कवि, समीक्षक और संस्कृति कर्मी।विद्यासागर विश्वविद्यालय, मेदिनीपुर में सहायक प्रोफेसर।

 

 

21वीं सदी में उदारीकरण, लोकतंत्र और गांधी के विचारों को लेकर एक गहरी बेचैनी है। यह हमारे लिए एक आश्वस्ति है। विमर्शों के इकहरेपन के बरक्स आलोचक विचार-विमर्श की एक समावेशी और संवादपरक जमीन तैयार करने में लगे हैं। यह जरूरी है कि हिंदी लेखक हाशिये के प्रश्नों को समावेशी ढंग और समभाव से हल करें। अगर आज हम बिखरे भारत को समेटने में नाकाम हैं तो, भविष्य में लोकतंत्र, गांधी और मानवतावादी राष्ट्रीय निर्माण का स्वप्न खतरे में पड़ जाएगा। हालांकि कुछ पुस्तकों को देखकर कहा जा सकता है कि हिंदी लेखन का परिसर साहित्यानुशासन से ज्यादा सामाजिक एवं लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ है।

 

लोकतंत्र का अर्थ ‘बहसों से चलने वाली सरकार’ से लिया जाना चाहिए। इस संकलन के सभी लेखकों को इस बात की चिंता है कि आज देश में असहमति और बहस के लिए जगहें सिकुड़ती जा रही हैं।

अरुण कुमार त्रिपाठी द्वारा संपादित पुस्तक ‘लोकतंत्र का भविष्य’ भारत में लोकतंत्र के इतिहास और वर्तमान  से जुड़े प्रश्नों का दस्तावेज है। इस पुस्तक में कुल 12 लेख हैं। इनमें समकालीन धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक-सांस्कृतिक एवं लोकतांत्रिक मुद्दों पर विस्तृत तथ्यपरक एवं आलोचनात्मक चर्चा है। यह आजादी के बाद के भारत का लेखा-जोखा भी है। इसमें लेखकों ने लोकतंत्र के बनने और बिखरने की घटनाओं पर विवेकपूर्ण ढंग से लिखा है। वे भारत में लोकतंत्र के विकास को चार चरणों में देखते हैं। पहला, औपनिवेशिक शासन काल में देश में राष्ट्रीयता के प्रश्न ने लोकतंत्र-बोध को मजबूत किया। दूसरा, आपातकाल के बाद भारतीय जनमानस ने अपनी परिपक्वता का परिचय देते हुए तानाशाही व्यवस्था के विरुद्ध लोकतांत्रिक मूल्यों को सबसे ज्यादा प्रचारित किया। तीसरा है 1990 का दशक, जब लोकतंत्र की जड़ों को नई लहर के विभिन्न आंदोलनों एवं विरोधों ने मजबूती प्रदान की। यह वह समय था जब कॉलेजियम प्रणाली का गठन किया गया और सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका के बजाय न्यायपालिका के अधिकार बढ़ा दिए गए। चौथा, हाल के दशकों में संचार माध्यमों और तकनीक की अभूतपूर्व प्रगति ने लोकतंत्र के प्रति लोगों में आग्रह बढ़ाया है।

अरुण कुमार त्रिपाठी इतिहास के पुनर्लेखन के नाम पर फैलाई जा रही अफवाहों का खंडन करते हैं। अफवाहें हर युग में सत्ता पक्ष के औजार के तौर पर काम करती हैं। लोकतंत्र का वर्तमान ऐसे ही पुनर्लेखन और अफवाहों के बीच फँसा है। इन दिनों भारत में लोकतंत्र के इतिहास को लेकर एक भ्रामक नैरेटिव बनाया जा रहा है।

अरुण कुमार त्रिपाठी 20 मई 1956 में अभिव्यक्त अंबेडकर की कुछ बातों का यहां उल्लेख करते हैं, (1) सिर्फ शासन करने वालों को चुन लेने का अधिकार मिल जाने से लोकतंत्र कायम नहीं हो जाता। (2) लोकतंत्र की जड़ें सरकार के स्वराज में नहीं होती, बल्कि उससे अलग होती हैं, लोकतंत्र प्राथमिक रूप से एक मिली-जुली जीवन पद्धति है। (3) लोकतंत्र की जड़ें सामाजिक संबंधों में होती हैं- जो लोग समाज बनाते हैं उनके साझा जीवन में होती हैं। (4) लोकतांत्रिक सरकार के लिए लोकतांत्रिक समाज होना अनिवार्य है। लोकतंत्र एक राजनीतिक मशीन से बड़ी चीज है। यह एक सामाजिक व्यवस्था से कुछ ज्यादा है। यह एक मानसिक रवैया है, एक जीवन दर्शन है। इससे लोकतंत्र के प्रति संकुचित दृष्टिकोण से पर्दा हटता है।

देश की एक बड़ी आबादी संविधान द्वारा प्रदत्त गणतंत्र से संबद्ध होने के बाद भी हाशिए पर खड़ी है। इसलिए यह प्रश्न हमेशा मंडराता है कि वर्चस्ववादी मानसिकताओं के बीच लोकतंत्र का भविष्य कहां तक सुरक्षित रह पाएगा? पुस्तक के लेख बढ़ती धार्मिक कट्टरता और सांस्कृतिक एकरूपता से लोकतंत्र के लिए बन रहे खतरे से हमें आगाह करते हैं। अरुण कुमार त्रिपाठी का कहना है कि लोकतंत्र का अर्थ ‘बहसों से चलने वाली सरकार’ से लिया जाना चाहिए। इस संकलन के सभी लेखकों को इस बात की चिंता है कि आज देश में असहमति और बहस के लिए जगहें सिकुड़ती जा रही हैं।

