच्छी रकम दिलवा सकते थे।उनसे बात करने के बाद माथुर साहब ने तय कर लिया कि अब रिश्तेदारों से नहीं दोस्तों से ही बात करेंगे।

जब उन्होंने खन्ना साहब को फोन लगाया तो उन्होंने माथुर साहब को कई तरह की हिदायतें दे डालीं- ये काढ़ा पियो, वो काढ़ा पियो।इस पेड़ की छाल ले आओ, उसका डंठल ले आओ, उसे पीसकर चबाओ।अमुक होम्योपैथिक दवा ले लो।खन्ना साहब ने दावा किया कि चूंकि वे इन सब चीजों का सेवन कर रहे हैं इसलिए कोरोना के बाप की हिम्मत नहीं कि उनके पास फटक सके।माथुर साहब को तो उन्होंने बोलने ही नहीं दिया।ऐसा ही शर्मा जी ने भी किया।वह तो माथुर साहब को यही बताने में लगे रहे कि रिटायरमेंट के बाद अब वह एक बड़ा कॉरपोरेट हाउस ज्वाइन कर रहे हैं।उन्होंने कैसे यह जुगाड़ सेट किया, कंपनी कितनी बड़ी है, कितनी सैलरी और क्या सुविधाएं देने वाली है।उनसे बात करके राहत मिलने के बजाय और खीझ ही हुई।कोई उनकी बात सुन ही नहीं रहा था।वह बताना चाहते थे कि एक बंद कमरे में उनका जीवन कैसा गुजर रहा है।उनका मन किन झंझावातों में फंसा हुआ है।

आखिरकार माथुर साहब ने अपने एक पुराने दोस्त जितेंद्र का नंबर खोज निकाला जो उनके साथ कॉलेज में पढ़ता था।उससे बड़ी देर तक बातें हुईं, कॉलेज के दिनों की बातें।अपने दोस्तों की चर्चा हुई खासकर लड़कियों की।उसने बताया कि कौन आजकल कहां है।शिक्षकों की भी बातें हुईं।पहली बार क्लास छोड़कर सिनेमा देखने, शराब चखने और सड़कों पर आवारागर्दी की बातें हुईं।माथुर साहब को अच्छा लगा।थोड़ी देर के लिए अपनी परेशानी भूल गए।लेकिन मुश्किल यह थी कि किसी को बार-बार फोन नहीं किया जा सकता था।जितेंद्र को ही जब उन्होंने दूसरी बार फोन किया तो इस बार उसने वह गर्मजोशी नहीं दिखाई।इधर-उधर की बात करके उसने यही कहा कि फिर आराम से बात करते हैं।आखिर और क्या बात होती! माथुर साहब ने महसूस किया कि उनके पास ऐसे दोस्त नहीं हैं, जिन्हें बेधड़क कभी भी फोन किया जा सकता हो।जो बार-बार फोन किए जाने पर भी यह न सोचे कि आखिर क्यों फोन किया गया।जिनसे एक ही बात बार-बार की जा सके।

अब घर के लोगों से भी मोबाइल से ही संपर्क संभव था।पत्नी को जब फोन करते तो पता चलता वह खाना बनाने में लगी हुई है।निशांत अपने ऑफिस के काम में लगा रहता और सीमांत अपना रिसर्च लिखने में या फिर वह किसी से फोन पर लंबी-लंबी बातों में लगा रहता।पोते-पोतियों से भी बात करने की इच्छी होती।एक दिन उन्होंने श्वेता को फोन करके अपने पोते ईशान और पोती अंकिता से बात कराने को कहा तो श्वेता ने अपने मोबाइल पर बात तो करवाई, लेकिन एक ही मिनट बाद कहा कि बाद में बात करवा दूंगी, उसका एक जरूरी फोन आ रहा है।अगले दिन जब वह नाश्ता कर रहे थे तब उन्होंने सीढ़ी पर ईशान और अंकिता को देखा।ईशान ने पूछा, ‘दादा जी, क्या आप अब यहीं रहेंगे?’

