बैसवाड़े में साहित्यिक बतरस
‘बतरस रायबरेली’ एक अभियान है जो बैसवाड़ा अंचल में कला, साहित्य, संस्कृति और सामाजिक चेतना के विस्तार के लिए है। यह हर साल एक तीन दिवसीय साहित्यिक सम्मिलन का है। इस साल 15-16-17 अक्टूबर को आयोजन हुआ। इसमें बंगाल से मृत्युंजय श्रीवास्तव, राज्यवर्धन, मंजु श्रीवास्तव, अल्पना नायक, सत्यप्रकाश तिवारी,पूजा पाठक और गुलनाज बेगम ने शिरकत की। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दीप अमन ने और दिल्ली विश्वविद्यालय से महिमा गुप्ता ने। शालिनी साहू और बैसवाड़ी से कई साहित्य अध्येताओं ने शिरकत की। लखनऊ से आए थे वीरेंद्र यादव, शिवमूर्ति, नलिन रंजन सिंह, अनिल त्रिपाठी और कथाकार अखिलेश। विशेष रूप से पहुंची थीं इटली में जन्मीं और लंदन विश्वविद्यालय में हिंदी की प्रोफेसर फ्रेंचेस्का ओर्सिनी।
पहले दिन का पहला पड़ाव था जायसी का जन्म स्थान जायस और वहां स्थापित जायसी शोध संस्थान। एक पड़ाव जायस से सटे मुंशीगंज शहीद स्मारक भी था, जिसका निर्माण 1921 में किसान आंदोलन में अंग्रेजों की गोली से हुए शहीदों की याद में किया गया है। रायबरेली में ‘हिंदी का साहित्यिक सांस्कृतिक परिदृश्य और रायबरेली’ विषय पर विचार रखे गए।
दूसरे दिन का पहला सत्र कविता पाठ और समीक्षा का था। ‘सांस्कृतिक संध्या’ का भी आयोजन हुआ। इस सत्र में बैसवाड़ा अंचल के युवा लोक कलाकार रवि सिंह, रोहित मिश्र, हंसराज, रमन,मानस चौधरी, संजय मिश्र, अर्पित और दिलीप कुमार ने लोकगीतों के अलावा ठुमरी, दादरा, चैती, कजरी, अवधी की गारी का गायन किया। तीसरे दिन का पहला सत्र ‘भविष्योन्मुखी बतरस’ पर केंद्रित था। इस सत्र में ओजस श्रीवास्तव,आशुतोष शर्मा, हिमांशु शेखर शुक्ला, सांची सिंह, संस्कृति सिंह, अनुभूति चंद्रा, अंवास्तु शुक्ला, अक्षत सिंह, सान्या सिंह, अमृता शुक्ला, अंश प्रताप सिंह, आशु प्रताप सिंह और आराध्या सिंह ने प्रस्तुतियां दीं। संचालन किया आराध्य श्रीवास्तव ने।
इस सम्मिलन का अंतिम सत्र कथाकार अखिलेश के रचना संसार पर केंद्रित था। उनकी रचनाओं पर नलिन रंजन सिंह, अनिल त्रिपाठी, शालिनी साहू, गुलनाज बेगम, पूजा पाठक, अल्पना नायक, मृत्युंजय श्रीवास्तव, शिवमूर्ति, फ्रेंचेस्का ओर्सिनी आदि ने अपने विद्वतापूर्ण विचार रखे। कथाकार अखिलेश ने अपनी रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डाला साथ ही श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर दिए। इस सत्र का संचालन कृष्ण कुमार श्रीवास्तव ने किया। धन्यवाद ज्ञापन गौरव अवस्थी और तेजस श्रीवास्तव ने दिया। कथाकार अखिलेश को बतरस सम्मान 2024 से नवाजा गया। फ्रेंचेस्का ओर्सिनी को भी बतरस विशिष्ट सम्मान से सम्मानित किया गया। यह आयोजन एक तरह से कला, संस्कृति और साहित्य का अनोखा संगम था।
प्रस्तुति :पूजा पाठक
‘रंगभूमि’ और ‘कर्बला’ की शताब्दी पर चर्चा
