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सीमा जाना बांग्ला की चर्चित कथाकार। दो उपन्यास ‘तोमार असीमे’ और ‘मानुष ओ कीटपतंगेर गल्पो’ प्रकाशित। महत्वपूर्ण पत्र–पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित। बच्चों के लिए लेखन। पश्चिम मेदिनीपुर जिले के डुमरा इंद्रनारायण बालिका विद्यालय में अध्यापन। |
संजय राय युवा कवि और आलोचक। संप्रति सेठ आनंदराम जयपुरिया कॉलेज, कोलकाता में सहायक प्राध्यापक। |
आंखें खोलकर सुरंगमा ने खिड़की की तरफ देखा। पर्दे के उस पार देखने के लिए मन व्याकुल हो रहा था। एकाध बार दम लगा कर उठने की कोशिश की, पर उठ न सकी। कुछ दिन से अल्सुबह पैर की नसों में खिंचाव-सा होता है। रमला कमरे में ही आकर मालिश करती है और सेंकती है। तब जाकर कहीं वह धीरे-धीरे उठ पाती है।
सीरियल वगैरह देखकर रमला रात में देर से सोती है। सात बजे से पहले वह उठ नहीं पाती। सुरंगमा पुकारती है तो उसे खीझ होती है। जब तक वह इस कमरे में आएगी, तब तक कुहासा छंट चुका होगा और खिड़की पर धूप आ चुकी होगी। …और वे लौट गए होंगे। पूरे दिन उसे कुछ अच्छा नहीं लगेगा। उनके लिए मन उदास रहेगा। लाठी लेकर सुरंगमा ने फिर उठकर खड़े होने की कोशिश की। पर कोशिश व्यर्थ गई। दोनों एड़ियां जैसे जमीन पर पड़ना ही नहीं चाहतीं। अपना ही भार वहन करने में अक्षम उसके पैरों को जैसे इस पृथ्वी से कोई लगाव ही न रह गया हो।
पूरे शरीर में उसे ऐंठन महसूस हुई। दर्द जैसे पैरों से शुरू होकर क्रमशः ऊपर की ओर आता हुआ कमर से होकर पूरी पीठ में पसर जाना चाहता है। ठंड के मौसम में परेशानी और भी बढ़ जाती है। रमला कहती है, ‘उमर होने पर ये सब होता है। पूरे दिन मेरे हाथ-पांव चलते हैं, फिर भी कितना दर्द होता है! कभी-कभी इतनी तकलीफ होती है कि लगता है मौत ज्यादा आसान होती होगी। आपने तो ऊपर से हिलना-डुलना भी बंद कर दिया है।’ इन दिनों सुरंगमा की हिलने-डुलने अथवा अतिरिक्त चलने-फिरने की इच्छा नहीं होती। गतिहीनता उसे जकड़े रहती है। अभी जैसे वह धप्प से बैठ गई बिछावन पे।
कुछ ही मिनट हुए होंगे। परिवेश की निस्तब्धता भंग करते हुए एक आवाज आई। सुरंगमा के कान खड़े हो गए। कठफोड़वा पक्षी पेड़ के तने पर जिस तरह चोंच मारते हैं, ठीक वैसी ही आवाज! लेकिन खिड़की के कांच में चोंच मारकर उन्हें क्या मिलेगा! उसकी खूब इच्छा हो रही थी उनको देखने की। लेकिन शारीरिक अक्षमता ने उसे तृष्णातुर और असहाय बनाए रखा। अचानक उसे एक उपाय सूझा। उसने लाठी से खिड़की का पर्दा जरा-सा हटाया। तभी उस अलौकिक दृश्य से सुरंगमा का साक्षात्कार हुआ।
एक बार कांच में चोंच मारकर दोनों पंछी एक-दूसरे के चोंच से चोंच भिड़ा रहे थे। चारों तरफ फैले घने कोहरे के बीच जैसे प्रकृति के फलक पर बचा हुआ यह अकेला दृश्य है। सुरंगमा की आंखें जुड़ा गईं।
