प्रमुख कवि तथा कला समीक्षक

शैलेंद्र से मेरी भेंट कभी नहीं हुई। पर उनके गीत, वह तो उनके सच्चे प्रतिनिधि हैं। शैलेंद्र का कवि-मन, उनका इंसानी रूप, उनकी ऊर्जा, उनका सोचना, सब तो हैं वहाँ। उनके इस सोचने में, मानो उनका बिंबों में, दृश्यों में, बिंबों में सोचना शामिल है। और इमेजिज में उनके सोचने की प्रतिभा, उनके गीतों के फिल्मांकन में बहुत काम आई है – ऐसा ही तो लगता है। ज़ाहिर है कि फिल्मों के लिए गीत लिखनेवालों को सिचुएशन तो निर्देशक या संगीतकार द्वारा सुझाई ही जाती है, पर उस सिचुएशन से संबंधित बिंब मालाएँ गीत में गीतकार को ही चुननी पड़ती हैं। ‘खोया खोया चाँद खुला आसमान’ अपने आपमें कितना सुंदर बिंब है। शैलेंद्र की यह पंक्ति जब पढ़ी- ‘मैं अलस भोर की हल्की रोशनी हूँ’ तो सहसा शमशेर बहादुर सिंह की एक कविता की पहली पंक्ति भी मुझे याद आई, ‘प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे…’ यह मैं किसी तुलना के लिए नही लिख रहा- न ही इसलिए कि दोनों को साथ रखकर दोनों का वजन मांपू। यह तो इसीलिए लिख रहा हूँ कि उनकी रचनाएँ साहित्यिक स्मृतियाँ जगाने की क्षमता भी रखती हैं। यह उनके साहित्यिक तत्व के कारण ही तो संभव हुआ है।

शैलेंद्र के गीत जब भी सुनता हूँ- और वे तो प्रायः रोज ही किसी ओर से, किसी माध्यम से, सुनाई पड़ते ही हैं- उनकी सादगी, उनके मर्म और उनकी गहराई से मुग्ध होता हूँ। यह भी कितनी सुंदर बात है कि वे चाहे मुकेश की आवाज़ में सुन पड़ें, या लता जी की, या किसी और गायक की – उनके सुर, उन्हें और मधुर तो बना ही देते हैं। शैलेंद्र के सुर, गायकों के सुरों से मिलकर और गहराई प्राप्त कर लेते हैं। शैलेंद्र के गीत टिके हुए हैं, बरसों बरस बाद भी, और आगे भी टिके रहेंगे। यह मानने के पर्याप्त कारण, और सबूत, हम सबके सामने हैं। वे अपने आप में तात्विक हैं और ‘साहित्यिक’ मानकों पर भी वे खरे उतरते हैं, इसमें भला क्या संदेह। प्रायः उनमें कोई एक टेक है, जो एक गूंज-सी भरती है, भरती चली जाती है। ‘आवारा हूँ, गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ’, या ‘सजन रे झूठ मत बोलो’ या ‘रमैय्या वस्ता वय्या’ या ‘खोया खोया चाँद खुला आसमान’ हो, चाहे और कोई गीत – उनकी टेक कब भूली है, कब वह हमसे बिसरी है! नहीं, कभी नहीं!

जब शैलेंद्र के गीत, कलकत्ता में, हमारे आसपास, हमारे घर-पड़ोस में, हमारे कानों में बजने शुरू हुए थे तो मैं 13-14 साल का था – 1953-54 में। यह पता भी नहीं था कि किसके लिखे हुए हैं। तब पता करने की बात सूझती भी नहीं थी। और पसंद आनेवाले गीतों के बारे में-फ़िल्मी गीतों के बारे में – मन में कहीं यह बात भी रहती थी कि अरे, वे तो फ़िल्म के हैं, भले हमें अच्छे लग रहे हैं। उन्हें किसी और रूप में विश्लेषित करना है, किया जा सकता है, इसका भान भी नहीं था। और होता भी तो, तब ऐसी क्षमता कहाँ थी कि हम उनके दार्शनिक अंदाज को, तात्विक रूप को, उनके समूचे मर्म को, कुछ गहराई में जाकर जांचते-परखते!

