शेखर जोशी, छायाकार : अमिताभ पंत

प्रसिद्ध कथाकार और कवि। प्रमुख रचनाएँ :कोशी का घटवार’, ‘मेरा पहाड़’, ‘एक पेड़ की याद

पिछली सदी के आठवें दशक के उत्तरार्ध में जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन के सिलसिले में भोपाल जाना हुआ तो वहां अपने दो प्रिय साहित्यकारों से पहली बार भेंट हुई। यह एक संयोग ही है कि दोनों आपस में एक दूसरे के नज़दीकी रिश्तेदार निकले। पहले व्यंग्यकार शरद जोशी, जिन्होंने अधिवेशन में चुटीला स्वागत भाषण दिया और ताल के किनारे अतीत में कल में उगने और वहां अब कल में बिकने का रूपक बांधा। दूसरे, प्रसिद्ध गीतकार नईम।

धर्मवीर भारती के इलाहाबाद से मुंबई जाने के बाद साप्ताहिक ‘धर्मयुग’ में एक गुणात्मक परिवर्तन आया और उसकी साज-सज्जा ही नहीं, अंतर्वस्तु भी बहुत आकर्षक और पठनीय हो चली। कहानीकारों, कवियों और चित्रकारों का एक नया समूह उनके रचनाकारों में शामिल हो गया। नईम साहब के गीतों से पहले-पहल ‘धर्मयुग’ से ही मैं परिचित हुआ था। उन गीतों में एक अनोखी नवीनता थी जो अपने परिवेश की आत्मीयता,प्रकृति चित्रण, मोहक बिंब विधान और भाषा की सहजता से पाठक को बांध लेती थी।

नईम के व्यक्तित्व में कहीं कोई पेच, कोई बनावट नहीं थी। जैसे उनके गीत वैसा ही सहज-सरल उनका व्यक्तित्व। एक-दो दिन के परिचय में ही मेरा मन उनसे मिल गया था। मैंने उनसे कभी इलाहाबाद आने का आग्रह किया तो उन्होंने कहा- ‘बहुत दिनों से सोच रहा हूँ वहां जाने के बारे में। अब जल्दी और जरूर आऊंगा।’

प्राय: दो माह बीते होंगे कि एक दिन सांझ ढले अचानक हाथ में छोटी अटैची और बगल में एक बंडल दबाए नईम साहब मेरे 100 नंबर केलूकर गंज वाले घर में आ पहुंचे।मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैंने लपक कर उनका स्वागत किया और इधर-उधर की बातें शुरू कर दीं। घर खोजने में कोई दिक्कत तो नहीं हुई, पूछने पर उन्होंने चौराहे पर किसी के द्वारा 100 नंबर का ठिकाना बता देने भर का जिक्र किया, अधिक कुछ नहीं। मेरी पत्नी भी साहित्य की अच्छी पाठिका रही। किसी अच्छी रचना को पढ़ लेने पर हम दोनों आपस में उसकी चर्चा करते और एक-दूसरे को उसे पढ़ने का आग्रह भी करते थे। मैंने उन्हें नईम के गीतों से परिचित कराया था। वह भी उनके आगमन पर प्रसन्न थी और रसोई में चाय बनाने की तैयारी कर रही थी। तभी बातों-बातों में नईम साहब ने पूछा- ‘यहीं कहीं नरेश मेहता भी रहते हैं?’ मैंने उन्हें बताया कि अश्क जी, भैरव प्रसाद गुप्त जी, नरेश जी, रामनाथ सुमन जी (ज्ञानरंजन के पिताश्री) और एन एस डी के प्रारंभिक बैच के स्नातक रंगकर्मी राम कपूर सभी आस-पास ही रहते हैं और आश्वस्त किया कि चाय के बाद घूमने चलेंगे तो उन्हें मुहल्ले के भूगोल से परिचित करा देंगे। चाय की समाप्ति पर मैं उन्हें बाहर घुमाने के इरादे से चलने लगा तो नईम साहब ने अपने सामान पर एक नज़र डाली। मुझे लगा उन्हें बाहरी कमरे में उसकी सुरक्षा की चिंता हो रही है। मैंने दोनों सामान उठाकर अंदर के कमरे में रख दिए। उनके चेहरे पर असमंजस का सा भाव मैंने लक्षित किया। लेकिन उसका स्पष्ट कारण मैं नहीं समझ पाया।