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग और आंतरिक गुणवत्ता आश्वासन प्रकोष्ठ के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित ‘कर्बला और रंगभूमि के सौ साल’ विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन 23 और 24 अक्टूबर को हुआ। स्वागत वक्तव्य में कार्यक्रम के संयोजक प्रो.आशुतोष पार्थेश्वर ने कहा, ‘यह आयोजन हिंदी विभाग के शताब्दी वर्ष में आयोजित हो रहा है। हमारे ऊपर अपने विभाग की समृद्ध परंपरा को जानने और समझने के साथ ही उसकी थाती को संभालने की महती जिम्मेदारी है। प्रेमचंद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुराछात्र रहे हैं।’ डॉ.शंभुनाथ ने बीज वक्तव्य रखा। उद्घाटन सत्र का संचालन प्रो. कुमार वीरेंद्र ने किया और अध्यक्षता विभागाध्यक्ष प्रो. लालसा यादव ने की।
पहले सत्र में प्रवीण शेखर ने यह सवाल उठाया कि आखिर प्रेमचंद ने ‘कर्बला’ नाटक में हिंदू पात्रों को क्यों रखा? उन्होंने कहा, ‘प्रेमचंद का ‘कर्बला’ नाटक बताता है कि हिंदू-मुस्लिम संस्कृतियों के एक साथ रहने में ही उनका हित है।’ इस सत्र में प्रो.रहमान मुसव्विर, प्रो.विवेक निराला और डॉ.जावेद आलम ने अपने वक्तव्य रखे। इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो. मुश्ताक अली ने ‘कर्बला’ को वीरता के लिए लिखा गया नाटक बताया और इसकी रंगमंचीयता पर प्रश्न उठाया।
दूसरा सत्र प्रसिद्ध कथाकार महेश कटारे की अध्यक्षता और डॉ. शशि कुमारी के संचालन में संपन्न हुआ। डॉ.अमिष वर्मा, डॉ.सुजीत कुमार सिंह और डॉ. अमृता प्रमुख वक्ता थे।
संगोष्ठी के अंतिम सत्र के अध्यक्ष थे प्रो भूरेलाल और इसका संचालन किया डॉ वीरेंद्र कुमार मीणा ने। इसमें प्रमुख वक्ता के रूप में डॉ. मोतीलाल, डॉ.महेंद्र कुशवाहा और डॉ. अजय कमार थे।
दूसरे दिन देश भर से आए शोधार्थियों एवं प्राध्यापकों ने शोध-पत्र पढ़े। दोपहर बाद के सत्र की अध्यक्षता प्रो. प्रणय कृष्ण ने की। इसमें वक्ता थे डॉ. दीनानाथ मौर्य, डॉ. सुरेश और प्रो. कुमार वीरेंद्र। समापन सत्र में विश्वविद्यालय के कुलसचिव आशीष खरे ने बताया कि उन्होंने प्रेमचंद को एक आम पाठक के रूप में मानसिक शांति के लिए पढ़ा है। वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. रामदेव शुक्ल ने कहा, ‘प्रेमचंद ने जनता को यह अहसास करा दिया कि उसे क्या करना है। प्रो. राजेंद्र कुमार ने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि हिंदी समाज में जितने लोकप्रिय तुलसीदास हैं उतने ही लोकप्रिय प्रेमचंद। प्रेमचंद ने गरीबी को ग्लोरीफाई नहीं किया बल्कि उनके यहां गरीबों के संघर्ष की कथा है।
डॉ. सूर्य नारायण ने रिपोर्ट रखा। संगोष्ठी के सभी सत्रों को मिलाकर कुल 33 वक्तव्य हुए और शोधार्थियों-प्राध्यापकों को मिलाकर 85 शोध-पत्र पढ़े गए। अंत में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के थियेटर समूह ‘बरगद कला मंच’ के विद्यार्थियों द्वारा प्रेमचंद की कहानी ‘सवा सेर गेहूं’ का नाट्य मंचन किया गया। इसका निर्देशन डॉ. हरिओम कुमार ने किया था।
प्रस्तुति :केतन यादव