युवा कवि।प्रकाशित पुस्तक कुंवर नारायण का कविता लोक

काग़ज़ात संभाल कर रखने के अलावा समय के साथ तथ्यों के संरक्षण के तमाम तरीके इज़ाद हुए।इन्हीं तरीकों में एक महत्वपूर्ण तरीका है डॉक्यूमेंट्री फिल्म का।डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का उद्देश्य तथ्यों का ऑडियो-विज़ुअल संरक्षण है।ऐसी फिल्में गैर काल्पनिक, तथ्यात्मक और नाटकीय होती हैं।जिन तथ्यों का प्रस्तुतीकरण इनका उद्देश्य होता है, उसके साथ एक निर्दिष्ट राय और संदेश भी प्रेषित करना होता है।कभी-कभी कुछ महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक घटनाएँ, जन और स्थान अपने खास महत्व के कारण फिल्म निर्माताओं को आकर्षित करते हैं।अतः डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की सार्थकता नए परिप्रेक्ष्यों की तलाश कर उनको सामने लाने में है।

ग़रीब और तीसरी दुनिया के देश पूंजीवादी देशों का चारा हैं।ताक़त और सत्ता की यूरोप केंद्रिकता ने तीसरी दुनिया के देशों के संसाधनों पर कब्जा करने के उद्देश्य से एक तरफ उनपर लगातार युद्ध थोपे, तो दूसरी तरफ वहां की कट्टरपंथी ताकतों को सामरिक व आर्थिक मदद पहुंचाकर राजनीतिक अस्थिरता पैदा करनी चाही ताकि मानवाधिकार हनन के बहाने वहाँ की भीतरी राजनीति में सीधे दखलअंदाजी की जा सके।अमेरिकी साम्राज्यवाद का एक ही उद्देश्य है तीसरी दुनिया के देशों की सत्ता पर अपना नियंत्रण स्थापित करना।स्पष्ट है कि पूंजीवाद और साम्राज्यवाद में अन्योन्याश्रित संबंध है।

‘फिल्म’ कला विधा का पूंजीवाद से वही संबंध है जो संबंध ‘उपन्यास’ विधा का औद्योगिक क्रांति से है।फिल्म पूंजीवाद के गर्भ से जन्मी कला विधा है।चूंकि यह बहुत ही प्रभावी कला विधा है और दूर-दूर तक इसका प्रभाव विस्तार हो सकता है इसलिए पूंजीवादी और साम्राज्यवादी ताकतों के लिए यह टूल के रूप में इस्तेमाल होने को अभिशप्त है।यही कारण है कि अधिकांश मनोरंजक फिल्में पूंजीवाद की पूरक ताकतों में से एक हैं।हालांकि आंदोलनकारी और विद्रोही ताकतों ने भी इसका इस्तेमाल किया, पर जब-जब इस पहल के प्रभावी होने की संभावना बनी इस पर बंदिशें लगाई गईं।डॉक्यूमेंट्री फिल्में तथ्यों के संरक्षण के साथ-साथ जनता में नए दृष्टिकोण का निर्माण भी करती हैं और विचारों का नया आयतन भी गढ़ती हैं।इसलिए इसको जनमानस के निर्माण में सहायक माना जा सकता है।

मिस्र अफ्रीका महादेश के साथ अरब देशों में एक भारी जनसंख्या वाला देश है।मिस्र पर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्में मिस्र के समृद्ध अतीत से एक अलग चित्र प्रस्तुत करती हैं।२०वीं शताब्दी के ६० के दशक में ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति के बाद से मिस्र पर लगातार अमेरिकी साम्राज्यवाद की निगाह टिकी रही।इस कारण वहां की राजनीति में लगातार एक अस्थिरता बनी रही।तहरीर चौक पर होस्नी मुबारक के खिलाफ हुआ जन प्रदर्शन और तख़्ता पलट इसका ताज़ा उदाहरण है।बी बी सी के लिए बनाई गई मोहम्मद ओमरान की डॉक्यूमेंट्री ‘द अदर साइड ऑफ स्वेज’, तहानी राचेड की फिल्म ‘फोर विमेन ऑफ इजिप्ट’ और जोहान नौजैम की फिल्म ‘द स्क्वायर’ मिस्र की इस निरंतर अस्थिरता का गवाह हैं।