माथुर साहब ने कहा, ‘नहीं नहीं, मैं कुछ दिन में ऊपर आ जाऊंगा।’

अंकिता ने तुतलाते हुए पूछा, ‘आप यहां क्या कल लहे हैं?’

माथुर साहब कोई जवाब देते इससे पहले श्वेता आई और उन दोनों को खींचते हुए ऊपर ले गई।

रात में उन्हें देर तक नींद ही नहीं आती थी।वह कभी मोबाइल पर उलजलूल वीडियो देखते फिर कोई किताब पढ़ते।बार-बार बुखार, बीपी और ऑक्सीजन लेवल जांचते रहते।दीवारों और छत को निहारते रहते।सोचते, कैदियों को कैसा लगता होगा, खासकर उम्रकैद की सजा भुगतने वालों को? कभी-कभी वह अजीबोगरीब कल्पना करने लगते।उन्हें लगता वह एक अंतरिक्ष यान में बैठे हैं और पृथ्वी से बहुत दूर जा चुके हैं।अकसर खिड़की के पास जाकर खड़े हो जाते।अब ऐंबुलेंस से उनका खौफ कम हो रहा था।उन्हें तीन-चार बजे के आसपास नींद आती और देर तक सोए रहते।फिर दोपहर में अपनी नींद पूरी करते।नींद की अनियमितता से उनका चिड़चिड़ापन से बढ़ गया था।कई बार जी में आता अपना सिर दीवार पर दे मारें, कभी कमरे का सारा समान उलट-पुलट देने की इच्छा होती, कभी जोर से चिल्लाने का मन करता।

एक शाम जब उनकी बेचैनी बढ़ी, तो वह कमरे से बाहर निकलकर टहलने लगे।उन्होंने चारों ओर नजरें घुमाकर देखा।कहीं कोई नजर नहीं आ रहा था।बालकनी तक में कोई नहीं था।उन्होंने सोचा, कॉलोनी के मेन गेट के पास सुरक्षा केबिन में गार्ड जरूर होगा।चलकर उससे बात की जाए।तभी उनका मोबाइल बज उठा।निशांत ने फोन किया था।

‘हैलो पापा, आप ये क्या कर रहे हैं।आप खुलेआम घूम रहे हैं।’ निशांत की लगभग चीखती सी आवाज आई।

‘हां तो।आज मुझे बुखार नहीं आया है।टहल लेने से थोड़ा मन बदल जाएगा।इसमें प्रॉब्लम क्या है?’

‘प्रॉब्लम दूसरों को है।’

‘मतलब?’

‘लोगों को प्रॉब्लम है कि आप इस तरह टहल रहे हैं।’

‘किसको प्रॉब्लम है?’

‘अभी चोपड़ा अंकल का फोन आया था।कह रहे थे कि माथुर साहब को कोरोना है और वह कॉलोनी में घूम रहे हैं।’

‘क्या हुआ घूम रहे हैं तो।’

‘वे कहना चाहते हैं कि आप कोरोना फैला रहे हैं।’

‘सारे लोग तो घर में दुबके हुए हैं फिर कैसे इन्फेक्शन हो जाएगा।मैं कोई हवा में वायरस फैला रहा हूँ।ऐसे कहीं कोरोना होता है।’

‘अब क्या कहें।’

‘उनको कहने दो।’

‘पापा आप घर जाइए प्लीज।किसी को कहने का मौका क्यों दें।आपको अभी कुछ दिन कंप्लीट आइसोलेशन में रहना है।’

‘अजीब लोग हैं।’ माथुर साहब बड़बड़ाते हुए आए।उन्हें अपने पड़ोसी चोपड़ा पर क्रोध आ रहा था।वैसे तो वह हर समय माथुर साहब, माथुर साहब किए रहता था, आज बड़ी काबिलियत झाड़ रहा है।मन ही मन माथुर साहब उसके लिए गालियां बकते रहे।