सांतरागाछी में झील-किनारे वाले इस फ्लैट में लगभग बीस-इक्कीस वर्षों से वह रह रही है। इस घर के बारामदे से झील काफी सुंदर दिखता है। समय मिलते ही बालकनी में बैठकर सुरंगमा झील को निहारा करती है। अक्टूबर के अंत तक यहां प्रवासी पंछियों का आगमन शुरू हो जाता है। फरवरी में काफी लौट जाते हैं। कुछ मार्च में लौटते हैं। और कुछ का लौटना कभी नहीं हो पाता। वे यहीं के होकर रह जाते हैं। चंद्रनील कहा करते थे, उनके प्रवासी जीवन का अंत हो गया।
प्रवासी पंछी यहां ठंड के आकर्षण में खिंचे चले आते हैं। ठंड उनके प्रेम की ऋतु है। ये दोनों पंछी भी एक-दूसरे के प्रेम में हैं। वैसे उनका इरादा घर बसाने का नहीं लगता। जैसे घर छोड़कर भागे फिर रहे हों। हर सुबह सुरंगमा ने उनके डैनों पर हिमकण चिपके देखा है। रात का अंधेरा समाप्त होने से थोड़ा पहले ही दोनों आकर बैठते हैं उसकी खिड़की पर। सुरंगमा के सिर के पास वाली खिड़की खोलते ही एक छोटा-सा बरामदा है। वहां एक आरामकुर्सी रखी हुई है। दोपहर को वह अक्सर वहां बैठा करती है। कभी-कभी दोनों पंछी भी उस कुर्सी पर झूलने का आनंद लेते दिखाई पड़ते हैं।
दोनों पंछी उड़ गए हैं। वे धूप की एक किरण भी अपने शरीर पर पड़ने नहीं देते। जैसे वे चाहते ही नहीं कि उनके डैनों से हिमकण सूखें। उन हिमकणों की रक्षा के लिए वे यहां-वहां भागे फिरते हैं। फिर भी सुरंगमा खिड़की की ओर टकटकी लगाए बैठी है। दोनों पंछियों के प्यार-तकरार के दृश्य ने उसके मन पर कब्जा जमा रखा है। बीच-बीच में उन दोनों के बीच झगड़ा शुरू हो जाता है। सुरंगमा हँसती है। क्षणों में ही झगड़ा बंद कर चोंच से चोंच सटाकर दोनों एक-दूसरे के प्रति प्यार जताने लगते हैं। इस तरह शायद वे एक-दूसरे के और करीब आ जाते हैं!
सुरंगमा जिन दिनों दुर्गापुर रहा करती थी, क्वार्टर के पास ही एक मैदान हुआ करता था। उसमें हुआ करती थी बैठने के लिए बने बेंचों की कतार। कम उम्र का एक जोड़ा रोज आकर एक बेंच पर बैठा करता था। लेकिन बेंच इस तरह से रखे हुए थे कि सुरंगमा उस जोड़े को पीछे से ही देख पाती थी। दोनों पंछियों को एक साथ देखना जैसे उसी कम-उम्र जोड़े को सामने से देखना हो!
चादर झाड़ते हुए रमला बोली, ‘क्या हुआ, चाय तो ठंडी हो गई, उसका कुछ ख्याल है? पी लीजिए, फिर मालिश कर देती हूँ।’
‘धूप हो जाने पर चाय पीने का जायका चला जाता है। कल से मत देना।’
‘गुस्सा गईं? सोती हूँ कितनी देरी से पता है न? अरे हाँ…! कल रात आपके बेटे ने फोन किया था।’
सुरंगमा सुनकर चुप रहती है। कुछ नहीं कहती। कुछ देर इंतजार करने के बाद रमला खुद ही कहती है, ‘वहां सब ठीक है। पूछ रहे थे, दवा वगैरह ठीक से ले रही हैं न! पैसों की जरूरत पड़े तो बताने को कहा। चाहिए पैसा?’
‘ना’, तुरंत जवाब दिया सुरंगमा ने।
‘बेटे की परीक्षा है, वरना इस ठंड में आते वे लोग। जानती हैं, आपके पोते का अगले साल कॉलेज में दाखिला होगा। कह रहे थे, आपसे वह बात करेगा किसी दिन। ऑफिस जाने के रास्ते में थोड़ा समय निकाल कर फोन करते हैं। हमारे देश में तब रात होती है। आप तो संध्या-आरती खत्म होते न होते सो जाती हैं।’
सुरंगमा ने हाथ मोड़कर सिर पर रखा और लेट गई। रमला चिल्लाई, ‘ये क्या! फिर लेट गईं? चाय नहीं पीएंगी?’
‘बाद में देना।’
‘हॉरलिक्स दूं? दूध–सूजी?’