मेरे घर से कोई फर्लांग भर दूरी पर नरेश जी का घर था। मुझे मालूम था कि नरेश जी भोजन करने के बाद टहलते हुए खुल्दाबाद बाजार तक जाते हैं जहां मुहल्ले के कुछ सयाने लोगों के साथ देर रात तक उनकी गप-शप और ठहाके लगते हैं।अभी उनके घर पर ही मिल जाने की संभावना थी। इसलिए मैं नईम साहब को पहले उधर ही ले गया। गेट पर चूने की पुताई के ऊपर काले रंग से उनका नाम-पता लिखा था- ‘श्री नरेश मेहता, 99 लूकर गंज।’ नईम साहब बोले- ‘सौ नंबर वहां और निन्यानवे यहां, इतनी दूर?’ मैंने इसे नगर महापालिका की अव्यवस्था कह कर टाल दिया। गलियारे के बाद घर में प्रवेश किया तो घंटी की आवाज सुनकर महिमा जी कमरे से बाहर आईं। सांझ के झुट्पुटे में मेरे साथ आए व्यक्ति को वह तत्काल नहीं पहचान पाई थीं इसलिए हमें बरामदे में बनी बैठक में लिवा ले गईं। बैठक में बल्ब के प्रकाश में उन्होंने नईम साहब को देखा तो चौंक पड़ीं- ‘अरे नईम, तुम?’ फिर पूछा- ‘तुम्हारा सामान कहां है? तुम शेखर जी के यहां कैसे चले गए?’

किसी अपराधी बालक की तरह नईम साहब ने स्वयं को बेकसूर साबित करने के लिए बताया कि चौराहे पर रिक्शा रोककर उन्होंने लोगों से 99 नंबर का रास्ता पूछा और गृहस्वामी के साहित्यकार होने का हवाला दिया तो एक सज्जन ने बताया कि एक लेखक नजदीक ही 100 नंबर की कोठी में रहते हैं। यह सोचकर कि 100 नंबर की बगल में 99 नंबर भी होगा, वे मेरे घर पहुंच गए थे। मेरी गर्मजोशी को देखकर उन्हें यह बताने में संकोच हुआ होगा कि वे वास्तव में नरेश जी के मेहमान होकर आए थे। महिमा जी द्वारा मेरे घर से सामान ले आने के आग्रह का मैंने प्रतिवाद किया और कहा-‘आज तो नईम भाई मेरे मेहमान हैं। कल सुबह ही मैं उन्हें लेकर आपके घर हाजिर हो जाऊंगा। आज हम वहीं गपशप करेंगे।’

महिमा जी मान गईं और नरेश जी ने भी अपनी सहमति दे दी। दूसरे दिन मैं नईम साहब को निन्यानवे के फेर में पहुंचा आया। महिमा जी ने आग्रहपूर्वक दिन के खाने पर मुझे भी आमंत्रित किया था। नईम साहब की खातिर में बने दाल-बाटी तथा अन्य सुस्वादु मालवी पदार्थों का भोग लगाने का यह अवसर भला मैं क्यों चूकता!

महिमा जी ने एक दिन बताया कि नईम साहब की ससुराल नरेश जी के गृह नगर में है और श्रीमती नईम नरेश जी को भाई मानती हैं। यह रिश्ता इतना प्रगाढ़ है कि नईम साहब की बिटिया की शादी में नरेश जी मामा के नाते ‘भात’ का सगुन लेकर पहुंचे थे।

श्री नरेश मेहता अब दूसरी बार इलाहाबाद आए थे। इस बार एक स्वतंत्र लेखक के रूप में। उनकी एकमात्र पुस्तक ‘डूबते मस्तूल’ दिल्ली से प्रकाशित हो चुकी थी। वह अभी अविवाहित थे।

नरेश जी के पिछले इलाहाबाद प्रवास के संबंध में उपन्यासकार और संपादक श्री भैरवप्रसाद गुप्त बताते थे कि पहली बार वह आकाशवाणी में अधिकारी के रूप में नियुक्त होकर आए थे और बहुत ठाठ से रहते थे, कोट-पैंट और टाई में सजे हुए। हाथ में 555 सिगरेट का डिब्बा रहता था। कवि के रूप में उनकी ख्याति फैल चुकी थी। विचारों से वामपंथी प्रगतिशील धारा से जुड़े हुए। मुक्तिबोध और नेमिचंद जैन से उनकी निकटता का भी यह कारण हो सकता है।‘दूसरा सप्तक’ में प्रकाशित उनकी लंबी कविता ‘समय देवता’ ऐसी ही मन:स्थिति में लिखी गई होगी। आकाशवाणी में सरकारी नौकरी करते हुए उनकी वामपंथी गतिविधियां केंद्रीय सरकार को रास नहीं आईं और उन्हें पदमुक्त कर दिया गया। नरेश जी तब दिल्ली चले गए थे और संभवत: ‘इंटक’ (इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस) के बुलेटिन का संपादन करने लगे थे।