‘द अदर साइड ऑफ स्वेज’ स्वेज संकट पर बनी महत्वपूर्ण डॉक्यूमेंट्री है।मिस्र के स्वेज नहर पर ब्रिटेन और फ्रांस का कब्जा था।स्वेज संकट दरअसल शीत युद्ध की कोख से पैदा हुआ था।आजाद मिस्र के दूसरे राष्ट्रपति नासिर ने सत्ता में आने के बाद स्वेज नहर कंपनी का राष्ट्रीयकरण कर दिया।इतने लंबे समय से चला आ रहा फ्रांस और ब्रिटेन का नहर से कब्जा एक झटके में समाप्त हो गया।इसे बर्दाश्त कर पाना उनके लिए संभव नहीं था।

ब्रिटेन और फ्रांस जैसी पश्चिमी ताक़तों ने स्वेज नहर पर पुनः नियंत्रण स्थापित करने के लिए मिस्र पर आक्रमण किया, राष्ट्रपति नासिर की हत्या की साजिश रची ताकि अरब देशों में उभर रही इस ताक़त को नष्ट किया जा सके।मिस्र पर हो रहे इस आक्रमण में ब्रिटेन और फ्रांस के अलावा इज़रायल भी शामिल था।इस आक्रमण से घबराने के बजाय राष्ट्रपति नासिर ने साधारण नागरिकों को साथ लेकर गुरिल्ला तरीके से लड़ाई की।इसी बीच सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के राजनीतिक दबाव के कारण तीसरे विश्वयुद्ध की बनती संभावना से घबरा कर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऐंटोनी इडेन को फौज वापस बुलानी पड़ी।पूरी दुनिया में इडेन की किरकिरी हुई।उन्हें रिज़ाइन करना पड़ा और सक्रिय राजनीति में फिर कभी उनकी वापसी नहीं हो पाई।दूसरी तरफ नासिर अरब देशों के बीच पहले ऐसे ताक़तवर नेता के रूप में उभरे जिन्होंने पश्चिम की ताकतों से लोहा लिया और जीत हासिल की।इस घटना ने अरब के साथ-साथ पूरी दुनिया में उनका सम्मान बढ़ाया।उनकी दूरदर्शिता और कूटनीति का लोहा सभी ने माना।

‘फोर बुमन ऑफ इजिप्ट’ फिल्म मिस्र की चार महिलाओं के वार्तालाप के माध्यम से आधुनिक मिस्र को समझने का प्रयास है।फिल्म का पहला शॉट है- वेदाद मित्री, सफीना कज़ेम, शहेना मकलद और अमीना रैचिड एक पुल से बातचीत करते हुए गुज़र रही हैं।बैकग्राउंड में वहां के दैनिक जीवन की आवाजें और संगीत है।चारों महिलाएं शिक्षित, संभ्रांत और बुद्धिजीवी हैं।एक तरफ इनका संबंध अलग-अलग धर्म, समाज और राजनीतिक विचार से है तो दूसरी तरफ ये सभी आधुनिक मिस्र की नागरिक हैं और अपने प्यारे देश की बेहतरी चाहती हैं।इन चारों महिलाओं की पहचान क्रमशः प्रतिबद्ध पत्रकार, प्रतिबद्ध लेखक, किसानों के लिए आवाज़ उठाने वाली सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता और प्रतिबद्ध वामपंथी प्रोफेसर की है।चारों महिलाएँ पूरी फिल्म के दौरान मिस्र की संस्कृति, राजनीति और इस्लाम पर बातें करती हैं।वे एक तरह से पाँच दशकों की लंबी यात्रा का संस्मरण सुनाती हैं।अतीत की राजनीति और विचारधारा से अपने अनुभव के माध्यम से जुड़ती हैं।राष्ट्रपति अनवर सदत इनके मुक्त विचारों और विरोध को हजम नहीं कर पा रहे थे अतः उन्होंने अपने शासनकाल में इन्हें जेल भेजा था।ये चारों महिलाएँ उनके शासनकाल में राजनीतिक बंदी थीं।

