विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। संप्रति अध्यापन।
वह जून महीने का पहला पखवाड़ा था। काफी गर्मी और उमस थी।
मुखिया जी से मेरी मुलाकात जेल में हुई। शांत, सौम्य और सहज। बातचीत में निहायत शालीन। उनका चेहरा काफी सुंदर था। प्रभावशाली! धीरे-धीरे बातचीत शुरू हुई, तो उन्होंने कहा, ‘जेल की चहारदीवारी से घिरा जीवन बहुत कठिन और दुष्कर है। उदासी से जकड़े मन-प्राण बाहर की दुनिया में आने के लिए बेचैन रहते हैं। न शाम का मतलब और न सुबह का खयाल… मैं तो लाइब्रेरी में पढ़-लिख कर समय काटता हूँ। आप लोग आते हैं तो अच्छा लगता है। थोड़ी देर के लिए भूल जाता हूँ कि कैदी हूँ…कभी-कभी सोचता हूँ, वे कैसे लोग रहे होंगे, जिन्होंने देश को आजाद कराने के लिए इन सलाखों में अपना जीवन होम कर दिया… उनकी यादों को अब यहां ढूंढ़ना भी मुश्किल है…’
मुझे मुखिया जी की बात दिल से निकली हुई लगी, इसलिए कहा, ‘उन महान लोगों को देश भूल गया। उनकी बात छोड़िए। आप बताइए, आप किस केस में जेल में हैं?’
‘मर्डर केस में। हाईकोर्ट से होशदामुल का मुजरिम हूँ।’
मेरा चेहरा बुझ गया। लगा जैसे दीवार पर टंगी गांधी जी की तस्वीर टूट गई हो और सारी किरचें मुझ पर उछट कर गिर गई हों। मुखिया जी का चेहरा अचानक मेरी निगाह में विकृत हो गया, पर मैंने तुरंत अपने मन में आए भाव पर काबू पाया और बदल कर कहा, ‘कौन-कौन सी किताब है जेल लाइब्रेरी में… गांधी जी की आत्मकथा तो होगी?’
वे मुस्कराए, ‘आप कुछ और पूछना चाहते हैं शायद? पूछिए, जरूर पूछिए! दिल की भड़ास निकलती है…’
‘आप बुरा मान जाएंगे।’
‘जेल के इस बंदी जीवन में बुरा क्या, भला क्या?’ उन्होंने विलमते हुए कहा, ‘यहां रोज दिल दरकता है… कोई न कोई कील चुभती है…’
‘मुखिया जी!’ मैं फट पड़ा, ‘सत्ता के आरोहण में हत्या को छोड़ और कोई विकल्प क्यों नहीं चुनते हैं आप लोग? पैसा और पॉवर के खेल में अपनी दबंगता के दर्प से चूर आप लोगों को अपने भविष्य का अंजाम क्यों नहीं दिखता?’ मैं खुद को रोक नहीं सका। अपने आक्रोश के सागर में आए भावनात्मक उफान का सारा पानी उन पर उलीच दिया।
मुखिया जी पर मेरी तल्खियों का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने कुछ पल सोचने के बाद कहा, ‘राकेश जी, अपराध की दुनिया बड़ी जटिल है। उसके मनोविज्ञान को समझना कठिन है। हमारी न्याय-व्यवस्था में भी खामियां हैं। यहां जो दिखता है वही सच है, पर पर्दे के पीछे का सच कुछ और होता है। आप अगर गहरी पड़ताल करेंगे, तो अस्सी फीसदी लोग गलत मुकद्दमे में फंसकर जेल आए हुए होते हैं… निरीह और लाचार!’
‘संभव है।’ मैंने खुद को संभालते हुए कहा। मुझे लगा कि जेल के कैदियों से बतियाने का अंदाज यह नहीं होना चाहिए। एक बार ऐसी ही बातचीत में एक कैदी भड़क गया था, तो मुझे घबरा कर हटना पड़ा था। उसने अपनी पत्नी का कत्ल किया था। मैंने बस इतना कहा था कि आपको पश्चाताप तो हो रहा होगा… बस क्या था, वह पागल की तरह चीखने लगा। बाद में पता चला कि उसकी पत्नी का किसी से अवैध प्रेम था। यूं वह बहुत प्यार करता था पत्नी से, पर उस रोज…।
गुंडे-मवालियों से भरे जेल की अपनी आंतरिक दुनिया होती है। पुराने कैदी अगर भड़क जाएं, तो उनसे फिर सवाल पूछना सांड को लाल कपड़ा दिखाने जैसी भूल होती है। अपना जिगरा भी मजबूत होना चाहिए… मुझे लगा मुखिया जी शायद भीतर से ऐसी बातचीत की उम्मीद नहीं कर रहे होंगे!
