बांग्ला से हिंदी अनुवाद : संजय राय
युवा कवि। प्रकाशित पुस्तक ‘कुंवर नारायण का कविता लोक’। संप्रति जयपुरिया कॉलेज में शिक्षण।
नीलिम कुमार जन्म : 1961। उदय भारती राष्ट्रीय पुरस्कार, रजा फाउंडेशन पुरस्कार। बाईस कविता–संग्रह एवं दस उपन्यास प्रकाशित। केदारनाथ सिंह के कविता–संग्रह ‘बाघ और अन्य कविताएँ’ का असमिया में अनुवाद। |
खाली घर
ताला लगाकार आदमी जब
घर से निकल जाता है
रोता है खाली घर
लोगों के रहने से ही
घर की दुनिया बनती है
घर के भीतर
लेकिन मनुष्य की दुनिया
घर के बाहर ही अधिक हुआ करती है
घर उसका छोटा-सा हृदय है
और छोटे हाथों से वह चाहता है
उसके भीतर चलता रहे
मनुष्य के वार्तालाप का निरंतर सिलसिला
उसका हँसना-रोना, उसके पदचाप
उसके प्रेम की गूंज
नीरवता, मैथुन, संगीत
इन्हीं सबको पर्दे में रखने के लिए तो
घर बसाता है मनुष्य
खाली घर अपने छोटे दिमाग से
यह सोचता है
मेरे अन्यमनस्क आसमान से
बारिश नहीं होती
इसलिए एक दिन
जब मैं ताला लगाकर
घर से निकल रहा था
खाली घर भी मेरे साथ
बाहर जाने के लिए निकल पड़ा
यह कहते हुए कि मुझे भी अपने साथ ले चलो
तुम्हारे बिना मैं रह नहीं पाऊंगा।
तुम किसी जंगल की तरह हो
तुम किसी जंगल की तरह हो
तुम्हारे भीतर पेड़-पौधे हैं
आकाशगामी लताएँ हैं
तुम्हारी छाती के भीतर बहता है झरना
तुम्हारी छाती में हैं पत्थर
झरना उन्हीं पत्थरों के बीच गीत गाता है
पत्थर तुम्हारी छाती में पत्थर बनकर
रह ही नहीं पाता
वहाँ बैठकर संसार का सबसे कोमल
और सबसे लंबा गीत गाया जा सकता है
तुमने कहा था, तुम हरे हो
तुमको देखने के लिए ही
उगा करते हैं चांद और सूर्य
तुम सूर्य की तरह ही प्राचीन हो
चांद की तरह ही प्राचीन
दरअसल तुम रंग नहीं हो
संसार का पहला हरापन हो
तुम बादलों से प्यार करते हो
बादलों पर पैर रखना चाहते हो
इसलिए बारिश तुम्हें भिंगोती है
कभी तो लगातार मेघमल्लार मेघमल्लार मेघमल्लार
और कभी बहुत दिनों तक भूली रहती है
तब तुम सूखे झड़े पत्तों का
मर्मर कारपेट बिछाते हो
और सितार पर बजाते हो पक्षियों का कलरव
तुम किसी के नहीं हो
अपने ही तई हरे हो
तुम एक जंगल की तरह हो
और मैं उस जंगल में खो जाना चाहता हूँ।
लुत्फा हनूम सलीमा बेग़म प्रसिद्ध असमिया कवयित्री। छह कविता संग्रह प्रकाशित। चित्रा मुद्गल के हिंदी उपन्यास ‘आवां’ का असमिया में अनुवाद। |
कविता
हां हां ठीक ही कहा तुमने
मुझे बहुत कुछ नहीं आता
अपनी कविताओं को नाम देना मुझे नहीं आता
सपनों के अस्त हो जाने के बावजूद
‘नाईस क्लिक’ की तरह कैमरे में
किसी एक को पकड़ कर रखना मुझे नहीं आता
उड़ती हुई चिड़िया के झुंड जैसै दुख को
सुख के फ्रेम में कैद करना मुझे नहीं आता
मेरे फटे कपड़ों को सिलने के लिए
जो अंधा दर्ज़ी बड़ी कुशलता से
उस पर मशीन चलाता है
उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना मुझे नहीं आता
विद्यार्थियों को अपने ‘बैक पॉकेट’ में
समय का टुकड़ा लिए घूमते देखकर भी
उनका भविष्य पढ़ना मुझे नहीं आता
सच है-
बहुत कुछ मुझे नहीं आता
पुरानी गलतियां परेशान करती रहती हैं फिर भी
एक्सपायरी डेट वाली दवाओं की तरह
उन्हें फेंक देना मुझे नहीं आता
किसी किताब की अलिखित बातें पढ़ना
मुझे नहीं आता
किसी पते पर चिट्ठी भेजनी हो
तो वह भी मुझे नहीं आता
ठीक ही कहा तुमने
ऐसी तमाम बातों के आंगन के कोने में
जो मुझे नहीं आतीं
तुम अपनी
जानी-पहचानी बातों का भंडार तैयार करो
कृपा होगी।
राजीव बरुआ जन्म 1963। कविता संग्रह ‘अघारी दिनार डायरी’, ‘गाचे पोहर दिया दिन’, ‘पनीर घर’, ‘खाली बैटलर मलिता’ आदि। |
मृत्युपक्ष
मरे हुए लोग बहुत स्वार्थी होते हैं
दूसरों की नींद उड़ाकर खुद गहरी नींद सोते हैं
खुद हँसते नहीं
इसलिए दूसरों को भी हँसने की इजाज़त नहीं देते
जीवन के बिल्कुल सम्मुख विश्व्ररूप धारण कर
वह इस तरह खड़े रहते हैं
कि दोनों में से कोई किसी को पहचान न पाए
समय को भी अपने पक्ष में कर लेते हैं वे
ताकि समय से पहले ही न टूट जाए शोक-घड़ी
घंटा-मिनट-सेकेंड की सुई पर लटकी रहती हैं
ओस की भारी बूंदें
शुष्क हवा का कांटा
धर्म कर्म के लिए सबको
समय की ज़रूरत पड़ती है
मरे हुए लोगों के भी अपने काम होते हैं
मौत गुनाह नहीं करती, रात ही बेइमान होती है
किसी को नींद क्यों नहीं आती।
सौरभ शैकिया 1969 में जन्म। कविता संग्रह क्रमशः ‘शिमलू सागर’, ‘सरपतर वायलिन’, ‘नाहरर रंगखिनी’ आदि। |
रोज़नामचा
सोमवार मैं घर में नहीं रहता
सोमवार को मत आना
हवा में मिल जाऊंगा इसलिए
मंगलवार को भी मत आना
बुधवार?
बुधवार को मैं नहीं जाता कहीं
क्या करते हो पूरे दिन?
भीतर ही रहता हूँ दरवाज़ा बंद कर के
रात में धीरे-से खिड़की खोल देता हूँ
ऐसा क्यों?
ऐसा इसलिए कि हवा और रोशनी आती है
निर्जन, परित्यक्त घर से
हवा और रोशनी दोनों पास रहते हैं
तो मैं सोने जाता हूँ
अच्छा समझी, और बृहस्पति को?
उस दिन सुबह
शुरू करता हूँ गणित का सवाल हल करना
जिसका उत्तर कभी नहीं मिलता
तो फिर शुक्रवार तक तुम
गणित का सवाल हल करते रहते हो?
नहीं मित्र, नहीं
शुक्रवार को मुझे खूब ठंड लगती है
कांपते-कांपते कुहासे का धागा बनकर ठंड की लटाई में लपेटता हूँ खुद को
उस भीषण ठंडी रात में
शनिवार? और शनिवार?
कहा न धो मांज के साफ करता हूँ खुद को
इसलिए सिर्फ रविवार को मनुष्य बन पाता हूँ
ठीक है तब? रविवार को ही आऊँगी तुम्हारे घर
आना, एक समुद्र बनकर
दो नीली आंखें सीने में दबाए।
गांव व पोस्ट– चांदुआ, जोड़ा पुकुर के नजदीक, कांचरापाड़ा, जिला– उत्तर 24 परगना, पश्चिम बंगाल– 743145 मो.9883468442
भाव आऔर शिल्प दोनों ही दृष्टियों से बहुत ही सुन्दर रचनाएं ।