‘द स्क्वायर’ २०११ में हुई मिस्र की क्रांति पर बनी डॉक्यूमेंट्री है।तहरीर चौक इस आंदोलन का केंद्र था।कहा जाता है कि लाखों लोग तत्कालीन सत्ता के ख़िलाफ़ इकट्ठा हो गए थे।राष्ट्रपति होस्नी मुबारक के ख़िलाफ यह आंदोलन लगातार बढ़ती गरीबी, भ्रष्टाचार और अन्याय के असह्य हो जाने के कारण स्वाभाविक रूप से भड़का था।सत्ता के ख़िलाफ जनता का व्यापक असंतोष इसका सबब बना।देखते ही देखते तहरीरी चौक मिस्र के लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन का केंद्र बन गया।होस्नी मुबारक के समर्थकों और विरोधियों के बीच हिंसक झड़पें शुरू हो गईं।अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान तहरीर चौक की तरफ लगा था।कुछ ही दिनों में यह चौक दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गया।इस आंदोलन में एक खास बात यह थी कि सत्ता ख़बरें बाहर नहीं जाने देगी या ख़बरें छिपाएगी, इसको ध्यान में रखते हुए कुछ नवजवानों ने एक फेसबुक पेज बनाया और उसपर लगातार खबरें जारी करते रहे।इससे सत्ता लोगों को बरगलाने में सफल नहीं हो पाई।इस भीषण जनसैलाब ने होस्नी मुबारक को अंततः अपदस्थ कर दिया।इस सफलता के बाद चौक जश्न में डूब गया।इस क्रांति ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा।इन फिल्मों के माध्यम से मिस्र की जुझारू प्रवृत्ति का पता चलता है।चाहे पश्चिमी ताक़तें हों या अंदरूनी अव्यवस्था मिस्रवासी हर स्थिति से लड़ने में पीछे नहीं रहते।मिस्र लगातार आंतरिक और बाहरी दोनों तरह के दबाव झेलता हुआ अपनी जुझारू प्रवृत्ति को साबित करता रहा है।

आइवरी कोस्ट पश्चिमी अफ्रीका का एक ऐसा छोटा-सा देश है जो प्राकृतिक संसाधनों से काफी समृद्ध है।यह देश फ्रांसिसी उपनिवेशवाद से लंबी लड़ाई के बाद १९६० में आज़ाद हुआ।कॉफी, कोको और रबड़ की उपज के लिए मशहूर इस देश में स्वाधीनता के बाद आसपास के देशों से काफी लोग मजदूरी करने प्रवासी मज़दूरों के रूप में आए और यहीं के होकर रह गए।हाल के आंकड़ों के मुताबिक आइवरी कोस्ट की एक तिहाई जनसंख्या ऐसे ही प्रवासी नागरिकों की है।आइवरी कोस्ट के दक्षिणी हिस्से में ईसाई धर्मावलंबियों की काफी बड़ी संख्या है।किसी भी ऐसे देश में जहां बाहरी लोगों की इतनी बड़ी संख्या निवास करती है; वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण  की प्रक्रिया शुरू होने के बाद धर्म और जाति के आधार पर वहां विभेद पैदा करना वैश्विक रणनीति का हिस्सा बन जाता है।संभवतः इसी के परिणामस्वरूप १९९० के बाद आइवरी कोस्ट में सांस्कृतिक पहचान के आधार पर लोगों के बीच विभेद पैदा किया जाने लगा। ‘आइवराइट’ जैसे शब्द पर राजनीति होने लगी।धर्म और जातिगत भेदभाव की राजनीति चरम पर चली गई।सन् २००० के विवादित चुनाव में यह कानून बना दिया गया कि राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवारी का दावा वही कर सकता है जिसके माता पिता का जन्म आइवरी कोस्ट में हुआ हो।इसका सीधा मतलब यह था कि कोई भी बाहरी अथवा प्रवासी व्यक्ति राष्ट्रपति पद की दावेदारी नहीं कर सकता।इस काले कानून ने आइवरी कोस्ट की नई पीढ़ी को आंदोलित कर दिया।विरोध प्रदर्शनों का नया सिलसिला शुरू हुआ।सभी बाहरी लोगों के आइवरी कोस्ट से निकाल देने की मांग उठने लगी।इस खूबसूरत देश की इस नई राजनीतिक अस्थिरता के कारण २००६ में होनेवाली चुनाव की प्रक्रिया को अंजाम देने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद को यहाँ की राजनीति में दखलअंदाज़ी करने का रास्ता मिल गया। ‘शैडो वर्क’ डॉक्यूमेंट्री फिल्म २००६ की इसी राजनीतिक अस्थिरता को बयां करती है।

