संजीव देव (1914- 1999) 

तेलुगु और अंग्रेजी के लेखक के अलावा कलाकार, चित्रकार, फोटोग्राफर, दार्शनिक और कुशल वक्ता। आंध्र विश्वविद्यालय से डी.लिट. की मानद उपाधि से सम्मानित। बीस वर्ष की आयु में उत्तर भारत के अनेक प्रांतों में घूमकर प्रेमचंद जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकारों से मिले। देशविदेश के कलाकार, साहित्यकार और दार्शनिक उनसे मिलने उनके गांव तुम्मपूडी आया करते थे।

अनुवाद : जे. एल. रेड्डी

(जन्म : 1940)। अध्यापन कार्य से जुड़े। तेलुगु से लगभग 16 अनूदित पुस्तकें हिंदी में प्रकाशित। साहित्य अकादेमी का अनुवाद पुरस्कार।

(1944 में राहुल जी अखिल भारतीय किसान सभा के अधिवेशन में भाग लेने विजयवाडा गए थे। उस समय तेलुगु लेखक संजीव देव से उनका परिचय हुआ था। संजीव देव राहुल जी को अपने गांव तुम्मपूडी ले गए थे। तब का यह संस्मरण है। यह निबंध तथा संस्मरण ‘तेलुगु अकादमी, हैदराबाद द्वारा तेलुगु में प्रकाशित संजीव देव के निबंध संग्रह के दूसरे भाग में संकलित है।)

महापंडित राहुल सांकृत्यायन दार्शनिक दृष्टि से भौतिकवादी थे तो धर्म की दृष्टि से बौद्ध और राजनीतिक दृष्टि से साम्यवादी। कहा जाता है कि धर्म और साम्यवाद परस्पर विरोधी हैं, लेकिन राहुल साम्यवादी रहते हुए बौद्ध भी बने हुए थे। जो व्यक्ति बौद्ध धर्म में है, उसके लिए भौतिकवाद कोई दूर की चीज नहीं होती।

महत्वपूर्ण यह है कि राहुल सांकृत्यायन का जीवन सनातन हिंदू परंपरा में आरंभ होकर आधुनिक-वैज्ञानिक पद्धति तक विकसित हुआ था। वे गतिशील थे और उनका मार्ग प्रगति का मार्ग था। वेदों और उपनिषदों के साथ आरंभ होकर आगे बढ़ा उनका जीवन मार्क्सवादी रूप में परिणत हो गया था। साम्यवादी होने के बाद भी उन्होंने संस्कृत भाषा और उस भाषा में अपने प्रगाढ़ पांडित्य की उपेक्षा नहीं की। बौद्ध शास्त्रों के अध्ययन और उनसे संबद्ध विविध प्रकार के चिंतन का त्याग नहीं किया। चाहे जिस चीज का भी स्पर्श किया–वे वेद हों, उपनिषद हों, ब्रह्मसूत्र हों, बौद्धों के त्रिपिटक हों, या कोई और-उसकी उन्होंने भौतिक व्याख्या ही की है। उनका मत है कि वेद हों, या उनको जन्म देनेवाले ऋषि, उनकी दृष्टि प्रधानतः भौतिक रही है। इस बात को उन्होंने केवल कुछ बातें कहकर प्रमाणित करने का प्रयत्न नहीं किया, बल्कि उसके मूल स्रोतों के उदाहरणों से प्रमाणित किया है।

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के कनैवा नामक गांव में सन 1894 में राहुल जी का जन्म हुआ था।  उनका पहला नाम केदारनाथ पांडेय था। बचपन में ही अपना गांव छोड़नेवाले केदारनाथ पांडेय ने अपनी पचास वर्ष की आयु तक फिर उस गांव में कदम नहीं  रखा था।  अनेक जगहों में भ्रमण के दौरान ही विद्यार्जन, विशेष रूप से संस्कृत का अध्ययन करते हुए उन्होंने हिंदू धर्मग्रंथों का अनुशीलन किया और कुछ बड़े होने के बाद दामोदर दास का नाम ग्रहण करके परसा के मठ के महंत बन गए।

राहुल जी सदा स्वेच्छा और स्वतंत्रता के अन्वेषी रहे हैं। सनातन हिंदू धर्म से अधिक स्वतंत्रता आर्यसमाज में है, इस विचार से उन्होंने आर्यसमाज में प्रवेश किया और कुछ दिनों तक उसका प्रचार करते रहे। उन दिनों वे कहा करते थे, ‘महाभारत काल के बाद भारत में केवल दो ही महर्षि  हुए हैंएक गौतम बुद्ध और दूसरे दयानंद सरस्वती।’ बाद में उनका विचार बदला तो कहने लगे, ‘कहां उन्मुक्त चिंतन के प्रतिरूप बुद्ध, और कहां वेदों तथा देह और आत्मा का दास बने दयानंद!’ वे अपने विरोधी विचारों की कटु शब्दों में आलोचना करने में हिचकते नहीं थे।