लेकिन कुछ पलों की खामोशी के बाद उन्होंने उसांस लेकर कहा, ‘किसी भी चीज को कोई आदमी कैसे देखता है, यह उस पर ही निर्भर है। सुना कर क्या होगा, पर बात चल पड़ी है, और आप सुनना चाहते हैं, तो सुनिए? मैं मुखिया था अपनी पंचायत का। चुनाव आया तो तीन लोग मैदान में थे। मैं और काली यादव और एक दबंग हिटलर कुशवाहा। यादव जाति के वोट बंटने से मैं चुनाव हार गया। मेरे समर्थक काली पर आक्रोशित थे। सीधे तौर पर उसी ने वोट काट कर मुझे हरा दिया था। बस उसी रात हिटलर ने एक चाल चली। काली यादव की हत्या करवा दी। हंगामा हो गया। मेरा नाम लगा। उसके घर-परिवार के लोगों ने भी यही माना कि यह मेरा काम है… और देखिए मुझे सजा भी हो गई। मेरी पत्नी अभी मुखिया है उस पंचायत में, पर मैं पिछले तेरह वर्षों से जेल में हूँ… पिछले साल मैं पेरोल पर घर गया था। मेरे बच्चे इस बीच में जवान हो गए…’
‘वेरी सैड!’ उनकी कहानी सुन कर मैंने कहा, ‘न्यायालय का आपके केस में सही फैसला नहीं कहा जाएगा।’
‘हो सकता है अब छूट जाऊँ।’ मुखिया जी ने कहा, ‘मेरी सजा पूरी हो रही है।’
‘चलिए, मेरी शुभकामना है।’ मैंने दिलासा दी, ‘सबसे बड़ी अदालत आत्मा की होती है, वहां आप निर्दोष हैं।’
‘जिसे कानून दागी बना देता है, उसके लिए कोई सफाई किसी काम की नहीं।’ मुखिया जी ने क्षोभ से कहा, ‘मन होता है मैं जेल से निकल कर हिटलर का मर्डर कर दूं, उसने काली का नहीं मेरा मर्डर किया है। मेरे बच्चों को पिता की छाया से महरूम किया है। उससे मैं पल-पल का हिसाब लेना चाहता हूँ, पर अब मैं इस नरक में फिर नहीं आना चाहता। मेरी पत्नी की भी यही इच्छा है कि मैं उन बातों को भूल जाऊं। जेल की किसी किताब में मैंने पढ़ा है, जो मनुष्य अपने को बदल सकता है, यह जीवन उसी को राह देता है… निकल कर शेष जीवन मैं पत्नी और बच्चों को देना चाहता हूँ। आपको आश्चर्य होगा यह जान कर कि मैं खाली समय में कविताएं लिखता हूँ। मेरी पत्नी भी चित्रकार है।’
‘लेकिन आपकी पत्नी तो राजनीति में है?’ मैंने सीधा सवाल किया।
‘वह मेरी मजबूरी है…’ वे कुछ भरमते हुए से बोले, ‘आखिर हिटलर कुशवाहा को सबक तो सिखाना था… हमारे परिवार का अपना स्टेटस है।’
मुझे लगा मुखिया जी अच्छे इनसान होने के साथ अच्छे डिप्लोमेट भी हैं। उन्हें जेल के जीवन की नारकीय स्थिति का अहसास तो है, पर वे एक पैर अब भी उस राजनीति में रखना चाहते हैं, जो उन्हें यहां तक ले आई। ऐसे लोग अपनी पत्नी को भी अपने प्रतिरूप में ढालते हैं, इसके लिए वे कोई वाजिब तर्क भी गढ़ लेते हैं… मैं घटनाक्रम को अपनी दृष्टि से देख रहा था। ऐसा मेरा स्वभाव