धरती कहे पुकार के, बीज बिछा ले प्यार के, मौसम बीता जाए’ जैसी पंक्तियाँ आज भी एक रोमांच पैदा करती हैं। इन सरल, सीधे, अचूक शब्दों की गहराई, उनकी धुन, मन में बहुत गहरे उतर जाती है। शैलेंद्र ने सचमुच एक बार फिर यह सिद्ध किया है कि सरल शब्दों में भी गहरी से गहरी बात कही जा सकती है। इस अर्थ में वे भक्ति काल के कवियों की परंपरा से सहज ही जुड़ जाते हैं।

उन पर कुछ अधिक चर्चा, साहित्यिक मानकों वाली हमारी चर्चा तो मेरे दिल्ली आने के बाद ही शुरू हुई- साठ के दशक में। मित्रों में अशोक सेकसरिया से, विजय मोहन सिंह से, विष्णु खरे से, रंगकर्मी मित्रों से, तब फ़िल्मों पर भी कुछ ‘अंतरंग’ ढंग से बातें होने लगीं, या कहूँ सुनने को मिलने लगीं। फिर ‘तीसरी कसम’ आ गई, साठ के दशक के मध्य में। इसके साथ तो शैलेंद्र सचमुच मेरे अत्यंत प्रिय हो उठे।

एक सुखद संयोग भी हुआ। 1967 में मैंने विवाह किया ज्योति अहलूवालिया से। उनका परिवार भी कलकत्ता का था। उनकी बड़ी बहन रूबी दी, शिक्षायतन स्कूल की प्रिंसिपल थी। स्कूल के कंपाउंड में ही उनका फ्लैट था। वे स्कूल के छात्रावास की वार्डन भी थीं। विवाह वहीं संपन्न हुआ, और स्कूल के छात्रावास की लड़कियों ने ज्योति को, मुझे (शायद हमारी रुचियों को पहचानते हुए) ‘तीसरी कसम’ का लांग प्लेइंग रिकर्ड भेंट किया, ग्रामोफ़ोन के साथ। उसे हमने शुरू में तो कई महीनों तक प्रायः रोज ही सुना। मित्र, दिल्ली के हमारे आवास में आते तो उनका आग्रह भी यही होता- ‘तीसरी कसम’ का रिकर्ड लगाओ। अशोक सेकसरिया ने उसे कई बार सुना होगा। मित्र दिनेश ठाकुर ने भी अनेकों बार। (तब तक वह मुंबई नहीं गए थे, जहाँ जाकर उन्होंने ‘रजनी गंधा’, और ‘अनुभव’ जैसी फ़िल्मों से बहुत नाम कमाया। ‘पृथ्वी थियेटर’ में शशि कपूर, संजना कपूर से समर्थन-सहयोग पाकर ढेरों नाटक ‘पृथ्वी’ के सभागार में मंचित किए, और एक रंगकर्मी के रूप में अपने ग्रुप ‘अंक’ सहित प्रतिष्ठित-समादृत हुए।) उन्हीं दिनों तब बिलकुल युवा लेखक-पत्रकार देवेंद्र मोहन (जो अब मुंबई में हैं, और जिनकी कविताओं का एक बहुत अच्छा संग्रह ‘किस्सागोई’ हाल ही में आया है) ग्रेटर कैलाश में हमारे घर से कुछ ही दूर रहते थे, अकसर घर आते थे। उन्होंने भी यह रिकर्ड सुना ही था। संयोग देखिए, मुंबई में अनंतर उनकी मैत्री शैलेंद्र के बेटे शैली शैलेंद्र से हुई।