संकलन के लेखक लोकतंत्र के भविष्य को सुंदर बनाने के कुछ सूत्र गांधी के विचारों से लेते हैं। गांधी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है, ‘बहुसंख्या की बात माननी चाहिए। लेकिन बहुसंख्या जो भी निर्णय करे, उन्हें मानना दासता है। लोकतंत्र भेड़चाल नहीं है। लोकतंत्र में राय जाहिर करने और कार्य करने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सावधानी के साथ रक्षा की जाती है। इसलिए मैं मानता हूं कि अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से भिन्न दिशा में कार्य करने का पूरा-पूरा अधिकार है।’ लेखक गांधी के इस विचार से इत्तेफाक रखते हैं जहां लोकतंत्र का तात्पर्य विरोधों के बीच संवाद और सामंजस्य है।

इस पुस्तक में कई लेखकों और चिंतकों के विचारों के आलोक में लोकतंत्र को समझने का प्रयत्न है। रमेश दीक्षित अपने लेख में ब्रायन. एस. रोमर की पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ डेमोक्रेसी’ (2013) का जिक्र करते हैं। इसमें आधुनिक लोकतंत्र की जड़ें ईसा-पूर्व पांचवी, चौथी सदी के यूनानी नगर राज्यों में हैं। अभय कुमार दुबे अपने साक्षात्कार में लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए लोक लुभावनवाद और तानाशाही व्यवस्था से बचने की बात करते हैं। नरेश गोस्वामी अपने लेख ‘लोकतंत्र: स्वप्न से अंतर्विरोधों तक’ में लोकतंत्र के अंतर्विरोधों की ओर संकेत करते हैं। विजय जी अपने लेख ‘पूंजीवाद से परे जाने की जरूरत’ में लोकतंत्र और पूंजीवाद के संबंधों पर तटस्थ मूल्यांकन करते हुए वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की रिपोर्ट के हवाले से यह बताते हैं कि भारत के एक प्रतिशत अमीरों के पास देश की 40% संपत्ति है और नीचे के 50% लोगों के पास सिर्फ तीन प्रतिशत संपत्ति है। पूंजी के असमान वितरण से लोकतंत्र का भविष्य भला कहां संवर सकता है? डॉ. सुनीलम अपने लेख में लोकतंत्र के भविष्य को जन आंदोलन से जोड़ कर देखते हैं। उन्हें लगता है कि आंदोलन के बिना लोकतंत्र कमजोर होता है। गिरीश्वर मिश्र देश में लोकतंत्र की मजबूती का संबंध औपनिवेशिक अतीत की मुक्ति से जोड़ कर देखते हैं। इस पुस्तक में जयशंकर पांडेय का लेख ‘आपातकाल का अतीत और उसका भविष्य’ के अंतर्गत आपातकाल के बाद क्षेत्रीय अस्मिता की शक्तियों के उभार को लोकतंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण घटना के तौर पर देखने की कोशिश है।

अनिल जैन, सैयद  शाहिद अशरफ और कमल नयन चौबे ने अपने लेख में लोकतंत्र के भविष्य के लिए क्रमशः न्यायपालिका के अधिकार को सुरक्षित और मजबूत बनाने, अल्पसंख्यकों के अधिकार और हाशिए पर खड़े आदिवासी सहित तमाम वर्गों के हितों के संरक्षण को जरूरी माना है। इस संकलन में शंभुनाथ का लेख है ‘लोकतंत्र का पुनर्निर्माण’। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि यह पुस्तक लोकतंत्र के ऊपर घिर रहे संकट के बादलों के बीच एक बिजली की चमक की तरह है। यह हमें अंधत्व से मुक्ति की राह दिखाती है।

जिज्ञासा – क्या वजह है कि दुनिया में लोकतंत्र की जगह अधिनायकवाद का उभार बढ़ा है?

अरुण कुमार त्रिपाठी – शीत युद्ध समाप्त होने के बाद जहां साम्यवादी देशों में भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया तेज हुई वहीं फ्रांसिस फुकुयामा जैसे चिंतकों ने ‘एंड आफ हिस्ट्री’ लिखकर यह संभावना जताई कि अब दुनिया में लोकतंत्र की तेज लहर चल रही है और देर-सबेर दुनिया के सभी देश उन मूल्यों को अपनाएंगे जो फ्रांसीसी राज्य क्रांति से निकले थे। यानी स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व सभी का आदर्श होगा। इसी के साथ पूंजीवाद के प्रसार के लिए उदारीकरण और वैश्वीकरण की जो लहर चली उसने यह भ्रम पैदा किया कि अर्थव्यवस्था पर राज्य की पकड़ समाप्त की जाएगी और उसी के साथ नागरिकों पर भी पकड़ बहुत ढीली होगी।

कुछ समय बाद वैश्वीकरण ने अपने सिद्धांतों को संशोधित किया और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं ने महसूस किया कि मजबूत राज्य के हस्तक्षेप के बिना विकास का लक्ष्य हासिल नहीं होगा। यानी अधिनायकवाद जरूरी है, अगर तरक्की करनी है।

जिज्ञासा – ग्लोबल प्रेस फ्रीडम इंडेक्स के अनुसार भारत की रैंकिंग 150 वां है। इस बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?