नरेश जी से मेरी पहली मुलाकात 1953 या 1954 में स्टडी सर्कल की एक मीटिंग में हुई थी। स्टडी सर्कल दिल्ली में कुछ प्रबुद्ध नए लेखकों का संगठन था जिससे भीष्म साहनी, निर्मल वर्मा, रामकुमार, कृष्ण वलदेव वैद, मनोहरश्याम जोशी, योगेश इत्यादि नए लेखक जुड़े हुए थे। मैं भी कभी-कभी अखबार में उसकी मीटिंग की सूचना पढ़कर वहां चला जाता था। एक मीटिंग के दौरान नरेश जी वहां आए थे और हम लोगों ने उनकी वैदिक कविताएं पहली बार उनके मुंह से सुनी थीं। चरैवेति-चरैवेति, अश्व की वल्गा लो थाम अब, दिख रहा मानसरोवर कूल।उषश सिरीज की कविताओं में उसका मनोहारी चित्रण किया गया है –‘नीलम वंशी से कुमकुम के स्वर गूंज रहे’ जैसे बिंब रचे गए थे। उस दिन नरेश जी की कविताओं को सुनकर मैं बहुत प्रभावित हुआ था। यहां यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि उन दिनों दिल्ली में कविता के क्षेत्र में दो राष्ट्रकवियों- मैथिलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह ‘दिनकर’- की उपस्थिति महत्वपूर्ण थी या फिर मंचीय कवियों- रामानंद दोषी, रामावतार त्यागी और देवराज दिनेश की। तब वहां रघुवीर सहाय थे न सर्वेश्वर और न ही श्रीकांत वर्मा। दिल्ली में रहते हुए नरेश जी ने ‘साहित्यकार’ नाम की पीले आवरण वाली एक लघु पत्रिका प्रारंभ की थी जिसमें मदन वात्स्यायन की एक अविस्मरणीय कविता थी-

‘बादलों के नीले, लाल, पीले पर्दों को हटा-हटाकर
जिसे ढूंढता है चांद
वह तारिका तो यहां छिपी है
ओ स्वस्ति की मां
तेरी याद आ रही है।’

इसके अलावा मनोहरश्याम जोशी के कुमाऊंनी शैली में लिखे गए कवित्त-

‘पक गए केले सुवा,पक गए केले
दुनिया को खेल हुए, दुख जो हमने झेले’

इसके अलावा और भी बहुत कुछ पठनीय सामग्री उस पत्रिका में थी। यह पत्रिका दीर्घजीवी नहीं हुई, लेकिन नरेश जी ने फिर जो दूसरी पत्रिका ‘कृति’ संपादित की उसने बड़ी प्रतिष्ठा अर्जित की। बाद में कवि श्रीकांत वर्मा भी दिल्ली आने पर इस पत्रिका से जुड़ गए थे।

इस पृष्ठभूमि के साथ नरेश जी स्वतंत्र लेखक के रूप में इलाहाबाद जैसे साहित्यिक नगर को अपना कार्यस्थल बनाने को वहां आ पहुंचे थे।

इस बार इलाहाबाद आने पर नरेश जी प्रगतिशील लेखकों की अपेक्षा ‘परिमल’ ग्रुप के अधिक निकट हो गए थे। उनके इलाहाबाद आगमन पर अश्क जी ने अपने घर पर एक बड़ी मीटिंग बुलवाई थी। उन्होंने नरेश जी से कहा कि यहां के लेखक अलग-अलग खेमों में बंटे हैं। तुम कुछ ऐसा करो कि सब लोग मिल-जुलकर रहें। नरेश जी उत्साह में थे। उन्होंने यह बीड़ा उठाने की ठान ली और दोनों विरोधी खेमों के लोग 5-खुसरो बाग पर उपस्थित हुए। सबने अपने-अपने गिले-शिकवे उजागर किए। याद आता है, लक्ष्मीकांत वर्मा ने लगभग रुआंसे स्वर में शिकायत की थी कि लोग उन्हें सीआईडी का आदमी कहकर बदनाम करते हैंजबकि वे जैसी कठिन जिंदगी जी रहे हैं, वही जानते हैं। नरेश जी की मध्यस्थता के बावजूद कोई समाधान नहीं निकला। अंतत: नरेश जी अपने पुराने प्रगतिशील पथ-बंधुओं का साथ छोड़कर ‘परिमल’ के सदस्य बन गए। बाद में अपने खिलंदड़े अंदाज़ में अश्क जी कहा करते थे- ‘यार, वह बहुत उत्साह में था। मैं तो जानता था कि कुछ नहीं बनेगा, सिर्फ उसका मज़ा ले रहा था।’