राहुल जी की भौतिक दृष्टि में आर्यसमाज संकुचित जान पड़ा। आर्यसमाज में मूर्तिपूजा का विरोध है, बहुदेववाद का विरोध है। बस इतना ही। बाकी सब पहले से चला आ रहा वेदमत ही है। आर्यसमाजियों के लिए वेद ही प्रमाण हैं। उनकी मान्यता है कि वेदों में जो कुछ है, वह सब सत्य है और जो वेदों में नहीं है, वह सब असत्य है। ऐसी संकुचित दृष्टि राहुल जी जैसे स्वतंत्र विचारक को बंधन जैसी मालूम होने लगी और उनके अपने भौतिकवादी विचारों और ऐहिक चिंतन के विरुद्ध भी जान पड़ने लगी। इससे आर्यसमाज से बाहर आकर आर्यसमाज से अधिक प्रगतिशील बौद्धधर्म को उन्होंने स्वीकार किया। बौद्धधर्म वेद विरोधी है। यज्ञ और कर्मकांडों का तिरस्कार करता है। ईश्वर के अस्तित्व से उसका कोई सरोकार नहीं है। वह नव समाज के निर्माण के अनुकूल भी है। इस कारण बौद्धधर्म उनको अपने अनुकूल लगा।

पुनर्जन्मवाद बौद्ध में है, पर वह वैयक्तिक आत्मवाद के ऊपर निर्भर न होकर केवल अनात्मवाद पर निर्भर है। बौद्धधर्म में अनात्मवाद का बहुत महत्व है। मनुष्य की मृत्यु के बाद उसकी अपनी आत्मा नाम की कोई चीज़ बची नहीं रहती। सभी मनुष्यों को मिलाकर ‘तनहा’ नामक एक साझा तृष्णा बची रहती है।  इस साझा ‘तनहा’ को  पुनर्जन्म पाने का अवसर प्राप्त रहता है। इसलिए यहां पुनर्जन्म का मतलब यह नहीं है कि जिस व्यक्ति की मृत्यु हुई है, वही व्यक्ति दुबारा जन्म लेता है। जो वैयक्तिक नहीं है, वह साझा ‘तनहा’ फिर से किसी व्यक्ति के रूप में जन्म लेता है। एक बर्तन के पानी को समुद्र में मिलाने के बाद फिर उसी बर्तन में समुद्र का पानी भर लेने पर उस बर्तन में आनेवाला पानी वह नहीं होता जो पहले उसमें था, वह वह पानी होता है, जो समुद्र में था। बर्तन तो पानी से भर गया है, पर उसमें जो पानी अब है, वह उस बर्तन का अपना या उसका वैयक्तिक जल नहीं है, साझा जल है। बौद्ध धर्म का पुनर्जन्मवाद इसी प्रकार का है। पुनर्जन्मवाद वैज्ञानिक दृष्टि से युक्तिसंगत नहीं लगता। यह भी एक धार्मिक विश्वास ही है। फिर भी अन्य धर्मों की अपेक्षा अधिक प्रगतिशील होने के कारण राहुल जी की प्रकृति को  यह धर्म जंच गया था।

पहले वैदिक साहित्य को लेकर संस्कृत भाषा में राहुल जी ने जितना परिश्रम किया था, उससे अधिक बाद में बौद्ध साहित्य को लेकर पाली भाषा में उन्होंने परिश्रम किया। संस्कृत भाषा में उनके पांडित्य से प्रभावित होकर विद्वत्मंडली ने उनको ‘महापंडित’ की उपाधि दी, तो श्रीलंका के बौद्ध पंडितों ने बौद्ध साहित्य में उनकी विद्वत्ता को मान्यता देते हुए ‘त्रिपिटकाचार्य’ की उपाधि प्रदान की। इस प्रकार वे एक साथ ‘महापंडित’ और ‘त्रिपिटकाचार्य’ दोनों हो गए। इस प्रकार उनका पूरा नाम हुआ- ‘महापंडित राहुल सांकृत्यायन त्रिपिटकाचार्य’।  बौद्धधर्म के प्रमुख ग्रंथ त्रिपिटकों का उन्होंने पाली से हिंदी में अनुवाद किया है। त्रिपिटक पाली भाषा में उपलब्ध सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। हिंदी में राहुल जी की पहली रचना ‘बुद्धचर्या’ है।

श्रीलंका में उहोंने जब बौद्धधर्म स्वीकार किया था, तब से उनका नाम राहुल सांकृत्यायन पड़ा था। श्रीलंका के विद्यालंकार विश्वविद्यालय में कुछ समय तक उन्होंने पाली भाषा और बौद्धधर्म के आचार्य के रूप में काम किया था। उस समय वे बौद्ध भिक्षु थे। बौद्धधर्म के संबंध में कुछ अधिक गहरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए उनको तिब्बत जाकर तिब्बती भाषा में रचित ग्रंथों का अध्ययन करना आवश्यक हो गया। तब तक तिब्बती भाषा से वे  कुछकुछ परिचित हो चुके थे।

जीवन में साहस एक विशिष्ट गुण है। वास्तव में देखा जाए तो यह साहस शिक्षित लोगों से अधिक अशिक्षितों में देखा गया है। किसी व्यक्ति के बड़े से बड़ा पंडित, बड़े से बड़ा कवि, बड़े से बड़ा चित्रकार, बड़े से बड़ा वैज्ञानिक होने पर भी, हो सकता है कि उसमें साहस की कमी हो। साहसी व्यक्ति अपने कार्यक्षेत्र से विकसित होते हुए अन्यान्य कार्यक्षेत्रों की ओर बढ़ता है। यह प्रश्न करने पर कि राहुल जी का सबसे प्रमुख गुण क्या है, तो उसका जवाब होगा, ‘साहस।’ आतंकी क्रांतिकारियों में जैसा साहस होता है, वैसा साहस उनमें था। किंतु उन्होंने इस साहस का उपयोग विध्वंसात्मक कार्यों में न करके रचनात्मक कार्यों में किया।