अरुण कुमार त्रिपाठी -भारत में प्रेस और मीडिया की स्वतंत्रता निर्बाध और अक्षुण्ण कभी नहीं रही है, पर आपातकाल के दौरान( तब मीडिया के एक हिस्से ने लड़ाई लड़ी थी) और उसके बाद एक दौर आया था जब प्रेस ने पूंजी और सत्ता के बजाय स्वाधीनता को चुना था। लेकिन जैसे-जैसे मीडिया में बड़ी पूंजी और आधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रवेश हुआ, वैसे-वैसे वह बाजार और सरकार पर निर्भर होता गया और जनता के हितों और नागरिकों के अधिकारों से उसकी दूरी बढ़ती गई।

इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में मीडिया शक्तिशाली दिखता था तो इसलिए राजनीति में एकदलीय दबदबा बिखर गया था। तमाम आंदोलन चल रहे थे और क्षेत्रीय दलों के साथ राज्यों की शक्ति बढ़ी थी। इसलिए मीडिया चाहकर भी एकरंगी नहीं हो सकता था। लेकिन 2014 के बाद पूंजी और प्रौद्योगिकी पर नियंत्रण के माध्यम से सरकार ने मीडिया पर भी नियंत्रण बनाया। उपलब्ध कानूनों का अभिव्यक्ति की आजादी के विरुद्ध कड़ाई से इस्तेमाल किया और सूचना प्रौद्योगिकी से संबंधित नए कानून बनाए गए। एक दौर में शक्तिशाली लगने वाले सोशल मीडिया को या तो पार्टी के आईटी सेल से नियंत्रित किया गया या फिर स्वतंत्र विचारों को धमकाया गया। मीडिया नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई कोविड ने। इस दौरान जब मीडिया घरानों की हालत खराब हुई तो उन्होंने हाहाकार मचाया। सरकार ने उन्हें बचाया, लेकिन उनकी आजादी की बलि ले ली।

जिज्ञासा – भारत के लोकतंत्र में आज अल्पसंख्यक, आदिवासी, स्त्री और दलित  कहां खड़े हैं?

अरुण कुमार त्रिपाठी – जहां तक अल्पसंख्यकों की बात है तो उनका नेतृत्व राजनीतिक रूप से हाशिए पर ठेला जा चुका है। उनके एक हिस्से को पटाया भी जाएगा, पर उनकी न राजनीतिक हैसियत होगी और न ही उनके धार्मिक और राजनीतिक अधिकारों की रक्षा हो पाएगी। भविष्य में उन्हें वोट से वंचित भी कर दिया जाए तो हैरानी नहीं होगी। आदिवासी, दलित और स्त्री शो रूम की शोभा बढ़ाएंगे। उनके लिए आरक्षण होगा। उन्हें बड़े पदों पर भी बिठाया जाएगा, लेकिन सवर्णों के एजेंडे के साथ। वे संगठित होकर इस पतनशील लोकतंत्र को बचाएंगे ऐसी कोई उम्मीद नहीं है। भारत में लोकतंत्र को बचाना ईरान और तुर्की देशों से ज्यादा कठिन है।

 

 

संसार के इतिहास में शायद गांधी पहले हुए हैं जिन्होंने अहिंसा को सामाजिक व्यवहार, बल्कि आदतों और दैनिक जीवन का आवश्यक आचरण कहा।

कनक तिवारी की पुस्तक ‘कालजयी हिंद स्वराज : जिरह की कोशिश’ में गांधी-चिंतन का स्मरण ही नहीं, उसका एक बड़े परिप्रेक्ष्य में तार्किक विश्लेषण भी है। यह पुस्तक गांधी के विचारों से आधुनिक भारत को गढ़ने का एक स्वप्न रोपती है। गांधी ने 1909 में ‘हिंद स्वराज’ में एक भिन्न भारत का सपना देखा था। गांधी देश के आखिरी पायदान पर खड़ी जनता के हित के बारे में सोचते थे। वे मशीन का विरोध इसलिए नहीं करते कि वह तरक्कीपसंद नहीं थे, बल्कि इसलिए करते थे कि उन्हें यह आशंका थी कि मशीन के जरिए मनुष्य के एहसासों को विस्थापित किया जा सकता है। वह पूंजीवादी व्यवस्था के जाल से औपनिवेशिक भारत की मुक्ति का रास्ता बनाने के लिए ही ग्रामीण आर्थिक निर्भरता एवं ‘लोकल’ तथा ‘मैनुअल टूल्स’ की बात करते हैं।

आज जब पूरी दुनिया में आर्थिक विषमता की खाई चौड़ी की जा रही है, तब गांधीवादी लेखक कनक तिवारी अपनी इस पुस्तक में पूंजीवाद तंत्र की लूट को चिह्नित करते हुए उसके खतरों से हमें आगाह करते हैं। वे गांधी के ‘हिंद स्वराज’ का पुनःपाठ करते हुए विगत वर्षों में उत्पन्न आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक चुनौतियों से टकराने का नैतिक साहस प्रदान करते हैं। वे गांधी के विचारों को अपना पथ मानते हुए लिखते हैं- ‘मेरी प्रतिबद्धता गांधी को लेकर इस तरह है कि मैं हिंद स्वराज को स्थिर हो गई किसी विचारधारा का उद्घोष नहीं मानता। यह किताब समय के थपेड़ों के साथ करवट लेती हुई हर तात्कालिक समस्या या घटना को गांधी दृष्टि से रोशन कर पाथेय की ओर बढ़ने का हौसला देती है।’ गांधी के ‘हिंद स्वराज’ के बारे में लेखक का यह मानना है कि लगभग 115 वर्ष पहले लिखी गई इस पुस्तक में व्यक्त समस्याएं आज भी मौजूद हैं। आज आधुनिक सभ्यता के औजार के तौर पर मौजूद मशीनें और तकनीक आधारित व्यवस्थाएं कहीं-न-कहीं मानव श्रम के विस्थापन में लगी हैं।