आधुनिकता के तमाम प्रभावों के बावजूद उत्तरी आइवरी कोस्ट की सेनुफो जनजाति की जीवन शैली में प्राचीन अफ्रीका की झलक आज भी मिलती है।वे आज भी परंपरागत रूप से मिट्टी की बनी गोलाकार झोपड़ी में रहते हैं और जीवन यापन के लिए कृषि पर उनकी निर्भरता आज भी अक्षुण्ण बनी हुई है।जैसा कि सर्वविदित है संस्कृति और परंपरा की मुख्य वाहक किसी समाज की महिलाएँ होती हैं, सेनुफो महिलाएं भी अपनी परंपरा और संस्कृति की रक्षा तो करती ही हैं, उनका महत्व उस समाज में पुरुषों के बराबर का है।कृषि कार्य में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।इसके अलावा परिवार और बच्चों की तमाम जिम्मेदारियाँ भी उन्हीं के कंधों पर होती हैं। ‘सेनुफो वुमेन’ डॉक्यूमेंट्री फिल्म परंपरा और संस्कृति की रक्षक और वाहक के रूप में सेनुफो महिलाओं को पेश तो करती ही है, आधुनिकता के प्रभावों से अछूते इस समाज का दारिद्रय भी हमारे सामने उजागर करती है।

२०वीं शताब्दी को दक्षिण अफ्रीका के इतिहास में रंगभेद और उसके प्रतिरोध के इतिहास के रूप में याद किया जाता है।जातीयता की दृष्टि से दक्षिण अफ्रीका विविधताओं भरा देश है।अफ्रीका में सबसे अधिक जातियां यहीं रहती हैं।यहाँ अफ्रीका के किसी भी देश से ज़्यादा गोरे लोग रहते हैं।औपनिवेशिक सत्ता अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए रंगभेद को बढ़ावा देती है। ‘अपार्टीड इन साउथ अफ्रीका’ नामक डॉक्यूमेंट्री फिल्म रंगभेद की इसी समस्या पर आधारित है।यह फिल्म दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की समस्या के संस्थानीकरण और उसके प्रतिरोध से जुड़े इतिहास को प्रामाणिक ढंग से हमारे सामने लाती है।