बौद्ध साहित्य में अपने पांडित्य और तिब्बती भाषा में अपनी प्रवीणता को और अधिक विकसित करने के उद्देश्य से राहुल जी ने 1928-29 में तिब्बत जाने का निश्चय किया। किंतु उस समय की अंग्रेज सरकार ने उनको इसकी अनुमति नहीं दी। उन दिनों के तिब्बत के मार्ग में नेपाल राज्य का कुछ भूभाग भी पड़ता था। नेपाली सरकार ने भी उनको इस यात्रा की अनुमति नहीं दी। आगे तिब्बती सरकार ने भी अनुमति देने से इनकार कर दिया, क्योंकि उन दिनों तिब्बत की सरकार भारतीयों के तिब्बत प्रवेश के सख्त खिलाफ थी। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में अपने साहस से काम लेने का उन्होंने निश्चय किया। अंग्रेज सरकार और नेपाल तथा तिब्बत की सरकारों की आंखों में धूल झोंककर गुप्त रूप से पहाड़ों, घाटियों, जंगलों, नदियों और हिमाच्छादित भूभागों को पार करते हुए और अनेक प्राकृतिक और मानवीय अवरोधों पर विजय प्राप्त करते हुए अंततः वे तिब्बत पहुंच ही गए। तिब्बत पहुंचते ही उन्होंने दलाई लामा को तिब्बती भाषा में एक लंबा पत्र लिखकर भेजा। यह लिखा कि मैं तिब्बती भाषा और बौद्धधर्म का गहन अध्ययन करने आया हूं, इसलिए तिब्बत में रहकर काम करने की अनुमति दी जाए। इस पत्र द्वारा दलाई लामा की अनुमति मिल जाने से तिब्बत में राहुल जी का काम आसान हो गया।

साहस का मतलब है, व्यक्ति जिस काम को करने जा रहा है, उस काम में मृत्यु भी हो सकती है, यह जानते हुए भी उस कार्य को संपन्न करने के लिए उद्यत होना। या तो काम पूरा करना है या मृत्यु का वरण करना है, ऐसे साहसपूर्ण संकल्प के बारे में दो पंक्तियां अपने मित्र आनंद कौसल्यायन को उन्होंने नेपाल और तिब्बत की सीमा से लिखे एक पत्र में लिखी थीं-

प्रिय आनंद जी,

शरीर का मूल्य बहुत है, पर समय आने पर कुछ भी नहीं। कार्यं वा साध्येयं शरीरं वा पातये यं।

आपका

रा.सा.

‘शरीर बहुत मूल्यवान है, परंतु समय आने पर उसका कोई मूल्य नहीं रहता। या तो कार्य संपन्न करना है या उस प्रयत्न में प्राण त्यागने हैं।’ राहुल जी की दृष्टि में शरीर व्यर्थ की चीज नहीं है। वैसे भी वे भौतिकवादी थे। भौतिकवादी की दृष्टि में शरीर का बहुत महत्व होता है। उसका मूल्य अपार है। कारण है, शरीर के अभाव में जीवन का अस्तित्व ही नहीं रहता। उसके अभाव में मन का भी अस्तित्व नहीं होता। सबका ही मूल शरीर है। किंतु कुछ संदर्भों में ऐसे मूल्य की चिंता नहीं करनी होती। यानी शरीर का ही विसर्जन करना पड़ता है। जीवन के कुछ ऊंचे मूल्य होते हैं। शरीर के मूल्य से भी अधिक ऊंचे। इस दृढ़ निश्चय के साथ कि मैं इस कार्य को पूरा करूंगा चाहे मेरे प्राण चले जाएं, कुछ लोग महान कार्यों को संपन्न करते हैं। ऐसे साहस के सामने मृत्यु की गिनती नहीं होती।

तिब्बत में राहुल जी जब तिब्बती ग्रंथों के अध्ययन में डूबे हुए थे, तब तिब्बत और नेपाल के बीच के अच्छे संबंध बिगड़ गए और युद्ध का-सा मौहाल बन गया। श्रीलंका में रहनेवाले उनके मित्र बहुत आग्रह करने लगे कि वे तिब्बत से लौट आएं। उनका विचार था कि आसन्न संकट के कारण उनका तिब्बत में रहना उचित नहीं है। किंतु लासा नगर को छोड़कर आने की राहुल जी की इच्छा नहीं हुई। जब उन्होंने अपनी स्थिति को समझाते हुए लिखा कि तिब्बती ग्रंथों के साथ लासा नगर में ही रह जाना या उन सभी ग्रंथों को लेकर लौट आना, ये दो ही विकल्प उनके सामने हैं, तो उनके मित्रों ने लिखा कि उन सभी ग्रंथों को साथ लेकर वे लौट आएं और उसके लिए जो भी खर्च होगा, वह वे लोग दे देंगे।

इस पर राहुल जी 34 गट्ठरों में बंधे तिब्बती ग्रंथों को लेकर किसी तरह सकुशल श्रीलंका पहुंच गए। लेकिन तिब्बत जाते समय उनकी यात्रा जितनी बीहड़ विपत्तियों से भरी थी, उससे अधित विपत्तिकर  इन गट्ठरों को चामरगायों और खच्चरों पर लादकर आनेवाली यात्रा रही। अनेक विकट बाधाओं और विपत्तियों का सामना करते हुए इतने मूल्यवान ग्रंथों के साथ उनका श्रीलंका पहुंचना एक परम अद्भुत साहसी कार्य था। प्रज्ञा के अनुरूप सुशीलता और सुशीलता के अनुरूप साहस हो तो कठिन से कठिन कार्य भी संपन्न हो जाते हैं, राहुल सांकृत्यायन का जीवन इस बात का एक उज्ज्वल उदाहरण है।