‘हिंद स्वराज’ के बारे में गांधी स्वयं कहते हैं- ‘मेरी राय में यह किताब ऐसी है कि यह बालक के हाथ में दी जा सकती है। यह द्वेष-धर्म की जगह प्रेम-धर्म सिखाती है। हिंसा की जगह आत्म-बलिदान को रखती है। पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है।’ कनक तिवारी गांधी के आत्मबल के सहारे मनुष्यता को बचाने का स्वप्न देखते हैं। वे गांधी के दिखाए पाठ से नई पीढ़ी को इसलिए भी जोड़ना चाहते हैं कि इन दिनों धर्मांधता के साथ प्रभेद-मूलक पुराने प्रतीक पुनः सामने आ रहे हैं। समाज में सौहार्द घट रहा है। चिंताजनक यह है कि आज गांधी की विश्वसनीयता को भी प्रश्नांकित किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में गांधी का नैतिक आत्मबल बाजार के लोकलुभावन नारों और सत्ता के प्रलोभन के बीच एक भिन्न प्रेरणा देता है।

कनक तिवारी ‘हिंद स्वराज’ के बहाने गांधी-विस्मृति एवं उनके विस्थापन के प्रयासों के दौर में उनके सत्य, अहिंसा, आर्थिक आत्मनिर्भरता संबंधी चिंतन की ओर उम्मीद से देखते हैं। ‘हिंद स्वराज: अतीत से भविष्य’ लेख में वे सत्य, अहिंसा और स्वतंत्रता के  रास्ते से मानवीय राष्ट्र के निर्माण का स्वप्न देखते हैं। वे हिंसा की सभ्यता की जगह एक बृहत्तर राष्ट्रीय-सांस्कृतिक परिसर बनाने की बात करते हैं। वे कहते हैं,  ‘संसार के इतिहास में शायद गांधी पहले हुए हैं जिन्होंने अहिंसा को सामाजिक व्यवहार, बल्कि आदतों और दैनिक जीवन का आवश्यक आचरण कहा।’ आज जब हम पश्चिम की नकल करने में लगे हैं और विदेशों से आयातित संस्कृति और उच्च तकनीक के संसार में जी रहे हैं, तब गांधी की ओर देखने की ज्यादा आवश्यकता है। गांधी ने ही ‘हिंद स्वराज’ में विवेकानंद की तरह ‘लर्न फ्रॉम इंडिया’ (भारत से सीखो) की बात कही थी!

एक समय गांधी को मशीन-विरोधी कहकर प्रचारित किया गया। इस संदर्भ में गांधी ने 1944 में ‘हरिजन’ पत्रिका में कहा था, ‘मशीनों के प्रति मेरे विरोध के बारे में बहुत ज्यादा गलतफहमी है। मैं हर मशीन का विरोधी नहीं हूं। मैं केवल उन्हीं मशीनों का विरोधी हूं, जो श्रमिकों को विस्थापित कर बेरोजगार बना देती हैं।’ गांधी का ऐसा सोचना गलत नहीं था। आज हम देख सकते हैं कि कृत्रिम मेधा के कारण, यंत्रों के ज्यादा इस्तेमाल से पूरी दुनिया में लगभग 47% नौकरियों में कटौती की आशंका जताई जा रही है।

गांधी ‘हिंद स्वराज’ में कहते हैं- ‘जो विचार यहां रखे गए हैं, वे मेरे हैं और मेरे नहीं भी हैं। वे मेरे हैं, क्योंकि उनके मुताबिक बरतने की मैं उम्मीद रखता हूँ। वह मेरी आत्मा में गढ़े-जैसे हैं। वे मेरे नहीं हैं, क्योंकि सिर्फ मैंने ही उन्हें सोचा हो सो बात नहीं। कुछ किताबें पढ़ने के बाद वे बने हैं। दिल में भीतर ही भीतर मैं जो महसूस करता था उसका इन किताबों ने समर्थन किया।’ ऐसे में यह धारणा प्रबल होती है कि ‘हिंद स्वराज’ एक वैश्विक बोध से भरी रचना है। टॉलस्टॉय गांधी के उनके पथ के मुरीद थे।

कनक तिवारी की पुस्तक का एक अर्थ यह है कि आज जब इतिहास के पुनर्लेखन के नाम पर उसे विकृत किया जा रहा है, गांधी के ‘हिंद स्वराज’ के विचार हमें इतिहास-बोध, नवोन्मेष के विचार, प्रेम, पारस्परिकता, सांस्कृतिक पुनर्निर्माण, आर्थिक निर्भरता की ओर उन्मुख करते हैं। गांधी ने आधुनिक सभ्यता के भुक्खड़ और उपभोक्तावादी संस्कृति के बरक्स स्वराज, स्वदेशी और सत्य के आधार पर सदियों पुरानी भारतीय सभ्यता का पुनराविष्कार करते हुए एक राष्ट्रीय-पहचान का विकल्प निर्मित किया था।

जिज्ञासा – आप गांधी के ‘हिंदी स्वराज’ को आज कितना जरूरी मानते हैं?