लीडर प्रेस में भारती भंडार के संचालक वाचस्पति पाठक जी ने नरेश जी की अनेक पांडुलिपियों के प्रकाशन के लिए प्रकाशक जुटाए। उनकी कई पुस्तकें एक साथ अलग-अलग प्रकाशन संस्थानों से प्रकाशित हो पाईं।उनका उपन्यास ‘वह पथ-बंधु था’ बहुत चर्चित रहा। कई काव्य संग्रह और खंड-काव्य भी प्रकाशित हुए।‘संशय की एक रात’ खंड-काव्य विशेष रूप से चर्चित हुआ। इसी दौरान नरेश जी का विवाह माया प्रेस में कार्यरत व्यास जी की सुपुत्री महिमा जी से हो गया। यह संबंध बनाने में शमशेर जी की प्रमुख भूमिका रही, क्योंकि वह भी एक अरसे तक माया प्रेस में काम करते रहे थे और व्यास जी के परिवार के साथ उनके मधुर संबंध थे।

इलाहाबाद में नरेश जी का प्रारंभिक दौर बड़ी आर्थिक कठिनाइयों के बीच गुजरा। महिमा जी एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थीं। यही नियमित आय का साधन था। उनका कहना था कि वेतन एक तो बहुत कम था और टुकड़ों-टुकड़ों में मिलता था। लेकिन नरेशजी की साधना सफल हुई, वह कवि और उपन्यासकार के रूप में स्थापित हुए। अन्य पुरस्कारों, सम्मानों के अलावा उन्हें प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

हमारा समाज लेखकों के प्रति कितना संवेदनशील है, इसका एक चिंतनीय उदाहरण नरेश जी के प्रति किए जा रहे व्यवहार से स्पष्ट होता है। जब नरेश जी को ज्ञानपीठ सम्मान दिया गया था, उसी कालखंड में इलाहाबाद की जी टी रोड पर एक फ्लाई ओवर का निर्माण हो रहा था। इलाहाबाद की नगर महापालिका ने अपने इस साहित्यकार के सम्मान में उस पुल का नामकरण ‘श्री नरेश मेहता सेतु’ कर उसके आधार स्थल पर इस आशय की एक प्रस्तर पट्टिका लगा दी थी। उस फ्लाई ओवर के निकट ही बाहुबली पूर्व सांसद अतीक अहमद का निवास स्थान है। आम लोगों के लिए श्री नरेश मेहता सेतु ‘अतीक का पुल’ के नाम से जाना जाता है। वह प्रस्तर पट्टिका आज भी अपनी जगह पर लगी होगी।

भैरव प्रसाद गुप्त और नरेश मेहता के आपसी व्यवहार में 36 का आंकड़ा था। मार्कण्डेय से भी उनका विशेष लगाव नहीं था। शैलेश मटियानी अवश्य उनके प्रिय थे। दोनों की आध्यात्मिक रुचि भी इसका कारण हो सकती है। मैं अवश्य भाग्यशाली था कि मेरे प्रति नरेश जी के मन में बहुत अनुराग था। इसका कारण हमारा रुचि-साम्य होना भी हो सकता है।

कुछ छोटे-छोटे प्रसंग हैं जो हमें एक-दूसरे के निकट ले आए थे। मैंने थोड़ा बहुत बांग्ला भाषा का ज्ञान अर्जित कर लिया था और यदा-कदा आर्थिक लाभ के लिए अनुवाद कार्य किया करता था। नरेश जी का भी बांग्ला भाषा के प्रति भावनात्मक लगाव था। वह कभी-कभी अपनी कविताओं में बांग्ला शब्दों का प्रयोग कर लिया करते थे। मैं उनकी कविताओं को चाव से पढ़ता था और कभी-कभी उन पर उनसे चर्चा भी कर लेता था।