राहुल जी महान लेखक तो थे, पर महान वक्ता नहीं थे। जितनी तेजी से और सहजता से वे लिखते थे, उतनी तेजी और सहजता से वे भाषण नहीं दे पाते थे। सामान्यतः वे रातों में लिखते थे। आरंभ किए हुए निबंध को पूरा किए बगैर वे उठते नहीं थे। ग्रंथ की रचना करते समय आवश्यकता पड़ने पर रात-भर जगकर सवेरे तक सैकड़ों पृष्ठ लिखते थे। उनकी अधिकांश रचनाएं हिंदी में हैं। उनकी निंदा न समझी जाए, तो मैं कहना चाहूंगा कि वे भी हिंदी-उन्मादियों में से एक थे। हिंदी की समस्या को लेकर मतभेद हो जाने पर हिंदी के लिए उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ दी थी, पार्टी के लिए हिंदी नहीं छोड़ी थी।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन जैसा संस्कृत का प्रकांड पंडित और धर्माचार्य का कम्युनिस्ट पार्टी में होना बहुत लोगों के लिए विचित्र लगा था। कम्युनिस्ट पार्टी से अलग होने के बाद उन्होंने एक घोषणा की थी- ‘आर्य समाज में अधिक स्वतंत्रता है, इस विचार से मैं सनातन हिंदू धर्म से उसमें चला गया था। आर्य समाज से ज्यादा स्वतंत्रता बौद्धधर्म में है, यह सोचकर मैं आर्य समाज से बौद्धधर्म में चला गया। बौद्धधर्म से अधिक स्वतंत्रता कम्युनिज्म में है, इस विचार से बौद्धधर्म को छोड़कर मैं कम्युनिस्ट पार्टी में चला गया। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी अब मेरी वैयक्तिक स्वतंत्रता में बाधक लग रही है, इस कारण उससे भी अलग हो रहा हूँ।’ कुछ लोगों का यह भी कहना है कि हिंदी की समस्या को लेकर उन्होंने पार्टी से त्यागपत्र नहीं दिया था, पार्टी ने ही उनको बाहर कर दिया था। जो भी हुआ हो, कुछ समय तक कम्युनिस्ट पार्टी से उनका कोई संबंध नहीं रहा। लेकिन कुछ समय बाद वे फिर उस पार्टी के सदस्य बन गए थे। इतने बड़े पंडित होते हुए भी वे अपने को महापंडित कहलाने से अधिक कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बतलाने में और भौतिकवादी कहलाने में अधिक गर्व का अनुभव करते थे।

इसके कारण को लेकर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सोचा जाए तो लगता है कि संभवतः यह उनके अवचेतन में छिपी किसी हीनभावना के विरुद्ध उनकी प्रतिक्रिया हो। उन्होंने अपने जीवन का आरंभ सनातन विद्या और पारंपरिक जीवन-पद्धति और उनकी अपनी ही दृष्टि में दकियानूस भावों से भरे सामाजिक वातावरण में किया था। अंध परंपराओं से भरे उस वातावरण के विरुद्ध उनकी तीव्र प्रतिक्रिया अपने सहस्र फण फैलाकर उनमें प्रकट हुई थी। अपने अवचेतन में छिपी हीनभावना से मुक्ति पाने के लिए और अपने को प्रगतिशील और आधुनिकों में आधुनिक प्रमाणित करने के लिए तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक वैचारिकता की दृष्टि से अत्यंत प्रगतिशील मानी जानेवाली कम्युनिस्ट पार्टी में जाकर वे कामरेड राहुल बन गए। कामरेड राहुल होने के बाद उनकी इस हीनभावना का लोप हो गया होगा और यह सोचकर उनको संतोष मिलने लगा होगा कि मैं विश्व के आधुनिक नागरिकों में एक हूँ और नए प्रगतिशील वर्ग का सदस्य हूँ। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य विषय है कि कुछ कम्युनिस्टों द्वारा उनके असाधारण पांडित्य के प्रति अवज्ञा का भाव रखते रहने पर भी उन्होंने स्वयं उस पांडित्य को कम मूल्य का नहीं समझा।

राहुल जी में वैज्ञानिक दृष्टि जितनी विकसित थी, उतनी कला की दृष्टि विकसित नहीं थी। स्पष्ट शब्दों में कहना हो, तो कहना होगा कि वे एक प्रकार से अरसिक थे। संगीत, कविता, चित्रकला, शिल्पकला आदि ललित विषयों का आनंद लेने की बात उनमें अधिक नहीं थी। जीवन में ऐसी रसमयदशा को भी वे शायद अपने भौतिकवाद के विरुद्ध मानते रहे हों। एक शब्द में कहना हो तो वे बुद्धिजीवी ही थे, रसजीवी नहीं थे। उनका मस्तिष्क उनके हृदय से बड़ा था। 

नई-नई भाषाएँ सीखने का उनको बहुत शौक था। शौक ही नहीं, किसी भी भाषा को वे बड़ी आसानी से सीख भी लेते थे। लगभग सभी भारतीय भाषाओं से उनका परिचय था। तिब्बती, चीनी और मंगोलियन भाषाओं को और पश्चिमोत्तर सीमाओं में बोली जानेवाली पश्तो भाषा को वे अच्छी तरह जानते थे। फारसी भाषा में तो वे निष्णात ही थे। इन भाषाओं के अलावा अंग्रेजी, फ्रांसीसी, जर्मन भाषाएँ भी वे जानते थे। अब रूसी भाषा का क्या कहना? उस पर अच्छा-खासा अधिकार उन्होंने प्राप्त कर लिया था। आगे संस्कृत और पाली भाषाओं के तो वे पंडित ही थे। मामूली पंडित नहीं, महा पंडित!