दक्षिण अफ्रीका में द्वितीय विश्व युद्ध के ठीक बाद १९४८ से नेल्सन मंडेला के सत्ता में आने तक यानी १९९४ तक नेशनल पार्टी की सरकार रही।डच और ब्रिटिश उपनिवेश के अंतर्गत सत्ता में आते ही इस नेशनलिस्ट सरकार ने रंगभेद को बढ़ावा देना शुरू किया।इस सरकार ने दक्षिण अफ्रीका की जनता को चार जातियों मसलन ‘गोरे’, ‘काले’, ‘भारतीय’ तथा ‘मिश्रित रंग और जाति के लोग’;  में विभाजित कर उनके अधिकार और सीमाएँ कानूनी रूप से निर्धारित कर दिए।इस तरह वहां अल्पसंख्यक गोरों ने बहुसंख्यक काले लोगों की आबादी पर विधि द्वारा नियंत्रण स्थापित कर लिया।यहां तक कि उनके रिहायशी इलाके भी अलग कर दिए गए और १९७० आते-आते वहाँ के स्थानीय काले लोगों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व पूरी तरह समाप्त कर दिया गया।सभी सरकारी सुविधाएं मसलन शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य सार्वजनिक सेवाएं गोरों की तुलना में काले स्थानीय लोगों को बहुत कमतर गुणवत्ता की मुहय्या कराई जाने लगीं।रंगभेद के इस वैधानिक प्रयोग के खिलाफ वहां १९५० के बाद से ही लगातार जन आंदोलन और प्रतिरोध के साथ-साथ हिंसक झड़पें भी होती रही हैं।सरकार ने इन प्रतिरोधों को कुचलने की सारी संभावित कोशिशें कीं।रंगभेद विरोधी नेताओं पर प्रतिबंध लगाए और उन्हें जेल में भर दिया।लगातार बनी रहनेवाली इस स्थिति ने दक्षिण अफ्रीका में एक राजनीतिक अस्थिरता पैदा की।१९९४ के लोकतांत्रिक साधारण चुनाव में जीतकर नेलसन मंडेला सरकार ने रंगभेद पर प्रतिबंध लगाकर लोकतंत्र को बहाल किया।

रिग्गी येट्स की फिल्म ‘ह्वाइट स्लम्स ऑफ साउथ अफ्रीका’ १९९४ के बाद दक्षिण अफ्रीका में आए नए बदलावों के प्रत्यक्ष अनुभव और प्रत्यक्ष निरीक्षण पर आधारित है।१९९४ से पहले जहां दक्षिण अफ्रीका में अल्पसंख्यक गोरों का वर्चस्व था, वहीं १९९४ के बाद बहुसंख्यक काले स्थानीय लोगों का वर्चस्व स्थापित हो गया।जहां रंगभेद को खत्म हो जाना था, लंबे समय की वंचना की प्रतिक्रियास्वरूप वह ‘रिवर्स’ हो गया।अतः यह फिल्म १९९४ के बाद आए ‘रिवर्स रेसिज्म’ की आलोचना करती है।१९९४ से पहले रंगभेद के सांस्थानिक प्रयोग के दौरान जो कोरोनेशन पार्क गोरे मध्यवर्गीय परिवारों के लिए पिकनिक स्पॉट हुआ करता था, वही अब गोरे लोगों का स्थाई निवास बन गया है।यहां एक छावनी के तले काफी संख्या में लोग रहते हैं।बेतहाशा गरीबी और गंदे परिवेश से जूझते लोगों को निरंतर स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।बिजली के अभाव और बेरोजगारी ने इस जगह को अपराध प्रवण बना दिया है।इस कोरोनेशन कैंप की तरह पूरे दक्षिण अफ्रीका में लगभग ८० कैंपों के होने के कयास लगाए जाते हैं।जातीयता आज भी अवसर प्राप्ति में यहाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।बस उसका प्रभाव उलट गया है, रिवर्स हो गया है।एक अनुमान के मुताबिक दक्षिण अफ्रीका की बड़ी आबादी गरीबी में जीवन बसर कर रही है।इसके शिकार सिर्फ गोरे ही नहीं, एक बड़ी आबादी बहुसंख्यक स्थानीय काले लोगों की भी है।यह फिल्म जाते-जाते यह उम्मीद छोड़ जाती है कि ‘रेसिज्म’ या ‘रिवर्स रेसिज्म’ दोनों समाप्त होंगे और किसी भी भेदभाव से ऊपर उठकर यहां सबके लिए समान अवसर सुनिश्चित होंगे।

 

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