मैंने लघु पत्रिकाओं का अच्छा-खासा संकलन कर रखा था जो अब महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के संग्रहालय में है। उस संकलन में नरेश जी द्वारा संपादित ‘साहित्यकार’ और ‘कृति’ पत्रिकाओं के प्रवेशांक भी शामिल थे।

एक बार नरेश जी की एक महिला मित्र, जो कहानी लेखिका भी थीं, कहीं बाहर से उनसे मिलने इलाहाबाद आई थीं। नरेश जी आकाशवाणी से उनकी कोई रचना प्रसारित करना चाह रहे थे। यह उनके प्रति आर्थिक लाभ की दृष्टि से अथवा इलाहाबाद के श्रोताओं से अपनी मित्र का परिचय कराने की इच्छा से हो सकता है। लेकिन वह लेखिका अपने साथ अपनी कोई रचना लेकर नहीं आई थी। संयोग से जब नरेश जी ने इस बात की चर्चा मुझसे की तो मैंने बताया कि मेरे पास ‘साहित्यकार’ पत्रिका का प्रवेशांक है जिसमें आपने उनकी रचना प्रकाशित की थी। नरेश जी बहुत प्रसन्न हुए और उनकी महिला मित्र ने आकाशवाणी केंद्र में जाकर अपनी कहानी रिकॉर्ड कराई थी। वह पत्रिका अंतत: मैंने उन्हें भेंट कर दी थी। वर्धा के संग्रहालय में ‘कृति’ का प्रवेशांक उपलब्ध हो सकता है लेकिन नरेश जी द्वारा संपादित पहली पत्रिका ‘साहित्यकार’ का पहला अंक नहीं।

इसी प्रकार जब नरेश जी श्रीपत राय जी के आग्रह पर सरस्वती प्रेस प्रकाशन के लिए ‘वाग्देवी’ काव्य संकलन का संपादन कर रहे थे तो मैंने उनसे आग्रह किया था कि वे इस काव्य संकलन में स्व. चंद्रकुंवर बर्त्वाल की कविताएँ भी शामिल करें तो उनके लिए यह नाम अपरिचित था। मैंने उन्हें शंभू प्रसाद बहुगुणा द्वारा लिखित पुस्तिका ‘हिमवंत का कवि’ उपलब्ध कराई तो वह उसे पढ़कर बहुत प्रभावित हुए।‘वाग्देवी’ पुस्तक प्रकाशित होने पर मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि चंद्रकुंवर बर्त्वाल की जिस कविता ‘यम’ को पढ़कर नरेश जी चकित रह गए थे वह कविता उस संकलन में नहीं थी, बल्कि ‘परा’ खंड में नरेश जी ने उनकी अन्य चौदह प्रकृति संबंधी कविताएं शामिल की थीं। शायद ‘परा’ शीर्षक के अंतर्गत उसे शामिल करना उन्हें उचित न लगा हो।

रेडियो की नौकरी छूटने के बाद संघर्ष के दिनों में इलाहाबाद के प्रगतिशील लेखकों- प्रो. प्रकाशचंद्र गुप्त, अमृत राय, उपेंद्रनाथ अश्कऔर भैरवप्रसाद गुप्त से उनका मोहभंग हो गया था। इस बार इलाहाबाद लौटने पर उनकी निकटता ‘परिमल’ ग्रुप के लोगों से हो गई थी।‘वाग्देवी’ काव्य संकलन में उन्होंने जहां ‘परिमल ग्रुप’ के सभी छोटे-बड़े, नए-पुराने कवियों को स्थान दिया था, वहां प्रगतिशील लेखकों के साथ दुष्यंत कुमार को छोड़ दिया था, जबकि तब तक दुष्यंत कवि रूप में अपना अच्छा स्थान बना चुके थे।

मैं अवश्य भाग्यशाली था कि मेरे प्रति नरेश जी के मन में बहुत अनुराग था। इसका कारण हमारा रुचि-साम्य होना भी हो सकता है।

मेरे पड़ोसी दास बाबू की कन्या रूमा बहुत अच्छा सितार बजाती थी। नरेश जी कभी-कभार अपनी बेटी बुलबुल (वान्या) को लेकर सितार सिखाने के लिए आते और जितनी देर बुलबुल सामने वाले मकान में सितार बजाती रहती, हम दोनों गपशप करते रहते। उन्हें हमारे पहाड़ी गांवों में रहने वाले लोगों की जीवन-शैली के बारे में जानकर कौतूहल होता और वह कभी ऐसे गांव जाकर रहने की कल्पना करते।