जब भी किसी से कोई अंतरंग, आत्मीय संबंध स्थापित होता है, तो वे सब चीजें भी आगे चलकर याद आती हैं, जिनका साझा हमने कभी किया था।और यह तो न भुलानेवाली याद है कि जब ‘रेणु’ जी ग्रेटर कैलाश के हमारे घर में एक शाम भोजन के लिए आए, सत्तर के दशक के शुरुआती वर्षों में तो, उनके साथ भी ‘तीसरी कसम’ का यह रिकर्ड सुना गया था। इसी कड़ी में, आज बहुत-सी बातें, और यादें बासु दा (बासु भट्टाचार्य) की भी आ रही हैं, जिनसे मुंबई में, दिनेश ठाकुर के यहाँ नब्बे के दशक में, हमारी मुलाक़ात, और फिर मैत्री, का एक कारण ‘तीसरी कसम’ पर चर्चा भी बनी थी। अगले ही दिन बासु दा ने मुझे अपने यहाँ ‘माछ भात’ के लिए आमंत्रित किया। वह एक न भूलने वाली दोपहर साबित हुई।

उस दोपहरी की ‘तीसरी कसम’ चर्चा, रेणु चर्चा, शैलेंद्र चर्चा ने हमें एक-दूसरे का आत्मीय बना दिया। यह बात नब्बे के दशक की है। फिर तो वह दिल्ली आने पर हमारे घर भी ज़रूर आते। एक बार तो रात को रहे भी। वे सारे विवरण-बातचीत के- भूल गया हूँ। पर, ‘तीसरी कसम’ बनने-बनाने की प्रक्रिया की बातें उन्होंने बताई थीं।

यह भी बताया था कि किस तरह राजकपूर एक रात उनके यहाँ आए थे – यह कहने कि गाड़ीवान की भूमिका वह करना चाहते हैं। हर हालत में। शैलेंद्र के समर्पण भाव की चर्चा उन्होंने की थी। जब ‘तीसरी कसम’ बन रही थी – रिलीज हुई भी तो हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में – ‘धर्मयुग’ समेत बहुत कुछ लिखा गया था। उस सबकी याद हम दोनों ने फिर की। बासु दा को बताया था कि ‘रेणु’ का तो मैं एक बड़ा प्रशंसक हमेशा से रहा हूँ, यह भी कि उनसे मेरी भेंट कलकत्ता में हुई थी.

तब मैं कोई बीस बरस का था। फिर दिल्ली में कुछेक बार भेंट हुई। रेणु’ घर भी आए। ‘तीसरी कसम’ के लांग प्लेइंग रिकर्ड के बारे में उन्हें बताना ही था। देर तक हम ‘तीसरी कसम’ के गीतों की भी चर्चा करते रहे। बासु दा का बांद्रा वाला वह घर याद आता रहता है, जहाँ से समुद्र दिखता था। वहाँ बिताई शामें, दोपहरें याद आती हैं। बासु दा का निजी पुस्तक संग्रह भी याद आता है जिसमें अंग्रेजी, बांग्ला, हिंदी की सैकड़ों पुस्तकें थीं साहित्य समेत, विविध विषयों की।

आज सोचकर देखता हूँ तो लगता है कभी-कभी कोई चीज़ कैसे हमारे जीवन में एक केंद्रीय उपस्थिति हासिल कर लेती है, उसके इर्द-गिर्द न जाने कितनी स्मृतियाँ और कड़ियाँ हम बुन पाते हैं। विवाह के अवसर पर मिला ग्रामोफोन और ‘तीसरी कसम’ का लांग प्लेइंग रिकर्ड हमारे जीवन की एक केंद्रीय, अनमोल वस्तु ही तो साबित हुई। दोनों बेटियों-अंकिता, वर्षिता-ने भी बड़े होकर उसे सुना। संभाला। हमारे छोटे-से फ्लैट में रखा हुआ वह ग्रामोफ़ोन, और ‘तीसरी कसम’ का वह रिकर्ड बरसों-बरस हमारे घर की शोभा रहा। हाल ही में प्रकाशित अपनी चर्चित किताब ‘याद नामा’ में विनोद भारद्वाज ने इसका जिक्र किया है। जब मैंने विवाह किया तो फ्रीलांसर ही था (मुख्य रूप से ‘दिनमान’ के लिए लिखा करता था, 1965 से 1968 तक। बाक़ायदा उसे ज्वाइन  1969 की जनवरी में किया था। ‘अज्ञेय’ उसके संपादक थे। उन्हीं की इच्छा थी कि मैं स्थायी रूप से ‘दिनमान’ के संपादक मंडल में शामिल हो जाऊँ। बहरहाल, ‘तीसरी कसम’ के रिकर्ड के इर्द-गिर्द, ‘रेणु’ और बासु दा से संबंधित स्मृतियाँ तो जुड़ीं ही, शैलेंद्र को भी, एक अलग तरह से, मुझसे जोड़ दिया।