देर रात जब वह कमरे में चक्कर काट रहे थे तो उन्हें लगा उनकी खिड़की के पास छपाक से कोई चीज़ गिरी है।उन्होंने सोचा कहीं बगल के मकान से किसी ने तो कुछ तो फेंका नहीं।लोगों को जरा भी तमीज नहीं है।कोई किसी के घर के सामने कूड़ा फेंक देता है।उन्होंने सोचा, चलकर देखा जाए।उन्होंने दरवाजा खोलने की कोशिश की तो दरवाजा नहीं खुला।उन्होंने जोर लगाया।पर नहीं खुला।मतलब बाहर से दरवाजा बंद था।

तो उन्हें बंद कर दिया गया है! उनके बेटे ने ही उन्हें बंद कर दिया है ताकि वह बाहर न जा सकें।उन्होंने तुरंत निशांत को फोन लगाया।उसने फोन नहीं उठाया।वह समझ गए निशांत सो गया होगा।सीमांत देर तक जगा रहता है।उन्होंने सीमांत को फोन लगाया, ‘ये क्या तमाशा है।मेरा दरवाजा क्यों बंद किया।’

‘भइया ने बंद किया।अभी आपको कहीं बाहर नहीं निकलना है न।शरीर कमजोर है।कहीं गिर गए, चोट-वोट लग गई तो सोचिए कितनी परेशानी होगी।’

‘ये बात कह नहीं सकते थे।दरवाजा बंद करने की क्या जरूरत है।मेरे ऊपर भरोसा नहीं है?’

‘वो बात नहीं है।’

‘तो क्या बात है।’

‘अरे आपकी सेफ्टी के लिए।’

‘मुझे अपनी सुरक्षा की परवाह नहीं है क्या।मैं गैर जिम्मेदार हूँ।चलो दरवाजा खोलो।’

‘अभी आपको कहां जाना है।सुबह खोल दूंगा।’

‘अभी और इसी वक्त खोलो।मैं कहीं नहीं जाऊंगा, लेकिन दरवाजा बंद नहीं रहना चाहिए।मुझे लग रहा है जैसे किसी ने मेरा गला दबा रखा है।’

‘ठीक है।’

थोड़ी देर बाद सिटकनी खिसकाने की आवाज आई।माथुर साहब ने उठकर दरवाजा खोला फिर बंद कर दिया।वह खिड़की के पास कुछ गिरने की बात भूल गए।वह अभी भी गुस्से से थरथर कांप रहे थे।

उन्होंने अपनी जांच की।उनका बीपी बढ़ा हुआ था।बुखार बिलकुल नहीं था और ऑक्सीजन का स्तर भी सामान्य था।एक बार फिर उठकर उन्होंने दरवाजा खोलकर देखा और आश्वस्त होना चाहा।उन्हें बहुत दिनों बाद अपने बेटों पर इतना गुस्सा आया था, खासकर बड़े बेटे पर।पर अगले ही दिन उनके छोटे बेटे ने ऐसी हरकत कर दी जिससे वह बेहद आहत हुए।

रात में उनका खाना आठ-साढ़े आठ के बीच आ जाता था।पर नौ बज जाने के बाद भी उनका खाना नहीं आया तो वह परेशान हो उठे।फिर उन्होंने सोचा कि खाना बनने में थोड़ी देर हो गई होगी।वह इंतजार करने लगे।दिन में भी उन्होंने ठीक से नहीं खाया था, इसलिए भूख से परेशान थे।जब साढ़े नौ बज गया तो माथुर साहब ने पत्नी को फोन लगाया।पहले तो पत्नी ने उठाया ही नहीं, थोड़ी देर बाद उनका फोन आया।

‘क्या भाई, क्या हुआ।खाना अभी तक आया नहीं।’ माथुर साहब ने कहा।

‘थोड़ी देर हो गई।निशांत ने एक फिल्म लगा दी थी, मैं वही देखने लग गई।लेकिन आपका खाना तो निकाल कर रख दिया था।सीमांत ने पहुंचाया नहीं?’

‘नहीं तो।’

‘भूल गया क्या।… असल में वो थोड़ा अपसेट हो गया है।’

‘क्या हो गया?’

‘सौम्या को कोरोना हो गया है।’

‘कौन सौम्या?’