कनक तिवारी – यह जानना ज़रूरी है कि ‘हिंद स्वराज’ को गांधी ने क्यों लिखा। उन्होंने अपने कई खुदरा किस्म के विचार यहां-वहां नोट किए थे। उन्हें संकलित नहीं किया था। दरअसल इस किताब को लिखने के पहले गांधी हिंसा का प्रतिरोध करने और भारत की आज़ादी के लिए हिंसा के सहारे काम करने वाले लोगों को, जिनमें सावरकर भी हैं, उनको समझाने के लिए लंदन गए थे। उन्होंने अंगरेज हुक्मरानों को भी समझाइश दी थी। गांधी किताबी ज्ञान के आधार पर कह रहे थे। वे भारत की आज़ादी के समानांतर दक्षिण अफ्रीका में उन्हीं अंगरेजों के खिलाफ अहिंसक संघर्ष कर रहे थे। उन्होंने वहां प्रतीकात्मक तौर पर फीनिक्स आश्रम और टॉल्स्टॉय फॉर्म आदि संगठन अहिंसा के जरिए स्थापित किए थे। आज भी अहिंसा का वही संदर्भ है। सत्ता में साधारणतः हिंसक दिखती पार्टियां आती हैं। आज भारत हिंसक देश बनाया जा रहा है। उसे मजहबी दलदल में फंसाया जा रहा है। तब हर अमनपरस्त नागरिक का आत्मबल गांधी की अहिंसा को याद कर रहा है।

जिज्ञासा – आज धर्म के केंद्रीय तत्व प्रेम को बचा पाना कहां तक संभव है?

कनक तिवारी – धर्म भारत की जड़ों में है। वह मजहब के अर्थ में नहीं है। भारत में पहले हिंदू धर्म नहीं था, एक सनातन सत्ता थी। वह किसी धार्मिक संगठन से सीखकर नहीं, अपनी आत्मा की आवाज़ पर जीवनयापन करती थी। पिछली कुछ सदियों से भारत में अन्य धर्मों के लोग बड़ी संख्या में आए हैं और धर्म-परिवर्तित भी हुए हैं। इधर कूढ़मगज लोगों ने भारत के भोले, धर्मभीरु, गरीब, असंगठित और परंपरावादी लोगों के जेहन में राज्य धर्म और धर्म सत्ता के आधार पर कब्ज़ा कर उसे सत्ता उन्माद में बदल दिया है। गांधी ने सत्य और अहिंसा के साथ मूलतः प्रेम और धार्मिक सद्भाव की शिक्षा दी थी।

जिज्ञासा – क्या आपको लगता है गांधी ने हिंद स्वराज में जिस ट्रस्टीशिप के सिद्धांत की  बात कही थी, वह आज संभव है?

कनक तिवारी – गांधी का ट्रस्टीशिप का सिद्धांत मेरी नज़र में एक निर्दोष ख्याल है। उसकी ओर बढ़ा तो जा सकता है, हालांकि वास्तविकता में इसको हासिल करना बीते समय से भी ज़्यादा मुश्किल है। देश पूंजीपतियों की गिरफ्त में फंस चुका है। भारत के संविधान में यह है कि देश की सभी कुदरती संपत्ति पर सबका अधिकार होगा।

संविधान सभा की बहस में एक ज़िंदादिल सदस्य प्रो. के. टी. शाह ने कहा था, ‘यदि आप देश की सार्वजनिक दौलत पर सरकारी कब्जा नहीं रखेंगे, तो ये अमीर लोग रक्त शोषक हैं। ये देश का खून चूस लेंगे।’ गांधी के पंचायती राज की अवधारणा को भी संविधान सभा ने खारिज कर ऐेतिहासिक गलती की है। हालांकि बाद में उसे सीमित ढंग से लाने की कोशिश की गई है। गांधी का ऐतिहासिक वाक्य है कि देश में इतनी दौलत है कि वह हर एक के लिए काफी है, लेकिन एक लालची के लिए नाकाफी है।

जिज्ञासा – आज गांधी को आजाद भारत में विस्थापित करने और नकारात्मक नैरेटिव में रिड्यूस करने की साजिश को आप कहां तक सही मानते हैं?

कनक तिवारी – गांधी ने चंपारण, खेड़ा, दांडी के सत्याग्रह में केवल धीरज और साहस के साथ ही हिंदुस्तानियों के संस्कार नहीं रचे, उन्होंने अपनी कानूनी बुद्धि का भी सहारा लिया था। वे जानते थे कि अंग्रेज भारत और दक्षिण अफ्रीका में घोषित तौर पर ही बड़बोलेपन में कानून का राज्य स्थापित करने की बात बार-बार कहते हैं। बैरिस्टर होने के नाते गांधी के इस पक्ष की ओर कम लोगों का ध्यान जाता है। वे कांटे से कांटा निकालने की शैली में कानूनी दांव-पेंच के सहारे काफी शांत और शिथिल लगते प्रयत्न के बावजूद कानून का साथ नहीं छोड़ते थे। खासतौर पर महारानी विक्टोरिया के समय गांधी ने एक छात्र के रूप में कानून पढ़ा था। वह उनकी समझ में अंतस्थ हो गया था।

गांधी को तो कांग्रेस ने ही खारिज कर दिया था। संविधान सभा में संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष ने यहां तक कह दिया था कि जनता को यदि सरकार से कोई प्रतिरोध करना है तो हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दे। सत्याग्रह, सिविल नाफरमानी और असहयोग वगैरह कुछ न करे।

जिज्ञासा – ‘हिंद स्वराज’ में गांधी ने भारत की गुलामी को केवल राजनीतिक नहीं माना, बल्कि वे पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण को भी एक औपनिवेशिक सत्ता तंत्र के रूप में देखते हैं। आपको क्या कहना है?