उनके भाषाज्ञान के संबंध में एक संदर्भ की चर्चा करना पर्याप्त होगा। हमारे गांव तुम्मपूडी के हमारे घर में मेरे साथ जब वे रह रहे थे, उस समय की बात है। एक दिन हम दोनों बैलगाड़ी में बौद्ध क्षेत्र नागार्जुनकोंडा जा रहे थे। बीच में एक जगह लंबाडा आदिवासियों का खेड़ा पड़ा था। गाड़ी से उतरकर हम दोनों उन लोगों के पास कुछ देर तक खड़े रहे थे। उससे पहले लंबाडों से या लंबाडों की भाषा से उनका कोई परिचय नहीं था। पंद्रह मिनट तक उन लोगों को आपस में अपनी भाषा में बतियाते उन्होंने सुना। आश्चर्य की बात यह रही कि कुछ ही देर में राहुल जी ने उन लोगों के साथ उन्हीं की भाषा में बात करना शुरू कर दिया। उन लोगों के बीच उन्होंने इस तरह व्यवहार किया जैसे वे स्वयं एक लंबाडा हों। बाद में घर लौटते समय किस प्रकार वे उन लोगों के साथ लंबाडा भाषा में बात कर पाए थे, इसके संबंध में बताते हुए उन्होंने कहा, ‘उनको आपस में बात करते हुए मैंने कुछ देर तक ध्यान से सुना। मेरी समझ में आ गया कि उनकी बोली गुजरात-राजस्थान की सीमा की अपभ्रंश बोली है। उस बोली के क्रियापरक शब्दों को वे किस तरह बिगाड़-बिगाड़कर बात करते हैं, इसका मुझे अंदाजा हो गया। फिर मैंने उन्हीं की तरह उस बोली में बोलना शुरू किया। इसलिए मेरी बात उनकी समझ में आ गई।’

राहुल सांकृत्यायन की प्रतिभा बहुमुखी थी।  दुनिया घूमे हुए पर्यटक थे, खोजी प्रकृति के थे, इतिहासकार थे, पुरातत्वविद थे, दार्शनिक थे और तार्किक भी। इस तरह अनेक विषयों में उनको दक्षता प्राप्त थी। इन सभी विषयों पर उन्होंने पुस्तकें लिखी भी हैं। इन सबमें ‘वोल्गा से गंगा’ नाम की पुस्तक को अत्यधिक ख्याति मिली है। इनकी रचनाओं के कुछ नाम हैं- ‘जय यौधेय’, ‘सिंह सेनापति’, ‘दर्शन और दिग्दर्शन’, ‘लद्दाख की यात्रा’, ‘तिब्बत में सवा बरस’। हिंदी में लिखी उनकी रचनाओं की अभिव्यक्ति अपूर्व ओज लिए हुए होती है।

1932 में आनंद कौसल्यायन के साथ राहुल जी बौद्धधर्म का प्रचार करने के लिए इंग्लैंड गए थे। लेकिन वहां तीन ही महीने रहकर लौट आए थे। भारत लौट आने के बाद लद्दाख गए और वहाँ केलांग के बौद्ध मठों में कई बौद्ध ग्रंथों का अनुशीलन किया। राहुल जी बहुत बड़े घुमक्कड़ थे। पहली बार गुप्त रूप से तिब्बत होकर आने के बाद उन दुर्गम रास्तों से होकर कई बार वे तिब्बत और भारत के बीच आवाजाही करते रहे। हिमालय पर्वत प्रदेश में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक ऐसा कोई प्रांत नहीं है जहाँ उन्होंने कदम न रखा हो।

राहुल जी के जीवन में भौतिकवाद अपने सजीव रूप में साकार हुआ था। सामान्यतः गृहस्थाश्रम के बाद वानप्रस्थाश्रम और उसके बाद संन्यासाश्रम को स्वीकारा जाता है। लेकिन राहुल जी के जीवन में इसका उलट घटित हुआ है। वे पहले हिंदू संन्यासी रहे। बाद में बौद्धभिक्षु बन गए। उसके बाद 51 वर्ष की आयु में गृहस्थ बन गए। उन्होंने पहले जिससे विवाह किया था, वह रूसी महिला थी। राहुल कुछ समय तक लेनिनग्राड विश्वविद्यालय में प्राच्य भाषाओं के आचार्य रहे थे। उसी विभाग में एक रूसी महिला उनकी सहयोगी के रूप में काम कर रही थीं। उन्हीं से उन्होंने विवाह किया था। उस समय राहुल जी की आयु 51 वर्ष थी और उस महिला की आयु 35 वर्ष। उस दंपति के एक पुत्र है। उनका नाम है इगार राहुलोविच। भारत लौट आने के बाद जाने किस कारण से उन्होंने कमला नाम की एक महिला से दूसरा विवाह किया था। उनसे राहुल जी की दो संतानें -एक लड़की और एक लड़का, जेता और विजय- हुईं। इस तरह दो प्रकार का संन्यासी जीवन बितानेवाले राहुल सांकृत्यायन की दो प्रकार की पत्नियां रहीं। एक रूसी और एक भारतीय!