‘वही, उसकी फ्रेंड।’

‘अरे, तो सौम्या की देखभाल के लिए उसके घर के लोग हैं न।सारी चिंता इसी को करनी है।ठीक है गर्लफ्रेंड बीमार है, लेकिन उसका बाप भी तो बीमार है।’ यह कहकर माथुर साहब ने फोन काट दिया।

थोड़ी देर बाद दरवाजे पर दस्तक हुई।वह समझ गए उनका खाना आ गया है।उन्होंने उठकर थाली उठाई और जल्दी से खाना खत्म किया, फिर बिस्तर पर लेट गए।संयोग से तुरंत नींद आ गई।जब आंख खुली तो कमरे में हल्का उजाला था।उन्हें कुछ आवाजें सुनाई पड़ीं।लगा कि फ्लाइओवर पर कुछ हलचल हो रही है।उन्होंने उठकर देखा तो चौंक गए।बहुत सारे लोग चले जा रहे थे।लग रहा था जैसे कोई जुलूस जा रहा हो।देखने से वे सब गरीब लगते थे।किसी ने कंधे से थैला लटका रखा था तो किसी के सिर पर गठरी थी।बड़ी संख्या में महिलाएं थीं।उनमें से बहुतों की गोद में बच्चे थे।कुछ लोग ठेले पर सामान लिए जा रहे थे तो कुछ साइकिल से थे।

माथुर साहब समझ नहीं पा रहे थे कि ये लोग कहां जा रहे हैं।तभी उन्हें खयाल आया, क्यों न खबर देखी जाए।वह मोबाइल पर खबर देखने लगे, पर कुछ पता नहीं चला।फिर फेसबुक देखने लगे।किसी ने लिखा था कि दिल्ली और उसके आसपास के इलाके के मजदूर अपने-अपने घर लौट रहे हैं, क्योंकि लॉकडाउन में तमाम कारखाने बंद हो गए हैं और अन्य कई तरह की सेवाएं भी ठप पड़ गई हैं इसलिए उनमें काम करने वाले कामगार बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ लौट रहे हैं।चूंकि ट्रेनें बंद हैं, इसलिए वे पैदल ही चल पड़े हैं।

कोई दिल्ली से बिहार पैदल जाएगा, यह सोचकर वह हिल गए।कैसे जाएंगे ये लोग? क्या इनके पास रास्ते में खाने के लिए कुछ होगा? बच्चों को दूध मिलेगा? अगर कोई बीमार पड़ गया तो, किसी को चोट लग गई तो? क्या इस शहर में उनके लिए थोड़ी भी उम्मीद नहीं बची थी? सबने मुंह फेर लिया उनसे? जो भी हो, उनके पास लौटने के लिए एक जगह तो है।तमाम मुसीबतें झेलकर वे वहां जा तो सकते हैं।लेकिन जिनके पास वापसी का कोई विकल्प नहीं है,वे!

माथुर साहब के भीतर उथल-पुथल सी मची हुई थी।बार-बार रुलाई आ जा रही थी।समझ में नहीं आ रहा था अपने मन को कैसे शांत करें।उन्होंने अपने एक मनोचिकित्सक मित्र को फोन लगाया, ‘मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ।’

‘करूंगा, करूंगा जरूर करूंगा।थोड़ा रुक जाओ।’

‘मैं बहुत परेशान हूँ।’

‘मैं करता हूँ तुमसे बात।असल में मैं थोड़ा उलझा हुआ हूँ कुछ चीजों में।बेटे-बहू को लंदन जाना है।नहीं जाएंगे तो उनकी नौकरी छूट जाएगी।जानते ही हो सारी फ्लाइट कैंसिल हो रखी है।एक कार्गो फ्लाइट में जाने की व्यवस्था हो रही है।वही सब मैनेज करने में लगा हुआ हूँ।एक-दो दिन में फ्री हो जाऊंगा।वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग कर लेंगे।’