कनक तिवारी – गांधी ने कभी नहीं कहा कि भारत राजनीतिक तौर पर गुलाम है। वे कहते थे, भारत में अंगरेज रह जाएं लेकिन अंगरेजियत चली जाए। गांधी के लिए सभ्यता और संस्कृति किसी लबादे की तरह ओढ़ने के आवरण नहीं थे। संस्कृति और सभ्यता की जड़ें इतिहास के भी पहले की परंपराओं, जनमानस की समझ, लोक जीवन और सदियों के अनुभव बिंबों में होती हैं। ऐसी सूरत में केवल इंगलैंड नहीं, किसी भी अन्य देश की नकल करना वे ज़हर का घूंट पीने की तरह समझते थे। अब वही पूरा तंत्र भारत में रोप दिया गया जो मनुष्य-विरोधी वैचारिकताओं में लहलहा रहा है।

जिन सांस्कृतिक मूल्यों को यूरोप और ब्रिटेन ने अपनाया, वैसी सामाजिक और राजनीतिक स्थितियां भारत में नहीं हैं। वहां केवल एक धर्म ईसाइयत से सत्ता को दो-दो हाथ करने पड़ेे तो उसने ईसाइयत को सत्तातंत्र से बेदखल कर दिया। उसने मूल भावनाओं को खारिज किए बिना कानून के राज्य के आधार पर अपना लोकतंत्र विकसित किया। भारत बहुधर्मी देश है। यहां सत्ता हमलावर नहींं हो सकती। उसे सहकारिता के आधार पर चलना होगा और सर्व धर्म-सम भाव की भावना लेकर। गांधी की जुबान में हमने पश्चिम की केवल फूहड़ नकल की है।

 

दलित आंदोलन का इस्तेमाल वोट बैंक और निजीकरण के विरोध तक सीमित कर दिया गया। इतना ही नहीं एल. पी. जी. के जरिए आए निवेश और नौकरियों में भी दलितों को पर्याप्त स्थान नहीं मिला।

उत्तर-उदारीकरण के आंदोलन’पत्रकार-लेखक अकु श्रीवास्तव की महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह समकालीन जन-आंदोलनों के सामाजिक-आर्थिक आधार को समझने में मददगार हो सकती है। इसमें इस बात की चर्चा है कि 1990 में आए उदारीकरण की बयार ने भारतीय अर्थव्यवस्था, जीवनशैली और राजनीति को कितना बदल दिया है। क्या उदारीकरण के प्रभाव से आधुनिक युग के मूल्य सुरक्षित रह पाए हैं? ऐसे बिंदुओं पर विचारों से परिचित होने के लिए यह एक मुकम्मल पुस्तक है।

देश आपातकाल के झंझावतों के बाद जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से गुजरा था। देश में समाजवादी चिंतन की लहर पैदा हुई थी। कई विमर्श चल रहे थे और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए स्पेस बन रहा था। तभी उदारीकरण जैसी व्यवस्था आंधी की तरह आई। इसमें एक चमक थी, प्रलोभन था। स्वातंत्र्योत्तर भारत के टूटे सपनों के बीच मध्यवर्ग के लिए वह एक मृगतृष्णा थी। आर्थिक उदारीकरण ने दुनिया के बाजार को भौगोलिक सीमाओं और राष्ट्र के नियंत्रण से कुछ हद तक मुक्त कर दिया।

अकु श्रीवास्तव ने इस पुस्तक के हवाले से यह बताने का प्रयास किया है कि किस तरह गांधी के सपनों के घरेलू उद्योग और मझोले व्यापारी धीरे-धीरे प्रतियोगिता में मल्टीनेशनल कंपनियों के मुकाबले पिछड़ते गए। बाजार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कॉर्पोरेट घरानों का एकाधिकार बढ़ने लगा। यह वह समय है जब देशी उद्यमियों, कुशल कारीगरों और श्रमिकों की आवाज दब गई। ट्रेड यूनियन कमजोर होते गए। वे अब मल्टीनेशनल कंपनियों के समक्ष बौने हो गए। यह पुस्तक ऐसे तमाम बदलावों को चिह्नित करती है।

उदारीकरण के आरंभिक दो दशकों (1990-2010) और उत्तर-उदारीकरण (2011-2020) के विभिन्न आंदोलनों की भी चर्चा इस पुस्तक में की गई है। उदारीकरण के पहले दशक के बारे में लेखक की राय है- वर्ष 1991 से 2000 के बीच भारत में उदारीकरण का पहला दशक एक बड़े बदलाव का संक्रमण काल है। इसकी शुरुआत में डंकल प्रस्ताव का संगठित क्षेत्र के कर्मचारी संगठनों द्वारा जोरदार विरोध है। दूसरी ओर धार्मिक और जातिवादी आधार पर खासकर उत्तर भारत आंदोलित हुआ। लेखक ने उदारीकरण के दूसरे दशक के प्रभाव पर विशेष रूप से चर्चा करते हुए यह माना है कि उदारीकरण के एक दशक बाद ही इसके कई ‘साइड इफैक्ट’ सामने आने लगे। उदारीकरण ने बहुत से लोगों को रोजगार और भविष्य के नए रास्ते दिए तो बहुतों से बहुत कुछ छीना भी। उनके घर-जमीन और पुश्तैनी रोजगार खतरे में पड़ गए। औद्योगीकरण बढ़ने से प्रदूषण और पलायन भी बढ़ा।