नरेश जी की अपनी अलग तरह की जीवन-शैली थी। वे पुस्तक की भूमिका अथवा पत्र समाप्त करने के पश्चात ‘इति नमस्कारन्ते’ अवश्य लिखते और स्वयं अपने नाम को कभी श्रीहीन नहीं रहने देते थे।

नरेश जी के स्वभाव में एक चुटीला विट रहता था, जो अक्सर मित्रों की संगत में उजागर होता था। कॉफी हाउस में परिमल के सदस्यों की टेबल पर हमारे ग्रुप के उपेंद्रनाथ अश्क जी की आवाजाही रहती थी। एक दिन अश्क जी हमारी टेबल से उठकर चुहलबाजी करने परिमल वालों की टेबल पर गए और उन्होंने बातों-बातों में अपना प्रिय जुमला ‘यार, मैं तो ग्रीब (गरीब) लेखक हूँ’ दुहरा दिया तो नरेश जी ने मेज थपथपा कर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के बाद गंभीरता से तर्जनी उठाकर कहा- ‘मिस्टर अश्क, वी विल आल एग्री दैट यू आर ए वेरी पुअर राइटर।’फिर जो ठहाका गूंजा तो कॉफी हाउस में बैठे हुए तमाम लोगों की नजरें परिमल वालों की टेबल की ओर उठ गईं। अश्क जी ज़िंदादिल आदमी थे, नरेश जी की पीठ पर थपकी देकर वापस हमारे गोल में आ गए।

नरेश जी की जीवन संगिनी महिमा जी लंबी काठी की और छरहरे बदन की सुंदर महिला थीं। यह उक्ति कि हर सफल आदमी के पीछे एक महिला का हाथ होता है, उनके संदर्भ में सटीक उतरती है। उनकी रुचियां कलात्मक थीं।याद आता है एक बार इलाहाबाद में एक नाटक में उन्होंने स्त्री-पात्र की भूमिका भी निभाई थी। यूं वह बहुत स्नेहिल, कर्मठ और धैर्यवान घरेलू महिला हैं।

मेहता दंपति के जीवन में एक भयंकर त्रासदी घटित हुई थी। उनका जवान पुत्र ईशान, जो मेरे ज्येष्ठ पुत्र प्रतुल का समवयस्क और मित्र था, विवाह के पश्चात साल भर के अंदर ही सड़क दुर्घटना में मारा गया था। नरेश जी तब उज्जैन या भोपाल में रहने लगे थे। एक दिन हमें पता चला कि नरेश जी और महिमाजी अपने लूकर गंज वाले निवास में आए हुए हैं तो हम पति-पत्नी उनसे मिलने और अपनी संवेदना जताने के लिए उनके घर की ओर चले। हम मन ही मन बहुत असमंजस में थे कि कैसे उनका सामना करेंगे। शाम का समय था। हमने दरवाजे पर पहुंच कर घंटी बजाई तो महिमा जी बाहर निकलीं और हमें बरामदे मेंबैठाकर उन्होंने कमरे के अंदर जाकर आवाज़ दी- ‘वंदना, देखो तो कौन आया है? जब बहू वंदना बाहर आई तो उन्होंने हमारा परिचय देकर कहा- ‘ये बाबुल के दोस्त, प्रतुल के माता-पिता हैं।’मेरा मन रोने-रोने को हो रहा था, लेकिन उनके धैर्य को देखकर मैं सहज हो पाया।

महिमा जी चाहती थीं कि वे किसी योग्य पात्र से वंदना का पुनर्विवाह कर दें और बेटी की तरह उसे विदा करें, लेकिन वह सुशीला इन्हें छोड़कर जाने को तैयार नहीं थी।

नरेश जी की मृत्यु के बाद से महिमा जी और वंदना भोपाल में ही रहने लगे हैं। साल में एक बार नवंबर-दिसंबर में वह इलाहाबाद आती थी तो हम उनसे मिलने ज़रूर जाते थे। अब हमारा भी इलाहाबाद से नाता टूट गया है।

हम भाग्यशाली रहे कि जीवन में ऐसे लोगों का स्नेह हमें मिलता रहा।

 

प्रस्तुति: संजय जोशी– 7827428961/ ईमेल : thegroup.jsm@gmail.com