रहा है, इसलिए चाह कर भी मैं हमदर्दी के बावजूद उनसे इत्तेफाक नहीं रख पाया। इसका खामियाजा भी कई बार भुगतना पड़ा है जीवन मेें, पर बातचीत में झूठ कैसा? दिल की बात जुबां पर आनी चाहिए, सो कहा, ‘मुखिया जी, बात अपराध पर चली थी, जहां तक मैं समझता हूँ। हिटलर ने काली का खून नहीं किया होगा। काली के मरने से फायदा आपको हुआ कि हिटलर को? आपकी पत्नी चुनाव जीत गई। कोई अपने पैर में कुल्हाड़ी क्यों मारेगा? इसलिए उसके प्रति गुस्सा निकाल दीजिए।’
‘यह आप कैसे कह सकते हैं?’ मुखिया जी झल्लाए, ‘वह मुझे हमेशा के लिए फिनिश करना चाहता था। उसकी महत्वाकांक्षा एम.एल.ए. बनने की है। आक्रोश में मेरी पत्नी कहती है कि वह अगर चुनाव लड़ेगा, तो वह भी एम.एल.ए. का चुनाव लड़ेगी। उसे गुस्सा क्यों नहीं होगा? मैं यक्ष हूँ, तो वह शापित यक्षिणी की तरह पीड़ा भोग रही है।’
‘नहीं मुखिया जी, मुझे माफ कीजिए। यह आपका विचार है, वरना राजनीति में कोई मजबूरी से नहीं आता, भले मजबूरी में आदमी किसी की हत्या कर दे। यह मुमकिन है… यह आप बाहुबलियों का राजनीतिक ट्रेंड है कि मजबूरी का बहाना कर आप पॉवर अपने पास रखना चाहते हैं। पॉवर है तो सब कुछ है। भले ही इसके लिए पत्नी ही मोहरा क्यों न बने।’
‘यह आप मुझसे कह रहे हैं या मौजूदा राजनीति पर तंज कस रहे हैं।’ वे झन्नाए। यह बाहुबलियों का ट्रेंड है या पूरी भारतीय राजनीति की तस्वीर या आपका अपना पूर्वग्रह? चीजों को कभी सकारात्मक दृष्टिकोण से भी तो देखा जाना चाहिए… मैं गंदा हो सकता हूँ, पर पूरे परिदृश्य पर आपका यह कमेंट एक तरह के प्रतिक्रियावाद से पैदा हुआ लगता है। मेरी पत्नी एम.ए.पास है। उसके पिता एम.एल.ए.थे। एक राजनीतिक बैकग्राउंड पहले से रहा है। राजनीति बुरी नहीं होती। उसमें देश-दुनिया को बदलने की ताकत होती है।’
‘तो आप कहना चाह रहे हैं कि वह अपनी इच्छा से राजनीति में आईं?’ मैंने व्यंग्य से हँसकर कहा।
वे भी हँसे, ‘दाम्पत्य जीवन की मूलभूत भावनाओं के विरुद्ध आपके इस सवाल पर हँसा जा सकता है। कहा जाता है कि देवासुर संग्राम में रथ की कील खुल जाने पर एक राजा की पत्नी ने कील में अपनी उंगली दे दी थी।’
‘यह भी कम विलक्षण उदाहरण नहीं है।’ मैंने सहज भाव से कहा, ‘पर तब राजा को इसकी कीमत चुकानी पड़ी थी!’
मुखिया जी मेरी लक्षणा समझ कर ठिठक से गए।
फिर भी कहा, ‘राकेश जी, वैसे मैं आपकी बातों से असहमत नहीं हूँ। परिस्थिति पर किसी का कितना अख्तियार होता है। पढ़े-लिखे लोगों से संवाद अच्छा लगता है.. पर आपको बाबुलदास नाम के कैदी से भी मिलना चाहिए… एक ज़हीन गायक जेल में है।’
‘क्यों?’