सुरंगमा चुप रही। रमला ने मालिश करते हुए कहा, ‘नाराज हैं? अच्छा, कल से सुबह–सुबह चाय दे दिया करूंगी। क्या करूं, बताइए? लेटने पर भी नींद कहां आती है! हजार तरह की चिंताएं घेर लेती हैं। लेटकर करवट बदलती रहती हूँ। इस बीच कम से कम दो बार बाथरूम जाना पड़ता है। इस शरीर को भी तो विश्राम की तलब होती है दीदी।’
सुरंगमा ने कोई जवाब नहीं दिया। कुछ देर मालिश करने के बाद रमला बोली, ‘लीजिए, अब खड़े हो कर देखिए तो।’
सुरंगमा उठकर बैठती है। लाठी के सहारे धीरे-धीरे खड़ी होती है। खिंचाव थोड़ा कम हुआ है। रमला इस तरफ का दरवाजा खोल देती है। सुरंगमा धीरे-धीरे बरामदे में जाकर खड़ी हो जाती है।
हाउसिंग से सटा हुआ एक चौड़ा रास्ता है। लोग आ-जा रहे हैं। हाट-बाजार की दौड़-भाग अथवा ट्रेन-बस पकड़ने की व्यस्तता में लीन…। सुरंगमा नीचे रास्ते की तरफ देखती है। मोतियाबिंद से ग्रस्त आंखों के सामने जैसे कुहासे की एक महीन चादर हमेशा पड़ी रहती है। कुछ भी स्पष्ट नहीं दिखता। लगता है टोपी-स्वेटर पहनी हुई कुछ आकृतियां कुहासे की परतों में गोचर से क्रमशः आगोचर होती जा रही हैं।
आरामकुर्सी पर उसे बिठा कर रमला ने कहा, ‘बैठिए थोड़ा! मैं नाश्ता लेकर आती हूँ। आज लेकिन दावा खाने में देरी हो गई।’
सुरंगमा आरामकुर्सी पर लेटी हुई है। उसके दोनों पांव एक टूल पर पसार कर रमला खुद भी पास ही एक कुर्सी पर बैठ गई। ठंड की दोपहरी में भोजन करने के बाद रोज दोनों यहां आकर बैठती हैं। पहले खूब बातें होतीं थीं दोनों में। बचपन की बातें। घर-परिवार की बातें। अपने-अपने पतियों की बातें। उनके न होने की बातें। सोहम के बचपन की बातें। आजकल सुरंगमा कुछ खास बतियाती नहीं। चुपचाप सामने की तरफ देखती रहती है। रमला अकेले ही बकबक करती है।
‘अरे! एक बात कहना तो भूल ही गई…’ भूली हुई बात याद करते हुए रमला ने कहा, ‘आपकी बहू आपके बेटे के साथ उस देश में नहीं रहेगी अब। किसी दूसरे देश जा रही है। दोनों के काम अलग-अलग हैं इसलिए। साल दो साल में एक बार दोनों का मिलना हो पाएगा। आपका पोता अपने पिता को छोड़कर नहीं जाएगा। ये सुनकर, मेरी तो स्थिति काटो तो खून नहीं वाली हो गई। सोहम हँस रहे थे। कह रहे थे, घर-परिवार की इतनी चिंता करने पर वैज्ञानिकों का कहां चलता है भला! मैं ठहरी एक साधारण महिला, ये सब बातें मेरे पल्ले नहीं पड़ने वाली। और कहा, आप जब तक हैं तभी तक ये फ्लैट भी है। तय है वे लोग अब इस देश में नहीं लौटने वाले। भगवान करे, आपके रहते मैं चली जाऊं। वरना इस उमर में बताइए अकेले हो जाने पर अब कहां ठौर खोजती फिरूंगी?’ सारी बातें एक साँस में कह गई रमला।
बंद आँखें खोलकर सुरंगमा ने रमला की ओर देखा। एक पंछी के डैने की छाया उसके चेहरे के ऊपर से उड़ गई या शायद छाया के भीतर से रमला खुद ही। किसी समय सुरंगमा खूब आईना देखती थी। वह इच्छा अब मर गई है। आजकल रमला के चेहरे में अपने को खोजती है। कभी-कभी उसी की इच्छाओं के भीतर वह अपने को प्रतिफलित होता देखती है।
सुरंगमा एकटक देखती रहती है। जैसे इस दृश्य के अलावा वह कुछ देखना ही नहीं चाहती। बिलकुल आकांक्षाहीन। भोर होने से पहले रमला खिड़कियां खोल देती है। खीझ में भुनभुनाते हुए एक प्लेट में बिस्कुट के कुछ टुकड़े और एक मुट्ठी खोई फैला देती है। दोनों पंछी आते हैं। चटखारे लेकर खाते हैं। बीच-बीच में मुंह उठाकर सुरंगमा की ओर देखते हैं। फिर वे एक-दूसरे की ओर देखते हैं। देखने पर लगता है वे दोनों सुरंगमा के बारे में आपस में बात कर रहे हैं। सुरंगमा ध्यान से देखती है, दोनों हू-ब-हू एक-से हैं। जैसे किसी आईने के सामने हों। झकझक उजले रंग पर धूसर रंग की रेखा।
आजकल रमला के साथ जितनी भी बातें होती हैं, सब उन्हीं को लेकर। दस दिन के करीब हुए सुरंगमा के पांवों का दर्द बढ़ गया है। बाथरूम और स्नान के अलावा वह बिछावन नहीं छोड़ती। उनका बरामदे में बैठना भी अब नहीं हो पाता।
एक दिन रमला ने कहा, ‘अपनी प्रिय आरामकुर्सी की हालत देखकर सिहर उठेंगी आप।’
‘क्यों? क्या हुआ है वहां?’