रूस के बारे में वे कहा करते थे कि वह भूलोक का स्वर्ग ही है। लेकिन वहाँ भी अधिक समय न रहकर वे भारत लौट आए थे। मित्र जब पूछते कि भूलोक के स्वर्ग से आप भारत क्यों लौट आए हैं? तो जवाब देते- ‘किसी दूसरे देश में भूलोक का स्वर्ग रहे, तो क्या लाभ? ऐसे भूलोक के स्वर्ग का निर्माण हमें स्वयं अपने देश में करना चाहिए। इसीलिए भारत लौट आया हूँ।’ राहुल जी की एक कमजोरी थी। अपना स्थायी निवास बनाने के इरादे से रूस या चीन जैसे देश में जाने के बाद वे कहीं भी ज्यादा समय तक टिक नहीं पाते थे। भारत लौट ही आते थे।

मानव जीवन के अनेक विशिष्ट क्षेत्रों में अनवरत प्रयास किए हुए मनीषी थे वे। कुछ समय तक मधुमेहग्रस्त रहने के बाद 1963 में उन्होंने देहत्याग किया था। मृत्यु से पहले उन्हें एक और बीमारी भी हो गई थी। वह थी विस्मरण की बीमारी। वे मनुष्यों, वस्तुओं और जगहों को पहचान नहीं पाते थे। उनकी लिखी पुस्तकें दिखाई जातीं, तो उनको भी नहीं पहचान पाते थे। रूस ले जाकर पहली पत्नी और पुत्र को दिखाने पर किसी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया द्वारा उनकी स्मृति शायद लौट आए, इस आशा से उनको रूस भी ले जाया गया। लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। अत्यल्प काल में कोई भी भाषा सीखने की अद्भुत स्मरणशक्ति रखने वाला कोई व्यक्ति ऐसी असहाय स्थिति में पहुंच जाए कि अपने ही लोगों और अपनी ही लिखी पुस्तकों को पहचान न पाए, इससे अधिक कारुणिक और व्यथित करनेवाली बात और कौन-सी हो सकती है?

कुछ लोग वृद्धावस्था में दुख और यातनाएँ भोगते हुए मानसिक शांति की तलाश में भौतिकवाद को छोड़कर भक्ति और आध्यात्मिक चिंतन में समय बिताने लगते हैं। लेकिन राहुल जी ने ऐसे किसी सहारे की आवश्यकता अनुभव नहीं की। अंत तक वे अपने भौतिकवाद को और अधिक दृढ़ ही बनाते गए।

एक दिन उनकी पत्नी कमला ने कहा था- ‘चलो, हम मसूरी से दार्जिलिंग चलते हैं। वहाँ आपकी बीमारी ठीक हो जाएगी।’

सुनकर राहुल जी ने पूछा था, ‘सचमुच ठीक हो जाएगी?’

पत्नी का उत्तर था, ‘आप ठीक नहीं होंगे, तो कैसे चलेगा? आधी ही लिखी इन सभी ग्रंथों को कौन पूरा करेगा? असंपूर्ण ये पारिभाषिक शब्दकोश कैसे पूरे होंगे? आप ठीक नहीं होंगे तो इन तिब्बती पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद कौन करेगा? भारतीय भौतिकवाद की महानता का कौन प्रचार करेगा?’

राहुल जी से जुड़ी मेरी स्मृतियां

यह भी देखने में आता है कि कुछ लोगों का मूल्य उनके जीवनकाल से अधिक उनकी मृत्यु के बाद हो गया है। लेकिन यह बात सब पर लागू नहीं होती। राहुल सांकृत्यायन पर तो बिलकुल ही नहीं।

राहुल जी के जीवनकाल में उनका जो मूल्य था, वह उनकी मृत्यु के बाद न घटा है, न बढ़ा है। वे प्रधानतः एक बौद्धिक व्यक्ति थे। उनकी मृत्यु भी मस्तिष्क संबंधी बीमारी से ही हुई थी।

1944 का वर्ष। विजयवाडा के एक कालिज के तत्कालीन प्रधानाचार्य श्रीनिवासाचार्य के घर मैं, राहुल जी और श्रीनिवास राव भोजन कर रहे थे। राहुल जी से जब मैंने मेरे साथ मेरे गांव तुम्मपूडी चलने को कहा, तो वे बोले, ‘मैं आपके गांव आऊंगा। लेकिन मुझे अमरावती और नागार्जुनकोंडा दिखा लाना होगा।’ मैं सहमत हो गया और श्रीनिवासाचार्य ने इस यात्रा के लिए हम दोनों को उत्साहित किया।

फिर क्या था? उसी दिन मैं और राहुल जी मेरे गांव तुम्मपूडी आ गए। मुझ अविवाहित का घर उन्हें अच्छा लगा। बोले, ‘चार साल पहले तक मैं भी आपकी तरह अविवाहित ही था। अपने इक्कावनवें  वर्ष में मैंने एक रूसी महिला से विवाह किया है। दो-तीन साल में आपका घर भी एक विवाहित का घर शायद बन जाए।’