‘यह आप उसी से पूछिएगा।’
‘सुनिए मुखिया जी, मुझे भी आप जैसे रैडिकल आदमी से मिल-जुल कर अच्छा लगता है, बशर्ते आपस में कोई व्यक्तिगत तुर्शी पैदा न हो। हर आदमी का संदर्भ पर्सनल होने के साथ सामाजिक विषय भी है, इसलिए कि आदमी समाज में रहता है। जेल तो समाज का निषेध करने वालों के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था है कि वह समाज का महत्व समझे।’
‘मुझे तो आप जैसे लोगों से रश्क होता है। मगर क्या किया जाए। राजनीतिक जीवन एक दलदल की तरह है। कोई निकल पाया एकाध अपवादों को छोड़ कर?’ उन्होंने खुद से फिर कहा, ‘मैं कोशिश करूंगा कि बाहर निकलूं। मगर क्या यह संभव होगा? अभी यह वादा कर लेना जल्दबाजी होगी, पर मैं वह नहीं करूंगा, जिससे राजनीति बदनाम होती है। समाज की मर्यादा भंग होती है। मुझे लगता है, पहले भी मैंने समाज की अवमानना नहीं की, पर दंड तो मुझे मिला। अगर मैं गलत नहीं हूँ, तो मेरे तेरह वर्ष क्या लौट सकते हैं?’
‘मुखिया जी, आप में एक संजीदा आदमी जिंदा है। मुझे आपसे उम्मीद है। राजनीति हो, पर लोकतांत्रिक मूल्यों पर। गांधी जी भी तो राजनीति करते थे… सत्य, अहिंसा, आदर्श और उच्चतर नैतिकता के साथ।’ मैं भी रौ में बहने लगा था, ‘जेल वे भी गए पर मूल्यों के लिए, अंग्रेजी दासता से मुक्ति के लिए, पर सत्य-अहिंसा का दामन उन्होंने कभी नहीं छोड़ा।’
‘इसलिए उस पथ पर चलने के कारण मार भी दिए गए!’
‘यह आप क्या बोल रहे हैं? गांधी एक विचार हैं।’ मैंने कहा, ‘गांधी भले मारे गए, पर किसी विचार की हत्या कब होती है?’
‘हत्या तो नहीं हो सकती, पर राजनीति में गांधीगिरी का आज मजाक भी खूब हो रहा है। वे भी यूज एंड थ्रो का शिकार हैं।’
‘देश चौराहे पर खड़ा है मुखिया जी, उसे फैसला करना है कि किस मार्ग से जाना है। गांधी के देश में मॉब लीचिंग की घटनाएं हो रही हैं… सामाजिक सामरस्य बिखर रहा है… राजनीति का रोल अहम हो गया है। हम लोगों को संकीर्णता से ऊपर उठना होगा।’ मैंने मन को निचोड़ कर कहा।
अंदर कांस्टेबुल आया, तो हम चौंके। घंटों हमारी बातचीत हो चुकी थी।
मेरा वक्त समाप्त हो गया था। जेलर बुला रहा था। मैं कॉपी-कलम समेट कर निकला, तो मुखिया जी ने गर्मजोशी के साथ विदाई दी, ‘आपसे मैं फिर मिलना चाहूंगा।’
‘जरूर!’ मैंने हाथ हिलाया। मुझे लगा जैसे मेरे हाथ से लग कर आसमान में बादल और हवा लहरा रहे हैं उन्मुक्ति की किसी भटकी हुई उम्मीद में, पर मैंने देखा, आसमान में बादल का एक टुकड़ा जेल के मध्य भाग में अब भी अटका है… आश्चर्य नहीं कि गाइड को भी पता नहीं होगा कि मेरे इस जुनून के पीछे गहरी पीड़ा और उदासी से उपजी वह स्थिति है, जिसे मैं कैदियों से मिलते हुए अमूर्त अवसाद के रूप में महसूस करता हूँ। मेरे पिता के साथ तब एक भयानक घटना हुई थी, जब हम बच्चे थे। मासूम, भावुक और खुश रहने वाले हम बच्चों पर बिजली गिर पड़ी थी।