‘बदमाशों ने वहीं उसी कोने में बसेरा बनाया है। पूरे बरामदे में उनकी बीट और उनके भोजन के कण बिखरे पड़े हैं। आपकी आरामकुर्सी को एकदम कूड़ेदान बना रखा है उनलोगों ने।’
‘खदेड़ना नहीं उन्हें। लगता है अंडा देगी।’
‘ठंड खत्म हो जाने पर?’
‘वे लोग जाएंगे नहीं देखना। और अगर चले भी गए तो ठीक लौट आएंगे पूजा के बाद।’
‘इसी खुशफहमी में रहिए!’
पहले तो सुरंगमा को अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हुआ। हड़बड़ा कर उठ बैठी वह। रमला के चीत्कार ने प्रमाणित कर दिया सुरंगमा ने ठीक ही देखा है। चार उजले डैने कमरे में यहां-वहां उड़ रहे थे। उसके बाद उनमें से एक पंछी पंखे के ब्लेड पर जा बैठा। उसकी देखदेखी दूसरा भी। पंखे के ब्लेड में हलचल हुई… और सुरंगमा के हृदय में भी। दोनों पंछियों की तरफ अपलक निहारती रही सुरंगमा। मन ही मन उनके पुकार का नाम रखा। उन्हीं नामों से उन्हें पुकारा भी।
दोनों पंछी सुरंगमा को देख रहे थे। सुरंगमा ने उनकी तरफ हाथ बढ़ाया। उसका हाथ छूकर वे पंख फड़फड़ाते हुए उड़ गए। सुरंगमा हाथ की तलहथी को अपने मुंह के सामने लेकर आई। अट्ठासी वर्षों की धुंधलाई आंखों के बावजूद उसने साफ–साफ देखा, बहुत महीन कुहासा फूल के परागकण–सा उसके हाथ की रेखाओं पर छोड़ गए हैं दोनों पंछी। रमला की दोनों आंखें पथराई रह गईं। उसे सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था। बहुत दिनों बाद बिना किसी सहारे के उठकर खड़ी हो गई थी सुरंगमा।
‘बहुत दिन हुए तुम्हारे साथ बात नहीं हुई माँ। ठीक हो न?’
‘रमला बता रही थी, दोनों देशों का टाइम जोन अलग है इसलिए…’
‘जनता हूँ आज तुम्हारा मन खराब है। वहां आने का कोई उपाय भी तो नहीं है। रमला दी बता रही थीं, तुमने दो पंछी पाले हैं? अच्छा है। लेकिन देखना उनको छूना नहीं। वे अपने शरीर में बहुत वायरस कैरी करते हैं।’
‘लंच हो गया?’ सुरंगमा ने रुक-रुक कर कहा।
सोहम ने अभिमानी स्वर में कहा, ‘नाती के बारे में कुछ नहीं पूछोगी और बहू के बारे में भी नहीं?’
‘रमला सबकुछ बताती है। तुमलोग खुश रहो बस…!’