मैं राहुल जी से आयु में पचीस वर्ष छोटा हूँ। उन्होंने सलाह दी कि उन्हीं की तरह मैं बड़ी आयु तक अविवाहित न रहूँ और सही आयु में ही गृहस्थ बन जाऊं। उस रात हमारे घर में ज्योत्स्नालोकित आकाश के नीचे हम दोनों लेट गए। फिर राहुल जी अपने जीवन की अनेक मुख्य-मुख्य घटनाओं के बारे में बताते रहे।

केवल एक कंबल के साथ बौद्ध भिक्षु के रूप में हिमालयों में संचरण करना, तिब्बत में भ्रमण, तिब्बत से बहुत से खच्चरों पर अनेक प्राचीन ग्रंथों और चित्रों को लाकर पटना के संग्रहालय को देना, आदि… आदि… अनेक बातें।

राहुल जी आमतौर पर अंग्रेजी में बात नहीं करते थे। ज्यादातर हिंदी में बात करते थे। उनके मुंह से निकलनेवाली बातों से उनकी लिखी हुई बातें ज्यादा अच्छी लगती हैं। उनसे अधिक उनका मौन अच्छा लगता है। अनेक भाषाएं उनके लिए हस्तामलकवत थीं। इंडो-आर्यन, इंडो-चीनी और सेमिटिक भाषा-परिवारों से संबद्ध अनेक भाषाओं में उनकी अच्छी गति थी।

उस रात बहुत देर तक हम दोनों अपने-अपने जीवन की धूप-छांही घटनाओं के बारे में एक-दूसरे को बताते रहे। बात करते-करते ही वे सो गए और सुनते-सुनते मैं भी सो गया।

अगले दिन सवेरे हम दोनों हमारे गांव की बगल में बहती बकिंग हाम नहर में बहुत देर तक तैरते रहे। इसमें भी आगे तो वे ही रहे।

राहुल जी एक बहुत बड़े भौतिकवादी दार्शनिक थे। हर सूक्ष्म विषय की वे भौतिकवादी व्याख्या प्रस्तुत करते थे। उनका पांडित्य अपार था। उनका तर्क धारदार होता था।

तुम्मपूडी के मेरे घर में वे मेरे साथ पांच दिन रहे। बीच में पास के एकदो गांवों में खेती की रूसी पद्धतियों को लेकर, वहां की शिक्षापद्धति को लेकर उन्होंने हिंदी में भाषण दिए थे, जिनका मैंने तेलुगु में अनुवाद किया था। वे बहुत अच्छे वक्ता तो नहीं थे, पर जो बात कहते थे, उसे स्पष्टता और सहज भाव से कहते थे वह श्रोताओं को आसानी से हृदयंगम हो जाती थी।

वे मुख्यतः बुद्धिजीवी थे। चिंतन, समीक्षा और विश्लेषण उनकी प्रमुख शक्तियां थीं। रसानुभूति उनमें अधिक दिखाई नहीं देती थी। शास्त्रों के ज्ञान के प्रति उनमें जैसी आसक्ति थी, वैसी आसक्ति सृजनात्मक कलाओं के प्रति नहीं थी। ‘म्यूजिक’ से अधिक ‘लाजिक’ के प्रति उनमें ललक थी।  अपनी इस कमी को वे सहर्ष स्वीकार भी करते थे। वे कहा करते थे कि उनका हृदय कवि का हृदय नहीं है, उनका शास्त्रज्ञान ही उनके अंदर की उत्तम कविता है, उनकी विश्लेषणात्मक समीक्षा- शक्ति ही उनके भीतर की सृजनात्मक कला है और उनका शुष्क तर्क ही उनके अंदर की रसानुभूति है।

किंतु निकटता से देखने पर यह अनुभव होता है कि उन्होंने अपने संबंध में जितना कहा है, उतने रसहीन वे नहीं थे। लगता था कि यह रसानुभूति कहीं गहरे अव्यक्त रूप में छिपी हुई है।

एक दिन हम दोनों अमरावती गए। उस यात्रा में कहीं भी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला जो उनकी ओर विशेष ध्यान न देकर या उन पर कुछ क्षण नजर टिकाए बगैर निकल गया हो। चाहे जितने लोगों में हों, उनका विशिष्ट रंग-रूप और उनका डील-डौल सबको आकृष्ट करता था। संगमरमर की बुद्धप्रतिमा की तरह वे दिखते थे। उजली खादी धोती या पाजामा और मिलिटरी पोशाक की लंबी-लंबी जेबोंवाला खादी का कुर्ता पहने वे सुदर्शन लगते थे। यही कहना समीचीन होगा कि उन पर दृष्टि पड़ते ही हर देखनेवाले को ऐसा लगता कि वे कोई असामान्य व्यक्ति हैं।

अमरावती में सभी दर्शनीय स्थल देखने के बाद शाम को कृष्णा नदी पर जाकर हम दोनों वहाँ तैरते रहे। लेकिन वे जितनी गहराई तक गए, उतनी गहराई तक मैं नहीं जा सका। तभी मैंने हँसी-हँसी में कहा, ‘ज्यादा गहराई में मत जाइए, कोई दुर्घटना घट गई, तो मैं रूस में तार नहीं भेजनेवाला। खबर पाकर वहाँ आपकी धर्मपत्नी और आपका पुत्र बहुत दुखी होंगे।’ सुनकर वे बोले, ‘मैं आग से तो मर सकता हूँ, पर पानी से नहीं मरूंगा।’

अमरावती का सारा इतिहास तो उनको स्मरण ही है। वहाँ नया ऐसा कुछ नहीं था, जिसे उन्हें सीखना पड़ा हो।