मुझे याद है, हमारे पिता का स्टेट था। सब उसे कोठी कहते थे। नौकर-चाकर। लाम-काफ। उनके मित्र आए हुए थे। किसी दूसरे स्टेट के जमींदार। वे लोग शिकार खेल कर आए थे। शाम का समय था। मारे हुए पक्षियों को लोग छील रहे थे। बरामदे में बंदूक रखी थी। मेरा भाई, जो मुझसे थोड़ा बड़ा था, वहीं खेल रहा था। जाने क्या हुआ, कैसे हुआ उससे स्ट्रीगर दब गया और गोली पिता जी के दोस्त के सीने में जा लगी। धमाका के साथ खून का फव्वारा फूटा। वे लुढ़क गए… हंगामा हो गया… रिश्ते अलग गए, बदनामी अलग हुई। पुलिस आई, तो पिता जी ने कहा, ‘गोली भूल से मुझसे छूट गई। भाई को उन्होंने बचा लिया, पर वे लंबे अरसे तक जेल में रहे। जब सुप्रीम कोट से बरी हुए, तब निकले। वे फिर शिकार खेलने कभी नहीं गए। घंटों हवा, बादल और आकाश को ताकते रहते थे। ऐसा लगता था जैसे जेल से आने के बाद उन कुछ वर्षों में उनके जीवन में कुछ खो सा गया हो। सबसे अधिक इस घटना का प्रभाव हम दोनों भाइयों के बचपन पर पड़ा था। मां अंदर से टूट गई थी। इसलिए जब मुझे अपने रिसर्च पर काम करने का मौका मिला, तो मैंने अपराध के मनोवैज्ञानिक अध्ययन को अपना विषय बनाया।
मुझे हमेशा लगता था कि उस मुकदमे की जिल्लत झेलते पिता तो निर्दोष थे ही। बड़े भाई ने भी जान-बूझ कर गोली नहीं चलाई थी, मगर दूसरी तरफ पिता जी के दोस्त की दुनिया भी उजड़ गई थी। उनके परिवार के रुदन, विलाप, गुस्से और क्षोभ ने हमें हिला कर रख दिया था। वहां सदाशयता के लिए कोई जगह नहीं थी। इसलिए पिता की स्मृति के साथ मुखिया जी की त्रासदी मेरे जहन से चिपक गई थी। अहसास में नमक घुल रहा था।
मेरा मित्र रमाशंकर वहां का जेलर था। उसके ऑफिस में चाय पीते हुए मैंने पूछा, ‘जेल मैनुअल्स के हिसाब से मुखिया जी का आचरण कैसा है?’
‘अच्छा!’ रमाशंकर ने सपाट भाव से कहा, ‘भले आदमी हैं। काफी पढ़े-लिखे भी। जेल लाइब्रेरी की हर किताब को इन तेरह वर्षों में घोंट कर पढ़ा है… कुछ चीजें छपती भी हैं… एक बार मुझे दिखा रहे थे… कोई पत्रिका थी।’
‘तो फिर जेलर होने के नाते तुम्हें सरकार में सिफारिश करनी चाहिए।’
‘रिपोर्टिंग तो होती है।’ रामशंकर हँसा, ‘मगर कानून को कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। अंग्रेजों के बनाए नियम सख्त हैं। वैसे भी जिसको न्यायालय से सजा हुई, वह मेरी निगाह में अपराधी है।’
‘मेरी एक सिफारिश नोट कर लो।’ मैंने तंज किया, ‘वे मुझे कहीं से अपराधी नहीं लगते। उनके मामले में कानून से शायद चूक हुई है।’
‘इतना इमोशनल नहीं बनो, बी प्रैक्टिकल। कल तुम्हारा एप्वांइटमेंट एक बड़े कैदी के साथ है। तुम स्टोरी कवर करो। डेटा का विश्लेषण बाद में करना’, रामशंकर ने साफ-साफ कहा, ‘जिससे मिलोगे, कुछ न कुछ लगेगा। किस-किस की सिफारिश करोगे? यह काम ह्यूमन राइट्स वालों को करने दो। कानून गलत है, तो फिर अपनी कील पर दुनिया को टिकाए कैसे है? आजकल एक फैशन चला है अपराधियों में भद्रता का स्वांग करने का, करने दो। अपना कैरियर देखो। जल्दी थीसिस जमा करो। वैसे मेरे हाथ में कुछ नहीं है।’ उसने हाथ कुछ इस तरह हिलाया कि मैं उसका मुंह देखता रह गया। लगा कानून की तुला पर न्याय मेरी आंखों में हिल कर रह गया हो!
संपर्क : प्रिंसिपल, पूर्णिया महिला कॉलेज, पूर्णिया-854301
वाह, कहानी अच्छी लगी.
प्रश्न उठाती हुयी ‘ बहुत अच्छी कहानी
Very good story about life of prisoner