इसका अफसोस है कि शैलेंद्र से मेरी भेंट कभी नहीं हुई। पर, उनके गीत, वह तो उनके सच्चे प्रतिनिधि हैं। शैलेंद्र का कवि-मन, उनका इंसानी रूप, उनकी ऊर्जा, उनका सोचना, सब तो हैं वहाँ। उनके इस सोचने में, मानों उनका बिंबों में, दृश्यों में, बिंबों में सोचना शामिल है। और इमेजिज में उनके सोचने की प्रतिभा, उनके गीतों के फिल्मांकन में बहुत काम आई है – ऐसा ही तो लगता है। ज़ाहिर है कि फिल्मों के लिए गीत लिखनेवालों को सिचुएशन तो निर्देशक या संगीतकार द्वारा सुझाई ही जाती है, पर, उस सिचुएशन से संबंधित बिंब मालाएँ गीत में गीतकार को ही, चुननी पड़ती हैं। ‘खोया खोया चाँद खुला आसमान’ अपने आपमें कितना सुंदर बिंब है। शैलेंद्र की यह पंक्ति जब पढ़ी- ‘मैं अलस भोर की हल्की रोशनी हूँ’ तो सहसा शमशेर बहादुर सिंह की एक कविता की पहली पंक्ति भी मुझे याद आई, ‘प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे’। यह मैं किसी तुलना के लिए नही लिख रहा- न ही इसलिए कि दोनों को साथ रखकर दोनों का वजन मांपू। यह तो इसीलिए लिख रहा हूँ कि उनकी रचनाएँ साहित्यिक स्मृतियाँ जगाने की क्षमता भी रखती हैं। यह उनके साहित्यिक तत्व के कारण ही तो संभव हुआ है।

शैलेंद्र पर कोई बात उनकी पंक्ति ‘हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’ के बिना नहीं पूरी होती रही है। नागार्जुन, रघुवीर सहाय, जैसे कवियों की धारा से, जो सामाजिकराजनीतिक शोषण और अन्याय के विरुद्ध ‘लड़ने’ वाली धारा ही है, से शैलेंद्र अनायास जुड़ते हैं। यह अकारण नहीं है कि स्वयं नागार्जुन ने उन पर लिखा है।

यह भी कुछ गौर करने वाली बात है कि अन्याय और शोषण के विरुद्ध खड़े होने के बीज को, अपने काव्य का एक केंद्रीय बीज मानने-पोसने वाले शैलेंद्र, के मन में रोमांस का, रोमांटिक भावनाओं का, बीज भी हरदम अंकुरित होते, फलते-फूलते, दिखाई पड़ा है। इन दोनों बीजों से उगे वृक्ष का नाम ही है शैलेंद्र। ‘आग’, ‘बरसात’, ‘आवारा’, ‘परख’ आदि के गीत अगर इसके प्रमाण हैं, तो साहित्यिक शर्तों पर ही ‘तीसरी कसम’ का निर्माण, और उसके गीत, इस प्रमाण को न केवल और पुख्ता करते हैं, शैलेंद्र के कोमल तत्वों और भावों की अचूक पहचान का – रोमांस के कोमल तत्वों को धारण करने, और संभाल सकने की ताकत का-भरपूर एहसास कराते हैं।

 

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