2009 की वैश्विक मंदी के बाद राष्ट्रवाद और धर्मवाद के उग्र उभार की पड़ताल भी पुस्तक में है। वैश्वीकरण के पैसे से जो प्रवाह बना था, वह पुनः कुछ हाथों में इकट्ठा होने लगा था। अरबपतियों की संपत्ति में बेतहाशा वृद्धि होने लगी थी। इस दौर में भ्रष्टाचार भी बढ़ा। फलस्वरूप उदारीकरण के खिलाफ पुनः राष्ट्रवाद अंगड़ाई लेने लगा था, जो इस बार व्यापक राष्ट्रीय भावना से ज्यादा धर्म और नस्ल पर आधारित था। पुस्तक में तकनीकी क्रांति को भी राष्ट्रवाद और धर्मवाद के उभार के लिए एक बड़े कारण के तौर पर देखा गया है। इस दौर में मीडिया का चरित्र भी तेजी से बदला। फलस्वरूप ‘खबर’ से ज्यादा ‘मनोरंजन’ और ‘सनसनी’ का प्रभुत्व बढ़ने लगा। उपभोक्तावादी जीवन शैली को ग्लैमराइज करके मध्यवर्ग को फंसाया जाने लगा। अकु श्रीवास्तव ने इस दौर के प्रमुख आंदोलनों- 2011 का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, भारत स्वाभिमान यात्रा आंदोलन, भट्ठा पारसौल की भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन, अवार्ड वापसी आंदोलन, 2 सितंबर 2016 की सरकारी क्षेत्र में निजीकरण का विरोध, गुजरात में दलितों की पिटाई का विरोध, 2018 भीमा कोरेगांव-हिंसा, परमाणु ऊर्जा के खिलाफ आंदोलन, जल सत्याग्रह, मराठा क्रांति मोर्चा, पाटीदार आरक्षण आंदोलन, जलीकट्टू आंदोलन, तूतीकुड़ी का आंदोलन आदि आंदोलनों का विश्लेषण किया है।

अकु श्रीवास्तव ने इस पुस्तक में संकेत किया है कि दलित आंदोलन का इस्तेमाल वोट बैंक और निजीकरण के विरोध तक सीमित कर दिया गया। इतना ही नहीं एल. पी. जी. (लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन) के जरिए आए निवेश और नौकरियों में भी दलितों को पर्याप्त स्थान नहीं मिला। यह भी सही है कि दलित लेखकों का नव-अंबेडकरवादी उभार सिर्फ शैक्षिक जगत में फला-फूला।

‘उत्तर-उदारीकरण के आंदोलन’ पुस्तक में सत्ता के नए केंद्र के तौर पर नए राज्यों के गठन के लिए हुए आंदोलनों की भी चर्चा है। इस पुस्तक में लेखक ने उत्तराखंड आंदोलन, झारखंड आंदोलन और तेलंगाना आंदोलन के समाजशास्त्रीय, राजनीतिक और आर्थिक महत्व का विश्लेषण किया है। महिला सशक्तिकरण से जुड़े आंदोलनों के जरिए रोजगार, राजनीति और खेल की दुनिया में स्त्रियों की भागीदारी के प्रश्नों को भी प्रमुखता से उठाया गया है। यह सच है कि भारत में मेधा पाटेकर के नर्मदा बचाओ आंदोलन को छोड़कर कोई बड़ा आंदोलन स्त्रियों के नेतृत्व में नहीं चला है। संसद में 33% महिला आरक्षण का बिल पास होने के बावजूद अभी तक अमली जामा पहनने से वंचित है।

मिस्र में राष्ट्रपति होस्नी मुबारक के खिलाफ हुए अहिंसात्मक आंदोलन से प्रेरणा लेकर अन्ना हजारे और उनके साथियों ने जिस तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ और जन लोकपाल की मांग के लिए पूरे देश को आंदोलित किया, वह भी अभूतपूर्व था। कुछ लोगों ने बाबा रामदेव के भारत स्वाभिमान आंदोलन को समर्थन दिया। इसके बाद लोकतांत्रिक शक्तियों में बिखराव आता है और भ्रष्टाचार का मुद्दा व्यापक हो जाता है, हालांकि कहीं भ्रष्टाचार में कमी नहीं आती।

उत्तर-उदारीकरण के दौर में सांस्कृतिक-धार्मिक राष्ट्रवाद, उपभोक्तावादी संस्कृति, कृत्रिम मेधा, मध्ययुगीन प्रतीकों के पुनरुत्थान, इतिहास विकृति ने मिलकर भारत के आधुनिक महाख्यानों को खंडित कर दिया है। इसके साथ आपस के संबंध और संवाद भी टूटे हैं।

कुल मिलाकर तीनों पुस्तकों में देश की विविधता की स्वीकार्यता की जगह बढ़ती कट्टरता, मुनाफाखोरों की भूख, युद्ध और समाज में बढ़ी संवेदनहीनता को उभारा गया है। ये पुस्तकें एक नए बौद्धिक जगत की खोज करती दिखती हैं।

जिज्ञासा – भारत में आप उदारीकरण को कितना आर्थिक विकास से जुड़ा और कितना सामाजिक और धार्मिक उदारता के तौर पर देखते हैं?