‘सैंडी की बहुत इच्छा है इंडिया जाने की मां। स्पेशली कोलकाता। एक दोस्त बनी है उसकी। बहुत प्यारी लड़की है। इसी देश में किसी दूसरे शहर में रहती थी। उसके पिता एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में यहीं आ गए हैं। सैंडी के स्कूल में ही उसने एडमिशन लिया है। कहती है, सैंडी को वह कोलकाता ले जाएगी। सैंडी ने उसे तुम्हारे बारे में बताया है। कहा है, जाने पर तुमसे भेंट कराएगा…’
सोहम शायद थोड़ी और बात करना चाहता था। सुरंगमा ने कॉल कट कर दिया। शाम की धूप पर अचानक कुहासे की परत उतर आई। बहुत देर से रमला उसका इंतजार कर रही थी। सुरंगमा जाकर बैठी। चंद्रनील को पीला गुलाब बहुत पसंद था। खोज-खोज कर रमला बहुत सारे पीले गुलाब ले आई है। कुछ का माला बनाया है, कुछ की पंखुड़ियां तोड़कर रखी है। पीली पंखुड़ियों से चंद्रनील का मुंह ढंक गया है। आज अट्ठाइस फरवरी है। यद्यपि उनके चले जाने का दिन लीप इयर था।
खिड़की की तरफ मुंह किए बैठी थी सुरंगमा। धूप आज किसी युवा सैनिक की भांति तैनात है। सुबह एक बार डैने फड़फड़ाने की आवाज आई थी उसके कानों तक। उन्हें वह देख नहीं पाई थी। रमला कह रही थी कुछ दिनों से मादा पंछी अंडे से रही थी। एक मुहूर्त के लिए भी वहां से हटी नहीं है वह। पता नहीं अंडा फूटा कि नहीं! रमला को भी पता नहीं कब उन पंछियों से उसे भी बहुत लगाव हो गया। आजकल उनकी सारी बातें उन पंछियों के इर्दगिर्द ही घूमती हैं। एक दिन वह कह रही थी, ‘अगले जनम मैं कौवा होना चाहती हूँ।’
आश्चर्य से सुरंगमा ने पूछा, ‘क्यों?’
‘सुना है कौवों के समाज में पति छोड़कर नहीं जाते। एक बार साथ हो गया, तो तमाम उम्र उस बंधन को निभाते हैं।’
हॉरलिक्स देने आई तो रमला भी अवाक रह गई, ‘अभागे आज भीतर आए ही नहीं?’
‘एक बार देखो तो जाकर…!’
पंद्रह मिनट हो गए। रमला ने कुछ नहीं बताया तो सुरंगमा ने पुकारा, ‘क्या हुआ रमला?’
रमला धीरे-धीरे कमरे में आई। बिछावन पर बैठकर सुरंगमा के हाथ पर हाथ रखकर उसने सांत्वना के स्वर में कहा, ‘अब आजीवन कौन साथ रहता है दीदी!’
सुरंगमा बात समझ नहीं पाई, ‘मतलब?’
‘ठंड खत्म होने को है। यहां रहते तो वे बचते कैसे?’
‘चले गए?’
‘अंडे फोड़कर चूजे निकले थे। हमलोगों को पता ही नहीं चला। पूरे घर में अंडे के छिलके बिखरे पड़े हैं। पंछियों ने कब जो उन चूजों को उड़ना सिखाया! चूजों को अपनी आंखों से एक बार देख भी नहीं पाए हमलोग!’ थोड़ी देर ठहर कर अपनी रुकी हुई साँसें छोड़ती हुई रमला ने कहा, ‘उठकर बैठिए। आपको दवा खिलाकर मैं बरामदा साफ करूंगी।’
सुरंगमा पंखे के ब्लेड की तरफ देख रही थी। रमला ने उसका हाथ अपनी तरफ खींचकर उसकी हथेली फैलाते हुए कहा, ‘लीजिए! आपके लिए छोड़ गए हैं।’
सुरंगमा ने हथेली की तरफ देखा। हाथ की रेखाओं पर एक भूरा, धूसर पंख। उसने आंखें बंद कर लीं। खुद को समझाना चाहा; यह घर, यह बरामदा, यह बिछावन, रमला… इनके अलावा उसकी कोई दूसरी दुनिया है ही नहीं। लेकिन मन है कि अपने पंख फैलाकर दिग्दिगंत के पार किसी अनंत की ओर बहुत दूर कहीं उड़ा जा रहा है, जहां प्रवासी अनुकूल परिस्थितियों में अपना घर बसाते हैं।
सीमा जाना, द्वारा राजीव कुमार पाल, ग्राम : गुलुरिया, पोस्ट : मेचेदा, जिला : पूर्व मेदिनीपुर, पिन-721137 / मो. 86536 90201
संजय राय, ग्राम व पोस्ट– चांदुआ, जोड़ा पुकुर के नजदीक, काँचरापाड़ा, उत्तर 24 परगना, पश्चिम बंगाल – 743145 मो. 9883468442
Paintings by Joyeeta