उस रात गुंटूर शहर पहुंचकर हम सवेरे नागार्जुनकोंडा की यात्रा पर चल पड़े। दोपहर के भोजन के समय तक माचर्ला नाम की बस्ती पहुंचे और वहाँ से बैलगाड़ी पर नागार्जुनकोंडा की तरफ निकल गए। रास्ते में जगह-जगह पर लंबाडा आदिवासी हमें दिखाई देते रहे।

बौद्धक्षेत्र नागार्जुनकोंडा का सारा इतिहास उनको ऐसे मालूम है जैसे उनकी आंखों के सामने दृश्यमान हो। इक्ष्वाकु राजाओं के इतिहास को लेकर और जातश्री, सिद्ध नागार्जुन आदि के संबंध में अनेक नई बातें उन्होंने मुझे बताईं।

राहुल भाषावैज्ञानिक और दार्शनिक ही नहीं, महान इतिहासकार भी थे। पुरातत्वविद भी थे। नागार्जुनकोंडा के पास मिली ईंटों आदि की नाप-तोल के विवरण उन्होंने अपनी कापी में नोट कर लिए। वहाँ के विशेषज्ञों से कुछ जानकारी पाने की बात तो दूर, उन्होंने ही उन लोगों को बहुत जानकारी दी।

पास के पुल्लारेड्डीगूडेम नाम के आदिवासी खेड़े में हमने वह रात बिताई। लंबाडा लोगों ने हमारे लिए अपने नृत्य का प्रदर्शन भी किया। देर रात तक वे रूस के अपने अनुभवों, अपनी रूसी पत्नी के सुगुणों, अपने पुत्र की नटखट चेष्टाओं, हिमालय और तिब्बत की अपनी यात्राओं, यूरोप के भ्रमण, जेल जीवन के अनुभव, आदि को लेकर बिना थके बताते ही रहे और मैं बड़े मनोयोग से सुनता रहा।

राहुल एक महान लेखक थे। लगभग उनकी सारी रचनाएं हिंदी में ही हैं। वे जितने आहिस्ता-आहिस्ता बोलते थे, उतनी ही तेजी से लिखते थे। रात में बैठते तो बिना सोए सैकडों पृष्ठ लिख देते थे। दार्शनिक विमर्श, ऐतिहासिक विषय और पर्यटन पर ही नहीं, ऐतिहासिक उपन्यास आदि अनेक बहुमूल्य ग्रंथों का उन्होंने लेखन किया है।

सुप्रसिद्ध विद्वान स्वर्गीय डा. जार्ज रोरिक (निकोलस रोरिक के ज्येष्ठपुत्र) राहुल के निकट मित्र थे। 1945 में जब मैं कुलू की घाटी में उन पिता-पुत्र से मिलने गया था, तब मेरे पास ‘वोल्गा से गंगा’ की जो प्रति थी, उसे डा. जार्ज रोरिक ने मुझसे मांग ली थी। कहा था कि उनके पास जो प्रति थी, वह कहीं खो गई है। उन्होंने यह भी कहा था कि वह एक मूल्यवान पुस्तक है। राहुल जी के पांडित्य के प्रति भी जार्ज रोरिक बहुत सम्मान का भाव रखते थे।

नागार्जुनकोंडा में हम दोनों केवल तीन दिन रहे। वे तीन दिन और तीन रातें बिना एक मिनट के विराम के अनेक प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बीच बीत गईं।

राहुल जी से संबद्ध स्मृतियां रत्नदीपों के समान हैं। उसके बाद नागार्जुनकोंडा से वे उत्तर भारत चले गए और वहाँ से अपनी रूसी पत्नी और पुत्र के पास। उसके बाद उनसे मिलना नहीं हुआ। अब होगा भी नहीं। इसी सप्ताह दार्जिलिंग में उनका देहांत हो गया है।

राहुल जी का विचित्र स्वभाव था। विरोध, भय या आतंक से वे विचलित नहीं होते थे। भय को जीते हुए लोगों में से वे एक थे। जीवन की अमरता या शाश्वतता के प्रति उनमें आसक्ति नहीं थी। कहते थे, ‘क्षणभंगुरता को लेकर डरने की क्या जरूरत है?’ और यह भी कहते थे कि अमरता और शाश्वतता ये भी जीव के लिए एक प्रकार से बंधन ही हैं।

सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, वेदांत इन छह दर्शनों का उन्होंने जिस गहराई से अध्ययन किया था, उसी गहराई से उन्होंने पाश्चात्य दार्शनिकों- थेल्स, सोक्रटीस, प्लेटो और अरिस्टोटल से लेकर मार्क्स, एंजेल्स, ज्यां पाल सार्त्र तक का अध्ययन किया था।

राजनीति और जीवन शैली में भी राहुल जी वामपंथी थे, यथार्थवादी थे और भौतिकवादी थे। अतींद्रिय विषयों से अधिक इंद्रियग्राह्य विषयों की ओर उनका झुकाव अधिक था।

उस दिन नागार्जुनकोंडा से मुझसे विदा लेते समय उन्होंने कहा था, ‘हम लोग जल्दी ही फिर मिल सकते हैं।’

लेकिन हमारा मिलना फिर कभी नहीं हो सका। न जल्दी, न देर से।

 

अनुवादक :  जे.एल.रेड्डी, ब-1/93, जनकपुरी, नई दिल्ली-110058 मो.9818431620 email-jlreddy93@yahoo.com