अकु श्रीवास्तव – देश में जितना बदलाव ’90 के दशक और इक्कीसवीं शताब्दी में हुआ, उतना आजादी के बाद  आर्थिक के साथ – साथ सामाजिक बदलाव कभी नहीं हुआ। जब कंप्यूटर युग का आगमन हो रहा था तो साथ ही राम मंदिर के आंदोलन के कारण हमें बहुत कुछ बदलने की आहट मिल गई थी। इस बदलाव का असर 30 साल बाद भी हमको नजर आता है, जब मंडल और कमंडल के साथ देशप्रेम एक अलग व्याख्या के साथ पल्लवित-पुष्पित हो चुका है।

जिज्ञासा – आपने उत्तर-उदारीकरण का संबंध मुख्यतः सत्ता के लिए बहुसंख्यक समाज के पक्ष में ध्रुवीकरण और सूचना क्रांति से जोड़कर देखा है। इसके क्या कारण हैं?

अकु श्रीवास्तव – दरअसल उत्तर-उदारीकरण के शुरुआती वर्षों में उदारीकरण के साथ सामूहिक हित को किनारे रखकर व्यक्तिगत हित को प्राथमिकता मिलनी शुरू हो गई थी। धीरे-धीरे पूरे समाज में भगत सिंह की जरूरत तो ध्वनित होती रही, पर कोई भी अपने घर में नवांतुक बच्चों का नाम भगत सिंह रखना पसंद नहीं करता। हां, वह यह चाहता था कि पड़ोसी के घर में भगत सिंह पैदा हों। यानी सामूहिक लाभ का हिस्सा उसे मिले, लेकिन भागीदारी नहीं के बराबर हो।

जिज्ञासा – उत्तर-उदारीकरण के दौर में मीडिया का बाजारीकरण एवं सत्ताकरण होता गया है, इसके बारे में आपकी क्या राय है?

अकु श्रीवास्तव – उदारीकरण के कारण अब बाजारवाद और व्यक्तिगत हितों की चाशनी का आनंद मीडिया ले रहा है और उसने कमोबेश अपने हितों के अनुसार चलने की नई आदत डाल ली है। अपने समूहों का विस्तार उसके लिए पहली प्राथमिकता बन गई है और जिस रीढ़ की हड्डी के सहारे मीडिया चला करता था उसमें प्लास्टिक और इलास्टिक का मेल ज्यादा दिखने लगा है। अब सत्ता का लाभ लेना उसकी प्राथमिकता हो गई है। एक हद तक जिससे सत्ता खफा न हो और जनता को भी भ्रम में रखा जा सके, इस कोशिश में वह उलझता चला गया है। धीरे-धीरे मीडिया के बड़े वर्ग ने सत्ता के विरोध में रहने के मूल चरित्र को छोड़ दिया। यह उदारीकरण का एक बड़ा नुकसान है।

जिज्ञासा– इस पुस्तक में इस बात का जिक्र है कि उत्तर-उदारीकरण के दौर में भारत ही नहीं पूरी दुनिया में नस्ल, जाति और धर्म के नाम पर हुए भेदभाव के खिलाफ समानता की बात हो रही है। क्या ऐसा हो रहा है?

अकु श्रीवास्तव – आवरण में कुछ हो रहा है और बाहर से कुछ और। उदारीकरण को देश-काल और समाज के लिए लाभदायक बताया गया है। इस दौर में व्यक्तिगत संकुचन बढ़ता चला गया, मैं का विस्तार होता गया, हम पीछे हटता गया। सामाजिकता की प्रक्रिया खत्म हो रही है, बल्कि सदियों से समूहों के बीच लगा फेविकोल अपने जोड़ छोड़ता जा रहा है।

उदारीकरण के बाद आंदोलनों की संख्या कम होने ही लगी, उनकी सफलता भी नगण्य होती गई। उदारीकरण के तीन दशक बाद यह साफ हो गया है कि सामाजिक रूप से संगठित होकर लड़ने की प्रवृत्ति हम छोड़ चुके हैं। हम गरीब से निम्न मध्य वर्ग, निम्न मध्य वर्ग से उच्च मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग से उच्च वर्ग या अति विशिष्ट वर्ग में कैसे आएं, यह हमारे जीवन का उद्देश्य हो गया है। दलितों और समाज के पिछड़े वर्ग को छोटे-छोटे लाभ देकर बराबरी के लिए और बड़े आंदोलन से दूर रखने की कोशिश आज भी जारी है। हमने धर्म, नस्ल और जाति के नाम पर हो रहे विवाद, विभेद के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन नहीं किया, सिर्फ सांकेतिक नारेबाजी की।

 

समीक्षित पुस्तकें :

(1)लोकतंत्र का भविष्य : अरुण कुमार त्रिपाठी, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2023
(2)कालजयी हिंद स्वराज : जिरह की कोशिश : कनक तिवारी, आईटीएम पब्लिकेशन, दिल्ली
(3)उत्तर-उदारीकरण के आंदोलन : अकु श्रीवास्तव, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2022