उसने फोन काट दिया।

माथुर साहब फिर बाहर देखने लगे।थोड़ी-थोड़ी देर पर कुछ लोग जाते हुए दिखाई देते थे।माथुर साहब ने गौर किया कि उनमें से कई लोगों के पैर में चप्पल तक नहीं थी।कुछ लोगों ने पानी की बोतल काटकर चप्पल की जगह बांध रखी थी।बड़ी देर तक उन लोगों को देखने के बाद वह लेट गए।उन्हें एक अजीब खयाल आया कि पिछले कुछ समय से वही लोगों को फोन करते रहे हैं, उन्हें किसी ने अपनी ओर से फोन नहीं किया।क्या इसलिए कि लोगों को उनकी कोई जरूरत नहीं? क्या इसलिए कि अब वह रिटायर हो चुके हैं, अब वह किसी के कोई काम नहीं आ सकते?

पहले तो बिना मतलब लोग फोन कर दिया करते थे।कहते, हालचाल लेने के लिए फोन किया है।तो क्या अब उनका हालचाल लेने की किसी को कोई जरूरत नहीं महसूस होती? सबको पता चल चुका है कि वह बीमार हैं, तो कोई यही पूछ लेता कि अब वह कैसे हैं? तबीयत कैसी है? जब माथुर साहब फोन करते हैं तब लोगों को याद आता है कि वह बीमार हैं और लोग तबीयत के बारे में पूछते हैं।हद है लेकिन!    

उस दिन सुबह सीमांत टेबल पर नाश्ता रख आया, लेकिन उसने और दिनों की तरह दरवाजा नहीं थपथपाया।उसने सोचा, पापा देख ही लेंगे।और जब निशांत दिन का खाना लेकर आया तो उसने गौर ही नहीं किया कि नाश्ता ज्यों का त्यों पड़ा है।असल में उसी समय उसका मोबाइल बज उठा और उसने थाली टेबल पर पटकी और मोबाइल उठा लिया।जब सीमांत रात का खाना रखने आया तो उसकी नजर नाश्ते और दिन के खाने पर पड़ी।वह झटके से कमरे में घुसा।कमरा खाली था।बाथरूम भी खुला हुआ था।उसने सोचा, पापा आसपास टहलने चले गए होंगे।उसने उनका मोबाइल लगाया तो वह वहीं बेड पर बजने लगा।

सीमांत दौड़कर ऊपर आया और उसने निशांत को फुसफुसाकर यह बात बताई ताकि किसी और को पता न चले।पर पता चल ही गया।दोनों भाई पार्क में गए फिर गार्ड से पूछा।उसने अनभिज्ञता जाहिर की।कुछ देर वे आसपास चक्कर काटते रहे।फिर उन्होंने धड़ाधड़ पड़ोसियों, माथुर साहब के दोस्तों और रिश्तेदारों को फोन लगाया लेकिन माथुर साहब का कुछ भी पता नहीं चला।तब निशांत ने लंबी सांस लेकर कहा, ‘पुलिस को बताना होगा।’ श्वेता ने सलाह दी कि ज्वाइंट कमिश्नर मेहता से मिलकर बात करना ठीक रहेगा, वह माथुर साहब को जानते हैं।माथुर साहब की पत्नी को लग रहा था कि उनके पति जरूर नजीबाबाद चले गए होंगे।वहां भी फोन करके सबको बता दिया गया।इस तरह दो दिन बीत गए, लेकिन उनकी कोई सूचना नहीं मिली।

उस दिन सीमांत को न जाने क्या सूझा कि वह नीचे वाले कमरे में घुसा और एक-एक चीज का मुआयना करने लगा।बेड पर तकिये के नीचे उसे डायरी से फाड़ा गया एक पन्ना मिला, जिस पर माथुर साहब ने पेंसिल से यह कविता लिखी थीः
मैं लौट जाना चाहता हूँ
अपनी जड़ों में
मैं लौटना चाहता हूँ वनस्पतियों में
जलकण में, धुएं में, धातुओं में
जिनका मैं अंश हूँ
जिंदगी के आकाश में बहुत लहराया
मैं पतंग की तरह
मुझे समेट लो अब
खींच लो डोर
ओ क्षिति जल पावक
गगन समीर।

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